Showing posts with label राकेश तिवारी. Show all posts
Showing posts with label राकेश तिवारी. Show all posts

Tuesday, July 15, 2025

साहित्य, कला, संस्कृतिधर्मी सूची

कला-साहित्य से जुड़े छत्तीसगढ़ के महानुभावों की एकत्रित जानकारी-सूची की तलाश होती रहती है। मेरी जानकारी में ऐसे कुछ संग्रह हैं, जिनका परिचय यहां है- 


छत्तीसगढ़ के माटी चंदन‘ छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह, चित्रोत्पला लोककला परिषद्, रायपुर म.प्र. द्वारा, नगर निगम, रायपुर के सहयोग से 1996 में प्रकाशित हुई, जिसके संपादक राकेश तिवारी हैं। 136 पेज की इस पुस्तक की भूमिका हरि ठाकुर जी ने लिखी है। पुस्तक में 128 कवियों का सचित्र परिचय उनकी प्रमुख कविता सहित दिया गया है। 

साहित्य-संस्कृति-निदर्शनी, संदर्भ छत्तीसगढ़‘ का प्रकाशन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, संस्कृति विभाग के अंतर्गत (छत्तीसगढ़ शासन) 2007 में हुआ। 198 पेज की पुस्तक के संपादक मंडल में बबनप्रसाद मिश्र, पी. अशोक कुमार शर्मा और के.पी. सक्सेना ‘दूसरे‘ का नाम है तथा सहयोग में तुंगभद्र राठौर, डॉ. तपेश चन्द्र गुप्ता, संजय सिंह ठाकुर, हितेशकुमार साहू, अरविंद साहू, किशोर ठाकुर, रामेश्वर वैष्णव, हेमंत माहुलिकर, विकास जोशी, सतीश देशपांडे, सतीश मिश्र, विपीन पटेल हैं। 

इस पुस्तक के पेज-47 पर हमारे गौरव में 54 नामों की सूची इस प्रकार है- 
1) महाप्रभु वल्लभाचार्य, 2) गुरु घासीदास, 3) गोपालचन्द्र मिश्र, 4) माधवराव सप्रे, 5) बन्सीधर पाण्डे, 6) वीरनारायण सिंह, 7) पं. रविशंकर शुक्ल, 8) ठाकुर प्यारेलाल सिंह, 9) डॉ. खूबचन्द बघेल, 10) बैरिस्टर छेदीलाल, 11) पं. सुन्दरलाल शर्मा, 12) ठाकुर जगमोहन सिंह, 13) लोचनप्रसाद पाण्डेय, 14) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, 15) चन्दूलाल चन्द्राकर, 16) लाल प्रद्युम्न सिंह, 17) पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, 18) मुकुटधर पाण्डेय, 19) गजानंद माधव मुक्तिबोध, 20) बल्देवप्रसाद मिश्र, 21) बाबू रेवाराम, 22) राजा लक्ष्मी निधि राय, 23) पं. हीरालाल काव्योपाध्याय, 24) हरि ठाकुर, 25) लखनलाल गुप्ता, 26) नारायण लाल परमार, 27) जगन्नाथ प्रसाद भानु, 28) कोदूराम दलित, 29) डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, 30) पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र, 31) भगवती सेन, 32) बद्रीविशाल परमानंद, 33) मिनीमाता, 34) यति यतन लालजी, 35) महाराजा प्रवीरचंद, 36) पं. विष्णुकृष्ण जोशी, 37) दाऊ कल्याण सिंह, 38) महन्त लक्ष्मीनारायणदास, 39) महन्त वैष्णवदास, 40) धर्मदास, 41) स्वामी आत्मानंद, 42) समर बहादुर सिंह, 43) श्रीकांत वर्मा, 44) गुलशेर अहमद शानी, 45) डॉ. प्रमोद वर्मा, 46) मायाराम सुरजन, 47) देवदास बन्जारे, 48) डॉ. अरुणकुमार सेन, 49) रम्मू श्रीवास्तव, 50) स्व. राम चंद्र देशमुख 51) स्व. छेदीलाल पाण्डेय, 52) डॉ. हनुमन्त नायडू, 53) स्व. नंदूलाल चोटिया, 54) स्व. लतीफ घोंघी. 

इस पुस्तक में साहित्यकार शीर्षक अंतर्गत रायपुर के 266 नाम, भिलाई-दुर्ग के 181, राजनांदगांव के 45, महासमुंद के 31, पिथौरा के 6, महासमुंद के 22 नाम, धमतरी के 48, कबीरधाम के 11, कांकेर के 6, बिलासपुर के 92, जगदलपुर के 27, जांजगीर-चांपा के 26, कोरबा के 68, कोरिया के 7, अम्बिकापुर के 31, रायगढ़ के 56 तथा जशपुर के 5 नामों की सूची है। 

संगीत विधा शीर्षक अंतर्गत रायपुर, बिलासपुर और कोरबा के 12 नामें की सूची है। 

पत्रकारों की सूची अंतर्गत रायपुर के 105 नाम, पुनः 137 नाम हैं। एजेंसियां शीर्षक अंतर्गत 12 नाम, राष्ट्रीय समाचार पत्र में 11 नाम, प्रादेशिक समाचार पत्र में 10 नाम हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के 33, प्रेस फोटोग्राफर- 21, कार्टूनिस्ट- 8 नाम हैं। बिलासपुर के पत्रकार शीर्षक अंतर्गत 218 नाम, मीडिया के 28 नाम हैं। रायगढ़ के पत्रकार में 17, जशपुर- 5, कवर्धा- 19, महासमुंद- 4, बागबाहरा महासमुंद- 7, भिलाई के 86, दुर्ग जिला के 43, तथा राजनांदगांव के 35 नाम हैं। बिलासपुर संवाददाता शीर्षक अंतर्गत के 13 नाम हैं। कोरबा जिले के पत्रकारों की सूची में 38 नाम, जांजगीर-चांपा समाचार पत्रों के प्रतिनिधि- 13, जिला जनसंपर्क कार्यालय जांजगीर-चांपा- 1, जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों के संपादक- 6, रायगढ़ में अन्य दैनिक समाचार पत्रों, एजेंसियों के प्रतिनिधि- 20, धमतरी जिला के पत्रकार-9, अम्बिकापुर जिला के पत्रकार-6, पिथौरा-5, सरायपाली-5 नाम हैं। 

शासकीय कार्यालयों में से जनसंपर्क संचालनालय-25 नाम, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व-11, छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल-9 नामों की सूची है। 

रंगमंच शीर्षक अंतर्गत 361 नाम, कलाकारों का नाम शीर्षक अंतर्गत 716 की सूची है। चित्रकारी शीर्षक अंतर्गत 19, राज्य के बाहर के प्रसिद्ध कलाकार में 48 नाम हैं। शिल्पकारों की सूची एवं पता शीर्षक में धातु शिल्प- 59, लौह शिल्प 45, पाषाण शिल्प 4/5, काष्ठ शिल्प 35, गोदना शिल्प 4, मृदा शिल्प 30, ढोकरा शिल्प 10 नाम हैं। 

पुस्तक के पेज 192 से 198 तक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की भिलाई के सृजनपीठ केन्द्र में रखी प्रतिमा के तथा पीठ के आयोजनों के छायाचित्र हैं।

000 

थरहा, छत्तीसगढ़ की भाषा एवं संस्कृति की साहित्यिक धरोहर, संकलन नरेन्द्र वर्मा, (संपर्क फोन-9425518050) ऋषभ प्रकाशन, भाटापारा से 2014 में प्रकाशित हुई है। अपनी बात में लिखा है- 

