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Friday, September 23, 2022

किस्सा भंवर गणेश

बात कुछ पुरानी है, यही कोई तीस-पैंतीस साल हुए। इस दौरान बिलासपुर में पदस्थ सहकर्मी रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों, पहले श्री आनंद कुमार रिसबूड और उनके बाद श्री गिरधारी लाल रायकवार के साथ लावर-कोनी, इटवा-पाली की दो यात्राओं की अब गड्ड-मड्ड हो गई यादों के साथ और कुछ बातें।

एक शिलालेख की जानकारी मिलती थी, कलचुरि संवत 900 का कोनी शिलालेख। इस शिलालेख का अध्ययन-संपादन हो चुका था और वह प्रकाशित भी था, इसलिए पहले तो इसकी ओर ध्यान नहीं गया। किसी दिन बात होने लगी कि यह गांव, बिलासपुर कोनी तो है नहीं, फिर कहां है, और क्या शिलालेख अब भी वहां है, किस स्थिति में है। स्थानीय स्तर पर आसपास अरपा के बाएं तट पर कोनी नामक एक गांव की जानकारी मिली, मगर वहां किसी पुरावशेष या शिलालेख होने की पुष्टि किसी भी स्तर पर संभव नहीं हुई। संदर्भ ग्रंथों में विवरण मिला कि इस शिलालेख जानकारी जनवरी 1946 में डॉ. बी. सी. छाबड़ा, गवर्नमेंट एपिग्राफिस्ट के द्वारा प्रकाश में लाई गई थी। शिलालेख पृथ्वीदेव द्वितीय के राजत्व काल में कलचुरि संवत 900 तिथि गणना के आधार पर 20 अप्रैल 1148 के सूर्य ग्रहण की तिथि का है। यह भी पता लग गया कि यह ग्राम कोनी, बिलासपुर से लगभग 10 मील दूर अरपा नदी के बाएं तट पर है। इससे यह निश्चय हो गया कि ग्राम वही है, जिसकी बिलासपुर वाले कोनी से अलग पहचान के लिए, उसके पास के गांव के नाम के साथ जोड़ कर लावर-कोनी कहा जाता है।

यह पता लगते ही एक दिन श्री रिसबूड के साथ हमारी सवारी रवाना हो गई। अरपा के बाद पड़ने वाले नाले के किनारे बायीं ओर का कच्चा रास्ता था। प्राथमिक जानकारी के आधार पर आगे बढ़ते हुए हमको लावर के साथ कोनी गांव मिला। नदी किनारे गांव के बाहर सूने में एक आधुनिक मंदिर दिखा। हमें वहां पुजारी मिले। गांव वाले जो चढ़ावा, दान-दक्षिणा करते उससे गुजारा करते हुए भगवान की सेवा में लगे। पुजारी ने बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया। जलपान पूछा। उनसे बात होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे पहले लीलागर के किनारे कुटीघाट के हनुमान धारा मंदिर में थे, अब यहां आ गए हैं, अकेले रहते हैं। फिर शिलालेख की चर्चा हुई, उन्होंने शिलालेख दिखाया। परिसर में पुरातात्विक महत्व की प्रतिमाएं भी रखी थीं, जिससे स्पष्ट अनुमान हुआ कि यह 12 वीं सदी ईस्वी का मूल प्राचीन स्थल है। एक अभियान पूरा हुआ।

इस ‘उपलब्धि‘ से संतुष्ट, हमारी गाड़ी आगे बढ़ी। इरादा था कि घूमते हुए मल्हार तक जाएंगे, जहां तक हो सके नदी किनारे-किनारे। इसके पीछे कारण यह भी था कि लावर-कोनी की तरह गांव जोड़ा नाम सुना था- इटवा-पाली। इन दोनों गांवों के नाम रोचक थे। जब भी अवसर होता, समय बिताने के लिए रायकवार जी से ग्राम नामों, उनकी व्युत्पत्ति तथा नाम के आधार पर पुरातात्विक स्थल होने का अनुमान पर बातें होती रहती थीं। पाली तो, रतनपुर-कटघोरा मार्ग पर प्रसिद्ध महादेव मंदिर वाला स्थान है। एक पाली महानदी और मांद संगम पर है- महादेव पाली, उसका भी एक किस्सा है, ‘उलेला पूरा‘ वह फिर कभी। इटवा नाम भी रोचक लगा था, क्योंकि मुझे झारखंड के इटखोरी, चतरा जाने का अवसर मिला था और अनुमान हुआ था कि इस तरह के नाम ईंट अवशेष वाले पुरातात्विक स्थल के होते हैं। इटवा पहुंचने के पहले पाली गांव आया और गांव के पहले ही पुरानी बसाहट के अवशेषों का अनुमान हुआ। वहां आसपास घूमते हुए प्राचीन मूर्ति दिखी, यह आकस्मिक हुआ। हम लोग मूर्ति देखकर अवाक रह गए यह एक काले बेसाल्ट पत्थर या ग्रेनाइट की मूर्ति थी, अंजलिबद्ध मानव रूप गरुड़ की स्वतंत्र प्रतिमा। यह वही मूर्ति थी, जो अब भंवर गणेश या भांवर गणेश के नाम से जानी गई है। प्रतिमा आकर्षक, कलात्मक और महत्वपूर्ण थी। इसके बारे में पहले कहीं भी, किसी प्रकार का उल्लेख हमलोगों की जानकारी में नहीं आया था। इसलिए पहली-पहल मान, अपनी खोज का रोमांच हो रहा था।

