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Wednesday, March 4, 2020

पितृ-वध

‘पितृ-वध‘ शीर्षक, आशुतोष भारद्वाज की उस पहचान के अनुरूप है, जिसमें उनकी पैनी, स्पष्ट असहमतियां और स्थापनाएं एकबारगी चौंकाती हैं। अपनी स्थापनाओं के पक्ष में वे किसी मनोवैज्ञानिक के बजाय दोस्तोयवस्की के लेखन से ले कर शास्त्र वाक्य ‘‘पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूं।‘‘ तक उद्धृत करते हैं। ‘‘वध में वैधानिकता का भाव है‘‘ कहते हुए भीष्म, शंबूक और जयद्रथ वध के क्रम में नाथूराम गोड़से द्वारा अपने कृत्य को ‘गांधी-वध‘ कहे जाने का उल्लेख करते हैं। ‘‘एक पुरुष का अपने पिता के साथ जो द्वन्द्वात्मक संबंध होता है वह शायद मां के साथ नहीं है, और चूंकि मैं हूं तो पुरुष ही इसलिए अपने पूर्वजों के साथ रचनात्मक संघर्ष मेरे भीतर पिता के रूपक में ही दर्ज हुआ है?‘‘ का सवाल भी उठाते हैं, जिसका जवाब ‘नहीं‘ पुस्तक में आगे आ जाता है।

स्वर, स्मृति, संवाद और समय शीर्षक खंडों में से ‘एक: स्वर‘ में श्रीकांत वर्मा हैं, जिनकी रचनाधर्मिता के लिए कही गई बात खुद कवि पर लागू हो सकती है- ‘‘जो कविता खुद अपना विषय भी हो, पूरक, विलोम और शत्रु भी, वह न सिर्फ आत्म-रत है, बल्कि आत्म-हन्ता भी।‘‘ मुक्तिबोध में स्त्री की अनुपस्थिति रेखांकित करते हुए आशुतोष, एकाकीपन की भूमिका बनाते दिखते हैं। वे अशोक बाजपेयी के लिए उदार हैं तो अज्ञेय के प्रति निर्मम। ‘‘एक लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फर्क है।‘‘ कहते हुए निर्मल वर्मा की कड़ी के साथ आशुतोष, अज्ञेय को 'मेरे पितामह' मानते हैं, लेकिन पितृ-वध का खास खुलासा यहां होता है, जब वे बिना पूर्वाग्रह के चाहते हैं कि ‘‘इस कथाकार से कोई, दूर का ही सही, संबंध जोड़ पाऊं, लेकिन नहीं।‘‘ संदेह नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति पितृ-वध को सूक्ष्म, किसी न किसी रूप में न सिर्फ स्वयं में घटित होता महसूस करता है, औरों को भी दिखता है, उम्र के साथ खुद में खुद को मरते और पिता को पनपते देखना, अनहोनी नहीं है।

‘स्वर‘ खंड के अन्य चार निबंध, भारतीय साहित्य की स्त्री पर हैं। आमतौर पर स्त्री की योनिगत भिन्नता, मातृत्व, यौनिकता जनित लाचारी और उससे जुड़कर कभी शोषण, कभी अधिकार ही ’विमर्श’ में होता है। ‘केवल श्रद्धा‘, ‘आंचल में दूध, आंखों में पानी‘, अबला-सबला, दुर्गा-चंडी, होते हुए ‘तिरिया जनम झनि दे‘ तक रह जाता है। किन्तु यहां इन निबंधों में, जैसा अपेक्षित था, थोथी ‘विमर्श-पूर्ति‘ नहीं है, व्यापक सर्वेक्षण और विश्लेषण-चिंतन करते स्त्री को बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की संवेदनायुक्त होमो सेपियंस की तरह देखा गया है। नर से उसकी लैंगिक भिन्नता को नजरअंदाज कर, समग्र जीव मानते। एकदम अलग लेकिन सच को उजागर करने का वह पहलू, जिसे अब तक शायद ठीक से स्पर्श भी नहीं किया गया था। यहां उससे अलग बहुत कुछ है, उसका भय, उदासी, चिंता, भाव में कायिक कारक न के बराबर हैं, इससे स्त्री का भिन्न आयाम उभरा है, उसका फलक विस्तृत हुआ है।

इस दौर का खासकर गद्य का युवा पाठक-लेखक प्रेमचंद, छायावाद और बांग्ला लेखकों को पढ़ता है, संदर्भ के लिए इस्तेमाल भी करता है, लेकिन अधिकतर प्रभावित होता है मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती से। ऐसा यहां भी है। खंड ‘दो: स्मृति‘ में आशुतोष का निर्मल वर्मा से मिलना, बात करते हुए उन्हें पढ़ा होना और याद करना, लेखक-पाठक को पूरा करने में किस तरह भूमिका निभाता है, देखने लायक है। हिन्दी पाठकों के बीच अनजान से, समकालीन दार्शनिक रामचन्द्र गांधी ‘‘एक ऐसा अनुभव जो अपने मिथकीय व्योम में महाकाव्य हो जाना चाहता है।‘‘ से लेखक का संपर्क-संस्मरण, महाकाव्य के व्यापक संदर्भों से आत्मीय परिचित होने और आत्मसात करने के लिए आकर्षित करता है।

