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Thursday, September 8, 2022

गणेशोत्सव पर नदगइहां नाच

रायपुर से प्रति सोमवार और गुरुवार को प्रकाशित होने वाले अर्द्ध साप्ताहिक पत्र ‘राष्ट्रबन्धु‘ में प्रकाशित ‘संत रामदास की वाणी‘ का मुलाहिजा फरमाइए। यह स्तंभ, संभवतः पत्र के संपादकीय विभाग द्वारा लिखा जाता था। नाच, यानि नाचा पर इस संक्षिप्त किंतु गंभीर समीक्षत्मक दृष्टि की सहजता अपने-आप में मानक है, नाचा-गम्मत की चर्चा में ऐसे पुराने महत्वपूर्ण संदर्भ नजरअंदाज हो जाते हैं। उल्लेखनीय कि दाउ रामचंद्र देशमुख ने नाचा की स्थिति से व्यथित हो कर सन 1950 में ‘छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल‘ का गठन किया, जिसका पहला वर्कशाप 1951 में पिनकापार में आयोजित हुआ था। इस संदर्भ और पृष्ठभूमि के लिए प्रासंगिक ‘राष्ट्रबन्धु‘ 25.9.1950 अंक में प्रकाशित टिप्पणी यहां प्रस्तुत-


यदि आप छत्तीसगढ़ के सबसे मनहूस व्यक्तियों में से नहीं हैं तो आपने नदगइहां नाच अवश्य देखा होगा और यदि सचमुच नहीं देखा है तो इस समय अवश्य देख लीजिए। गणेशोत्सव के दिनों में छत्तीसगढ़ के कोने कोने में इस नृत्य और प्रहसन की धूम मच जाती है।
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साहित्य और कला की दृष्टि से नदगइहां नाच किशोर साहू के चलचित्रों से अधिक उत्कृष्ट होते हैं, यदि वे सचमुच शुद्ध देहाती चीज हों तो बनिया पारा के नाटकों से तो वे निश्चय ही अधिक कलापूर्ण होते हैं कि इन खेलों से लगातार हंसी का फवारा छूटते रहता है।
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यथार्थ रूप में कलापूर्ण खेल का आनन्द लेने के लिये आपको शुद्ध देहाती नाच ढूंढ निकालना होगा। आज कल नकली खेलों की भरमार है। रवेली वालों के नाच की हमने बड़ी तारीफ सुनी थी। उसके साथ हम एक बार आधी रात तक जागकर हमें बहुत निराश होना पड़ा। शहरवालों की भद्दी रुचि का लाभ उठाने के लिये ऐसे बेतुके खेल तैय्यार कर लिये हैं खेली वालों ने। जिसमें जीवन की कला सम्पूर्णतः नष्ट हो गई है। समाज की रुचि के संस्कार की ओर भी ध्यान रहना चाहिए।
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सच्चा नदगइहां नाच यदि हमने कहीं देखा तो खैरागढ़ में। चार घंटे बैठ कर मंत्र मुग्ध की तरह पूरे एक दर्जन खेल देख गये। ग्राम-जीवन के प्रत्येक पहलू का और स्वाभाविक चित्र एक के बाद एक सामने आ रहे थे। सरल ग्रामीणों के सरल जीवन के कितने आल्हाद पूर्ण चित्र थे। सुख और दुख, प्रेम और विरह, भय और क्रोध नव रसों की सरस थाली सामने परोस दी गई थी!
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वह विलक्षण कलाकार कौन था? जिसने इन खेलों को जन्म दिया। कुछ लोगों ने हमें बताया कि राजनांदगांव के निकट बसन्तपुर नामक गांव में सुखराम नाम के एक कलाकार ने इन खेलों को चलाया। हमें तो ये कृतियां अधिक पुरानी लगती हैं, और इनका स्रोत भी इतना स्वच्छ है कि शहर की जानकारी रखने वाला व्यक्ति इनका निर्माण करे, यह असम्भव सा लगता है। हो सकता है बसन्तपुर के सुखराम ने इनका विशेष प्रचार किया हो।
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हमने इन खेलों को बनिया पारा के नाटकों से उत्कृष्ट कहकर अतिशयोक्ति नहीं की है। वहां तो वही उन्नीसवीं शताब्दी की नाट्यशैली उपहास प्रद एक्टिंग तथा अस्वाभाविक मुनादी के तरीके पर सम्भाषण अभीतक प्रचलित है। स्टेज और परदे के बन्धन से मुक्त नदगइहां नाच की एक्टिंग की स्वाभाविकता तथा उसके सम्भाषण के सहज प्रवाह मन को मुग्ध कर लेते हैं ।
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यदि इन खेलों के साथ मधुर संगीत और-स्त्री पात्रों के लिये सच्चे स्टार का मेल़ हो तब तो ये सिनेमा घरों के बिकट प्रतिद्वन्द्वी बन जायेंगे।
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