Sunday, October 22, 2023

संग्रहालय विज्ञान

संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्च, छत्तीसगढ़ की शोध पत्रिका ‘कोसल‘ की जिक्र पहले किया है। कोसल के अंक-10, वर्ष 2017 में पुस्तक समीक्षा- ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘ मेरी पुस्तिका संबंधी है। समीक्षा, वरिष्ठ संग्रहालय विज्ञानी अशोक तिवारी जी ने लिखी है,यहां प्रस्तुत है-

संग्रहालय विज्ञान का परिचय 

लेखक - राहुल कुमार सिंह 
प्रकाशक - छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी, रायपुर, 2017 
मुद्रक - महावीर ऑफसेट, रायपुर, छत्तीसगढ़ 
पृष्ठ संख्या - 59 (श्वेत - श्याम चित्र-27) मूल्य-50 रूपये ISBN-978-93-82313-26-7 

‘‘किसी देश अथवा काल की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक, जड़ या चेतन वस्तुओं का संग्रह, संग्रहालय में हो सकता है। ये वस्तुएं जहां भूत व वर्तमान संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं वहीं सांस्कृतिक अभिरूचि की परिचायक भी होती हैं। संग्रहालय एक आदर्श एवं सर्वांग संपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र होता है। संग्रहालय का प्रमुख कार्य व उद्देश्य संस्कृति की पहिचान है। संस्कृति जो मानव की अस्मिता, अस्तित्व व उपलब्धि का रेखांकन होती है।‘‘

उपरोक्त वाक्य ‘‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘‘ शीर्षक पुस्तक के प्रथम अध्याय के अंश हैं, जिसमें संग्रहालयों से संबंधित तमाम किस्म की जानकारियों को समेट कर उपलब्ध कराने की उद्देश्यपूर्ण और सुन्दर कोशिश की गई है। संग्रहालय विज्ञान पर हिन्दी में बहुत सारी पुस्तकें तो नहीं लिखी गई है, और खासकार ऐसा हैण्डबुक जैसी छोटी पुस्तिका, का तो लगभग अभाव सा है। लेखक श्री राहुल कुमार सिंह ने इस पुस्तक में संग्रहालयों के उद्देश्य एवं कार्य, संग्रहण व अधिग्रहण, भवन, पंजीकरण, प्रदर्शन, संरक्षण, सुरक्षा आदि विविध अध्यायों में संग्रहालय प्रबंधन से संबंधित विविध आयामों को जिस तरह से वर्णित किया है, वह इस विषय को पढ़ने वाले विद्यार्थियों तथा संग्रहालयों में कार्य करने वाले कर्मियों के लिए संक्षेप में सभी बातों को दृष्टिगोचर करता है। संग्रहालय प्रबंधन की विधा यूं तो संग्रहालय में कार्य करने वाला व्यक्ति, खुद काम करते हुए अपने अनुभव से रचता है किन्तु यदि इस पुस्तक में लिखी गई बातों को भी संग्रहालय कर्मी संदर्भित करते हुए कार्य करे तो निश्चित ही उसके प्रबंधन में अधिक गुणवत्ता आयेगी। 

छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी जिन्होंने इसका प्रकाशन किया है और श्री राहुल कुमार सिंह जिन्होंने इसे लिखा है, दोनों ही इस हेतु बधाई के पात्र हैं। यद्यपि इस पुस्तक में संग्रहालय विज्ञान के विविध आयामों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है एवं जो बातें कही गई हैं वे पुरातात्विक संग्रहालयों से अधिक संबंधित हैं, तथापि लेखक ने अन्य विशेषीकृत संग्रहालयों जिसमें मुक्ताकाश संग्रहालय भी सम्मिलित हैं, को भी स्पर्श की सार्थक कोशिश की है। लेखक ने जहां संग्रहालय को संस्कृति पर ज्ञान का भण्डार निरूपित किया है, वहीं इस ज्ञान को दर्शकों तक संप्रेषित करने के तरीकों का भी बखूबी उल्लेख किया है। हालाकि वर्चुअल म्यूजियम, इन्टरेक्टिव डिस्पले, रेडियो टूर, नव संग्रहालयवाद तथा संग्रहालय विज्ञान से संबंधित आधुनिक तकनीक नवाचार आदि पर विस्तारण नहीं किया गया है तथापि इस क्षेत्र में थोड़ा सा झरोखा को लेखक ने खोला ही है। अपेक्षा है जब इसका दूसरा संस्करण आएगा तो लेखक इन सभी के साथ संग्रहालय शिक्षा, संग्रहालय आऊटरीच तथा संस्कृतियों के ‘इन सीटू‘ परिरक्षण पर भी प्रकाश डालेंगे। 

पुस्तक के अंत में संलग्न परिशिष्ट छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित संग्रहालयों के बारे में परिचयात्मक जानकारी उपलब्ध कराता है। छत्तीसगढ़ के लिए यह गौरव की बात है कि यहां पर आज से 140 वर्ष से भी पहले एक संग्रहालय की स्थापना की गई थी, तब शायद पूरे देश में एक दर्जन संग्रहालय नहीं रहे होंगे। पुस्तक में ‘महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय‘ के नाम से इस संग्रहालय के बारे में पढ़ना एक सुखद अनुभूति है। छत्तीसगढ़ में पुरातात्त्विक उत्खनन स्थलों पर विकसित स्थल संग्रहालय तथा रायपुर शहर में लगभग 200 एकड़ में निर्मित किये जा रहे ‘पुरखौती मुक्तांगन‘ नामक मुक्ताकाश संग्रहालय के साथ ही राज्य के अनेक जिला मुख्यालयों और अन्य स्थानों पर स्थापित किये गये संग्रहालयों पर उपलब्ध कराई गई जानकारी इस पुस्तक की महत्ता में अभिवृद्धि करता है। अपेक्षा है कि पाठक इस पुस्तक से संग्रहालय विज्ञान पर संक्षिप्त किन्तु सटीक और समेकित जानकारी प्राप्त कर सकेंगे । 

-अशोक तिवारी, रायपुर 
(इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सेवानिवृत्त अधिकारी)

Saturday, October 21, 2023

बेलदार सिवनी

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ पुरातत्व, संस्कृति विभाग के अंतर्गत, संचालनालय सस्कृति एवं पुरातत्व के रूप में आया। संचालनालय द्वारा पत्रिका ‘बिहनिया‘ का प्रकाशन आरंभ हुआ, जो मुख्यतः संस्कृति से संबंधित थी, वहीं शोध पत्रिका ‘कोसल‘ का भी प्रकाशन किया जाने लगा, जो पुरातत्व की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका के रूप में स्थापित हुई। विभागीय दायित्वों के निर्वाह के क्रम में शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक के रूप में मेरा नाम होता था, यह मुख्यतः विभागीय उत्तरदायित्व की दृष्टि से होता था। पत्रिका के संपादन में प्रो. ए.एल. श्रीवास्तव, प्रो. लक्ष्मीशंकर निगम और श्री जी.एल. रायकवार जैसे विद्वानों की मुख्य भूमिका होती थी।

यह भूमिका शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के अंक-10, वर्ष 2017 में प्रकाशित दो प्रविष्टियों के संदर्भ में है। पत्रिका के इस अंक के संपादन में उक्तानुसार नाम हैं, जिसमें पुस्तक समीक्षा- ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘ मेरी पुस्तिका संबंधी है तथा इसी अंक में एक अन्य लेख मेरे द्वारा किए गए ग्राम बेलदार सिवनी के स्थल निरीक्षण से संबंधित है। प्रसंगवश ‘बेलदार‘ में मेरी जिज्ञासा लंबे समय से रही है। कुछ गांवों में बेलदारपारा तो है, मगर वहां बेलदार समुदाय का कोई नहीं। यह भी जानकारी मिलती है कि बेलदार, तालाब निर्माण के विशेषज्ञ, राजमिस्त्री होते हैं और इन्हीं में एक वर्ग सैनिेक-योद्धा भी है। सिरपुर में बेलदार समाज के आराध्य मंदिर होने की भी जानकारी मिलती है। बहरहाल, यहां इस स्थल निरीक्षण का प्रतिवेदन, जिसके आधार पर लेख रूप में प्रस्तुति के लिए श्री रायकवार का सहयोग मिला-

बेलदार सिवनी (तिल्दा नेवरा) से ज्ञात प्रतिमाएं
राहुल कुमार सिंह 

छत्तीसगढ़ में अनेक स्थलों से संयोग अथवा आकस्मिक रूप से प्राप्त होने वाले पुरावशेषों के वर्ग में आहत सिक्कों से लेकर विभिन्न राजवशों के सिक्के, मृणमयी मुद्रायें, ताम्रपत्र तथा प्रतिमायें आदि पुरावशेष गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से प्राप्त हुये हैं। विगत वर्षों में छत्तीसगढ़ में सिरपुर, मल्हार, महेशपुर, लीलर, सिली पचराही, तरीघाट, मदकूद्वीप, डमरू, राजिम, आदि स्थलों से सम्पन्न उत्खनन कार्य से अज्ञात तथा दुर्लभ प्रकार के अनेकानेक पुरावशेषों की उपलब्धि हुई है जिनसे प्रदेश का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास समृद्ध हुआ है। 

छत्तीसगढ़ के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुरास्थल मल्हार (बिलासपुर) से कृषकों को भू-सतह से आकस्मिक रूप से विभिन्न प्रकार के लघु पुरावशेष प्राप्त होते रहे हैं। इस ग्राम के एक कृषक श्री गुलाब सिंह ठाकुर द्वारा भू-सतह से संग्रहीत विविध प्रकार के लघु पुरावशेषों का अच्छा संग्रह किया गया है। इनमें से कुछ विशिष्ट अवशेषों का विद्वानों के द्वारा अध्ययन कर शोध ग्रंथों में प्रकाशन भी किया गया है। प्राचीन बसाहटों के भू-सतह से लघु पुरावशेषों का संग्रहण धैर्यपूर्ण तथा उबाऊ शौक के साथ-साथ एक कला भी है जिसके लिए रूचिसम्पन्न होना एक अनिवार्य गुण है। पुरावशेषों के महत्व से परिचित तथा खोज के क्षेत्र में समर्पित व्यक्ति अपने धैर्यपूर्ण परिश्रम तथा लगन से संकलित सिक्कों, अभिलिखित ठीकरों, पकी मिट्टी से निर्मित खिलौनों, मुहरों तथा प्रतिमा फलकों के माध्यम से संबंधित स्थल के विस्मृत वैभव को उजागर करने इतिहासकारों तथा पुराविदों को स्थल के अध्ययन, प्रकाशन तथा पुरातत्त्वीय कार्य के लिये उत्प्रेरित करते हैं। कालान्तर में मल्हार (बिलासपुर) में उत्खनन का सबसे ठोस आधार भू-सतह से विभिन्न प्रकार के प्रचुर पुरावशेषों की उपलब्धि रही है। 

गैर पुरातत्त्वीय स्थलों में उपलब्ध होने वाले प्राचीन लघु प्रतिमाओं की दृष्टि से रायपुर जिले के ग्राम हीरापुर (रायपुर नगर का विस्तारित आवासीय क्षेत्र) तथा ग्राम बेलदार-सिवनी (तिल्दा नेवरा) उल्लेखनीय है। उपरोक्त दोनों स्थलों के प्रतिमाओं की कलाशैली तथा प्राप्त होने की स्थिति में पर्याप्त समानताएं है। वर्ष 2010 में हीरापुर में नाली निर्माण के लिए की जा रही खुदाई के समय एक कच्चे मकान से संलग्न भाग पर लगभग पांच फीट की गहराई में मजदूरों को लघु आकार की कुछ प्रतिमाएं दबी हुई स्थिति में प्राप्त हुई थीं। इन प्रतिमाओं में कार्तिकेय, एकमुख लिंग, लज्जागौरी तथा विष्णु प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। ये प्रतिमाएं चारों ओर से कोर कर निर्मित की गई हैं। इन पुरावशेषों को कुछ समय तक एक स्थानीय मंदिर में पूजा उपासना हेतु संग्रह कर रखा गया था। स्थानीय प्रशासन के सहयोग से इन्हें संग्रहालय हेतु अवाप्त कर लिया गया है। 

ग्राम बेलदार सिवनी के चतुर्दिक दस किलोमीटर के क्षेत्र में ऐतिहासिक स्मारक स्थल नहीं है। तथापि ग्राम में स्थित आधुनिक शिव मंदिर में पूजित प्राचीन शिवलिंग तथा अन्य क्षरितप्राय प्रतिमाखंड रखे हुये हैं। ग्राम में प्रवेश करते ही बायीं ओर एक प्राचीन सरोवर है जिसके चारों ओर पक्का घाट निर्मित है। अनुमानतः यह सरोवर कलचुरि-मराठा काल में निर्मित है। विगत वर्ष स्थानीय सरपच श्री विजय वर्मा के माध्यम से आवासीय उद्देश्य से निर्माण कार्य के समय प्राचीन प्रतिभाए उपलब्ध होने की जानकारी प्राप्त होने पर विभाग के सेवानिवृत्त उप संचालक श्री जी. एल रायकवार, तकनीकी कर्मचारी सर्वश्री प्रभात कुमार सिंह, पर्यवेक्षक तथा प्रवीन तिर्की, उत्खनन सहायक के साथ स्थल निरीक्षण किया गया। विवेच्य प्रतिमाओं का प्राप्ति स्थल (चित्र क्र. 1) श्रीमती गीता वर्मा, पंच, वार्ड क्रमांक 9 के स्वामित्व का आवासीय मकान है। इस मकान से संलग्न बाड़ी में शौचालय निर्माण हेतु गड्ढा खोदने के दौरान भू-सतह से लगभग नौ फीट की गहराई में लघु आकार की प्रस्तर निर्मित 9 प्राचीन प्रतिमाएं व अन्य अवशेष उपलब्ध हुये (चित्र क्र. 2)। 

उपलब्ध पुरावस्तुओं के संबंध में संक्षिप्त जानकारी निम्नानुसार है- 

क्र. - पुरावशेष का नाम - सामग्री - आकार - चित्र संख्या

1- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 17.5X8X5 सेमी. - 3 
2- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 20X7.5X6.5 सेमी. - 4 

3 - पार्वती - प्रस्तर - 10.5X5X3.5 सेमी - 5 
4 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 15.5X8X3.5 सेमी. - 6
5 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 17.5X7.5X3 सेमी.-7 
6 - मानवाकृति नंदी - प्रस्तर - 11.5X10X4.5 सेमी. - 8 

7 - कुबेर -प्रस्तर - 13X9X6 सेमी. - 9 
8 - कुबेर -प्रस्तर - 12X9X3.5 सेमी. - 10 
9 - सिंह - प्रस्तर - 10.5X6.5X3.5 सेमी. - 11 
10 - पायेदार सिलबट्टा - प्रस्तर 17.5X145X13 सेमी. - - 

प्राप्त मूर्तियाँ शैव एवं शाक्त धर्म से संबंधित हैं तथा बलुआ प्रस्तर से खिलौनानुमा लघु आकार में निर्मित हैं। आकार की दृष्टि से विवेच्य प्रतिमाएं चल विग्रह हैं तथा मुख्यतः तीर्थ यात्रियों, दीर्घकाल तक यात्रा करने वाले व्यवसायियों तथा राजकीय शिविरों में प्रवास काल में अर्चना के लिये उपयोग में लायी जाती रही होंगी। लघु आकार की धातु तथा प्रस्तर प्रतिमाएं, गृहस्थों के पूजा घरों में भी उपयोग में लायी जाती थीं। छत्तीसगढ़ अंचल में घरो के आंगन में तुलसी चौरा पर शालग्राम अथवा शिवलिंग की पिंडी रखे जाने की परंपरा अद्यतन दिखाई पड़ती है। सूर्य को जल अर्पण, शिवलिंग का जलाभिषेक तथा तुलसी के बिरवा की पूजा एक साथ सम्पन्न करने की यह सुंदर और सरल देशज विधि है। एक ही जगह पर गहराई में हंडा (दफीने) के सदृश्य लघु आकार की प्रतिमाओं को दबा कर गुप्त रूप से रखे जाने की प्रथा के संबंध में यह भी अनुमान होता है कि संबंधित स्थल में प्रस्तर शिल्पकार निवास करते थे तथा व्यवसायिक प्रयोजन से प्रतिमाओं का निर्माण करते थे अथवा अन्यत्र स्थल के व्यवसायी विक्रय करने के लिए इन्हें लाया करते। किसी आकस्मिक दुर्घटनाजन्य परिस्थिति के कारण इन प्रतिमाओं को सुरक्षित रखने, अपवित्र अथवा दूषित होने से बचाने के उद्देश्य से अथवा अज्ञानतावश अमंगलजनक समझकर किसी निश्चित एकांत स्थल पर भूमि के भीतर गहराई में दबा दिये जाते रहे होंगे। गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से क्षेत्रीय कला शैली से पृथक कला शैली की लघु प्रतिमाओं/सिक्कों/मृत्पात्रों, पकी मिट्टी की मुहरों आदि की उपलब्धि से सांस्कृतिक एकता, परस्पर प्रभाव तथा तद्युगीन यात्रा पथों का एक संकेत प्राप्त होता है। 

