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Monday, July 11, 2022

तद्भव से तत्सम

देखते हुए लगा कि संपादक अखिलेश के सजग सामग्री चयन से इस पत्रिका का जनवरी-2022 अंक ‘तद्भव‘ है, स्वयं उसके लेखक होने के तत्सम में कैसा है, देखने के लिए जैसा शायद अक्सर होता है- ‘चिट्ठी‘ और रचना प्रकिया पढ़ा। ‘एक सतत एंग्री मैन‘ और ‘भूगोल की कला‘ पढ़ कर लगा कि ‘वह जो यथार्थ था‘ भी पढ़नी होगी। पढ़ते हुए नोट्स लेता चला, ताकि अपनी सोच-समझ के साथ पच कर एकरूप न हो जाय, तब तय करना मुश्किल होने लगेगा कि क्या किताब में था, मेरी सोच में आया, कितना किताब की बातों की प्रतिक्रिया थी, घालमेल हुआ या... या... या...। जैसा किताब में आया है, शीर्षक यह भी उपयुक्त हो सकता था- ‘विस्मृति का स्मरण‘ (पहली आवृत्ति: 2015, पेज-99)

संस्मरण श्रेणी की यह पुस्तक कहानी है, जैसा कवर पर है- ‘अपने यथार्थ में बचपन की जीने रचने की एक अद्वितीय कहानी‘। पढ़ते हुए सवाल मन में आता है कि आखिर कोई संस्मरण लिखता ही क्यों है? यहां जितनी याद रही बातें दर्ज हैं, भूली हुई बातें उससे कुछ ही कम होंगी, और वे जितनी कम हैं, उनमें याद आती भूली या भूली को याद न कर पाने, भूली यादों की कैफियत को मिला दिया जाए तो शायद वे उतनी ही हो जाएंगी, जितनी याद रही और दर्ज की गई।

एक परिशिष्ट ‘मैं और मेरा समय‘ स्वतंत्र निबंध है और नौ खंडों में बंटी पुस्तक के ‘तीन‘ का काफी हिस्सा वैचारिक निबंध बन गया है। आगे और भी ऐसा होता गया है, समय-समय पर विचार-स्फुलिंग को सुरक्षित दर्ज रखने के लिए, लिए गए नोट्स को तरतीब देने जैसा लगता है। यह मनोवैज्ञानिक, किसी विशेषज्ञ का नहीं, एक सामान्य संवेदनशील मन, जिसके पास अभिव्यक्त करने के लिए भाषा है, का लेखा है, कुछ-कुछ ऐसा ही खंड ‘पांच‘ में कहा गया है। यथार्थ को पकड़ते, उसके द्वंद्व के साथ पूरा करने, समग्र में देखने का प्रयास, ऐसा बार-बार होता है, है और था के बीच, जैसे खंड ‘चार‘ में आनंद और मनोरंजन में भी। या उसके बाद रचना और स्वप्न में। इससे ‘इतिहास के अभाव में-स्मृति, और भविष्य के अभाव में कल्पना की भूमि बंजर होने लगती है।‘ जैसी महत्वपूर्ण निष्पत्ति आती है।

इसी तरह कुंडी और घंटी की अभिधा ऐसी रची गई है कि वही पाठक के लिए लक्षणा और व्यंजना की संभावना बना दे। साहित्य ने पाठकों की आदत ऐसी बिगाड़ रखी है कि उन्हें ध्यान कराते रहना पड़ता है कि जो पढ़ रहे हैं, अभिधा है, मगर इसीलिए यहां लेखक की सपनों में आवाजाही होती है, नींद वाले सपने, खुली आंखों के और बंद आंखों के जागते सपने। भ्रम और स्वप्न का द्वंद्व। बिगड़ैल पाठक मन तभी लक्षणा-व्यंजना के लिए भटकने लगता है। कवियों, चित्रकारों को याद करते, प्रकाश की बात करते भी वैचारिक अभिधा पर ठहरने का प्रयास है।

