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Saturday, August 13, 2011

आजादी के मायने

आजादी के दूसरे दशक के शुरुआती बरसों में पैदा हुई मेरी पीढ़ी ने जब होश संभाला तब नई संवैधानिक व्यवस्था में दो आम चुनाव हो चुके थे। ऐसी राजनैतिक व्यवस्था से साक्षात्कार हो रहा था, जिसमें लोकतंत्र की ताजी चमक के साथ मुगलिया तहजीब, ब्रिटिश हुकूमत के तौर-तरीकों और देशी रियासतों की ठाट भी दिखाई पड़ती थी। कृषि, उद्योग और अर्थ व्यवस्था जुमले बनकर हावी हो रहे थे। प्रगति-विकास का उफान, उसका वेग और उसकी दिशा ढर्रे पर आ रही थी। आजादी का जज्बा और जोश उतार पर था। आजादी का उत्सव भी सालाना रस्म में बदलने लगा था। 'आजादी' खास घटना की बजाय सहज होकर आदत बन गई। आजादी का वह अर्थ छीज रहा था, जिस तरह पिछली पीढ़ी के प्रत्यक्ष अनुभव में था।

मेरी पीढ़ी आजादी के मायने ढूंढते हुए 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर, जय स्तंभ, गांधी जी के माध्यम से जानने-पहचानने का प्रयास करते हुए पिछली पीढ़ी के संस्मरणों को अनुभूत करना चाहती थी। लेकिन उस उम्र की कच्ची समझ को राष्ट्र और उसकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता संग्राम को समझने के लिए किसी प्रतीक की जरूरत होती। डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी की आरंभिक स्मृति मेरे और शायद मेरी पीढ़ी के बहुतेरों के लिए इसी तरह महत्वपूर्ण है, जिनमें आजादी के ऐसे मायने को सजीव महसूस किया जा सकता था। आमने-सामने चरखा चलाते मैंने पहली बार और एकमात्र उन्हें ही देखा। आजादी की स्फुट जानकारियां और कहानियां सभी एक सूत्र में बंधकर सार्थक होती जान पड़ती थीं- डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के व्यक्तित्व में। वे हमारे लिए आजादी के प्रतीक थे।

बातें पुरानी हैं, उनकी याद से कहीं ज्यादा असर है। बातें अब अच्छी तरह याद भी नहीं हैं। आजादी की उनकी बातों में मुझे क्या जिज्ञासा होती थी यह कुछ हद तक तब समझ पाया जब नरोन्हा जी की आत्मकथा पढ़ी, इसके जिस हिस्से का उल्लेख कर रहा हूं वह स्वतंत्रता के ठीक पहले और बाद प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका और निष्ठा के दृष्टिकोण से है। पुस्तक में जिक्र है कि किस तरह कल के निगरानीशुदा में शुमार अब सम्मानित हो गए। व्यवस्था के विरोधी, व्यवस्था बनाने में जुट गए, अब लगता है कि डॉ. ज्वालाप्रसाद जी की बातों में मेरी यही जिज्ञासा होती कि अपने देश की व्यवस्था तोड़ने और बनाने का द्वंद्व क्या और कैसा होता है। आपात्‌काल, जिसे दूसरी आजादी कहा गया और उसके बाद की स्थितियों को देखने पर अधिक स्पष्ट हुआ कि यह सदैव संदर्भ और व्याख्‍या आश्रित होता है।

डॉ. ज्वालाप्रसाद जी के विशाल व्यक्तित्व में न जाने कितनी चीजें समाहित थीं। सफेद कुरता, धोती और टोपी के साथ उनकी काया में उर्जा, स्फूर्ति और चपलता भरी रहती। स्मरण करने पर लगता है कि मिश्र जी जिन स्थानों, वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और क्षेत्रों से संबंधित रहे उन सबकी झलक उनके व्यक्तित्व से अभिन्न हो गई। मुंगेली के साथ-साथ लिमहा, गीधा, करही जैसे स्थान, अकलतरा में स्टेशन रोड का हरियाली से ढंका भवन और हरी जीप, पारिवारिक और रिश्तेदार सदस्य, जिनकी फेहरिस्त लंबी है, रामदुलारे (मुख्‍य रूप से कम्पाउन्डर, लेकिन जिनके लिए अटैची विशेषण ही उपयुक्त हो सकता है।) चिकित्सा, स्वतंत्रता संग्राम, जेल, चरखा, विवेकानंद आश्रम, यह सब कुछ उनसे अनुप्राणित जान पड़ता।

