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Monday, January 7, 2013

कलचुरि स्थापत्य: पत्र

बात रतनपुर के तीन शिल्पखंडों से आरंभ करने में आसानी होगी, जो एक परवर्ती मंदिर (लगभग 15वीं सदी ई.) में लगा दिये गये थे। इस मंदिर 'कंठी देउल' का अस्तित्व वर्तमान में बदला हुआ है, क्योंकि यह एएसआइ द्वारा अन्य स्थान पर पुनर्संरचना की प्रक्रिया में है, इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है। दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्‌मा, विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं। ये तीनों शिल्पखंड लगभग 9 वीं सदी ई. में रखे जा सकते हैं।
कंठी देउल, रतनपुर
रतनपुर शाखा के कलचुरियों की कला देखने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में आठवीं सदी ई. तक के पाण्‍डु-सोमवंश की कला परम्परा है। नवीं सदी ई. की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध नहीं है, दसवीं सदी ई. के कुछ उदाहरण मिलते हैं, फिर ग्यारहवीं सदी के कलचुरि स्थापत्य-कला का भंडार इस क्षेत्र (छत्तीसगढ़ या दक्षिण कोसल) में है, वैसे इस शैली की अधिकांश सामग्री को बारहवीं सदी में रखना अधिक उपयुक्त है, कुछ उदाहरण तेरहवीं सदी के भी हैं, जो अवसान काल के माने जा सकते हैं। इस तरह कलचुरि कला शैली का आरंभ ग्यारहवीं सदी का है, विकास-समृद्धि बारहवीं सदी की और ह्रास तेरहवीं सदी में। इन काल खण्डों की अलग-अलग चर्चा उदाहरण सहित करने से यह स्पष्ट हो सकेगा।

चर्चा का पहला खंड ऐसी कलाकृतियां हैं, जिनमें पाण्‍डु-सोमवंशी शैली की स्पष्ट छाप देशी-पहचानी जा सकती है और जिनका काल नवीं सदी ई. निश्चित किया जा सकता है, इनमें रतनपुर के उपरिलिखित तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार हैं।

दूसरा खंड दसवीं सदी (विशेषकर उत्तरार्द्ध) से संबंधित है, जिसमें पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा दूसरा उदाहरण घटियारी का शिव मंदिर की मलबा-सफाई से प्राप्त प्रतिमाएं है। घटियारी का मंदिर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी राजवंश (फणिनाग?) से संबंधित नहीं किया जा सकता।

तीसरे खंड ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है, जिनका आरंभ तुमान से होता है, तुमान मंदिर का काल ग्यारहवीं सदी है। बारहवीं सदी के ढेर सारे उदाहरण हैं, जिनमें जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल (जैन मंदिर, भूमिज शैली), गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं।

चौथे खंड में तेरहवीं सदी के मंदिर हैं, जिनमें सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है।

तीसरे खंड के मंदिरों की कुछ विशिष्टताओं की थोड़ी और चर्चा यहां होनी चाहिये। अनियमित ढंग से शुरू करने पर तुमान का मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है। गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, (दोनों में अब जगती ही शेष है, मंडप का अनुमान मात्र संभव है) अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है। इस विशिष्टता के फलस्वरूप मल्हार का गर्भगृह निम्नतलीय है, किन्तु तुमान में ऐसा नहीं है (यहां अमरकंटक के पातालेश्वर का उल्लेख हो सकता है।) तुमान के द्वार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है, इस शिव मंदिर के द्वार शाख में दोनों ओर क्रमशः 5-5 कर विष्णु के दसों अवतार अंकित है। समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी विद्यमान है। (पाली, नारायणपुर और नारायणपाल मंदिरों में मंडप है।)

