अंग्रेजी का शब्द है लेगैसी, जिसका अर्थ, पैतृक संपत्ति होता है और बोलचाल में बपौती। इन दिनों संस्कृति विभाग, बपौती के लिए चर्चा में है। इसलिए प्रसंगवश कुछ बातें याद आ रही हैं। संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थापित-संचालित है और यह लगभग 150 साल पुरानी संस्था, हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के साथ सरकार को जोड़े-जुड़े रहने का केन्द्र है। इसलिए संस्कृति विभाग और यह संग्रहालय, दोनों एक-दूसरे के पर्याय की तरह देखे जा रहे हैं।
यहां इस भवन-संस्था की परंपरा, इतिहास और ‘बपौती‘ पर कुछ बातें। रायपुर शहर का एक पुराना नक्शा सन 1868 का है, जिसमें वर्तमान महाकोशल कला वीथिका, अष्टकोणीय भवन को म्यूजियम दर्शाया गया है। उस भवन के साथ एक शिलालेख हुआ करता था, जो अब वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय के प्रवेश पर लगा है। इसमें लेख है कि ‘सन् 1875 ईसवी में तामीर पाया बसर्फे महंत घासीदास रईस नांदगांव‘। यह छत्तीसगढ़ के गौरव का अभिलेख है।
देश में सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना जाता है।
इस संग्रहालय का एक खास उल्लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। इस संस्था का पूरा क्षेत्र, मूलतः वर्तमान परिसर के अतिरिक्त गुरु तेग बहादुर संग्रहालय व हॉल, साक्षरता बगीचा, भी था। सन 1956 में मध्यप्रांत और बरार का पुनर्गठन हुआ और मध्यप्रदेश बना। इस नये प्रदेश के शासकीय डेढ़ मुख्यालय रायपुर में हुआ करते थे। एक संचालनालय ‘भौमिकी एवं खनिकर्म‘ और संचालनालय ‘पुरातत्व एवं संग्रहालय’ का आधा हिस्सा, संग्रहालय, रायपुर में रहा। रायपुर संग्रहालय में तब बंटवारे के फलस्वरूप, मध्यप्रदेश हिस्से के और विशेषकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पुरावशेष, जो नागपुर संगग्रहालय में थे, रायपुर संग्रहालय में आ गए। आज भी संग्रहालय में जबलपुर-कटनी अंचल के कारीतलाई, बिलहरी की कलाकृतियां संग्रहित, प्रदर्शित हैं। पूरे देश में मिलने वाले सिक्कों के दफीने का एक निश्चित हिस्सा बंटवारे में इस संग्रहालय का मिलता था।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंद कृष्ण जी रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए।
इस संस्था को पुरातत्व, संगीत, साहित्य, कला के मर्मज्ञ संस्कारित करते रहे हैं। देश के मूर्धन्य विद्वान शोध-अध्ययन, संगोष्ठी, प्रदर्शन के लिए यहां पधारते रहे हैं, जिनकी उपस्थिति से यह संस्था संस्कारित होती रही है, जो अब क्षीण हो रही है। स्थानीय महानुभावों में सर्व आदरणीय रामनिहाल शर्मा, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, लक्ष्मीशंकर निगम, गुणवंत व्यास, वसंत तिमोथी, सरयूकांत झा, केयूर भूषण, बसंत दीवान, पीडी आशीर्वादम, राजेन्द्र मिश्र, यदा-कदा विनोद कुमार शुक्ल जैसे नाम हैं, जिनका रिश्ता इस संस्था से बना रहता था। वे संस्था की बेहतरी के लिए पहल करते थे और बदले में उनकी पूछ-परख होती थी। राज्य गठन के बाद अपने रायपुर प्रवास पर हबीब तनवीर इस संस्था के लिए समय अवश्य निकालते थे, जिनकी जयंती मनाए जाने के प्रसंग में ‘बपौती‘ की अवांछित स्थिति चर्चा में है।
इस संस्था से जुड़े विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। विभाग के कई अल्प वेतन भोगी सदस्य रहे हैं, जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश, चंदराम, कमल, लताबाई, फेंकनबाई, तिरबेनी बाई ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने इस संस्था की परवाह, अपनी बपौती से भी अधिक मान कर की है, इसे सहेजा है।
रायपुर संग्रहालय के पुरावशेषों का पिछले कई वर्षों से वार्षिक भौतिक सत्यापन, पंजियों-नस्तियों के आधार पर नहीं हुआ है, जो संग्रहालय प्रबंधन की बुनियादी आवश्यकता है। राज्य के 150 वर्ष पुराने इस संग्रहालय से वस्तुएं गुम होने की शिकायत विभाग के अधिकारियों द्वारा हुई है, इसके बावजूद भी इसकी जांच एवं भौतिक सत्यापन नहीं कराया जा सका है। उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में 15000 से भी अधिक बहुमूल्य पुरावशेष संग्रहित हैं, जिनकी ठीक पहचान और मिलान के लिए वर्तमान में कुछ ही पूर्व अधिकारी और विशेषज्ञ रह गए हैं, जो इसकी भरोसेमंद ढंग से पहचान और पुष्टि कर सकते हैं।
देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक रायपुर का यह महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय अब तक इंटरनेशनल कौंसिल आफ म्यूजियम्स, इंडिया (आइकॉम) का सदस्य नहीं है। राज्य के पुरातत्व और प्राचीन कला-संस्कृति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियमित और प्रभावी उपस्थिति के लिए यह आवश्यक है, जिसके अभाव में अत्यंत महत्वपूर्ण और पुरानी संस्था होने के बावजूद भी यह संग्रहालय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान में पिछड़ जाता है। आइकॉम, इंडिया की सदस्यता, संक्षिप्त कागजी औपचारिक कार्यवाही से ली जा सकती है, इसमें कोई वित्तीय प्रशासकीय अतिरिक्त भार नहीं होगा।
वर्तमान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व तथा संस्कृति भवन (कुछ वर्षों से ‘गढ़ कलेवा‘ वाला!) के रूप में जाना जाता है। ध्यान रहे की मूर्तियां मौन होती हैं, शिकायत नहीं करतीं, इसलिए उनकी देखरेख के लिए अधिक संवेदनशीलता, समझ और खुली-सजग निगाहों की जरूरत होती है। अपनी जिम्मेदारियों के सम्यक निर्वाह के लिए यह पता रहना और याद करते रहना आवश्यक होता है कि हम किस विरासत-लेगैसी के धारक-संवाहक हैं, इसकी गुरुता ही कर्तव्य-निर्वाह का उपयुक्त मार्ग प्रशस्त करती है। यह संग्रहालय-संस्कृति भवन, राज्य के साथ हम सबकी ऐसी बपौती है, जिसे यथासंभव बेहतर बना कर और नहीं तो कम से कम यथावत, अगली पीढ़ी को सौंपने की परवाह बेहद जरूरी है।
यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़‘ सांध्य दैनिक अखबार में 16 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुआ।