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Friday, June 17, 2011

अलेखक का लेखा

आज 17 जून, श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले की जन्‍मतिथि है। उनका जन्‍म सन 1928 में तथा निधन 21 जुलाई 1999 को हुआ। आप सागर विश्‍वविद्यालय से वनस्‍पति शास्‍त्र के स्‍नातकोत्‍तर तथा बीएड थे। मध्‍यप्रदेश राज्‍य शासन के शिक्षा विभाग की सेवा में अधिकतर बिलासपुर संभाग में पदस्‍थ रहे और शिक्षण महाविद्यालय, बिलासपुर से सेवानिवृत्‍त हुए। इस सामग्री की प्रति मुझे उनके भतीजे श्री संजय तथा पुत्र श्री चंद्रकांत से यहां प्रकाशित करने हेतु सहमति सहित प्राप्‍त हुई। पोस्‍ट के दो हिस्‍से हैं- पहला पारिवारिक पृष्‍ठभूमि का, छोटे फॉन्‍ट में और आगे सामान्‍य फॉन्‍ट में वह भाग, जिसके लिए यह पोस्‍ट लगाई गई है।

यह वंश नृसिंह पंत से प्रारंभ हुआ है यह जानकारी मिली, इसके पूर्व के लोगों के नाम ज्ञात नही हो सके। राहट गांव व हाड क्षेत्र के निवासी थे। आज भी राहटगांवकर परिवार अमरावती के आसपास रहते है वहां के कृषक है और शासकीय/व्यापारिक/निजी संस्थानों में नौकरी करते हैं। छत्तीसगढ़ में आया हुआ परिवार पूर्व में नौकरी या खेती करते रहे होंगे। लिखित प्रमाण नहीं मिला कि परिवार के पहले व्यक्तियों में से कौन भोसले के सेवा में रहकर अंग्रेजों के बंदोबस्ती कार्यालय के रायपुर/बिलासपुर/रतनपुर/नवागढ़ में आये। किन्तु यह सत्य है कि हमारा परिवार रायपुर में ही आया और उन्हें कृषि भूमि दी गई होगी। नृसिंह पंत के बाद ही यह परिवार तीन परिवारों में बंट गया। अकोली वाले राहटगांवकर यहां से ही अलग हुए हैं। नृसिंह पंत के कितने पुत्रियां थी ज्ञात नहीं है। नरहर पंत से ही यह परिवार आगे बढ़ा वर्तमान में तीसरा परिवार नरहर पंत के बाद अलग हुआ। तीन परिवार अलग अलग रहने लगे। 1. तात्याराव बापूजी, अकोलीवाले का परिवार मोहदी से दो किलोमीटर दूर अकोली ग्राम मे बस गये। 2. कृष्णराव आप्पाजी और गोपाल राव आप्पाजी का परिवार ''टोर'' और ''कहई'' नाम के गावों में रहने लगे और कुछ ही वर्षों में खेती की भूमि बेचकर नौकरियों में लग गये, इसी पीढ़ी से अलग अलग हो गये। एक बात विशेष ध्यान में आई कि जो परिवार पास पास रहे चाहे कितनी दूरी रिश्तों की हो घनिष्ट हो जाते हैं। अकोली वाले राहटगांवकर का मोहदी आवागमन अधिक था वे निकट हो गये जबकि वे कृष्णराव के अधिक निकट थे और हमसे और अधिक निकट संबंधी हैं किन्तु आज तक वे हमसे निकट संबंध नहीं रख सके।

