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Wednesday, April 3, 2013

मिस काल

गीत बजता- 'प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की', एक समय था जब रेडियो पर यह गीत सुनते कोई लड़की पकड़ी जाए तो उसकी खैर नहीं, और लड़के सुनते पाए गए तो उनका चरित्र संदिग्ध हो जाता था। उदार अभिभावक, जो ऐसा नहीं सोचते थे वे भी किसी अनिष्ट, बच्चे के बिगड़ने की आशंका से अवश्य ग्रस्त हो जाते थे। समय के साथ बोल बदले- 'खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों, प्यार हम करते हैं चोरी नहीं...' गीत गुनगुनाया-गाया जाने लगा। अब गीत बजता है, फिल्म दबंग-2 का, जिसमें मिस काल की उपयोगिता प्रतिपादित करने जैसी कोई बात समझ में आती है। खोया-पाया यानि 'मिस से हासिल' तुक बना तो मिस काल और एसएमएस खंगालने लगा।

15 जून 2012 को 9827988889 नंबर से एसएमएस आया था कि कलाम साहब को फिर से राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं तो 08082891049 (टॉल फ्री) पर मिस काल करें और यह संदेश अपने मित्रों को अग्रेषित करें। (मैंने विश्‍वास भी नहीं किया या आलस कर गया और शायद मेरे जैसों के चलते कलाम साहब दुबारा राष्ट्रपति नहीं बन पाए।)
6 जून 2012 को 9907927255 से आया एसएमएस, 9402702752 नंबर से भेजा बताया गया, संदेश था 2 वर्ष की बच्ची श्रेया की किडनी खराब हो गई है, उसकी शल्य चिकित्सा के लिए 6 से 8 लाख रुपयों की आवश्यकता है। सभी नेटवर्क सहमत हैं कि वे इसके लिए 10 पैसे प्रति एसएमएस (अंशदान) देंगे। यह भी कहा गया था कि यदि आपको निःशुल्क संदेश सुविधा है तो यह संदेश कम से कम 10 लोगों को अग्रेषित करें।
इसी तरह 6 अगस्त 2011 को 9582567280 से एसएमएस आया बारंबर दुहरा कर लिखा ऊं... ... ..., यह 108 ओम है। इसे 11 लोगों को भेजिए और देखिए अगले मिनट से ही आपका अच्छा समय शुरू हो जाएगा।

कुछ और नमूने- एक मिस काल करने से 100 करोड़ लोगों के जीवन में खुशियाली आएगी, 02233081122 (टॉल फ्री) पर मिस काल करें, सत्याग्रह का समर्थन करें, यह एसएमएस कम से कम 10 को भेजें।
इसी तरह के एक एसएमएस में कहा गया था- भारत सरकार ने शर्त रखी है कि लोकपाल विधेयक को लागू करने के लिए 25 लाख लोगों का समर्थन चाहिए और इसके लिए हमें सिर्फ एक मिस काल 02281550789 पर देना है। मिस काल देने के बाद आपको धन्यवाद संदेश मिलेगा, भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए यह संदेश अधिक से अधिक लोगों को भेजें।
ऐसा ही एक अन्य एसएमएस, जिसमें 25 करोड़ जनता के समर्थन की आवश्यकता बताई गई और फोन नं. 02261550789 पर फ्री काल कर अपनी जागरूकता का परिचय देने का आह्‌वान किया गया था।

कुछ समय पहले शुभचिंतकों के एसएमएस से नासा की कथित चेतावनी की खबर मिली थी कि आज रात 12 से 2 बजे के बीच अपना मोबाइल फोन आफ कर लें, अन्यथा आपके मोबाइल में विस्फोट हो सकता है तथा यह भी कि इस संदेश को अपने परिचितों को अग्रेषित अवश्य करें। एक संदेश 11 जुलाई 2012 को 9406038000 से आया कि पैकेट वाले पानी से नया वायरस एचबीएफ (हाइ बोन फीवर) फैल रहा है, बचें, औरों को बचाएं। एक मेल यह भी था कि ''अगर आपको लगता है कि स्वचालित आधुनिक मशीनयुक्त गौ कत्लखाने नहीं खुलने चाहिए तो 05223095743 मिस काल करें।'' साथ ही जिस तरह आपने अन्ना हजारे के लोकपाल बिल को सफल बनाया उसी तरह (मिस काल से?) समर्थन दें।

