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Sunday, August 26, 2012

दोहरी आजादी

अगस्त 1947 में भारत को दोहरी आजादी मिली। चाही थी एक, मिल गई दो (अब बांगला देश सहित तीसरी भी)। मानों एक के साथ एक जबरन फ्री। एक हिस्सा पाकिस्तान बन कर 14 तारीख को पहले आजाद हुआ और दूसरा भारत उसके बाद 15 तारीख को। जिन्‍ना पाकिस्‍तान डोमिनियन के पहले गवर्नर जनरल बन गए, नेहरू ने स्‍वतंत्र भारत के पहले प्रध्‍यनमंत्री पद की शपथ ली, गांधी ने अपना वह दिन उपवास और प्रार्थना र्में बिताया। 1946 से शुरू हुए दंगे, काश इतिहास में दफन रह जाते। आजादी के टुकड़ों में बंट जाने की त्रासदी के घावों पर भाईचारे के मरहम की चर्चाएं कम हों, लेकिन मिल जरूर जाती हैं।

सत्तर बसंत पार कर चुके बिलासपुर के हरदिल अजीज जनाब हिदायत अली 'कमलाकर' आजादी-बंटवारे के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि पिता जनाब वासित अली खां, पिछोर, ग्वालियर में नायब तहसीलदार थे, दिन में 200 पान खाते थे, फिर भी 91 साल की उम्र तक दांत सलामत रहे। बड़े भाई इनायत अली खां 'डालडा' व्यंग्य-तंज लिखते थे, नियमित गणेश पूजा करते और गणेशोत्सव के दस दिन पूरे समय इसी में मशगूल होते। वैवाहिक संबंध अब हिन्दू परिवारों से भी हैं। कहते हैं- परिवार में हम चार भाई, दो बहन, माता, पिता और बिस्सी महराज थे। बिस्सी महराज पिताजी के सहयोगी थे, दंगों और अशांति के दौरान मौके आए, लेकिन दोनों एक दूसरे के लिए जान पर खेलने को तैयार रहते।

शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, बिलासपुर के क्रीड़ा अधिकारी रहे कमलाकर जी को छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 2008 में खेल विभूति सम्मान दिया गया है। साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ बिलासपुर में बातें अक्सर कमलाकर जी के इर्द-गिर्द होती हैं। बंटवारे की पृष्ठभूमि पर उनका लिखा 'आज़ादी का पहिला दिन' नाटक प्रकाशित है। इसके साथ बाल साहित्य, नाटक, कविताओं की 15 पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा 'अर्जुन का मोहमर्दन', 'कैकेयी का संताप', 'पाली का मंदिर' जैसी रचनाएं शीघ्र प्रकाश्य हैं। आपको 1998 में 'वीणा' खंडकाव्य पर मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का पं. हरिहर निवास द्विवेदी पुरस्कार भी मिल चुका है।

कमलाकर जी की एक चर्चित कृति 'समर्थ राम' हैं। पुस्तक में अंकित रामनवमी 06 अप्रैल 2006 तिथि के साथ 'अपनी बात' में आप लिखते हैं कि-
'समर्थ राम' लिख कर मेरे जीवन का एक महती लक्ष्य पूर्ण हुआ है। विगत अनेक वर्षों से ''मर्यादा पुरुषोत्तम राम'' पर कुछ लिखने की ललक थी। परन्तु जिस राम पर अनगिनत लेखनियों की स्याही चलते-चलते सूख गई हो और राम के जीवन का विषय क्षेत्र न बचा हो जिस पर लेखनी चल सकें तब मेरे जैसा अकिंचन राम पर लिखने का साहस कहां से बटोर पाता?
आगे वंदना की पंक्तियां हैं-
राम महासागर से उपजी 'समर्थ राम' मम हृदय।
'कमलाकर' गा रहे कृपा से मां सरस्वती सदय॥

इस साल आजादी की सालगिरह के सप्ताह में आई ईद पर बिस्सी महराजों के साथ हिदायत अलियों, कमलाकरों, दोनों आजाद मुल्‍कों के लिए मुबारकबाद इसी मंच पर।

Wednesday, August 15, 2012

मसीही आज़ादी

छत्‍तीसगढ़ ओरिसा चर्च कौंसिल के मुख्‍यालय रायपुर में १५ अगस्‍त १९४७ को मसीहियों द्वारा किस तरह महसूस किया जा रहा था, दस्‍तावेजी लेख में दर्ज प्रासंगिक अंश-

