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Saturday, October 8, 2011

राम की लीला

6 अक्‍टूबर, फिल्‍म रास्‍कल्‍स आम नियत रिलीज दिन शुक्रवार से एक दिन पहले आ गई है, दशहरे पर। 25-26 हजार आबादी वाले कस्‍बे अकलतरा में फिल्‍म का पोस्‍टर, जिस पर श्री सुदर्शन सिनेमा में यूएफओ प्रदर्शन की चिप्‍पी है।
अकलतरावासी, जो इन दिनों प्रवासी हैं उनके लिए खास खबर। मेरे लिए ग्‍लोबलाइज होती दुनिया का एक पहलू। कभी अस्‍थायी, टीन-टप्‍पर वाले, टूरिंग टाकीज सुदर्शन सिनेमा, जहां नई फिल्‍मों के लिए बरसों इंतजार करना होता, के एयरकंडीशंड यूएफओ केबिन और वहां के झरोखे से रिलीज के ही दिन फिल्‍म की झलक देखा। घनघोर किस्‍म के हिन्‍दीवादियों के लिए चिंता की खुराक होगी कि फिल्‍म का न सिर्फ नाम अंगरेजी में है, बल्कि देवनागरी में लिखा भी नहीं गया है।
टाकीज के पास ही रावण पुतला और चौपहिया प्रचार वाहन खड़ा है।

यह देख कर दशहरा-रामलीला से अनुपम टाकीज, भोंपू, सायकल, रिक्‍शे से आगे बढ़ता प्रचार और श्रुति-स्‍मृति से जो चलचित्र मानस पटल पर धावमान है, वह खुद देखते हुए लगा कि ढंग की किस्‍सागोई आती तो बता पाता। खैर, हाजिर की हुज्‍जत नहीं, गैर की तलाश नहीं। यह है, करीब 80 साल पुराना अकलतरा रामलीला का पोस्‍टर, जिसमें विज्ञापन शीर्षक से सूचना है। तब इस गांव की आबादी पांच हजार भी न रही होगी। गांव की अपनी लीला का दौर बीता, खास मौकों पर रहंस-गम्‍मत के आयोजन में दूर-पास के कलाकार आते रहे।

लगभग सन 1950 में छः-एक हजार हो गई आबादी वाले अकलतरा में पहले-पहल 'गणेश' टाकीज स्‍थापित हुई। इसके कर्ता-धर्ता शिवरीनारायण नाटक-लीला से जुड़े द्वारिका प्रसाद खण्‍डेलिया जी थे। अकलतरा रामलीला से जुड़े मुलमुलावासी प्रसिद्ध तबलावादक भानसिंह जी के पुत्र जीतसिंह जी ने राजलक्ष्‍मी टूरिंग टाकीज शुरू कर, केन्‍द्र अकलतरा को रखा। इस टाकीज के साथ लोग याद करते हैं सोहराब मोदी के शेर मार्का मिनर्वा मूवीटोन वाली फिल्‍म 'झांसी की रानी'। राजलक्ष्‍मी टाकीज के रुपहले परदे पर पहली बार यह रंगीन चलचित्र प्रदर्शित हुआ। विदेशी तकनीशियनों की मदद से बनी संभवतः पहली टेकनीकलर हिन्‍दुस्‍तानी फिल्‍म थी यह। रामलीला के सूत्रधार बैरिस्‍टर छेदीलाल जी के भतीजे केशवकुमार सिंह जी (उनके न रहने का यह पहला दशहरा था मेरे लिए) ने लगभग इसके साथ ही सन 1957 में अनिल टाकीज शुरू की।

इसी साल रामलीला में प्रमुख भूमिका निभाने वाले शिवाधीन महराज के पुत्र रमेश दुबे जी ने 'जय अम्‍बे' फिल्‍म प्रदर्शन के साथ अनुपम टाकीज शुरू किया। उनकी श्री टाकीज बनी और सक्‍ती से रघुवीर टूरिंग टाकीज आती-जाती रही। तब तक बिजली आई नहीं थी, जनरेटर का सहारा होता। 'ओम जै जगदीश हरे और हरे मुरारे मधुकैटभारे...' आरती रिकार्ड के साथ भारतीय समाचार चित्र, फिल्‍म्‍स डिवीजन की भेंट, आरंभ होता। फिल्‍म में मध्‍यांतर तो होता ही, बीच में ''कृपया शांत रहें, रील बदली जा रही है'' स्‍लाइड दिखाया जाता। एक तरफ मर्दाना तो दूसरी तरफ जनानी-बच्‍चों की बैठक और बीच में स्‍क्रीन वाली व्‍यवस्‍था भी प्रचलित रही। चाह रहा हूं, वैसी बात, वह रफ्तार और रवानी नहीं बन पा रही, सो वापस दशहरे पर।