नरहर पंत के पुत्र आपाजी जिनका विवाह संबंध धमतरी निवासी हिशीकर से हुआ था। भोसले शासन के अंतिम वर्षों में अंग्रजों ने 1860 सन के करीब भोसले कार्यालय नागपुर के कुछ जानकार लोगों को छत्तीसगढ़ भेजा और व्यवस्था बन्दोबस्त और दफ्तर के कार्य में रायपुर भेजा। इसी दफ्तर के साथ आपाजी रायपुर आये और वैवाहिक संबंध कर रायपुर में रहने लगे। जानकारी मिलती है कि अप्पाजी परिवार सहित रायपुर के पुरानी बस्ती में रहते थे। उनकी मृत्यु किस सन में हुई ज्ञात नहीं है। उनकी विधवा पत्नी को उमरिया नाम का गांव हक मालगुजारी सहित 20-25 एकड़ जमीन दी गई थी। पटवारी तहसीलदार के दफ्तर से जानकारी मिल सकती है कि किस सन में यह गांव (आज की मोहदी) दी गई। अनुमान है कि आपाजी के मृत्यु के तत्काल बाद यह कृषि भूमि मिली है। तथा कुछ ही काल खेती करने के उपरान्त उनकी मृत्यु हो गयी होगी। उनके कुटुंब का विस्तार अगले पृष्ठ में दिया गया है। उनकी दो पुत्रियां और पांच पुत्र थे। उनके पुत्रों में से दो बड़े पुत्र अमृतराव और गणेश की विवाहोपरान्त मृत्यु हो गई इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। वे दोनों निपुत्रिक थे। कुछ जानकार बताते हैं कि दो तीन विधवायें थीं जो घर के कामों में हाथ बटाती थीं और कभी मोहदी में और कभी अन्यत्र समय बिताती थीं। वे दोनों निसंतान थे।

आपाजी के पुत्रों में लक्ष्मण राव बड़े थे। दूसरे यह कि वे बहुत कम पढ़े लिखे थे। दूसरे और तीसरे पुत्र यथा यादवराव और नारायण राव पढ़े लिखे थे- अंग्रेजी की जानकारी थी। शिक्षण रायपुर में ही हुआ होगा। केवल इतना ही सुना है कि आपाजी की विधवा पत्नी यादवराव और नारायण राव को लेकर रायपुर के तहसील दफ्तर गयी थी और दोनों को बिना विशेष अनुनय विनय के नौकरियां मिल गई यादव राव सिमगा में कानूनगो और नारायण राव धमतरी / महासमुंद में शाहनवीस के पद पर कार्य करने लग गये दोनों को करीब रू. 12/- पेंशन मिलती थी यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में और नारायण राव की मृत्यु बीस नवम्बर उन्नीस सौ एकतीस में हुई।

यादवराव का समय मोहदी में भजन पूजन में बिताते थे। अपने निवास के लिए उन्होंने ''करिया बंगला'' बनाया जहां 2-3 कमरे और परछी थी कुल 65 फुट लम्बा और 12 फुट चौड़ा हाल जिसके उत्तर में लम्बी 9 फुट चौड़ी परछी थी पीछे दक्षिण में बागवानी हेतु करीब 34 डिसिमिल जगह थी। इस हाल में पूर्व की ओर एक खिड़की थी जहां से उनके लिए पीने का पानी रखा जाता था। भजन पूजन में रत रहते और पढ़ा करते थे। उस समय की भजनों की कापियां और झांज ढोल मैंने देखा है। ग्रंथों में महाभारत, सुखसागर, विश्राम सागर, रामायण, पांडव प्रताप, रामविजय, हरिविजय मुझे मेरी मां ने दिखाया था। इन ग्रंथों की पूजा दशहरे के देवी के नवरात्र के नवमी को होती थी। इसी समय मुझे ये ग्रंथ दिखाये गये थे। यादवराव ने अपने सेवाकाल की सम्पूर्ण कमाई अपने बड़े भाई लक्ष्मण राव (बड़े महराज) को सौंप दी थी। यादवराव दादाजी के नाम से और नारायण राव नानाजी के नाम से जाने जाते थे। परिवार के अन्य सदस्य नारायण राव को काका जी कहते थे। यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में हुई।

