छत्तीसगढ़ में वास्तु कला का स्पष्ट और नियमित इतिहास भव्य कलात्मक देवालयों में झलकता है। पांचवीं-छठी सदी ईस्वी से आरंभ होने वाले इस क्रम की रचनात्मक गतिविधियां क्षेत्रीय विभिन्न राजवंशों से जुड़ी हुई हैं। आरंभिक क्रम में नल, शरभपुरीय और सोम-पाण्डु कुल हैं। राजनैतिक इतिहास के इसी कालक्रम में छत्तीसगढ़ अंचल में वास्तु प्रयोगों का स्वर्णिम युग घटित हुआ है। पत्थर और ईंटों पर ऐसी बारीक-सघन पच्चीकारी उकेरी गई है, उनका ऐसा सुसंहत संयोजन हुआ है कि देखते ही बनता है। वास्तुशास्त्र के निर्देश और प्रतिमा विज्ञान का मूर्तन, धार्मिकता से ओत-प्रोत है तो उसमें स्थापत्य विज्ञान और तकनीक का चमत्कार भी है और इसका संतुलित स्वरूप-आकार ही पूरी दुनिया को आकृष्ट करता है, हमें सिरमौर स्थापित कर देता है।
राजिम के रामचन्द्र मंदिर में प्रयुक्त स्थापत्य खंड और राजीव लोचन मंदिर, छत्तीसगढ़ के आरंभिक वास्तु की झलक युक्त हैं, जो नलवंशी/शरभपुरीय वास्तुकला से संबंधित माने जाते हैं। नल वंश की कला पर भौगोलिक और राजनैतिक कारणों से वाकाटक सम्पर्कों का प्रभाव रहा है। इसी वंश की अन्य स्थापत्य गतिविधियों में बस्तर के गढ़ धनोरा के वैष्णव और शैव मंदिर तथा भोंगापाल के मंदिर और बौद्ध चैत्य हैं। बस्तर तथा उससे संलग्न विशेषकर महाराष्ट्र की सीमा में तथा उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमाओं पर भी नल वास्तु के अन्य केन्द्र उद्घाटित हो सकते हैं।
शरभपुरीय शासकों के काल की रचनाओं के कुछ अवशेष उड़ीसा की सीमा और रायपुर क्षेत्र से ज्ञात हुए हैं किन्तु इनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र ताला स्थित लगभग छठी सदी ईस्वी के दो मंदिर हैं। मंदिर वास्तु के अपेक्षाकृत सुरक्षित अवशेषों में क्षेत्रीय इतिहास के ये प्राचीनतम उदाहरण हैं। जिठानी और देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अधिक सुरक्षित व पूर्वज्ञात है, जबकि जिठानी मंदिर की संरचना कुछ वर्षों पूर्व राज्य शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा कराये गए कार्यों से स्पष्ट हुई और इसी दौरान देवरानी मंदिर के प्रांगण से प्रसिद्ध, बहुचर्चित रूद्रशिव की प्रतिमा प्राप्त हुई, जो अब विश्व विख्यात है, लेकिन वास्तु शास्त्र के अध्येताओं के लिए आज भी ताला के मंदिर प्रबल जिज्ञासा और आकर्षण के केन्द्र हैं। डोनाल्ड स्टेड्नर, जोना विलियम्स, माइकल माएस्टर जैसे विदेशी अध्येताओं के अतिरिक्त देश के प्राचीन वास्तु के शीर्ष अधिकारी ज्ञाताओं डाक्टर प्रमोदचंद्र, कृष्णदेव और एम.ए. ढाकी ने ताला की वास्तु कला को देखा-परखा और सराहा है। डा. के.के. चक्रवर्ती के शोध का प्रमुख हिस्सा ताला पर केन्द्रित है, जिसमें स्थल की वास्तु कला का सांगोपांग अध्ययन किया गया है।
शिखरविहीन देवरानी मंदिर विस्तृत जगती पर निर्मित है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। सुदीर्घ वास्तु कला परम्परा से विकसित उच्च प्रतिमान, पूरी संरचना को भव्य आकर्षक बना देता है। दक्षिणाभिमुख विलक्षण जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। इस मंदिर का तल विन्यास असमान सतह वाला और स्तंभों से कोष्ठकों में विभक्त है, निश्चय ही ऐसी संरचनाएं स्थानीय शास्त्रीय वास्तु ग्रंथों के निर्देशों का परिणाम हैं। दोनों मंदिर मूलतः विशाल पाषाण खंडों से निर्मित हैं, किंतु संभवतः परवर्ती परिवर्धन में ईंटों का प्रयोग किया गया है। देवरानी मंदिर का पूरा चबूतरा, मूल संरचना के निचले हिस्से को ढंकते हुए ईंट निर्मित कोष्ठकों को पूर कर बनाया गया है।
