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Saturday, May 31, 2025

माँ दंतेश्वरी

ओमप्रकाश सोनी, सुकमा, बस्तर में इतिहास के प्राध्यापक हैं, उनके माध्यम से माँ दंतेश्वरी से जुड़ी कुछ बातें कहने का अवसर बना। अब वह उनकी पुस्तक ‘बस्तर साम्राज्ञी माँ दंतेश्वरी (इतिहास और पुरातत्व)‘ में 'भूमिका' के रूप में प्रकाशित है-

भूमिका 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका, सात अति पवित्र तीर्थ प्रसिद्ध हैं। चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा बार्हस्पत्यसूत्र में आठ-आठ शैव, वैष्णव और शाक्त सिद्धिदायक तीर्थों की सूची मिलती है। सात नगरियों की तरह गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी- सात नदियां अति पवित्र मानी गई हैं। वैदिक सप्त सिंधु का आशय संभवतः इन सात नदियों से नहीं है, मगर प्रसंगवश ‘हिंदु‘ (हप्त हिन्दु) शब्द सिंधु नदी से संबंधित भौगोलिक क्षेत्र के रूप में पांचवीं सदी इस्वी पूर्व से प्रचलित रहा है, जिससे इंडोई और इंडिया शब्द आया। पाणिनी ने भी सिन्धु शब्द का प्रयोग देश के अर्थ में किया है। 

ऐसी कई सूचियां और उनके माहात्म्य मिलते हैं। सती की कथा और उसके अंगों के गिरने के स्थान पर बने शक्तिपीठों की संख्या ‘तन्त्रचूडामणि‘ में बावन, ‘शिवचरित्र‘ में इक्यावन, ‘देवीभागवत‘ में एक सौ आठ दी गई है और ‘कालिकापुराण‘ में छब्बीस उपपीठों का वर्णन है पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन स्वीकृत है। दंतेवाड़ा, बस्तर की दंतेश्वरी, सती के दांत गिरने का स्थान और उस पर स्थापित शक्तिपीठ के रूप में मानी जाती हैं। 
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद छत्तीसगढ़ की 14 देशी रियासतों में से कांकेर को जोड़ कर बस्तर जिला बना। यहां से अतीत की ओर लौटें तो नागयुग में ‘मासुनिदेश‘, ‘चक्रकोट‘ तथा ‘भ्रमरकोट‘, नलयुग में ‘निषधदेश‘, गुप्तकाल ‘महाकान्तार‘, महामेघ-शक-सातवाहन काल में ‘विद्याधराधिवास‘, ‘मलयमहेन्द्रचकोरक्षेत्र‘, ‘महावन‘, मौर्यकाल में आटविक राज्य, इससे और पहले ‘अश्मक‘, ‘स्त्रीराज्य‘ या उसका हिस्सा रहा। सबसे पुराना नाम दण्डकारण्य पता लगता है। 

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। इस क्रम में अध्येताओं ने रामवनगमन पथ के साथ दण्डकारण्य-बस्तर में लंका की खोज का प्रयास किया है। रामकथा का शूर्पणखा और सीताहरण प्रसंग दण्डकारण्य से जुड़ा है। मगर ध्यान रहे कि केशकाल-बाराभांवर की भंगाराम-तेलीन सत्ती मां (अब प्रचलित भंगाराम को बंगाराम या वारंगल-ओरंगाल से आई मानते भोरंगाल-भंगाराम भी कहा गया है।) हैं और सुकमा की रामाराम, चिटमटिन देवी हैं। पौराणिक दण्डकारण्य या दण्डक वन, सामान्यतः दक्षिणापथ का विस्तृत भूभाग प्रतीत होता है, इसी के अंतर्गत ऐतिहासिक महाकांतार-बस्तर भी है। यह रोचक है कि ‘दण्ड‘ को राजाओं द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली लौकिक शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। राम के धनुष का नाम ही कोदण्ड है तथा वह दण्ड ही है जो प्रतीक रूप ध्वज (यथा- मयूरध्वज, सीरध्वज-जनक, कपिध्वज-अर्जुन) को धारण करता है। 

प्रथम राजा पृथु के दण्डकारण्य में अभिषेक का उल्लेख मिलता है। कहा गया है- 
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। 
अर्थात दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है। 

कथा में पृथु ने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का भी बोध कराया। 

इस अंचल की परंपरा में मयूरध्वज की कथा के सूत्र विद्यमान हैं। जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी यह कथा थोड़े फेरबदल से आई है, जिसमें ब्राह्मण को दान देने के लिए राजा-रानी अपने पुत्र को आरे से चीरने लगते हैं। इस कथा का असर बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम (1861-1868) ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा, देवी द्वारा महिषासुर के वध का अर्थात पाशविक वृत्तियों पर विजय का उत्सव है, जिसके प्रतीक रूप में भैंसों की बलि दी जाती थी। दशहरा के लिए फूलरथ और रैनीरथ निर्माण में केवल बसूले के प्रयोग की परंपरा रही है। 

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में ..1859 का संघर्ष ‘कोई विद्रोह‘ नाम से जाना जाता है, जिसमें फोतकेल, कोतापल्ली, भेज्जी और भोपालपट्टनम के जमींदारों ने जंगल काटने का विरोध किया। आंदोलन का नारा- ‘एक साल पेड़ के पीछे एक आदमी का सिर‘ से इसकी उग्रता का अनुमान किया जा सकता है। ऐसा ही एक अन्य उल्लेख ‘ताड़-झोंकनी‘ (1775), दरियावदेव-हलबा योद्धाओं का मिलता है, जिसमें काटे गए ताड़ वृक्षों को हाथ से झेलते, वृक्ष के नीचे दब कर हलबा वीरों की मृत्यु हो गई थी। 

महाभारत के नलोपाख्यान कथा में कलि-वास वाले पक्षी-रूपी पांसे, नल का एकमात्र वस्त्र ले कर उड़ जाते हैं तब अनावृत्त नल, दमयंती को ऋक्षवान पर्वत को लांघकर अवंती देश जाने वाला मार्ग, विंध्य पर्वत, पयोष्णी नदी, महर्षियों के आश्रम, दक्षिणापथ, विदर्भ और कोसल जाने का मार्ग बताते हैं। 

इस भौगोलिक विवरण से पड़ोसी विदर्भ की राजकुमारी दमयंती और निषध देश के साथ बस्तर का कुछ-कुछ रिश्ता बनता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे राकेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ (2018) में इसका परीक्षण करते हुए लिखते हैं- अनुमान लगता है कि निषध राज्य जबलपुर के पूरब में आज के छत्तीसगढ़ राज्य अथवा प्राचीन दक्षिण कोसल और उसके आस-पास रहा होना चाहिए। प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम ने पहले ही मोटे तौर पर इससे मिलता-जुलता अनुमान लगाया है। मगर पांचवीं सदी इस्वी के नल राजवंश के अभिलेख, सोने के सिक्के और गढ़धनोरा, भोंगापाल जैसे कला केंद्रों से उनका सीधा जुड़ाव इस भूभाग से प्रमाणित होता है। आर्यावर्त और दक्षिणापथ के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी महाकांतार-बस्तर है ही। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के दक्षिणापथ विजय अभियान में कोसल के महेन्द्र के बाद महाकांतार के व्याघ्रराज का उल्लेख है। 
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कहा गया है कि विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की। अन्य देवता अलक्ष्य हैं, मगर राजा को हम देख सकते हैं ... राजा में विष्णु का अंश होगा। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- राज्याभिषेक के बाद मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। पुराने नाटकों में राजा को देव संबोधित किया गया है, कुषाण राजाओं ने स्वयं को देवपुत्र कहा है। मगर दूसरी तरफ राजनीतिप्रकाश में कहा गया है कि ‘स्वयं प्रजा विष्णु है।‘ राजा और सम्राट शब्द पर विचार करें- राजा-राजन् शब्द राज् अर्थात ‘चमकना‘ से आया माना जाता है और कहीं इसे रंज अर्थात (प्रजा को) ‘प्रसन्न करना‘ के अर्थ में देखा गया है। सम्राट शब्द का आशय है, क्षेत्र-विशेष, जिसके पूर्णतः अधीन हो। इसी प्रकार एक मत है कि राजन शब्द के मूल में ‘राट‘ है, जिससे राष्ट्र और सम्राट बनता है। 

काछिनमाता, माणिक्येश्वरी, सती आदि का समाहार स्वरूप दंतेश्वरी देवी बस्तर सामाज्ञी भी हैं। ज्यों ओरछा के दशरथनंदन राम‘राजा‘ हैं। अंग्रेजी में ‘ट्यूटरली डेइटी‘ यानि ऐसा देवता या आत्मा है जो किसी विशिष्ट स्थान, भौगोलिक विशेषता, व्यक्ति, वंश, राष्ट्र, संस्कृति या व्यवसाय का संरक्षक हो। शास्त्रीय ग्रंथों में राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत और राजा के देवत्व का उल्लेख आता है। ठाकुरदेव, बड़ादेव, बुढ़ादेव गांव के मालिक-देवता और दुल्हादेव, गृहस्वामी माने जाते हैं। इस तरह राजा और देव अभिन्न हो जाते हैं। 

राजा के दैवी उत्पत्ति में, बस्तर के राजा आदिवासी-देवसमूह की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी के प्रमुख-पुजारी होने के नाते ईश्वर का अवतार माने जाते थे। प्रवीरचंद्र भंजदेव इसके साथ ‘माटी पुजारी‘ अर्थात बस्तर के सभी छोटे-बड़े देवी-देवताओं के सबसे मुख्य पुजारी माने जाते थे। स्वाभाविक ही वे अपनी पुस्तिका का शीर्षक ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘ (1966) रखते हैं, वहीं कांकेर के ‘राजा‘ डॉ.आदित्य प्रताप देव अपनी पुस्तक ‘किग्स, स्पिरिट्स एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ (2022) के पहले अध्याय के लिए ‘द किंग एज ‘‘आइ’’ शीर्षक रखते हैं और मड़ई-दशहरा जैसे उत्सव-परंपराओं के दर्शक, सहभागी होते केंद्रीय पात्र बनते, मानों खुद की तलाश करने विवश होते हैं, राजा में देवत्व आरोपण पर कुछ यूं लिखते हैं- ‘‘राजा के आंगा देव होने के नाते पुराने राजमहल के ‘छोटे पाट‘, पूरे राज्य के आंगा देवों और राजा, जिन्हें बहुधा स्वयं देव (भगवान) रूप माना जाता था, उनकी शक्ति को समस्या निवारण के लिए, अपने में समा लेने में सक्षम थे।‘‘ (बड़े पाट, स्थानीय शीतला माता मंदिर में स्थापित हैं।) 

11 वीं सदी इस्वी के मधुरान्तकदेव के ताम्रपत्र में मेडिपोट (मेरिया-नरबलि) का उल्लेख है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में 1842-63 का मेरिया विद्रोह भी दर्ज है। देवता को बलि दिए जाने के संदर्भ में दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के द्विभाषी शिलालेख देखा जा सकता है, 18 वीं सदी इस्वी के आरंभिक वर्षों के दो पाषाण खंडों पर खुदा लेख दिकपालदेव से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि दंतावली देवी के मंदिर में संपन्न कुटुम्ब यात्रा अनुष्ठान में कई हजार भैंसे और बकरों की बलि दी गई, जिससे शंखिनी नदी का पानी पांच दिनों तक लाल कुसुम वर्ण हो गया। 

प्रवीरचंद्र भंजदेव परंपरा-आग्रही थे तो बलि जैसे मानवीय मसलों पर आधुनिक सुधारवादी भी थे। ऐसे एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि सन् 1960 के आसपास उन्होंने दशहरे के अवसर पर बकरा-महिष की बलि का निषेध कर नारियल चढ़ाने की परिपाटी चालू की। इसे चुनौती सी देते हुए बलराम नामक एक व्यक्ति ने, आदिवासी मुखियों के साथ प्रवीर से कहा- ‘महाराज पुराने जमाने में तो राजा लोग फूल रथ के सामने नर-बलि देते थे। आप कम से कम बकरे की बलि तो देने दीजिए। नारियल-वारियल से काम कैसे चलेगा महाराज। कुछ तो विचारिये।‘ इस पर प्रवीर ने कहा, ‘तो ठीक है, जाकर फूल रथ के सामने बलराम को काट दो। 
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धर्मक्षेत्र-पवित्र नगरियों का माहात्म्य प्राचीन ग्रथों में कहा जाता रहा है। इस दिशा में आधुनिक गंभीर अध्ययनों में भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे विशेष उल्लेखनीय है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ के तृतीय भाग में तीर्थप्रकरण के अंतर्गत गंगा, नर्मदा, गोदावरी के साथ प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नथ, कांची, पंढरपुर की विस्तार से चर्चा की है साथ ही दो हजार से अधिक नामों की परिचयात्मक तीर्थसूची दी है। काणे कहते हैं- ‘तीर्थयात्रा को नये रंग में ढालना होगा।‘ 