अभिधा-आग्रही लेखक इस तरह भी अभिव्यक्त होता है- ‘वकीलों के तख़्तों पर मक्खियों के मल के धब्बे हैं। वकीलों के काले कोट पर भी धब्बे होंगे लेकिन काले रंग में धब्बे छुप जाते हैं। काले कोट ख़ुद बड़े-बड़े धब्बे लगते हैं। तीस वर्षों में तहसील के पाँच धब्बे डेढ़ सौ धब्बों में बदल गए हैं। हमारे देश में धब्बों के पास जबर्दस्त प्रजनन शक्ति है। इसलिए बेतहाशा बढ़ती आबादी से बहुत ज़्यादा प्रतिशत वृद्धि धब्बों की है।‘ (पेज-110) 

खंड ‘चार‘ मनोरंजन का है। आरंभ होता है- ‘क़स्बे में मनोरंजन का कोई नियमित इंतज़ाम नहीं था। यदा-कदा मनोरंजन।‘ से और पूरा होता है- ‘बहरहाल क़स्बे में मनोरंजन की समस्या यथावत् बरक़रार थी।‘ पर। खेल और मनोरंजन, सहज-स्वाभाविक जीवन-चर्या से लगभग अभिन्न होता है। वह आयोजन, मंच पर, परदे पर पहुंच कर जीवन से अलग ‘मनोरंजन‘ होता है। यहां लेखक के लिए अच्छा अवसर था कि वह खाली समय-लेजर और मनोरंजन की द्विधा को टटोलते चलता। समाजार्थिक दृष्टि से माना जाता है कि सभ्यता और समृद्धि, या कहें आर्थिक सामर्थ्य, इसी से तय होता है कि व्यक्ति-समुदाय के जीवन का कितना हिस्सा ‘खाली समय-मनोरंजन‘ का है। मुझे बार-बार लगता है कि आज व्यक्ति गति-सुविधा के साथ टीवी पर खेल और खबरों के लिए समय बचाते व्यस्त है, जिस तरह गृहिणियां को चूल्हे-चौके के धूल-धुएं से मुक्त हो कर भी सीरियल और ओटीटी के लिए ‘टाइम मैनेजमेंट‘ करना होता है।

स्मृति और संस्मरण, सुर मेल बना लेता है आज की दशा से, जहां खंड ‘पांच‘ पूरा होता है। मानों संस्मरण खंड-खंड ‘चितामणि‘ से जुड़ा हो। खंड ‘सात‘ का ईश्वर। बचपन की सरलता को सुलझा हुआ कहना शायद ठीक न हो, क्योंकि सुलझा के लिए तो पहले उलझा हुआ होना होता है, इसलिए उलझने के पहले वाला ईश्वर से सीधा-सहज साक्षात्कार, कुछ अलग ही हो सकता है।

पुस्तक का एक अनूठा अंश, जिसे शब्दशः रखना होगा- ‘स्वप्न में संभव है कि साँप स्वप्नदर्शी को काटे और स्वप्नदर्शी देखे कि उसका शरीर स्याह पड़ने की जगह सोने का हो गया । वह मरने की जगह नैनीताल पहुँच गया और नैनीताल में लाल क़िला है और लाल क़िला का निर्माण मुग़लकाल में नहीं बल्कि चंद्रगुप्त मौर्य के ज़माने में हुआ था जिसकी रक्षा पाषाणकाल के लोग कर रहे हैं और लाल क़िला के भीतर व्हाइट हाउस का दफ़्तर लगा हुआ है जहाँ बाबा सहगल कथक कर रहे हैं और दर्शक कोक की बोतल से रक्त पी रहे हैं कि इतने में एक बड़ा भयानक बम का धमाका होता है। अब आप पाते कि न साँप है न आपका शरीर सोने का है, न व्हाइट हाउस है । आप झुमरी तलैया के एक पेड़ की डाल पर बैठे नीचे पैर लटकाए गन्ने की गँडेरी चूस रहे हैं...‘ (पेज-101)