लक्ष्मण राव परिवार के केन्द्रीय सदस्य थे। उनके दोनों छोटे भाई वेतन का अधिकांश भाग उन्हे सौंप देते थे और बदले में सम्पूर्ण राशन, अचार और खेती में उत्पन्न अन्य वस्तुएं भेजते थे। सुना है कि प्रत्येक भाई के पास एक-एक सुन्दर दुधारू गाय थी। गाय का दूध देना बंद होते ही गाय मोहदी भेज दी जाती थी और दूसरी गायें भाइयों के पास चली जाती थी। परिवार में होने वाले सभी वैवाहिक ओर अन्य मांगलिक कार्य मोहदी में ही होते थे। पुरोहित खाना पकाने वाले और पानी भरने वाले रायपुर से खबर मिलते ही आते थे उनके लिए रायपुर बैलगाड़ी जाती थी। आगंतुकों को पत्र द्वारा सूचना जाती थी और मांढर धरसीवां में बैलगाड़ियां तैनात रहती थी। बरसात में आवागमन कठिन था। मोहदी के पास एक घास भूमि थी जिसमें पानी भरता था और कीचड़ हो जाता था। उस भूमि का नाम कोल्हीया धरसा है। (कोल्हीया धरसा से लगा एक डबरा था आज छोटे तालाब का रूप ले चुका है राहत कार्य इत्यादि से) बरसात के लिए बैल तगड़े रखे गये थे। मैंने देखा है कि गाड़ियों की संख्‍या करीब 6 थी और बैल जोड़ियां 7-8 थी प्रत्येक जोड़ी को नाम दिया गया था। एक प्रणाली जो मैं जानता हूं बहुत अच्छी थी वह ऐसे कि रावत, नाई, धोबी, बिगरिहा को 1 या 1½ एकड जमीन दी गई थी जिसकी फसल का हक उन कर्मचारियों को दिया गया था। खेतिहर मजदूर बसाये गये थे उन्हें बसुन्दरा कहते थे वे आवश्यकता पड़ने पर पहले मालगुजार की खेती पर जाते थे बाद में अन्य कृषकों के यहां यह एक कृषकों के साथ समझौता था। (बनिहार)

लक्ष्मण राव साहूकारी भी करते थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने 350 एकड़ तक कृषि भूमि बना ली थी। पूरे कृषि कार्य हेतु 22 नौकर थे। भूमि और नौकर (कमिया) बराबर दो भागों में बंटा था यह मात्र स्पर्धा की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए था। करीब 13-14 एकड़ (एक नांगर की खेती) के लिए एक नौकर था नौकरों को संपूर्ण उपज का 1/4 भाग मिलता था। हिसाब कुछ जटिल था फिर मजदूरी उतने ही खंडी धान की मिलती थी जितनी कि आज करीब 28 से 32 खंडी तक। मुखिया नौकर को (अघुवा) कुछ अधिक मिलता था। चना, तिवरा, राहर, गेंहू मूंगफली इत्यादि के बदले 1/4 कीमत के रूपये मिलते थे जो 15 से 25 तक थे कभी कभी 60-70 रूपय तक मिले थे। कोदो और धान की उपज बहुत होती थी। कोदो श्रावण-भाद्रपद माह में उबाल कर जानवरों को खिलाया जाता था। पैरा, हरी घास, दाना सभी जानवरों को दिया जाता था। मेरे यादगार एवं देखने के अनुसार सभी जानवर तगड़े थे। दूध-दही इतना होता था कि इस हेतु पकाने के लिए एक कमरा ही अलग था। जजकी भी साल में 2-3 बार होती होगी क्योंकि लडकियां और बहुओं की संख्‍या अधिक थी इस हेतु एक अलग कमरा था। जिसे छवारी कुरिया कहते थे। धान के चांवल बनाने का काम सतत होते रहता था। इस हेतु एक कमरा था। सभी दामादों के लिए कमरे अलग अलग थे। मांगलिक कार्यों के भोजन पकाने हेतु कमरा था। लकडियां-कंडों हेतु भी पर्याप्त कमरे थे। कंडे बनाने हेतु घिरा हुआ एक मैदान है जहां एक पाखाना भी था। घर में दो बड़े बड़े संडास विशेष बनावट के थे। जानवरों के लिए गोठे बड़े बड़े थे। करिया बंगले की पडछी में 5-6 खंड थे जहां पहले 2-4 घोड़े और बाद मे बैल जोड़ियां रखी जाती थी। सभी प्रकार का कचरा फेंकने के लिए एक बहुत बड़ा गड्‌ढा है जो आज भी पूर्व एवं दक्षिण की ओर है।