यहां दस-बारह साल का बातूनी बालक मिला, जिज्ञासु था और आसपास के गांवों, ऐसी विशिष्टताओं में रुचि लेने वाला, हमारे लिए स्थानीय सूचक। हम उसके साथ उसके घर गए। उनके पिता से मिले, मुझे ध्यान आता है कि वे डॉक्टर थे, नाम अहमद हसन खान था। उनसे बात होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे मूलतः सीपत के पास नरगोड़ा गांव के रहने वाले हैं। उनसे मिली जानकारी के आधार पर बाद में हम लोग नरगोड़ा भी गए और वहां भी कुछ पुरानी मूर्तियां देखने का मौका मिला। इसी क्रम में नरगोड़ा, गोड़ी, गोढ़ी (बिल्हा के पास के अन्य प्राचीन स्थल, किरारी-गोढ़ी), और प्राचीन टीले वाला गांव गुड़ी मिला। यह टीला नहर रास्ते के पास गांव के छोर पर, चौड़ा तालाब के किनारे मंदिर अवशेष वाला है।

बातें समेटते हम आगे बढ़े, अपने अगले लक्ष्य, इटवा के लिए। इटवा में किसी खास पुरानी चीजों की जानकारी नहीं मिली। यहां एक आधुनिक मंदिर मिला। पूजित और मान्यता वाला धार्मिक स्थल, जो लोकप्रिय था। हमारी हर पूछताछ के जवाब में इसी का पता बताया गया था। वहां मंदिर के साथ, एक तालाब कुंड जैसा याद आता है। उसके बारे में बहुत रोचक मान्यता बताई गई कि उसमें बीच में कभी अचानक मंदार यानि गुड़हल के लाल फूल आते हैं वे फूल, जो शिवरीनारायण कुंड में चढ़ाए जाते हैं, डाले जाते हैं, वही यहां निकलते हैं और वे फूल जब यहां आते है तो एकदम ताजे होते हैं। हमलोग उस क्षेत्र की अन्य जानकारियों पर बात करते जितनी देर वहां रुके, हमारे रहते तक वहां कोई फूल नहीं आया और नहीं कोई इटवा में पुरानी चीजें देखने को मिली। यह अनुमान हुआ कि शिवरीनारायण मंदिर के साथ किसी परंपरा, आस्था या धार्मिक मान्यता का संबंध अवश्य है।

लगभग पूरा दिन बीत गया, इसलिए आगे मल्हार की ओर बढ़ने का इरादा छोड़कर वापसी की तैयारी करने लगे और रास्ते पूछने लगे। समय का दबाव न हो तो ऐसी यात्राओं में हम आमतौर पर प्रयास करते कि जिस रास्ते से गए, उसके बजाय अन्य रास्ते से लौटें, चाहे रास्ता कुछ मुश्किल और लंबा हो। वापस होते हुए अलग रास्ता लिया और इससे कुछ-कुछ नक्शा समझ में बैठा कि नदी के समानांतर एक रास्ता वह है, जिस पर हम चल कर आए। इसी के समानांतर खुंटाघाट बांध वाला नहर का रास्ता है, जो मुख्य मार्ग पर मस्तूरी में आता है। नहर रास्ते से जाएं तो, वेद परसदा गांव से दाहिने उतर कर इटवा पाली पहुंच सकते हैं। इसी तरह मस्तूरी-मल्हार वाली सड़क से भी वेद परसदा से दाहिने मुड़कर, नहर पार कर यहां पहुंचा जा सकता है।