द्वारशाखों का सम्मुख और पार्श्व की चर्चा भी करनी चाहिये, रतनपुर किला में अवशिष्ट (या अन्य किसी स्थान से लाये गये) मात्र प्रवेश द्वार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन पुरानी रीति की स्मृति के कारण हुआ जान पड़ता है, इसलिये इसका काल निश्चित तौर पर नवीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाना उपयुक्त नहीं है यह और परवर्ती हो सकता है। शाख सामान्यतः विकसित नवशाख हैं, जिनमें दोनों ओर समान आकार की तीन-तीन आकृतियां (दो-दो प्रतिहारी व एक-एक नदी-देवियां) हैं और जिनका आकार लगभग पूरी ऊंचाई से दो-तिहाई या अधिक है। यह इन मंदिरों की सामान्य विशेषता बताई जा सकती है। शाखों के वाह्य पार्श्व तथा अंतःपार्श्व (द्वार में प्रवेश करते हुए दोनों बगल) के कुछ उल्लेख आवश्यक हैं।

रतनपुर किला के अवशिष्ट प्रवेश द्वार के वाह्य पार्श्व में कथानकों ('रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि) का अंकन है। रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के द्वारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं। जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्द्धस्तंभों का है (नारायणपुर में भी), जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के दूसरे मंदिर, शिव मंदिर में इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर कथानक व शिवपूजा के दृश्य भी हैं।

गनियारी के मंदिर के इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण है। प्रवेश द्वार के अंतःपार्श्व अधिकांश सादे हैं, किन्तु गनियारी में सोमवंशी स्मृति है, अर्थात इस स्थान पर सोमवंशियों में एक पूर्ण व दो अर्द्ध उत्फुल्ल पद्य अंकन हुआ है, गनियारी में पांच-छः पूर्ण उत्फुल्ल पद्य आकृतियां इस स्थान पर अंकित हैं, अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में है, इनमें द्वारशाख का अंतःपार्श्व सम्मुख से अधिक महत्वपूर्ण है, इसीका अनुकरण मल्हार के केदारेश्वर तथा शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर में है। यहां द्वारशाख सम्मुख तो परम्परागत हैं किन्तु अंतःपार्श्वों में देवप्रतिमाएं अंकित हैं, मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है। (अंतःपार्श्वों तथा द्वारशाख पर विष्णु स्वरूप नारायणपुर में भी है।)

अलग-अलग मंदिरों व स्थलों की चर्चा करें तो किरारीगोढ़ी का खंडित मंदिर स्थापत्य में रथ-योजना प्रक्षेपों की कलचुरि तकनीक देखने के लिये महत्वपूर्ण है, यहां मंडप के चबूतरे से मिले स्थापत्य खंड में 'व्याल, नायिका व देव प्रतिमा' ऐसे समूह वाले कई खंड हैं, जिनसे मंडप की प्रतिमा योजना व अलंकरण का अनुमान होता है, ऐसे ही खंड घुटकू में प्राप्त हुए हैं, बीरतराई के कुछ खंड भी मंडप के अंश जान पड़ते हैं, कनकी से कई द्वारशाख मिले हैं, जो स्थल पर ही नये निर्मित मंदिरों में लगाये गये हैं, भाटीकुड़ा के अवशेष-सिरदल आदि रोचक और महत्वपूर्ण हैं।

श्री मधुसूदन ए. ढाकी को  07.12.1989 को मेरे द्वारा (अन्‍तर्देशीय पर) प्रेषित पत्र का मजमून, इसी पत्र के आधार पर (अन्‍य कोई औपचारिक आवेदन के बिना) मुझे अमेरिकन इंस्‍टीट्यूट आफ इंडियन स्‍टडीज की फेलोशिप मिली थी। (पद्मभूषण) ढाकी जी से जुड़ी कुछ और बातें आगे कभी।

Sunday, December 30, 2012

छत्तीसगढ़ वास्तु - II

छत्तीसगढ़ में वास्तु कला का स्पष्ट और नियमित इतिहास भव्य कलात्मक देवालयों में झलकता है। पांचवीं-छठी सदी ईस्वी से आरंभ होने वाले इस क्रम की रचनात्मक गतिविधियां क्षेत्रीय विभिन्न राजवंशों से जुड़ी हुई हैं। आरंभिक क्रम में नल, शरभपुरीय और सोम-पाण्डु कुल हैं। राजनैतिक इतिहास के इसी कालक्रम में छत्तीसगढ़ अंचल में वास्तु प्रयोगों का स्वर्णिम युग घटित हुआ है। पत्थर और ईंटों पर ऐसी बारीक-सघन पच्चीकारी उकेरी गई है, उनका ऐसा सुसंहत संयोजन हुआ है कि देखते ही बनता है। वास्तुशास्त्र के निर्देश और प्रतिमा विज्ञान का मूर्तन, धार्मिकता से ओत-प्रोत है तो उसमें स्थापत्य विज्ञान और तकनीक का चमत्कार भी है और इसका संतुलित स्वरूप-आकार ही पूरी दुनिया को आकृष्ट करता है, हमें सिरमौर स्थापित कर देता है।