संक्षेप में पृथक कला शैली के लघु पुरावशेषों की उपलब्धियों के निम्न कारण हो सकते हैं- 

1. तीर्थयात्रियों के द्वारा पडाव स्थलों में नित्य पूजा आराधना के लिए लघु प्रतिमायें साथ में रखी जाती रही होंगी। 
2. तीर्थ स्थल अथवा किसी अन्य कला केन्द्रों प्रत्यावर्तन के समय यात्रियों के द्वारा अल्पमूल्य, अल्पभार, आकर्षक एवं लघु आकृति के कारण पूजा-आराधना अथवा स्मृति चिन्ह के रूप में क्रय कर नियत गन्तव्य तक ले जाया जाता रहा होगा। 
3. लघु प्रतिमाओं का निर्माण प्राप्ति स्थल में ही यायावर शिल्पी समुदाय द्वारा किया जाता रहा होगा। किसी दुर्घटना के कारण इन्हीं शिल्पियों के द्वारा निर्मित लघु कलाकृतियाँ बाद में दबी हुई स्थिति में प्राप्त होती हैं। 

विवेचित कला शैली की लघु आकार की प्रतिमाएं छत्तीसगढ़ के मल्हार, हीरापुर तथा बेलदार सिवनी से उपलब्ध हुयी हैं। इन प्रतिमाओं के आकार, बनावट तथा कला शैली में समानताएं हैं। इनमें अलंकरण अत्यल्प हैं। रूपाकृति मूल विषयवस्तु पर केन्द्रित है। अतिरिक्त पौराणिक अथवा अलंकरणात्मक विस्तार का अभाव है। यक्ष आकृतियों के स्थूल सौंदर्य के सदृश्य प्रतिमालक्षण से परिपूर्ण हैं। इन कलाकृतियों में मूर्ति शिल्प के विकास, क्षेत्रीय परंपरा तथा तद्युगीन लुप्त प्रचलित संप्रदाय भी आभासित होता है। यक्ष परंपरा के संवाहक लघु आकार की देव आकृतियों की आराधना विशिष्ट साधना पथ का संकेतक है। 

बेलदार सिवनी से प्राप्त एकमुख लिंग प्रतिमाओं के बनावट में समरूपता नहीं है। मुख तथा शीर्ष के केश विन्यास में अंतर है तथापि दोनों प्रतिमाओं के ग्रीवा में ग्रैवेयक प्रदर्शित हैं। एक किंचित बड़े आकार के मुखलिंग में प्रौढ़ता तथा दूसरी प्रतिमा में सौम्यता प्रदर्शित है। कार्तिकेय की प्राप्त दोनों स्थानक प्रतिमायें दंडधर के सदृश्य दायें हाथ में शूल (शक्ति) धारण किये हैं। उनके शीर्ष में त्रिशिखी केश विन्यास है। ललितासन में आसनस्थ कुबेर के दायें हाथ में पात्र (चषक) तथा बायें हाथ में नकुली है। उनके शिरोभाग पर आकर्षक केश विन्यास है। पार्वती के दायें हाथ में स्थूल शूल है। मानव रूप में वज्रासन में बैठे हुये नंदी दोनों हाथ जोड़े हुये हैं। पिछले दोनों पैरों पर बैठे तथा अगले पैरों पर भार देकर उन्नत ग्रीव सिंह का मुख किंचित खंडित है। बेलदार सिवनी से प्राप्त लघु आकार की प्रतिमाओं में कला की प्रौढ़ता, सौष्ठव तथा सौंदर्य की अपेक्षा क्षेत्रीय प्रभाव अधिकतम प्रदर्शित है। इन प्रतिमाओं का काल लगभग 7वीं से 8वीं सदी ईसवी प्रतीत होता है। 
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Monday, October 16, 2023

रायपुर का गभरापारा

रायपुर में गभरापारा का पता करने निकले, जल्दी और आसानी से कुछ हासिल होने की संभावना बहुत कम है, लेकिन लगे रहें तो कई दिशाएं, परतें खुल सकती हैं। मेरे लिए अपना-पराया का द्वंद्व है, रायपुर। अपना हो तो जाना पहचाना, पराया हो तो जान-पहचान के लिए मौन आग्रह, आपके लिए कोई न कोई भेद-रहस्य सामने आते रहेंगे और अपने-पराये इस शहर को जानने-पहचानने की रोमांचक-जिज्ञासा, इसलिए आकर्षण बना रहेगा। शहर आपको तभी अपनाता है, जब आप शहर को अपना लें। मुनीर की बात थोड़े फेर-बदल से ‘जिस शहर में भी रहना अपनाए (न कि उकताए) हुए रहना।‘

बहरहाल, गभरापारा की तलाश क्यों? जवाब सीधा सा है, पता लगता है कि 1867 में रायपुर म्युनिसिपल बना, इसमें रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। चिरहुलडीह और डंगनिया तो सारे बाशिंदों के लिए सहज है, मगर गभरापारा लगभग भुला दिया गया, इसलिए पहेली बन जाता हैै और बूझना जरूरी, क्योंकि यह रायपुर नगरपालिका की बुनियाद में है, अपनी जड़ों से कौन अनजान रहना चाहेगा।

टिकरापारा, मठपारा के लोग अपने इस पड़ोस के न सिर्फ नाम से परिचित हैं, उन पुरानी स्थितियों को भी याद करते हैं कि कुछ नीची-गहरी भूमि वाला क्षेत्र था, टिकरा के साथ तुक मिलाते, उसका युग्म शब्द- गभरा। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि टिकरा की तरह का एक प्रकार है, थोड़ी ऊंचाई वाली कृषि भूमि टिकरा कहलाती है तो गभरा या गभार का आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है।

गभरा या गभार, गर्भ से बना जान पड़ता है। रायपुर गजेटियर 1909 के अनुसार गभार का मतलब flat land (सपाट भूमि) है। अनुमान होता है कि आसपास की उच्च-असमतल भूमि की तुलना में यह अर्थ आया है। डॉ. पालेश्वर शर्मा के अनुसार ‘गर्भ धारण की क्षमता के कारण खेत गभार कहलाते हैं। इन खेतों का मूल्य अधिक होता है।‘ चन्द्रकुमार चन्द्राकर के शब्दकोश में ‘गभार‘ का अर्थ ‘खेत का गर्भ स्थल‘, ‘खेत का गहरा भाग‘ और ‘वह खेत जिसके गर्भ से अच्छी फसल हो, उपजाऊ भूमि‘ बताया गया है। इस मुहल्ले के आसपास के बाशिंदों की याद में भी यह ऐसी ही भूमि वाला क्षेत्र रहा है।

गभरा-गभार से जुड़े या इसके आसपास के शब्द, जो कभी सुना था याद आने लगे। सरगुजा कुसमी-सामरी में कन्हर के दाहिने तट पर प्राचीन स्मारक अवशेषों वाला गांव ‘डीपाडीह‘ स्थित है। डीह, पुरानी बसाहट के अवशेष वाली टीलानुमा भूमि और डीपा, संस्कृत का डीप्र या छत्तीसगढ़ी का डिपरा, जो खंचवा का विपरीतार्थी यानि उच्चतल भूमि का द्योतक है। कन्हर के बायें यानि डीपाडीह के दूसरी ओर गांव है गभारडीह, जिसका उच्चारण गम्भारडीह जैसा होता है। यहां कन्हर का दाहिना तट डीपा-ऊंचा है और बायां तट गभार-नीचा।

इसी तरह टटोलते-खंगालते याद करते बगीचा का हर्राडीपा-गभारकोना मिला। जशपुर का डीपाटोली-गम्हरिया और जिले का ऊंच घाट-नीच/हेंठ घाट तो है ही। बिलाईगढ़ के जोगीडीपा का जोड़ा धनसीर बनाता है। धन, समृद्धि या धान ध्वनित करता है और सीर का एक अर्थ हल होता है, राजा जनक का एक नाम सीरध्वज भी है, जिनकी ध्वजा पर हल हो। सीर का एक अन्य अर्थ, गांव की सबसे उपजाऊ भूमि, जिस पर गौंटिया का ‘पोगरी‘ अधिकार होता था और जो गांव में खेती की जमीन के कुल रकबे का छठवां हिस्सा होता था। रायपुर के आसपास के जोगीडीपा की जोड़ी तरीघाट यानि डीपा-तरी बनती है।

इन सबके साथ एक सफर महासमुंद, बागबहरा का, जहां एक हिस्सा डांगाडिपरा है। बागबहरा का बाग, संभवतः ‘बाघ‘ है। छत्तीसगढ़ में बगदरा, बगदेवा, बगदेई जैसे नाम का बग, वस्तुतः बघ-बाघ ही है और बहरा, गहरी या बरसाती जल-प्रवाह के रास्ते वाली भूमि, जहां पानी ठहरता हो, धान की खेती के लिए उपयुक्त भूमि। बहरा का जोड़ा यहां डिपरा है और वह भी डांगा, यानि डांग- बांस की तरह, लंबा-ऊंचा।

डांग के साथ प्रचलित शब्द डंगनी, डांग कांदा या डंगचगहा को याद कर लें। उूंचाई तक पहुंचने के लिए बांस का डंडा डंगनी तो उूंची लता वाला कांदा, डांग कांदा है और बांस पर चढ़ कर करतब दिखाने वाले डंगचगहा। इसी से जुड़कर वापस रायपुर नगरपालिका के डंगनिया में, जो बांस की अधिकता वाला या ऊंचाई वाला क्षेत्र होगा। इसी तरह चिरहुलडीह में चिरहुल, सिलही चिड़िया, Lesser whistling Teal है। बात रह गई रायपुर के राय की, तो ‘राय‘, मुख्य, महत्वपूर्ण, खास, बड़ा आदि अर्थ देता है। जामुन के दो प्रकारों में एक चिरई जाम, छोटे आकार का, जिसकी गुठली, बमुश्किल चने के बराबर होती है और दूसरा बड़ा, राय जाम। राय-रइया रतनपुर या ‘राय-रतन दुनों भाई‘ के साथ रायपुर के संस्थापक माने गए ब्रह्मदेव, जैसा उन्हें रायपुर शिलालेख संवत 1458 में संबोधित किया गया है- ‘महाराजाधिराजश्रीमद्रायब्रह्मदेव‘, राय ब्रह्मदेव का तो रायपुर है ही।

Saturday, October 14, 2023

जाना-अनजाना रायपुर

खारुन के मंथर प्रवाह के साथ मानव सभ्यता को कई ठौर ठिकाने मिले- कउही, परसुलीडीह, तरीघाट, खट्टी, खुड़मुड़ी, उफरा और जमरांव में सदियों की बसाहट के प्रमाण हैं। यह क्रम नदी के दाहिने तट पर मानों ठिठक गया, महादेव घाट-रायपुरा पहुंचते। हजार साल से भी अधिक पुराने अवशेष इतिहास को रोशन करते हैं। बसाहट को आकर्षित किया पूर्वी जल-थल ने। सपाट ठोस-मजबूत थल और उसके बीच जगह-जगह पर भरी-पूरी जलराशि। यही बसाहट- रायपुर, तीन सौ तालाबों का शहर बना। 

मैदानी-मध्य छत्तीसगढ़, लगभग बीचों-बीच शिवनाथ से दो हिस्सों में बंटता है। छत्तीस गढ़ों के लिए कहा गया है, शिवनाथ नदी के उत्तर में अठारह और शिवनाथ नदी के दक्षिण में अठारह। ये सभी गढ़ राजस्व-प्रशासनिक केंद्र थे। कलचुरि शासकों के इन सभी छत्तीस गढ़ों का मुख्यालय रतनपुर था, किंतु अनुमान होता है कि शिवनाथ नदी के कारण और दक्षिणी अठारह गढ़ों की सीमा नागवंशियों से जुड़ी होने के कारण, इस अंचल में एक अन्य मुख्यालय आवश्यक हो गया। 

कलचुरि शासक ब्रह्मदेव के दो शिलालेख पंद्रहवीं सदी के आरंभिक वर्षों के हैं, जिनसे ब्रह्मदेव के वंश में उसके पिता रामचंद्र के क्रम में सिंहण और लक्ष्मीदेव की जानकारी मिलती है। लक्ष्मीदेव को रायपुर शुभस्थान का राजा बताया गया है। शिलालेख से सिंहण द्वारा अठारह गढ़ जीतने और फिर उसके पुत्र रामदेव/रामचंद्र द्वारा नागवंशियों को आहत करने की जानकारी मिलती है। शिलालेख में रोचक उल्लेख है कि ‘नायक हाजिराजदेव ने हट्टकेश्वर मंदिर बनवाया ... रायपुर में रहने वाली सुंदर स्त्रियां जो कामदेव को जीवित करने के लिए स्वयं संजीवनी औषधियां हैं, यहां के सुखों के कारण कुबेर की नगरी को मन में तुच्छ समझती हैं।‘ कलचुरि शासकों के पुराने केंद्र रतनपुर की बुढ़ाती जड़ों के समानांतर रायपुर शाखा की नई पौध-रोपनी ताकतवर होती गई, और सन 1818 में छत्तीसगढ़ का मुख्यालय रतनपुर से रायपुर स्थानांतरित हो गया।

बाबू रेवाराम की पंक्तियां हैं- 
मोहम भये सुत जिनके, सूरदे नृप नायक तिनके। 
ब्रह्मदेव तिनके अनुज, मति गुण रूप विशाल। 
दायभाग लै रायपुर, विरच्यो बूढ़ा ताल। 

मुख्य सड़क से जुड़े होने के कारण अब बूढ़ा तालाब और तेलीबांधा सामान्यतः जाने-पहचाने जाते हैं, मगर इनके साथ आमा तालाब, राजा तालाब, कंकाली तालाब, महाराजबंद सहित मठपारा के तालाब आदि कई जलाशयों का अस्तित्व अभी बचा हुआ है, जबकि पंडरीतरई, रजबंधा का नाम ही रह गया है और लेंडी तालाब अब शास्त्री बाजार है। 

उन्नीसवीं सदी में रायपुर के विकास के कुछ मुख्य कार्यों की जानकारी मिलती है, जिनमें 1804 में भोसलों और अंग्रेजों के मध्य संधि के फलस्वरूप डाक सेवा का आरंभ हुआ। 1820-25 के दौरान रायपुर-नागपुर सड़क निर्माण कराया गया। राजकुमार कालेज परिसर का लैंप पोस्ट, जिस पर ‘नागपुर 180 मील‘ अंकित है, अब भी सुरक्षित है। 1825 में सदर बाजार मार्ग निर्माण हुआ। 1825-30 के बीच मिडिल तथा नार्मल स्कूल और दो अस्पतालों का निर्माण हुआ। बाबू साधुचरणप्रसाद ने ‘भारत-भ्रमण में लिखा है- ‘सन 1830 में रायपुर का वर्तमान कसबा बसा। पुराना कसबा इससे दक्षिण और पश्चिम था।‘ 1860 में रायपुर से बिलासपुर और रायपुर से धमतरी के लिए सड़क बनी। रायपुर में म्युनिसिपल कमेटी का गठन 1867 में हुआ। 1868 में केंद्रीय जेल भवन, गोल बाजार तथा दो सार्वजनिक उद्यानों का निर्माण हुआ। 1875 में राजनांदगांव के महंत घासीदास के दान से संग्रहालय का निर्माण हुआ, जो जनभागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय है। 

1887 में टाउन हॉल, सर्किट हाउस, अस्पताल भवन बना तथा इसी दौरान लेडी डफरिन जनाना अस्पताल भी खुला। 1888 में रायपुर तक आई रेल की बड़ी लाइन, आगे खड़गपुर होते 1900 में कलकत्ता से जुड़ गई। 1890 में रायपुर-कलकत्ता सड़क, रायपुर-बलौदा बाजार सड़क और धमतरी रेल लाइन बनी। 1892 में ‘बलरामदास वाटर वर्क्स‘ नाम से खारुन से जल-प्रदाय आरंभ हुआ। सरकारी मिडिल स्कूल 1887 में गवर्नमेंट हाई स्कूल का दरजा पा गया, तब यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से फिर 1894 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ। 1894 में राजकुमार कॉलेज जबलपुर से रायपुर आ गया, 1939 तक यहां सिर्फ राजकुमारों को प्रवेश दिया जाता था। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए 1938 में दाऊ कामता प्रसाद के दान, शिक्षाशास्त्री जे. योगानंदम की इच्छा-शक्ति और तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष ठा. प्यारेलाल सिंह के सद्प्रयासों से रायपुर में छत्तीसगढ़ कॉलेज की स्थापना हुई।