इसके पश्चात् पाण्डु-सोमवंशी स्थापत्य उदाहरणों की भरमार छत्तीसगढ़ में है, जिनमें मल्हार के देउर मंदिर के अतिरिक्त सभी महत्वपूर्ण सुरक्षित संरचनाएं ईंटों से निर्मित हैं। इस क्रम का आरंभिक चरण सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर है, जो हर्षगुप्त की विधवा महारानी वासटा द्वारा बनवाया गया है। लगभग सातवीं सदी का यह मंदिर, ईंटों पर मूर्त, छत्तीसगढ़ के वास्तु सौन्दर्य का अग्रगण्य उदाहरण है। बारीक नक्काशी, चैत्य गवाक्ष अलंकरण, कीर्तिमुख आदि मंगल लक्षणों के साथ तीनों दिशाओं में उकेरे गए कूट गवाक्ष सिद्धहस्त कारीगरों की प्रतिभा के प्रमाण हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार, पाषाण निर्मित है और सामने का भाग स्तंभों पर आधारित मण्डप था, जो मंदिर संरक्षण के पूर्व ही मलबे का ढेर बन चुका था।
मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर महत्वपूर्ण और विशाल है, जिसके वास्तु विन्यास में ताला के स्थापत्य की स्मृति सुरक्षित जान पड़ती है। यहां गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप तथा अर्द्धमण्डप की भित्तियां कुछ ऊंचाई तक सुरक्षित हैं, लेकिन मंदिर शिखर विहीन है। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। मंदिर की वाह्य भित्तियों में आरंभिक दक्षिण भारतीय वास्तु शैली का प्रभाव झलकता है। इसके पश्चात् खरौद, पलारी, धोबनी, सिरपुर आदि स्थानों पर विशेष प्रकार के तारकानुकृति योजना पर ईंटों से निर्मित मंदिर हैं। खरौद का लक्ष्मणेश्वर मंदिर पुनर्संरचित है। इन्दल देउल ऊंची जगती पर पश्चिमाभिमुख निर्मित है और सौंराई या शबरी मंदिर मंडप युक्त है। पलारी का मंदिर अत्यंत सुरक्षित स्थिति में नयनाभिराम रूप में है और धोबनी के मंदिर का अग्रभाग क्षतिग्रस्त है। इसी प्रकार सिरपुर का राम मंदिर व कुछ अन्य अवशेष तारकानुकृति ईंट निर्मित संरचनाएं हैं। सिरपुर उत्खनन से उद्घाटित आनंदप्रभकुटी विहार और स्वस्तिक विहार साम्प्रदायिक समन्वय और सहजीवन की तत्कालीन भावना को तो उजागर करते ही हैं, छत्तीसगढ़ में मंदिर-इतर वास्तु प्रयोगों के भी उदाहरण हैं। अड़भार के ध्वस्त मंदिर की भू-योजना व अवशेष ही प्राप्त हैं, किन्तु यहां अष्टकोणीय योजना व दोहरा प्रवेश द्वार, क्षेत्रीय वास्तु विशिष्टता को रेखांकित करता है।
रायगढ़ के देउरकोना और पुजारीपाली में तथा सरगुजा अंचल के मुख्यतः डीपाडीह, बेलसर, सतमहला, भदवाही आदि स्थानों में भी तत्कालीन स्थापत्य उदाहरण मंदिर व मठ प्रकाश में आए हैं। देउरकोना का मंदिर पाषाण निर्मित है, किन्तु इसका दृश्य प्रभाव ईंटों की संरचना जैसा है। इस मंदिर में कालगत सभी विशेषताओं का दिग्दर्शन होता है। पुजारीपाली के अधिकांश अवशेष काल प्रभाव से नष्टप्राय हैं, किन्तु यहां भी तत्कालीन वास्तु शैली में ईंटों की संरचनाओं के प्रमाण सुरक्षित हैं। डीपाडीह में अधिकांश मंदिर परवर्तीकालीन हैं, किन्तु समकालीन स्मारकों में उरांव टोला का शिव मंदिर महत्वपूर्ण है। यह मंदिर भी विशिष्ट कोसलीय शैली का तारकानुकृति योजना पर निर्मित मंदिर है, जिसके समक्ष विशाल मण्डप के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। बेलसर का मुख्य मंदिर, देवटिकरा के देवगढ़ का मंदिर समूह व छेरका देउल, भदवाही स्थित सतमहला के मंदिरों में तत्कालीन ईंट-पाषाण मिश्रित प्रयोग, तारकानुकृति योजना और वास्तु कला साधना की पुष्ट परम्परा के दर्शन होते हैं।