‘दरअसल क़स्बा अब क़स्बा नहीं रहा, वह शहर का प्रहसन हो गया है।‘ कहते हुए लेखक ‘मैं और मेरा समय‘ में आ जाता है, जो पुस्तक का दूसरा हिस्सा, पहले हिस्से का विपर्यय-सा, या कुछ मायनों में पूरक है, यहां उसे लगता है कि ‘मेरे जीवन में ... न कला फ़िल्मों के दुख हैं, न मसाला फ़िल्मों के सुख।‘ (पेज-116) वह लेखक के जागते रहने को ओवर-रेट, अतिरंजित करता जान पड़ता है, जब कहा गया है कि ‘उसका रुदन-उसका अफ़सोस-उसके जागने के ही कारण है।‘ जबकि यह बस उसकी अभिव्यक्ति के सार्वजनिक हो जाने और साधन-सुविधा के चलते व्यापक हो जाने के कारण है, क्योंकि जो लेखक नहीं, उसकी अनुभूतियां भी ईमानदार, सांद्र और गहरी हैं, वह भी गला-फाड़ चिल्ला रहा है, अपने स्तर पर प्रभावी भी कम नहीं, संभव है कि उसकी बातें ठेठ हों, अनटेम्पर्ड, अनआर्टिकुलेटेड, वैसी अलंकारिक न हों, जैसा महिमामंडित ‘साहित्यिक लेखन‘, मगर ज्यों कहा जाता है, फर्क इतना कि ‘वह माइक से दूर है।‘ जैसा मुक्तिबोध कहते हैं- ‘असल में हमारे वाक्-सिद्ध-साहित्यिक अपने-आपको बहुत ‘प्रकट‘ करते हैं, इस तरह अपने-आपको बहुत छिपाते हैं।‘

इस खंड में देख सकते हैं कि तटस्थ दृष्टि और पूरी समझ के साथ विसंगतियों पर सिर्फ नजर नहीं रखी जा रही, इंगित तर्जनी है और उससे भी आगे बढ़ कर ऊंगली रख दी जाने में भी हिचक नहीं है। मगर ‘इस समय को मुझे जानना... से नया नारा तक नहीं गढ़ा‘ तक पैरा अंश, शायद उदाहरण सहित कहने को आवश्यक मानते हुए लिखा गया है। किंतु समाजिक परिवर्तन के बदलाव पर, पूरे कालखंड को देखते हुए, गंभीर वैचारिक चिंतन को, अल्पकाल सापेक्ष, कुछ संज्ञाओं में सीमित-संकीर्ण कर दिया जाना, उथला हो जाना है। यह भी लगता है कि जिस दल, नेता और विचारधारा का नाम छूट गया, क्या वह जान-बूझ कर छोड़ा जा रहा है, बक्श दिया गया है, वे बेदाग बाइज्जत बरी हैं? ‘तद्भव‘ संपादक के इस लेखन को संपादित करने का अवसर, मुझ पाठक के लिए हो, तो उक्त अंश, निसंदेह इस लेखक के समय का यथार्थ है, बावजूद इसके, हटा कर ‘तत्सम‘ बना रखना चाहूंगा।

‘यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसी रचनाएँ किसी भाषा में कभी-कभार ही संभव हो पाती हैं।‘ अच्छा हुआ कि पुस्तक के लिए लिखे, बैक कवर के इस वाक्य पर मेरी नजर, पुस्तक पढ़ने के बाद पड़ी। पुस्तक खरीदते हुए अलट-पलट कर देखने वाले के लिए ऐसे वाक्य, उसके ग्राहक बनने में सहायक होते हों, मगर मुझ जैसे पाठक के लिए आतंक रचते हैं और ऐसा कुछ किताब के पहले पढ़ लें तो पुस्तक से गुजरते दबाव बना रहता है। खासकर यदि ऐसी किसी बात के साथ कोई नाम न हो। नाम हो तो मान लिया जा सकता है कि यह उसकी राय है, मगर नाम न होने से लगता है कि यह तो इस पुस्तक के साथ स्थापित है, इससे दाएं-बाएं नहीं हुआ जा सकता।साथ ही पुस्तक पढ़ने के साथ नोट्स लेते और पूरी होने पर अपनी यह पाठकीय टिप्पणी लिखने के पहले अगर इस वाक्य को देख लिया होता तो शायद ही किसी प्रतिक्रिया का मन बना पाता।