‘‘किसी लेखक को समझने के लिए उससे मिलना जरूरी थोड़े है‘‘ उद्धृत कर, खंड ‘तीन: संवाद‘ में कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती से अपनी मुलाकात-बात को गंभीर इन्द्राज बना कर, इस उद्धरण का नकार, रोचक है। खंड ‘चार: समय‘ डायरी है। रचनाकार की डायरी, दैनंदिनी से अलग और अधिक, वह नोटबुक, जो पाठक, प्रकाशक, बाजार से अपेक्षा-मुक्त है। वैद फेलो आशुतोष की डायरी के साथ, वैद की प्रकाशित डायरी-पुस्तकें याद आती हैं, जिन्हें पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता कि मैं यह क्यों पढ़ रहा हूं, लेकिन छोड़ नहीं पाता। वहीं मैं ‘कुकी‘ जैसे अनूठे चरित्र से परिचित हुआ, ‘दिल एक उदास मेंडक‘ जैसा दुर्लभ वाक्य वहां मिला, और वैद की स्वीकारोक्ति कि ‘‘यह सम्पादन इसलिए भी कि सब कुछ किसी को भी बताया नही जा सकता, अपने आपको भी नहीं।‘‘ आशुतोष की डायरी का 19 मार्च 2015, जो मेरे लिए खास है, वह अंश- ‘‘आज राहुल सिंहजी से उनके दफ्तर में मिला। बड़े कमजोर से लगे। उनके चेहरे की चमक और आवाज में चहक गायब थी। उनसे पूछा तो वे बोले‘ ‘जब मैं किसी मंत्री से मिलने जाता हूं, हारा और पिटा हुआ दिखने की कोशिश करता हूं, दासता के बोझ से दबा। गुलामी का भाव। ... ... ...‘‘ यहीं उन्होंने मेरी पुस्तक में मेरे परिचय का अंश, ‘‘सरकारी मुलाजिम, नौकरी के चौथे दशक में मानते हैं कि इससे स्वयं में दासबोध जागृत करने में मदद मिली है।‘‘ भी उद्धृत किया है। संयोग ही है कि लगभग डेढ़ साल पहले उपजी और साल भर पहले छपी मेरी रचना ‘एक थे फूफा‘, जिसमें यह परिचय है, का नायक भी अपने तरह से पितृ-वध करता है।

समग्रतः परम्परा की समष्टि में समाहित होते स्व को बचाए रखने का उद्यम है ‘पितृ-वध‘, जिसमें लेखक अपनी जगह तलाशते हुए पितर में मातर-स्त्री को शामिल कर, संवाद करते हुए एकाकी-एकांत ढ़ूंढ़ता है, अलग तरह का ‘सन्नाटा बुनता‘ है और पाठक को अपने नितांत निजी ‘डायरी‘ तक ले आता है। अस्तित्ववादी घोषणा ‘ईश्वर-परमपिता मर चुका है, हम लोगों ने उसे मार डाला है‘ जैसा ही कुछ-कुछ है यह ‘पितृ-वध‘, जिसमें सारे मुकाबले, अकेले हमारे हैं, इसलिए अब ‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता‘ में कोई महेश्वर नहीं है, द्रष्टा-कर्ता-भोक्ता, सारी जवाबदारी अपनी है।

आलोचना के लिए जरूरी पैनापन, समृद्ध संदर्भ और अंतर्दृष्टि तो लेखक में है, उसकी सजगता में सूझ है, लेकिन कहीं बूझ के लिए आंखें बंद करना जरूरी होता है, वह गुडाकेशी आशुतोष को मंजूर नहीं दिखता। यह पुस्तक, लेखक के भारतीय उपन्यास, आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर आने वाले मोनोग्राफ के लिए अपेक्षा जगाने वाली है, जिसमें उम्मीद है, अधिक गहरी अंतर्दृष्टि सहजता से तल पर उभरेगी। बहरहाल राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. और रज़ा फ़ाउण्डेशन के सह-प्रकाशन वाली आशुतोष भारद्वाज की यह आलोचना पुस्तक, सोचने के लिए ऐसी जमीन बना कर देती है, जिसे समय-समय याद करते, खोलते रहना हो, इसलिए बुक-शेल्फ वाली जरूरी पुस्तक है। डेविड अल्तमेज्द के चित्र को आवरण पर महेश वर्मा ने संजोया है, जिसमें पुस्तक की तरह परम्परा की मिट्टी का वजन है, तो मौलिकता की ताजी सार्थक लकीरें भी।