‘इस दुष्कर कार्य में मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे अग्रज श्री शिवरतन जी शर्मा विधायक भाटापारा एवं मेरे श्वसुर डॉ. टेकराम वर्मा। श्री रघुनाथ प्रसाद पटेल भाटापारा, श्री लूनेश वर्मा रायपुर, श्री रविन्द्र गिन्नौरे भाटापारा, श्री संजीव तिवारी दुर्ग, डॉ. बलदेव रायगढ़, श्री संतराम साहू भाटापारा, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पं. दानेश्वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ. सुरेन्द्र दुबे, श्री उमेश मिश्रा, श्री आदर्श दुबे, सुषमा गौराहा, श्री लामेश्वर उरांव, श्री लोकेन्द्र वर्मा, डॉ. विनय पाठक बिलासपुर, श्री चेतन भारती रायपुर, सुधा वर्मा रायपुर, नीलिमा साहू रायपुर, श्री महावीर अग्रवाल श्री प्रकाशन दुर्ग, श्री चन्द्रशेखर चकोर रायपुर, श्री हरिश्चंद्र वाद्यकार बिलासपुर, श्री बुधराम यादव बिलासपुर, श्री अरूण कुमार यदु बिलासपुर, श्री गिरधर गोपाल, देशबन्धु लायब्रेरी (मायाराम सुरजन फाऊंडेशन रायपुर द्वारा संचालित), पं. रविशंकर वि. वि. रायपुर के श्री अहमद अली खान, श्री भगवानी राम साहू सवपुर, श्री डी. पी. देशमुख दुर्ग, श्री संतोष कुमार चौबे मारो, श्री सुशील भोले रायपुर, श्री सुशील यदु रायपुर का पुस्तक निर्माण में सहयोग हेतु विशेष आभारी हूँ। डॉ. सुधीर पाठक अंबिकापुर, श्री मंगत रविन्द्र कापन, श्री हरिहर वैष्णव कोण्डागांव, श्री धनराज साहू बागबाहरा, श्री रामनाथ साहू देवरघटा (डभरा), आप सभी ने मुझे जानकारी उपलब्ध कराई, आप लोगों का विशेष धन्यवाद। समाचार पत्रों में देशबन्धु, नवभारत, दैनिक भास्कर, समवेत शिखर, हरिभूमि, पत्रिका, अमृतसंदेश, पत्रिकाओं में छत्तीसगढ़ी सेवक, छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर, बरछा-बारी, वेव पत्रिका गुरतुर गोठ डॉट कॉम का भी विशेष आभारी हूँ। श्रीमती गीता-अनिल अग्रवाल, श्रीमती लक्ष्मी-रामकुमार स्वर्णकार, श्रीमती गीता-गजानंद सेलोटे, श्री अजय ‘‘अमृतांशु‘‘, माता श्रीमती इन्दु वर्मा, पिता श्री माधो प्रसाद वर्मा, पत्नी श्रीमती विद्या वर्मा (श्रीमती तीर्थ कुमारी वर्मा) बहन श्रीमती प्रमिला-गणेशराम वर्मा, बहन श्रीमती निर्मला-बृजराज वर्मा, अनुज श्री सुरेन्द्र दमयन्ती वर्मा, अनुज श्री विरेन्द्र-किरण मानसरोवर, सुपुत्र ऋषभ वर्मा, प्यारी बिटिया धात्री वर्मा, ओजस्विता वर्मा एवं इष्ट मित्रों का भी आभारी हूँ, जिनके सहयोग से इस पुस्तक ने मूर्त रूप लिया। 

प्रथम सूची, पुस्तकों के नाम हिन्दी वर्णक्रम के अनुसार, जिसके अंतर्गत क्रमांक 1 से 1543 तक, प्रकाशन वर्ष, पुस्तक का नाम, लेखक का नाम, प्रकाशक, मूल्य और पृष्ठ, स्तंभों में जानकारी संकलित की गई है। क्रमांक 1544 से 1558 तक डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में हिन्दी पद्य साहित्य तथा 1559 से 1581 तक हिन्दी साहित्य गद्य संकलित है। 

द्वितीय सूची, साहित्य की विधाओं के अनुसार, जिसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी निबंध संकलन- 18, छत्तीसगढ़ी नाटक- 35, छत्तीसगढ़ी एकांकी- 10, छत्तीसगढ़ी उपन्यास- 26, छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह- 49, छत्तीसगढ़ी लघु कथा संग्रह- 3, आत्मकथा- 1, संस्मरण- 2, व्याकरण- 16, छत्तीसगढ़ी शब्दकोश- 12, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 12, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 3, छत्तीसगढ़ी व्यंग्य- 9, छत्तीसगढ़ी हाना/कहावत/लोकोक्तियां- 10, छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश- 4, छत्तीसगढ़ी वर्ग पहेली- 1, छत्तीसगढ़ी चुटकुले- 1, चिकित्सा- 2, साहित्यकारों की डायरेक्टरी- 1 है। 

आगे छत्तीसगढ़ी पद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह- 261, छत्तीसगढ़ी खंड काव्य- 43, छत्तीसगढ़ी महाकाव्य- 3, छत्तीसगढ़ी भक्ति गीत- 26, छत्तीसगढ़ी काव्य नाटिका- 2, छत्तीसगढ़ी लंबी कविता- 6, छत्तीसगढ़ी नई कविता- 5, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 12, छत्तीसगढ़ी लोकगीत- 20, छत्तीसगढ़ी गजल- 5, छत्तीसगढ़ी हाइकु- 4, छत्तीसगढ़ी हास्य व्यंग्य पद्य- 8, लोकमंत्र- 1, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 34, छत्तीसगढ़ी चम्पू काव्य- 27, छत्तीसगढ़ी भाषा एवं उसका इतिहास- 19, हिन्दी- छत्तीसगढ़ी, गद्य-पद्य- 20, जीवनी/व्यक्तित्व एवं कृतित्व- 164, आत्मकथा- 3, संस्मरण- 1, लेख/निबंध संग्रह- 23, अभिनन्दन ग्रंथ- 11, शोधग्रंथ- 59, इतिहास- 74, भूगोल- 61, धार्मिक- 53, पुरातत्व- 13, स्थापत्य कला- 1, चित्रकथा हिन्दी- 23, लोक कथा- 30, दंत कथा- 1, साक्षात्कार- 1, पर्यटन- 17, लोक कला- 4, लोक खेल- 2, रंगमंच- 1, फिल्म- 1, कानून- 2, छत्तीसगढ़ की जानकारियां- 76, छत्तीसगढ़ की नदियां- 7, पहाड़- 1, पक्षी- 1, पत्र- 1, पुस्तकों की सूची- 2, छत्तीसगढ़ का एटलस- 2, अनुवाद- 2, समीक्षा- 3, लोक साहित्य- 9, स्मारिका- 6, अनुसूचित जाति एवं जनजातीय- 30, अंग्रेजी- 33, अन्य- 105 है। 

तृतीय सूची, साहित्यकारों के नाम अनुसार के अंतर्गत साहित्यकार के नामों के अनुसार पुस्तकों की सूची में 1 से 1545 तक, डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में 1546 से 1583 तक, सरगुजा से प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 10, छत्तीसगढ़ से पूर्व एवं वर्तमान में प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 44 तक है। 

000 

कला परम्परा का सम्पादन डी पी देशमुख, भिलाई (संपर्क फोन-9407984727, 9425553536) द्वारा किया जाता है, इसके अंकों की जानकारी इस प्रकार है- 

कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के छत्तीस रत्न, प्रवेशांक, 28 मई 2001, पेज-85 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 
कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 
कला परम्परा, पर्यटन एवं तीरथधाम, अंक-4, वर्ष-2013, पेज-198 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, वर्ष-2014, पेज-524 
कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार, अंक-6, वर्ष-2015, पेज-497 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017, पेज-558 
लोक नाट्य सुकवा, अंक-8, वर्ष- जुलाई 2017 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी, अंक-9, वर्ष-2018, पेज-286 
लोक नाट्य चन्दा, अंक-10, वर्ष-2019, पेज-558 
पुरातत्व, पर्यटन एवं तीरथधाम, अप्रकाशित, अंक-11

इनमें से प्रसंगानुकूल प्रवेशांक में 36 कलाकारों का सचित्र परिचय है, जिनमें क्रमानुसार नाम हैं- मंदराजी दाऊ, रामचन्द्र देशमुख, महासिंह चन्द्राकर, हबीब तनवीर, शरीफ मोहम्मद, मदन निषाद, रहीम खान अनजाना, झुमुक दास बघेल, न्याईक दास मानिकपुरी, खुमान साव, झाडूराम देवांगन, सुरुज बाई खांडे, लक्ष्मण मस्तुरिहा, तीजन बाई, शेख हुसेन, भुलवा राम यादव, गोविन्द राम निर्मलकर, फिदा बाई, माला बाई, कोदूराम वर्मा, प्रेम साइमन, रामहृदय तिवारी, देवदास बंजारे, पुनाराम निषाद, भैया लाल हेड़ऊ, शिवकुमार दीपक, केदार यादव, भूषण नेताम, रामाधार साहू, कविता वासनिक, दीपक चन्द्राकर, साधना यादव, कुलवंतीन बाई मिर्झा, पद्मावती, कुलेश्वर ताम्रकार, कमल नारायण सिन्हा। अंक के अंत में संपादकीय सहकर्मी मनोज अग्रवाल और सहदेव देशमुख का सचित्र संक्षिप्त परिचय है। 

कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 की प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी, इसके बारे में जानकारी सम्पादक डी पी देशमुख जी से मिली। 

कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 में लोककला, रंगमंच, सिने कलाकार- 438 नाम हैं। सुगम शास्त्रीय गीत, संगीत, नृत्य गजल-भजन गायन- 135 नाम हैं। चित्रकला, शिलपकला, हस्तशिल्प, फोटोग्राफी- 154 नाम हैं। बाल-कलाकारों के 91 नाम हैं। उल्लेखनीय कि इसमें नामों के साथ सचित्र संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, 1001 महानुभावों की सचित्र जानकारी का संग्रह है। इस पुस्तक में पेज 507 से 524 तक कला परम्परा-2 (साहित्य बिरादरी-1 वर्ष 2011) शीर्षक अंतर्गत 175 महानुभावों केनाम, डाक पता तथा फोन नंबर सहित दिया गया है। इसके बैक फ्लैप पर मनोज अग्रवाल, प्रधान संपादक और रश्मि पुरोहित, कार्यकारी संपादक नाम सचित्र परिचय दर्ज है। 

कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017 में कला एवं साहित्य साधक अंतर्गत 2222 महानुभावों की सचित्र जानकारी का समावेश है। साथ ही कला परम्परा के संयोजक शीर्षक अंतर्गत जिनके चित्र व नाम फोन नंबर सहित हैं- राजनांदगांव के श्री गोविंद साव, श्रीमती शैल किरण साहू, छुरिया के श्री शैल कुमार साहू, खैरागढ़ के डॉ. राजन यादव, गंडई पंडरिया के डॉ. पीसी लाल यादव, डोंगरगढ़ के श्री मनुराज त्रिवेदी, डोंगरगांव के श्री अजय उमरे, अम्बागढ़ चौकी के श्री कमलनारायण देशमुख, मोहला के श्री देव प्रसाद नेताम, मानपुर के श्री यशवंत रावटे, पंडरिया के श्री महेन्द्र देवांगन ‘माटी‘, कवर्धा के श्री कौशल साहू ‘लक्ष्य‘, गुंडरदेही के श्री दुष्यंत हरमुख, श्री पुनऊ राम साहू, बालोद के श्री सीताराम साहू ‘श्याम‘, बालोद के श्री जगदीश देशमुख, डौंडीलोहारा के श्री सुभाष बेलचंदन, दल्लीराजहरा के श्री परमानंद करियारे, धमतरी के श्री कान्हा कौशिक, नगरी के डॉ. आर.एस. बारले, मगरलोड के श्री पुनूराम साहू ‘राज‘, कुरुद के श्री इन्द्रजीत दादर ‘निशाचर‘, राजिम के श्री तुकाराम कंसारी, गरियाबंद के श्री गौकरण मानिकपुरी, डॉ. ईश्वर तारक, चारामा के श्री दिनेश वर्मा, भानुप्रतापपुर के श्री गनेश यदु, कांकेर के श्री अजय कुमार मंडावी, श्री राजेश मंडावी, कोन्डागांव के डॉ. राजाराम त्रिपाठी, जगदलपुर के डॉ. कौशलेन्द्र, श्री विजय सिंह, श्री भरत गंगादित्य, दन्तेवाड़ा की श्रीमती कंचन सहाय वर्मा, बचेली के श्री आशीष कुमार सिंह और किरन्दुल के श्री देवेन्द्र कुमार देशमुख। 

टीप- डॉ. सुधीर शर्मा ने स्मरण कराया कि ऐसे ही संकलन ललित सुरजन जी ने ‘रचना समय‘ और डॉ.निरुपमा शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ महिला रचनाकार कोश‘ प्रकाशित कराया था। ऐसी समंकित सूची, जो समय-समय पर अद्यतन की जाती रहे, तैयार कर वेब पर सार्वजनिक किए जाने पर शासन, विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाएं विचार कर सकती हैं।

Tuesday, June 23, 2020

पवन ऐसा डोलै


सन 2018 में छपी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ 1953 में जन्मे राकेश तिवारी का संस्मरण है, जिसमें हिसाब-किताब उनके बीस बरस की उम्र से आरंभ होता है। पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ते 2010 तक पहुंचता है। यों किस्सा, लेकिन तिथिवार है तो कह लें इतिहास, यानि किस्सानुमा इतिहास या इतिहासनुमा किस्सा। वे कहते हैं- ‘‘एक जिन्दगी में पैंतीस बरस कम नहीं होते।‘‘ फिर ‘‘डगर, कु-डगर, बे-डगर डोलने-भटकने ... क्या पाने चले, किस दिशा में, क्या पाये, कहाँ पहुँचेंगे, क्या चाहा, नियति कहाँ ले आयी, अब किधर ले जाएगी? हर्ष-राग-विषाद के एक गुम्फन से निकलते दूजे में उलझ जाते।‘‘ और आगे यह भी कि ‘‘मासूम उमर भटकते-सॅंभलते फिसल गई। रुपहली रातों में प्रणय और रोमांच के धागे बुनने, बिखरने, सरझने के किस्से साझा करने के दिन उड़ते गये।‘‘ उस हिन्दुस्तानी संस्कृति में सराबोर, मानते हैं कि जिसका हिसाब चित्रगुप्त महराज के पास भी नहीं मिलेगा।

पुरातत्ववेत्ता, पुरातत्वविद जैसे भारी पद-पहचानधारी का काम पुराविद से भी चल जाता है। पुराविद से करीबी देशज शब्द बैठेगा पुरानिक, और कुछ आत्मीय सांचे में ढले तो ‘पुरनिया‘ (पुस्तक में यह शब्द सयानी समझ वाले पुराने-बुजुर्गों के लिए आया है)। तो इस कहानी का लेखक-पात्र, ‘पुरनिया‘ एक स्तर पर अपने सहेजे पैंतीसेक बरस के तरतीबवार लेखे की कहानी कहता है। दूसरे स्तर पर बात क्रमशः सर्वेक्षण से आरंभ होती है, उसका विवरण तैयार किया जाता है, प्रस्ताव बनता है, खुदाई-विश्लेषण और फिर व्याख्या के साथ ज्ञात इतिहास में ‘नयी‘ बात जोड़ते हुए ‘इति‘। यहां एक और स्तर मानव सभ्यता के विकास का है, गुफावासी आदिमानव, खेती-बस्तियां और इन पैंतीस सालों में ही बदल गई दुनिया, मानों सभ्यता के हजारों साल का गुटका संस्करण, पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन में सिमट जाए। चुनांचे, इन तीनों स्तरों का ऐसा सधा और संतुलित गुम्फन कि कहीं उलझन नहीं होती। अध्याय और खंड का विभाजन सहज संयोजक बनकर प्रसंग-अंशों को आपस में जोड़ता चलता हैं। खुली निगाह से देखे, खुले मन से सुने को, पूरी तसल्ली से गुन पाता है वही इसे सहेजते, ऐसा दस्तावेज तैयार कर सकता है। यह पुस्तक बेयर ग्रिल्स के थ्रिल्स वाली, पुरनिया की आत्मकथा, सह यात्रा प्रतिवेदन, सह उत्खनन डायरी, सह उत्खनन प्रतिवेदन, और मौज की झूला-चकरी वाला आनंद भी। चित्रित शैलाश्रयों से बाहर आ कर, सभ्यता भी व्यतिक्रमित आगे बढ़ती है।

पुरातत्व वालों को पीठ पीछे और मौका देखकर सामने भी गड़े मुरदे उखाड़ने वाले, कबर खोदने वाले कहा जाता है और उन्हें भूत, जादू-टोना, रहस्य, गुफा, बीजक-खजाना, उत्खनन और कार्बन डेटिंग वाला जाना-माना जाता है। यह पुरनिया लेखक स्वयं को भू-सुंघवा कहता है। यों देखें तो सर्वेयर-एक्सप्लोरर, पुरातत्व के हों, भूगोल, भू-विज्ञान के या नक्शा बनाने वाले सर्वे के भू-सुंघवा ही होते हैं, सूंघते हैं, नाप-जोख कर, गंध पा कर ताड़ लेते हैं और ताड़े हुए तिल को फिर ताड़ बनाने में जुट जाते हैं। लेखक यहां घोड़ा, लोहा, मेगालिथ और आर्य, इन चार ‘आर्य प्रश्नों‘ के इर्दगिर्द घूमता है। साथ चलती है लोरिक चंदा, नल दमयंती, भरथरी और आल्हा उदल गाथाएं, आधुनिक गाथा चंद्रकांता का तो इलाका यह है ही। लोरिकायन मॉरिसस में भी मिल जाती है। फिर गाथाएं जतन से पिरो दी गई हैं, लोकगीत से बेगम अख्तर, कबीर और भिखारी ठाकुर से ग्रियर्सन तक। दंतकथा, लोककथा, पुराण कथाओं के साथ प्राचीन शिलालेख भी।

पूर्वाचार्यों राहुल सांकृत्यायन (वोल्गा से गंगा) और डा. भगवतशरण उपाध्याय (सवेरा-संघर्ष-गर्जन और पुरातत्व का रोमांस) को स्मरण-नमन करते हुए, पुराविदों के आत्मकथात्मक गद्य में ब्रजमोहन व्यास का ‘मेरा कच्चा चिठ्ठा‘, केके मोहम्मद का ‘मैं एक भारतीय‘ का अपना महत्व है। इसी तरह शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता‘ भी उल्लेखनीय है, लेकिन यह ‘पवन ...‘, निराली बयार है। यह उन पुस्तकों में से है, जिसे पढ़ कर, कुछ कहे बिना मन मचलता रहे, लगे कि कोई सुख चोरी-चोरी पा लिया है, जिसे न बांट पाए तो पाप के भागी। बांट कर पुण्य चाहे न मिले, बांटनवार रंगेगा ही। पुस्तक के बहुतेरे अंश ऐसे हैं, जिन्हें उद्धृत कर ही उसका रस संभव है, बानगी लेते चलें-