आज हम स्वतंत्र भारतीय आज़ाद भारत में प्रथम समय यहां एकत्रित हुए हैं स्वतंत्रता दिवस, अगस्त १५ को हम ने सारे देश में कितने आनन्द और समारोह से मनाया। उस की स्मृति हमारे हृदय में सदैव जागृत रहेगी। ऐसे तो यह दिन सब ही के लिये महत्वशील था, किन्तु हम मसीहियों के लिये यह एक विशेष अर्थ रखता है। वास्तविक स्वतंत्रता हमें मिल चुकी है। ... ... ... हम ख्रीष्टियानों का यह कर्तब्‍य है कि हम स्वतंत्रता का असली अर्थ लोगों को बतायें, जिस से जनता का अधिकाधिक हित हो सके। मसीही होने के कारण हमें ये सुनहरा अवसर हाथ लगा है। हम सामुहिक और व्यक्तिगत रूप से इस अवसर का सदुपयोग देश सेवा हितकर सकते हैं। यह व्यर्थ की वार्ता नहीं है। हमारे देश के नेताओं ने जो कार्यक्रम बनाया है उसे सफल बनाने के लिये यीशुमसीह का आर्शीवाद आवश्यक है। ... ... ...
हमें सर्तक रहना होगा और प्रत्येक अवसर का उपयोग करना पड़ेगा। हमारे देश का इतिहास बहुत शीघ्र बदलता जा रहा है। इंगलैंड के प्रधानमंत्री, श्रीमान एटली ने लगभग सात मास पूर्व ये घोषणा की थी कि अंगरेजी राज्य जून सन १९४८ में समाप्त हो जायगा। घटनाएं इतनी शीघ्र घटिं कि वह राज्य साढ़े पांच माह में समाप्त हो गया। बात कहते में पाकिस्तान और भारत खण्ड नामक दो राष्ट्र उत्पन्न हो गये। उस दिन से स्वंतत्रता ने हमें एक विचित्र हर्ष प्रदान किया है। हमारे जीवन में एक नई छटा दिखाई दे रही है। किन्तु हर्ष के साथ शोक और चिन्ता भी आई है। लाखों मनुष्य अवर्णानीय दुख भोग रहे हैं। कलकत्ते और पंजाब में हजारों मनुष्य सामग्री खो बैठे हैं और मारे२ फिर रहे हैं। लाखों की हत्या हुई है और गांवों के गांव नष्ट कर दिये गये। भारत से मुसलमान प्राण बचा कर पाकिस्तान भागे जा रहे हैं और वहां से हिन्दु और सिख प्राण लेकर यहां आ रहे हैं। महात्मा गांधी ने कलकत्ते में जाकर अनुपम आत्मिक वीरता दिखाई। उन्हों ने मसीही शिक्षानुसार घृणा और बैर को प्रेम और सेवा से जीता। फलस्वरूप आज कलकत्ते में अमन है। दिल्ली में भी उन्हों ने ऐसी ही भलाई की। उनका पंजाब जाना जनसमुहों के एक प्रांत से दूसरे प्रान्त भागने के कारण रुक गया। हमारी सरकार का कार्यक्रम भी एकदम बन्द हो गया। मनुष्य की पशुप्रवति जागृत हो उठी और प्रायः देश भर में हाहाकार मच गया। जिन ने अपनी आंखो से सब कुछ देखा है, वे बताते हैं कि दुर्घटनाएं बड़ी रोमान्चकारी, हृदय-विदारक और अकथनीय है। प्रधान मंत्रि पंडित नेहरू ने स्वयंम कहा है कि ऐसा लगता है मानो मनुष्य पागल हो गये हैं। इन सब क्लेशों और कष्टों के साथ ही अकाल और बिमारियां भी आईं हैं। सकल भारत की मंडलियों से कार्यकर्ता भेजने की विनय की जा रही है। डाक्टरर्स नर्सेस और संचालकों की शरणागतों की सेवा के लिये बडी मांग है। पैसों की भी बड़ी आवश्यकता है। मसिहियों को यह अनूठा अवसर हाथ लगा है। हमें यीशु का प्रचार अपने जीवन से करना होगा। जैसी कठिन समस्या है वैसा ही परिणाम भी होगा। हमारी मिशन से कई मिशनरी जाने वाले हैं। देशी मंडलियों से भी कई भारतीय जाने के लिए तत्पर है।
छत्‍तीसगढ़ डायोसिस, रायपुर - अजय जी
छत्‍तीसगढ़ ओरिसा चर्च कौंसिल का रजिस्‍टर, जिसका अंश यहां प्रस्‍तुत है, पृष्‍ठ- २४६ और २४७ पर '' सी.ओ.सी.सी. माडरेटर की रिपोर्ट '' ( अक्‍टोबर १९४६ से दिसम्‍बर १९४७ तक ) शीर्षक से दर्ज है, जिसमें आगे यह भी उल्‍लेख है कि ''ईसाइयों ने (Joint electorate ) युक्‍त निर्वाचन के सिद्धांत को स्‍वीकार किया है। हम लोग साम्‍प्रदायिकता के हमेशा विरोधी रहे हैं। हमने ये बात अपने कार्यों से भी स्‍पष्‍ट कर दी है। हम नहीं चाहते कि हमें कोई एक प्रथक सम्‍प्रदाय समझे।'' यह दस्‍तावेज अप्रत्‍याशित उदारतापूर्वक रायपुर डायोसिस, छत्‍तीसगढ़ के सचिव अजय धर्मराज जी ने उपलब्‍ध कराया।