राजिम के रामचन्द्र मंदिर में प्रयुक्त स्थापत्य खंड और राजीव लोचन मंदिर, छत्तीसगढ़ के आरंभिक वास्तु की झलक युक्त हैं, जो नलवंशी/शरभपुरीय वास्तुकला से संबंधित माने जाते हैं। नल वंश की कला पर भौगोलिक और राजनैतिक कारणों से वाकाटक सम्पर्कों का प्रभाव रहा है। इसी वंश की अन्य स्थापत्य गतिविधियों में बस्तर के गढ़ धनोरा के वैष्णव और शैव मंदिर तथा भोंगापाल के मंदिर और बौद्ध चैत्य हैं। बस्तर तथा उससे संलग्न विशेषकर महाराष्ट्र की सीमा में तथा उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमाओं पर भी नल वास्तु के अन्य केन्द्र उद्‌घाटित हो सकते हैं।

शरभपुरीय शासकों के काल की रचनाओं के कुछ अवशेष उड़ीसा की सीमा और रायपुर क्षेत्र से ज्ञात हुए हैं किन्तु इनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र ताला स्थित लगभग छठी सदी ईस्वी के दो मंदिर हैं। मंदिर वास्तु के अपेक्षाकृत सुरक्षित अवशेषों में क्षेत्रीय इतिहास के ये प्राचीनतम उदाहरण हैं। जिठानी और देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अधिक सुरक्षित व पूर्वज्ञात है, जबकि जिठानी मंदिर की संरचना कुछ वर्षों पूर्व राज्य शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा कराये गए कार्यों से स्पष्ट हुई और इसी दौरान देवरानी मंदिर के प्रांगण से प्रसिद्ध, बहुचर्चित रूद्रशिव की प्रतिमा प्राप्त हुई, जो अब विश्व विख्‍यात है, लेकिन वास्तु शास्त्र के अध्येताओं के लिए आज भी ताला के मंदिर प्रबल जिज्ञासा और आकर्षण के केन्द्र हैं। डोनाल्ड स्टेड्‌नर, जोना विलियम्स, माइकल माएस्टर जैसे विदेशी अध्येताओं के अतिरिक्त देश के प्राचीन वास्तु के शीर्ष अधिकारी ज्ञाताओं डाक्टर प्रमोदचंद्र, कृष्णदेव और एम.ए. ढाकी ने ताला की वास्तु कला को देखा-परखा और सराहा है। डा. के.के. चक्रवर्ती के शोध का प्रमुख हिस्सा ताला पर केन्द्रित है, जिसमें स्थल की वास्तु कला का सांगोपांग अध्ययन किया गया है।

शिखरविहीन देवरानी मंदिर विस्तृत जगती पर निर्मित है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। सुदीर्घ वास्तु कला परम्परा से विकसित उच्च प्रतिमान, पूरी संरचना को भव्य आकर्षक बना देता है। दक्षिणाभिमुख विलक्षण जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। इस मंदिर का तल विन्यास असमान सतह वाला और स्तंभों से कोष्ठकों में विभक्त है, निश्चय ही ऐसी संरचनाएं स्थानीय शास्त्रीय वास्तु ग्रंथों के निर्देशों का परिणाम हैं। दोनों मंदिर मूलतः विशाल पाषाण खंडों से निर्मित हैं, किंतु संभवतः परवर्ती परिवर्धन में ईंटों का प्रयोग किया गया है। देवरानी मंदिर का पूरा चबूतरा, मूल संरचना के निचले हिस्से को ढंकते हुए ईंट निर्मित कोष्ठकों को पूर कर बनाया गया है।