अकलतरा में आयोजित होने वाली सभाओं की अध्यक्षता बहुधा आप करते थे (अध्यक्ष के रूप में अन्‍य- पं. रामभरोसे शुक्ल जी होते थे)। कार्यक्रमों में विशेषज्ञ आमंत्रित वक्ता और मुख्‍य अतिथि के बाद अंत में जब अध्यक्ष की बारी आती, तो अवसर कोई भी हो, विषय कैसा भी हो आपका वक्तव्य व्यापक ज्ञान और गहन अनुभव के साथ सहज-सुबोध होता था। आपके उद्‌बोधन में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की चर्चा इस तरह से होती कि वह अनुभूत होकर सार्थक और असरकारी होती। लगभग सभी मौकों पर उनकी ही बातें ज्यादा भाती थीं और हम अपने कस्बे पर गौरवान्वित होते। वे अकलतरा में निवास करते थे, किन्तु उनके कार्यक्षेत्र की व्यापकता को मैं उतना ही जान पाया, जितनी सीमित मेरी जानकारी और समझ बनी।

1976 में पढ़ाई के लिए मैं रायपुर गया और दो साल विवेकानंद आश्रम के छात्रावास में रहा। छात्रावास भवन के बीच वाले कक्ष, संभवतः क्र. 5 पर डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के नाम की पटि्‌टका लगी है। यह कक्ष तब अतिथियों के लिए उपयोग होता था। वे रायपुर और आश्रम आते, तब हमलोगों को मिलने के लिए अवश्य बुलवाते और हमेशा प्रेरक, उत्साहवर्धक बातें सहजता से कहते। मुझे यह तब पता चला कि रायपुर रामकृष्ण मिशन, विवेकानंद आश्रम के संचालन में आपकी महती भूमिका रही है। आश्रम के नियम-कायदे सख्‍त थे और अनुशासन बहुत पक्का। आश्रम का माहौल गरिमामय और गंभीर होकर भी खुशनुमा और सहज होता था और इसका कारण निसंदेह स्वामी आत्मानंद जी थे।

इस दौरान आश्रम छात्रावास के वार्डन का एक पत्र डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के पास गया, जिसमें कुछ अन्य बातों के साथ मेरे लिए जिक्र था- बेहतर होगा यदि मैं आश्रम छात्रावास की सख्‍त पाबंदियों के बजाय छात्रावास से बाहर कहीं और रहूं। मेरे अकलतरा पहुंचने पर डॉ. साहब ने बुलवा कर पत्र मुझे सौंपा। वह आज भी सुरक्षित है। उन्होंने मुझसे पूरे विस्तार से आश्रम की व्यवस्था संबंधी जानकारी लेते हुए खुद निर्णय लेने की छूट दी। आश्रम में रहते हुए विभिन्न व्यक्तियों से सहज मुलाकात, आश्रम का पुस्तकालय और वाचनालय, खेलकूद और अन्य गतिविधियों के साथ समय-समय पर स्वामी आत्मानंद जी महराज का सुलभ सानिध्य की बात कहकर मैंने कुछ और समय आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहमति दे दी।

साल भर बाद मैंने जब आश्रम छात्रावास छोड़ने की मंशा उनके सामने प्रकट की, तो कारण की पूछताछ करने लगे, ऐसा लगा कि सहमत नहीं हो रहे हैं, लेकिन पूरी चर्चा करने पर इजाजत मिल गई। यह सब याद आने पर लगता है कि किसी मामले को जिस उदार और खुले ढंग से आप देखते थे, वह कितना अनूठा और दुर्लभ है। अलग-अलग विचारधारा, आयु-वर्ग, जाति-धर्म और व्यवसाय के लोग उनसे जुड़े थे। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार और आस्था का वे सच्चा सम्मान करते, महत्व देते। आप वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। तरल और पारदर्शी व्यक्तित्व के इन गुणों की चर्चा उनके पुण्य स्मरण के साथ होती है।

आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संगठन और नेतृत्व में सक्रिय रहे, लेकिन अंतिम दिनों में उनसे मेरा सीधा सम्पर्क कम रहा इसलिए पारिवारिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति के अलावा अन्य कोई उल्लेखनीय व्यक्तिगत अनुभव या संस्मरण नहीं है। सेनानियों और उनसे जुड़े लोगों द्वारा इस दौर में उनकी अवस्था के बावजूद सक्रियता और कुशल नेतृत्व का स्मरण अब भी किया जाता है।

सन 2009 के आरंभ में प्रकाशित डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) स्मृति ग्रंथ में शामिल मेरा आलेख।