शुक्रवारी संतोषी माता के दौर को याद करें। मैं तो आरती उतारूं रे ... गुड़-चना का प्रसाद, नीबू, इमली, दही, खटाई, खाना ही नहीं छूना भी, सिर्फ व्रत रखने वाले के लिए नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए वर्जित। उस दौर में शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे पोस्ट कार्ड न मिला हो, जिसमें संतोषी माता की कृपा और कोप सहित संदेश के मुताबिक दस लोगों को ऐसा ही कार्ड लिख कर भेजना होता था। पिछले वर्षों में एक अन्य शुक्रवारी व्रत 'वैभवलक्ष्मी' का प्रचार हुआ है। इस कथित प्राचीन व्रत की पुस्तिका पूजा विधि, व्रत कथा और महात्म्य एक साथ है, जिसमें मां जी शीला को बताती हैं कि उद्यापन में कम से कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक कर के साहित्य संगम की 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की एक-एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए। पुस्तिका के आरंभ में 13 सूत्रीय नियमों में एक यह भी है कि व्रत पूरा होने पर वैभवलक्ष्मी व्रत पुस्तक भेंट में देनी चाहिए, जितनी ज्यादा पुस्तक आप देंगे उतनी मां लक्ष्मी की ज्यादा कृपा होगी (लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया है) और मां लक्ष्मी जी का यह अद्‌भुत व्रत का ज्यादा प्रचार होगा, लेकिन इसका एक फल यह कि इन पुस्तिकाओं की गड्‌डी को नदी प्रवाह करना पड़ता है।

देश की धर्मप्राण जनता (खासकर महिलाओं) के मनोविज्ञान और प्रचार-तंत्र के अध्ययन के लिए संतोषी माता, वैभव लक्ष्मी और गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान जैसी चीजें बड़े काम की हो सकती हैं। सूचना तंत्र के अभाव में 1857 के दौर में लाल कमल और रोटी भी इसी तरह काम में लिए जाने की बात पता लगती है और सूचना के इस दौर में भी विधि, बदले साधनों के साथ कमोबेश यही कारगर है। इसी विधि का प्रयोग नेटवर्क मारकेटिंग में होता है। आमतौर पर हम संख्‍याओं की समान्तर वृद्धि सोचते हैं गिनती 1, 2, 3, 4 या सरल गुणक 2, 4, 6, 8 में। थॉमस मालथस ने ध्यान कराया था, जबकि जनसंख्‍या में वृद्धि ज्यामितीय गुणोत्तर यानि 2, 4, 8, 16 आदि होती है।

शतरंज के अविष्कारक ने राजा के मुंहमांगे इनाम के अनुग्रह पर शतरंज के पहले खाने के लिए गेहूं का एक दाना, दूसरे के दो, तीसरे के लिए चार, चौथे के लिए आठ, बस इसी तरह चौंसठ खानों के लिए गेहूं के दानों का 'मामूली' सा इनाम मांगा, यह आपने भी सुना होगा, लेकिन इसका हिसाब शायद न सुना हो, वह है बीस अंको की संख्‍या- एक महाशंख चौरासी शंख छियालिस पद्‌म चौहत्तर नील चालीस खरब तिहत्तर अरब सत्तर करोड़ पंचानबे लाख इक्यानबे हजार छै सौ पंद्रह यानि 1,84,46,74,40,73,70,95,91,615 मात्र। इतनी संख्‍या में गेहूं के दाने रखने के लिए लगभग बारह हजार घन मीटर स्थान की जरूरत होगी। कहा जाता है कि संकट में पड़े नादान-उदार राजा के चतुर मंत्री ने तोड़ निकाला कि अविष्कारक का पूरा हिसाब होगा, वह गिन-गिन कर एक-एक दाना ले ले, बस काम बन गया। गणितज्ञों ने यह हिसाब भी लगा लिया है कि एक घन मीटर गेहूं गिनने में कम से कम छै महीने लगते।