इस तरह शासन-प्रशासन व्यवस्था व्यवहार की दृष्टि से लक्ष्मण राव (भाउजी) कुशल थे उन्हीं का अनुकरण होता रहा 1947 के बाद कुछ व्यवस्थाएं बदल गई जो आज दिखाई देती है। गांव देवता, ग्रामीण त्यौहारों का चलन और सामाजिक व्यवस्थाएं उन्हीं की देन है। सामूहिक बैठकों की व्यवस्था (गुड़ी) छायादार चबूतरे उन्हीं की प्रेरणा से बने।

लक्ष्मण राव का जीवन सादगीपूर्ण था वे दो गमछों में अपना निर्वाह करते थे। शर्ट कुरता, कोट टोपी केवल रायपुर या अन्यत्र आने के समय करते थे। लक्ष्मण राव के मां की मृत्यु 1870 में हुई उस समय वे 20 वर्ष के थे।

मोहदी के वयोवृद्धों में एक लक्ष्मण राउत (पहटिया) थे वे सतत हमारे यहां नौकरी पर रहे। उन्हें कनवा भी कहते। वे बताते है कि बैल का सींग आंख को लगा था किन्तु आखें जब थी तब भी उन्हें ''कनवा'' यह संबोधन था इसका राज मेरी मां ने बताया। लक्ष्मण राव बडे देवर थे उनकी पत्नी बड़ी जीजी गिरिजा बाई पहटिया को ''कनवा'' इसलिए कहती थी कि उनके पति और पहटिया एक ही नाम के थे। यह राउत वृद्धावस्था में हनुमान का पुजारी हो गया और राम राम नाम की रट लगाते बस्ती भर घूमता था। उसके दांत टूटे नहीं थे किन्तु घिस गये थे। गुड़ खाकर सर्दी खांसी ठीक कर लेते थे और अलसी का तेल पीकर पेट की बिमारी ठीक करते थे। मृत्यु के समय उनकी उम्र करीब 90-95 की रही होगी। (1952-53)

मोहदी में एक बार सूखा पड़ा फसल नहीं हुई ग्रामीणों और लक्ष्मण राव-नारायणराव के प्रयास से नहर बनाई गयी जो आज भी ठेलका बांधा से जुड़ी है। एक तालाब भी खुदवाया गया जो नौकाकार है उसे नैय्या और महुआ के वृक्षों से घिरे स्थल पर दूसरा तालाब ''महुआ'' तालाब बनाया गया।