Saturday, August 13, 2011

आजादी के मायने

आजादी के दूसरे दशक के शुरुआती बरसों में पैदा हुई मेरी पीढ़ी ने जब होश संभाला तब नई संवैधानिक व्यवस्था में दो आम चुनाव हो चुके थे। ऐसी राजनैतिक व्यवस्था से साक्षात्कार हो रहा था, जिसमें लोकतंत्र की ताजी चमक के साथ मुगलिया तहजीब, ब्रिटिश हुकूमत के तौर-तरीकों और देशी रियासतों की ठाट भी दिखाई पड़ती थी। कृषि, उद्योग और अर्थ व्यवस्था जुमले बनकर हावी हो रहे थे। प्रगति-विकास का उफान, उसका वेग और उसकी दिशा ढर्रे पर आ रही थी। आजादी का जज्बा और जोश उतार पर था। आजादी का उत्सव भी सालाना रस्म में बदलने लगा था। 'आजादी' खास घटना की बजाय सहज होकर आदत बन गई। आजादी का वह अर्थ छीज रहा था, जिस तरह पिछली पीढ़ी के प्रत्यक्ष अनुभव में था।

मेरी पीढ़ी आजादी के मायने ढूंढते हुए 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर, जय स्तंभ, गांधी जी के माध्यम से जानने-पहचानने का प्रयास करते हुए पिछली पीढ़ी के संस्मरणों को अनुभूत करना चाहती थी। लेकिन उस उम्र की कच्ची समझ को राष्ट्र और उसकी स्वाधीनता, स्वतंत्रता संग्राम को समझने के लिए किसी प्रतीक की जरूरत होती। डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी की आरंभिक स्मृति मेरे और शायद मेरी पीढ़ी के बहुतेरों के लिए इसी तरह महत्वपूर्ण है, जिनमें आजादी के ऐसे मायने को सजीव महसूस किया जा सकता था। आमने-सामने चरखा चलाते मैंने पहली बार और एकमात्र उन्हें ही देखा। आजादी की स्फुट जानकारियां और कहानियां सभी एक सूत्र में बंधकर सार्थक होती जान पड़ती थीं- डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के व्यक्तित्व में। वे हमारे लिए आजादी के प्रतीक थे।

बातें पुरानी हैं, उनकी याद से कहीं ज्यादा असर है। बातें अब अच्छी तरह याद भी नहीं हैं। आजादी की उनकी बातों में मुझे क्या जिज्ञासा होती थी यह कुछ हद तक तब समझ पाया जब नरोन्हा जी की आत्मकथा पढ़ी, इसके जिस हिस्से का उल्लेख कर रहा हूं वह स्वतंत्रता के ठीक पहले और बाद प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका और निष्ठा के दृष्टिकोण से है। पुस्तक में जिक्र है कि किस तरह कल के निगरानीशुदा में शुमार अब सम्मानित हो गए। व्यवस्था के विरोधी, व्यवस्था बनाने में जुट गए, अब लगता है कि डॉ. ज्वालाप्रसाद जी की बातों में मेरी यही जिज्ञासा होती कि अपने देश की व्यवस्था तोड़ने और बनाने का द्वंद्व क्या और कैसा होता है। आपात्‌काल, जिसे दूसरी आजादी कहा गया और उसके बाद की स्थितियों को देखने पर अधिक स्पष्ट हुआ कि यह सदैव संदर्भ और व्याख्‍या आश्रित होता है।

डॉ. ज्वालाप्रसाद जी के विशाल व्यक्तित्व में न जाने कितनी चीजें समाहित थीं। सफेद कुरता, धोती और टोपी के साथ उनकी काया में उर्जा, स्फूर्ति और चपलता भरी रहती। स्मरण करने पर लगता है कि मिश्र जी जिन स्थानों, वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और क्षेत्रों से संबंधित रहे उन सबकी झलक उनके व्यक्तित्व से अभिन्न हो गई। मुंगेली के साथ-साथ लिमहा, गीधा, करही जैसे स्थान, अकलतरा में स्टेशन रोड का हरियाली से ढंका भवन और हरी जीप, पारिवारिक और रिश्तेदार सदस्य, जिनकी फेहरिस्त लंबी है, रामदुलारे (मुख्‍य रूप से कम्पाउन्डर, लेकिन जिनके लिए अटैची विशेषण ही उपयुक्त हो सकता है।) चिकित्सा, स्वतंत्रता संग्राम, जेल, चरखा, विवेकानंद आश्रम, यह सब कुछ उनसे अनुप्राणित जान पड़ता।