इसके पश्चात्‌ पाण्डु-सोमवंशी स्थापत्य उदाहरणों की भरमार छत्तीसगढ़ में है, जिनमें मल्हार के देउर मंदिर के अतिरिक्त सभी महत्वपूर्ण सुरक्षित संरचनाएं ईंटों से निर्मित हैं। इस क्रम का आरंभिक चरण सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर है, जो हर्षगुप्त की विधवा महारानी वासटा द्वारा बनवाया गया है। लगभग सातवीं सदी का यह मंदिर, ईंटों पर मूर्त, छत्तीसगढ़ के वास्तु सौन्दर्य का अग्रगण्य उदाहरण है। बारीक नक्काशी, चैत्य गवाक्ष अलंकरण, कीर्तिमुख आदि मंगल लक्षणों के साथ तीनों दिशाओं में उकेरे गए कूट गवाक्ष सिद्धहस्त कारीगरों की प्रतिभा के प्रमाण हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार, पाषाण निर्मित है और सामने का भाग स्तंभों पर आधारित मण्डप था, जो मंदिर संरक्षण के पूर्व ही मलबे का ढेर बन चुका था।

मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर महत्वपूर्ण और विशाल है, जिसके वास्तु विन्यास में ताला के स्थापत्य की स्मृति सुरक्षित जान पड़ती है। यहां गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप तथा अर्द्धमण्डप की भित्तियां कुछ ऊंचाई तक सुरक्षित हैं, लेकिन मंदिर शिखर विहीन है। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। मंदिर की वाह्य भित्तियों में आरंभिक दक्षिण भारतीय वास्तु शैली का प्रभाव झलकता है। इसके पश्चात्‌ खरौद, पलारी, धोबनी, सिरपुर आदि स्थानों पर विशेष प्रकार के तारकानुकृति योजना पर ईंटों से निर्मित मंदिर हैं। खरौद का लक्ष्मणेश्वर मंदिर पुनर्संरचित है। इन्दल देउल ऊंची जगती पर पश्चिमाभिमुख निर्मित है और सौंराई या शबरी मंदिर मंडप युक्त है। पलारी का मंदिर अत्यंत सुरक्षित स्थिति में नयनाभिराम रूप में है और धोबनी के मंदिर का अग्रभाग क्षतिग्रस्त है। इसी प्रकार सिरपुर का राम मंदिर व कुछ अन्य अवशेष तारकानुकृति ईंट निर्मित संरचनाएं हैं। सिरपुर उत्खनन से उद्‌घाटित आनंदप्रभकुटी विहार और स्वस्तिक विहार साम्प्रदायिक समन्वय और सहजीवन की तत्कालीन भावना को तो उजागर करते ही हैं, छत्तीसगढ़ में मंदिर-इतर वास्तु प्रयोगों के भी उदाहरण हैं। अड़भार के ध्वस्त मंदिर की भू-योजना व अवशेष ही प्राप्त हैं, किन्तु यहां अष्टकोणीय योजना व दोहरा प्रवेश द्वार, क्षेत्रीय वास्तु विशिष्टता को रेखांकित करता है।

रायगढ़ के देउरकोना और पुजारीपाली में तथा सरगुजा अंचल के मुख्‍यतः डीपाडीह, बेलसर, सतमहला, भदवाही आदि स्थानों में भी तत्कालीन स्थापत्य उदाहरण मंदिर व मठ प्रकाश में आए हैं। देउरकोना का मंदिर पाषाण निर्मित है, किन्तु इसका दृश्य प्रभाव ईंटों की संरचना जैसा है। इस मंदिर में कालगत सभी विशेषताओं का दिग्दर्शन होता है। पुजारीपाली के अधिकांश अवशेष काल प्रभाव से नष्टप्राय हैं, किन्तु यहां भी तत्कालीन वास्तु शैली में ईंटों की संरचनाओं के प्रमाण सुरक्षित हैं। डीपाडीह में अधिकांश मंदिर परवर्तीकालीन हैं, किन्तु समकालीन स्मारकों में उरांव टोला का शिव मंदिर महत्वपूर्ण है। यह मंदिर भी विशिष्ट कोसलीय शैली का तारकानुकृति योजना पर निर्मित मंदिर है, जिसके समक्ष विशाल मण्डप के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। बेलसर का मुख्‍य मंदिर, देवटिकरा के देवगढ़ का मंदिर समूह व छेरका देउल, भदवाही स्थित सतमहला के मंदिरों में तत्कालीन ईंट-पाषाण मिश्रित प्रयोग, तारकानुकृति योजना और वास्तु कला साधना की पुष्ट परम्परा के दर्शन होते हैं।