पुरातात्विक अवशेष अपने परिवेश के साथ सार्थक और प्रासंगिक होते हैं, इसलिए उन्हें मूल स्थान पर ही सुरक्षित रखना प्राथमिकता होती है। किंतु सुरक्षा के अच्छे इंतजाम और चौकसी न होने पर चोरी या अन्य दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। इस प्रतिमा के रजिस्ट्रेशन के पहले सुरक्षा के लिए हम लोगों ने समझाइश दी थी। इसे संग्रहालय के लिए देने का प्रस्ताव ग्रामवासियों के समक्ष रखा गया था। स्थानीय तौर पर लोगों ने इसकी व्यवस्था तो की थी लेकिन व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी। ऐसे अवसर पर, गांव के कई लोग जिम्मेदार बनते दिखते हैं, सामने आते हैं, लेकिन घटना होने पर कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता है। इसलिए संग्रहालय के लिए ऐसी वस्तु को एकत्र करना मुश्किल होता है। लोग यह बताने लगे कि कभी इस प्रतिमा को ले जाने का प्रयास किसी ने किया था, मगर गाड़ा का अछांद टूट गया और चोर इसे वहीं छोड़कर भाग गए थे। फिर ग्रामवासी अपनी धार्मिक भावना का हवाला देने लगे। हमारे लिए यही रास्ता रह गया कि सुरक्षा के लिए समझाइश दें, प्रतिमा का पंजीकरण कर लिया जाय, वह शासकीय दस्तावेजों में तो रहे किंतु अधिक ‘पेपरबाजी‘ न की जाए।

शिव मंदिर, ग्राम पाली (इटवा), जिला बिलासपुर की भंवर गणेश या भांवर गणेश नाम से जानी जाने वाली यह प्रतिमा रजिस्ट्रीकरण कार्यालय, बिलासपुर से क्र बीएलआर/एमपी/529/एम.पी., दिनांक 10.05.1985, पंजीकृत है। काले पत्थर की 65गुणा38गुणा8 सेंटीमीटर आकार की यह गरुड़ प्रतिमा पद्मपीठ पर वीरासन में, पद्मयुक्त अंजलिबद्ध है। कलात्मक प्रभामंडल, मुकुट, भुजाओं व पैरों में नागबंध और पारंपरिक आभूषण-अलंकरण वाली, चोंचनुमा लंबी और नुकीली नाक और श्मश्रुयुक्त (दाढ़ी-मूंछ वाली) है। रतनपुर की कलचुरि कला शैली की 12 वीं सदी इस्वी, प्रतिमा की तिथि निर्धारित की जा सकती है।

इस तरह प्रतिमा का रजिस्ट्रेशन और डॉक्यूमेंटेशन हम लोगों ने कर लिया था। बहुत बाद में मुझे यह ध्यान आता है कि उस प्रतिमा की चोरी हुई। ऐसी चोरी के पीछे मुख्य प्रेरक होता है कि प्रतिमा का महत्व बताने के लिए उसे लाखों करोड़ों की कह दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इसका कोई ऐसा खरीददार नहीं होता। स्मगलिंग की बात भी फिल्मों में दिखाई जाती है वह अब कम से कम ऐसा नहीं है। कारण कि यूनेस्को का 1970 कन्वेंशन Means of Prohibiting and Preventing the Illicit Import, Export and Transfer of Ownership of Cultural Property तथा इसी क्रम में आगे 1995 में Unidroit Convention on Stolen or Illegally Exported Cultural Oblects आया।

1970 कन्वेंशन के बाद देश भर में रजिस्ट्रीकरण कार्यालयों की स्थापना हुई। सन 1975 में छत्तीसगढ़ में भी रायपुर और बिलासपुर में कार्यालय स्थापित किए गए। सन 1975 के बाद जब से रजिस्ट्रेशन एक्ट आया है तब से हकीकत यह है, खासकर ऐसी कोई मूर्ति जिसका रिकॉर्ड हो, उसकी चोरी, खरीद-बिक्री हुई हो, वह कहीं भी हो बरामद होती है, कार्यवाही हो सकती है। ऐसी कोई प्राचीन कलाकृति विदेश भी चली गई हो तो प्रत्यावर्तन नियमों के तहत वह उस देश को मूल स्थान में लौटना होता है। इसीलिए अब इस बात की आशंका न के बराबर है। दरअसल रजिस्ट्रेशन एक्ट स्थिति को रोकने के लिए आया और यह बहुत कारगर साबित हुआ है। उल्लेखनीय कि पिछले दिनों ब्रिटेन से वापस भारत लाई जाने वाली कलाकृतियों संबंधी समाचार में उल्लेख आया कि 2014 से अब तक 228 कलाकृतियां भारत को लौटाई गई हैं।