राधाकृष्ण प्रकाशन की इस पुस्तक के बैक कवर पर उसके बजाय राजकमल प्रकाशन का नाम आया है, जिसे राधाकृष्ण और राजकमल के ‘भेद‘ का पता न हो, वह पुस्तक प्रकाशक तय करने में ठिठकेगा।

Wednesday, June 29, 2022

तद्भव

समसामयिक साहित्य/लेखन का नियमित पाठक कभी-कभार ही, संयोगवश रहा। इस दौर की पत्रिकाएं से भी ताल्लुक न के बराबर है। तब ‘तद्भव‘ का जनवरी 2022 अंक मिला। लगा कि ऐसी अच्छी चीज, बिना शोर-शराबे के, शांति से निभ रही है, जिसे अपना औचित्य और उस पर टिके रहना अच्छे से आता है। रचना चयन से संपादकीय कौशल का अनुमान करना चाहें तो संपादक की क्षमता, धीरज और दृढ़ता देखी जा सकती है। पत्रिका के अंत में लेखकों के मोबाइल नंबर दिए गए हैं, मगर संपादक का नंबर मुझे पत्रिका से नहीं, ‘हिंदी समय‘ से मिला। अंक की सारी सामग्री महत्वपूर्ण है, उनमें से कुछ पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया-


विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ‘जलजोग‘ को दशाश्वमेध घाट की दुकान लिखा है। बनारस की मेरी यादें 1964-65 तक पुरानी हैं और मेरी याद में गोदौलिया की गिरजाघर चौमुहानी और जंगमबाड़ी वाली मुख्य चौमुहानी के आसपास ही कहीं यह दुकान होती थी। लक्सा से आगे बढ़ते मजदा टॉकीज पार कर शायद गिरजाघर चौमुहानी के पहले दायें हाथ की ओर यह दुकान थी। (इस पर बांग्ला में जलजोग लिखा होता था, यह पढ़ लेने पर मुझ जैसे नागरी पढ़ने वाले को भी लगता था कि बांग्ला पढ़ लेता हूं।) इसलिए जिज्ञासा कि क्या 1964-65 के पहले कभी यह दुकान दशाश्वमेध पर थी।

गीतांजलि श्री पर बातें होना शुरु हुईं, अर्पण कुमार ने उसके पहले उनसे बातचीत की थी, जो पत्रकारों वाला साक्षात्कार न हो कर सचमुच बातचीत है। अर्पण कुमार की ओर से बात का जो सूत्र पकड़ा जाता है, वह कितना औचित्यपूर्ण है यह गीतांजलि श्री के जवाब से रेखांकित होता है, उनका सहज लेखकीय व्यक्तित्व भी उस रूप में उभरकर आया है, जैसा संभवतः वे स्वयं चाहेंगी। एक जगह बात छिड़ती है- ‘अक्सरहां अपनी धुन में आप हमें रमी हुई दिखती हैं‘ तो वे कहीं ‘रेत समाधि‘ के लिए बताती हैं कि ‘बरसों लगे उस उपन्यास को पूरा करने में‘ ...। सोशल मीडिया पर बेताबों वाले इस दौर में रचे जा रहे साहित्य में धैर्य और ठहराव की गंभीरता, उसका महत्व, जिस तरह से इस पूरी बातचीत में उभरा है, वह किसी भी व्यक्ति/रचनाकार के लिए प्रेरक हो सकता है।

