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Friday, August 10, 2012

यौन-चर्चा : डर्टी पोस्ट!

'मिथुन' और 'रति', साथियों में इक्के-दुक्के थे, जो इन शब्दों का बेझिझक उच्चारण कर पाते थे, कस्बाई और कुछ शहरी सिनेमाघर के पोस्टरों पर 'मिठुन' लिखा और बोला भी इसी तरह जाता था। इन नामों को चक्रवर्ती और अग्निहोत्री का सहारा दे कर बोलने में भी पहले-पहल हिचक होती थी। वैसी ही हिचक जैसी गायत्री मंत्र के उच्चारण में। यह हमारे टीन-एज (therteen-ninteen वर्ष की आयु) या कहें अह-आयु (ग्यारह-अट्ठारह वर्ष की आयु) पार कर लेने का दौर था। इस मामले में भाषा, रोजमर्रा वाली न हो तो बात कुछ आसान हो जाती है, ज्‍यों मूर्तिकला और साहित्य-अध्ययन संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ, और जंतुविज्ञान की पढ़ाई अंगरेजी के कारण, सहज हो पाती है। शायद भाषा की ही वजह से कोकशास्त्र का नाम सुनते रह गए, ठीक से देख भी न पाए लेकिन मास्टर्स एंड जॉनसन और द सेकंड सेक्स उसी दौर में पढ़ लिया, लेकिन तब बस इतना ही समझ पाए कि बात आसान नहीं, मामला कुछ तो गंभीर-सा है।

धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम, इन चार पुरुषार्थों वाली व्यवस्था हमारी शास्त्र परम्परा और संस्कार के अंग हैं। बच्चों की शिक्षा में धर्म, अर्थ और काम तीनों की शिक्षा आवश्यक होती थी, इसलिए गुरुकुलों में न सिर्फ मनु आदि स्मृतिकारों के धर्मशास्त्र और चाणक्य आदि राजविदों के अर्थशास्त्र, बल्कि वात्स्यायन आदि कामशास्त्रियों के कामशास्त्र का भी अध्ययन कराया जाता था। पंचतंत्र की कहानियां इसका अच्छा उदाहरण हैं, जिनमें नीति और दुनियादारी वाले प्रसंगों के साथ काम-कथाएं भी हैं और यह टीन-एजर के लिए अनूठे रोचक पाठ्‌यक्रम का नमूना नहीं, सीधे पाठ ही हैं।

ऐतिहासिक शिल्‍प परम्परा में खजुराहो और कोणार्क से ले कर भोरमदेव तक की मूर्तियां अधिक चर्चित हैं, लेकिन ऐसी प्रतिमाएं कमोबेश पुराने मंदिरों में होती ही हैं। जिज्ञासा प्रकट की जाती है कि कैसा सामाजिक दौर रहा होगा जब मंदिरों के लिए ऐसी मूर्तियां बनाई गई होंगी। इसका जवाब प्रतिप्रश्न में आसानी से मिल सकता है कि इस दौर के योनिपीठ में स्थापित शिवलिंग की पूजा, स्खलित-वसना और लज्जा गौरी की प्रतिमाओं में उकेरी गई अनावृत्त योनि का संग्रहालयों में सार्वजनिक प्रदर्शित, नागा साधुओं और दिगम्बर जैन मुनियों के आधार पर समाज के यौन-व्यवहार की कैसी व्याख्‍या होगी। ''साहित्य समाज का दर्पण है'' सूत्र से आगे बढ़ें तो प्राचीन पौराणिक और लौकिक साहित्य से ले कर रीतिकालीन काव्य तत्‍कालीन समाज को किस तरह प्रतिबिंबित करेंगे।

अब समाज का एक प्रतिबिंब फिल्में भी हैं। नियोग प्रथा की शास्त्रीय मान्यता वाले हमारे समाज में 'विकी डोनर', न सिर्फ बतौर फिल्म अच्छी मानी गई, बल्कि केवल पांच करोड़ बजट वाली फिल्म ने खासा मुनाफा कमाया और सबसे खास कि आम संस्कारी मध्य वर्ग के अधेड़ दर्शकों को भी इसमें कुछ खटका नहीं। बोल्ड हो चुके आम हिन्दी फिल्म दर्शकों को 'जिस्म-2' में कुछ खास आपत्तिजनक नहीं लगा, वैसे जानकार इसका श्रेय सेंसर की कैंची को देते हुए बताते हैं कि पूजा-सनी ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखी थी। बहरहाल विकी डोनर के निर्माता जॉन अब्राहम के कथन कि यह 'एक साफ-सुथरी फिल्म है' से कोई खास असहमति नहीं जताई गई, हां! पिछले दिनों आइफा अवार्ड्‌स में इस फिल्म को ले कर शाहिद कपूर की कॉमेडी में जिस ओछे स्तर की अश्लीलता और फूहड़पन दिखाया गया, उसे भूल जाना ही बेहतर है।