वनवासी 
पात्र है गुदरी, उसका हुलिया- ''लम्बी दाढ़ी, झुके बदन, गहरे काले वर्ण और मझोले कद-काठी वाले गुदरी की आवाज में शहद और आग्रह में गहराई, कोठरी छोटी लेकिन दिल बहुतै बड़ा। फटाफट बिछौना बिछाते, तो उनके बाँहों की मछलियाँ फिसलते दिखतीं।'' गुदरी खिस्सा सुनाता है- ''एक ठे कोल इहाँ बाघे से लड़ल रहल।'' और कोल के साहस का बखान इस छोटे से वाक्य में हो जाता है- ''जउने धरती-पानी-बतास पै बघवा पला रहा, ओही पर कोलवौ।'' नामकरण के साथ तथ्य और इतिहास आता है कि- ''एक समय एक बलवान अहीर यहीं टाँगी से एक ठे बाघ मरलस, एही से एके कहल गइल ‘अहिर मरवा‘। ओकरे बाद एक ठे बाघ कइयौ अहिरन के भख लेहलस तो ‘बघ मरवा‘ नाम चला।'' साथ ही परंपरा मजेदार ढंग से बताई गई है- ''कोलिन हारी, तो कोल के साथ गयी, कोल हारा तो कोलिन के गाँव चला।''

वनवासी सभ्यता के प्रति लेखक के भाव देखिए- ‘‘कैसा उल्टा खेल चल रहा है, एक असंतुष्ट, असभ्य व्यवस्था परम संतुष्ट वनवासियों को सभ्य बनाने चली है।‘‘ उनकी जीवन-शैली की खासियत रेखांकित हुआ है- ‘‘बनवासी टपते रह गये। रहे होंगे कभी जंगल-पहाड़ के बेताज बादशाह, उन पर उनका नाम तो लिखा नहीं था। उन्हें तो पता ही कब रहा कि जमीन किसी के नाम लिखी जाती है। जान भी जाते तो क्या करते, खेती-किसानी से ज्यादा वे जंगल-पहाड़ में मस्त विचरने में ही आनंद पाते।‘‘ मगर इसके साथ एक पात्र कह जाता है- ‘‘सामंती और बरतानवी दौर ने इन स्वतंत्र वनवासियों को पैंट-कमीज वालों के सामने जो ये झुकना सिखाया, वह आज के भारत में ज्यादा दिन चलै वाला नहीं।‘‘

लोक-वार्ता
भाषा-अभिव्यक्ति में लोकवार्ता और उसमें लेखक समाए-समोए हैं। जल कुंड की गहराई का नाप है- ‘‘सात माचा की डोरी, ओ सात बरातिन पगहा, ओ थाह नाहीं बा।‘‘ वहीं बनारसी बलम मिर्जापुर क्या गए, कचौड़ी गली सूनी कर गए, लेकिन शिकायत यह कि मिर्जापुर गुलजार किए हैं- ''कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू ऽऽऽ ओ ऽऽ, मिरजापुर गुलजार कइला ऽऽ, हो बलमू ऽऽऽ'' और प्रयोग कि ''बुलेट मोटर साइकिल’ से बढ़कर ‘रॉयल इन फील्ड‘ भला दूसरी कोई सवारी क्या होगी।'' वहीं ‘चउवन गली और बावन बज़ार‘ जैसे शीर्षक में ग्राम नाम व्युत्पत्ति का रोचक हवाला है।

सर्वे के दौरान प्राप्त सूचनाओं का आकर्षण और उनकी टोह लेने की चाहत की अभिव्यक्ति, 'दिल बहक गया' और टटोल आने' की बात, कुछ इस तरह- ''कउवा खोह से लौटानी में ‘गोछरा जंगल‘ में अटक गये कोटारों और नील-गायों को भागते देखकर। वहीं एक गयार के बताने पर दिल बहक गया दक्खिनी कगार की ‘कनछ तर‘ की बड़की मान तक टटोल आने को।'' मच्छरों की खून चूसने की क्रिया को काटना कहना लेखक को नहीं भाया है, वह लिखता है- ‘‘रात भर मच्छरों ने जी भर कर चोभा।‘‘ इसी तरह सजग-सूक्ष्म अवलोकन को समृद्ध भाषा के इस्तेमाल से पेश करने की बानगी- ‘‘पगुराते फेंचकुर फेंकते गाय-गोरू- ऊँट‘‘ और वहीं अगली पंक्तियों में ‘‘पगुराते ऊँटों के हिलते थूथन से झरते झाग।‘‘ और फिर से अनुप्रास सहित ‘‘हारे हुए हैरान कुत्तों की लाल-लाल लार चुआती जीभें बित्ता भर लटक गईं।‘‘ पुस्तक में सहयोगी-मित्रों और विशेषज्ञ-विद्वानों के नाम हैं, लेकिन जहां नाम आवश्यक नहीं, वहां किस अंदाज से बात कही गई है, देखिए- ‘‘किसका नाम लें और किसका छोड़ें- लाल, पाल, वर्मा, गोपाल, देव, जोशी, सिंह, मिश्रा, सिद्दीकी, श्रीवास्तव, बाजपेयी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, मिश्रा, पंत नामांतधारी एक से एक श्रीमंत।‘‘ और नाम से बचते-बचाते- ''तारणहार बनकर अवतरित हुए हमारे नये कैबिनेट मन्त्री जी।'' फिर मंत्री जी के प्रवास को जीवंत किया है, इस तरह- ‘‘और हवा में समायी वी.वी.आई.पी. विजिट की सरसराहट।‘‘

शब्द-सृष्टि
कुछ शब्दों पर चर्चा करते चलें- चारों ओर के लिए शब्द चलता है इर्द-गिर्द या कम प्रचलित है गिर्दागिर्द, लेकिन लेखक ने सहज-सार्थक शब्द गढ़ा है- 'चौगिर्द'। एक शब्द आया है डमरू बाघ, लेखक ने इसका अर्थ ‘बच्चों वाली बाघिन‘ बताया है, किन्तु छत्तीसगढ़ में डमरू या डमरुआ ‘बाघ के बच्चे‘ के लिए प्रयुक्त होता है। यहां एक पुरातात्विक स्थल का नाम डमरू है और यह मात्र संयोग नहीं होगा कि इस गांव के एक तालाब का नाम बघबुड़ा है। एक अभिव्यक्ति है- ‘अपनी कल्पना की ढीली लटाई‘, पतंग के साथ धागा लपेटने की चकरी के लिए के लिए शब्द चलता है, चरखी, घिरनी या परेता। पुस्तक में आया शब्द ‘लटाई‘ इसी का पर्यायवाची है, यहां प्रयोग भी कम मजेदार नहीं कि लटाई से कल्पना का धागा ढील दिया गया है। एक अंश है- ‘‘कुल बीझन अजवैं ना सरझ जाई। फीर, कल्हियाँ बदे का बची? ‘‘ अब इसे मिला कर देखें कृष्ण बलदेव वैद की कुकी और उसके एक प्रसंग से- ‘‘कभी कभी कुकी ऐसा आभास देती दिखाई देती है कि वे मेरी सारी साहित्यिक, मानसिक, सांसारिक आध्यात्मिक गुत्थियों को सुलझा सकती है लेकिन सुलझाती नहीं क्योंकि सोचती है अगर उसने यह कठिन काम कर दिया तो मैं क्या करूँगा।‘‘ अब पता नहीं कि इन दोनों लेखकों ने एक-दूसरे के इन अंशों को देखा या नहीं, मेरे देखने में आया, तो साथ रख दिया है।

एक बारीकी कि ‘‘फूल की थाली में पलाश के पत्ते पर खटाई‘‘। फूल यानि, फूल कांस, कांसे की थाली, जिसका प्रयोग भोजन के लिए प्रतिष्ठित है। (इसी तरह एक अन्य फूल, 'फूल पीतर' यानि पीतल, मुख्यतः अवध अंचल में प्रचलित है।) मिश्र-धातु कांसा, मिश्रण अनुपात के फर्क से ‘मस्केल‘ और ‘नेर‘ भी होता है, जो अन्य बर्तन या घंटी आदि बनाने के काम आता है। फूल कांस में सफेदी और चमक अधिक होती है। कांसे की थाली या बर्तन में दही-मही (मठा) की खटाई तो परोसी जाती है, लेकिन आम, इमली या नीबू की खटाई, कसाने-कसैली पड़ने लगती है, इसलिए फूल की थाली पर सीधे चटनी परोसने के बजाय पलाश का पत्ता इस्तेमाल होता है। इसी तरह 'विजयशाल' कहा गया है, बड़े ढोल जैसे वाद्य को। यह एक नया शब्द मिला। इसे समझने के लिए तुक्का लगाया कि यह बीजासार या बीजाशाल का सुधरा रूप हो। बीजा (छत्तीसगढ़ी एक उच्चारण बिजरा भी) मुख्यतः शाल वनों के बीच ही होता है, शायद इसलिए उसका नाम जोड़ा बना कर ‘बीजा-शाल‘ आता है। आगे, ढोल समूह के वाद्य, यानि ऐसे तालवाद्य, जिन्हें लकड़ी को खोखला कर बनाया जाता है, उनमें कटहल, आम, खम्हार-सिवना (कुरुसमरा), कदम्ब, भिर्रा, गोइंजा (गूंजा?) काठ भी प्रयुक्त होता है। कुछ लोगों की पसंद सिरीस है, किन्तु सबसे उपयुक्त लकड़ी यही यानि बीजा मानी जाती है। धान के भीतर डेढ़-दो महीना डाल देने पर उसकी गरमी से लकड़ी पक जाती है, फिर खोखला करते हुए इसमें दरार नहीं आता। इससे बने ढोल, तबला आदि की ध्वनि मधुर ठनकदार होती है। उसकी आवाज, रात के साथ गहराती, और-और ‘तान‘ होती जाती है।

पुस्तक में आए शब्द और उनकी इस तरह प्रवाहमयी, उन्मुक्त भाषा-अभिव्यक्ति तभी संभव हो सकती है, जब उसमें मन रचा-बसा हो, लिखने वाले को पाठकों की परवाह तो हो, लेकिन दबाव न हो। वही ऐसा ‘स्वान्तःसुखाय‘ रच पाता है जो हमखयाल ‘बहुजन रुचाय‘ हो सकता है। कला-साहित्य का कोई भी रूप हो, उसका अपना और सच्चा सुख तो सृजन-रियाज में ही निहित होता है, प्रदर्शन-आश्रित रचनाकार की संतुष्टि दूसरों, यानि श्रोता-दर्शक-पाठक (और आयोजक-प्रकाशक-वितरक) के पास गिरवी हो जाती है। यह पुस्तक, आत्मनिष्ठ साधक, खुद-मुख्तार रचना-सुखी, ‘सच्चे साहित्यकार‘ की कृति है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के शब्दों में- ‘‘सच्चे साहित्यकारों के लिए जो बात सबसे अधिक मुख्य है वह है उनका अंतःसुख। उसी अंतःसुख के कारण वे साहित्य के क्षेत्र में यश और अपयश की चिंता न कर लिखते ही जाते हैं।’‘ संक्षेप में, अभिव्यक्ति के गरिष्ठ-बेमेल छौंक के छद्म को सहज उजागर करने वाली, निरस्त कर सकने वाली सुपाच्य ‘कोदो-कुटकी‘ भाषाभिव्यक्ति परोसी गई है इस लेखन में।

पुरनिया निगाह
ऐसी बातें, पुरनिया जिनसे लगातार दो-चार होते रहते हैं, लेखक अपने पेशे पर टिप्पणियों का स्वयं आनंद लेता है- ''हाँ तो गीबड़ों सुनो! क्या कहते हो तुम सब, उहै- क्या कहते हैं तोहरे सब आर्कोलॉजिस्ट बनने चला है। इहै ककरा-पथरा, नरिया-खपरा बीनने चला है। ई कुल कै के जिनगी में कुच्छौ नहीं कर सकत्या। भला माई-बाबू तोके एही बदे पढ़ै भेजले रहलैं। सब झूठ है, फ्राड है। वेस्टर्न कंट्रीज के देखा-देखी इंडोलोजी पढ़ाता है। का करब्या जन ई कुल पढ़-लिखि कै। बहुत बन जाब्या तो मास्टर। औ, मास्टरै बन के का कै लेब्या, मास्टर होए दो जून खाए, लड़िकन के ननियौरे छोड़े जाय।‘‘ पात्र श्रीवास्तव जी से कहलाया गया है- ‘‘भारत में आर्किओलॉजी आयी है अंग्रेजों के साथ, इसलिए उन्होंने यह टर्मिनोलॉजी अंग्रेजी में ईजाद की, जिसे सारी दुनिया में समझा जाता है। वैसे पुरातत्व वाला यही सब ‘जॉरगन‘ बोल कर तो एक्सपर्ट कहलाता है ना, जो अगर सोझै भाषा में बोलब्या तो तोके के भाव देई बबुआ!‘‘ फिर ‘‘पुरान-धुरान गुनने की मेरी चाकरी‘‘ मानते हुए लेखक बताता है कि- ‘‘एम.ए. करके नौकरी की तलाश पूरी होने तक हमारे साथ खाक फाँकने का तजुर्बा हासिल करने के इरादे से आए थे।‘‘ या शोधार्थी के लिए- ‘‘एक अरसे से जवानी खपा रहे‘‘ लेकिन इसके साथ- ‘‘पोथी पढ़ै से जितना नहीं सीखा जाय सकत है ऊ से कहूँ ज्यादा ज्ञान मिलत है घूमै-सुनै ते।‘‘ और फिर ‘‘एक ने मन की बात खुलकर बतायी- ‘गुरु जी। दरजा में बैठ के पढे में कउनौ मजा नहिनी। न कुच्छो देखाय, ना समझै में अमाय। खेते, बने-पहाड़े में घूम-घूम के अइसने पढ़ावल जाय, जैसे आप लोग पढ़ावत हवै, तब ना आयी समझ में।‘‘

सर्वेक्षण में अवलोकन खुली निगाह से होता रहे तो इतिहास का क्रम अपने-आप उजागर होते चलता है, जैसे आदिम शैलाश्रय-गुफाओं की चित्रकला को देखते-देखते लेखक मानों स्वयं उस दौर में पहुंच जाता है- ‘‘नृत्य मूलतः अंतर्मन के आनंद से उद्भूत हुआ। श्यामल मेघों का घिराव देख मयूरो का थिरकना, हरियाले वन-प्रांतर में उल्लसित मृग-छौनों की किल्लोलें, मृगया से छके सिंह-शावकों की मस्त कलाबाजियाँ, विशिष्ट अवसरों पर चिड़ियों की चहकन-फुदकन की तरह किन्हीं अवसरों पर अंदर से उपजे उमंग के ज्वार ने आदिम मानव के अंग-अंग में चपलता भरकर उन्हें बाँहें और पैर फैलाकर, गरदन, कमर और सिर लचका कर नाचने के लिए उद्यत किया होगा। आखेट खेलने चले, तो सफल मृगया की कामना से नाचे, कबीले भर की भूख मिटाने लायक बडा पशु गिरा लिया, तो सफलता की उमंग में नाचे, अलाव पर अहेर भुनने लगा, तो सुस्वाद माँस की लालसा में नाचे। पवन, वर्षा, वन, नदी, गाछ, सूरज और चाँद जो भी पारलौकिक लगता या जिससे हित सधता या जिससे भय खाते, उन सबकी उपासना में नाचते। कमर, कंधे और बाँह में बाँह डाल कर नाचते।‘‘

पुरातत्व
बातों-बातों में प्राचीन स्थापत्य का सहज विवरण आता है- ‘‘नीचे पड़े द्वार-स्तंभ पर अंकित यू जो ऊपर से नीचे तक लपटे नाग बने आंय ना, एहिका कहत हैं नाग-शाखा, इसके अगल-बगल ऊपर से नीचे तक फूलों से सज्जित पुष्प या फुल्ल शाखा, आदमी-औरत के जोड़े वाली मिथुन-शाखा, किंकिणिका-शाखा और पत्तों से ढॅंके घड़े वाली घट-पल्लव शाखा। शाखाओं के नीचे एक बगल मकर पर सवार गंगा जी और दुसरे बगल कछुआ पर सवार जमुना जी, उनके बगल शिव जी के द्वारपाल गण।‘‘ और फिर मंदिर स्थापत्य की चर्चा- ‘‘याकु भिट्टी वाली छ्वाट क्यार जगती-पीठ पर बने एहि मंदिर केरी तलछंद योजना मां चतुरस्र (चौकोर) द्विअंग गर्भगृह और याकु छ्वाट कपिली अथवा अंतराल क्यार प्राविधान आय। औ ऊर्द्धवच्छंद योजना मां सबसे नीचे आय खुर, कुंभ, कलश और कपोत मोल्डिंग वाला बेदीबंध। ओहिके ऊपर बीचो-बीच रथिका से सज्जित तनुक उभरा भवा जंघा भाग। रथिका क्यार स्तंभ सजे आंय घट-पल्लव, कीर्तिमुख, किंकड़िका-घंटी, औ, खल्व औ पत्र-शाखा नामक अभिप्राय सेने। बगल मां नीचे द्याखी, नान्हे-नान्हे शिवलिंग। नीचे-ऊपर जालक-पैटर्न से सजा पट्ट औ ओहिके ऊपर तुला-दंड। फिर, अंतरपत्र के ऊपर शिखर, मानो एक के ऊपर एक शहतीर जस खमसे मोल्ड, एहिका कहा जात है पीढ़ा शिखर, ढाकी साहब नया नाम दिहिन है- फाँसना शिखर।‘‘ और अवसर पा कर जुड़ता है- ‘‘चारों कोनों से अंदर की ओर मुड़ते शिखर वाले (रेखा शिखर) क्रमशः ऊपर की ओर छोटे होते हुए पीढ़ों वाले शिखर (फाँसणा शिखर) और हाथी की पीठ की तरह गोल गजपृष्ठ शिखर वाले (वलभी शिखर)।‘‘

मूर्तियों की चर्चा करते हुए प्रतिमाशास्त्रीय लक्षणों का उल्लेख आता है और ‘‘भाँति-भाँति के केश-विन्यास अलकावलि, भ्रमरक, हनी काम्ब, चूड़ा-पाश, लम्बकेश, वलिभृतवलयक, त्रिशिख आदि आदि।‘‘ विभिन्न आकार-प्रकार विशिष्टता वाले मृदभांड-पॉटरीज- ‘‘एन.बी.पी., ब्लैक-एंड-रेड वेयर, ब्लैक-स्लिप्ड वेयर, पेंटेड ब्लैक-स्लिप्ड‘‘ और मनके-गुरिया- ‘‘एगेट, कारनेलियन, क्वार्ट्ज, चालसीडोनी, क्रिस्टल, जैसपर वगैरह। फिर, हर ढेरी में एक-एक किस्म की गुरियों को सजाया- लॉन्ग बैरेल (लम्बे बेलनाकार), सर्कुलर (गोल), व्हील-शेप्ड (पहिये के आकार के), बाई-कोन (दोनों सिरों पर कोणाकार), तिकोन, हेक्सागोनल (षड्कोणीय), चैकोर, पोलिश्ड, अन-पॉलिश्ड, फिनिश्ड-अनफिनिश्ड (पूर्ण-अपूर्ण), ट्यूब्यूलर (नलीदार), काली-सफेद-भूरी-लाल लहरिया वाले, लाल, सफेद, नीले, भूरे, बहुरंगी। देखते-परखते आँखें जुड़ा जातीं।‘‘

पुरातत्व जैसे क्षेत्र में नई खोज के तकनीकी पक्ष, खबरों के ख्याल से, सामान्य पाठक के लिए किसी रुचि के नहीं माने जाते। सामान्यतः मीडिया ऐसे समाचारों में चौंकाने वाली कोई बात- चमत्कार, दुर्लभ, प्राचीनतम, पहली बार जैसे विशेषण के लिए व्यग्र होता है। ऐसे एक मामले की चर्चा यहां भी है- ‘‘ईस्वी सन और ईसा पूर्व की गफलत से बचाने के लिए हमने अपने प्रेस नोट में 1200 ईसा पूर्व जगह आज से 3200 बरस के आस-पास का लोहा मिलने का जिक्र किया, लेकिन कुछ एक सुधी संपादकों ने उसे संशोधित करके 3200 ईसा पूर्व कर दिया। कहाँ तो हम 1200 ईसा पूर्व बताने में ही झिझक रहे थे और कहाँ 3200 ईसा पूर्व? ऐसे में चरिहूँ लंग से हंगामा बरपने को कौन बरज पाता।‘‘

बदलता जमाना
इतिहास में विचरते को परिवर्तन जिस तरह दिखता है, उसके नमूने- ‘‘उस जमाने तक के आदमी आज यहाँ, कल वहाँ डेरा डालते, फंदा गोफना तीर-कमान से चिरई-अहेर मारते, फल-फूल बटोरते, भूँजते-खाते, नदी-नाला, खोह-कंदरा में घूमते परम स्वतंत्र रहे। इन्हें ‘हंटर-गैदरर स्टेज‘ की सभ्यता के आखिरी पायदान पर चल रहे परम निर्द्वंद्व होमोसेपियन (आधुनिक मानव) माना जाता है। फिर अनाज उपजाने और जानवर पालने की जानकारी पाने के बाद सालो-साल बीज बोने, उगाने, फसल रखाने-काटने-दंवाने, सिरज-संभाल कर रखने, गाय-गोरू चराने और गोठ बना कर रखने के गोरखधंधे में ऐसा उलझे कि अपनी सारी आजादी गँवा कर एक जगह खूंटा गाड़ कर गाँव बसा कर रहने लगे। इस तरह उनकी महीन तकनीकी कारीगरी और ज्ञान की बढ़ोतरी ने जहाँ उन्हें आगे बढ़ाया, वहीं उनके पैरों में बेड़ियाँ भी डाल दीं।‘‘ यह बता कर पात्र अभय के माध्यम से मजेदार निष्कर्ष निकालते हैं- ‘‘मतलब आदमी ने पौधों और पशुओं को पालतू बनाया और उसी प्रक्रिया में स्वयं भी पशुओं और पौधों का पालतू बन गया।‘‘ परिवर्तन को आंकने के लिए हाय तौबा के बजाय सपाटबयानी है कि- ‘‘पवन ऐसी डोलती रेलगाड़ी ने मुनरी, चुटकी, चुनरी, कड़ा और कपड़ा सब दाँव पर लगवा दिया।‘‘ और एक नमूना- ‘‘मसीही स्कूल, अस्पताल, गिरजाघरों का फैलाव- ‘मसीहं शरणं गच्छामि‘ के मंत्रोच्चार के साथ।‘‘

विनम्र दायित्व
लेखक अपनी विनम्रता के साथ, दायित्व और उसकी गरिमा में संतुलन बनाए रखता है, इस तरह ‘‘लोग-बाग बड़का मेटलर्जिस्ट मान कर भासन झारने का बुलउवा भेजने लगे। किसको-किसको बताते- हम चन्द्रगुप्त मौर्य वाला इतिहास-पुराण, पुरवा-पाथर पढ़ने वाले बहल्ला विद्यार्थी रहे, मेटलरजी से हमारा सूँघने भर का भी वास्ता नहीं रहा। लेकिन लाज बचाने के लिए मॅंगनी वाले परिधान पहिर-ओढ़ कर, साथियों की मदद से तैयार प्रेजेंटेशन दिखाने निकल पड़े।‘‘ लेखक अपनी पद-गरिमा के प्रति सजग है- ‘‘तब कितनी फजीहत होगी, अपनी तो खैर बिसात ही क्या, ओहदे की ज्यादा होगी।‘‘ (इस पुस्तक के लेखक श्री राकेश तिवारी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक यानि सर्वोच्च पद पर आसीन रहे हैं।) लेखक की जिम्मेदार संतुलित वैज्ञानिक दृष्टि प्रकट होती है- ‘‘किसी नई प्रविधि के ईजाद होने का इंतजार करना पड़ेगा, तब तक के लिए नपे-तुले तुक्के पर तुक्के ही चलेंगे।‘ और ''यह बताना भी कितना जरूरी है कि रिसर्च और न्याय के मसलों में सिक्के के दोनों पहलू ठीक से देख लिए जाएं।'' संरक्षण-विरूपण पर तटस्थ टिप्पणी का असर महसूस कर सकते हैं- ‘‘एक दृश्यांकन में... दूसरी ओर एक मगरमच्छ को घेर कर मारने का दृश्य। चित्रों के ऊपर कोलतार से लिखे चिरुई गाँव के रहने वाले ‘रामधनी‘ का नाम।‘‘ और मानों निचोड़ आता है- ‘‘इस मामले में एक बात ध्यान से सुनने और गॅंठिया लेने वाली भी है कि दर्शन-दिग्दर्शन की भावना के साथ यह सब किया जाय। अपनी धरती माँ, पुण्य पावन वन-प्रपात और सांस्कृतिक पहलुओं को बाजार का बिकाऊ माल समझ कर कतई नहीं। उनकी साफ-सफाई, रख-रखाव और अपनी जीविका-अर्जन में समुचित सन्तुलन बना रहना चाहिए वरना सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के सारे अण्डे एक ही बार में पा लेने का नतीजा तो सब केहू जनतै होब्या!‘‘ पुस्तक पर अंत की ओर आगे बढ़ते, साथ छूटने की धड़कन होने लगती है, तब आखिरी वाक्य आता है- ‘‘जिन्दगी रही तो फिर मिलेंगे।‘‘ इससे राहत होती है कि फिर मिलने, ऐसा कुछ और पढ़ने का रास्ता खुला हुआ है।

प्रसंगवश-पुस्तक पढ़ते हुए मन में हिन्दी भाषा-साहित्य और उसकी रवानी, बार-बार आती रही। पुस्तक के खंडों के शीर्षक ऐसे हैं, जिसे पढ़ते ही मुझ से देसी-गंवार का मन ललचा जाए। वैसे हिंदी के साथ कभी गॅंवारी बोली का विशेषण इतिहास-दर्ज है ही। यहां है, पूर्वी हिन्दी, अवधी, बैसवारी, भोजपुरी और उस पर बनारसी ठाट के साथ दृष्टि, अभिव्यक्ति और भाषा का संतुलित-समन्वय। पीछे मुड़कर परंपरा टोह लें तो इंशा अल्लाह खाँ और लखनवी सरशार जैसी यही ठाट-मौज भारतेन्दु और गुलेरी में दिखती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है- ''उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी लेखकों में एक विचित्र प्रकार की जिंदादिली थी'', (वे स्वयं अपने लेखन, खासकर निबंधों में सहज परिहास की आत्मीयता से लालित्य-पुट का अवसर बनाते रहे।) ‘हिन्दी का लोकवृत्त‘ पुस्तक के अनुवादक नीलाभ ने लिखा है- 1920-40 के बीच के काल में ... पत्रिकाएं भी भाषा और साहित्य को दिशा देने में जुटी हुई थीं। वैसी जीवन्तता फिर आगे के दशकों में देखने को नहीं आयी। बाद में हिन्दी साहित्य पर शुद्धता आग्रही अनुशासन-दंड के बहाने आंचलिक भाषा के विशिष्ट और तद्भव शब्दों से परहेज बरतते, छायावादी घनीभूत छाया का असर कि, परिनिष्ठ किताबी भाषा-शैली चल पड़ी और यही लिखने-पढ़ने की आदत बन गई। पिछले दिनों आई डॉ ओम निश्चल की आकर्षक शीर्षक वाली पुस्तक ‘भाषा की खादी‘, जिसमें सोंधी हिंदी-हिंदुस्तानी के बेधड़क देशज रूप को अब फिर सार्थक रेखांकित किया गया है।