माहात्म्य कहने का आधुनिक समाज-मानवशास्त्रीय स्वरूप ‘सेक्रेड काम्प्लेक्स‘ (पावन या पुनीत प्रखंड/पवित्र संकुल-परिसर) के रूप में स्थल-विशेष का अध्ययन है। पिछली सदी के पचास-साठादि दशक में गया निवासी भूगोल विषय के स्नातक एल पी विद्यार्थी ने गयावालों का अध्ययन कर ‘द सेक्रेड काम्प्लेक्स इन हिंदू गया’ (1961) के रूप में आगे बढ़ाया, जो मानवशास्त्रियों के पारंपरिक अध्ययन तरीकों से अलग पद्धतिगत अभिविन्यास निर्धारित करता, अपने तरह का आरंभिक अध्ययन है। इस क्रम में उन्होंने बनारस, भुवनेश्वर, देवघर और पुरी के अलावा अन्य मंदिरों और घाटों का भी अध्ययन किया। 

प्रसिद्ध मानवशास्त्री डीएन मजुमदार ने भी काणे की तरह वस्तुस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए परंपरा के साथ समय की आवश्यकता के अनुकूल समझौते पर बल दिया है साथ ही विद्यार्थी के अध्ययन को रेखांकित करते हुए कहा है- ‘‘हमारे मंदिर और धार्मिक तीर्थस्थल हमारी विरासत हैं और भारत की पहचान को आकार देते हैं। उनसे जुड़ी लोक मान्यताएं, रीति-रिवाज और शिक्षा को अलग करना या पहचानना मुश्किल है। कहानी केवल शास्त्रों में और मंदिर कला और वास्तुकला में ही नहीं है, बल्कि लोक और रीति-रिवाजों में भी है जो शहरों और मंदिरों के ‘पवित्र परिसर‘ में अभिन्न रूप से बुने हुए हैं। डॉ. विद्यार्थी ने मंदिरों के सामाजिक संगठन का वर्णन करने के लिए पवित्र केंद्र, पवित्र खंड, पवित्र समूह, पवित्र क्षेत्र, पवित्र भूमि, पवित्र भूगोल जैसे शब्दों का उपयोग किया है। वह तीर्थस्थल के पवित्र परिसर का वर्णन करते मानते हैं कि ऐसी अवधारणा भारत में आदिवासी धर्मों पर भी लागू होती है, जिसमें उनके पवित्र उपवन, पवित्र प्रदर्शन और पवित्र अनुष्ठान शामिल हैं।‘‘ 

सेक्रेड काम्प्लेक्स के अध्ययन का क्रम डॉ. माखन झा ने आगे बढ़ाया तथा ‘काम्प्लेक्स सोसायटीज एंड अदर एंथ्रोपोलॉजिकल एसेज‘ (1991) आदि कई प्रकाशन सामने आए। डॉ. माखन झा का छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना, उन्होंने 1969-70 में रतनपुर और आसपास के क्षेत्र का व्यापक-गहन सर्वेक्षण किया और अपने विभिन्न प्रकाशनों में उसे शामिल किया। डी.एन. मजुमदार की बस्तर आवाजाही अकलतरा निवासी इंद्रजीत सिंह के माध्यम से हुई। डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोधग्रंथ ‘‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ (1944), किसी भारतीय द्वारा बस्तर पर किया गया पहला शोधकार्य है। 

धार्मिक-तीर्थस्थल, पर्यटन स्थलों से कई मायनों में अलग होते हैं। मंदिर के साथ इतिहास, आस्था और परंपरा की महीन परतें होती हैं, ये परतें न सिर्फ महीन होतीं, बल्कि आपस में घुली-मिली भी होती हैं। इन्हें परखने के लिए उसका अंग बन जाना, आत्मीयता से अवलोकन कर तटस्थ अभिलेखन संभव होता सकता है। प्राचीन मंदिर, धार्मिक आस्था के साथ-साथ शिक्षा, चिकित्सा, लोक-कल्याण और संस्कृति के केंद्र होते थे, जहां जन-समुदाय एकत्र हो घुलता-मिलता था। अतएव वहां भाषा-संस्कृति के ऐसे बहुतेरे ऐतिहासिक तथ्य होते हैं जिनका महत्व समय-सापेक्ष और काल-स्वीकृत हो कर परंपरा में बदल जाने के कारण होता है। ऐसी आस्था, जिसका आधार मात्र धार्मिक नहीं, जो समष्टि से विकसित है, सभ्यतागत ढांचे के भाग के रूप में समय के साथ पुष्ट होती है। इस क्रम में नवाचार भी जुड़ता जाता है, ज्यों इस वर्ष 2025 में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई में पहुंचे 994 देव-विग्रहों का परिचय पत्र बनाया गया, जिसमें उनका नाम-पता, पुजारी का नाम और मोबाइल नंबर के साथ सिरहा, वादक-वृंद और झंडा पकड़ने वाले का नाम दर्ज किए जाने का समाचार है। 

केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण 1908 में राजबाड़ा के अंदर स्थित दंतेश्वरी मंदिर के साथ दंतेवाड़ा के दंतंश्वरी मंदिर का विवरण मिलता है, उन्होंने ‘दन्तेश्वरी मंदिर के तेवहार‘ शीर्षक के अंतर्गत चैत्र से फालगुन तक सभी बारह माह की गतिविधियों का लेखा दिया है। यही इस पुस्तक की पीठिका या प्रस्थान बिंदु है, इस उद्यम में तीर्थयात्री के साथ पर्यटक और अध्येता की भूमिका का सम्यक निर्वाह हुआ है, इसलिए यह माहात्म्य, सेक्रेड काम्प्लेक्स के शोध के साथ वस्तुतः स्थल-पुराण है, जिसमें स्थान-विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाओं, जातीय परंपराओं और वहां के समाज का भी वर्णन है। 
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डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि शाक्त केंद्र दंतेवाड़ा का मंदिर नाग युग में ‘दत्तवाड़ा‘ नाम से विकसित हो चुका था। उन्होंने ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘-चतुर्थ खण्ड (2007) में नाटककार अर्जुन होता रचित उड़िया कृति ‘बस्तर विजय‘ (1941 में प्रकाशित), डॉ. चित्तरंजन कर द्वारा अनुदित, को शामिल किया है। नाटक का अंतिम अंश इस प्रकार है- महाराजा- हाँ, और एक बात। मंत्री महाशय! बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी की कृपा ही बस्तर-विजय का मूल है। गाँव-गाँव में, घर-घर में उनकी पूजा का आयोजन करो। राज्य में प्रचार करो, सभी उनकी ‘बस्तरेन‘ नाम से पूजा करेंगे ... ... ... 
... ... ... 
‘जय माँ बस्तरेन् की जय‘ 

-राहुल कुमार सिंह 
प्रमुख, धरोहर परियोजना 
बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर

Sunday, July 2, 2023

लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह

04 फरवरी 2007 को लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह की 101 वीं जयंती समारोह के अवसर पर डॉ. इन्द्रजीत सिंह स्मृति न्यास, अकलतरा, जिला-जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ द्वारा फोल्डर वितरित किया गया, जिसका लेख उदय प्रताप सिंह जी चंदेल ने तैयार किया था। अकलतरा उच्चतर माध्यमिक शाला, जो अब राजेन्द्र कुमार सिंह उच्चतर माध्यमिक शाला है, के प्राचार्य होने के नाते उस दौर में ‘प्रिसिपल साहब‘ उनके नाम का पर्याय था। शालेय पत्रिका ‘सलिला‘ में प्रतिवर्ष उनकी ‘प्राचार्य की लेखनी से - उ. सि. चंदेल‘ हम सबकी प्रेरणा का स्रोत होता था। स्कूल के बाद वे हमारे कोसा वाले कक्का थे।

बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी इन्द्रजीत सिंह जी का जन्म अकलतरा के सुप्रसिद्ध सिसौदिया परिवार में 5 फरवरी 1906 को हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा और बाल्यकाल पिता राजा मनमोहन सिंह और माता श्रीमती कीर्तिबाई की स्नेह छाया में अकलतरा में हुई। माता-पिता के प्यार-दुलार में पले-बढ़े इकलौते पुत्र होने के कारण किशोर वय में ही आप परिणय सूत्र में बंध गए। 15 जनवरी 1920 को आपका विवाह ग्राम ठठारी के प्रतिष्ठित परिवार के श्री जबर सिंह की पुत्री शान्ती देवी से हो गया। आपकी ऊंचाई 6 फीट से अधिक, काया चुस्त और सुदर्शन थी।

1924 में आपने बिलासपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गए और फिर कलकत्ता जाकर प्रतिष्ठित रिपन कॉलेज में प्रवेश लिया। बंगाल हॉस्टल में रहते हुए 1931-32 में छात्रावास के अध्यक्ष रहे। स्नातक परीक्षा 1934 में पास की। कलकत्ता रहते हुए आपने बांग्ला के साथ संस्कृत और लैटिन भाषाएं सीखीं। इन शास्त्रीय भाषाओं पर आपको अच्छा अधिकार था, जो आपके शोध-लेखन में परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ जनजातीय-लोक संस्कृति और आर्थिक व्यवस्थापन, आपकी विशेष रुचि का क्षेत्र था। कलकत्ता और फिर लखनऊ में अध्ययन करते हुए आपकी रुचि को मानों दिशा मिल गई। यही क्षेत्र आपकी उच्च शिक्षा का विषय बना।

लखनऊ विश्वविद्यालय से आपने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और 1936 में वकालत की परीक्षा पास की। आगे पढ़ाई जारी रखते हुए ‘गोंड़ जनजाति के आर्थिक जीवन‘ को अपने शोध का विषय और गोंड़वाना पट्टी को, जिसके केन्द्र में ‘बस्तर’ था, अध्ययन क्षेत्र बनाया। आपका यह शोध कार्य देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. राधाकमल मुकर्जी व भारतीय मानव विज्ञान के पितामह डॉ. डी. एन. मजूमदार के मार्गदर्शन और सहयोग से पूर्ण हुआ तथा आपका शोध ‘द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स‘ 1944 में प्रकाशित हुआ। गहरे और व्यापक शोध के निष्कर्ष अनुसार ‘जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति सहित समझ सकें।‘

अपने प्रकाशन के समय से ही यह पुस्तक दक्षिण एशियाई मानविकी संदर्भ ग्रंथों में बस्तर-छत्तीसगढ़ तथा जनजातीय समाज के अध्ययन की दृष्टि से अत्यावश्यक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। शोध कार्य के दौरान क्षेत्र भ्रमण में अधिकतर फोटोग्राफी भी स्वयं करते थे। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया‘ पत्रिका में इस ग्रन्थ की समीक्षा पूरे महत्व के साथ प्रकाशित हुई थी। चालीस के दशक में बस्तर अंचल में किया गया क्षेत्रीय कार्य न सिर्फ किसी छत्तीसगढ़ी, बल्कि किसी भारतीय द्वारा किया गया सबसे व्यापक कार्य माना गया है। इस दुरूह और महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको इग्लैण्ड की ‘रॉयल सोसाइटी‘ ने इकॉनॉमिक्स में ‘फेलोशिप‘ प्रदान किया।

वॉलीबाल, फुटबाल, हॉकी व टेनिस आपके पसंदीदा खेल थे। अवकाश के दिनों में अकलतरा में रहने के दौरान आप नियमित खेलों का अभ्यास करते थे, यही कारण था कि उस जमाने से अकलतरा जैसे कस्बे में खेल का माहौल रहा। आपका निशाना अचूक था और वन तथा वन्य प्राणियों के व्यवहार की सूक्ष्म समझ थी। हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से छुटकारा पाने के लिए पीड़ित ग्रामवासी शिकार के लिए आपको आमंत्रित करते रहते। आपने दर्जनों बाघ, तेन्दुआ, भालू, मगर जैसे खूंखार जानवरों का शिकार किया।