पुरानी रामलीला, न जाने कब दशहरे की झांकी में सीमित हो गई है। सोचता हूं लीला पुरुष तो कृष्‍ण हैं और राम मर्यादा पुरुषोत्‍तम, लेकिन अवतार और विग्रह लीला ही है, राम की हो या कृष्‍ण की। सामने से झांकी गुजर रही है। राम-रावण दरबार साथ-साथ ट्रेक्‍टर की एक ही ट्राली पर। गीत बज रहा है 'डीजे'- ''इश्क के नाम पर करते सभी अब रासलीला हैं, मैं करूं तो साला, कैरेक्टर ढीला है'' - क्‍या यह रावण की ओर से कहा जा रहा है?
रावण-वध की तैयारी है। तीनेक साल का बच्‍चा कंधे पर सवार, सवाल किए जा रहा है और मचल रहा है, पापा! हमू लेमनचूस (लॉलीपाप) लेबो, ओ दे रावन घलो धरे हे।
सब प्रभु की माया, राम तेरी लीला न्‍यारी।

कुछ दिनों से बार-बार ध्‍यान में आता है कि सभ्‍यता का सब-आल्‍टर्न इतिहास- गनीमत है कि यह दलित, शोषित, उपेक्षित, वंचितों का इतिहास नहीं, बल्कि हाशिये का या उपाश्रयी इतिहास कहा जाता है, सही मायनों में ब्‍लाग पर ही लिखा जा रहा है।

Thursday, April 28, 2011

रामकोठी

कटहल और आम, पलाश और सेमल, कोयल की कूक के साथ महुए की गंध का मधु-माधव मास। चैती-वैशाखी का महीना, धर्म-अर्थ और काम से गदराया हुआ। खरीफ जमा है और रबी की आवक हो रही है। मेलों में मनोरंजन, खरीद-फरोख्‍त हुई। मेल-जोल में बात ठहरी, वह अब रामनवमी और अक्ती-अक्षय तृतीया की मांगलिक तिथियों पर वैवाहिक संबंधों के साथ रिश्तों तक आ गई, नई गृहस्थी जमने लगी है। खेती-बाड़ी का भी नया कैलेंडर शुरू हो रहा है।

रायपुर से उत्‍तर में 25 किलोमीटर दूर मोहदी के 1 मई, मजदूर दिवस का रंग लाल नहीं, बल्कि हरित होता है। 15 अप्रैल से 15 दिन की छुट्‌टी के बाद 'सौंजिया' फिर सालाना काम पर लगेंगे। कोई 15 साल पहले वैशाख अधिक मास होने से समस्या आई कि बढ़े महीने का हिसाब कैसे हो, तब आपसी मशविरे से यह काम-काज अंगरेजी तारीख से चलने लगा। सौंजिया, किसानी की अलिखित संहिता का पारिभाषिक शब्द है, जिसकी व्याख्‍या में कृषक जीवन के विभिन्‍न पक्ष उजागर हो सकते है। सामुदायिक जीवन की कल्‍पना सी लगने वाली हकीकत गांवों में सहज रची-बसी है, जिसकी शब्‍द-रचना भी मुझ जैसे के लिए कठिन है, लेकिन तोतली भाषा में स्‍तुति करते हुए संक्षेप में सौंजिया (सउंझिया- साझीदार/साझा) यानि खेती में श्रम भागीदारी से उपज के एक चौथाई का अधिकारी। बाकायदा सौंजिया संगठन है यहां, जो इसी दौरान अपनी कमाई के दम पर सांस्‍कृतिक आयोजन करता है।

लगभग 4000 आबादी वाला छोटा सा गांव, मोहदी। अब एटीएम, मोबाइल, मोटर साइकिल, भट्‌ठी, सरपंची, गरीबी रेखा, नरेगा के चटख रंग ही दिखाई पड़ते हैं, पड़ोसी लोहा कारखाने का भी असर हुआ है, फिर भी गांव की संरचना के ताने-बाने को कसावट देने वाले कई समूह-वर्ग ओझल-से लेकिन सक्रिय हैं। पारा-मुहल्ला, टेन (गो-धन स्वामी आधारित वर्ग), पार (जाति आधारित वर्ग), दुर्गा मंदिर समिति और सबसे खास ग्रामसभा, गांव के पंच-सरपंच और प्रमुख नागरिकों की 25 सदस्यीय समिति, जो रामकोठी का संचालन करती है।