रियलिटी शो एसएमएस के 'उद्यम' की आवश्यकता और सार्थकता साबित कर ही रहे हैं तब फिलहाल तो यही लगता है मिस काल और एसएमएस से ही सब कुछ हो जाने वाला है। आदर्श या बेहतर स्थितियां की आकांक्षा हो, विचार या प्रयास, स्वागतेय होना चाहिए, लेकिन यह सिर्फ मिस काल और एसएमएस से संभव हो जाने का भरोसा हो तो..., आगे क्या लिखूं, आप खुद समझदार हैं।
'मिस काल... समाचार पत्र नवभारत, नागपुर के
संपादकीय पृष्‍ठ-6 पर 19 अप्रैल 2013 को प्रकाशित,
तथा पूर्व में नवभारत, रायपुर के
संपादकीय पृष्‍ठ-4 पर 13 अप्रैल 2013 को प्रकाशित

Friday, February 1, 2013

बिग बॉस

अच्छा! आप नहीं देखते बिग बॉस। तब तो हम साथी हुए, मैं भी नहीं देखता यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना, पता नहीं क्या है ये, यदि आपने ऐसा कहा तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है 'बिग बॉस' का, जिसमें रहने वालों की हरकत पर निगाह होती है, कैमरे लगे होते हैं और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी संबंधों में रुचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे सड़क पर हो रहे झगड़े के, अपना जरूरी काम छोड़ कर भी, न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि मन ही मन पक्ष लेने लगते हैं और कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है, मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है।

बात थोड़ी पुरानी है, इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं, लेकिन बासी हो कर फीकी-बेस्वाद भी नहीं, बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्‍यालय, जो गाइड लाइन के लिए तत्पर रहता है, से यह भी बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी इमारत स्कूल है और इसी स्कूल के गुरुजी हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता, गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरुजी निकले बांसडीह, बलिया वाले। ये कहीं भी मिल सकते हैं, दूर-दराज देश के किसी कोने में। पूरा परिवार देस में, प्राइमरी के विद्यार्थी अपने एक पुत्र को साथ ले कर खुद यहां, क्या करें, नौकरी जो है। छत्तीसगढ़ का कोई मिले, कहीं, जम्मू, असम या लद्दाख में, दम्पति साथ होंगे, खैर...

गुरुजी ने सीख दी, आपलोग यहां पूरे समय दिखते रहें, किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक-दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, जरूर साथ रखें, अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो आप ओझल न रहें, एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में, नहाना था कुएं पर, लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा, कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरुजी को मानों मन पढ़ना भी आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं, किसी गांववासी को साथ ले कर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरुजी, फिर आश्रयदाता, उनकी बात तो माननी ही थी।

गुरुजी प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे, उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए, तब कोई सवाल नहीं किया, शब्दशः निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे, लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए, गुरुजी को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और जैसे ही कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से, उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आपलोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं, किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत, आपलोगों के प्रति संदेह को बल देता।

इस पूरे अहवाल का सार कि गुरुजी से हमने सीखा कि दिखना जरूरी वाला फार्मूला सिर्फ 'जो दिखता है, वो बिकता है' के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है, नई जगह पर आपका संदिग्‍ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है, हमने इसे निभाया 24×7, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों में यहां। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।

दुनिया रंगमंच, जिंदगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र। ऊपर वाले (बिग बॉस) के हाथों की कठपुतलियां। नेपथ्‍य कुछ भी नहीं, मंच भी नहीं, लेकिन नाटक निरंतर। बंद लिफाफे का मजमून नहीं बल्कि सब पर जाहिर पोस्‍टकार्ड की इबारत। ऐसा कभी हुआ कि आपने किसी की निजी डायरी पढ़ ली हो या कोई आपकी डायरी पढ़ ले, आप किसी की आत्‍मकथा के अंतरंग प्रसंगों को पढ़, उसमें डूबते-तिरते सोचें कि अगर आपके जीवन की कहानी लिखी जाए। रील, रियल, रियलिटी। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु कुरु स्वाहा' याद कीजिए, उन्होंने जिक्र किया है कि ऋत्विक घटक कभी-कभी सिनेमा को बायस्कोप कहते थे। बहुविध प्रयोग वाले इस उपन्यास में लेखक ने 'जिंदगी के किस्से पर कैमरे की नजर' जैसी शैली का प्रभावी और अनूठा इस्तेमाल किया है। उपन्यास को दृश्य और संवाद प्रधान गप्प-बायस्कोप कहते आग्रह किया है कि इसे पढ़ते हुए देखा-सुना जाए। आत्‍मकथा सी लगने वाली इस रचना के लिए लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते हैं- ''सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

क्लोज सर्किट टीवी-कैमरों का चलन शुरू ही हुआ था, बैंक के परिचित अधिकारी ने बताया था कि फिलहाल सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है, लेकिन हमने सूचना लगा दी है कि ''सावधान! आप पर कैमरे की नजर है'' और तब से छिनैती की एक भी घटना नहीं हुई। दीवारों के भी कान का जमाना गया अब तो लिफ्ट में भी कैमरे की आंख होती है। कैमरे की आंखें हमारे व्‍यवहार को प्रभावित कर अनजाने ही हमें प्रदर्शनकारी बना देती हैं। सम्‍मान/पुरस्‍कार देने-लेने वाले हों या वरमाला डालते वर-वधू, दौर था जब पात्र एक-दूसरे के सम्‍मुख होते थे, लेकिन अब उनकी निगाहें कैमरे पर होती हैं, जो उन पर निगाह रखता है। कैमरे ने क्रिकेट को तो प्रदर्शकारी बनाया ही है, संसद और विधानसभा में जन-प्रतिनिधियों के छोटे परदे पर सार्वजनिक होने का कुछ असर उनके व्‍यवहार पर भी जरूर आया होगा। मशीनी आंखों ने खेल, राजनीति और फिल्मी सितारों के साथ खेल किया है, उनके सितारे बदले हैं और ट्रायल रूम में फिट कैमरों के प्रति सावधान रहने के टिप्स संदेश भी मिलते हैं। कभी तस्‍वीर पर या पुतला बना कर जादू-टोना करने की बात कही जाती थी और अब एमएमएस का जमाना है और धमकी होती है फेसबुक पर तस्‍वीर लगाने की। बस जान लें कि आप न जाने कहां-कहां कैमरे की जद में हैं। बहरहाल, ताक-झांक की आदत कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन शायद है यह आम प्रवृत्ति। दूसरी ओर लगातार नजर में बने रहना, ऐसी सोच, इसका अभ्यास, आचरण की शुचिता के लिए मददगार हो सकता है।
कभी एक पंक्ति सूझी थी- ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'' बस यह वाक्य कहां से, कैसे, क्‍यों आया होगा, की छानबीन में अब तक काम में न आए चुटके-पुर्जियों और यादों के फुटेज खंगाल कर उनकी एडिटिंग से यानी 'कबाड़ से जुगाड़' तकनीक वाली पोस्‍ट।

पुछल्‍ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्‍सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्‍यों? ऐतराज क्‍या? स्‍थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
'जनसत्‍ता' 11 मार्च 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट

Friday, December 7, 2012

ब्‍लागरी का बाइ-प्रोडक्‍ट

आप सभी वेब परिचित, प्रत्‍यक्ष मुलाकात तक अन्‍तरिक्षीय देवों की तरह होते हैं, इसलिए यहां, आपके 'सामने' ईमानदार बना रह सकना आसानी से संभव हो जाता है, ज्‍यों कन्‍फेशन बाक्‍स की सचबयानी।

पड़ोसी और अजनबी-परदेसी से बात छुपाने का औचित्‍य नहीं होता, पड़ोसी को पता चलनी ही है, अजनबी को क्‍या लेना-देना बातों से और उसके साथ सब बातों को परदेसी हो जाना है। आप सब तो बगल में होकर भी परदेसी हैं, फिर आपसे क्‍या दुराव-छिपाव।

माना कि दीवारों के भी कान होते हैं मगर 'आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी' ... कभी सच भी तो सर चढ़कर बोलने लगता है, प्रियं ब्रूयात से अधिक जरूरी सत्‍यं ब्रूयात हो जाता है।

वैसे सच और ईमानदारी के पीछे अगर कोई कारण होते हैं, वह सब लबार के लिए भी लागू हो जाते हैं, ज्‍यों शराबी बाप के दो बेटों में एक शराब पीने लगा, क्‍योंकि उसका बाप शराबी था और दूसरा शराब से नफरत करता, कारण वही कि उसका बाप शराबी था। या दार्शनिक वाक्‍य- 'जो सुख का कारण है, वही दुख का कारण बनता है।' बहादुरशाह ज़फर की कही-अनकही है-
कहां तक चुप रहूं, चुपके रहे से कुछ नहीं होता,
कहूं तो क्‍या कहूं उनसे, कहे से कुछ नहीं होता।

परोक्ष मुलाकात की धूमिल ही छवि है स्‍मृति में। चलिए आपसे प्रत्‍यक्ष होने के अवसर की प्रतीक्षा रहेगी। आपकी टिप्‍पणी में प्रशंसा है, अस्‍वीकार कैसे करूं, लेकिन सचाई यह है कि साहित्‍य से सीधा कुछ रिश्‍ता रहा नहीं। कभी लिपि की दिशा से, कभी संस्‍कृति तो कभी इतिहास-पुरातत्‍व के माध्‍यम से लिखना-पढ़ना साधने की कोशिश करता हूं, मुझे पता है जैसा चाहता हूं वैसा ठीक सधता नहीं, लेकिन मैं भी पीछा छोड़ता नहीं। 

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लेकिन कुछ समय के लिए तुम्‍हें सचमुच नास्तिक मान बैठा था, तुम तो पक्‍के आस्तिक निकले, साम्‍यवाद पर ऐसी आस्‍था, चकित हूं मैं।

मैं तो मंदिर जाता हूं, कुछ कर्मकाण्‍डों का अनुकरण भी कर लेता हूं मन नहीं रमता उसमें, लेकिन लगता है कि कुछ चीजें जिनसे न लाभ न हानि, उनसे सहमति-असहमति से निरपेक्ष रह कर नकल निभा लेने में हर्ज नहीं, क्‍योंकि गांठ बांधकर विरोध भी तो एक तरह का आकर्षण है, आसक्ति है, वह सिर्फ विरोधी नहीं रह जाता। निरासक्‍त रहना ही सच्‍ची नास्तिकता है और तभी वह आस्तिकता जैसी पवित्र और सम्‍मानजनक है। हां, मैं ताबीज, गंडा नहीं बांधता, भौतिक या वैचारिक दोनों तरह के, अंगूठी, नग-पत्‍थर नहीं धारण करता और नाम जपन, नियमित दीप-धूप-अगरबत्‍ती भी नहीं करता यह सूचना के बतौर बता रहा हूं, क्‍योंकि इसकी घोषणा भी आसक्ति और आस्तिकता ही है, ''न के प्रति आसक्ति।''

कुछ संस्‍थाएं हैं आसपास, एक सद्यजात छोड़े बच्‍चों को पालती है, एक मानसिक विकलांग महिलाओं की देखरेख करती है और एक बुजुर्गों का जतन। जब भी मन खिन्‍न होता है, कमजोर होता है या किसी भौतिक, मानसिक जीत का जश्‍न मनाने का उत्‍साह बेकाबू होता है तो इन्‍हीं तीन का स्‍मरण करता हूं या अवसर निकाल कर स्‍वयं जाता हूं। मंदिर जा कर या भगवान को याद कर वैसा नहीं महसूस कर पाता, जैसा औरों से सुनता हूं, पढ़ा है। यह भी स्‍पष्‍ट कर दूं कि इनमें पहली हिन्‍दू संस्‍था द्वारा, दूसरी इसाईयों की और तीसरी नाम ध्‍यान न रही संस्‍था, वहां के एक सक्रिय मुस्लिम सदस्‍य का जिक्र हुआ था, द्वारा संचालित है, संयोगवश। 

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पत्रकार अक्‍सर 'खोजी' होते हैं और उनकी खोज अपने-अपने 'सत्‍य की खोज' की तरह नित नूतन पहली बार ही होती है यानि जिसे उसने पहली बार जाना, वह पहली बार ही जाना गया है और वही इसे उजागर कर यह 'सत्‍यार्थ प्रकाश' फैला रहा है। अखबारों का 'दुर्लभ', 'पहली बार', 'नया', 'एक्‍सक्‍लूसिव-बाइलाइन' और अब तक अनजाना- 'रहस्‍योद्घाटन' अक्‍सर ऐसा ही होता है, लेकिन शायद यही शोध और खोज का फर्क है। यह पत्रकारों की मेहनत को कमतर आंकना नहीं है, लेकिन आम प्रवृत्ति लगभग इसी तरह प्रकट होती रहती है, यह मीडिया की विश्‍वसनीयता को कम करती है। इन सबके पीछे समय सीमा का तर्क होता है यानि अखबार, जो रोज छपते हैं और चैनल, जिन्‍हें 24 घंटे कुछ न कुछ परोसना है और सबसे पहले। 'एक-दिवसीय इतिहास बन रहा है और अखबार क्‍या तवारीख भी रद्दी में बिक रहा है।'

इम्‍पैक्‍ट फीचर, साफ्ट स्‍टोरी और पेड न्‍यूज के बीच की क्षीण सी रेखा कभी आभासी मात्र जान पड़ती है। रील-रियल से रियलिटी शो और लाइव का गड्ड-मड्ड... ठीक-ठाक प्रूफ (रीडिंग) न होने से भी एडवरटोरियल, एडिटोरियल हो सकता है। 'जब मिल बैठेंगे तीन यार...', जैसे उद्घोष के साथ शराब निर्माता मिनरल वाटर और सोडा भी बनाते-बेचते हों तो शराबी को थोड़ी आसानी हो जाती है लेकिन पानी के ग्राह‍क को शराबी समझ लेने की गलती भी आसानी से हो सकती है।

समाचार-पत्र/मीडिया, पत्रकारों की छवि और चरित्र, उनके आक्रामक तेवर और आतंक के लिए 'पीपली लाइव' का हवाला देने वालों के ध्‍यान में नवम्‍बर, 1894, वाशिंग्‍टन में स्‍वामी विवेकानंद की लेखी का यह उद्धरण भी रहे- ''भारत में मेरे नाम पर काफी हो-हल्‍ला हो चुका है। आलासिंगा ने लिखा है कि देश भर का प्रत्‍येक गांव अब मेरे विषय में जान चुका है। अच्‍छा, चिर शान्ति सदा के लिए समाप्‍त हुई और अब कहीं विश्राम नहीं है। मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि भारत के वे समाचार-पत्र मेरी जान ले लेंगे। अब वे लिखेंगे कि मैं किस दिन क्‍या खाता हूं, कैसे छींकता हूं। भगवान उनका कल्‍याण करे।'' 

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मेल, टिप्‍पणी और प्रति-टिप्‍पणियों का बचा-खुचा, प्रयोग है एक पोस्‍ट यह भी।

Wednesday, March 28, 2012

भूल-गलती

स्वदेश-परिचय माला में प्रकाशित ग्यारह पुस्तकों में एक, ''भारत की नदियों की कहानी'', आइएसबीएन : 978-81-7028-410-9 है। हिन्दी के प्रतिष्ठित राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय। यह भी बताया गया है कि- ''प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य।'' पुस्तक देखते-पढ़ते यह अजीब लगा कि पुस्‍तक में कुछ रेखांकन जरूर हैं, लेकिन चित्र प्रत्येक पृष्ठ पर नहीं।
सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्यों वाली बात के परीक्षण के लिए पुस्तक के अंश उद्धृत हैं-

''नर्मदा
मैं अमरकण्टक की पहाड़ी गाँठ से निकलती हूँ और भारत के इस सुन्दर प्रदेश को ठीक बीच से बाँट देती हूँ। मेरे एक ओर विन्ध्याचल है, दूसरी ओर सतपुड़ा और दोनों के बीच चट्‌टानें तोड़ती तेज़ी से मैं पश्चिमी सागर तक दौड़ती चली जाती हूँ। अनेक बार मैं पहाड़ की चोटी से गिरती भयानक प्रपात बनाती हूँ, अनेक बार पहाड़ी भूमि की गहराइयों में खो जाती हूँ, अनेक बार जामुन के पेड़ों के बीच फैली हुई बहती हूँ। मेरा इतिहास पुराना है, मेरी घाटी में सभ्यताओं ने समाधि ली है।''

पुस्‍तक के उपरोक्‍त अंश में पहाड़ी गाँठ शब्द का प्रयोग सुगम-सहज नहीं लगा। सुन्दर प्रदेश को बांटने वाली बात जमती नहीं, ऐसा लगता है कि इस प्रदेश को बांटने के लिए नदी प्रवाहित हुई है। भयानक शब्द का प्रयोग भी खटकता है (याद करें, वेगड़ जी की नर्मदा पर लिखी पुस्तकें- सौंदर्य की नदी नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा, और अमृतस्‍य नर्मदा) और ''सभ्यताओं ने समाधि'' जैसा प्रयोग भी अखरता है।

एक और अंश देखें-

''सोन
मैं भी ब्रह्मपुत्र की तरह नद की संज्ञा से ही विभूषित हूँ।... बरसाती दिनों में बड़ा भयंकर स्वरूप होता है मेरा। ... मेरी बालुका-राशि अति शक्तिशालिनी होती है, इसीलिए भवन-निर्माण आदि में सोन की रेत सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। ... प्रसिद्ध तीर्थस्थल अमरकंटक मेरा उद्‌गम है। ... एक छोटे-से चहबच्चे से 'पेंसिल' के आकार में निकलती हूँ मैं।
... मुझे गर्व है कि अमरकंटक के सदृश पुनीत पर्वत से मेरा प्राकट्‌य हुआ। ... ज्ञात ही है कि नर्मदा का उद्‌गम-स्थल भी यही है, अतः नर्मदा मेरी बड़ी बहन है। ... नर्मदा और अमरकंटक का वर्णन विस्तार से इसलिए करना पड़ा क्योंकि जहाँ से मेरी प्यारी सखी निकलती है, वहीं से थोड़ी दूर उत्तर में मेरी एक सहायिका नदी भी निकलती है, जिसे ज्योतिरथ्या का नाम प्राप्त है। ... ज्योतिरथ्या को अपभ्रंश में जोहिला भी कहते हैं। ... ज्योतिरथ्या या जोहिला के जल को ग्रहण करने के पश्चात्‌ ही मैं नदी से नद बनती हूँ। ... एक दूसरी महत्वपूर्ण नदी जो मेरे उदर के आकार को बढ़ाती है, वह है महानदी।''

यहां नद कहते हुए संज्ञा के बजाय लिंग (स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग) की बात उचित होती, वैसे आत्मकथन शैली में लिखे होने पर भी कहीं मेरी रेत के बजाय 'सोन की रेत' लिखा गया है साथ ही सोन और ब्रह्मपुत्र दोनों के लिए लिंग का ध्यान नहीं रखा गया है। भयंकर (विशाल, विकराल का प्रयोग उपयुक्त होता) शब्द के प्रति लेखक की आसक्ति यहां भी बनी हुई है। ... भवन-निर्माण के लिए क्या शक्तिशालिनी बालू होती है? ... पेंसिल के आकार से आशय स्पष्ट नहीं होता। नद-नदी के आकार के लिए प्रचलित 'काया' के बजाय उदर शब्द का प्रयोग अजीब लगता है। महानदी के जिक्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह छत्तीसगढ़ वाली प्रसिद्ध महानदी (हीराकुंड बांध वाली) नहीं, बल्कि इससे इतर छोटी महानदी है। गोपद नदी को ही शायद यहां गोमत कह दिया गया है इसी तरह ओंकारेश्‍वर को बार-बार ओंकालेश्‍वर कहा गया है।

सोन के लिए एक बार अमरकंटक 'मेरा उद्गम' और दूसरी बार अमरकंटक से 'मेरा प्राकट्‌य' बताया गया है, इससे लगता है कि लेखक के मन में सोन के उद्‌गम को लेकर संदेह रहा है या वे जान-बूझ कर पाठक को भ्रमित करना चाहते हैं ऐसा तो संभव नहीं कि इन दोनों से अलग उन्हें यह पता ही न रहा हो। इसी तारतम्य में सोन उद्‌गम के लिए मध्यप्रदेश राज्य पर्यटन विकास निगम लिमिटेड द्वारा एक तरफ अमरकंटक से 3 किलोमीटर पर सोनमुड़ा को ''The source of river Sone'' बताया जाता है वहीं अपने अमरकंटक फोल्डर में 'निगम' ने (सोनमुड़ा को प्रूफ की भूल से? सोन मुंग लिख कर) ''उद्‌गम है'' के बजाय ''उद्‌गम माना जाता है'' छापा है।
सोन, नर्मदा और जोहिला के उद्‌गम अंचल में राजकुमार सोन, राजकुमारी नर्मदा की उसके प्रति आसक्ति, दोनों का विवाह तय होना, जोहिला नाइन का छलपूर्वक सोन से संगम और नर्मदा का रूठकर कुंवारी रह जाने की कथा व गीत प्रचलित है- ''माई नरबदा सोन बहादुर जुहिला ल लेइ जाय बिहाय'' और ''मइया कंच कुंवारी रे, सोन बहादुर मुकुट बांध के जुहिला ल लाने बिहाय।'' संबंधित प्रकाशनों में भी आसानी से यह कथा छपी मिल जाती है, फिर जोहिला को सहायिका कहने तक तो ठीक है, लेकिन नर्मदा को सोन की बड़ी बहन कहने की बात एकदम नहीं जमती।

सोन का वास्‍तविक उद्‌गम, छत्‍तीसगढ़ के पेन्‍ड्रा के पास सोन बचरवार में मौके पर स्पष्ट है ही, स्‍तरीय अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है। इस तरह ''भारत की नदियों की कहानी'' पुस्‍तक में अमरकंटक को सोन का उद्‌गम बताया जाना भारी भूल है। अपनी पसंदीदा पुस्‍तकों में से एक 'पुरातत्‍व का रोमांस' के लेखक के रूप में, भगवतशरण उपाध्‍याय जी के प्रति मेरे मन में बहुत सम्‍मान है लेकिन उनकी पुस्‍तक 'सवेरा-संघर्ष-गर्जन' वाले (राहुल सांकृत्‍यायन की 'वोल्‍गा से गंगा' की तुलना का) विवाद के कारण उनकी छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा, वह इस प्रकाशन से गंभीर हो जाता है। याद करें, छपाई की श्रमसाध्‍य, समयसाध्‍य और जटिल प्रक्रिया के दौर में अधिकतर अच्‍छे प्रकाशनों में शुद्धि पत्र का पृष्‍ठ होता था। ऐसा भी उदाहरण मैंने देखा है, जिसमें पुस्‍तक की मुद्रित प्रतियों में लेखक स्‍वयं द्वारा कलम से प्रूफ की गलती का सुधार किया गया है।

प्रसंगवश, ब्‍लागिंग का प्रभाव, उसकी ताकत, सार्थकता मात्र ब्‍लाग और पोस्‍ट की संख्‍या के आधार पर या टिप्‍पणियों के आदान-प्रदान से तो संभव नहीं है। कविताओं पर सुंदर, नादान-कामुक वाली 'हॉट एन सॉर' या 'स्‍वीट-सॉर', बेमेल तस्‍वीरें लगाना जैसी प्रवृत्ति भी तेजी से फैलती है। संभव है यह जल्‍दी ही बहुमत बन जाए, तब तो असहमति के बावजूद जन-भावना का सम्‍मान करते हुए जनता-जनार्दन का निर्णय शिरोधार्य करना पड़ सकता है, सो इसकी आलोचना में देर करना ठीक न होगा। ऐसे ब्‍लागर अच्‍छी तरह समझते होंगे कि उनकी रचना कितनी प्रभावी है। यह भी अंदाजा होता है कि वे अपने अपेक्षित पाठक का क्‍या मूल्‍यांकन करते हैं।

इसका खास प्रयोजन यह कि हिन्‍दी ब्‍लागिंग में जिम्‍मेदारी और गंभीरता का सामूहिक भाव, उसे मजबूती देने में सहायक हो सकता है इस दृष्टि से विचार है कि एक जन-मंच (फोरम) हो, जिसमें खास कर प्रतिष्ठित-स्‍तरीय प्रकाशक-लेखकों की ऐसी पुस्‍तकों की चर्चा हो, जिसमें गंभीर तथ्‍यात्‍मक चूक होती है। ऐसी लापरवाही सामान्‍य ज्ञान की पुस्‍तकों में भी मिल जाती है। ऐसा फोरम यदि अच्‍छे संपादन सहित काम करने लगे तो शायद इस प्रवृत्ति पर अंकुश हो, यह लोक-नियंत्रण (पब्लिक सेंसर) जैसा काम होगा। यानि 'भूल-गलती उदासीनता का फायदा लेते, जिरह-बख्‍तर पहन कर न बैठ जाए।' ऐसा फोरम वांछित गति और स्‍तर पा ले तो प्रकाशक और लेखक भी अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने यहां आएंगे। उपभोक्‍ता और बौद्धिक जागरूकता, प्रतियोगी परीक्षाओं के वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍नों के उत्‍तर, कानूनी संदर्भ-अड़चन जैसे अन्‍य पक्ष इसके विस्‍तार में शामिल होंगे। अधिक गंभीर गलतियों वाले प्रकाशन पर रोक भी लग सकती है।

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