राजनैतिक क्षेत्र में भी आप छात्र जीवन से ही सक्रिय थे। श्री रफी अहमद किदवई, श्री उमाशंकर दीक्षित आदि आपके सहपाठी थे। 1931 में लोकल काउंसिल के चुनाव में प्रत्याशी पिता राजा मनमोहन सिंह मुख्य संचालक रहे, इस चुनाव में राजा साहब लैण्ड होल्डर्स चुनाव क्षेत्र से विजयी हुए। चुनाव के दौरान दाऊ कल्याण सिंह से सहयोग मिला और यह आपसी सौहार्द सदैव बना रहा। कांग्रेस की तत्कालीन युवा पीढ़ी के संपर्क में आए और कांग्रेस सदस्यता ग्रहण की। 1936 के लखनऊ अधिवेशन में आप तथा श्री भुवन भास्कर सिंह, युवा सदस्य के रूप में शामिल हुए और 28 मार्च 1936 को पं. नेहरू ने महात्मा गांधी से आपकी 15 मिनट की अंतरंग मुलाकात कराई, यही वह पल था जहां वे गांधी जी से गहरे रूप से प्रभावित हुए फलस्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन में विदेशी कपड़ा जलवा कर खादी का वितरण कराया। सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए आप डॉ. ज्वालाप्रसाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह व डॉ. खूबचन्द बघेल के सम्पर्क में आए। आप राजनीतिक और निजी संबंधों में सदैव तालमेल रखते थे। ‘हमारे छेदीलाल बैरिस्टर‘ पुस्तक में उल्लेख है कि- रिश्ते में बैरिस्टर साहब के भतीजे लाल साहब 1937 के चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी थे, लेकिन बैरिस्टर साहब जब जेल में थे, तब वे बराबर घर आते, सबका कुशल-क्षेम पूछते, वक्त-बेवक्त दवा आदि देकर सहायता करते।

आपके शोध के दौरान ही पिता राजा मनमोहन सिंह का देहावसान 1942 में हो गया। पैतृक सम्पत्ति की देखरेख के साथ ही सार्वजनिक जीवन में आपकी गतिविधियां बढ़ती गईं। मालगुजारी के वन क्षेत्र का व्यवस्थापन में आपकी विशेष रुचि थी। 1943 में एस. बी. आर. कॉलेज, बिलासपुर के संस्थापक उपाध्यक्ष बने। आगे चलकर अकलतरा में हाई स्कूल और बिलासपुर में क्षत्रिय छात्रावास की स्थापना के लिए सक्रिय रहे। आपके प्रयासों से 1950 में छत्तीसगढ़ अंचल में प्रथम विशाल क्षत्रिय महासभा का आयोजन हुआ। छत्तीसगढ़ के सहकारिता आंदोलन में आपका योगदान अविस्मरणीय है। आप बिलासपुर ‘सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक‘ के आजीवन संचालक रहे। आपकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से अकलतरा में बैंक की शाखा खुली, जिसके आप आजीवन अध्यक्ष रहे। ‘मल्टी-परपज सोसाइटी‘, अनंत आश्रम, मुलमुला के संस्थापक सचिव रहे। उच्च प्रतिष्ठा, कानून की डिग्री और न्यायप्रियता के कारण ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट‘ मनोनीत होकर, कार्य करते हुए आपने पद की गरिमा बढ़ाई।

1947-48 में आपने इंग्लैण्ड सहित कई यूरोपीय देशों की यात्रा कर अनुभव का विशाल भण्डार साथ लाये। आपकी प्रतिभा और अनुभव को देखते हुए श्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने आपको जांजगीर जनपद सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया, इस पद पर आप आजीवन निर्विवाद बने रहे। यह कुशल प्रबंधन का परिणाम था कि आपकी मृत्यु के समय लोक कल्याणकारी कार्यों में अग्रणी रहने के बावजूद जनपद सभा, जांजगीर की जमा राशि लगभग दो लाख रूपये थी और यह मध्यप्रान्त की सुदृढ़ सभा थी। कृषि संबंधी जानकारी और प्रशासनिक योग्यता को देखते हुए 1949 में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर खानखोजे की अध्यक्षता में गठित ‘एग्रीकल्चरल पॉलिसी कमेटी‘ के आप सदस्य मनोनीत हुए और इसे सार्थक बनाया। आल इण्डिया रेडियो, नागपुर से कृषि, आंचलिक और जनजातीय विषयों पर आपकी वार्ताएं प्रसारित होती थीं।

छत्तीसगढ़ की पहचान, दिशा और अस्मिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी सदैव महसूस करते रहे। कलकत्ता और लखनऊ प्रवास के दौरान अंग्रेजी अखबार ‘हितवाद‘ का नागपुर संस्करण डाक से मंगाकर पढ़ते तथा समकालीन, आंचलिक घटनाक्रम पर बराबर नजर रखते। छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने में आप गर्व अनुभव करते थे। आपने सहृदयतावश छात्र जीवन में भी गुप्त रूप से छात्रों की पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई। जिसे आश्वासन दिया, उसे सदैव पूरा ही किया। स्पष्टवादी किन्तु सौम्य और संतुलित व्यवहार का ही प्रभाव था कि आपके निकट आये व्यक्ति सदैव आपके होकर रहे। आपके पुत्रों ने 1954 से आपकी स्मृति में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रतिवर्ष मानव शास्त्र में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र के लिए स्वर्ण पदक की व्यवस्था की है।

आपके पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह, सत्येन्द्र कुमार सिंह तथा डॉ. बसंत कुमार सिंह ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सक्रिय रह कर ख्याति अर्जित की। वर्तमान में पुत्री बीना देवी का निवास नरियरा में है और कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार सिंह सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।

धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां आपके जीवन और कर्म के प्रमुख बिन्दु थे। प्रत्येक मंगलवार को व्रत और बरगवां के हनुमान जी की पूजा, आपका अटूट नियम रहा। अंचल के अनुष्ठानों में आपका योगदान अपूर्व रहता था। सांकर, कुटीघाट आदि स्थानों में आयोजित यज्ञों के प्रमुख व्यवस्थापक रहे। विक्रम संवत् 2000 समाप्त होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में नियोजित श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी में समिति के आप उपाध्यक्ष थे। आपके साथ अन्य उपाध्यक्ष पं. सखाराम पंत, सेठ मोतीचंद, पं. सदाशिव रामकृष्ण शेंडे, श्री होरीलाल गुप्त तथा पं. बापूसाहब शास्त्री थे। शिवरीनारायण मंदिर और मठ से आपका सम्पर्क बराबर बना रहा, जिसका आधार मंदिर परिसर में स्थित पारिवारिक राम-जानकी मंदिर था। मठ के लिए परिवार द्वारा धर्मशाला बनवाकर अर्पित की गई। महंत लालदास जी और व्यवस्थापक श्री कौशल प्रसाद तिवारी को मठ-मंदिर की सभी गतिविधियों के लिए उदार और सक्रिय सहयोग दिया करते थे।

कार्य की व्यस्तता और लोक दायित्वों के प्रति गहरे समर्पण ने आपको शरीर के प्रति विरक्त बना दिया, इससे 1950 में हृदय रोग से पीड़ित हो गए। डाक्टरों द्वारा में विश्राम की सलाह के बावजूद निरन्तर जनकल्याण कार्यों में लगे रहे और प्रथम आम चुनाव के समय जिले का व्यापक दौरा किया। आपका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया और 26 जनवरी 1952 को बिलासपुर ‘ऑफिसर्स क्लब‘ में अंतिम सांस ली। लाल साहब की पुण्य स्मृति को सादर नमन्।

पुनश्च-

इस लेख के साथ ‘पूरक जानकारी‘ के रूप में हस्तलिखित मसौदा ‘अतिरिक्त जानकारी जिसे उक्त लेख यथास्थान समाहित किया जावे’ टीप सहित मिला है, जो इस प्रकार है-

वे जितने लोकप्रिय- किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी आदि में थे, उतने ही लोकप्रिय अधिकारियों और व्यवसायियों के बीच भी थे। जिले के कलेक्टर, पुलिस कप्तान और अन्य बड़े अफसरों से भी उनके नजदीकी संबंध थे। उस समय के जिलाधीश श्री एम. एस. चौधरी (जो आगे चल पुराने म.प्र. के मुख्य सचिव हो कर अवकाश ग्रहण किये) श्री पी.जी. घाटे, पुलिस कप्तान (जो आगे चल कर महाराष्ट्र से आइ. जी., पुलिस हो कर अवकाश ग्रहण किये), बिलासपुर थे। प्रसिद्ध ठेकेदार श्री चुन्नीलाल मेहता, नगर के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ बच्छराज बजाजआदि से उनके पारिवारिक संबंध रहे। सक्ती के राजा बहादुर लीलाधर सिंह और सारंगढ़ नरेश राजा जवाहिर सिंह तथा रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह आदि, कई जमींदार (पंडरिया, कन्तेली, कोरबा आदि) उनके अभिन्न मित्रों में थे।

उनके इसी प्रतिभा, योग्यता और मिलनसारिता के कारण उन्हें बिलासपुर ऑफिसर्स क्लब की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी, जो उस समय एक दुर्लभ और प्रतिष्ठापूर्ण बात थी। बिलासपुर शहर और जिले के इने गिने लोगों को यह गौरवपूर्ण सदस्यता प्राप्त थी।

वे बहुत अच्छे शिकारी भी थे। उनका निशाना अचूक हुआ करता था। परंतु यह उनका शौक था। उसे व्यवसाय नहीं बनाया वरन इसे लोक सेवा का माध्यम माना। उस समय बलौदा के आसपास घने जंगल हुआ करते थे। यहां सरकारी रिजर्व फारेस्ट हुआ करते थे। जैसे दल्हा, पहरिया, सोंठी, कटरा और आसपास की पहाड़ियां की पहाड़ियां भी जंगलों से आच्छादित रहते थे, जहां जंगली जानवर, शेर तेंदुआ, चीता, भालू, सुअर, हिरण आदि आदि काफी संख्या में रहते थे। ये जानवर कई बार जंगल के बीच के गांव आकर जान माल का नुकसान करते थे। पालतू जानवर और फसल का नुकसान आम करते या कभी-कभी ये खूंखार जानवर शेर, चीता, भालू आदि जन-धन की हानि उतारू हो जाते थे। ऐसे अवसर पर गांव वाले सम्मानपूर्वक उन्हें आमंत्रित कर ले जाते थे और वे वहां कैम्प कर खूंखार जानवरों के भय से उन्हें मुक्ति दिलाते थे। उनके रहते आसपास के जंगली गांव के लोग अपने को सुरक्षित पाते थे। कई बार सरकार की ओर से भी इन्हें खूंखार जानवरों के शिकार के लिए भेजा जाता था। इसी कारण बलौदा इलाके के अधिकांश बड़े गांवों के प्रमुख लोगों से मित्रता थी और कई लोगों से पारिवारिक संबंध थे।
(इसी तारतम्य में वैन इंजेन एंड वैन इंजेन का हवाला, जिसने घर में रखे जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए तैयार किया है।)

उच्च शिक्षा और संस्कारित शिक्षा उनकी प्रथम प्राथमिकता थी और यही कारण रहा जब उनके ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह (आगे चल कर कुमार साहब के नाम से प्रसिद्ध हुये) बिलासपुर के प्रसिद्ध गव्हर्नमेंट हाई स्कूल से मेट्रिक पास किए तो उन्हें एनी बेसेंट कॉलेज, बनारस भेजा गया। उच्च शिक्षा के लिए साथ ही साथ उन्होंने इलाके के शिक्षानुरागी लोगों को अपने परिचितों को भी उच्च शिक्षा के लिए बनारस भेजने के लिए प्रेरित किया। तदनुसार अकलतरा के कई प्रतिष्ठित परिवारों के लड़के तो गए ही, जिले के प्रसिद्ध मालगुजार श्री सुधाराम जी साव ने भी अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा के लिये बनारस भेजा। यही नहीं सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह ने भी इनकी प्रेरणा से अपने कई नजदीकी लोगों को इनके माध्यम से बनारस पढ़ने के लिये भेजा।

वे सही मायने में अर्थशास्त्री थे। वे केवल एम.ए. अर्थशास्त्र कर अर्थशास्त्र के शास्त्रीय ज्ञाता मात्र नहीं थे वरन उस ज्ञान को आपने व्यावहारिक जामा भी पहनाया था। वे अपने घरू आर्थिक स्थिति को चुस्त दुरुस्त तो किये ही, कई परिवारों को आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद और मार्गदर्शन दिया। क्षेत्र के अच्छे अच्छे व्यापारी, ठेकेदार, बड़े किसान इनके मार्गदर्शन से लाभान्वित हुये थे। बम्बई, कलकत्ता की कई व्यावसायिक घरानों में इनकी अच्छी पकड़ थी।