पुरानी बात, गांव में दशहरे का उत्साह है। भजन, माता सेवा, रामायण तो चलता ही रहता है, लेकिन अब की झांकी और लीला की खास तैयारी है। धूमधाम से त्यौहार मना। रामलीला की चढ़ोतरी में इकट्‌ठा हुआ धान इस बार किसी गांवजल्ला काम में खर्च नहीं किया जा रहा है, उसे जमा कर दिया गया है। अब मोहदी में भी रामकोठी है। 85 बरस पहले और आज भी। 'कोठी' यानि कोष्‍ठ या भण्‍डार और 'राम' विशेषण-उपसर्ग का यहां आशय होगा- शुभ, वृहत् और निर्वैयक्तिक। पुरानी रामकोठी छोटी पड़ने लगी तो बड़ा भवन बन गया।

छत्तीसगढ़ में देशज ग्रामीण बैंक जैसी संस्था रामकोठी कांकेर, धमतरी, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा और रायपुर जिले में अधिक प्रचलित है। दुर्ग जिले के तेलीगुंडरा की रामकोठी प्रसिद्ध है। आसपास के गांवों गोढ़ी, नगरगांव में भी रामकोठी है, लेकिन मोहदी की बात कुछ और है। यहां आज भी लगभग डेढ़-दो सौ क्विंटल धान क्षमता यानि कम-से-कम दो लाख रूपए मूल्‍य की जमा-पूंजी है। सवाया बाढ़ी (ब्याज) पर दिये जाने वाले कर्ज की दर अब 15 प्रतिशत सालाना कर दी गई है। त्रुटि और समस्या रहित ग्रामीण प्रबंधन। गांव में रामलीला मंडप भी बन गया। गांव के लोग मिलकर ही रामलीला करते थे, लेकिन चटख रंगों का असर हुआ और पिछले दशहरा में एक सप्ताह के लिए लीला पार्टी पड़ोसी गांव कचना से आई।
रामलीला मंडप पर नाम लिखा है- श्री मुकुंदराव। इस मंच के सामने बछरू (बछड़ा) बंधा दिखा। मेरा देहाती मन भटक जाता है। भंइसा, बइला-बछरू, किसान की ताकत। बछड़े के गले में लदका है, गर्दन पर हल का जुआ रखने का अभ्यास कराया जा रहा है। नाक नाथने का काम किसान कर लेता है, लेकिन सबसे जरूरी बधिया, अब गांव में कोई नहीं कर पाता, पास के पशु औषधालय में जाना पड़ता है। लदका, नथना और बधिया, किसान के जवान होते, मचलते पुत्र के साथ जुड़ रहा है, चाहें तो आप अपनी तरह से सोच कर देखें।

वापस, मुकुंद नाम पर। इसका खास महत्व है, रायपुर और छत्तीसगढ़ के लिए। वैसा ही जो 'शिकागो' नाम का है, दिल्ली और देश के लिए। यानि वह नाम, जो महान व्यक्तियों, नेताओं-अभिनेताओं की आवाज दूर-दूर पहुंचाने का साधन रहा है।
मोहदी में रामकोठी की तलाश करते हुए जो सूत्र मिला, उससे रास्ता तय हुआ मुकुंद रेडियो तक का। यह इतिहास की रामकोठी, खजाने जैसा ही है, जहां रायपुर और छत्तीसगढ़ पधारी हस्तियों की सचित्र स्‍मृति जतन कर रखी है।
रामकोठी की इस रामकहानी में एक रावण भी है, लेकिन यह रावण खलनायक नहीं, बल्कि सहनायक जैसा है और ग्राम देवताओं की तरह सम्मान पाता है।
82 वर्षीय इस रावण प्रतिमा की प्रतिदिन पूजा होती है, मनौती मानी जाती है, नारियल भी रोज ही चढ़ता है। इस क्षेत्र के अन्य ग्रामों की तरह पड़ोसी गांव बरबन्दा में भी रावण प्रतिमा है। गांववासियों से पूछता हूं- 'कस जी, तू मन रावन के पूजा करथव ग।' मेरे सवाल में जिज्ञासा के साथ चुभने वाली फांस भी है, लेकिन जवाब सपाट है- 'हौ, वहू तो देंवता आए एक नमूना के बपुरा (बेचारा) ह।' सटपटा कर, सभी ग्राम देवताओं सहित रावण को हमारी राम-राम।