1867 में म्युनिसिपल बना, जिसकी सीमा में रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। टिकरापारा से संलग्न गभरापारा लगभग भुला दिया गया नाम हैै। गभरा शब्द भी सामान्य प्रचलन में अब नहीं है। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि गभरा या गभार, टिकरा की तरह कृषि भूमि का एक प्रकार है, जिसका आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है। रायपुर की शान रहे, रजवाड़ों और जमींदारों के बाड़े- खैरागढ़, रायगढ़, खरियार, छुईखदान, छुरा, कवर्धा, फिंगेश्वर, बस्तर, कोमाखान आदि अधिकतर अब स्मृति-लोप हो रहे हैं। और बीसवीं सदी के आरंभ में सिंचाई विभाग की स्थापना और नहर निर्माण के साथ महानदी का पानी खेतों तक पहुंचने लगा। तब तक रायपुर की जनसंख्या 30000 पार कर चुकी थी।

सबसे पुरानी कामर्शियल बैंक, 1912 में स्थापित इलाहाबाद बैंक है। को-ऑपरेटिव बैंक 1913 में और इंपीरियल बैंक 1925 में स्थापित हुआ। बिजली अक्टूबर 1928 में आई, मगर व्यवस्थित होने में समय लगा, जब 1939 में 240 किलोवॉट का पावर हाउस स्थापित हो गया। 1950-51 में ईस्टर्न ग्रिड सिस्टम के अंतर्गत रायपुर पायलट स्टेशन बना, तब रायपुर पावर हाउस का काम शासकीय विद्युत विभाग द्वारा किया जाने लगा।

पुराने रायपुर को इन शब्द-दृश्यों में देखना रोचक है- 1790 में आए अंग्रेज यात्री डेनियल रॉबिन्सन लेकी बताते हैं- यहां बड़ी संख्या में व्यापारी और धनाढ्य लोग निवास करते हैं। यहां किला है, जिसके परकोटे का निचला भाग पत्थरों का और ऊपरी हिस्सा मिट्टी का है। किले में पांच प्रवेश द्वार हैं। पास ही रमणीय सरोवर है। पांच साल बाद आए कैप्टन जेम्स टीलियर? ब्लंट गिनती में बताते हैं कि नगर में 3000 मकान थे। नगर के उत्तर-पूर्व में बहुत बड़ा किला है, जो ढहने की स्थिति में है। 

सन 1893 का विवरण यायावर बाबू साधुचरण ने दिया है, जिसके अनुसार रेलवे स्टेशन से एक मील दूर पुरानी धर्मशाला से दक्षिण गोल नामक चौक (गोल बाजार) में छोटी-छोटी दुकानों के चार चौखूटे बाजार हैं। गोल चौक से दक्षिण दो मील लंबी एकपक्की सड़क है। जिसके बगलों में बहुतेरे बड़े मकान और कपड़े, बर्तन इत्यादि की दुकानें बनीं हैं। ... प्रधान सड़कों पर रात्रि में लालटेने जलती हैं। ... एक पुराना जर्जर किला देख पड़ता है, जिसको सन् 1460 ई. में राजा भुवनेश्वर देव ने बनवाया था। ... किले के दक्षिण आधा वर्ग मील में फैला महाराज तालाब है। तालाब के बांध के निकट श्रीरामचंद्र का मंदिर (दूधाधारी) खड़ा है। जिसको सन् 1775 में रायपुर के राजा भीमाजी (बिंबाजी) भोंसला ने बनवाया।‘ इस विवरण में कंकाली तालाब, आमा तालाब, तेलीबांधा, राजा तालाब का भी उल्लेख है। कोको तालाब के लिए बताया गया है कि इसमें गणेश चौथ के अंत में गणपति जी की मूर्तियां विसर्जित होती हैं, (ध्यान देने वाली बात कि इसी विवरण-वर्ष यानि 1893 में तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक उत्सव का स्वरूप दिया था।) व्यापार संबंधी जानकारी आई है कि गल्ले, कपास, लाह (लाख) और दूसरी पैदावार की सौदागरी बढ़ती पर है। साथ ही यह भी बताया गया है कि वर्तमान कस्बे के दक्षिण और पश्चिम छोटी नदी के किनारे महादेव घाट तक रायपुर का पुराना कस्बा बसा था। 

रायपुर की जनांकिकी की दृष्टि से 2011 की जनगणना में 10 लाख आबादी का आंकड़ा पार यह बसाहट, यही कोई 500 साल बीते, खारुन नदी के किनारे का रायपुरा फैलकर पुरानी बस्ती के साथ रायपुर बनने लगा। कलचुरी आए और राजधानी की नींव पड़ी। अब तक सरयूपारी ब्राह्मण आ चुके थे। राजपूत, पहले कलचुरियों के साथ और बाद में गदर के आगे-पीछे आए। वैश्य, यहां रहते छत्तीसगढ़िया दाऊ बन चुके थे। राजधानी ने अन्य को भी आकर्षित किया। मठपारा, कुम्हारपारा, बढ़ईपारा, अवधियापारा, गॉस मेमोरियल, ढीमरपारा, मौदहापारा, यादवपारा, सोनकर बाड़ा, बूढ़ा तालाब, तेलीबांधा वाले इस शहर में चौबे कालोनी, शंकर नगर, सुंदर नगर और विवेकानंद नगर भी बसा। रजबंधा का शहीद स्मारक, प्रेस काम्प्लेक्स तक सफर तो पूरा अध्याय है। 

इसी दौरान अठारहवीं सदी के मध्य में भोंसलों के साथ मराठी परिवार आ गए। अन्य में मोटे तौर पर डॉक्टर, वकील पेशे में और रेलवे के काम में बंगाली आए। रेलवे ठेकेदारी, तेंदू पत्ते और लकड़ी के व्यवसाय के लिए गुजराती आए। बुंदेलखंडी जैनों की बड़ी खेप की आमद मारवाड़ियों के बाद हुई। स्वाधीनता-विभाजन के दौर में सिंधी, पंजाबी आए। रोटी, कपड़ा और मकान के मारे, इन्हीं का व्यवसाय यानि गल्ला-राशन, होटल-रेस्टोरेंट, कपड़े की दूकान और बिल्डर-रियल स्टेट का काम करते, दूसरों को मुहैया कराते, अपने लिए इसका पर्याप्त इंतजाम कर लिया। इस क्रम में टुरी हटरी पर गोल बाजार और सदर फिर इन सब पर मॉल हावी हो गया। शहर अब नवा रायपुर तक फैल कर अटलनगर अभिहित है। उसके आर्थिक परिदृश्य में, व्यवसायिक प्रभुत्व सिंधी-पंजाबी और जैनों का है तो कामगारों में उड़िया और तेलुगू पैठ न सिर्फ नगर, बल्कि घर-घर में बन गई है। नगर में सामान्यतः आपसी भाईचारा बना रहा है, छत्तीसगढ़ी सहज स्वीकार्यता का यह सबल उदाहरण है और इस दृष्टि से रायपुर, राज्य की राजधानी के साथ अपने स्वाभाविक औदार्य में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि शहर भी है।

पुनश्च- दैनिक भास्कर, रायपुर के 35 स्थापना दिवस पर रायपुर के लिए लिखना था। रायपुर के इतिहास से वर्तमान तक का सफर सीमित शब्दों में लिखना चुनौती जैसा था, यह भी कि अब तक जो लिखा जाता रहा है, उससे अलग और क्या हो सकता है। फिर भी प्रयास किया कि नये-पुराने रायपुर के लिए अपनी समझ को झकझोर कर देखा जाए कि क्या निकलता है, जो बना वह ऊपर है, जो समाचार पत्र में आया, वह आगे है-
(यहां आए पुराने तथ्यों को एकाधिक और यथासंभव मूल-स्रोतों से लिया गया है। डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम जी ने उनके लेखन में आई जानकारियों के उपयोग की अनुमति दी तथा हरि ठाकुर जी की सामग्री से कुछ महत्वपूर्ण दुर्लभ जानकारियां, उनके पुत्र आशीष सिंह जी के माध्यम से मिलीं। अपने दौर की जानकारी और उनकी व्याख्या मेरी है।) 


Tuesday, July 11, 2023

देव-द्यूत

पिछले कुछ दिनों से जुए के फेर में पड़ गया हूं। मन ही मन पासे फेंकता, दांव-लगाता, जीत-हार का मनोराज्यं। वेद-पाठ, कला-रस और देव-आराधन का आनंद भी है इस मनोद्यूतं में। तिरी-पग्गा, तिरी-पच्चा, तिरी-पांचा, जैसे जाने कितने शब्द ‘जुआ-चित्ती‘ के लिए इस्तेमाल होते हैं। इनके करीबी है ‘तिया-पांचा‘ या ‘तीन-पांच‘, जो शायद जुए-पासे के खेल में छल-कपट के लिए ही प्रयुक्त होता है, ऐसे संकेत भी वैदिक साहित्य में मिल जाते हैं और गीता में कृष्ण ‘द्यूतं छलयतामस्मि‘ बताते हैं।

वैदिक साहित्य में ‘अक्ष‘ शब्द, पासा या गोटी के अर्थ में आता है। अथर्ववेद में ‘सं-रुध्‘ और ‘सं-लिखित‘ शब्दों का प्रयोग पासे के संदर्भ में हुआ है। ऋग्वेद का संदर्भ मिलता है जहां ‘पासा फेंकने‘ की धनदायक या नाशक के रूप में देवों से तुलना की गई है। पासा खेलने वाले व्यक्ति का पूरी संपत्ति सहित पत्नी के हार जाने का संकेत भी पहले-पहल ऋग्वेद में आया है। वैदिक साहित्य में ‘त्रिपंचाश‘ शब्द भी आया है, जिसका सीधा मतलब तिरपन समझ में आता है, मगर विद्वान एकमत नहीं हैं और एक बड़ी संख्या का अभिव्यंजक भी माना है। याद कीजिए- ‘जाओ, तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं‘ वाली बात ‘... पचीसो देखे हैं‘ भी कहा जाता है। पौ-बारह, जैसे शब्द भी बाजी मार लेने के लिए आते हैं। फेंके गए पासों पर आई संख्या चार से विभाजित हो ऐसी संख्या ‘कृत‘, चार से विभाजित करने पर तीन शेष रहे तो ‘त्रेता‘, दो बचे तो ‘द्वापर और एक बच जाए तो ‘कलि‘ कहे जाने का भी उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में रैक्व प्रसंग में कृत-विजय का और तीन, दो, एक- क्रमशः त्रेता, द्वापर और कलि को संबद्ध किया है।

महाभारत के आरंभ में ही आदिपर्व के द्यूतपर्व में विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध किया जाता है। स्वयं को हारने के बाद युधिष्ठिर कहते हैं- यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है, मगर विवेकशील धर्मराज द्रौपदी को दांव पर लगाते हैं, बड़े-बूढ़े धिक्कारते हैं। आगे चलकर वनपर्व के ‘नलोपाख्यान‘ आता है, जिसमें द्यूत प्रसंग को पिछले संदर्भ से जोड़ने का संकेत भी नहीं है मगर मानों पांडवों-युधिष्ठिर के बहाने पाठकों को बताया जाता है। कथा चलती है कि अवसर पा कर नल के शरीर में कलियुग प्रवेश करता है, इधर राजा नल का रिश्ते में भाई पुष्कर, कलियुग के ही उकसावे में उसे धर्मपूर्वक जुआ खेलने को बार-बार कह कर राजी कर लेता है। पुष्कर और नल के बीच कई महीनों तक जुआ चलता रहा। लगातार हारते नल से अंत में पुष्कर ने पत्नी-दमयंती को दांव पर लगाने के लिए कहा। किंतु कलियुग के प्रभाव में होने के बावजूद भी नल ने ऐसा नहीं किया।

मनु ने द्यूत को बुरा खेल माना है। राजा के अधीन खेलने का उल्लेख और व्यवस्था मिलती है। कात्यायन ने लिखा है कि यदि द्यूत की छूट मिले तो वह खुले स्थान में द्वार के पास खिलाया जाना चाहिए, जिससे भले व्यक्ति धोखा न खाएं और राजा को कर मिले। नारद, बृहस्पति, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य जैसे विभिन्न ग्रंथों और महाभारत में भी द्यूत की निन्दा और व्यवस्था संबंधी उल्लेख मिलते हैं। चौदहवीं सदी ईस्वी के जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि' की रोवक उक्ति है- ‘ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'

ध्यान रहे कि शास्त्रीय ग्रंथों में द्यूत पर दी गई व्यवस्था, प्रतिद्वंन्दियों के बीच होने वाले खेल के लिए है, न कि पति-पत्नी के बीच के खेल के लिए। विवाह संस्कार पूरे हो जाने के बाद बारात वापस आने पर कंकण छुड़ाने की रस्म में नवदंपति के बीच जुआ-खेल खेला जाता है। एक कथा पासे या शतरंज जैसे खेल में विश्वामित्र का पत्नी से हारने पर पत्नी के हंसने से क्रुद्ध हो कर पासा तोड़ देने की भी है। वैष्णव परंपरा में कृष्ण लीला पुरुष हैं तो इधर शिव की लीलाएं भी कम नहीं। शिल्पशास्त्रीय या प्रतिमाविज्ञान का आधार नहीं मिलता मगर शिव-पार्वती के उमा-महेश विग्रह को शिल्प में चौसर खेलते दिखाया जाता हैै, ऐसी दुर्लभ शिल्प-कृतियां कलात्मक और रोचक कल्पनाशील हैं। 

उमा, पार्वती है, पर्वत-पुत्री, नगाधिराज-सुता, ऐश्वर्यशाली। उमा के पास दांव लगाने के लिए क्या कमी। मगर औघड़-फक्कड़ शिव के पास भांग-चिलम के अलावा उनके आयुध त्रिशूल, डमरू, नाग, खट्वांग ही हैं, वे सब उमा के लिए बेमतलब, किसी काम के नहीं, इसलिए जिनका दांव पर लगाया जाना, उमा को मंजूर न हुआ हो। नन्दी, कुछ काम के हो सकते थे, तो महेश की ओर से वही दांव के लिए प्रस्तुत और स्वीकृत हुए। शिल्प में नन्दी को हार जाना रूपायित किया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में अब तक ज्ञात मुख्यतः ताला-6 वीं सदी इस्वी, सिरपुर-8 वीं सदी इस्वी, भोरमदेव-11 वीं सदी इस्वी, मल्हार-12 वीं सदी इस्वी और डमरू-13 वीं सदी इस्वी की शिल्प-कृतियां हैं।

तालाएवं सिरपुर

ताला और मल्हार के ऐसे शिल्प खंडों के तीन कोष्ठों से पूरे कथानक को न सिर्फ समझा जा सकता हैै, बल्कि ध्यान देने पर, पूरे प्रसंग और पात्रों का हाव-भाव और वह क्षण भी जीवंत हो उठता है। मुख्य पात्र उमा और महेश हैं, नन्दी हैं और हैं शिवगण समूह और पार्वती परिचारिकाएं। ताला में देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार के अंतः-पार्श्व के शिल्पखंड के मध्य में उमा-महेश चौपड़ खेल रहे हैं। बायें कोष्ठ में शिवगण प्रदर्शित हैं और दायें कोष्ठ में पार्वती की परिचारिकाएं विजित नन्दी को खींच कर ले जाने का प्रयास कर रही हैं और अनिच्छुक नन्दी अड़ा हुआ है। सिरपुर की प्रतिमा में उपर चौपड़ के एक-एक ओर सम्मुख शिव-पार्वती को दिखाया गया है और नीचे नन्दी को हांक कर ले जाया जाना अंकित है।
मल्हार, भोरमदेव एवं डमरू

मल्हार में कथानक तीन लंबवत कोष्ठों में है, जिनमें से प्रथम में चौपड़ खेलते उमा-महेश, दूसरे में शिवगण और पार्वती की परिचारिका के बीच नन्दी के लिए विवाद हो रहा है। तीसरे कोष्ठ के अंकन से स्पष्ट अनुमान होता है कि इस विवाद में दोनों उलझ जाते हैं और नन्दी बाबा मौका पा कर सरक जाते हैं। भोरमदेव मंदिर के पूर्वी मुख्य प्रवेश पर दक्षिणी शाखा पर शैव द्वारपाल और नदी देवी के ऊपर दो कोष्ठों में शिल्पांकन है। पहले में उमा-महेश को चौकोर चौपड़ और परिचारिका-गण के साथ दिखाया गया है। इसके पार्श्व खंड में पीछे की ओर सिर घुमाए प्रतिरोध करते नंदी, दंड लिए शिव गण और पार्वती-परिचारिका को दोनों हाथ उठा कर दंड-प्रहार को रोकने का प्रयास करते दिखाया गया है। डमरु की प्रतिमा में चौपड़ खेलते शिव-पार्वती और दाहिनी ओर गणेश को पहचाना जा सकता है।

श्री जी. एल. रायकवार ने सागर-जबलपुर अंचल की ऐसी तीन प्रतिमाओं की पहचान पहले-पहल की थी और 1984 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ दीपावली विशेषांक में इस पर रोचक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी स्तुतियां हैं, जिनमें पार्वती और शिव के बीच द्यूत क्रीड़ा और पार्वती का गंगा के प्रति डाह उजागर होने का संवाद है। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों की स्तुतियों में भी द्यूत-क्रीड़ारत शिव-पार्वती की वंदना की गई है।

क्षेपक की तरह एक कथा सुनने को मिली है कि जुए में नन्दी को हारने के बाद हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।

इस नोट को तैयार करने में सर्वश्री रायकवार, डॉ. के पी. वर्मा, श्री हयग्रीव परिहार, श्री प्रभात सिंह, श्री अमित सिंह ठाकुर ने सहयोग किया है।

Sunday, July 9, 2023

कंठी देवल बनाम मुकरबा

अगस्त-सितंबर 1990 में बिलासपुर के समाचार पत्रों में खास खबर होती थी, इन समाचार कतरनों के संदर्भ में स्पष्ट करना आवश्यक है कि तब राज्य शासन के बिलासपुर पुरातत्व कार्यालय में श्री जी. एल. रायकवार और राहुल कुमार सिंह यानि मैं पदस्थ थे। स्वाभाविक ही मीडिया के लिए इस ‘ऐतिहासिक सनसनी‘ के साथ पत्रकार बंधुओं का हमारे कार्यालय में लगातार आना-जाना हुआ। खबरों की भाषा-सामग्री और शिलालेख का पठन-व्याख्या से हमारे कार्यालय की भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है। शिलालेख का पाठ नीचे के समाचार के साथ आया है। वस्तुतः (संशोधन संभव) पाठ होगा- ऊ नमः सिवाय। महंत? द/सोवाय श्री भगवानां भी-/सन्यासी संतोसगीरि के करनी करता- देव स्(थ)/लः सुभःमस्तु समप...। इसी तारतम्य में मुकरबा-मकबरा, छतरी और समाधि पर कुछ बातें, तीन समाचार कतरन के बाद यहां लेख की गई हैं।

छत्तीसगढ़ के अनमोल धरोहर की दुर्दशा खुले आसमान के नीचे बिखरी पड़ी है रतनपुर की संस्कृति 
कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ अवस्था में मानव हड्डियाँ मिली ...