राहुल सिंह का लेख साहित्यकार का नहीं बल्कि तटस्थ इतिहासकार का लेखा है, शायद यह उनके आलोचक होने के कारण इस रूप में संभव हुआ है। ठेठ किस्म के साहित्यकार शायद ही कोई हों, जो इस सजगता से, स्रोतों के समुचित उपयोग और आधार पर बात स्थापित करें, जिसमें व्याख्या की वह दृष्टि हो, जो संभावनाओं के लिए जगह बचाए रखती है। वे जिस शोध परियोजना पर काम कर रहे हैं, निसंदेह वह गंभीर परिणाममूलक होगा। उन्होंने भूमि व्यवस्था को पूरे परिप्रेक्ष्य, यानि इतिहास, संस्कृति और तत्कालीन राजनैतिक-प्रशासनिक संदर्भों के साथ रख कर देखा है, इस पर आया निष्कर्ष आवश्यक नहीं कि सहमति योग्य हो, मगर स्पष्ट-तार्किक होने के कारण मील का पत्थर होगा।

अनुपम ओझा के फिर सियरा... में ऐसा सच्चा और ईमानदार लोक है, जहां न तो नैतिकता का आडंबरी आग्रह होता और न उसकी खास परवाह ही। चित्तू पंडित के साथ यह बात है और चूंकि वे नायक हैं, इसलिए उनमें घनीभूत है, मगर पूरा समाज भी बेपरवाह है, उनके या ऐसे किसी भी चरित्र के प्रति। मुखर और अधिक प्रकट यही प्रवृत्ति, स्थिति और घटनाएं, जहां बस आई-गई होती हैं, मगर शायद यही वजह है, समाज-लोक की गतिशीलता, जीवंतता का। आदर्शों को रेखांकित करने, उभारने का यह भी एक तरीका है कि उन गलित-पलित की बातें करें, वही हास्यास्पद, कुछ समय बात त्रासद का असर पैदा कर देता है। रेणु, राग दरबारी से लपूझन्ना तक के सफर के साथ और उसके बाद, ऐसा लेखन, अभिव्यक्ति की अपनी ताजगी सहित पठनीय तो है ही, महत्वपूर्ण भी कम नहीं।

इस कहानी में आता है- ‘समत झरोखा बैठ कर जग का मुजरा लेय।‘ थोड़ी गड़बड़ की ‘समझ झरोखा‘ पत्रिका ने, कि लोगों ने समत को समझ मान लिया। और समत शब्द जिनके लिए अजनबी था, सुधार लिया ‘राम झरोखा...‘। समत मैंने सुन रखा था, मगर थाह न पा सका था, परिचितों से बात होने लगी, पता लगा कि समत का अर्थ है, होलिका की आग, सम्मत या संवत? (नेट पर 'समत' का अर्थ ‘न्याय, शांति, दया‘ मिला और अरबी 'सम्त' यानि दिशा, ओर, तरफ़, रास्ता, दिशा की ओर, सरल मार्ग) कहा जाता है- ‘जिये तो खेले फाग, मरे ओ कर लेखा लाग।‘ स्पष्ट है- साल का अंत, नये साल में फिर अगली होली होगी, तब तक जीते रहे तो फाग खेलेंगे और वह तो मरा, जिसका लेखा चित्रगुप्त के खाते में लग गया। कबीर अपना घर बारने और लुकाठी हाथ में ले कर चलने का आह्वान करने वाले हैं, वही ऐसा प्रयोग कर सकते हैं, जिसकी व्याख्या बूझे तो सहज, वरना दुरूह। समझ-समझ का फेर। विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध ‘होरहा‘ में ‘सम्मति मैया‘ (संवत् माता) का उल्लेख करते हैं। बताने-बुझाने के लिए अनुपम ओझा जी और डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद जी का आभार।

हिलाल अहमद का लेख स्थायी महत्व का है। किसी के साथ आस्तिक-नास्तिक, धर्म-निरपेक्ष, अनास्थावादी, धर्मांध जैसे फिजूल विशेषण लगा देने में कितनी सनक और बेताबी होती है, यह इस लेख में बिना ढोल-ढमाके रेखांकित हुआ हैै। किसी धर्म का मानने वाला, कोई भी धर्मप्राण उनके इस लेखन में अपनी आवाज पा सकता है।