हड़प्पायुगीन विशाल अन्नागारों को सामुदायिक प्रयोजन का माना गया है। नियमित लेखन के सबसे पुराने, चौबीस सौ साल पहले के दोनों नमूने इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। महास्थान (बांग्लादेश) के मागधी प्रभावित प्राकृत लेख में धान्य और कोठागल (कोष्ठागार) शब्द मौर्यकालीन ब्राह्मी में उत्कीर्ण है, जिसमें कर्ज लेन-देन का भी उल्लेख है। इसी तरह सोहगौरा, उत्तरप्रदेश वाले ताम्रपत्रलेख में भी ‘दुवे कोट्ठागालानि‘ (दो कोष्ठागार) अंकित है। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के मदकू घाट (मदकू दीप) से मिले अट्‌ठारह सौ साल पुराने शिलालेख में अक्षयनिधि का उल्लेख भी इसी परंपरा का आरंभिक प्रमाण माना जा सकता है। छत्‍तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी सिरपुर की खुदाई से हाल ही में बारह सौ साल पुराने अन्‍नागार प्रकाश में आए हैं।

अक्षय तृतीया पर परिशिष्‍टः

1 मई, श्रम दिवस है। 2 मई, सत्‍यजित राय की जन्‍मतिथि और इस वर्ष आज 6 मई को अक्षय तृतीया, इन तीन तिथियों का संयोग, छत्‍तीसगढ़ और रावण के साथ जुड़ कर पंचमेल बन रहा है, यह भी देखते चलें।

महेन्‍द्र मिश्र ने 'सत्‍यजित राय पथेर पांचाली और फिल्‍म जगत' पुस्‍तक में बताया है- ''1981 में राय ने दूरदर्शन के लिए प्रेमचन्‍द की कहानी सद्गति पर एक लघु फिल्‍म बनाई। 25 अप्रैल 1982 को सद्गति के प्रदर्शन के साथ दूरदर्शन का रंगीन प्रसारण प्रारंभ हुआ।'' 'सद्गति' छत्‍तीसगढ़ में फिल्‍माई गई, जिसमें ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे और गीता सिद्धार्थ के साथ यहां के भैयालाल हेड़उ और बाल कलाकार ऋचा मिश्रा ने अभिनय किया है। फिल्‍म की शूटिंग छतौना-मंदिर हसौद, पलारी (बलौदा बाजार) और महासमुंद के पास केसवा, मोंगरा गांवों में हुई बताई जाती है। फिल्‍म में प्रेमचन्‍द की कहानी में उकेरे जाति-प्रथा, श्रम-शोषण के प्रभावी चित्रांकन में गांव की रावण मूर्ति का इस्‍तेमाल, रूढ़ प्रतीक के रूप में है।

कहानी की पृष्‍ठभूमि इस उद्धरण से स्‍पष्‍ट है- ''दुखी ने सिर झुकाकर कहा- बिटिया की सगाई कर रहा हूं महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगीॽ'' लेकिन छत्‍तीसगढ़ में रामनवमी और अक्‍ती (अक्षय तृतीया), ऐसा साइत-सगुन है, जिस पर कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। यह भी उल्‍लेखनीय है कि छत्‍तीसगढ़ में जाति-सौहार्द की परम्‍परा और तथ्‍यों के ढेर उदाहरण हैं (रावण भी देव-तुल्‍य है), लेकिन सद्गति में अनुसूचित जाति के लिए प्रयुक्‍त शब्‍द अब न सिर्फ निषिद्ध है वरन विस्‍फोटक हो सकता है। इन सब बातों का सार यह कि प्रेमचन्‍द और सत्‍यजित राय जैसे पंडितों के सामने हमारी स्थिति कहानी के 'दुखी' की नहीं तो चिखुरी गोंड़ से अधिक भी नहीं और इस दृष्टि से कहानी और फिल्‍म 'सद्गति' की देश-काल प्रासंगिकता प्रश्‍नातीत नहीं।

प्रेमचंद पर टिप्‍पणी करते हुए बख्‍शी जी के निबंध 'छत्‍तीसगढ़ की आत्‍मा' का उद्धरण तलाश रखा है- ''जो सामाजिक समस्‍या प्रेमचन्‍द जी की ग्राम्‍य-कहानियों में विद्यमान है, उनके लिए यहां स्‍थान नहीं है।''