मोहदी में एक कृषि क्षेत्र है जिसे डीह-गरौसा कहते हैं। डीह का अर्थ है बस्ती जो ढह गई हो। गरौसा का अर्थ है गांव का रसा हुआ पानी प्राप्त करने वाले खेत। इस संबंध में एक वाकयात कथा के रूप में बताई गई- जहां डीह है वहां एक तालाब है- उमरिया, यह और पूर्व में दूसरा ये छोटे छोटे दो तालाब हैं यही कृषि भूमि हमारे आजोबा/आजी को दी गयी थी। यहां ग्रीष्म काल में जल संकट था। ग्राम गोढ़ी से पानी लाया जाता था। पास ही एक नाला है वहां भी पानी था। उमरिया डीह से गोढ़ी, नगरगांव, अकोली जाने के लिए दूर के रास्ते थे, बीच में (जहां आज मोहदी है) जंगल था- बांस, महुआ, सागौन, साजा, सेन्हा, बेर, नीम, इमली, पीपल, गस्ती, बरगद इत्यादि का घना जंगल। एक बार रात को अकोली में गाड़ियों का पड़ाव पड़ा। भैंसा रात का प्यास बुझाने कहीं निकल गये। सबेरे जब वे पड़ाव में लौटे तो उनके सींगों और शरीर पर चोई (काई) लगी थी। उमरियाडीह पहुंचने पर गांव में यह समाचार तेजी से फैला कि अकोली और गोढ़ी के बीच जो जंगल है वहां तालाब होने का अनुमान और तर्क लगाया गया। तर्क की शोध हेतु लोग समूहों में जंगल में घुसे और वहां देखा तो बहुत बड़ा जलाशय है। लोग नाच उठे। ये तरिया मोहदी इस तरह वर्तमान मोहदी ग्राम में वसाहत प्रारंभ हुई इस मोहनीय स्थल में वसाहत करने का श्रेय लक्ष्मण राव को जाता है। शासकीय बन्दोबस्ती के आने के बाद नाप हुए होंगे और हैसियत के अनुसार लोगों को जमीन कृषि हेतु और मकान बनाने दी गयी होगी। जंगल की कटाई प्रारंभ हो गयी और लकड़ियों का उपयोग मकानों में होने लगा। बढ़ई, राजगीर और चूना बनाने की तकनीक ज्ञात की गई होगी हमारे दो बड़े मकान दो मंजिला इसके साक्षी हैं। अन्यत्र से भी कृषक परिवार जो सम्पन्न थे वसाहत के लिए आये। इनमें से दो परिवार छोटे गौंटिया और बड़े गौटिया (केरे गौटिया) के वंशज आज भी है। लछमन रावत एवं अन्य वृद्ध बताते है कि गौटिया परिवार में भैसा गाड़ी भरकर नगदी रुपया पैसा लाया गया था। अब उनके वंशज सम्पन्न नहीं रह गये।

उस समय मोहदी की जनसंख्‍या करीब 200-250 होगी। धीरे धीरे यह गांव कृषि में उन्नति करते गया और जनसंख्‍या आज 1990 में करीब 1900 हो गयी कुल मतदाता 837 हैं।

हमारे परिवार को सोलह आने का मालगुजारी हक था। सभी घास जमीन तथा आबादी जमीन मालगुजार की थी। ग्राम का क्षेत्र कृषि भूमि, आबादी, घास जमीन सहित कुल 1367 एकड़ है। आज यहां बालक/बालिका पाठशाला है और एक माध्यमिक शाला है। हाई स्कूल की बात लोगों के ध्यान में है।

पोस्‍ट रामकोठी के लिए जानकारी एकत्र करते हुए यह नहीं प्राप्‍त हो सका और जब मिला तो पढ़कर अपनी पोस्‍ट फीकी लगी। यह तब मिल जाता तो 'रामकोठी' शायद लिख ही न पाता। मेरी दृष्टि में श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले के निजी-पारिवारिक प्रयोजन हेतु लिखी यह सामग्री इतिहास, साहित्‍य, संस्‍कृति, समाज विज्ञान, ग्राम संरचना और पद्धतियों पर अलेखक का, जो इन विषयों का विशेषज्ञ भी नहीं, ऐसा लेखा है, जिसकी सहजता, प्रवाह, समन्‍वय और वस्‍तुगत रह कर आत्‍मीयता, इन क्षेत्रों के विद्वानों को भी चकित कर सकती है। नतमस्‍तक प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