हास्यास्पद कि इसे एक खबर में ‘‘ग्रामीणों की मानें तो‘‘ जोड़ कर जिम्मेदारी से बचते हुए ‘बेशकीमती काले ग्रेनाइट व हीरे के मिश्रण से बनी‘ और बाजार में इसकी कीमत 12 से 14 करोड़‘ बताई जाने का उल्लेख किया गया है। ऐसी ही खबरें चोरी की इन घटनाओं में उत्प्रेरक का काम करती हैं। इससे यह धारणा अभी भी चलती है कि पुरानी मूर्तियां लाखों की, करोड़ों की होती हैं। रातों-रात करोड़ों बना लेने के फिराक में, लालच में आकर उठाईगिर या छोटे चोर, अपराध करते हैं, नुकसान कर बैठते हैं। चोरी के बाद, ग्राहक न मिलने पर समझ में नहीं आता कि क्या करें, तो बचने के लिए तोड़फोड़ या तालाब में फेंक देना, लावारिस छोड़ देना, जैसी हरकत करते हैं। मूर्तियों के लापता होने के पीछे कुछ स्थानों में एक अन्य कारण, पुजारी से मन-मुटाव होने की जानकारी भी मिलती है।

यह सब याद करने का प्रसंग बना कि 25 अगस्त 2022, गुरुवार को देर रात एक बार फिर इस प्रतिमा की चोरी हुई। इस मूर्ति की चोरी एक बार 26-27 जनवरी 2004 को हुई थी, चोरी की प्राथमिकी श्री रूपेश पाठक आत्मज श्री गोपाल प्रसाद पाठक, ग्राम पाली द्वारा दर्ज कराई गई थी, तब मस्तूरी थाना प्रभारी श्री सी.आर. टांडिया थे। इस क्रम में डॉ. जी.के. चन्द्रौल, श्री एस.एस. यादव, श्री जी.एल. रायकवार तथा राहुल कुमार सिंह (स्वयं) की समिति द्वारा अनुमानित मूल्य रु. पैंतीस हजार निर्धारित किया गया था। प्रकरण में प्रतिमा अन्वेषण की विभागीय कार्यवाही हेतु सूचना, असिस्टेंट डायरेक्टर (सी.आईयू.), एंटीक्विटी सेंट्रल ब्यूरो आफ इंविस्टिगेशन (को आर्डिनेशन), डिवीजन क्राइम रिपोर्ट विंग के साथ इंटरपोल विंग, असिस्टेंट डायरेक्टर (डी.आई.जी.) सी.बी.आई. नई दिल्ली, महानिदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली को देते हुए प्रयास किया गया। यह प्रतिमा मस्तूरी थाना द्वारा दिनांक 14 फरवरी 2005 बरामद की जा कर संबंधित धारक को सौंप दी गई थी। पुनः 20-21 अप्रैल 2006 को चोरी हुई थी, जिसकी रिपोर्ट श्री जगन्नाथ पटेल पिता श्री महेत्तर पटेल द्वारा मस्तूरी थाना में लिखाई गई थी। थाना प्रभारी मस्तूरी ने इस संबंध में अवगत कराया था कि दिनांक 12 मार्च 2007 को मूर्ति का पुनः मंदिर में स्थापित होने की सूचना पर मूर्ति जप्त की गई एवं सुरक्षार्थ सुपुर्दनामा में ग्रामवासियों को दिया गया।

गरुड़ की इस प्रतिमा से अनुमान होता है कि यह किसी विष्णु मंदिर के समक्ष स्थापित रही होगी। परंपरा, गरूड़ स्तंभ की भी रही है, जिसमें देवालयों के सामने परिसर में स्तंभ पर गरुड़ प्रतिमा स्थापित की जाती है। हमलोगों ने इस बात पर भी विचार किया कि इसे स्थानीय जन ने भंवर या भांवर गणेश नाम क्यों दिया होगा। संभवतः चोंच जैसी लंबी नाक को सूंढ मान कर प्रतिमा को गणेश मान लिया गया। भंवर, भौंरे या मधुमक्खी को कहा जाता है, प्रतिमा का रंग भौंरे की तरह काला है, क्या इसलिए भंवर कहा गया? भौंरा-भ्रमर के साथ यह भी संभव कि गणेश, भांवर लगाने वाले यानि परिक्रमा-अव्वल देवता हैं। यह प्रतिमा भी भांवर लगाकर वापस आती रही है, आशा है अब भी वापस आएगी और अब सुरक्षित रहेगी।

कुछ पुराने नोट्स के तथ्यों के साथ यहां आई अन्य बातें याददाश्त के आधार पर लिखी गई हैं, इसलिए इसे किस्सा कहा है, जिसका उद्देश्य मुख्यतः रेखांकित करना कि पुरावशेषों की चोरी के पीछे सामान्यतः किस प्रकार की गफलत मानसिकता होती है।

पुनश्च- 

एक बार फिर चोरी पकड़ी गई,
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