बिलासपुर ऐतिहासिक नगरी रतनपुर के कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मानव हड्डियां मिलने से इस बाात की संभावना बलवती हो गर्ह है कि वास्तव में यह शिवमंदिर न होकर वहां के शासक या किसी महन्त की समाधि है। यह मंदिर महामाया कुण्ड के सामने अवस्थित था, जो कि वर्तमान में विद्यमान नहीं है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निमाण के नाम से इसे पूरी तरह तोड़ दिया है। पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास निर्मित कण्ठीदेवल मंदिर इसलिए भी महत्व है, चूंकि मराठाकाल की स्थापत्य शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाला, मुगलिया शैली का सम्भवतः प्रथम दुमंजिला मंदिर है। जिस ढंग से, इसका निर्माण कार्य चल रहा है, लगता है कि भारतीय पुरातत्व विभाग, ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में विद्यमान छत्तीसगढ़ के इस अनमोल धरोहर के साक्ष्य मिटा कर रख देगा।

कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग के नीचे, खुदाई करने पर मात्र दो मीटर चालीस सेन्टीमीटर नीचे मानब हड्डियाँ उर्ध्वाधर समाधिस्थ अवस्था में प्राप्त हुई है। वैसे भी महामाया मंदिर को प्राचीन तांत्रिक सिद्ध शक्ति पीठ माना जाता है। शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत कौल कापालिक भी तंत्र मार्ग का अनुसरण करते है। अतः एक सम्भावना यह भी सम्भावित है, कि भैरव उपासकों के द्वारा इस स्थल का उपयोग तंत्रमंत्र साधना के लिए किया जाता हो। मानव हड्डियाँ जिस स्थान में समाधिस्थ अवस्था में मिली है, वहां शव के पास, सिंदूर, बंदन, अक्षत या सिक्के वगैरह नहीं मिले है, इससे स्पष्ट होता है कि वास्तव में वह किसी महान व्यक्ति की समाधि है। कण्ठी देवल का प्रचीन संस्कृत साहित्य के शाब्दिक अर्थ के अनुसार देवकुल होता है। देवकुल के बारे में यह बात पुरातत्व सर्वेक्षण में आती है, कि पूर्व में मृत राजाओं की पाषाण प्रतिमाओं को पूर्वजों को देखने के लिए प्रदर्शित किया जाता था। वास्तव में कण्ठी देवल मंदिर कोई मंदिर नहीं अपितु शासनाधिपति की याद के लिए इस तरह के स्मारक का निर्माण कराया गया था। इस बात का प्रमाण टीकमगढ़ जिले के ओरछा में बेतवा नदी के किनारे (देवकुल) परिपाटी के मंदिर में राजारानी की प्रतिमाएं स्थापित है।

रतनपुर का कण्ठीदेवल मंदिर चार पांच सौ साल पुराना बताया जाता है। मराठा काल के मंदिर के बारे में पुरातत्वविद् यह मानते हैं, कि यह मंदिर प्राचीन भग्न मंदिरों से प्राप्त स्थापत्य खण्डों से निर्मित है। चूंकि पूर्व में मंदिरों की दीवारों में प्रस्तर की प्राचीन प्रतिमाएं जड़ी हुई थीं। इन प्रतिमाओं में शिशु सहित मातृत्व भाव महिला की बच्चे को स्तनपान कराते दिखाया गया है। इस मूर्ति के दोनो तरफ सिंह का किर्तीमुख बना है। दूसरी प्रस्तर की शालभंजिका की प्रतिमा है, जबकि तीसरी प्रतिमा लिगोद्भव शिव की तथा एक अन्य प्रस्तर की आसनस्थ कलचुरी शासक की प्रतिमा उत्किर्णीत है। जिसके कारण यह मान जाता है, कि यह मंदिर बाद में काल में निर्मात कराया गया है। कण्ठीदेवल मंदिर के समीप अनेक चौरानुमा, समाधियां है जो छोटे महन्त शिष्यों राज्य परिवार के शासको तथा सती नारी की भी हो सकती है। सम्भावना है चूंकि रतनपुर के समीप कोई नदी न होने के कारण, इसी स्थान में राजकुल का श्मशान था।

मराठा काल के स्थापत्य कला एवं मुगलिया शैली का प्राचीन कण्ठीदेवल मंदिर वर्गाकार बूतरे पर निर्मित था। इस मंदिर के सम्मुख में प्रारंभ में मण्डप रहा होगा। तथापि अब निर्माण के कारण ४.७६ मीटर लम्बा ४.७६ मीटर चौडा चालीस फिट की ऊंचाई वाला मंदिर को तोड़ दिया गया है। नये निर्माण के कारण नीव की खुदाई कर, सीमेटकार्य पूर्ण कर लिया गया है। दूर से देखने पर इस समय सपाट मैदान दिखाई पड़ला है। मंदिर के पत्थरों को बाजू की जमीन में नम्बर डालकर रख दिया गया है, जिसे देखने पर एकबारगी ऐसा लगता है कि मानो पत्थरों के कब्रस्तान में पहुंच गये हो। एकदम खुले आसमान के नीचे रखे इन पत्थरों पर बारिश ठण्ड और कड़ी धूप की सीधी मार पड़ रही है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने सन् ८७ मे कण्ठीदेवल मंदिर को इसलिए तोड़ दिया चूंकि गिर रहा था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर को गिरने से बचाना जरूरी भी था अतएव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के छत्तीसगढ़ जोन के भुवनेश्वर मुख्यालय ने तोड़ने का आदेश दे दिया। बिलासपुर में भारतीय पुरातत्व विभाग का उप मण्डल छोटा सा कार्यालय है, जिसके अन्तर्गत सम्भाग के बीस पच्चीस पुराने और महत्वपूर्ण स्मारक संरक्षित है। इसका एक दुःखद पहलू यह है, कि चूंकि यहां न तो कोई योग्य अधिकारी नियुक्त है और न ही इस कार्यालय के पास पर्याप्त अधिकार ही है। इसलिए छोटे मोटे काम के लिए उड़ीसा के भुवनेश्वर कार्यालय का मुंह ताकना पड़ता है।

आधा तीतर आधा बटेर:- आश्चर्यजनक बात है, कि भुवनेश्वर (उड़ीसा) से संचालित, छतीसगढ़ के पुरातात्विक वैभव के बारे में कितना विरोधाभास है कि कुछ बड़े अधिकारियों को जिन्हें न तो छत्तीसगढ़ से मतलब है न तो यहां के पुराने स्मारको से भावनात्मक ढंग से जुड़े हैं न तो ठीक ढंग से हिन्दी जानते, और यहां के छोटे कर्मचारी जिन्हें उनकी भाषा समझ में नहीं आती, कुल मिलाकर आधा अधूरा, आधा तीतर आधा बटेर समझने वाले कुछ अधिकारी पुरातत्व सम्पदा को तुड़वाकर भुनेश्वर में बैठे हैं। पुरातत्व अधिकारी यदाकदा कुछ आते हैं, देख कर औपचारिकता निभाकर वापस चले जाते हैं।

क्या ऐतिहासिक मंदिर पहले जैसे बनेगा:- पुरातत्वविदों का कथन है, कि कण्ठीदेवल मंदिर का हश्र, मल्हार के उस मंदिर की भांति होगा जो आठवीं शताब्दी का था। उस मंदिर को इसी तरह खो दिया है। आज के हालत यह है कि सन् ८० मे पुननिर्मित इस मंदिर के जो कागजात है, उनका संदिग्ध ढंग से गुम होना शुरू हो गया है। इसके बारे में यह भी कहा जा रहा है, कि वर्तमान में श्री एम. आर. चतुर्वेदी (संरक्षक सहायक) और बी.बी. सुखदेव फोरमेन काफी उत्साही है परन्तु यहां अभी किसी काफी बुजुर्ग और जानकार वरिष्ठ अधिकारी की आवश्यकता है ताकि पुराने स्मारक की रक्षा हो सके। नहीं तो बाद में बड़े अधिकारी अपनी गर्दन बचाने के लिए यहां से कागजात गुम करना शुरू कर देंगे।

प्रस्तरखण्डों की चोरी- कण्ठीदेवल मंदिर की हिफजात के लिए हालांकि वहां तीन व्यक्ति रहते है, परन्तु इसके बावजूद मंदिर से प्रस्तर खण्डो को निकाल कर खुले मैदान में नम्बर डालकर रखे गये प्रस्तर खण्डों की चोरी जाने की जानकारियां मिल रही है।
राजूतिवारी
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रतनपुर का ऐतिहासिक दस्तावेज कण्ठीदेवल 
अवशेष सहित नरकंकाल की सुरक्षा आवश्यक 

(कार्यालय प्रतिनिधि द्वारा) 

बिलासपुर. ऐतिहासिक नगरी रतनपुर स्थित कण्ठी देवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मिली मानव हड्डियों की सुरक्षा आवश्यक हो गई है। मराठा काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम तुड़वा दिया है। मंदिर के पत्थर खुले आसमान नीचे तथा मंदिर के भीतर और बाहर पत्थरों में उत्कीर्णित कलापूर्ण प्राचीन मूर्तियां एक साधारण झोपड़ी में पड़ी हुई है।

मराठा स्थापत्य काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम से तुड़वा दिया है। मानव हड्डियों के मिलने से पुरातत्व विभाग के अधिकारियों का मानना है, कि उपरोक्त मानव कंकाल और कण्ठी देवल मंदिर का निर्माण वर्ष एक समय का है। अब पुरातत्व विभाग का सिरदर्द है, कि वह हड्डियों का परीक्षण करा कर मंदिर के निर्माण कर्ता का पता लगाये। वैसे इस मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि रतनपुर कलचुरियों के काल से ही राजधानी रही है। साथ ही वहां की भौगोलिक परिस्थितियां, मंदिर निर्माण तथा ऐतिहासिक संम्भावनाओं के आधार पर यह भी कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी के अलावा भी यह स्थान तीर्थस्थल के रूप में मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण के समकक्ष सम्भवतः विख्यात रहा होगा। ऐसा समझा जा रहा है कि पातालेश्वर, लक्ष्मणेश्वर के समान यह मंदिर नील कण्ठेश्वर के नाम से कलचुरि काल में प्रसिद्ध रहा होगा। चूंकि ख्याति प्राप्त होने के कारण भग्नोपरांत मराठा शासकों ने धरोहर को सुरक्षित रखने के लिये मुगल शैली में इसका निर्माण करा दिया होगा। 

बाद में कलचुरियों एवं मराठा शासकों के पतन के पश्चात् रत्नपुर श्रीहीन हो गया और जनमानस में यह मंदिर केवल, कण्ठी देवल मंदिर भर रह गया। नर कंकाल के मिलने से लोगों में काफी उत्सुकता बढ़ गई है और इस बात की चर्चा सरगर्म हो गई है कि वास्तव में नरकंककाल की आयु क्या होगी? वैसे पुरातत्व विभाग के द्वारा खुदाई के दौरान मिलने वाले नर कंकाल पांच हजार तक सुरक्षित प्राप्त भी हुए हैं। भोपाल से लगभग तीस किलोमीटर दूर भीमबैठका शैलाश्रय में डा. वाकणकर एवं सागर विश्वविद्यालय के सहयोग से की गई खुदाई के दौरान मानव नर कंकाल प्राप्त हुआ जो कि सम्भवतः तीन से पांच हजार वर्ष प्राचीन है।

कण्ठीदेवल मंदिर में प्राप्त पत्थर की शिशु सहित मातृका की ग्यारही एवं बारहवीं शताब्दी इस्वी की प्रतिमा है, जिसमें शिल्प खण्ड पर प्रकोष्ठ के मध्य गोद में, शिशु को दुलारते हुए माता का भावपूर्ण अंकन किया गया है। इसी प्रकार मंदिर में आठवीं नवीं सदी इस्वी की शालभंजिका मिली है। पाषाण में उत्कीर्णित यह प्रतिमा नारी सौंदर्य तथा अलंकरण में अद्वितीय है। उसके विविध आभूषण केश विन्यास तथा परिधान में सूक्ष्म अलंकरण तथा मौलिकता स्पंदित है। शालभंजिका के अतिरिक्त वृक्ष में फल खाते तथा उछलते कूदते वानर सहित फूल जुगते हुए पारम्परिक पक्षियों का भी अंकन है।

इसी प्रकार कण्ठी देवल मंदिर के भिती में जड़ी शिल्प खण्ड में शिव की सर्वाेच्च सत्ता का मूर्तिमान किया गया है। लिंगोद्भव की यह कथा, शिवपुराण, वायु पुराण तथा शिल्प संहिताओं मे उपलब्ध है। कथा के अनुसार ब्रह्मा तथा विष्णु के बीच सर्वाेच्चता सिद्ध करने के लिये विवाद होने लगा। 

इसी बीच उनके मध्य एक ज्योतिर्यम स्तम्भ प्रकट हुआ जिसका आदि और अन्त का पता लगाने में दोनों देव असफल हुये। अन्त में दोनों हारकर विनम्र स्तुति करने लगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि सभी देवताओं में शिव ही सर्वश्रेष्ठ है। चित्र में ज्योति स्तम्ब विवादरत ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्त में आराधना करते विष्णु दृष्टव्य है। 
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रतनपुर के ऐतिहासिक स्मारक की टूटी कड़ी का महत्वपूर्ण सूत्र मिला
कण्ठीदेवल मंदिर का मानव कंकाल संतोष गिरि सन्यासी का ...

बिलासपुर. रतनपुर स्थित कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ कंकाल श्री संतोष गिरी नामक किसी सन्यासी की है। यह बात, कंठी देवल मंदिर की पुर्नसंरचना के लिए, शिलाखण्डों को उपर से उतारते समय, पश्चिम दिशा में जंघा भाग पर प्राप्त एक शिलालेख से मालूम होती है। इस शिलालेख में, देवनागरी लिपि में कुल पांच पंक्तियां है। शिलालेख का आकार ५२ बाई २७ बाई १३ सेन्टीमीटर है।

शिलालेख में मिले पांच पंक्तियों के देवनागरी में अनुवाद किया गया है, उसका शब्दशः इस प्रकार है। प्रथम पंक्ति - नमोः शिवाय द्वितीय पंक्ति - श्री भगवानाः। तीसरी पंक्ति - सन्यासी संतोष गिरि चौथी पंक्ति - करनी अंतिम पांचवीं पंक्ति - लः सुभःमस्तु सम।

शिलालेख के बारे में ऐसा समझा जाता है, कि इसमें अधिक पंक्तियां रही होंगी जो प्रस्तर के घिसने से मिट गई होंगी या खोदी नहीं जा सकी होंगी। वैसे, शिलालेख का शुभारंभ स्तुतिमान से होता है। इस शिलालेख में, सन्यासी संतोष गिरी का नाम उल्लेखित है। लेख के आधार पर यह अधिकतम दो सौ वर्ष प्राचीन है। शिलालेख मिलने के पश्चात् इस बात की सम्भावना बलवती हो गई है मंदिर से प्राप्त अस्थि कंकाल, संन्यासी संतोष गिरी की है। सूत्रों का इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के बारे में मानना है कि चूंकि अस्थी कंकाल मूलतः सवाधान के रखा गया था तथा मृतक का सिर उत्तर में और पैर दक्षिण की ओर था। चूंकि खुदाई के दौरान अस्थियों के टुकड़ों में जबड़ा, बांह, पैर, घुटने तथा खोपड़ी आदि मिले है।

मृत सन्यासी का आयु पैतालीस वर्ष से साठ वर्ष के बीचः:- प्राप्त अस्थि कंकाल के अवलोकन करने से एक बात यह भी सामने आयी है, कि चूंकि कंकाल के मिले जबड़े में पूरे दांत उपस्थित है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि मृतक सन्यासी की उम्र पैतालीस से लेकर साठ वर्ष के बीच की रही होगी। 

अस्थियां क्षरित होने के बावजूद सुरक्षित:- सन्यासी संतोष गिरी की अस्थियों के बारे में विशेषज्ञों का कथन है कि हालांकि समय की मार से, समाधिस्थ हड्डियां क्षरित हो चुकी है परन्तु इसके बावजूद हड्डियाँ सुरक्षित है। वैसे छानबीन में एक बात यह भी आयी है, कि प्राप्त अस्थि कंकाल कण्ठीदेवल, मंदिर के गर्भगृह के नीचे केन्द्र से दो तीन फिट हट कर है।

मंदिर निर्माण अनुमान:- रतनपुर के ऐतिहासिक कंठीदेवल मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि इस मंदिर में विभिन्न काल की कला शैली एवं धर्म सम्प्रदाय की प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खण्ड सहज उपलब्धता की दृष्टि से इकत्रित कर उन्हें मंदिर में जड़ दिया गया जिससे यह पता लगाना उस समय तक कठिन काम है जब तक की किसी शिलालेख में इसका उद्धरण न हो। वैसे कण्ठी देवल मंदिर के पूर्व की ओर निर्मित इस मंदिर के बाजू में ईंट निर्मित स्मारक भी किसी महन्त या राजपरिवार की समाधि होने की आशंका व्याप्त की गयी है।

भारतीय पुरातत्व विभाग की लापरवाही:- पुरातत्व विभाग का मुख्य मण्डल कार्यालय भुवनेश्वर में स्थित है। बिलासपुर में संरक्षण सहायक और पुरातत्व विभाग ने एक फोरमेन की नियुक्ति की है। जानकारी के अनुसार भारतीय पुरातत्व के बिलासपुर शाखा में अब कंठीदेवल मंदिर में पुनर्निमाण के लिए शिलाखण्डों को उतारा गया उस समय सर्किल कार्यालय भुवनेश्वर से सभी लोग उपस्थित थे। सभी कोनो से शिला उतारे गये, किन्तु जब इसका निर्माण प्रारंभ हुआ तब, इसका सारा सिर दर्द बिलासपुर कार्यालय पर थोप दिया गया और बलि का बकरा बनाने के लिए दोनों स्थानीय अधिकारियों पर ऐसी जिम्मेदारी सौप दी गई, जो साधनहीन है। जबकि जानकार अधिकारियों मानना है कि मंदिर का पुननिर्माण दुरुह कार्य है जबकि इसके लिए भारतीय पुरातत्व विभाग का भुवनेश्वर कार्यालय इसे एक अभियान के रूप में यहां स्थापत्य इंजीनियर, पुरातत्व मानचित्रकार, वरिष्ठ तकनिकी दल एवं रसायनिक परीक्षण विभाग का होना आवश्यक है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि बिलासपुर स्थित भारतीय पुरातत्व कार्यालय के अन्तर्गत २०-२५ महत्वपूर्ण पुरातत्व इमारत है परन्तु इन दो कनिष्ठ अधिकारियों के पास काम का इतना अधिक बोझ है कि सालों में बड़ी मुश्किल से दूर के स्मारको को देख पाते हैं।
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इस परिप्रेक्ष में ऐसी संरचना और छत्तीसगढ़ की परंपरा पर कुछ बातें। रतनपुर थाना के पास कुंवरपार तालाब पर गोसाईपारा है, किंतु यहां अब गोसाई-गोस्वामी परिवार नहीं हैं, बल्कि करइहापारा में गोसाईं परिवार हैं, जिनका सौ वर्षों से अधिक का ज्ञात इतिहास है और परंपरानुसार इन परिवारों की जड़े और गहरी हैं। करइहापारा निवासी 55 वर्षीय सोमेश्वर गिरि गोस्वामी जी बताते हैं कि यहां नागा साधुओं का डेरा रहता था और भोग-भंडारा के लिए कड़ाहा (करइहा) चढ़ता था, इसी से इस पारा का नाम पड़ा। संभव है कि कंठी देउल मंदिर से प्राप्त शिलालेख से इसके सूत्र जुड़ते हों।
संवत 1941 यानि सन 1884 की नागपुर से
जिला बिलासपुर, रतनपुर के करैहापारा में भेजी गई डाक,
 जिस पर ‘गुलाबगीर‘ और ‘गोसंई‘ लिखे होने का अनुमान होता है।

लीलागर नदी के दाहिने तट पर बलौदा-महुदा के देवरहा में भी इसी तरह का एक स्मारक मोतिया-कुकुरदेव मंदिर है, लीलागर नदी के बायें तट पर स्थित इस स्मारक के दूसरी ओर ग्राम कुगदा है, जहां पृथ्वीदेव द्वितीय का खंडित शिलालेख, कलचुरि संवत 893 (सन 1141-42) प्राप्त हुआ है, इसके पास ही बछौदगढ़ स्थित है। मोतिया मंदिर में कलचुरिकालीन शिलालेख के टुकड़े भी हैं, जो संभव है कि नदी के दूसरे तट के कुगदा शिलालेख से संबंधित हों। इस स्मारक के साथ नायक-बंजारा की कथा जुड़ी है। यों छत्तीसगढ़ में शवाधान के महापाषाणीय स्मारकों से ले कर बस्तर के उरसकल-उरसगट्टा तक की परंपरा है। दुर्ग जिले के छातागढ़, बिलासपुर जिले के मल्हार और कांकेर जिले के आतुरगांव से ईस्वी की आरंभिक सदी काल के स्मारक शिलालेख भी उल्लेखनीय हैं।

बैरागी और कबीरपंथी जैसे समुदायों में मृतक संस्कार के साथ कब्र बनाने का प्रचलन है। कंठी देवल से प्राप्त शिलालेख के बाद कोई संदेह नहीं रहा कि यह समाधि स्थल-स्मारक है। संतोष नाम के साथ गिरि से यह अनुमान होता है कि वे दशनामी शैव संन्यासी संप्रदाय से संबंधित है। इस आधार पर कंठी देवल नाम को भी समझना आसान हो जाता है, देवल या देउल देवालय है और कंठी, बैरागियों द्वारा गले में धारण किये जाने वाली माला का परिचायक है। कई ऐसे हैं, जिनका निर्माण प्राचीन मंदिरों की प्रतिमाओं, स्थापत्य खंडों का इस्तेमाल कर बनाए गए हैं, जिनमें से एक यह कंठी देउल है।

जानकारी मिलती है कि रायपुर के कंकाली तालाब को 17वीं शताब्दी में महंत कृपाल गिरी ने बनवाया था। इस परंपरा में क्रमशः रामगिरि, सुजानगिरि, अयोध्यागिरि, सुभानगिरि के बाद संतोषगिरि का नाम मिलता है। आगे इस क्रम में शंकरगिरि, सोमारगिरि, शंभुगिरि, रामेश्वरगिरि के बाद वर्तमान महंत हरभूषणगिरि गोस्वामी हैं। इनमें प्रत्येक की महंती का औसत काल 30-35 वर्ष मानें और कंकाली मठ के महंतों की सूची वाले और कंठी देवल वाले संतोषगिरि, एक ही हैं तो उनका काल उन्नीसवीं सदी का पहला चतुर्थांश निर्धारित किया जा सकता है। आसानी से माना जा सकता है कि ‘गिरी‘ और ‘कंकाली‘ मात्र संयोग नहीं। रायपुर के इसी कंकाली मठ में ‘जीवित समाधि‘ स्थल हैं, जिन पर शिवलिंग स्थापित किया गया है।
कंठीदेवल वर्तमान स्वरूप और सूचना फलक

गुम्बद, मुस्लिम स्थापत्य से जुड़ा है। भारत में चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक गुम्बददार इमारतें बनती रहीं, जिनमें मकबरे भी थे। सत्रहवीं सदी में बना आगरा का ताजमहल, दिल्ली का जामा मस्जिद और बीजापुर का गोल गुम्बद, स्थापत्य के खास नमूने हैं। इसके साथ ही गुम्बद, गैर-मुस्लिम भारतीय संरचनाओं में भी अपना लिया गया। गुम्बद वाले मंदिर भी बनने लगे। इनमें विशिष्ट है मुकरबे, यानि मकबरे, जो मुसलमानों के अलावा भारतीय-हिंदू मान्यताओं वाली संरचनाओं के लिए भी अपना लिए गए। मेरी देखी ऐसी संरचनाओं में से एक, प्राचीन सामग्री का इस्तेमाल कर निर्मित अत्यंत भव्य स्मारक, शहडोल के निकट स्थित पंचमठा है।

समाधियों, मृतक स्मारक-संरचनाओं के लिए छतरी और मुकरबा, शब्द अपना लिया गया। संभवतः मात्र संयोग मगर, गुम्बद का आकार, बौद्ध अवशेष को जतन से रखने के लिए बनाई जाने वाली संरचना, स्तूप से मिलता-जुलता है। महाभारत, वनपर्व 190/67 में संभवतः बौद्ध स्तूपों और मृतक-समाधियों के लिए कहा गया है कि युगांतकाल में देवस्थानों, चैत्यों और नागस्थानों में हड्डी जड़ी दीवारों के चिह्न होंगे ...‘। दिल्ली, मध्य भारत, बुंदेलखंड, बघेलखंड में मुकरबे देखे-सुने जाते हैं। ग्वालियर, इंदौर की छतरियां प्रसिद्ध हैं। शिवपुरी में सिंधिया परिवार की और ओरछा में बुंदेलों की छतरियां-समाधि स्थल दर्शनीय है। ऐसी संरचनाओं के साथ मंदिर वाली आस्था और उसकी पवित्रता का भाव भी जुड़ जाता है, जैसा कंठी देउल के साथ रहा है। इसके पूजित होने की जानकारी नहीं मिलती, किंतु गर्भगृह में शिवलिंग की स्थापना रही है। यहां गुलेरी जी के लेख ‘देवकुल‘ का अंश प्रासंगिक होगा, जिसमें बताया गया है कि- ‘मंदिर को राजपूताने में ‘देवल‘ कहते हैं। ... ‘देवकुल पद देवमंदिर का वाचक भी है, तथा मनुष्यों के स्मारक चिह्न का भी।‘ ...‘रजवाड़ों में राजाओं की छतरियां या समाधि-स्मारक बनते हैं। ... कहीं-कहीं उनमें शिवलिंग स्थापन कर दिया जाता है, ... परंतु कई यों ही छोड़ दी जाती हैं।‘  

 एक अन्य ‘मंदिर‘- 
‘अंगरेज का मंदिर‘ कही जाने वाली अलेक्जेंडर कैनिनमंड इलियट की समाधि, ग्राम सेमरापाली, सारंगढ़। इतिहास में प्रथम दर्ज छत्तीसगढ़ आया अंगरेज यात्री, जिसकी मृत्यु कलकत्ता से नागपुर जाते हुए, 23 वर्ष की आयु में 12 सितंबर 1778 को हुई।

Thursday, July 6, 2023

मल्हार का खजाना

नवभारत, बिलासपुर के फीचर पेज ‘इंद्रधनुष‘ पर ‘पुरातत्व‘ के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित

प्राचीन सिक्कों में छिपी है वैभव गाथा
- पी. एन. सुब्रमणियन

मल्हार पुराने इतिहास और संबंधित सामग्री में दिलचस्पी लेने वालों के ‘मल्हार‘ का भौगोलिक परिचय अधिक जरूरी नहीं है क्योंकि यह स्थान न केवल छत्तीसगढ़ वरन् पूरे देश में इतिहासचेता लोगों में लगभग ५० वर्षों से बराबर चर्चा में रहा है। ईस्वी पूर्व की आठवीं सदी से प्रारंभ हो रही ढ़ाई हजार वर्षों से भी अधिक काल के इतिहास प्रमाण का निरंतर सिलसिला स्मारक, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन, मनके, दैनिक जीवन में उपयोग की विभिन्न सामग्री और इतिहास के पक्के- अभिलेख व सिक्कों के रूप में पूरी समृद्धि और विविधता सहित, मानो यहाँ इकट्ठी हैं। इसलिए दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी हेतु मल्हार का ही अनुमान होता है और यह स्थान व्यापारिक एवं धार्मिक गतिविधियों का विख्यात केन्द्र तो अवश्य रहा है। 

वैसे तो मल्हार की पुरातात्विक सामाग्रियां चर्चा में रही है, किन्तु ऐसी चर्चाओं का प्रतिशत, प्राप्तियों की तुलना में नगण्य है, यही कारण है कि स्थल में समय समय पर आनेवाले पुरातत्व के मेहमानों का ऐसा स्वागत किया है कि वे स्तम्भित रह गये हैं। सर्वश्री वि. श्री. वाकणकर, के. डी. बाजपेयी ये सभी यहाँ के अप्रत्याशित उपहार से अभिभूत हुए हैं। ऐसे भी विद्वानों और तथाकथित इतिहास प्रेमियों की कमी नहीं है जिन्होंने मल्हार की सामाग्रियों का दोहन व्यक्तिगत संग्रह कर मिथ्याभिमान करने से अधिक उपयोगी नहीं समझा और शायद ऐसे इतिहास प्रेमी उन ग्रामीण किसानों से कहीं अधिक दोषी हैं, जिन्हें ये सामाग्री खेती-बाड़ी के काम के दौरान या मकान के लिए मिट्टी खोदते हुए या बरसात के कटाव में प्राप्त होती है तथा जिनकी जागरूकता सीमित है। वे बस यह जानते है कि व्यक्तिगत परिचय वाले इतिहास प्रेमी इसे पाकर खुश होंगे और यदि पुलिस या शासन को इसकी सूचना मिली तो हम जेल में डाल दिये जायेंगे। चूंकि अधिकांश प्राप्त सामाग्री किसी व्यवस्थित तकनीकी उत्खनन का नहीं बल्कि इन्हीं ग्रामीणों की ‘चान्स डिस्कवरी‘ का फल होता है, अतः यह या तो प्रकाश में ही नहीं आ पाता या सार्थक हाथों में नहीं पड़ता। इसी तरह की सामग्री विशेषकर सिक्के मुझे मल्हार के ठाकुर गुलाब सिंह एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय के सौजन्य से देखने को मिले या प्राप्त हुए और इन सिक्कों में से कुछ ऐसे निकल आये जो स्वयं में विशिष्ट श्रेणी के हैं ही, इनके माध्यम से तत्कालीन क्षेत्रीय इतिहास पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है, इसी दृष्टि से उन कुछ विशिष्ट सिक्कों की चर्चा विषय का विशेषज्ञ न होने पर भी करना आवश्यक जान पड़ने लगा। 

इन सिक्कों में सबसे पहले कुछ आहत (Punch Marked coins) सिक्के हैं। इस प्रकार के सिक्के भारत में विनियम हेतु प्रयुक्त माध्यम ‘मुद्रा‘ का आदि स्वरूप है। इतिहास में वस्तु विनिमय की स्थिति के बाद ‘गौ‘ माध्यम से लेनदेन होता था। आवश्यकता और उपयोगिता के औचित्य से धातु पिण्डों को मानक और सुविधाजनक माना गया है और इनका प्रचलन बढ़ता ही गया। इस प्रकार अर्थशास्त्रीय दृष्टि से आहत सिक्के ही प्रथमतः प्रचलित हुए, जिन्हें ‘मुद्रा‘ की परिभाषिक संज्ञा के अनुक्रम में आरंभिक स्थान दिया जा सकता है। आहत सिक्के लगभग २७०० वर्ष पूर्व प्रचलन में आये और परवर्ती अन्य प्रकारों के साथ करीब १००० वर्ष तक प्रचलित रहे। सामान्यतः आहत सिक्कों के निर्माण में एक निश्चित वजन के चाँदी के टुकड़े पट्टी में से काटकर या ढालकर तैयार किये जाते थे जिन्हें आघात कर चिन्हांकित कर लिया जाता था। 