Thursday, April 28, 2011

रामकोठी

कटहल और आम, पलाश और सेमल, कोयल की कूक के साथ महुए की गंध का मधु-माधव मास। चैती-वैशाखी का महीना, धर्म-अर्थ और काम से गदराया हुआ। खरीफ जमा है और रबी की आवक हो रही है। मेलों में मनोरंजन, खरीद-फरोख्‍त हुई। मेल-जोल में बात ठहरी, वह अब रामनवमी और अक्ती-अक्षय तृतीया की मांगलिक तिथियों पर वैवाहिक संबंधों के साथ रिश्तों तक आ गई, नई गृहस्थी जमने लगी है। खेती-बाड़ी का भी नया कैलेंडर शुरू हो रहा है।

रायपुर से उत्‍तर में 25 किलोमीटर दूर मोहदी के 1 मई, मजदूर दिवस का रंग लाल नहीं, बल्कि हरित होता है। 15 अप्रैल से 15 दिन की छुट्‌टी के बाद 'सौंजिया' फिर सालाना काम पर लगेंगे। कोई 15 साल पहले वैशाख अधिक मास होने से समस्या आई कि बढ़े महीने का हिसाब कैसे हो, तब आपसी मशविरे से यह काम-काज अंगरेजी तारीख से चलने लगा। सौंजिया, किसानी की अलिखित संहिता का पारिभाषिक शब्द है, जिसकी व्याख्‍या में कृषक जीवन के विभिन्‍न पक्ष उजागर हो सकते है। सामुदायिक जीवन की कल्‍पना सी लगने वाली हकीकत गांवों में सहज रची-बसी है, जिसकी शब्‍द-रचना भी मुझ जैसे के लिए कठिन है, लेकिन तोतली भाषा में स्‍तुति करते हुए संक्षेप में सौंजिया (सउंझिया- साझीदार/साझा) यानि खेती में श्रम भागीदारी से उपज के एक चौथाई का अधिकारी। बाकायदा सौंजिया संगठन है यहां, जो इसी दौरान अपनी कमाई के दम पर सांस्‍कृतिक आयोजन करता है।

लगभग 4000 आबादी वाला छोटा सा गांव, मोहदी। अब एटीएम, मोबाइल, मोटर साइकिल, भट्‌ठी, सरपंची, गरीबी रेखा, नरेगा के चटख रंग ही दिखाई पड़ते हैं, पड़ोसी लोहा कारखाने का भी असर हुआ है, फिर भी गांव की संरचना के ताने-बाने को कसावट देने वाले कई समूह-वर्ग ओझल-से लेकिन सक्रिय हैं। पारा-मुहल्ला, टेन (गो-धन स्वामी आधारित वर्ग), पार (जाति आधारित वर्ग), दुर्गा मंदिर समिति और सबसे खास ग्रामसभा, गांव के पंच-सरपंच और प्रमुख नागरिकों की 25 सदस्यीय समिति, जो रामकोठी का संचालन करती है।

पुरानी बात, गांव में दशहरे का उत्साह है। भजन, माता सेवा, रामायण तो चलता ही रहता है, लेकिन अब की झांकी और लीला की खास तैयारी है। धूमधाम से त्यौहार मना। रामलीला की चढ़ोतरी में इकट्‌ठा हुआ धान इस बार किसी गांवजल्ला काम में खर्च नहीं किया जा रहा है, उसे जमा कर दिया गया है। अब मोहदी में भी रामकोठी है। 85 बरस पहले और आज भी। 'कोठी' यानि कोष्‍ठ या भण्‍डार और 'राम' विशेषण-उपसर्ग का यहां आशय होगा- शुभ, वृहत् और निर्वैयक्तिक। पुरानी रामकोठी छोटी पड़ने लगी तो बड़ा भवन बन गया।