इसके पश्चात्‌ का कालखंड लगभग ग्यारहवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी का है। इस काल में रायपुर-बिलासपुर में प्रमुखतः कलचुरि, दुर्ग-राजनांदगांव में फणिनाग, बस्तर में छिन्दक नाग, कांकेर के परवर्ती सोमवंश और रायगढ़ अंचल में कलचुरि-कलिंग सोम मिश्रित राजवंशों की वास्तु गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विस्तृत क्षेत्र रत्नपुर के कलचुरियों के अधीन रहा। कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की वास्तु कला का प्रभाव शहडोल जिले के सीमावर्ती और अन्दरूनी हिस्सों के कुछ स्थलों तक दृष्टिगोचर होता है।

रत्नपुर कलचुरि शाखा का आरंभिक सुरक्षित उदाहरण तुमान से ज्ञात हुआ है। मूलतः तुम्माण संज्ञा वाला यह स्थल, रत्नपुर कलचुरियों की आरंभिक राजधानी भी था। यहां मुख्‍य मंदिर पश्चिमाभिमुख तथा शिव को समर्पित है। भू सतह पर आधारित संरचना-मूल से उन्नत विशाल मण्डप संलग्न है। खुले मण्डप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीन दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार शाखों पर विष्णु के दशावतारों का अंकन रोचक और विशिष्ट है।

पाली का पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना प्रवेश के सिरदल पर अभिलिखित है। जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का कलचुरि शैली में पुनरुद्धार हुआ। जांजगीर का शिखर विहीन विष्णु मंदिर विशाल व ऊंची जगती पर निर्मित है। मंदिर की अवशिष्ट मूल जगती पर आदमकद प्रतिमाएं व शास्त्रीय मान की अलंकरण योजना अनूठी और अपने प्रकार का एकमात्र उदाहरण है। इस चतुरंग-सप्तरथ मंदिर का मंडप वर्तमान में नहीं है। उत्सेध में भिट्‌ट, पीठ, जंघा, वरंडिका और शिखर मूल और शिखर शीर्ष का निचला भाग ही अवशिष्ट है। यह मंदिर कलचुरि वास्तु कला का सर्वाधिक विकसित और उन्नत उदाहरण है।

महानदी के दाहिने तट पर स्थित नारायणपुर के दो मंदिरों में जांजगीर के आस-पास स्थित विष्‍णु मंदिर और शिव मंदिर की साम्‍यता है। पूर्वाभिमुख मुख्‍य मंदिर विष्‍णु का है, किन्‍तु इसके गर्भगृह में मूल प्रतिमा नहीं है। प्रवेश द्वार पर शिवरीनारायण के केशवनारायण मंदिर की भांति विष्‍णु के 24 स्‍वरूप हैं। ऐसा अंकन जांजगीर के विष्‍णु मंदिर की वाह्य भित्ति पर है। इस मंदिर की जंघा पर पश्चिम में नृसिंह व बुद्ध, उत्‍तर में वामन व कल्कि तथा दक्षिण में वराह व बलराम प्रतिमा है। साथ ही कृष्‍ण लीला के पूतना वध और धेनुकासुर वध के अतिरिक्‍त मिथुन प्रतिमाएं भी हैं। इसके साथ की संरचना जांजगीर के शिव मंदिर तुल्‍य छोटी व सादी, पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर है, जिसके प्रवेश द्वार पर द्वादश आदित्‍य का अभिकल्‍प है।

मल्हार का स्थानीय प्रचलित पातालेश्वर नामक मंदिर, यहां प्राप्त अभिलेख के आधार पर बारहवीं सदी ईस्वी का केदारेश्वर मंदिर, पश्चिमाभिमुख तथा निम्नतलीय गर्भगृह वाला है, किन्तु मंडप की योजना तुमान के सदृश्य है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। आरंग का भाण्ड देउल जगती पर निर्मित भूमिज शैली का, तारकानुकृति योजना वाला जैन मंदिर है।