भवानी प्रसाद मिश्र ने कवियों के लिए कहा है कि ‘‘लगभग सभी, कुछ बँधे-बँधाये ढंग से कुछ बँधी-बँधाई बातें कहते रहते थे। उन दिनों, उसे ‘छायावाद‘ कहा जाता था।‘‘ यह कमोबेश उस दौर के गद्य की भाषा-अभिव्यक्ति पर भी लागू होती है, जिसमें देसी ढब समानान्तर बना तो रहा, मगर हाशिये पर, बस हाजिर बतौर। रेणु और बिज्जी जैसे कुछेक इससे अलग दिखते रहे। ढर्रे वाली साहित्य-दृष्टि में भाषा, पाठ्यक्रम वाली और वृहत्तर लोक की अभिव्यक्ति दूरबीन से देखते, चलती गाड़ी की खिड़की से झांकते, ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है‘ वाली हो गई। केदारनाथ सिंह के शब्दों में ‘यह एक आधुनिक का/ आदिम प्रवास था/ अपने ही घर में‘ की हालत हो गई। इस व्यथा को रेखांकित करने और उबरने जैसे प्रयास का उदाहरण विद्यानिवास मिश्र का ‘हिन्दी की शब्द-सम्पदा‘ है।

प्रसंगानुकूल, परीक्षण-प्रमाण है कि लगभग 20 साल बेहद लोकप्रिय रही ‘आधुनिक भावबोध, कला संचेतना और नवीनता का प्रतिनिधि मासिक‘ कही जाने वाली ‘ज्ञानोदय‘ जैसी पत्रिका का सन 1970 में अवसान हुआ, तब उसके संपादक लक्ष्मीचन्द्र जैन ने महसूस किया था कि ‘भारतीय जीवन एक नये दशक में, एक नये युग में, प्रवेश कर रहा है। इसके बाद का समय ‘नवनीत‘ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ जैसी पत्रिकाओं और उनके समर्थ संपादकों नारायण दत्त और मनोहर श्याम जोशी का रहा, जो न केवल युगानुकूल सामग्री चयन के लिए सजग और प्रयासरत रहते थे, भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर साहित्य को समृद्ध कर सकने वाली जानी-अनजानी लेखनी के प्रति भी उत्सुक रहते थे।

इसी क्रम में ‘धर्मयुग‘ वाले धर्मवीर भारती यहां सीधे प्रासंगिक हैं। रचना से अन्यथा किसी परिचय, संपर्क के बिना 'गांव-गंवई के लेखक', विवेकी राय छपते रहे, और उन्होंने यथाअवसर स्पष्ट किया कि ''भारती जी व्यक्ति नहीं, रचना को देखते हैं और 'धर्मयुग' नए-नए लेखकों को प्रकाश में लाने का बेजोड़ ऐतिहासिक कार्य कर रहा है।'' इसी तरह 40 साल पहले, जब इन राकेश तिवारी का लेख, अपनी तरह के मौजी-किस्सागो अमृतलाल नागर के माध्यम से भारती जी के पास पहुंचा, ‘खोहों में खोया अतीत‘ शीर्षक से ‘धर्मयुग‘ में छपा और उन्होंने नागर जी से जानना चाहा- ‘यह लड़का है कौन? उससे और लेख लिखाने हैं।‘

और एक बात, भाषा-परंपरा ग्रंथ रामचरितमानस की। तुलसीदास कृत रामचरितमानस, मूल रामकथा वाल्मीकि रामायण की भाषा-टीका है किन्तु आमजन में रामायण का पर्याय यही है। धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित इस ग्रंथ का पाठ-पारायण अध्यात्म लक्षित होता है, लेकिन याद किया जाता है, उद्धृत होता है- प्रकृति, प्रवृत्ति, जीवन-मूल्य और सुभाषित के लिए। रामकथा, राम-रावण की युद्ध कथा है, लेकिन रामचरितमानस, तुलसी के शास्त्र और लोक-मन की मैत्री का भी दस्तावेज है, जिसमें भाव विष्णु, भाषा के उस गरुड़ पर गतिमान हैं, (कुबेरनाथ राय को आत्मसात करते हुए) ‘रथन्तर‘ और ‘वृहत्‘ यानि मार्गी और देशी, जिसके डैने हैं।

मानस-आस्था है कि पारायण के साथ राम शब्द उचार लेने से ही सारा काम बन जाता है, पाप धुल जाते हैं, मुक्ति मिल जाती है, ‘हरि नाम‘, ‘कलिजुग केवल हरि गुन गाहा‘ और ‘एक अधार राम गुन गाना‘ को मिलाते, सरल बनाते हुए ‘कलियुग केवल नाम अधारा‘ चल निकला। फिर भी मानस पाठ-पारायण, सुमिरन के साथ कहीं बसा रह जाता है, चिंतन-मनन में आ जाता है, खासकर तब, जब मिलता-जुलता शब्द-प्रसंग आ जाए। मानस की भाषा में तत्सम-तद्भव का और दृष्टि में लोक-शास्त्र का जैसा सहज समन्वय है, उसके चलते यह भाषा-साहित्य की पाठ्य पुस्तक की तरह चाहे न पढ़ा गया हो, प्रभाव वैसा ही छोड़ता है। विद्वानों ने कहा है कि तुलसी की भारतव्यापी सफलता का रहस्य उनकी भाषा में है। उनकी भाषा में जो ‘तद्भवता‘ है वह अपने पीछे ‘तत्सम‘ भाषिक संस्कृति का बल ले कर खड़ी है। सो, अपने भाषा संस्कारों और स्मृतियों को सहेज रखने की परवाह हो तो मानस पढ़ते रहना चाहिए। ‘इसलिए‘ रामचरितमानस के अभ्यास को लाभकारी मानते, हिंदी-प्रेमियों के लिए मनमौजी स्वच्छंद भाषाई प्रयोग वाली पुस्तकों के क्रम में यह ‘पवन ...‘ स्मृति डोलती रहेगी।

मुझ जैसे थोड़ा पढ़ने-लिखने वाले, अलेखकों के लिए लिखना वैसा ही मेहनत का काम है जैसे कसरत, जो करने की सोचें तो आलस हो, मन न करे, लेकिन करें तो आनंद भी आए। ऐसा आनंद इस पुस्तक के लिए महीने भर बना रहा। अक्सर 'साहित्य', सिद्धहस्तों के लिखे को ही माना जाता है, बोनाफाइड साहित्य-प्रेमी उसे पढ़ते हैं, आह-वाह करने के हकदार वही होते हैं। समीक्षक, उसकी समीक्षा करते हैं। वैसे तो यह टिप्पणी, समीक्षा के खाने में ही जाएगी, लेकिन है शुद्ध पाठकीय आनंद की अभिव्यक्ति के लिए। साहित्य-समाज में भी एक जनजातीय समुदाय है, मुख्य धारा उनके प्रति तटस्थ है और वे भी मुख्य धारा के प्रति उदासीन। यह पुस्तक ऐसे व्यक्ति की रचना है जो साहित्यकार होने के दबाव से मुक्त, बेपरवाह इसलिए उदासीन (न लिखने की व्य‍ग्रता, न छपाने की जल्दी) है, तो 'समीक्षा' की मर्यादा से मुक्त रहते, बस पाठक हो कर इसे लिख लेने के साथ, स्वयं को इस पुस्तक का सबसे उपयुक्त पाठक होने का दावा भी पेश है, इस नीयत से कि काश! मुझे कोई गलत साबित कर दे।

कैफियत, पहली कि पुस्तक के इतने उद्धरण यहां आ गए हैं, कोई चाहे तो बिना पुस्तक पढ़े, इसके बारे में साधिकार सविस्तार बता सकता है। दूसरी, जो पुस्तक न पढ़ पाएंगे, एकदम वंचित न रह जाएं, कम से कम इतना तो पढ़ रखें। तीसरी, जो न पढ़ पाएं हों, पूरी पुस्तक पढ़ने को मचल जाएं और चौथी, जिन्होंने पुस्तक पढ़ी है, उसका आनंद लिया है, उन्हें कुछ अलग, अतिरिक्त भी रस मिले।