छत्तीसगढ़ में देशज ग्रामीण बैंक जैसी संस्था रामकोठी कांकेर, धमतरी, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा और रायपुर जिले में अधिक प्रचलित है। दुर्ग जिले के तेलीगुंडरा की रामकोठी प्रसिद्ध है। आसपास के गांवों गोढ़ी, नगरगांव में भी रामकोठी है, लेकिन मोहदी की बात कुछ और है। यहां आज भी लगभग डेढ़-दो सौ क्विंटल धान क्षमता यानि कम-से-कम दो लाख रूपए मूल्‍य की जमा-पूंजी है। सवाया बाढ़ी (ब्याज) पर दिये जाने वाले कर्ज की दर अब 15 प्रतिशत सालाना कर दी गई है। त्रुटि और समस्या रहित ग्रामीण प्रबंधन। गांव में रामलीला मंडप भी बन गया। गांव के लोग मिलकर ही रामलीला करते थे, लेकिन चटख रंगों का असर हुआ और पिछले दशहरा में एक सप्ताह के लिए लीला पार्टी पड़ोसी गांव कचना से आई।
रामलीला मंडप पर नाम लिखा है- श्री मुकुंदराव। इस मंच के सामने बछरू (बछड़ा) बंधा दिखा। मेरा देहाती मन भटक जाता है। भंइसा, बइला-बछरू, किसान की ताकत। बछड़े के गले में लदका है, गर्दन पर हल का जुआ रखने का अभ्यास कराया जा रहा है। नाक नाथने का काम किसान कर लेता है, लेकिन सबसे जरूरी बधिया, अब गांव में कोई नहीं कर पाता, पास के पशु औषधालय में जाना पड़ता है। लदका, नथना और बधिया, किसान के जवान होते, मचलते पुत्र के साथ जुड़ रहा है, चाहें तो आप अपनी तरह से सोच कर देखें।

वापस, मुकुंद नाम पर। इसका खास महत्व है, रायपुर और छत्तीसगढ़ के लिए। वैसा ही जो 'शिकागो' नाम का है, दिल्ली और देश के लिए। यानि वह नाम, जो महान व्यक्तियों, नेताओं-अभिनेताओं की आवाज दूर-दूर पहुंचाने का साधन रहा है।
मोहदी में रामकोठी की तलाश करते हुए जो सूत्र मिला, उससे रास्ता तय हुआ मुकुंद रेडियो तक का। यह इतिहास की रामकोठी, खजाने जैसा ही है, जहां रायपुर और छत्तीसगढ़ पधारी हस्तियों की सचित्र स्‍मृति जतन कर रखी है।
रामकोठी की इस रामकहानी में एक रावण भी है, लेकिन यह रावण खलनायक नहीं, बल्कि सहनायक जैसा है और ग्राम देवताओं की तरह सम्मान पाता है।
82 वर्षीय इस रावण प्रतिमा की प्रतिदिन पूजा होती है, मनौती मानी जाती है, नारियल भी रोज ही चढ़ता है। इस क्षेत्र के अन्य ग्रामों की तरह पड़ोसी गांव बरबन्दा में भी रावण प्रतिमा है। गांववासियों से पूछता हूं- 'कस जी, तू मन रावन के पूजा करथव ग।' मेरे सवाल में जिज्ञासा के साथ चुभने वाली फांस भी है, लेकिन जवाब सपाट है- 'हौ, वहू तो देंवता आए एक नमूना के बपुरा (बेचारा) ह।' सटपटा कर, सभी ग्राम देवताओं सहित रावण को हमारी राम-राम।