इसके पश्चात् का कालखंड लगभग ग्यारहवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी का है। इस काल में रायपुर-बिलासपुर में प्रमुखतः कलचुरि, दुर्ग-राजनांदगांव में फणिनाग, बस्तर में छिन्दक नाग, कांकेर के परवर्ती सोमवंश और रायगढ़ अंचल में कलचुरि-कलिंग सोम मिश्रित राजवंशों की वास्तु गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विस्तृत क्षेत्र रत्नपुर के कलचुरियों के अधीन रहा। कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की वास्तु कला का प्रभाव शहडोल जिले के सीमावर्ती और अन्दरूनी हिस्सों के कुछ स्थलों तक दृष्टिगोचर होता है।
रत्नपुर कलचुरि शाखा का आरंभिक सुरक्षित उदाहरण तुमान से ज्ञात हुआ है। मूलतः तुम्माण संज्ञा वाला यह स्थल, रत्नपुर कलचुरियों की आरंभिक राजधानी भी था। यहां मुख्य मंदिर पश्चिमाभिमुख तथा शिव को समर्पित है। भू सतह पर आधारित संरचना-मूल से उन्नत विशाल मण्डप संलग्न है। खुले मण्डप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीन दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार शाखों पर विष्णु के दशावतारों का अंकन रोचक और विशिष्ट है।
पाली का पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना प्रवेश के सिरदल पर अभिलिखित है। जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का कलचुरि शैली में पुनरुद्धार हुआ। जांजगीर का शिखर विहीन विष्णु मंदिर विशाल व ऊंची जगती पर निर्मित है। मंदिर की अवशिष्ट मूल जगती पर आदमकद प्रतिमाएं व शास्त्रीय मान की अलंकरण योजना अनूठी और अपने प्रकार का एकमात्र उदाहरण है। इस चतुरंग-सप्तरथ मंदिर का मंडप वर्तमान में नहीं है। उत्सेध में भिट्ट, पीठ, जंघा, वरंडिका और शिखर मूल और शिखर शीर्ष का निचला भाग ही अवशिष्ट है। यह मंदिर कलचुरि वास्तु कला का सर्वाधिक विकसित और उन्नत उदाहरण है।
महानदी के दाहिने तट पर स्थित नारायणपुर के दो मंदिरों में जांजगीर के आस-पास स्थित विष्णु मंदिर और शिव मंदिर की साम्यता है। पूर्वाभिमुख मुख्य मंदिर विष्णु का है, किन्तु इसके गर्भगृह में मूल प्रतिमा नहीं है। प्रवेश द्वार पर शिवरीनारायण के केशवनारायण मंदिर की भांति विष्णु के 24 स्वरूप हैं। ऐसा अंकन जांजगीर के विष्णु मंदिर की वाह्य भित्ति पर है। इस मंदिर की जंघा पर पश्चिम में नृसिंह व बुद्ध, उत्तर में वामन व कल्कि तथा दक्षिण में वराह व बलराम प्रतिमा है। साथ ही कृष्ण लीला के पूतना वध और धेनुकासुर वध के अतिरिक्त मिथुन प्रतिमाएं भी हैं। इसके साथ की संरचना जांजगीर के शिव मंदिर तुल्य छोटी व सादी, पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर है, जिसके प्रवेश द्वार पर द्वादश आदित्य का अभिकल्प है।
मल्हार का स्थानीय प्रचलित पातालेश्वर नामक मंदिर, यहां प्राप्त अभिलेख के आधार पर बारहवीं सदी ईस्वी का केदारेश्वर मंदिर, पश्चिमाभिमुख तथा निम्नतलीय गर्भगृह वाला है, किन्तु मंडप की योजना तुमान के सदृश्य है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। आरंग का भाण्ड देउल जगती पर निर्मित भूमिज शैली का, तारकानुकृति योजना वाला जैन मंदिर है।