जनपद सभा, जांजगीर के प्रथम अध्यक्ष तो थे ही। जनपद सभा वित्त समिति के अध्यक्ष भी थे। इन दोनों जिम्मेदारियों का निर्वहन आपने इतने लगन, निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया कि उस समय पूरे मध्यप्रदेश में जांजगीर जनपद सभा सबसे व्यवस्थित और मालदार, धनी संस्था थी। उनके निधन (1952) के समय जनपद सभा के खाते में 2 लाख रुपए जमा थे।

जीवन के अंतिम दिन तक भी वे समाज हित की सोचते रहे थे जिस दिन निधन हुआ उसी दिन सुबह की गाड़ी से सक्ती गये थे। उद्देश्य था राजा साहब सक्ती लीलाधर सिंह से मिल कर प्रेस खोलना, जहां से जन साधारण के लिये अखबार निकाला जा सके। हमेशा की भांति अकलतरा से डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र, खास मित्र उनके साथ हो लिये थे। उन्हें शाम की गाड़ी से बिलासपुर लौटना था। जैसे इनकी सक्ती यात्रा और लौटने की जानकारी शहर (अकलतरा) में मिली, शाम को ट्रेन के समय अकलतरा रेल्वे स्टेशन में सैकड़ों कार्यकर्ता और शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। जैसे गाड़ी सक्ती से आ कर प्लेटफार्म में रुकी, नारों से पूरा स्टेशन गूंज गया। लोगों की भीड़ देख कर उन्हें गाड़ी से उतरना पड़ा, सब लोगों से मिले। श्री सम्मत सिंह और ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह से अलग अलग कुछ मंत्रणा की और अगले दिन बिलासपुर से लौटने की बात कह फिर गाड़ी में सवार हो गये। इन्हीं सब कारणों से उस दिन पैसिंजर गाड़ी भी करीब 10 मिनट प्लेटफार्म में खड़ी रही। उस दिन की भीड़ में लेखक लेखक भी वहीं मौजूद था, परंतु वहां उपस्थित लोगों को क्या मालूम था कि यह उनका अंतिम दर्शन था।

रात्रि के करीब 8-9 बजे बिलासपुर से टेलीफोन पर डाकखाने में (क्योंकि उस समय घरों में टेलीफोन की व्यवस्था नहीं थी) सूचना आई कि आफिसर्स क्लब में उन्हें दिल का दौरा आया। उस समय सिविल सर्जन डॉ. काले? भी उपस्थित थे पर उन्हें बचाया नहीं जा सका, उनका पार्थिव शरीर ठा. छेदीलाल बैरिस्टर के बिलासपुर स्थित बंगले में लाया जा रहा है। यह समाचार जंगल की आग की तरह पूरे अकलतरा शहर में फैल गया। जैसे ही मध्य रात्रि के बाद उनके मृत शरीर को अकलतरा लाया गया, सैकड़ों की संख्या में महिला पुरुष बच्चे उनके घर और उसके आसपास जमा थे। तिल रखने की जगह नहीं थी। जैसे तैसे उनके निष्प्राण शरीर को मोटर से उतारा गया। इसी दिन अंतिम विदा तथा क्षेत्र के सारे लोग अंतिम दर्शन व विदाई के लिए एकत्र हुये। और मृतक आत्मा को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

यहां आई जानकारियों और तथ्यों के मिलान के लिए पोस्ट अकलतरा के सितारे, लाल साहब और लाल साहब पुनः भी देख लेना चाहिए।

Tuesday, May 30, 2023

लाल साहब पुनः

शब्दों के अर्थ की ठीक समझ के लिए शब्दकोश से बाहर, आगे जाना होता है। भौतिक जगत के लिए जीव-वस्तुओं के साथ शब्दों का मेल-जोड़ बिठाना होता है तो मानवीय गुणों के लिए उसे व्यक्तियों के साथ जोड़ कर समझ बनती है। अपने बचपन की याद करते हुए मुझे लगता है कि पांडित्य, सदाचार और अनुशासन जैसे शब्द, पं. रामभरोसे शुक्ल जी और उनके परिवार के गोरेलाल जी, मुरारीलाल जी, मदनलाल जी, वेंकटेश जी के साथ मेरे लिए सार्थक होते हैं। डॉ. मदनलाल शुक्ला जी के साथ अन्यान्य कारणों से मेरा संपर्क उनके जीवन काल में बना रहा, उनका पिछला लेख और यह, उनके लिए मेरी श्रद्धांजलि भी है।
पं. रामभरोसे शुक्ल जी परिवार


अकलतरा वाले ठाकुर डॉ. इंद्रजीत सिंह (लाल साहब) का शतीय जन्म दिवस आज 

डॉ. इंद्रजीत सिंह: अद्भुत व्यक्ति, अद्वितीय व्यक्तित्व

■डॉ. मदनलाल शुक्ला 

स्वर्गीय ठाकुर डा. इंद्रजीत सिंह का जन्म 5 फरवरी 1906 बिलासपुर जिले के जांजगीर तहसील में स्थित ग्राम अकलतरा में हुआ था. उनके स्वर्गीय पिताजी राजा मनमोहन सिंह पच्चीस गांव के मालगुजार थे. उन दिनों मालगुजारों के निवास स्थान को ‘बखरी‘ कहते थे. गांव में दो बखरी थे- बड़ी बखरी, छोटी बखरी. ये दोनों परिवार इलाके में अपने जनकल्याण कार्यों के लिये प्रसिद्ध थे. उनकी ‘बखरी‘ बड़ी बखरी कहलाती थी. डा. इंद्रजीत सिंह की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुयी थी. विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के उपरान्त इंद्रजीत सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये. वहां एन्थ्रोपालाजी के विभागाध्यक्ष डा. मजूमदार के मार्गदर्शन में इनने तत्कालीन छत्तीसगढ़ के बैगाओं, आदिवासियों की जीवन शैली, रहन सहन को अपना विषय बनाकर पी एच डी. की उपाधि प्राप्त की. 
दैनिक ‘नवभारत‘, 5 दिसंबर 2006, मंगलवार, संपादकीय पृष्ठ की कतरन 

उनके व्यक्तित्व कृतित्व तथा उपलब्धियों का वर्णन निम्नानुसार है. 

उनका दैहिक व्यक्तित्व आकर्षक था. मृदुभाषी एवं सहृदयता के धनी ठाकुर साहेब पूरे क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय थे. वे लाल साहेब के नाम से अपने परिवार जनों तथा जरुरतमंदों में जाने जाते थे. वे सहायता करने में इतने प्रवीण थे कि आम लोग उन्हें गरीबों का मसीहा कहते थे. स्वभाव से शालीन संवेदनशील तथा अहंकार विहीन व्यक्ति थे. उनकी व्यवहार कुशलता प्रसिद्ध थी. उनके चार पुत्र रत्न राजेंद्र कुमार (बड़े बाबू), संत कुमार, बसंत कुमार तथा धीरेंद्र कुमार एवं एक बहन बीना सिंह. इन चार भाइयों में से पहले तीन की मृत्यु हो चुकी है. अभी धीरेंद्र कुमार पूरे परिवार का भार सम्हाले हुए हैं. स्वर्गीय राजेंद्र कुमार के सुपुत्र भूतपूर्व डा. राकेश सिंह भूतपूर्व विधायक थे. अब वे अकलतरा में प्रेक्टिस करते हैं. लाल साहिब के मृदुभाषी होने का पारिवारिक गुण सब भाईयों में था. डा. राकेश भी सगाजसेवा और जन कल्याण के काम में लगे रहते हैं. धीरेंद्र कुमार सिंह बिलासपुर में रहते हैं तथा अपने स्व. पिता के नाम से ‘ठाकुर इंद्रजीत सिंह काम्पलेक्स‘ उच्च न्यायालय के सामने बनवाया है. उसमें शहर के वरिष्ठ अधिवक्तागण रह रहे है. स्व. संत कुमार सिंह के सुपुत्र राहुल सिंह उम्र 45 वर्ष स्थानीय पुरातत्व विभाग उप संचालक के पद पर कार्यरत है. 

मदनलाल शुक्ल जी के सुपुत्र
विनय शुक्ला जी
हमारे विभागीय संचालक रहे,
उनके हस्ताक्षर से जारी
मेरे परिचय पत्र की तस्वीर
स्व. लाल साहेब की आज भी उनके तीन प्रमुख उपलब्धियों के लिये स्मरण किया जाता है. प्रसिद्ध शिकारी, प्रथम श्रेणी के स्पोर्ट्समेन, तथा पर्यटन प्रेमी. अकलतरा गांव से तीन मील पर ‘कटघरी‘ गांव में उनके द्वारा एक बहुत बड़ा बगीचा बनवाया था. जिसमें देश के सभी प्रसिद्ध प्रकार के आम के वृक्ष लगे हुये हैं, दशहरी, चौसा, लंगड़ा आदि. अपने समय में लाल साहब उस बगीचे में ही अतिथिजनों का स्वागत करते थे. मनोरंजन के तौर पर कार-मिकेनिजम में वे माहिर थे, उस समय जर्मनी से मंगाया गया ‘हंसा‘ कार वे रखते थे तथा लोगों को उसमें बैठाकर क्षेत्र के रमणीय स्थानों पर ले जाते थे. पच्चीस गांव के मालगुजार होने के नाते वे ग्रामीण भाईयों को प्रेम करते थे, न्यायप्रिय थे तथा उनके पूरे इलाके में संतोष व्याप्त था. अकलतरा शहर के प्रसिद्ध हरिकीर्तनकर्ता पं. स्वर्गीय रामभरोसे शुक्ल से अत्यंत प्रभावित थे. उनके हरिकीर्तन सुनने के लिये हर जगह पहुंच जाते थे. श्रद्धा आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहिब सदैव स्मरण किये जायेंगे. 

लाल साहिब के गुण ग्राह्यता भी अपने किस्म की एक ही थी. स्व. पं. गोरेलाल शुक्ल पुत्र रामभरोसे शुक्ल ने सन् 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय से बी.ए. आनर्स (अंग्रेजी) की डिग्री प्रथम श्रेणी में ली तथा उनकी प्रतिभा कितनी तीक्ष्ण थी कि एक वर्ष के ही अंदर वे असिस्टेंट प्रोफेसर अंग्रेजी हो गये. स्व. लाल साहिब इस अपूर्व सफलता से प्रभावित होकर गोरेलाल जी को स्वयं शाबासी देने आये थे तथा उनके सम्मान में उन्होंने एक भोज का भी आयोजन किया. हमारा शुक्ल परिवार सदैव उनका आभार मानेगा तथा शहर के पुराने लोग भी उनकी विशेषता को बताते रहते हैं. वैभव और शालीनता का अदभुत समन्वय. 

स्व. लाल साहिब राजनीति से दूर ही रहते थे. लेकिन संयोग की बात है कि सन् 1947 में हमारा देश स्वतंत्र हुआ. सन् 1950-51 में संविधान पारित हुआ और सन् 1952 में विधायिका के लिये प्रथम चुनाव ठा. लाल साहिब अकलतरा क्षेत्र के विधायक का चुनाव लड़े किंतु दुर्भाग्यवश वे उस चुनाव में पराजित हुये. इस पराजय को लाल साहिब बर्दाश्त नहीं कर पाये और सन् 52 में उनका 46 वर्ष में निधन हो गया. विनम्र श्रद्धांजलि. से.नि. सिविल 

सर्जन, पी- 38 क्रांति नगर, बिलासपुर.