हड़प्पायुगीन विशाल अन्नागारों को सामुदायिक प्रयोजन का माना गया है। नियमित लेखन के सबसे पुराने, चौबीस सौ साल पहले के दोनों नमूने इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। महास्थान (बांग्लादेश) के मागधी प्रभावित प्राकृत लेख में धान्य और कोठागल (कोष्ठागार) शब्द मौर्यकालीन ब्राह्मी में उत्कीर्ण है, जिसमें कर्ज लेन-देन का भी उल्लेख है। इसी तरह सोहगौरा, उत्तरप्रदेश वाले ताम्रपत्रलेख में भी ‘दुवे कोट्ठागालानि‘ (दो कोष्ठागार) अंकित है। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के मदकू घाट (मदकू दीप) से मिले अट्‌ठारह सौ साल पुराने शिलालेख में अक्षयनिधि का उल्लेख भी इसी परंपरा का आरंभिक प्रमाण माना जा सकता है। छत्‍तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी सिरपुर की खुदाई से हाल ही में बारह सौ साल पुराने अन्‍नागार प्रकाश में आए हैं।

अक्षय तृतीया पर परिशिष्‍टः

1 मई, श्रम दिवस है। 2 मई, सत्‍यजित राय की जन्‍मतिथि और इस वर्ष आज 6 मई को अक्षय तृतीया, इन तीन तिथियों का संयोग, छत्‍तीसगढ़ और रावण के साथ जुड़ कर पंचमेल बन रहा है, यह भी देखते चलें।

महेन्‍द्र मिश्र ने 'सत्‍यजित राय पथेर पांचाली और फिल्‍म जगत' पुस्‍तक में बताया है- ''1981 में राय ने दूरदर्शन के लिए प्रेमचन्‍द की कहानी सद्गति पर एक लघु फिल्‍म बनाई। 25 अप्रैल 1982 को सद्गति के प्रदर्शन के साथ दूरदर्शन का रंगीन प्रसारण प्रारंभ हुआ।'' 'सद्गति' छत्‍तीसगढ़ में फिल्‍माई गई, जिसमें ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे और गीता सिद्धार्थ के साथ यहां के भैयालाल हेड़उ और बाल कलाकार ऋचा मिश्रा ने अभिनय किया है। फिल्‍म की शूटिंग छतौना-मंदिर हसौद, पलारी (बलौदा बाजार) और महासमुंद के पास केसवा, मोंगरा गांवों में हुई बताई जाती है। फिल्‍म में प्रेमचन्‍द की कहानी में उकेरे जाति-प्रथा, श्रम-शोषण के प्रभावी चित्रांकन में गांव की रावण मूर्ति का इस्‍तेमाल, रूढ़ प्रतीक के रूप में है।

कहानी की पृष्‍ठभूमि इस उद्धरण से स्‍पष्‍ट है- ''दुखी ने सिर झुकाकर कहा- बिटिया की सगाई कर रहा हूं महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगीॽ'' लेकिन छत्‍तीसगढ़ में रामनवमी और अक्‍ती (अक्षय तृतीया), ऐसा साइत-सगुन है, जिस पर कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। यह भी उल्‍लेखनीय है कि छत्‍तीसगढ़ में जाति-सौहार्द की परम्‍परा और तथ्‍यों के ढेर उदाहरण हैं (रावण भी देव-तुल्‍य है), लेकिन सद्गति में अनुसूचित जाति के लिए प्रयुक्‍त शब्‍द अब न सिर्फ निषिद्ध है वरन विस्‍फोटक हो सकता है। इन सब बातों का सार यह कि प्रेमचन्‍द और सत्‍यजित राय जैसे पंडितों के सामने हमारी स्थिति कहानी के 'दुखी' की नहीं तो चिखुरी गोंड़ से अधिक भी नहीं और इस दृष्टि से कहानी और फिल्‍म 'सद्गति' की देश-काल प्रासंगिकता प्रश्‍नातीत नहीं।

प्रेमचंद पर टिप्‍पणी करते हुए बख्‍शी जी के निबंध 'छत्‍तीसगढ़ की आत्‍मा' का उद्धरण तलाश रखा है- ''जो सामाजिक समस्‍या प्रेमचन्‍द जी की ग्राम्‍य-कहानियों में विद्यमान है, उनके लिए यहां स्‍थान नहीं है।''