मल्हार से प्राप्त चांदी के दो आहत सिक्के अपने में विशिष्ट प्रकार के हैं। ये सिक्के ४ पण अर्थात ८ रत्ती (आज के संदर्भ में २५ पैसे) मूल्य के हैं। तत्कालीन मुद्रा प्रणाली में मानक कर्षापण था। आज के रूपये जैसा, जिसका वजन ३२ रत्ती होता था। एक कर्षापण सोलह पणों में विभाजित था। यह व्यवस्था ठीक रूपया आना की भांति से थी, अर्थात जहाँ १६ आने का १ रूपया होता था उसी तरह १६ पणों का कर्षापण। मुद्रा शास्त्रीय अध्ययन इतिहास में विशेषज्ञों ने हजारों आहत मुद्राओं के वजन, उन पर दृष्टिगोचर चिन्ह कृतियों का सूक्ष्म परीक्षण कर, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर निर्माण तकनीक, मुद्रा मानक, प्रचलन क्षेत्र आदि का निष्कर्ष निकाला। 

आहत सिक्कों के चलन के क्षेत्र की पहचान का मुख्य आधार उन पर अंकित चिन्ह ही है। इस दृष्टि से मल्हार के क्षेत्र में ‘४‘ चिन्हांकित सिक्कों का प्रचलन रहा होगा, क्योंकि विवेच्य दोनों आहत सिक्कों पर यह चिन्ह अंकित है, किन्तु इन चिन्हों के कारण ये सिक्के भारतीय आहत सिक्कों के वर्गीकरण में एक अलग श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्योंकि अब तक ज्ञात आहत, सिक्कों पर इस प्रकार के चिन्हों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, साथ ही कर्षापण मूल्यमान के सिक्के भी भारतीय मुद्राशास्त्र में अल्पज्ञात है। इसीलिए इन्हें विशिष्ट प्रकार के सिक्के माना गया है, निश्चय ही यह चिन्ह इस क्षेत्र के आहत सिक्कों की अलग श्रेणी निर्धारित करता है। इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यही चिन्ह मल्हार के विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग काल के भिन्न-भिन्न सिक्कों पर उपयोग होता रहा है। 

इन सिक्कों का मल्हार में पाया जाना, इनके विशिष्ट प्रचलन क्षेत्र का आभास तो कराता ही है साथ ही मल्हार के प्राचीन सुविकसित अंतर्देशीय व्यावसायिक केन्द्र होने की पुष्टि भी करता है। एक अन्य रोचक एवं प्रासंगिक साम्य यह भी है कि बौद्ध साहित्य में लगभग २५०० वर्ष पूर्व श्रावस्ती के श्रेष्ठि अनाथपिंडक द्वारा कुमार जेत के जेतवन नामक आम्रवन को बुद्ध के एक दिवसीय प्रवास हेतु क्रय करने का उल्लेख है। कुमार जेत आम्रवन बेचने को तैयार नहीं थे किन्तु अनाथपिंडकं द्वारा मुहमांगे मूल्य का प्रस्ताव रखा गया। पूरे वनक्षेत्र को सिक्कों (निश्चय ही तत्कालीन प्रचलित आहत सिक्के) से ढंक कर मूल्य दिये जाने की लगभग असंभव शर्त रखी, जिसे अनाथपिंडक ने सहर्ष स्वीकार कर गाडियों से सिक्के मंगवाकर वनक्षेत्र में फैलाना आरंभ कर दिया। मल्हार के सिक्कों के संदर्भ में यह कथा मात्र संयोग की सीमा से अधिक रोचक हो जाता है क्योकि मल्हार का निकटवर्ती ग्राम जैतपुर है। स्थल पर बौद्ध धर्म के अवशेष तो विद्यमान हैं ही, साथ ही सिक्के भी विपुल संख्या में प्राप्त होते हैं।

मल्हार से प्राप्त एक मिश्रधातु का सिक्का भारत पर विदेशी आक्रमणों के आरंभिक काल अर्थात २३०० साल पहले की याद दिलाता है। जब भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, इस काल भारतीय इतिहास का कुछ भाग ‘इण्डो-ग्रीक काल‘ के रूप में जाना जाता है।

संदर्भित सिक्के पर महान यूनानी योद्धा (सिकंदर) की मुख्यकृति अंकित है। लेखांकित सिक्के का लेख अस्पष्ट होने के बावजूद यह सिक्का यूनानियों का मल्हार तक संबंध इंगित करता है। सिक्के पर दो छिद्र बने है जो संभवतः बाद में किसी व्यक्ति द्वारा धारण करने के प्रयोजन से किये जान पड़ते है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिक्के मल्हार से मिले हैं जो अधिकतर सीसे के हैं। इन सिक्कों पर गज चिन्ह के साथ साथ ब्राह्मी लिपि का लेख ‘राञो मघसिरिस’ ‘मघ‘ अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों की बहुलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि मल्हार में दूसरी/तीसरी सदी में मघ वंश का शासन रहा होगा। यहाँ यह बताना समुचित होगा कि मघवंश का शासन कौसाँबी दूसरी/तीसरी सदी में (इलाहाबाद के पास वर्तमान कोसम), रीवां और बांधवगढ़ में वहाँ से प्राप्त सिक्कों का अध्ययन प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री श्री अजयमित्र शास्त्री द्वारा किया गया था। उन पर एक ग्रंथ ‘कौसाँबी होर्ड आफ मघ कॉयन्स‘ भी प्रकाशित हुई है। हमारे पुराणों में उल्लेख है कि मघ वंश का शासन दक्षिण कोसल में रहा परन्तु पुरातात्विक प्रमाणों के अभाव में श्री शास्त्री ने अपने निष्कर्षों में यह कहा है कि संभवतः दक्षिण कोसल की उत्तरी सीमा बांधवगढ़ तक रही होगी और इसी कारण मघ वंश के दक्षिण कोसल पर आधिपत्य का उल्लेख आ गया होगा। बड़ी मात्रा में मल्हार से प्राप्त हो रहे ‘मघ‘ सिक्कों से अब न केवल इस वंश के दक्षिण कोसल से उद्भव का पौराणिक उल्लेख प्रमाणित होता है, वरन् इस बात की संभावना भी बनती है कि मध वंश मूलतः मल्हार से अंकुरित होकर कौसाम्बी की ओर बढ़ा हो। लिखावट की शैली से यह तथ्य आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, बांधवगढ़, रीवां और कौसांबी मे मघ शासकों के शिलालेख पाये गये हैं परन्तु मल्हार में उनका न पाया जाना, सिक्कों के आधार पर उपरोक्त निष्कर्षाें को प्रभावित नहीं करते। शिलालेखों का अपने ही गृहनगर में उत्कीर्ण किया जाना किसी भी शासक के लिए अनिवार्य नहीं हुआ करता वह उनका उपयोग नये विजित क्षेत्रों में अपने अधिकार को जताने के लिये करता है। यह भी हो सकता है कि मल्हार में मघों के शिलालेख रहें हों और बाद के शासकों द्वारा नष्ट कर दिये गये हों अथवा संयोगवश अब तक प्राप्त न हो सके हों।

अंत में मल्हार से प्राप्त कुछ अन्य सिक्कों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो लगभग ‘मघ‘ सिक्कों के ही समकालीन है। इन सिक्कों पर चिन्ह भी मघ सिक्कों से मिलते जुलते हैं किन्तु लेख अलग-अलग हैं। राजा और श्री के प्राकृत रूप ‘रा´ो‘ तथा ‘सिरिस‘ के सामान्य उपयोग के अतिरिक्त शासक का नाम ‘चंद‘, ‘भालीगस‘, ‘अचड‘, ‘धमगस‘, ‘सालुकस‘ आदि प्राप्त होते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के मिलते हैं, जिनका आकार मसूर के दाने से अधिक है। मुद्राशास्त्रियों द्वारा इनका परीक्षण तथा विस्तृत विवेचन कर भारतीय इतिहास के उन चार सौ वर्षों (ईसापूर्व और पश्चात के दो दो सौ वर्ष) की स्थितियों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसका अधिकांश ‘अधंकार युग‘ माना जाता है। साथ ही साथ मल्हार में यदि पुरातत्वीय उत्खनन किन्हीं कारणों से संभव न हो तो कम से कम संग्रह हेतु शासकीय प्रयास विभागीय तौर पर कराये जाने का उपाय आवश्यक है अन्यथा भारतीय इतिहास के न जाने कितने धरोहर अनजान रह जायेंगे और इतिहास के कितने ही पक्षों के उजागर हो सकने संभावना स्रोत सूख जायेंगे।
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प्राचीन मुद्राओं और उनके अध्ययन पर कुछ बातें। अजयमित्र शास्त्री जी के अलावा डॉ. सुस्मिता बोस मजुमदार ने इन सिक्कों पर गंभीर शोध किया है। रुचि लेने वाले संग्राहकों और अध्येताओं में रोहिणी कुमार बाजपेयी जी, राजेश तिवारी जी भी रहे। 

इस प्रकाशित मसौदे के लेखक, मूलतः केरल के, जिनकी स्कूली शिक्षा जगदलपुर में हुई, अपना नाम पा.ना. सुब्रमणियन लिखते हैं, मलयालम, दक्षिण भारतीय अन्य भाषाओं के साथ हल्बी, छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी पर अधिकार है, भारतीय स्टेट बैंक में स्केल-5 अधिकारी रहे, हिंदी पखवाड़ा और उसके बाद भी अपनी मेज पर लिखा रखते ‘मुझे अंगरेजी नहीं आती‘। ‘बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक‘, जिसका मुख्यालय बिलासपुर में होता था, में महाप्रबंधक पद पर रहे हैं।

कुछ और स्मृतियां। इस बैंक के साथ इसके शुरुआती दिनों को याद किया जाना आवश्यक है। सिक्कों-मुद्रा के साथ बैंक का रिश्ता तो होता ही है।अनोखी सूझ और दृष्टि के व्यक्ति इतिहास-पुरातत्व सजग एच.एम. शारदा जी हैं, जिन्होंने तब इस बैंक की शाखाएं खोलने के लिए युक्ति अपनाई, वह बेमिसाल थी। उनका सोचना था कि जिन गांवों में पुरातात्विक अवशेष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो ग्राम महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, निश्चय ही वह आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा होगा, इसलिए ग्रामीण बैंक की शाखाएं ऐसे ही गांवों में होनी चाहिए। यह उनकी इतिहास-पुरातत्व रुचि के अनुकूल था और हम पुरातत्व अधिकारियों के लिए अमूल्य मददगार। तब, यानि 1985-90 के दौरान ग्रामीण बैंक में रामू महराज यानि रामप्रसाद शुक्ला जी, रंजन राय जी, परमानंद जी, महेशचंद्र पंत जी, विवेक जोगलेकर जी, उदय कुमार जी जैसे गुणी लोग रहे हैं।

वापस सुब्रमणियन जी पर। उनकी रुचि, सजगता और अध्ययन का प्रमाण यह लेख तो है ही। गोदान के प्रसंग वाले अभिलेख स्थल ऋषभतीर्थ-गुजी यानि दमउदहरा में बैंक की ओर से शिलालेख के परिचय वाला पट्ट लगवाया था। हमारा कार्यालय सीमित संसाधनों और स्टाफ वाला होता था, मगर ग्रामीण बैंक की शाखाएं दूरस्थ-दुर्गम अंचल में होने के कारण हमारी भागदौड़ भी कई बार सीमित हो जाती थी मगर बेहद महत्व की सूचनाएं, जानकारियां और कई बार कार्यवाही में मदद ग्रामीण बैंक के अधिकारियों के माध्यम से हो जाया करती थी।

सुब्रमणियन जी  का ब्लॉग मल्हार Malhar गंभीर मगर रोचक रहा है और मेरी ब्लॉग यात्रा का पहला कदम उन्हीं के सहारे उठा था। हां, सुब्रमणियन जी संबंधी एक खास बात और, वे अमृता-प्रीतम के पिता हैं। जी हां, उनकी पुत्री का नाम अमृता और पुत्र प्रीतम नामधारी हैं।सुब्रमणियन जी ने पुराने सिक्कों का संभवतः अपना सारा संग्रह देश के महत्वपूर्ण प्राचीन मुद्रा अध्ययन केंद्र आंजनेरी, नासिक को भेंट स्वरूप सौंप दिया है।

Tuesday, July 4, 2023

जुआ - गिरधारी

‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ पत्रिका के दीपावली विशेषांक, 28 अक्तूबर से 3 नवम्बर 1984, पेज-41 पर गिरधारीलाल रायकवार जी का प्रकाशित लेख-

जब शिव नन्दी को जुए में हारे
जी. एल. रायकवार 

भारतीय मूर्तिकला विविधता तथा रोचकता का भण्डार बहुविध आयामों से परिपूर्ण है। भारतीय शिल्पियों ने शिल्पकला में पौराणिक आख्यानों को सजीवता से रूपायित किया है। इन प्रतिमाओं में शास्त्रीय विधानों का निर्वहन तथा आध्यात्मिकता का अपूर्व संयोग संचरित है। शास्त्रीय उपबन्धों का पालन करते हुए भाव साम्राज्य से निःश्रृत कल्पना का अपूर्व ओज, कलात्मकता तथा लावण्यता के साथ मौलिक परिवेश में प्रस्तुत करने में तत्कालीन शिल्पियों ने असाधारण सफलता प्राप्त की है। कल्पना के उद्दाम प्रवाह में शारीरिक सौन्दर्य, अद्भुत लोच, लावण्य, तथा भव्यता सहित शिल्पकार के प्रयास से शिल्प खण्डों में जीवन्त हो उठा है। इन्हीं विशेषताओं के फलस्वरूप भारतीय मूर्तिकला में लौकिक जीवन से सम्बन्धित विविध आयाम युद्ध, नृत्य, क्रीड़ा, मृगया आदि विषय उच्च आध्यात्मिकता से परिपूर्ण देव प्रतिमाओं के साथ देवालयों में प्रचुरता से निर्मित किए गए हैं। देवालयों में स्थित लौकिक प्रतिमाएं इसी सान्निध्यगुण से आछन्न होने के कारण कुत्सित मनोविकारों को उद्वेलित नहीं कर पाती हैं।

पौराणिक आख्यानों में शिव से सम्बन्धित अत्यन्त मनोरंजक कथानक हैं। शिव का वेश आभूषण, परिवार, वाहन एवं अनुचर सब परस्पर विरोधी हैं। उनकी सहज उदारता अनेक अवसरों पर उनके लिए ही संकट के कारण बने हैं। ऐसे महेश्वर, महाकाल, महायोगी, नटराज विविध सद्गुणों से अलंकृत देवाधिदेव महादेव के परिहासमय सरस स्तुतियां तथा सूक्तियां संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के काव्यों में उपलब्ध हैं। शिव के उग्र, सौम्य, शान्त, वीर, श्रृंगारिक आदि विविध प्रतिमाओं का अंकन लोकजीवन में व्याप्त शिव के सर्वाधिक प्रभाव को सूचित करता है। स्मृतियों में द्यूत (जुआ) को निन्दनीय माना गया है परन्तु कुछ शिव प्रतिमाओं में उन्हें पार्वती के साथ द्यूत क्रीड़ा में संलग्न दिखाया गया है। शिल्पशास्त्रों में इस प्रकार के प्रतिमा निर्माण का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। मूर्तिविज्ञान विषय से सम्बन्धित प्रकाशनों में इस प्रकार की प्रतिमाओं का वर्णन नहीं है। सम्भवतः लोकजीवन में मान्य परम्पराओं को शिल्पियों की सृजनात्मक कल्पना शक्ति ने ग्रहण कर शिव प्रतिमा के अधिष्ठान भाग पर द्यूत क्रीड़ा अंकित कर एक अपूर्व मनोरंजक कथानक की सृष्टि कर दी है। इस प्रकार की प्रतिमाएं अत्यन्त दुर्लभ हैं।

द्यूत क्रीड़ारत उमा-महेश्वर प्रतिमाओं में विषय का अभिज्ञान लेखक ने विविध शिव प्रतिमाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के उपरान्त सिद्ध करने का प्रयास किया है। ऐसी प्रतिमाओं में कथा बिन्दु, दो दृश्यों में प्रदर्शित है। प्रथमतः चौसर खेलते हुए उमा महेश्वर तथा उनके चतुर्दिक स्थित शिव परिवार, तत्पश्चात जुए में जीत की परिणति। इस कथानक से सम्बन्धित मात्र तीन प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में लेखक को ज्ञात हुई हैं। एक प्रतिमा ८वीं-९वीं शती ईस्वी की है तथा गुर्जर प्रतिहार कला की देन है। यह प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में मूल रूप से स्थित है। द्वितीय प्रतिमा १०वीं-११वीं शती ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरी शासकों के काल में निर्मित है तथा रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में प्रदर्शित है। तृतीय खण्डित प्रतिमा सागर जिले से ही प्राप्त हुई है तथा परमार शासकों के काल में लगभग ११वी-१२वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इन तीनों प्रतिमाओं में विषय वस्तु समान है।