चित्र बतकुचनी से साभार
बड़ों के लिए जो 'बाज़ीचा ए अतफाल' है, अबोध मान लिए जाने वाले बच्चों का खेल छत्तीसगढ़ी में घरघुंदिया कहा जाता है। गुड्‌डा-गुड़िया और फिल्म लव स्टोरी के गीत 'देखो मैंने देखा है ये इक सपना' जैसा मिला-जुला खेल। घरघुंदिया में बच्चे धूल-मिट्‌टी, सींक-चिंदियों जैसी अनुपयोगी लेकिन सुलभ सरंजाम से घरौंदे-आकृतियां बनाते हैं और अपने पसंद की भूमिकाएं चुनकर मां-बाप, भाई-बहन, पड़ोसी-टीचर और पति-पत्नी भी बनते हैं। ''घरघुंदिया खेलबो रांधी पसानी, बन जाबे मोर रानी। ठट्ठे ठट्ठा के बिहा हर होही, घर म भरबे पानी॥'' खेल के बीच में शामिल होने वाले बच्चे को मेहमान या सद्यःजात शिशु जैसी भूमिका दी जाती है। खेल के अंत में 'मोर चुंन्‍दी (चूड़ा=केश) बाढ़ जाय' और 'मोर गाय जनम जाय' कहते हुए घरघुंदिया के लिए बनाई गई सभी आकृतियां मिटा-मेंझाल दी जाती हैं। यौन-शिक्षा के बारे में सोचते हुए शायद हमारे ध्यान में यह साफ तौर पर नहीं आता कि (अपने भी खेले) घरघुंदिया के वार्तालाप और क्रिया-कलाप कितने प्रौढ़ होते हैं और दिन-दिन भर चलने वाले इस खेल में दैनंदिन ही नहीं, मास-बरस भी होता है। कालिदास के कुमारसंभव में पार्वती कुछ सयानी हो जाने पर सखियों के साथ ‘कृत्रिमपुत्रकैः‘ (गुड्डा-गुड़िया या बनावटी पुत्र?) खेला करती थीं। बख्‍शी जी के निबंध 'गुडि़या' का अंश है – ''गुडि़या का विवाह एक खेल है, एक तमाशा है, पर अक्षय तृतीया की ही रात्रि में यह खेल होता है। ... गुडि़या के विवाह का चाहे जो रहस्‍य हो, पर इसमें सन्‍देह नहीं कि लड़कियों के इस उत्‍सव में मैं अवश्‍य सम्मिलित होता हूं।''

यों यौन शिक्षा के औचित्य का प्रश्न वाद-विवाद प्रतियोगिता के विषय तक सीमित होता दिखता है, लेकिन आज के दौर में यौन से जुड़ी, संचार साधनों से सहज उपलब्‍ध, असम्‍बद्ध सचित्र सूचनाओं और अधकचरी जानकारियों का बच्चों तक पहुंचना, हमारे चाहने-न चाहने के आश्रित नहीं रह गया है फिर भी हम अधिकतर अभिभावक के मन में कहीं होता है कि हमने जो बहुत कुछ उम्र से पहले जान लिया था, बच्‍चे वह उम्र आने पर ही जान पाएं। ऐसी स्थिति में यह देखना अधिक जरूरी है कि यौन चर्चा वर्जित 'गुप्त ज्ञान' बन कर ग्रंथि और कुंठा न बन जाए। स्कूलों में हिन्दी के रसिक शिक्षक श्रृंगार रस की कविताओं की जैसी व्याख्‍या करते हैं, सहशिक्षा वाले स्कूल के जीवविज्ञान की कक्षाओं में भी जननांगों और प्रजनन के पाठ पढ़ाए जाते हैं और चिकित्सा महाविद्यालयों में अनिवार्यता के कारण मानव अंगों का प्रत्‍यक्ष अध्‍ययन किस आसानी से संभव हो जाता है, जैसे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में अनुशासित करने की आवश्यकता है।

एक पिता, 9 साल के बेटे और 13 साल की बेटी के साथ टीवी देख रहे थे। मां किचन में थी। कंडोम का विज्ञापन आने लगा। टीन-एज बेटी की उपस्थिति ने पिता को असहज कर दिया। पिता ने चैनल बदला। 'नासमझ' बेटा वही चैनल देखने की जिद करने लगा, फिर रूठ कर मां के पास किचन में चला गया। 'समझदार' हो रही बेटी ने कहा- ''पापा! भाई कुछ पूछ न बैठे, आपने इसीलिए कंडोम विज्ञापन वाला चैनल बदला न।''

इस प्रसंग के सच होने का प्रमाण यही है कि हम-आप सब के साथ इससे मिलता-जुलता हमें 'चौंकाने वाला' वाक्या जरूर हुआ होता है, होता रहता है।

यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 26 अगस्‍त 2012 के अंक में प्रकाशित।