सरगुजा के त्रिपुरी कलचुरि काल के वास्तु अवशेष मुख्‍यतः डीपाडीह और महेशपुर से प्राप्त हुए हैं, जिनमें मध्ययुग के आरंभिक चरण की पुष्टता और सफाई दिखाई देती है। बस्तर में छिंदक नागवंशियों का केन्द्र बारसूर रहा, जहां विशाल गणेश प्रतिमाएं एवं चन्द्रादित्य, मामा-भांजा, बत्तीसा, बारा खंभा मंदिर तथा पेदम्मा गुड़ी महत्वपूर्ण स्मारक हैं। इस वास्तु शैली में सेउण देश, परमार और काकतीय वास्तु का साम्य दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार नारायणपाल, ढोंडरेपाल और छिन्दगांव के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं, जबकि दन्तेवाड़ा, बस्तर गांव और गुमड़पाल के मंदिर स्पष्टतः द्रविड़ शैली के और काकतीयों से संबंधित माने जा सकते हैं।

कवर्धा के निकट भोरमदेव मंदिर स्पष्टतः भूमिज शैली का फणिनाग वंश से संबंधित अपने प्रकार का सर्वोत्कृष्ट नमूना है, यह परिसर और निकटस्थ क्षेत्र इस वंश के सुदीर्घकालीन गतिविधियों का केन्द्र रहा। ग्राम चौरा स्थित मड़वा महल और छेरकी महल तथा आसपास ही गण्डई, सिली-पचराही, बिरखा-घटियारी, देवरबिजा, धमधा और अन्य स्‍मारक-अवशेष देव बलौदा तक फैले हैं। कांकेर सोमवंश से संबंधित दुधावा बांध के डूब में आया देवखूंट शिव मंदिर, सिहावा का कर्णेश्वर मंदिर तथा रिसेवाड़ा और देवडोंगर के स्थापत्य अवशेष उल्लेखनीय प्रतिनिधि स्मारक हैं।

किरारी गोढ़ी, गनियारी, नगपुरा, शिवरीनारायण आदि स्थानों में भी समकालीन वास्तु कला के महत्वचूर्ण उदाहरण शेष हैं। कुटेसर नगोई, पंडरिया, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी आदि स्थानों में भी स्फुट अवशेष प्राप्त होते हैं। वास्तु कला के परवर्ती उदाहरण सरगांव, बेलपान, रतनपुर, चैतुरगढ़, डमरू, मदनपुर, चन्दखुरी, सहसपुर, आमदी-पलारी, खल्‍लारी आदि स्थलों के स्मारकों और अवशेषों में दृष्टिगोचर होता है। छत्तीसगढ़ में इस क्रम का परवर्ती चरण मराठाकाल में घटित हुआ, जिसके महत्वपूर्ण उदाहरण रतनपुर का कंठी देउल, रामटेकरी मंदिर और रायपुर का दूधाधारी मंदिर है।

छत्तीसगढ़ का विस्तृत उपजाऊ मैदानी क्षेत्र लगभग चारों ओर से पहाड़ियों, नदियों से घिरकर प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित देश का मध्यस्थ हिस्सा है, इसलिए विभिन्न राजवंशों का कालक्रम में स्थायित्व व निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव संचार लगातार बना रहा, इसलिए इस क्षेत्र में राष्ट्रीय धारा के मूल तत्वों का प्रतिबिम्ब तो दिखाई देता ही है, अपनी मौलिकता और विशिष्टता भी सुरक्षित रही है, यही प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के वास्तु कला के विकसित होते, विभिन्न चरणों में देखी जा सकती है और सामान्य धारा की अनुभव सम्पन्न विशेषताओं में क्षेत्रीय और स्थानीय विचारधारा के साथ प्रयोगों का रंग घोलकर, परिणाम में हमारे समक्ष वास्तु कला का भव्य और चमत्कारिक किन्तु आकर्षक और आत्मीय प्रमाण, आज भी विद्यमान है।

(तस्वीर, एक भी नहीं, यह सब तो यहां आ कर और मौके पर जा कर देखें.)