Monday, May 29, 2023

लाल साहब

इंद्रजीत सिंह मेमोरियल ट्रस्ट, अकलतरा, जिला-जांजगीर चांपा की ‘स्मारिका‘ में प्रकाशित डॉ. मदन लाल शुक्ल का लेख यहां प्रस्तुत है, उनका एक अन्य लेख नवभारत समाचार पत्र में भी प्रकाशित हुआ था। 


लाल साहब को विनम्र श्रद्धांजली 

पाँच दिसम्बर 2006 को अकलतरा में रा. कु. सिंह उ.मा.शाला के सभाभवन में लाल साहब के जन्म शती समारोह का आयोजन हुआ। डॉ. इन्द्रजीत सिंह के कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार के प्रयास स्वरुप यह आयोजन अत्यंत सफल रहा। आपस में सबका मेल जोल हुआ। अकलतरा गांव के सभी पुराने प्रबुद्ध वर्ग के लोग तथा डॉ. साहब के परिवार के उनके सभी बंधु बांधव उपस्थित हुये। समारोह की विशेषता यह थी कि छत्तीसगढ़ समाज के समस्त महिलाएँ भी उत्साह पूर्वक वहां पधारी तथा अनेक महिलाओं ने स्व. डॉ. साहब के व्यक्तित्व की प्रशंसा भी की तथा उन्हें उस जमाने के श्रेष्ठ मालगुजारों में गिनाया। मैं सन् 1933 में क्षेत्रीय मेरिट छात्रवृत्ति पाकर हाईस्कूल बिलासपुर चला गया था, सन् 1940 में प्रथम श्रेणी में मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की। मेरी उम्र 18 वर्ष थी तब तक लाल साहब कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होकर आ गये थे तथा उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि भी मिल चुकी थी। समारोह के दिन उनके जीवन की उपलब्धियों को लेकर एक संक्षिप्त विवरणिका भी वितरित की गयी थी, जिसमें उनके जीवन की समस्त सफलताओं का उल्लेख है। वह छोटी पुस्तक स्वयं में सम्पूर्ण है। 


मेरी मान्यता के अनुसार लाल साहब एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने जमाने के प्रसिद्ध फुटबाल तथा टेनिस, व्हालीबाल के खिलाड़ी थे। इसीलिए अच्छे खिलाड़ियों से मिलकर वे बहुत प्रसन्न रहते थे। अक्सर ग्रीष्मकालीन अवकाश में जब हम सब सायंकाल खेल के मैदान में मिलते थे तो वे कहा करते थे कि मदनलाल न केवल प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी है परन्तु अच्छे खिलाड़ी भी है, जो प्रायः नही होता। उनकी गुणग्राह्यता के कई उदाहरण है - सन् 1936 में मेरे अग्रज स्व. प्रोफेसर गोरेलाल शुक्ल ने मैट्रिक में पूरे प्रांत भर में हिन्दी विषय में विशिष्ट योग्यता प्राप्त थी। तत्कालीन कामता प्रसाद गुरु व्याकरणाचार्य ने गोरेलाल को पत्र लिखकर उन्हें शुभकामनाएं दी थी। लाल साहब को जब हमारे पिता जी ने यह पत्र दिखाया वे प्रसन्न हो गये और कहा कि गोरेलाल जी का भविष्य उज्जवल है। 1941 में गोरेलाल जी नागपुर विश्वविद्यालय के बी.ए. आनर्स अंग्रेजी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। एक वर्ष के अंदर प्रोफेसर आफ अंग्रेजी नियुक्त हुये। इस समाचार को सुनते ही लाल साहब हमारे घर पधारे तथा हमारे पिता जी से कहा कि गोरेलाल जी ने पूरे गांव को गौरवान्वित किया है। लाल साहब ने हम सबों को भोज भी दिया। लाल साहब जितने वैभवशाली थे उतने ही सहृदय तथा संवेदनशील भी थे। वे करुणा व दया के कायल थे। लाल साहब हमारे पिता जी पंडित रामभरोसे शुक्ल से भी प्रभावित थे। उनका हरिकीर्तन सुनने वे प्रायः पहुँच जाते थे। कहा करते थे कि शुक्ल जी का परिवार अनुकरणीय है। बड़ा लड़का प्रोफेसर है तथा दूसरा शीघ्र डॉ. होने वाला है। हम सब लोगों के लिये दुःख का विषय यह रहा कि मात्र 46 वर्ष की उम्र में सन् 51 में उनका निधन हुआ। वे एक व्यक्ति नही थे वरन स्वयं में संस्था स्वरुप थे। उनके द्वारा संचालित कई जनकल्याण के कार्य अभी भी उस इलाके में चल रहे है। बड़ी श्रद्धा से उन्हें याद किया जाता है। 

लाल साहब शिकार के बहुत शौकीन थे। बड़े शिकार करने में उन्हें बहुत आनंद मिलता था। उनकी बैठक कमरा शेर, चीता, हिरण के खाल तथा सींग से सुसज्जित है। 

पर्यटन प्रेमी इतने थे कि पूरे देश एवं विदेश का भ्रमण उन्होंने कर लिया था। एक बार शिमला में ग्रीष्म ऋतु व्यतीत करने के बाद जब वे आये तो उनने वहां के फूलों के बगीचे की तारीफ की। तत्कालीन वायसराय ने अपने भवन के सामने वह अद्भुत बगीचा बनवाया था देश विदेश के सभी प्रकार के फूलों के पौधे वहां अभी भी देखे जा सकते है। वहीं से लौटने के बाद उनके अपने गांव ‘कटघरी‘ में फलों का बगीचा लगाया जिसमें सब तरह के आम, केला, संतरा पाइनेपल तथा बीज रहित खरवानी के पपीते के वृक्ष भी लगे थे। उनके यहां जो भी अतिथि आते थे- उन्हें वे फलों का बगीचा दिखाने जरुर ले जाया करते थे। वह एक बहुत ही आकर्षक ‘पिकनिक स्पॉट‘ था। 

उनकी दिनचर्या में प्रमुख हिस्सा था शाम को डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्रा के यहां बैठक जिसमें पं. रामभरोसे शुक्ल, श्री गजानंद प्रसाद गौरहा, मेऊ वाले तथा श्री कौशल प्रसाद तिवारी, शिवरीनारायण वाले रहते थे। उस बैठक में कभी कभी श्री पं. राधेश्याम वकील, लिमहा वाले भी आया करते थे। श्री राधेश्याम जी, विशेषर सिंह जी आदि कभी कभी संगीत की गोष्ठी किया करते थे। 

कहा जाता है कि जिसे तलवार नही जीत सकती उसे मधुर वाणी जीत लेती है। लाल साहब इस कथन की पुष्टि के प्रतीक थे। मीठी बोली, सरल, शालीन स्वभाव तथा विनम्रता उनके व्यक्तित्व के विशेष आकर्षण थे। 

ब्राम्हणों के प्रति श्रद्धा, धर्म में आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहब सदैव सबके हृदय में विराजित रहेंगे। विशेषकर अपने वृहद परिवार के सदस्यों के बीच। उनके इलाके में जितने भी किसान थे वे सदैव उनका गुणगान करते थे। उनकी निष्पक्षता, निर्भयता तथा न्यायप्रियता के सभी कायल थे। 

ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार भी अपने पूज्य पिताजी के पद चिन्ह पर चलते हुए अपने पूज्य पिताजी का पितृ ऋण चुकाते रहेंगे। 

डॉ. मदन लाल शुक्ल, 
एम.बी.बी.एस., एम.एस. 
सेवा निवृत्त सिविल सर्जन 
क्रांतिनगर, बिलासपुर

Tuesday, September 6, 2022

बहुभाषी बस्तर

बस्तर की छत्तीस भाषाएं, यों अतिरंजित लग सकती हैं मगर डब्लू. वी. ग्रिग्सन ने सन 1938 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द मारिया गोंड्स ऑफ बस्तर‘ में अपने सहयोगी चेतन सिंह के प्रति आभार व्यक्त किया है, ‘जो बस्तर की सभी ‘36‘ भाषाएं जानते थे।‘ 36 भाषाओं के दुगने यानि 72 का उल्लेख मिलता है सूचना तथा प्रकाशन संचालनालय, म.प्र. द्वारा प्रकाशित (1973?) एवं चन्द्रा प्रिंटर्स भोपाल द्वारा मुद्रित-12-73-5000, ‘आपका जिला बस्तर‘ पुस्तिका में- 'संपूर्ण जिले में 72 बोलियां बोली जाती हैं, जिनमें गोंड़ी, हल्बी, भतरी, दोरली, धुरवी, मारवी, मुरिया, छत्तीसगढ़ी, हिन्दी, तेलगू, उड़िया, बंगाली, मराठी आदि प्रमुख हैं।' (सरगुजा भी कुछ ही पीछे रहा है, 1998 में प्रकाशित गजेटियर के अनुसार इस जिले में कुल मिलाकर 61 भाषाएं तथा बोलियां बोली जाती थीं।) स्पष्ट है कि बस्तर बहुभाषी (और एकाधिक लिपि) अंचल है और ऐसा स्वाभाविक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ का यह भाग, जो दंडकारण्य और महाकांतार, जाना जाता था, भौगोलिक दृष्टि से महाराष्ट्र, आंध्र-तेलंगाना और उड़ीसा से संलग्न है, यह अंचल राम वनगमन पथ, राजा नल, सम्राट समुद्रगुप्त के पौराणिक ऐतिहासिक, साहित्यिक संदर्भों से जुड़ता है। यहां दक्षिण, पूर्व-पश्चिम और उत्तर से शासक, राजनैतिक हस्तक्षेप के अलावा ब्राह्मण व अन्य जातियों के आगमन और बसने के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं।

एपिग्राफिया इंडिका, वाल्युम-9, 1907-08 के शक संवत 1033 गुंड महादेवी के नारायणपाल शिलालेख का परिचय देते हुए रायबहादुर हीरालाल की टिप्पणी रोचक और महत्वपूर्ण है- 'भारत में आर्य तथा द्रविड़ जन समूह के मध्य नर्मदा, जिस प्रकार पृथक सीमारेखा खीचती है, उसी प्रकार बस्तर में इन्द्रावती की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इन्द्रावती नदी के उत्तरी भाग से प्राप्त समस्त अभिलेख देवनागरी लिपि में हैं तथा दक्षिणी भाग में इसी समय के अभिलेख तेलुगु लिपि में हैं। ऐसा स्पष्ट ज्ञात है कि यद्यपि नागवंशी राजा इन्द्रावती के उत्तर और दक्षिणी दोनों तरफ शासन करते थे, तथापि आर्य और द्रविड़ समुदाय कीे प्रजातीय मान्यताएं एवं कम से कम भाषायी सम्प्रेषण की दृष्टि से, स्वतः के प्रभाव को विज्ञापित करने के लिए उन्होंने इन्द्रावती नदी को ही विभाजक रेखा मान्य किया था। नारायणपाल का हमारा यह अभिलेख इन्द्रावती नदी के उत्तर तटीय क्षेत्र से प्राप्त हुआ है, इसी कारण संस्कृत में है।

इस संदर्भ में दंतेवाड़ा के प्रसिद्ध दंतेश्वरी मंदिर शिलालेख का उल्लेख आवश्यक और प्रासंगिक है। यहां दो शिलालेख दिकपालदेव के हैं, जिनकी तिथि संवत 1760 अर्थात सन 1703 है। इनमें से दोनों शिलालेखों की लिपि नागरी है, एक की भाषा संस्कृत और दूसरा ‘भाषा‘ (हिन्दी, इस लेख की भाषा, छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित प्रमाण के रूप में स्थापित है) में है। दूसरे पत्थर पर उत्कीर्ण लेख, वस्तुतः संस्कृत वाले पहले का ही संक्षेप आशय प्रकट करने वाला अनुवाद है। रोचक कि दूसरे शिलालेख के आरंभ में ही कहा गया है कि ‘देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरहो हैं तै पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिषे है।‘ पुनः अंत में कहा गया है कि- ‘ई अर्थ मैथिल भगवानमिश्र राजगुरु पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।‘ आशय स्वयं स्पष्ट है।

बस्तर पर शोध करने वाले पहले भारतीय छत्तीसगढ़ निवासी डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोध-ग्रंथ 1944 में प्रकाशित हुआ। कलकत्ता, इलाहाबाद और लखनउ से पढ़ाई करने वाले डॉ. सिंह को हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी और लैटिन का अच्छा अभ्यास था। अपने शोध के दौरान उन्हें हल्बी का अच्छा अभ्यास हो गया था और बस्तर की अन्य लगभग सभी भाषाओं को मोटे तौर पर समझने लगे थे। उनकी पुस्तक ‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ के परिशिष्ट में लगभग 300 शब्दों की शब्दावली है, यह बस्तर संबंधी जिज्ञासा रखने वाले के लिए प्रारंभिक तैयारी के लिए जरूरी शब्द-संग्रह है।

सन 1998 में रामकथा के तीन ग्रंथों- हलबी रामकथा, माड़िया रामकथा और मुरिया रामकथा का प्रकाशन मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग से हुआ। ग्रंथों के सम्पादक भाषाविज्ञानी प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल हैं। भारी-भरकम इन ग्रंथों का आकार कल्याण के विशेषांक जैसा और पृष्ठ संख्या क्रमशः 688, 454 और 644 है।