इस प्रतिमा में शिल्पकार ने शिव परिवार सहित सम्पूर्ण कथानक प्रारम्भ से अन्त तक स्पष्ट करने असाधारण कौशल का परिचय दिया है। उमा महेश्वर परस्पर सम्मुख ललितासन में बैठे हुए चौसर खेल रहे हैं। दोनों के मध्य चौसर रखा हुआ है। प्रभावली पर हंसारूढ़ ब्रह्मा तथा आकाशचारी विद्याधर युगल अंकित हैं। विष्णु खण्डित हैं। मध्य पार्श्व में भैरव, भृंगी, वीरभद्र, मयूरासीन कार्तिकेय तथा आराधक परिचारक प्रदर्शित हैं। शिव के शीर्ष भाग पर जटामुकुट, नाग तथा अर्धचन्द्र सुशोभित है। पार्वती के मस्तक पर अलंकृत केश विन्यास है तथा चक्रकुण्डल, चन्द्रहार, स्तनसूत्र, भुजबन्ध, कलाई भर चूड़ियां, कंगन, कटिसूत्र एवं लहरियादार साड़ी पहनी हुई हैं। चतुर्भुजी शिव ऊपरी दाएं हाथ में त्रिशूल पकड़े हैं तथा निचले हाथ की अंगुलियों से गोटियों का क्रम संकेत कर रहे हैं। ऊपरी बाएं हाथ की तीन अंगुलियों से गोटियों की संख्या संकेत कर रहे हैं। द्विभुजी पार्वती दाएं हाथ में पासा पकड़ी हुई हैं। चौसर खेलते शिव के मुख पर गहन चिन्तन के भाव हैं जबकि पार्वती मुख पर विजयोल्लास के भाव प्रदर्शित हैं। प्रतिमा के निचले भाग पर नन्दी मध्य में खड़े हुए प्रदर्शित हैं। उनके गले में रस्सा बंधा हुआ है जिसे पकड़ कर पार्वती की सखियां नन्दी को अपनी ओर खींच रही हैं। दाईं ओर स्थित एक शिव गण नन्दी का सींग पकड़ कर डण्डे से मार रहा है तथा दूसरा पीछे से डण्डा मार कर हांक रहा है। नन्दी के पीछे आसनस्थ द्विभुजी गणेश उल्लासित दृष्टि से नन्दी का पीटा जाना तथा पार्वती की सखियों द्वारा उसका हरण देख रहे हैं। इस दृश्य में में जुए में पार्वती के द्वारा शिव से नन्दी को जीता चित्रित है। ऐश्वर्यविहीन दिगम्बर शिवजी के पास कोई सम्पत्ति तो नहीं है। अतः उन्होंने अपने वाहन नन्दी को ही दांव में लगा दिया और उसे हार भी गए।

इसी प्रकार की दूसरी प्रतिमा सागर जिले के एक प्राचीन भग्न मन्दिर में प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा अधिक प्राचीन है तथा गुर्जर प्रतिहार शासकों के काल में लगभग ८वीं-९वीं शती ईस्वी में निर्मित है। इस प्रतिमा में भी उमा महेश्वर चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। गणेश तथा कार्तिकेय उनके समीप खड़े हुए हैं। प्रतिमा अधिष्ठान पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी हुई रस्सी को पकड़ कर खींच रही हैं। इस प्रतिमा से यह सिद्ध होता है कि उमा महेश्वर के मध्य जुए में शिव के द्वारा नन्दी को हारने विषयक कथानक ८वीं-९वीं शती ईस्वी से प्रचलित है।

तृतीय तथा अन्तिम प्रतिमा भी सागर जिले में प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा का उर्ध्व भाग भग्न है तथापि यह प्रतिमा विशिष्ट प्रकार की है। इस प्रतिमा में पार्वती दाईं ओर तथा शिव बाईं ओर बैठे हुए हैं। भारतीय परम्परा में सामान्यतः नारी को बाएं ओर रूपायित किए जाने का विधान है। विपरीत क्रम गुण के कारण यह प्रतिमा असाधारण है। इस प्रतिमा में ऊपरी भाग पर शिव-पार्वती चौसर खेलते हुए प्रदर्शित हैं। अधिष्ठान भाग पर पार्वती की सखियां नन्दी के गले में बंधी रस्सी को पकड़ कर अपनी ओर (दाईं तरफ) खींच रही हैं। सबसे अन्त में गणेश तथा कार्तिकेय स्थित हैं।

प्राचीन स्मृतिकार यथा मनु, नारद तथा वृहस्पति ने द्यूत (जुआ) को वह खेल कहा है जो पास, चर्मखण्डों तथा हस्तिदन्त खण्डों से खेला जाता है तथा जिसमें कोई बाजी लगी रहती है। मूर्तिकला में देवताओं के द्वारा द्यूत (जुआ) का यही एक उदाहरण है जो शिव से सम्बन्धित है। इसी प्रकार शिवजी के द्वारा जुआ खेले जाने का यही एकमात्र उदाहरण है जिसमें वे नन्दी को हार गए थे। गनीमत यह रही कि शिव नन्दी को दांव में अपनी अर्धांगिनी से ही हारे। अतः बाद में उन्हें नन्दी वापस मिल गया। इस हार के बाद शिवजी ने फिर कभी द्यूतक्रीड़ा में भाग नहीं लिया।
* * *
टीप- छत्तीसगढ़ में इस कथानक की शिल्पकृति ताला के देवरानी मंदिर के द्वारशाख पर (अब तक ज्ञात ऐसी सबसे पुरानी), सिरपुर स्थानीय संग्रहालय में तथा मल्हार के पातालेश्वर मंदिर के द्वारशाख पर भी है।
   ताला                                      मल्हार             सिरपुर

पुनः इस प्रसंग की चर्चा होने पर किसी कथावाचक ने इसे आगे बढ़ाया, क्षेपक की तरह- इससे हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।

Monday, July 3, 2023

गंगा - गिरधारी

‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ पत्रिका के पुस्तक विशेषांक, 3 से 9 मई 1987, पेज-15 पर गिरधारीलाल रायकवार जी का प्रकाशित लेख-  

गंगावतरण का शिल्पांकन: देवरानी मन्दिर 
जी.एल. रायकवार 

दक्षिण कोशल के ज्ञात मन्दिरों की शृंखला में ताला का देवरानी मंदिर सर्वाधिक प्राचीन है। बिलासपुर-रायपुर सड़क मार्ग पर मनिहारी नदी के तट पर स्थित इस मन्दिर में गुप्तकालीन कला परम्परा की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ऊंचे आयताकार अधिष्ठान पर निर्मित यह पूर्वाभिमुखी शिव मन्दिर वास्तु-कला की विलक्षणता से परिपूर्ण है। इस मन्दिर की बाह्य संरचना तथा प्रवेश द्वार मूल रूप से अवशिष्ट हैं। प्रवेश द्वार पर बने विविध शिव-कथानक एवं अलंकरणात्मक कला के उत्कृष्टतम नमूने हैं। 

स्थानीय लाल बलुआ प्रस्तर से निर्मित आयताकार यह मन्दिर अर्धमंडप, प्रवेश द्वार-अंतराल तथा गर्भगृह में विभक्त है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए चन्द्रशिला से संयुक्त ऊंची चौड़ी सीढ़ियां निर्मित हैं, जिसके दोनों ओर बौने आकृति के तुण्डिल शिवगण द्वारपाल के रूप में प्रदर्शित हैं। अर्धमंडप पर दो विशाल आकार के तोरण स्तंभ अवशिष्ट हैं, इनके शीर्ष भाग पर शिल्प पट्ट अथवा प्रतिमा प्रस्थापित रहे होंगे। इस मन्दिर की वास्तु-योजना में गंगा-यमुना मंडप की आंतरिक पार्श्वभित्तियों में ऊपर की ओर आमने-सामने प्रदर्शित हैं। गंगा-यमुना के सतत् प्रवाहिणी रूप को प्रदर्शित करने के लिए शिल्पियों ने द्विभंग-भंगिमा, तरंगवत पारदर्शी वस्त्र विन्यास तथा जलज पादपों को लहरों के साथ चित्रित कर सहज सौंदर्य को प्रस्फुटित किया है। 

मन्दिर का प्रमुख प्रवेश द्वार कला के इस माधुर्य से सम्पृक्त शृंगार तथा तप पूरित पौराणिक कथानकों एवं जटिलतम सूक्ष्म अलंकरणों से सम्पन्न है। द्वार-शाखा की अलंकरण योजना में केंद्र से निःसृत जालिकावत वृतों में शुक, सारिका, मयूर, नर आदि का कलात्मक अंकन है। प्रवेश द्वार की बाह्य शाखा विविध प्रकार की पुष्पीय आकृतियों से उत्खचित तथा शृंखलाबद्ध हारों की आवृति से बटी हुई रस्सी के समान गुंफित हैं। प्रवेश द्वार के सिरदल पर समुद्र मंथन से उद्भूत गजाभिषेकित पद्मासनस्थ लक्ष्मी तथा उसके दोनों ओर शूंड से कुंभ देते हुए गज, मानवीय रूप से अवतरित होती हुई नदी-देवियां तथा मूर्त रूप धारण किए हुए विभिन्न तीर्थ-सरोवर अभिषेक में तन्मय हैं । इस पट्ट में सरिताओं के प्रवाह रूप में धारा के मध्य मीन कच्छप आदि जलचरों को रूपायित कर शिल्पी ने दृश्य योजना में गति अवर्णनीय कौशल से संचरित किया है। प्रवेश द्वार पर अंत पार्श्व भित्तियों पर शिव से संबंधित कथा तथा अलंकरण प्रतीक भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों पर प्रदर्शित हैं। बायें तरफ आलिंगनरत उमा-महेश्वर, कीर्तिमुख, चौसर खेलते हुए उमा-महेश्वर तथा गंगावतरण प्रदर्शित हैं। इनमें से चौसर क्रीड़ा तथा गंगावतरण का शिल्पांकन भारतीय कला में सर्वप्रथम ताला में रूपायित हुआ है। इस प्रकार की प्रतिमाएं बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध हैं। चौसर खेलते हुए शिव दांव में नंदी को हार चुके हैं। शिव के समीप खड़े हुए गण अपने स्वामी के हारने से विचलित तथा चिन्तातुर हैं। 

इस मन्दिर के गर्भगृह की मूल प्रतिमा अद्यावधि अप्राप्त है। गर्भगृह में विभिन्न खंडित प्रतिमाओं के अवशिष्ट भाग रखे हुए हैं। इनमें से एक अधिष्ठाननुमा पट्ट पर भावविभोर नृत्यरत तीन शिवगणों का अंकन अत्यंत कलात्मक है। अन्य प्रतिमाओं में से चतुर्मुखी दुर्गा तथा खंडित नवगृह पट्ट उल्लेखनीय हैं। मन्दिर की खोज के समय से प्राप्त अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खंड परिसर में ही रखी हुई हैं। इनमें से सूर्य, चतुर्भुजी प्रतिमा (संभवतः शिव), नारी प्रतिमा का अधोभाग, आदि महत्वपूर्ण हैं। अत्यंत भग्न होने के कारण यहां पर रखी हुई कुछ प्रतिमाओं का अभिज्ञान नहीं किया जा सका है। इसके अतिरिक्त विविध पुष्पीय तथा ज्यामितीय आकृतियों से अलंकृत विशाल आकार के स्थापत्य खंड इस मन्दिर की भव्यता तथा स्वर्णिम गौरवपूर्ण अतीत को मुखरित करते हैं। 

दक्षिण कोशल (वर्तमान छत्तीसगढ़) का यह सर्वाधिक प्राचीन मन्दिर विशिष्ट वास्तु तथा मूर्तिशिल्प के कारण भारतीय कला में अद्वितीय है। तथापि समुचित प्रकाशन के अभाव में यह अल्प चर्चित है। इस मन्दिर की स्थापत्य योजना में तल-विन्यास, नदी-देवियों की पृथक आवृत्तियां, अलंकरण तथा शाखा योजना एवं मंडप के तोरण स्तंभ आदि विलक्षण हैं। मन्दिर के बाह्य भित्ति कोष्ठ पर प्रदर्शित प्रतिमाएं अब अवशिष्ट नहीं हैं। 

इस मन्दिर के निर्माण काल के सम्बन्ध में निश्चित अभिलेखीय प्रमाण अनुपलब्ध हैं। देवरानी मन्दिर में स्थापत्य तथा मूर्तिकला का अत्यंत विकसित तथा परिष्कृत रूप प्राप्त होता है। प्रस्तर निर्मित इस मन्दिर की रचना में शिखर का भाग संभवतः ईंटों से निर्मित था। वास्तुगत तथ्यों से इस मन्दिर का निर्माणकाल पांचवीं शती ई. निश्चित होता है । 

 - राजेन्द्र नगर, बिलासपुर (म.प्र.)

Sunday, July 2, 2023

लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह

04 फरवरी 2007 को लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह की 101 वीं जयंती समारोह के अवसर पर डॉ. इन्द्रजीत सिंह स्मृति न्यास, अकलतरा, जिला-जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ द्वारा फोल्डर वितरित किया गया, जिसका लेख उदय प्रताप सिंह जी चंदेल ने तैयार किया था। अकलतरा उच्चतर माध्यमिक शाला, जो अब राजेन्द्र कुमार सिंह उच्चतर माध्यमिक शाला है, के प्राचार्य होने के नाते उस दौर में ‘प्रिसिपल साहब‘ उनके नाम का पर्याय था। शालेय पत्रिका ‘सलिला‘ में प्रतिवर्ष उनकी ‘प्राचार्य की लेखनी से - उ. सि. चंदेल‘ हम सबकी प्रेरणा का स्रोत होता था। स्कूल के बाद वे हमारे कोसा वाले कक्का थे।

बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी इन्द्रजीत सिंह जी का जन्म अकलतरा के सुप्रसिद्ध सिसौदिया परिवार में 5 फरवरी 1906 को हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा और बाल्यकाल पिता राजा मनमोहन सिंह और माता श्रीमती कीर्तिबाई की स्नेह छाया में अकलतरा में हुई। माता-पिता के प्यार-दुलार में पले-बढ़े इकलौते पुत्र होने के कारण किशोर वय में ही आप परिणय सूत्र में बंध गए। 15 जनवरी 1920 को आपका विवाह ग्राम ठठारी के प्रतिष्ठित परिवार के श्री जबर सिंह की पुत्री शान्ती देवी से हो गया। आपकी ऊंचाई 6 फीट से अधिक, काया चुस्त और सुदर्शन थी।

1924 में आपने बिलासपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गए और फिर कलकत्ता जाकर प्रतिष्ठित रिपन कॉलेज में प्रवेश लिया। बंगाल हॉस्टल में रहते हुए 1931-32 में छात्रावास के अध्यक्ष रहे। स्नातक परीक्षा 1934 में पास की। कलकत्ता रहते हुए आपने बांग्ला के साथ संस्कृत और लैटिन भाषाएं सीखीं। इन शास्त्रीय भाषाओं पर आपको अच्छा अधिकार था, जो आपके शोध-लेखन में परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ जनजातीय-लोक संस्कृति और आर्थिक व्यवस्थापन, आपकी विशेष रुचि का क्षेत्र था। कलकत्ता और फिर लखनऊ में अध्ययन करते हुए आपकी रुचि को मानों दिशा मिल गई। यही क्षेत्र आपकी उच्च शिक्षा का विषय बना।

लखनऊ विश्वविद्यालय से आपने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और 1936 में वकालत की परीक्षा पास की। आगे पढ़ाई जारी रखते हुए ‘गोंड़ जनजाति के आर्थिक जीवन‘ को अपने शोध का विषय और गोंड़वाना पट्टी को, जिसके केन्द्र में ‘बस्तर’ था, अध्ययन क्षेत्र बनाया। आपका यह शोध कार्य देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. राधाकमल मुकर्जी व भारतीय मानव विज्ञान के पितामह डॉ. डी. एन. मजूमदार के मार्गदर्शन और सहयोग से पूर्ण हुआ तथा आपका शोध ‘द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स‘ 1944 में प्रकाशित हुआ। गहरे और व्यापक शोध के निष्कर्ष अनुसार ‘जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति सहित समझ सकें।‘

अपने प्रकाशन के समय से ही यह पुस्तक दक्षिण एशियाई मानविकी संदर्भ ग्रंथों में बस्तर-छत्तीसगढ़ तथा जनजातीय समाज के अध्ययन की दृष्टि से अत्यावश्यक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। शोध कार्य के दौरान क्षेत्र भ्रमण में अधिकतर फोटोग्राफी भी स्वयं करते थे। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया‘ पत्रिका में इस ग्रन्थ की समीक्षा पूरे महत्व के साथ प्रकाशित हुई थी। चालीस के दशक में बस्तर अंचल में किया गया क्षेत्रीय कार्य न सिर्फ किसी छत्तीसगढ़ी, बल्कि किसी भारतीय द्वारा किया गया सबसे व्यापक कार्य माना गया है। इस दुरूह और महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको इग्लैण्ड की ‘रॉयल सोसाइटी‘ ने इकॉनॉमिक्स में ‘फेलोशिप‘ प्रदान किया।