इस पुस्तक का नाम पता चला तब एक शीर्षक याद आया था ‘मनपवन की नौका‘। कुबेरनाथ राय की ‘निषाद बांसुरी‘ इसके पहले आ चुकी थी। ‘मन पवन की नौका‘ पर सवार उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के दिक्-काल यात्रा की। इस ‘पवन ...‘ का लेखक, डगमग डोंगी में सशरीर, स्वहस्त चप्पू लेकर सफर कर चुका है। चंचल मन को यह भी याद आता है कि कभी ‘खैरा पीपर कबहुं न डोले‘, सुना तो सोचता था कि पीपर कैसे डोलेगा भैयाजी, अरे! डोलेगा तो पत्ता न डोलेगा, छत्तीसगढ़ी गीत के बोल हैं ‘पीपर पाना डोलत नइए, का हो गे टुरी ल बोलत नइए‘, लड़की का मन इतना कठुआ गया है। राम वनगमन प्रसंग में दशरथ का मन भी पीपर पात सरिस डोला था। पीपल के पत्ते का आकार और डंठल ऐसा होता है कि जब हवा न चल रही हो, अन्य सभी पेड़ के पत्ते थिर हों, तब भी डोलते-मचलते रहते हैं। इसीलिए पीपल को ‘चल-वृक्ष‘, ‘चल-दल‘ अथवा ‘चल-पत्र‘ कहा गया है। शास्त्र-वचनों की व्याख्या में मानव मन को कामना-कर्मरूपी वायु से प्रेरित, पीपल के पत्ते की तरह नित्य चंचल स्वभाव वाला भी कहा गया है। मेरे चलायमान मन को विराम देने के लिए सोचता हूं, कभी लेखक रूबरू हुए तो पूछूंगा कि महराज! पवन तो डोलाता है, खुद थोड़े डोलता है, आपने पवन को ‘ऐसा‘ कैसे डोला दिया।

Monday, April 6, 2020

सार्थक यात्राएं


बात से बात पैदा कर पाने का हुनर हर किसी के पास वैसा नहीं होता, जैसा कृष्ण बलदेव वैद के ‘दूसरा न कोई‘ या ‘कुकी की मौत‘ में आता है। साहित्य रचना के लिए एक तरह की किस्सागोई, फर्राटेदार सफर ‘फसाना-ए-आज़ाद‘ जिसका अनुवाद ‘आजाद कथा‘ है तो दूसरे छोर पर वह, जिसका उदाहरण है- 'एक आदमी अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान पाकर ट्रेन में चढ़ता है। ट्रेन चलते-चलते एक स्थान पर रुक जाती है। वह आदमी पूछता है कि ट्रेन कहाँ रुकी है। जवाब मिलता है- नो व्हेयर! जवाब सुनते ही वह उठता है और यह कहते हुए उतर जाता है कि यहीं तो उसे जाना था।' (प्रभात रंजन की ‘पालतू बोहेमियन‘ से) या स्वदेश दीपक की कहानीनुमा एक रचना का आरंभिक वाक्य- 'गाड़ी ने उस स्टेशन पर नहीं रुकना था। रुक गई, पता नहीं क्यों? उसने वहां नहीं उतरना था। उतर गया। पता नहीं क्यों?' गोया, जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर...

साहित्य में कवि-कविता की प्रतिष्ठा सर्वोपरि, फिर गिनती में गद्यकार, कहानी-उपन्यासकार, निबंधकार, लेखक (लेख लिखने वाले) आदि, तब कहीं नंबर लगाया जाता है, यात्रा वृत्तांत और हास्य-व्यंग्य का। बहरहाल, कुछ ‘लेखक‘ ऐसे होते हैं, जिन्हें किस्सागोई के लिए, बात बनाने और बढ़ाने के लिए, सफर का सहारा-आसरा होता है। दृश्य बदलता जाता है, उसके साथ भाव भी, वही रवानी, वही कहानी। इस करोना दौर में सारी चहलकदमी स्थगित हो तो यात्रा संस्मरणों की ओर मन दौड़ता है, राहुल सांकृत्यायन याद आते हैं और देवकुमार मिश्र की ‘सोन के पानी का रंग‘ को माथे से लगा लिया है। हाथ में हैं ऐसे सफरनामे, जिनका साहित्यिक दरजा तो पता नहीं, लेकिन हिन्दी के जिस पाठक से चूका हो... साहित्यिक समझ के चलते नहीं, बल्कि बहैसियत रसिक पाठक कहूंगा, कि अब तक जिससे यह चूका, वह मेरी निगाह में वंचित श्रेणी में होगा, जैसा कुछ समय पहले तक मैं था।

राकेश तिवारी की 'सफर एक डोंगी में डगमग' दुहरा ली। पहली बार इसे पढ़ने में शुरुआत यात्रा की तरह ही ठिठक कर चली, लेकिन एक बार धारा में लय बन जाने के बाद मुकाम तक पहुंचते देर न लगी। भाषा, लाजवाब। कहीं दुहराव नहीं। हिन्दी के साथ बोलियों का मिश्रण और प्रयोग, लगातार रस-वृद्धि करता है। धार में बहते-तिरते कैसी 'तटस्थता' होती है, होनी चाहिए, महसूस कर रोमांच होता है।

दिल्ली के ओखला हेड से यमुना, गंगा होते कलकत्ता की हुगली तक के 62 दिन के पूरे सफर में स्वयं प्रेक्षक हों और विवरण में खुद को शामिल करना हो, तो स्व का इतना ही स्व-रहित होना आवश्यक है। बीच-बीच में दो किताबें याद आती रहीं, देवकुमार मिश्र की 'सोन के पानी का रंग' और कुबेरनाथ राय की 'निषाद बांसुरी' (कहीं 'किरात नदी में चन्द्र मधु भी), और फिर बनारस के जिक्र के साथ शिव प्रसाद मिश्र ‘रूद्र‘ काशिकेय की 'बहती गंगा' की भी याद आई।

अभ्यस्त साहित्यकार और हिन्दी के विश्वविद्यालयीन उपाधिधारकों के लेखन की भाषा और बुनावट का सप्रयास सपाटपन अखरता है, उससे इस पूरी कृति की- भाषा, मुहावरे, रूपक, चित्रण- एक-एक पंक्ति मुक्त है। अध्याय-योजना और उसके अंतर्गत खंड, लेखन के मूड के अनुरूप हैं, इन्हीं टुकड़े में प्रस्तुत यह यात्रा-संस्मरण निरंतरता और प्रवाह बनाए रखने में सहायक हुआ है। इसके उद्यम और रोमांच के लिए तो बस औरों की तरह मेरा भी सैल्यूट। और सैल्यूट के उतने ही हकदार यात्रा के साथी भी।

अब 'पवन ऐसा डोलै...' के लाजवाब सफर पर हूं।

अजय सोडानी के ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर‘ के आरंभ ‘आलाप‘ में लेखक की खास साफगोई कि- ‘मैं और मेरे सहयात्री गाहे-बगाहे औपन्यासिक पात्रों में तब्दील हों, भीतर के नाद को शब्दों में बांधते दिखाई दें तो क्या आश्चर्य!‘ न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर-लेखक की पुस्तक आरंभ होती है- ‘‘आप चाहे न मानें पर ‘घुमक्कड़ी‘ को रोगों की फेहरिस्त में शुमार न कर विश्व स्वास्थ्य संगठन वालों से चूक तो हुई ही है।‘‘ कभी एक डॉक्टर मित्र ने कहा था कि मार्निंग वॉक ऐसा रोग है कि अगर लगा तो और किसी रोग को पास फटकने नहीं देता। ‘आलाप‘ में अपने वाले बिलासपुर के डॉ. रहालकर युगल (सुश्री अलका और चन्द्रशेखर जी, जो अजय जी की तरह अब तक मोबाइल फोन मुक्त हैं।) और जानकी पुल वाले प्रभात रंजन जी भी मिल गए। इंदौर वाले, कभी बिलासपुर रहे कवि- डॉक्टर शिरीष ढोबले की संगत याद आई।

पूरी किताब लोगों, नजारों और बतकही के साथ अनजाने रास्तों का ऐसा मोहक सफर, जो एक बार शुरू हो और पता न लगे कि कितने मुकाम और कब मंजिल। पुराली और पहाड़ी देवी-देवताओं की चर्चा में केसकाल, बस्तर की देवी भंगाराम से परम्पराओं की समानता, अनायास-अप्रत्याशित है। झाला का अध्याय अरुणोदय से थोड़ा पहले, पंछियों के साथ आरंभ होता है। आगे चलकर बात आती है- ‘‘ध्वनि है तो कारक हैं, कारक हैं तो कारण होंगे। अतः कारकविहीन निर्जन स्थलों पर अनपेक्षित ध्वनि हमें चौंकाती है। ... इस मामले में जंगलों में रहनेवाला कॉमन हॉक कुक्कू (केतकी, पपीहा) बहुत पाजी है। वह अंग्रेजी में पारंगत को ‘ब्रेन फिवर‘, महाराष्ट्रियनों को ‘पावस आला‘, आसामवासियों को ‘मोई केतकी‘ तथा मय के कद्रदानों को ‘वन मोर बॉटल‘ कहता सुनाई देता है।‘‘

'इरिणा लोक' का मेरा सफर शीघ्र आरंभ होगा।

दोनों पुस्तकें राजकमल प्रकाशन के उपक्रम ‘सार्थक‘ से प्रकाशित हुई हैं, पहले-पहल ‘सार्थक‘ से परिचय हुआ था, राकेश तिवारी की ‘सफर एक डोंगी...‘ पा कर। अब इससे ‘सार्थक‘ पर भरोसा मजबूत हुआ है।