एक अन्य उल्लेख- अपने जीवन काल में मिथक बन गए बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने छोटी सी पुस्तक लिखी थी ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘। अब एक अन्य ताजा उल्लेख, कांकेर रियासत के आदित्य प्रताप देव, जो दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं, उनकी इसी वर्ष 2022 में प्रकाशित पुस्तक ‘किंग्स, स्पिरिट एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ ‘एनचांटिंग द स्टेट‘ का। यह पुस्तक उनके सुदीर्घ और गंभीर शोध का परिणाम है ही, कांकेर को बस्तर से अलग देखने और कुछ अर्थों में प्रवीरचंद्र भंजदेव के ‘आइ प्रवीर ...‘ से अलग ‘‘द किंग एज ‘आइ‘‘, जो इस पुस्तक का पहला अध्याय है, दृष्टिगत है। अपनी पुस्तक में वे वास्तविक अवधारणाओं को समझने में पारिभाषिक बना दिए गए शब्दों, रूढ़ मुहावरों के चलते समझ की भाषाई सीमा का उल्लेख करते हैं। कांकेर में बोली जाने वाली भाषा के संबंध में स्पष्ट करते हैं कि छत्तीसगढ़ी और हिंदी बोलते हैं, जिसमें कई शब्द हल्बा और गोड़ी के होते हैं। साथ ही विशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के लगभग डेढ़ सौ शब्दों की शब्दावली है।

बस्तर की जबान (भाषा-बोली) के लिए जितना मैं समझ सका हूं, बस्तर की संपर्क भाषा हल्बी है। (यहां उल्लेखनीय कि पुराने बस्तर जिले या वर्तमान बस्तर संभाग के कांकेर या केसकाल घाटी तक छत्तीसगढ़ी प्रचलित है।) हल्बी पर छत्तीसगढ़ी और मराठी का प्रभाव है, बल्कि कुछ स्वतंत्र और मौलिक प्रयोगों के साथ वह इन्हीं दो भाषाओं का मिश्रण है। इसी तरह अधिकतर उड़ीसा से जुड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली भतरी पर उड़िया प्रभाव-मिश्रण है। दोरली को गोंडी का रूप माना जा सकता है, जिसमें सुकमा वाली दोरली पर उड़िया का और बीजापुर वाली पर मराठी का प्रभाव होने से दोनों में अंतर आ जाता है, मगर दोनों भाषा-भाषी को एक-दूसरे की बात समझने में कठिनाई नहीं होती। इसके अलावा गोंडी है। मगर ध्यान रहे कि माड़ (अबुझमाड़) की गोंडी अलग है, जबकि इससे भिन्न दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंटा की गोंड़ी आपस में मिलती जुलती है। माड़ की गोंड़ी और दक्षिण-पश्चिमी गोंडी में इतना फर्क हो जाता है कि इन्हें एक-दूसरे की जबान समझ पाना कठिन होता है।

प्रसंगवश, भाषा संपर्क और अभिव्यक्ति का माध्यम है तो औपचारिक दूरी बनाने का भी साधन है। पुराने नाटकों में राजा और पुरोहित जैसे पात्रों के संवाद संस्कृत में होते हैं, वहीं नारी पात्र, सेवक, ग्रामवासी और विदूषक आदि अपभ्रंश जैसी भाषा बोलते थे। रामायण का प्रसंग है- 'अहं ह्यतितनुश्चैव ... ... ... शक्या नान्यथेयमनिन्दिता।।' हनुमान सोचते हैं कि वानर हो कर भी मैं यहां मानवोचित, द्विज की भाँति संस्कृत का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जाएंगी, ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिये, जिसे अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता बोलती है। कालिदास के कुमारसंभव का सातवां सर्ग शिव-पार्वती विवाह प्रसंग है, जिसमें कुछ इस प्रकार कहा गया है कि- सरस्वती ने वर की स्तुति संस्कृत में और वधू की स्तुति सुखग्राह्य (प्राकृत?) भाषा में की। ... शिव-पार्वती ने अलग-अलग भाषा की शैलियों से निबद्ध, अप्सराओं द्वारा खेला नाटक देखा। दो अन्य प्रसंग। पहला, जिसमें राजा भोज राह चलते ग्रामीण महिला से प्राकृत में सवाल करते हैं और वह शुद्ध संस्कृत में जवाब देती है। इसी तरह विद्यानिवास मिश्र ने काशी में विवाह के अवसर पर महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री और टहल नाई के प्रसंग का उल्लेख किया है, जिसमें शास्त्रीजी द्वारा शास्त्रीय विधि के अनुमोदन और नाई द्वारा लोकाचार स्मरण कराने पर, शास्त्रीजी द्वारा बार-बार एक ही बात दुहराते उसकी बात खारिज करने पर नाई ने ‘सर्वत्रैव षड् हलानि‘ कह कर, पंडितजी को विस्मय में डाल दिया।

सरकार में जनप्रतिनिधि, जनता के बीच जाकर उनकी भाषा का प्रयोग कर आत्मीयता का प्रयास करते हैं तो दूसरी ओर कामकाज या सरकारी सहयोगी-मातहतों के साथ अंग्रेजी-हिंदी। इसी प्रकार वरिष्ठ अधिकारी, कनिष्ठ अधिकारियों से अंगरेजी में बात करते हैं और सामान्यतः उनकी अपेक्षा होती है कि मातहत उनसे हिंदी में बात करे न कि (बढ़-चढ़ कर) अंगरेजी में, ऐसा तब भी, जब दोनों छत्तीसगढ़ी भाषी होते हैं। यही व्यवहार अधिकारियों और मातहत या जनता के बीच होता है। अधिकारी हिंदी बोलते हैं और सहायक, मजदूर या ग्रामवासी जनता छत्तीसगढ़ी, दोनों आमतौर पर अलग-अलग भाषा का प्रयोग करते, एक-दूसरे की बात अच्छी तरह समझते होते हैं। ऐसा परिवार में भी होता है। एक ही घर के विभिन्न सदस्यों के बीच, खासकर बुजुर्ग महिलाएं छत्तीसगढ़ी बोलती हैं और अन्य सदस्य उनसे हिंदी में बात करते हैं, जबकि दोनों को एक-दूसरे की बात आसानी से समझ में आती है। प्रसंगवश, गुलेरी जी ने ‘खड़ी बोली: म्लेच्छ भाषा‘ में बताया है कि ‘हिंदू कवियों का यह सम्प्रदाय रहा है कि हिंदू पात्रों से प्रादेशिक भाषा कहलवाते थे और मुसलमान पात्रों से खड़ी बोली।‘

यह भूमिका एक ही पत्र पर दो लिपि और दो भाषा में उत्कीर्ण, अपने किस्म के अनूठे उदाहरण के लिए, जो जगदलपुर से प्राप्त महाराजा राजपालदेव का ताम्रपत्र है। इसका प्रकाशन COPPER PLATE INSCRIPTION OF KAKATIYA RĀJAPĀLADEVA By Shri Balchandra Jain, M. A., Sahityashastri, M. G. M. Museum, Raipur. इस प्रकार शीर्षक से  The Orissa Historical Research Journal, Vol-X, No. 3 पेज 57-60 पर हुआ था, जिसे हीरालाल शुक्ल ने यथावत, 1986 में प्रकाशित History of Chhattisgarh (seminar papers) में Historical Source of Pre-Modern Bastar शीर्षक अंतर्गत शोधपत्र में शामिल किया। साथ ही श्री शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘ के चतुर्थ खंड में लगभग शब्दशः शामिल किया है, मूलतः श्री बालचन्द्र जैन द्वारा राष्ट्रबंधु साप्ताहिक के अंक 24.7.1969 में प्रकाशित कराया गया था, जो यहां प्रस्तुत है-

रायपुर के महंत पासीदास स्मारक संग्रहालय में बस्तर के राजवंश से संबंधित एक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र है जो बस्तर के कलेक्टर से प्राप्त हुआ था। पत्र टूटकर दो टुकड़ों में विभाजित है। उसकी चौड़ाई लगभग ३१ से० मी०, ऊंचाई लगभग १८ से० मी० और वजन ३७५ ग्राम है। उससे ऊपरी दायें भाग पर अर्धचन्द्र और पंजे की आकृतियां हैं किन्तु बाँयें भाग के प्रतीक खण्डित हो गये हैं। ताम्रपत्र के निचले भाग में बीचों-बीच दुहरी रेखाओं से बने वर्ग में नागरी अक्षरों में सही शब्द उत्कीर्ण है। उपरले भाग के मध्य में राजमुद्रा है। यद्यपि राजमुद्रा का अधिकांश खंडित है किंतु वंश के अन्य राजा भैरमदेव की मुद्रा के आधार पर प्रस्तुत ताम्रपत्र की मुद्रा का लेख पूरा करके इस प्रकार पढ़ा जा सकता है:-

उपर्युक्त मुद्रालेख से विदित होता है कि महाराज राजपालदेव प्रौढ़प्रतापचक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे और माणिक्येश्वरी देवी के भक्त थे। माणिक्येश्वरी दुर्गा का ही एक रूप है। उसके वाहन सिंह की आकृति भी मुद्रा के मध्य में उत्कीर्ण है। ऐसा अनुमान किया है कि दन्तेवाड़ा की सुप्रसिद्ध दन्तेश्वरी देवी को माणिक्येश्वरी मी कहा जाता था। ताम्रपत्र पर छह पंक्तियों का एक लेख उड़िया और नागरी अक्षरों में उत्कीर्ण है। वह इस प्रकार है:- (उड़िया अक्षरों में) ।। श्री जगन्नाथ श्री बलभद्र श्री सुभद्रा सहित एहि किति निमित को साक्षी ।। श्री रक्षपालदेव राजा चालकी वंश राज्यपरियन्त पपलाडण्डि बह्मपुरा घर तीनि शए जीवन दण्ड नाही मरण मुसाली नाही शरण मार नाही ए बोलन्ते न पाल ई ताहार सुअर मा अ गधा बाप ए बोलन्कथ चन्द्र सूर्य वंश जग लोकपाल धर्मराज साक्षी वारि घरे मेलिया बांचे (नागरी अक्षरों में) जब लै श्री चालकी वंश राजा तब लै ब्रम्हपुरा क्षाडनो नाहि ए बोल छाडि कै पपलावडि आ जाइ तो सुअर माइ बाप गादह अष्टलोकपाल धर्मराज साक्षि (उड़िया अक्षरों में) वसाल सूर्य र वान कूप धौ मच्छ ते जहींकार एहि रेखा। सही

लेख से विदित होता है कि राजा रक्षपाल देव (राजपालदेव) ने पपलाडंडी के तीन सौ (ब्राह्मण) परिवारों को कुछ विशेषाधिकार देकर अपने नगर में बसाया था। राजा ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की साक्षीपूर्वक वचन दिया था कि जब तक चालकी वंश का राज्य रहेगा तब तक पपलाडंडी से आकर ब्रम्हपुरा में बसे तीन सौ परिवारों को जीवनदण्ड नहीं दिया जायगा, यदि उनमें से किसी की निपूते मृत्यु हो जायगी तो भी राज्य उनकी सम्पत्ति नहीं लेगा तथा शरण में लोगों आये लोगों को शारीरिक दण्ड नहीं दिया जायगा। बस्तर में आकर बसे उपर्युक्त ब्राम्हनों ने भी उसी प्रकार अष्ट दिक्पाल और धर्मराज की साक्षीपूर्वक वचन दिया था कि जब तक बस्तर में चालकी वंश राज्य करेगा तबतक हम लोग ब्रम्हपुरा नहीं छोड़ेगे। दोनों ही पक्षों ने इस शाप वचन को भी स्वीकार किया था कि प्रतिज्ञा का पालन न करने वाले व्यक्ति की माता शूकरी और पिता गधा होगा।

ध्यान देने की बात है कि प्रस्तुत ताम्रपत्रलेख दो भाषाओं और दो लिपियों में है। हिन्दी भाषी राजा की प्रतिज्ञा उड़िया भाषा में और उड़िया भाषी ब्राम्हणों की प्रतिज्ञा हिन्दी भाषा में लिखी गई है ताकि प्रत्येक पक्ष समझौते की शर्तें पढ़ और समझ सके। ताम्रपत्रलेख में कोई तिथि नहीं दी गई है किन्तु उसमें चालुकी वंश के राजा रक्षपालदेव का उल्लेख है यह राक्षपाल काकतीय वंश के राजपालदेव दिक्पालदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। दिक्पालदेव का उल्लेख दन्तेवाड़ा के वि० सं० १७६० (ईस्वी १७०३) के शिलालेख में मिलता है जिसमें उनकी दन्तेवाडा यात्रा का विवरण है। उस यात्रा के समय राजपालदेव युवराज थे और अपने पिता के साथ वे भी दन्तेश्वरी देवी के दर्शन करने गये थे। इस आधार यह अनुमान करना कठिन नहीं है कि राजपालदेव वि० सं० १७६० के पश्चात ही कभी बस्तर के राज सिंहासन पर अभिषिक्त हुये होंगे। तदनुसार प्रस्तुत ताम्रपत्र शासन की तिथि भी वि० स. १७६० के पश्चात की ही विचारी जा सकता है।