लगभग 15 वर्ष पहले लिए गए मेरे नोट्स पर आधारित लेख का उत्तरार्द्ध, जिसका पूर्वार्द्ध यहां है.

Monday, December 24, 2012

छत्तीसगढ़ वास्तु - I

अनादि, अनंत, असीम और गूढ़। रहस्यगर्भा सृष्टि में प्रकृति- नदी, जंगल और पहाड़, हमारा परिवेश- पूरा दृश्य संसार और जन्मी है मनु की संतान। सृजन की संभावनायुक्त, रचना का बीज जाने कब से पल्लवित-पुष्पित हो रहा है। विचारशील मानव की इसी सृजनात्मकता ने अपनी सहोदरा दृश्‍य-प्रकृति की पृष्ठभूमि के साथ पूरी दुनिया में रचे-गढ़े हैं अपनी विरासत के निशान। अजूबे और विचित्र, कभी कलात्मक तो कभी कल्पनातीत। आदिमानव-पूर्वजों की यही अवशिष्ट वसीयत आज विरासत है, धरोहर है, मनु-संतान की सम्पन्नता है।

हमारे पूर्वज- आदि मानव ने यही कोई चालीस-पचास हजार साल पहले अपने निवास के लिए, प्रकृति के विस्तृत अंक में सुरक्षित और निजी कोष्ठ की तलाश की। पेड़ों पर, पेड़ के नीचे तलहटी में रात बिताने-सुस्ताने वाले मानव को पहाड़ियों की कोख-कन्दरा अत्यंत अनुकूल प्रतीत हुई, और मौसम की भिन्नता से बच कर, सुरक्षित निवास और परिग्रह केन्द्र की पहचान बन कर उसके लिए पहाड़ी गुफाएं अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी साबित होने लगीं, हजारों साल तक यही गुफाएं आखेटजीवी मानव का निवास बनी रहीं। मानव चेतना में वास्तु अथवा स्थापत्य का अभिकल्प, इसी रूप में पूरी दृढ़ता से अंकित है।

कृषिजीवी और पशुपालक मानव पहाड़ी-तलहटी से उतर कर मैदान की ओर बढ़ने लगा, तब उसे वापस अपने निवास- गुफाओं तक लौट कर जाना और पुनः जीवनचर्या के लिए मैदान में आना निरर्थक प्रतीत हुआ, इसीलिए तब आवश्यकता हुई मैदान पर ही अपने निवास रचने-गढ़ने की। आरंभ में लकड़ी, घास-फूस, पत्थर, मिट्‌टी प्राकृतिक रूप से प्राप्त सहज उपादानों का उपयोग कर उसने वास्तु-आवास की नींव रखी। कन्दरावासी मानव के आरंभिक मैदानी आवास, गुफाओं से मिलते-जुलते सामान्य प्रकोष्ठ रहे होंगे। वर्तमान में भी इसी आदिम शैली में जीवन निर्वाह करने वाली 'सबरिया' जाति के कुन्दरा में प्राकृतिक पहाड़ी कन्दरा की स्मृति विद्यमान है।

आरंभिक वास्तु परम्परा के स्फुट प्रमाण ही हमारे देश में उपलब्ध हैं, किन्तु इसका उत्स हड़प्पायुगीन सभ्यता में देखने को मिलता है, जहां व्यवस्थित नगर-विन्यास में ईंटों से निर्मित पक्की बहुमंजिली इमारतें, चौड़ी समकोण पर काटती सड़कें, स्नानागार, अन्नागार का सम्पूर्ण विकसित वास्तुशास्त्रीय उदाहरण- अवशेष प्रकाशित हुआ है। वैदिक ग्रंथों में ज्यामितीय नियमों के साथ देवालयों, प्रासादों का उल्लेख तो आता है, किन्तु इस काल में सभ्यता का व्यतिक्रम है, फलस्वरूप विकसित नगरीय सभ्यता के स्थान पर अपेक्षाकृत अस्थायी वास्तु संरचनाओं वाली सामूहिक निवास की ग्रामीण रीति की सभ्यता का अनुमान होता है।