वॉलीबाल, फुटबाल, हॉकी व टेनिस आपके पसंदीदा खेल थे। अवकाश के दिनों में अकलतरा में रहने के दौरान आप नियमित खेलों का अभ्यास करते थे, यही कारण था कि उस जमाने से अकलतरा जैसे कस्बे में खेल का माहौल रहा। आपका निशाना अचूक था और वन तथा वन्य प्राणियों के व्यवहार की सूक्ष्म समझ थी। हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से छुटकारा पाने के लिए पीड़ित ग्रामवासी शिकार के लिए आपको आमंत्रित करते रहते। आपने दर्जनों बाघ, तेन्दुआ, भालू, मगर जैसे खूंखार जानवरों का शिकार किया।

राजनैतिक क्षेत्र में भी आप छात्र जीवन से ही सक्रिय थे। श्री रफी अहमद किदवई, श्री उमाशंकर दीक्षित आदि आपके सहपाठी थे। 1931 में लोकल काउंसिल के चुनाव में प्रत्याशी पिता राजा मनमोहन सिंह मुख्य संचालक रहे, इस चुनाव में राजा साहब लैण्ड होल्डर्स चुनाव क्षेत्र से विजयी हुए। चुनाव के दौरान दाऊ कल्याण सिंह से सहयोग मिला और यह आपसी सौहार्द सदैव बना रहा। कांग्रेस की तत्कालीन युवा पीढ़ी के संपर्क में आए और कांग्रेस सदस्यता ग्रहण की। 1936 के लखनऊ अधिवेशन में आप तथा श्री भुवन भास्कर सिंह, युवा सदस्य के रूप में शामिल हुए और 28 मार्च 1936 को पं. नेहरू ने महात्मा गांधी से आपकी 15 मिनट की अंतरंग मुलाकात कराई, यही वह पल था जहां वे गांधी जी से गहरे रूप से प्रभावित हुए फलस्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन में विदेशी कपड़ा जलवा कर खादी का वितरण कराया। सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए आप डॉ. ज्वालाप्रसाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह व डॉ. खूबचन्द बघेल के सम्पर्क में आए। आप राजनीतिक और निजी संबंधों में सदैव तालमेल रखते थे। ‘हमारे छेदीलाल बैरिस्टर‘ पुस्तक में उल्लेख है कि- रिश्ते में बैरिस्टर साहब के भतीजे लाल साहब 1937 के चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी थे, लेकिन बैरिस्टर साहब जब जेल में थे, तब वे बराबर घर आते, सबका कुशल-क्षेम पूछते, वक्त-बेवक्त दवा आदि देकर सहायता करते।

आपके शोध के दौरान ही पिता राजा मनमोहन सिंह का देहावसान 1942 में हो गया। पैतृक सम्पत्ति की देखरेख के साथ ही सार्वजनिक जीवन में आपकी गतिविधियां बढ़ती गईं। मालगुजारी के वन क्षेत्र का व्यवस्थापन में आपकी विशेष रुचि थी। 1943 में एस. बी. आर. कॉलेज, बिलासपुर के संस्थापक उपाध्यक्ष बने। आगे चलकर अकलतरा में हाई स्कूल और बिलासपुर में क्षत्रिय छात्रावास की स्थापना के लिए सक्रिय रहे। आपके प्रयासों से 1950 में छत्तीसगढ़ अंचल में प्रथम विशाल क्षत्रिय महासभा का आयोजन हुआ। छत्तीसगढ़ के सहकारिता आंदोलन में आपका योगदान अविस्मरणीय है। आप बिलासपुर ‘सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक‘ के आजीवन संचालक रहे। आपकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से अकलतरा में बैंक की शाखा खुली, जिसके आप आजीवन अध्यक्ष रहे। ‘मल्टी-परपज सोसाइटी‘, अनंत आश्रम, मुलमुला के संस्थापक सचिव रहे। उच्च प्रतिष्ठा, कानून की डिग्री और न्यायप्रियता के कारण ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट‘ मनोनीत होकर, कार्य करते हुए आपने पद की गरिमा बढ़ाई।

1947-48 में आपने इंग्लैण्ड सहित कई यूरोपीय देशों की यात्रा कर अनुभव का विशाल भण्डार साथ लाये। आपकी प्रतिभा और अनुभव को देखते हुए श्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने आपको जांजगीर जनपद सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया, इस पद पर आप आजीवन निर्विवाद बने रहे। यह कुशल प्रबंधन का परिणाम था कि आपकी मृत्यु के समय लोक कल्याणकारी कार्यों में अग्रणी रहने के बावजूद जनपद सभा, जांजगीर की जमा राशि लगभग दो लाख रूपये थी और यह मध्यप्रान्त की सुदृढ़ सभा थी। कृषि संबंधी जानकारी और प्रशासनिक योग्यता को देखते हुए 1949 में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर खानखोजे की अध्यक्षता में गठित ‘एग्रीकल्चरल पॉलिसी कमेटी‘ के आप सदस्य मनोनीत हुए और इसे सार्थक बनाया। आल इण्डिया रेडियो, नागपुर से कृषि, आंचलिक और जनजातीय विषयों पर आपकी वार्ताएं प्रसारित होती थीं।

छत्तीसगढ़ की पहचान, दिशा और अस्मिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी सदैव महसूस करते रहे। कलकत्ता और लखनऊ प्रवास के दौरान अंग्रेजी अखबार ‘हितवाद‘ का नागपुर संस्करण डाक से मंगाकर पढ़ते तथा समकालीन, आंचलिक घटनाक्रम पर बराबर नजर रखते। छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने में आप गर्व अनुभव करते थे। आपने सहृदयतावश छात्र जीवन में भी गुप्त रूप से छात्रों की पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई। जिसे आश्वासन दिया, उसे सदैव पूरा ही किया। स्पष्टवादी किन्तु सौम्य और संतुलित व्यवहार का ही प्रभाव था कि आपके निकट आये व्यक्ति सदैव आपके होकर रहे। आपके पुत्रों ने 1954 से आपकी स्मृति में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रतिवर्ष मानव शास्त्र में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र के लिए स्वर्ण पदक की व्यवस्था की है।

आपके पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह, सत्येन्द्र कुमार सिंह तथा डॉ. बसंत कुमार सिंह ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सक्रिय रह कर ख्याति अर्जित की। वर्तमान में पुत्री बीना देवी का निवास नरियरा में है और कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार सिंह सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।

धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां आपके जीवन और कर्म के प्रमुख बिन्दु थे। प्रत्येक मंगलवार को व्रत और बरगवां के हनुमान जी की पूजा, आपका अटूट नियम रहा। अंचल के अनुष्ठानों में आपका योगदान अपूर्व रहता था। सांकर, कुटीघाट आदि स्थानों में आयोजित यज्ञों के प्रमुख व्यवस्थापक रहे। विक्रम संवत् 2000 समाप्त होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में नियोजित श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी में समिति के आप उपाध्यक्ष थे। आपके साथ अन्य उपाध्यक्ष पं. सखाराम पंत, सेठ मोतीचंद, पं. सदाशिव रामकृष्ण शेंडे, श्री होरीलाल गुप्त तथा पं. बापूसाहब शास्त्री थे। शिवरीनारायण मंदिर और मठ से आपका सम्पर्क बराबर बना रहा, जिसका आधार मंदिर परिसर में स्थित पारिवारिक राम-जानकी मंदिर था। मठ के लिए परिवार द्वारा धर्मशाला बनवाकर अर्पित की गई। महंत लालदास जी और व्यवस्थापक श्री कौशल प्रसाद तिवारी को मठ-मंदिर की सभी गतिविधियों के लिए उदार और सक्रिय सहयोग दिया करते थे।

कार्य की व्यस्तता और लोक दायित्वों के प्रति गहरे समर्पण ने आपको शरीर के प्रति विरक्त बना दिया, इससे 1950 में हृदय रोग से पीड़ित हो गए। डाक्टरों द्वारा में विश्राम की सलाह के बावजूद निरन्तर जनकल्याण कार्यों में लगे रहे और प्रथम आम चुनाव के समय जिले का व्यापक दौरा किया। आपका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया और 26 जनवरी 1952 को बिलासपुर ‘ऑफिसर्स क्लब‘ में अंतिम सांस ली। लाल साहब की पुण्य स्मृति को सादर नमन्।

पुनश्च-

इस लेख के साथ ‘पूरक जानकारी‘ के रूप में हस्तलिखित मसौदा ‘अतिरिक्त जानकारी जिसे उक्त लेख यथास्थान समाहित किया जावे’ टीप सहित मिला है, जो इस प्रकार है-

वे जितने लोकप्रिय- किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी आदि में थे, उतने ही लोकप्रिय अधिकारियों और व्यवसायियों के बीच भी थे। जिले के कलेक्टर, पुलिस कप्तान और अन्य बड़े अफसरों से भी उनके नजदीकी संबंध थे। उस समय के जिलाधीश श्री एम. एस. चौधरी (जो आगे चल पुराने म.प्र. के मुख्य सचिव हो कर अवकाश ग्रहण किये) श्री पी.जी. घाटे, पुलिस कप्तान (जो आगे चल कर महाराष्ट्र से आइ. जी., पुलिस हो कर अवकाश ग्रहण किये), बिलासपुर थे। प्रसिद्ध ठेकेदार श्री चुन्नीलाल मेहता, नगर के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ बच्छराज बजाजआदि से उनके पारिवारिक संबंध रहे। सक्ती के राजा बहादुर लीलाधर सिंह और सारंगढ़ नरेश राजा जवाहिर सिंह तथा रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह आदि, कई जमींदार (पंडरिया, कन्तेली, कोरबा आदि) उनके अभिन्न मित्रों में थे।

उनके इसी प्रतिभा, योग्यता और मिलनसारिता के कारण उन्हें बिलासपुर ऑफिसर्स क्लब की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी, जो उस समय एक दुर्लभ और प्रतिष्ठापूर्ण बात थी। बिलासपुर शहर और जिले के इने गिने लोगों को यह गौरवपूर्ण सदस्यता प्राप्त थी।

वे बहुत अच्छे शिकारी भी थे। उनका निशाना अचूक हुआ करता था। परंतु यह उनका शौक था। उसे व्यवसाय नहीं बनाया वरन इसे लोक सेवा का माध्यम माना। उस समय बलौदा के आसपास घने जंगल हुआ करते थे। यहां सरकारी रिजर्व फारेस्ट हुआ करते थे। जैसे दल्हा, पहरिया, सोंठी, कटरा और आसपास की पहाड़ियां की पहाड़ियां भी जंगलों से आच्छादित रहते थे, जहां जंगली जानवर, शेर तेंदुआ, चीता, भालू, सुअर, हिरण आदि आदि काफी संख्या में रहते थे। ये जानवर कई बार जंगल के बीच के गांव आकर जान माल का नुकसान करते थे। पालतू जानवर और फसल का नुकसान आम करते या कभी-कभी ये खूंखार जानवर शेर, चीता, भालू आदि जन-धन की हानि उतारू हो जाते थे। ऐसे अवसर पर गांव वाले सम्मानपूर्वक उन्हें आमंत्रित कर ले जाते थे और वे वहां कैम्प कर खूंखार जानवरों के भय से उन्हें मुक्ति दिलाते थे। उनके रहते आसपास के जंगली गांव के लोग अपने को सुरक्षित पाते थे। कई बार सरकार की ओर से भी इन्हें खूंखार जानवरों के शिकार के लिए भेजा जाता था। इसी कारण बलौदा इलाके के अधिकांश बड़े गांवों के प्रमुख लोगों से मित्रता थी और कई लोगों से पारिवारिक संबंध थे।
(इसी तारतम्य में वैन इंजेन एंड वैन इंजेन का हवाला, जिसने घर में रखे जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए तैयार किया है।)

उच्च शिक्षा और संस्कारित शिक्षा उनकी प्रथम प्राथमिकता थी और यही कारण रहा जब उनके ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह (आगे चल कर कुमार साहब के नाम से प्रसिद्ध हुये) बिलासपुर के प्रसिद्ध गव्हर्नमेंट हाई स्कूल से मेट्रिक पास किए तो उन्हें एनी बेसेंट कॉलेज, बनारस भेजा गया। उच्च शिक्षा के लिए साथ ही साथ उन्होंने इलाके के शिक्षानुरागी लोगों को अपने परिचितों को भी उच्च शिक्षा के लिए बनारस भेजने के लिए प्रेरित किया। तदनुसार अकलतरा के कई प्रतिष्ठित परिवारों के लड़के तो गए ही, जिले के प्रसिद्ध मालगुजार श्री सुधाराम जी साव ने भी अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा के लिये बनारस भेजा। यही नहीं सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह ने भी इनकी प्रेरणा से अपने कई नजदीकी लोगों को इनके माध्यम से बनारस पढ़ने के लिये भेजा।

वे सही मायने में अर्थशास्त्री थे। वे केवल एम.ए. अर्थशास्त्र कर अर्थशास्त्र के शास्त्रीय ज्ञाता मात्र नहीं थे वरन उस ज्ञान को आपने व्यावहारिक जामा भी पहनाया था। वे अपने घरू आर्थिक स्थिति को चुस्त दुरुस्त तो किये ही, कई परिवारों को आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद और मार्गदर्शन दिया। क्षेत्र के अच्छे अच्छे व्यापारी, ठेकेदार, बड़े किसान इनके मार्गदर्शन से लाभान्वित हुये थे। बम्बई, कलकत्ता की कई व्यावसायिक घरानों में इनकी अच्छी पकड़ थी।

जनपद सभा, जांजगीर के प्रथम अध्यक्ष तो थे ही। जनपद सभा वित्त समिति के अध्यक्ष भी थे। इन दोनों जिम्मेदारियों का निर्वहन आपने इतने लगन, निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया कि उस समय पूरे मध्यप्रदेश में जांजगीर जनपद सभा सबसे व्यवस्थित और मालदार, धनी संस्था थी। उनके निधन (1952) के समय जनपद सभा के खाते में 2 लाख रुपए जमा थे।

जीवन के अंतिम दिन तक भी वे समाज हित की सोचते रहे थे जिस दिन निधन हुआ उसी दिन सुबह की गाड़ी से सक्ती गये थे। उद्देश्य था राजा साहब सक्ती लीलाधर सिंह से मिल कर प्रेस खोलना, जहां से जन साधारण के लिये अखबार निकाला जा सके। हमेशा की भांति अकलतरा से डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र, खास मित्र उनके साथ हो लिये थे। उन्हें शाम की गाड़ी से बिलासपुर लौटना था। जैसे इनकी सक्ती यात्रा और लौटने की जानकारी शहर (अकलतरा) में मिली, शाम को ट्रेन के समय अकलतरा रेल्वे स्टेशन में सैकड़ों कार्यकर्ता और शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। जैसे गाड़ी सक्ती से आ कर प्लेटफार्म में रुकी, नारों से पूरा स्टेशन गूंज गया। लोगों की भीड़ देख कर उन्हें गाड़ी से उतरना पड़ा, सब लोगों से मिले। श्री सम्मत सिंह और ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह से अलग अलग कुछ मंत्रणा की और अगले दिन बिलासपुर से लौटने की बात कह फिर गाड़ी में सवार हो गये। इन्हीं सब कारणों से उस दिन पैसिंजर गाड़ी भी करीब 10 मिनट प्लेटफार्म में खड़ी रही। उस दिन की भीड़ में लेखक लेखक भी वहीं मौजूद था, परंतु वहां उपस्थित लोगों को क्या मालूम था कि यह उनका अंतिम दर्शन था।

रात्रि के करीब 8-9 बजे बिलासपुर से टेलीफोन पर डाकखाने में (क्योंकि उस समय घरों में टेलीफोन की व्यवस्था नहीं थी) सूचना आई कि आफिसर्स क्लब में उन्हें दिल का दौरा आया। उस समय सिविल सर्जन डॉ. काले? भी उपस्थित थे पर उन्हें बचाया नहीं जा सका, उनका पार्थिव शरीर ठा. छेदीलाल बैरिस्टर के बिलासपुर स्थित बंगले में लाया जा रहा है। यह समाचार जंगल की आग की तरह पूरे अकलतरा शहर में फैल गया। जैसे ही मध्य रात्रि के बाद उनके मृत शरीर को अकलतरा लाया गया, सैकड़ों की संख्या में महिला पुरुष बच्चे उनके घर और उसके आसपास जमा थे। तिल रखने की जगह नहीं थी। जैसे तैसे उनके निष्प्राण शरीर को मोटर से उतारा गया। इसी दिन अंतिम विदा तथा क्षेत्र के सारे लोग अंतिम दर्शन व विदाई के लिए एकत्र हुये। और मृतक आत्मा को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

यहां आई जानकारियों और तथ्यों के मिलान के लिए पोस्ट अकलतरा के सितारे, लाल साहब और लाल साहब पुनः भी देख लेना चाहिए।