बस्तर का राजवंश काकतीय नाम से प्रसिद्ध है किन्तु प्रस्तुत ताम्रपत्रलेख में राजा राजपालदेव अपना वंश चालकी (चालुक्य) बताते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है।

इस पर मेरी संक्षिप्त टिप्पणी कि चालकी, बस्तर के स्थानीय प्रशासनिक ढांचे मे एक पद भी होता है तथा लेख में आया शब्द ‘मेलिया‘ अन्यत्र मेरिया आता है, जिसका अर्थ नरबलि होता है।

Thursday, October 17, 2019

आसन्न राज्य

बात अक्टूबर 2000 की है, 1 नवंबर को 'छत्तीसगढ़' राज्य बनना तय हो गया था। इसी दौरान अखबारों के लिए मैंने यह नोट 'छत्तीसगढ़: सपने की कविता और हकीकत का अफसाना' बनाया था, खंगालते हुए मिला, अब यहां-

इतिहास, सदैव अतीत नहीं होता और वह व्यतीत तो कभी भी नहीं होता। हम इतिहास के साथ जीते हैं, उसे रचते-गढ़ते हैं ओर इसीलिए प्रत्येक सुनहरे भविष्य में इतिहास की छाप होती है। कभी-कभी आगामी कल भी ऐतिहासिक होता है। ऐसे ही घटित होने वाले इतिहास की आतुर प्रतीक्षा है जिसके साथ न सिर्फ हम जी रहे हैं बल्कि जिसके साथ पीढ़िया बीती हैं और जिस इतिहास को इस विशाल समष्टि ने अपने हाथों रचा-गढ़ा है ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ जिसके औपचारिक निर्माण की तैयारी चाक-चैबंद है और जिसके स्वागत का उल्लास अब सतह पर आ गया है, सपना आकार ले रहा है। लगभग छह सौ साल पहले दक्षिण कोसल के छत्तीसगढ़ में बदलते करवट को ज्ञात इतिहास में पहली बार पंद्रहवीं सदी के अंत में खैरागढ़ के कवि दलराम राव ने रेखांकित किया- ‘लक्ष्मीनिधि राय सुनौ चित दै, गढ़ छत्तीस में न गढै़या रही।

बदलते माहौल में यह कवि अपने अन्नदाता लक्ष्मीनिधि राय की प्रशस्ति करते हुए इस स्वप्नदृष्टा कवि के शब्द अभिलेख बन गए, सपना साकार हो गया। सोलहवीं सदी के मध्य में कल्याणसाय ने इस भू-भाग के व्यवस्थापन को अमलीजामा पहनाकर इसे मूर्त आकार दे दिया और अपनी प्रशासनिक क्षमता के साथ पूरे अंचल की प्रशासनिक व्यवस्था को एक नियमबद्ध सूत्र में पिरो दिया। गढ़ और गढ़ीदार, दीवान, चौबीसा, बरहों, दाऊ और गौंटिया, खालसा, और जमींदारी।

इस नवसृजन की प्रक्रिया में उसने न जाने कितने स्वप्न देखे होंगे और अंचल में व्यापक चेतना का संचार किया होगा। कल्याणसाय के राजस्व प्रशासन की इकाई गढ़ों की रूढ़ संख्या अड़तालिस-छत्तीस रही और यह अंचल छत्तीसगढ़ बन गया। शब्द साम्य मात्र के आधार पर इसे ‘चेदीशगढ़’ और ‘छत्तीस घर’ भी कहा गया। लेकिन कल्याणसाय के सपनों में तथ्यों की सच्चाई और उसका ठोसपन सक्षम साबित हुआ। लोग सिर्फ छत्तीसगढ़ का सपना ही नहीं देखते रहे, उस पर गंभीर विचार, सक्रिय पहल, गतिविधियां भी संचालित करते रहे।

ऐसे लोगों में से कुछेक ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, माधवराव सप्रे, पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, ठाकुर प्यारेलाल सिंह है। और भी जननायक है जिनकी चर्चा और सूची सहज उपलब्ध हो जाती है। किंतु कुछ ऐसी भी नाम हैं जो अल्पज्ञात बल्कि इस संदर्भ में लगभग अनजाने रह गए हैं। इन्हीं में से एक है डॉ. इंद्रजीत सिंह। मुस्लिम इतिहासकारों ने जिस क्षेत्र का आमतौर पर गोंडवाना नाम दे रखा था यही गोंडवाना आज के छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि है। गोंडवाना की सांस्कृतिक सामाजिक पहचान को रेखांकित करने के उद्देश्य से डॉ. इंद्रजीत सिंह ने लगभग 70 साल पहले पूरे गोंडवाना का व्यापक भ्रमण-सर्वेक्षण कर अंचल के भौगोलिक परिवेश और आदिम संस्कृति की विशिष्ट महानता को समझने के लिए गहन शोध किया और मध्य- भारत में सामाजिक मानवशास्त्रश के क्षेत्र में किसी स्थाषनीय द्वारा किया गया यह पहला शोध सन् 1944 में ‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसकी पृष्ठभूमि पर नागपुर विधानसभा में ठाकुर रामकृष्णसिंह व अन्य विधायकों ने गोंडवाना राज्य के गठन की गुहार की थी। ऐसे ढेरों जाने-अनजाने सद्प्रयास अब फलीभूत हो रहे हैं।

इस अंचल की सम्पन्नता इसकी नैसर्गिक विविधता है। यहां उच्च सांस्कृतिक परंपराएं और प्रतिमान हैं। लोगों में व्यापक गहरी सूझ और प्रासंगिक विचारशीलता है। इसीलिए पृथक छत्तीसगढ़ राज्य से अगर प्रशासनिक सुविधा होगी तो यह उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति करेगा। छत्तीसगढ़ की मध्यप्रदेश से पृथकता सीमाओं का संकोच है तो सोच का विस्तार है जिसे हम अपनी सीमा संकीर्णताओं से आगे बढ़कर उदार जागरूकता से प्रमाणित करेंगे।

Wednesday, July 18, 2012

बस्तर पर टीका-टिप्पणी

एकबारगी लगा कि यह मार्च महीने में लक्ष्य प्राप्त कर लेने की आपाधापी तो नहीं, जब वित्‍तीय वर्ष 2012 की समाप्ति के डेढ़ महीने में बस्तर पर चार किताबें आ गईं। 15 फरवरी को विमोचित राजीव रंजन प्रसाद की 'आमचो बस्तर' इस क्रम में पहली थी। फिर 26 फरवरी को संजीव बख्‍शी की 'भूलनकांदा', इसके बाद 2 मार्च को ब्रह्मवीर सिंह की 'दंड का अरण्य' और अंत में 31 मार्च को अनिल पुसदकर की 'क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' विमोचित हुई। चारों पुस्तकों पर एक साथ बात करते हुए इस संयोग पर बरबस ध्यान जाता है कि ठेठ बस्तर पर हल्बी शीर्षक वाली आमचो बस्तर का विमोचन दिल्ली में हुआ तो अन्य तीन का रायपुर में और इन चार में, मुख्‍यमंत्री, छत्तीसगढ़ के संयुक्त सचिव संजीव बख्‍शी की कृति का विमोचन विष्णु खरे ने किया तो बाकी तीन का मुख्‍यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने।

क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' - अनिल पुसदकर
मंजे पत्रकार, स्वयं लेखक के शब्दों में उनकी ''किताब में ढेरों सवाल हैं, व्यवस्था पर, सरकार पर, मीडिया पर और मानवाधिकार पर भी सवाल उठाये गये हैं। किताब में बस्तर का नक्सलवाद और उससे जूझते पुलिस वालों की स्थिति का हाल सामने रखा गया है।'' इस किताब विमोचन में हर क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिकों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति पूरे मन से है, दिखाई पड़ रही थी और ज्यादातर लोग पूरे समय शाम 4 से 7 बजे तक बने रहे। अविवाहित अनिल जी की कृति का विमोचन था, कल्पना हुई कि वे बिटिया ब्याहते तब ऐसा माहौल होता।

कार्यक्रम आरंभ होने में विलंब के दौरान पुस्तक अंश के वाचन की रिकार्डिंग बज रही थी। यह अविस्मरणीय प्रभावी था और लगा कि एकदम बोलचाल की शैली में लिखी इस पुस्तक को सुने बिना, सिर्फ पढ़ने से काम नहीं चलेगा। यानि पुस्तक के साथ इसकी आडियो सीडी भी होती तो बेहतर होता। आयोजन के मंच पर लिखे- क्यों जाऊँ बस्तर? मरने! को देखकर साथी बने अष्‍टावक्र अरुणेश ने कहा कि क्या शीर्षक में चिह्नों को बदल देना उचित नहीं होता, यानि क्यों जाऊँ बस्तर! मरने?, मुझे उनका सुझाव सहमति योग्य लगा।

दंड का अरण्य - ब्रह्मवीर सिंह
युवा पत्रकार-लेखक के मन में सवाल है- आदिवासियों की हित रक्षा की बात सभी करते हैं तो आखिर उनके विरोध में कौन है? लगभग इसी मूलभूत सवाल के लिए की गई हालातों की जमीनी तलाश में उपजा जवाब है यह रचना। अखबारी दफ्तरों की उठापटक के हवाले हो गए इस छोटी सी किताब के शुरुआती 10-12 पेज अनावश्यक विस्तार से लगते हैं। ऐसा लगता है कि यह पुस्तक बस्तर पर होने वाले लेखन में साहित्यिक अभिव्यक्तियों के प्रति गंभीर रूप से असहमत है शायद इसीलिए साहित्यिक होने से सजग-सप्रयास बचते हुए, परिस्थिति और समस्या को यहां तटस्थ विवरण, वस्तुगत रिपोर्ताज की तरह प्रस्तुत किया गया है और वह असरदार तो है ही।

भूलनकांदा - संजीव बख्‍शी
खैरागढ़-राजनांदगांव के, पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी परम्परा वाले संजीव जी से मैंने 14-15 साल पहले रमेश अनुपम, आनंद हर्षुल, जयप्रकाश के साथ कांकेर में पहली बार कविताएं सुनीं और तब से उनकी कवि-छवि ही मेरे मन में जमी हुई है। बस्तर में पदस्थ रहे इस राजस्व-प्रशासनिक अधिकारी की कविताओं में अपना जिया परिवेश और संदर्भ- खसरा नंबर दो सौ उनासी बटा तीन (क), मुख्‍यधारा, मौहा जाड़ा, हफ्ते की रोशनी, बस्तर का हाट और कांकेर के पहाड़, जैसे कविता-शीर्षकों के साथ आते रहे हैं।

भूलनकांदा उपन्‍यास का विमोचन, मंच पर उपस्थित लेकिन अनबोले से विनोद कुमार शुक्ल और अपनी जवाबदारी निभाते डॉ. राजेन्द्र मिश्र के वक्तव्य सहित हुआ। मुख्‍य अतिथि विष्णु खरे का व्याख्‍यान, इस लिंक पर शब्दशः सुना भी जा सकता है, 'वागर्थ' के मई 2012 अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसके कुछ अंश हैं-
यह गांव का उपन्यास है, पर ऐसे यथार्थ मानवीय गांव का, जो मैं नहीं समझता कि हिन्दी में इसके पहले कहीं आया हो। ... संजीव बख्‍शी ने जो भाषा बुनी है वह ऐसी नहीं है जो फणीश्वरनाथ रेणु की है। रेणु बड़े उपन्यासकार हैं, इसमें शक नहीं, लेकिन उनके यहां बहुत शोर है, तुमुल कोलाहल है, बहुत ज्यादा साउंड इफेक्ट है। ... कुल मिलाकर यह उपन्यास विनोद जी से थोड़ा हट कर, लेकिन कुछ आगे जाता नजर आता है। ... विजयदान देथा के होते हुए भी, आज तक ऐसा उपन्यास नहीं आया है। ... ऐसी सार्वजनीनता इससे पहले और कहीं नहीं आई थी, शायद प्रेमचंद के यहां भी नहीं।

प्रसंगवश, पिछले सालों में केदारनाथ सिंह ने इस रचनाकार के कविता संग्रह को कविवर विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-परंपरा की अगली कड़ी कहा था। लेकिन यह भी जोड़ा है कि इस कवि ने विनोद जी की शैली को इस तरह साधा है कि जैसे यह कवि का अपना ही 'स्वभाव' हो। इन उद्धरणों के बीच मेरी दृष्टि में यह उपन्यास व्यवस्था से विसंगत हो जाने की जनजातीय समस्या, जिसमें धैर्य की ऊपरी झीनी परत के नीचे गहरी जड़ों वाला द्रोह सुगबुगाता रहता है, का विश्वसनीय चित्रण है।