अकलतरा में आयोजित होने वाली सभाओं की अध्यक्षता बहुधा आप करते थे (अध्यक्ष के रूप में अन्‍य- पं. रामभरोसे शुक्ल जी होते थे)। कार्यक्रमों में विशेषज्ञ आमंत्रित वक्ता और मुख्‍य अतिथि के बाद अंत में जब अध्यक्ष की बारी आती, तो अवसर कोई भी हो, विषय कैसा भी हो आपका वक्तव्य व्यापक ज्ञान और गहन अनुभव के साथ सहज-सुबोध होता था। आपके उद्‌बोधन में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की चर्चा इस तरह से होती कि वह अनुभूत होकर सार्थक और असरकारी होती। लगभग सभी मौकों पर उनकी ही बातें ज्यादा भाती थीं और हम अपने कस्बे पर गौरवान्वित होते। वे अकलतरा में निवास करते थे, किन्तु उनके कार्यक्षेत्र की व्यापकता को मैं उतना ही जान पाया, जितनी सीमित मेरी जानकारी और समझ बनी।

1976 में पढ़ाई के लिए मैं रायपुर गया और दो साल विवेकानंद आश्रम के छात्रावास में रहा। छात्रावास भवन के बीच वाले कक्ष, संभवतः क्र. 5 पर डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के नाम की पटि्‌टका लगी है। यह कक्ष तब अतिथियों के लिए उपयोग होता था। वे रायपुर और आश्रम आते, तब हमलोगों को मिलने के लिए अवश्य बुलवाते और हमेशा प्रेरक, उत्साहवर्धक बातें सहजता से कहते। मुझे यह तब पता चला कि रायपुर रामकृष्ण मिशन, विवेकानंद आश्रम के संचालन में आपकी महती भूमिका रही है। आश्रम के नियम-कायदे सख्‍त थे और अनुशासन बहुत पक्का। आश्रम का माहौल गरिमामय और गंभीर होकर भी खुशनुमा और सहज होता था और इसका कारण निसंदेह स्वामी आत्मानंद जी थे।

इस दौरान आश्रम छात्रावास के वार्डन का एक पत्र डॉ. ज्वालाप्रसाद मिश्र जी के पास गया, जिसमें कुछ अन्य बातों के साथ मेरे लिए जिक्र था- बेहतर होगा यदि मैं आश्रम छात्रावास की सख्‍त पाबंदियों के बजाय छात्रावास से बाहर कहीं और रहूं। मेरे अकलतरा पहुंचने पर डॉ. साहब ने बुलवा कर पत्र मुझे सौंपा। वह आज भी सुरक्षित है। उन्होंने मुझसे पूरे विस्तार से आश्रम की व्यवस्था संबंधी जानकारी लेते हुए खुद निर्णय लेने की छूट दी। आश्रम में रहते हुए विभिन्न व्यक्तियों से सहज मुलाकात, आश्रम का पुस्तकालय और वाचनालय, खेलकूद और अन्य गतिविधियों के साथ समय-समय पर स्वामी आत्मानंद जी महराज का सुलभ सानिध्य की बात कहकर मैंने कुछ और समय आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहमति दे दी।

साल भर बाद मैंने जब आश्रम छात्रावास छोड़ने की मंशा उनके सामने प्रकट की, तो कारण की पूछताछ करने लगे, ऐसा लगा कि सहमत नहीं हो रहे हैं, लेकिन पूरी चर्चा करने पर इजाजत मिल गई। यह सब याद आने पर लगता है कि किसी मामले को जिस उदार और खुले ढंग से आप देखते थे, वह कितना अनूठा और दुर्लभ है। अलग-अलग विचारधारा, आयु-वर्ग, जाति-धर्म और व्यवसाय के लोग उनसे जुड़े थे। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार और आस्था का वे सच्चा सम्मान करते, महत्व देते। आप वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। तरल और पारदर्शी व्यक्तित्व के इन गुणों की चर्चा उनके पुण्य स्मरण के साथ होती है।

आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संगठन और नेतृत्व में सक्रिय रहे, लेकिन अंतिम दिनों में उनसे मेरा सीधा सम्पर्क कम रहा इसलिए पारिवारिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति के अलावा अन्य कोई उल्लेखनीय व्यक्तिगत अनुभव या संस्मरण नहीं है। सेनानियों और उनसे जुड़े लोगों द्वारा इस दौर में उनकी अवस्था के बावजूद सक्रियता और कुशल नेतृत्व का स्मरण अब भी किया जाता है।

सन 2009 के आरंभ में प्रकाशित डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) स्मृति ग्रंथ में शामिल मेरा आलेख।