सरगुजा के त्रिपुरी कलचुरि काल के वास्तु अवशेष मुख्यतः डीपाडीह और महेशपुर से प्राप्त हुए हैं, जिनमें मध्ययुग के आरंभिक चरण की पुष्टता और सफाई दिखाई देती है। बस्तर में छिंदक नागवंशियों का केन्द्र बारसूर रहा, जहां विशाल गणेश प्रतिमाएं एवं चन्द्रादित्य, मामा-भांजा, बत्तीसा, बारा खंभा मंदिर तथा पेदम्मा गुड़ी महत्वपूर्ण स्मारक हैं। इस वास्तु शैली में सेउण देश, परमार और काकतीय वास्तु का साम्य दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार नारायणपाल, ढोंडरेपाल और छिन्दगांव के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं, जबकि दन्तेवाड़ा, बस्तर गांव और गुमड़पाल के मंदिर स्पष्टतः द्रविड़ शैली के और काकतीयों से संबंधित माने जा सकते हैं।
कवर्धा के निकट भोरमदेव मंदिर स्पष्टतः भूमिज शैली का फणिनाग वंश से संबंधित अपने प्रकार का सर्वोत्कृष्ट नमूना है, यह परिसर और निकटस्थ क्षेत्र इस वंश के सुदीर्घकालीन गतिविधियों का केन्द्र रहा। ग्राम चौरा स्थित मड़वा महल और छेरकी महल तथा आसपास ही गण्डई, सिली-पचराही, बिरखा-घटियारी, देवरबिजा, धमधा और अन्य स्मारक-अवशेष देव बलौदा तक फैले हैं। कांकेर सोमवंश से संबंधित दुधावा बांध के डूब में आया देवखूंट शिव मंदिर, सिहावा का कर्णेश्वर मंदिर तथा रिसेवाड़ा और देवडोंगर के स्थापत्य अवशेष उल्लेखनीय प्रतिनिधि स्मारक हैं।
किरारी गोढ़ी, गनियारी, नगपुरा, शिवरीनारायण आदि स्थानों में भी समकालीन वास्तु कला के महत्वचूर्ण उदाहरण शेष हैं। कुटेसर नगोई, पंडरिया, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी आदि स्थानों में भी स्फुट अवशेष प्राप्त होते हैं। वास्तु कला के परवर्ती उदाहरण सरगांव, बेलपान, रतनपुर, चैतुरगढ़, डमरू, मदनपुर, चन्दखुरी, सहसपुर, आमदी-पलारी, खल्लारी आदि स्थलों के स्मारकों और अवशेषों में दृष्टिगोचर होता है। छत्तीसगढ़ में इस क्रम का परवर्ती चरण मराठाकाल में घटित हुआ, जिसके महत्वपूर्ण उदाहरण रतनपुर का कंठी देउल, रामटेकरी मंदिर और रायपुर का दूधाधारी मंदिर है।
छत्तीसगढ़ का विस्तृत उपजाऊ मैदानी क्षेत्र लगभग चारों ओर से पहाड़ियों, नदियों से घिरकर प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित देश का मध्यस्थ हिस्सा है, इसलिए विभिन्न राजवंशों का कालक्रम में स्थायित्व व निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव संचार लगातार बना रहा, इसलिए इस क्षेत्र में राष्ट्रीय धारा के मूल तत्वों का प्रतिबिम्ब तो दिखाई देता ही है, अपनी मौलिकता और विशिष्टता भी सुरक्षित रही है, यही प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के वास्तु कला के विकसित होते, विभिन्न चरणों में देखी जा सकती है और सामान्य धारा की अनुभव सम्पन्न विशेषताओं में क्षेत्रीय और स्थानीय विचारधारा के साथ प्रयोगों का रंग घोलकर, परिणाम में हमारे समक्ष वास्तु कला का भव्य और चमत्कारिक किन्तु आकर्षक और आत्मीय प्रमाण, आज भी विद्यमान है।
(तस्वीर, एक भी नहीं, यह सब तो यहां आ कर और मौके पर जा कर देखें.)
लगभग 15 वर्ष पहले लिए गए मेरे नोट्स पर आधारित लेख का उत्तरार्द्ध, जिसका पूर्वार्द्ध यहां है.