तत्पश्चात्‌ लगभग ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों ने वास्तुशास्त्र के अधिभौतिक और भौतिक सिद्धांतों पर सूक्ष्मता से गूढ़ विचार कर रचनाएं आरंभ कर दी थीं फलस्वरूप वैदिक साहित्य की पृष्ठभूमि पर पुराण, आगम, तंत्र, प्रतिष्ठा ग्रंथ, ज्योतिष और नीति ग्रंथों के प्रणयन में वास्तु कला संबंधी निर्देश विस्तार से मिलते हैं। साथ ही अपराजितपृच्‍छा, भुवन प्रदीप, मानसार, मानसोल्लास, मयमत, रूपमण्डन, समरांगण सूत्रधार, शिल्पशास्त्र, वास्तुपुरुष विधान, वास्तु शास्त्र, विश्वकर्मा विद्या प्रकाश आदि चौबीस प्रमुख शुद्ध वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों का प्रणयन हुआ। इसके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य महत्वपूर्ण तथा क्षेत्रीय ग्रंथ हैं। इस काल में वास्तु प्रयोगों और उदाहरणों की उपलब्ध जानकारी में अधिकांश स्मारक रचनाएं हैं, जिनमें स्तंभ या लाट और स्तूप प्रमुख हैं।

ईस्वी सन्‌ के पूर्व और पश्चात्‌ के लगभग दो सौ साल, भारतीय इतिहास का अंधकार युग है और इसी काल तारतम्य में संरचनात्मक के बजाय शिलोत्खात वास्तु प्रयोगों के उदाहरण मुख्‍यतः ज्ञात हैं, जिनमें चैत्य, गुहा, विहार की प्रधानता है। वास्तु-शिल्प विकास की वास्तविक प्रक्रिया का नियमित आरंभ, स्वर्ण युग- गुप्त काल में हुआ, जब वैचारिक धरातल पर अत्यंत सुलझे और प्रयोग के स्तर पर व्यवस्थित व सुगठित वास्तु प्रयोगों के परिणाम दिखने लगे, तबसे वस्तुतः वास्तु कला का इतिहास, मंदिरों के निर्माण का ही इतिहास है, जो मध्ययुग तक लगातार विकसित होता रहा।

छत्तीसगढ़ में भी वास्तु कला के स्फुट अवशेष लगभग सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी पूर्व के हैं, जिनमें मल्हार उत्खनन से उद्‌घाटित संरचनाएं हैं। संभवतः राजिम और आरंग के अवशेष भी इसके समकालीन हैं। इसके पश्चात्‌ छत्तीसगढ़ की विशिष्टता मृत्तिका दुर्ग यानि मिट्‌टी के परकोटे वाले गढ़ हैं, किन्तु इन गढ़ों का विस्तृत और गहन अध्ययन अब तक न होने से तथा वैज्ञानिक रीति से उत्खनन के अभाव में इनके कालगत महत्व को प्रामाणिक रूप से स्थापित नहीं किया जा सका है, तथापि वास्तु कला की दृष्टि से वर्तमान में उपलब्ध अवशेष ही तत्कालीन वास्तु प्रयास और मानवीय श्रम की गाथा गढ़ने के लिए पर्याप्त हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में ऐसे गढ़ संख्‍या में, छत्तीस से कहीं अधिक हैं, जो विस्तृत उपजाऊ क्षेत्र हैं। इनमें कही विशाल और ऊंचे प्रकार हैं तो कहीं ये प्राकार रहित हैं और कहीं-कहीं दोहरे प्राकार के प्रमाण भी हैं। कहीं ये वृत्ताकार, कहीं चतुर्भुज, कहीं अष्टकोणीय, कहीं दो द्वार वाले कहीं-कहीं आठ द्वार अथवा बारह द्वार वाले भी हैं, प्रसंगवश अड़भार को अष्टद्वार और बाराद्वार को द्वादश द्वार का अपभ्रंश माना जाता है। परिखा अथवा खाई, इन गढ़ों की सामान्य पहचान है, जिनमें खतरनाक जल-जन्तु छोड़े गए होंगे, आज भी ऐसे कई स्थानों की खाई और तालाबों में मगर पाए जाते हैं।

लगभग 15 वर्ष पहले लिए गए मेरे नोट्स पर आधारित लेख का पूर्वार्द्ध, जिसका उत्‍तरार्द्ध यहां है.