आमचो बस्तर - राजीव रंजन प्रसाद
लंबे समय बाद इतनी भारी-भरकम, 400 से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक को पेज-दर-पेज पढ़ा। पुस्‍तक में (पृष्ठ 314 पर) कहा गया है कि ''मुम्बई-दिल्ली-वर्धा से बस्तर लिखने वालों ने कभी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत ही नहीं किया।'' निसंदेह, यहां बस्तर के देश-काल को जिस समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसके लिए यह आकार उपयुक्त ही नहीं, आवश्यक भी है। बस्‍तर इतिहास के प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण कालखंड, आदि काल से अब (पृष्ठ 331 पर 6 अप्रैल 2010) तक, को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत इस कृति में काल-पात्रों के अलग-अलग स्तर का समानान्तर निर्वाह होता है।

मिथकीय चरित्र गुण्डा धूर और भूमकाल विद्रोह, दंतेश्‍वरी में नरबलि आदि प्रसंगों की चर्चा पर्याप्‍त विस्तार से है। पात्रों, शैलेष और मरकाम की बातचीत के माध्‍यम से बस्‍तर की समस्‍याओं, परिस्थितियों से लेकर संस्‍कृति, कहावत-मुहावरे तक का अंश भी यथेष्‍ट है। इन सब के बीच लेखक किसी दृष्टिकोण-मान्‍यता का पक्षधर नहीं दिखाई पड़ता, इससे पात्रों के विचार और कथन, उनकी अपनी विश्वसनीय और स्वाभाविक अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं। प्रस्‍तुति में प्रवाह का ध्‍यान रखा गया है न कि कालक्रम का, लेकिन प्रवीरचंद्र भंजदेव और उनके निधन का विवरण अंत में लाना एकदम सटीक है, क्‍योंकि यही वह बिन्‍दु है, जिसके पूर्वापर संदर्भों बिना बस्‍तर के रहस्‍य का अनुमान कर पाना भी कठिन होता है।

संक्षेप में पुस्‍तक पढ़ते हुए भरोसा होता है कि लेखक न सिर्फ गंभीर और सावधान है, बल्कि उसने इस कृति में निष्ठा सहित अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। प्रूफ शुद्धि भी उल्‍लेखनीय और प्रशंसा-योग्‍य (वैसे पुस्‍तक में बार-बार 'प्रसंशा' मुद्रित) है। एक स्‍थान पर ''जहाज डूबने से पहले चूहे ही भागने लगते हैं'' (पृष्ठ 172) कहावत का प्रयोग भैरमदेव से कराया जाना जमा नहीं। आलोचना के कुछ और छिटपुट उल्‍लेख किए जा सकते हैं, लेकिन इस पुस्‍तक की सब से बड़ी कमजोरी, परिशिष्ट का अभाव, माना जा सकता है। इतिहास और तथ्‍यों को औपन्‍यासिक शैली में प्रस्‍तुत करते हुए यह उपयुक्‍त होता कि परिशिष्‍ट के कुछ और पेज जोड़ कर बस्‍तर इतिहास का कालक्रम, ऐतिहासिक पात्रों के नाम की सूची और संक्षिप्‍त परिचय भी दिया जाता, इससे पुस्‍तक की उपयोगिता और विश्‍वसनीयता बढ़ जाती। बस्‍तर पर कुछ लिखते-पढ़ते इस पुस्‍तक में आई टिप्‍पणी याद आ जाती है कि- ''इन दिनों बस्तर शब्द में बाजार अंतर्निहित है। (पृष्ठ 326) और ''अब बस्तर शब्द का लेखन की दुनिया में बाजार है।'' (पृष्ठ 337) अखिलेश भरोस द्वारा लिये चित्र का आवरण के लिए चयन, सार्थक और सूझ भरा है।

इन चारों साहित्‍य-पत्रकारिता की रचनाओं को एक साथ मिलाकर देखते हुए धारणा बनती है कि- अशांति और विद्रोह का इतिहास पढ़ते हुए महसूस होता है कि आम तौर शांत, संस्कृति संपन्न, उत्सवधर्मी लेकिन अपने में मशगूल (बस्तर का) वनवासी, अस्तित्व संकट से मुकाबिल होता है तो जंगल कानून पर अधिक भरोसा करता रहा है।

बस्तर और उसकी परिस्थितियों को समाज-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ समझने के लिए (कम से कम) जो प्रकाशन देखना मुझे जरूरी लगता है, वे हैं- डब्ल्यूवी ग्रिग्सन, वेरियर एल्विन, केदारनाथ ठाकुर, प्रवीरचंद्र भंजदेव, लाला जगदलपुरी, डॉं. हीरालाल शुक्ल, डॉ. कृष्‍ण कुमार झा, हरिहर वैष्णव, डॉं. कामता प्रसाद वर्मा की पुस्तकें/लेखन और मार्च 1966 के जगदलपुर गोलीकांड पर जस्टिस केएल पांडेय की रिपोर्ट।

बस्तर को उसकी विशिष्टता के साथ पहचानते हुए, शोध-अध्ययन दृष्टि से महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्य हैं- छत्तीसगढ़ के पहले मानवविज्ञानी डॉ. इन्द्रजीत सिंह का लखनऊ विश्वविद्यालय से किया गया गोंड जनजाति पर शोध, जो सन 1944 में The Gondwana and the Gonds शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। पुस्तक, बस्तर के जनजातीय जीवन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ उनके आर्थिक परिप्रेक्ष्य का तटस्थ लेकिन आत्मीय विवरणात्मक दस्तावेज है, जिसका निष्कर्ष कुछ इस तरह है- जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति के साथ समझ सकें। इसी प्रकार दूसरा कार्य है, सागर विश्वविद्यालय से किया गया डॉ. पीसी अग्रवाल का शोध Human Geography of Bastar District, जो सन 1968 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ और तीसरा, मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल द्वारा Bastar Development Plan वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन आरसी सिंह देव के निर्देशन में सन 1984 में योजना आयोग के लिए तैयार, बस्तर विकास योजना, जिसे देख कर महसूस होता है कि इस प्रतिवेदन के अनुरूप तब इसका उपयुक्त क्रियान्वयन हो पाता तो आज शायद बस्तर कुछ और होता।


यहां आए सभी नामों के प्रति यथायोग्‍य सम्‍मान।

Saturday, April 28, 2012

अकलतरा के सितारे

आजादी के बाद का दौर। मध्‍यप्रांत यानि सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बा- अकलतरा। अब आजादी के दीवानों, सेनानियों की उर्जा नवनिर्माण में लग रही थी। छत्‍तीसगढ़ के गौरव और अस्मिता के साथ अपने देश, काल, पात्र-प्रासंगिक रचनाओं से पहचान गढ़ रहे थे पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'। यहां संक्षिप्‍त परिचय के साथ प्रस्‍तुत है उनकी काव्‍य रचना स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह और ठा. छेदीलाल-
बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म-07 अगस्‍त 1891, निधन-18 सितम्‍बर 1956
पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'
जन्‍म-06 जुलाई 1908, निधन-02 जनवरी 1982
लाल साहब डॉ. इन्द्रजीतसिंह
जन्‍म-28 अप्रैल 1906 (पासपोर्ट पर अन्यथा 05 फरवरी 1906), निधन-26 जनवरी 1952

अकलतरा में सन 1949 में सहकारी बैंक की स्‍थापना हुई, बैंक के पहले प्रबंधक का नाम लोग बासिन बाबू याद करते हैं। डा. इन्द्रजीतसिंह द्वारा भेंट-स्‍वरूप दी गई भूमि पर बैंक का अपना भवन, तार्किक अनुमान है कि 1953 में बना, इस बीच उनका निधन हो गया। उनकी स्‍मृति में भवन का नामकरण हुआ और उनकी तस्‍वीर लगाई गई। लाल साहब के चित्र का अनावरण उनके अभिन्‍न मित्र सक्‍ती के राजा श्री लीलाधर सिंह जी ने किया। इस अवसर के लिए 'विप्र' जी ने यह कविता रची थी।
स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह
(1)
जिसके जीवन के ही समस्त हो गये विफल मनसूबे हैं।
जिस स्नेही के उठ जाने से हम शोक सिंधु में डूबे हैं॥
हम गर्व उन्हें पा करते थे - पर आज अधीर दिखाते हैं।
हम हंसकर उनसे मिलते थे अब नयन नीर बरसाते हैं॥
वह धन जन विद्या पूर्ण रहा फिर भी न कभी अभिमान किया।
है दुःख विप्र बस यही- कि ऐसा लाल सौ बरस नहीं जिया॥

(2)
सबको समता से माने वे- शुचि स्नेह सदा सरसाते थे।
छोटा हो या हो बड़ा व्यक्ति- सबको समान अपनाते थे॥
वे किसी समय भी कहीं मिलें- हंस करके हाथ मिलाते थे।
वे अपनी सदाचारिता से - हर का उल्लास बढ़ाते थे॥
वह कुटिल काल की करनी से - पार्थिव शरीर से हीन हुआ।
वह इन्द्रजीत सिंह सा मानव- क्यों ''विप्र'' सौ बरस नहीं जिया॥

(3)
राजा का वह था लाल और, राजा समान रख चाल ढाल।
राजसी भोग सब किया और था राज कृपा से भी निहाल॥
जीते जी ऐसी शान रही- मर कर भी देखो वही शान।
हम सभी स्वजन के बीच ''विप्र'' सम्मानित वह राजा समान॥
तस्वीर भी जिसकी राजा का संसर्ग देख हरषाती है।
श्री लीलाधर सिंह राजा के ही हाथों खोली जाती है॥

थोड़े बरस बाद ही डा. इन्द्रजीतसिंह के निधन का शोक फिर ताजा, बल्कि दुहरा हो गया। स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी, युग-नायक बैरिस्‍टर छेदीलाल नहीं रहे, तब 'विप्र' जी ने कविता रची-
ठा. छेदीलाल
अकलतरा के दो जगमग सितारे थे-
दोनों ने अमर नाम स्वर्ग जाके कर लिया।
विद्या के सागर शीलता में ये उजागर थे -
दोनों का अस्त होना सबको अखर गया॥
काल क्रूर कपटी कुचाली किया घात ऐसा-
छत्तीसगढ़ को तू वैभव हीन ही कर दिया-
एक लाल इन्द्रजीत सिंह को तू छीना ही था-
बालिस्टर छेदीलाल को भी तू हर लिया॥
छेदी लाल छत्तीसगढ़ क्षेत्र के स्तम्भ रहे-
महा गुणवान धर्म नीति के जनैया थे।
राजनीति के वो प्रकाण्ड पंडित ही रहे-
छोटे और बड़े के समान रूप भैया थे।
राम कथा कृष्ण लीला दर्शन साहित्य आदि-
सब में पारंगत विप्र आदर करैया थे।
गांव में, जिला में और प्रान्त में प्रतिष्ठित क्या-
भारत की मुक्ति में भी हाथ बटवैया थे॥
छिड़ा था स्वतंत्रता का विकट संग्राम -
छोड़कर बालिस्टरी फिकर किये स्वराज की।
आन्दोलनकारी बन जेल गये कई बार -
चिन्ता नहीं किये रंच मात्र निज काज की।
अगुहा बने जो नेता हुए महाकौशल के -
भारत माता भी ऐसे पुत्र पाके नाज की।
ऐसा नर रत्न आज हमसे अलगाया 'विप्र'-
गति नहिं जानी जात बिधना के राज की॥

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल जी पर एक पोस्‍ट पूर्व में लगा चुका हूं, उन पर लिखी पुस्‍तक की समीक्षा डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद ने की है। अंचल के प्रथम मानवशास्‍त्री डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह जी का शोध पुस्‍तककार सन 1944 में प्रकाशित हुआ, उनसे संबंधित कुछ जानकारियां आरंभ पर हैं इस पोस्‍ट की तैयारी में तथ्‍यों की तलाश में पुष्टि के लिए उनका पासपोर्ट (जन्‍म स्‍थान, जन्‍म तिथि के अलावा कद 6 फुट 2 इंच उल्‍लेख सहित) और विजिटिंग कार्ड मिला गया, वह भी यहां लगा रहा हूं-

ऐसे अतीत का स्‍मरण हम अकलतरावासियों के लिए प्रेरणा है।

बैरिस्‍टर साहब का जन्‍मदिन, हिन्‍दी तिथि (तीज-श्रावण शुक्‍ल तृतीया) के आधार पर पं. लक्ष्‍मीकांत जी शर्मा के ''देव पंचांग'' कार्यालय, रायपुर द्वारा परिगणित है।