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Monday, October 4, 2021

अभिलेख सूची

छत्तीसगढ़ के प्राचीन अभिलेखों- शिलालेख, ताम्रपत्र आदि की यह सूची, समय-समय पर अद्यतन की जा रही है।

• सुतनुका देवदासी का रामगढ़ (सरगुजा) जोगीमारा गुहालेख
• रामगढ़ (सरगुजा) सीताबेंगरा गुहालेख
• किरारी काष्ठ स्तंभलेख
• आरंग ब्राह्मी शिलालेख
• कुमारवरदत्तश्री का ऋषभतीर्थ गुंजी भित्तिलेख
• मल्हार से प्राप्त 'राधिकस' शिलालेख- बिलासपुर संग्रहालय
• बूढ़ीखार, मल्हार विष्णु प्रतिमालेख
• छातागढ़ का प्रथम शिलालेख- रायपुर संग्रहालय
• छातागढ़ का द्वितीय शिलालेख- रायपुर संग्रहालय
• आतुरगांव, कांकेर का शिलालेख
• मल्हार का 'सक अमचस' शिलालेख
• सेमरसल का खंडित शिलालेख
• मदकूदीप का प्रथम शिलालेख
• मदकूदीप का द्वितीय शिलालेख
• तरेंगा का शिलालेख
• पाण्डुका का शिलालेख
• राजर्षितुल्य कुल के भीमसेन द्वितीय का आरंग ताम्रलेख, गुप्त संवत 182?
• मेकल पाण्डुवंश के उदीर्ण्णवैर (शूरबल) का बम्हनी ताम्रलेख राज्यवर्ष 2
• सामंत इन्द्रराज का मलगा ताम्रपत्र राज्यवर्ष 1 या 11
• मल्हार का मेकल पाण्डुवंश का अधूरा ताम्रलेख
• शूरबल का मल्हार का ताम्रलेख राज्यवर्ष 8
• नरेन्द्र का पिपरदुला ताम्रलेख राज्यवर्ष 3
• नरेन्द्र का कुरूद ताम्रलेख राज्यवर्ष 24
• नरेन्द्र का रवांन (मल्हार) का अधूरा ताम्रलेख
• जयराज का अमगुड़ा ताम्रलेख राज्यवर्ष 3
• जयराज का मल्हार ताम्रलेख राज्यवर्ष 5
• जयराज का आरंग ताम्रलेख राज्यवर्ष 5
• जयराज का मल्हार ताम्रलेख राज्यवर्ष 9
• सुदेवराज का नहना ताम्रलेख राज्यवर्ष 2
• सुदेवराज का धमतरी ताम्रलेख राज्यवर्ष 3
• सुदेवराज का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 7
• सुदेवराज का आरंग ताम्रलेख राज्यवर्ष 7
• सुदेवराज का कौआताल ताम्रलेख राज्यवर्ष 7
• सुदेवराज का रायपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 10
• सुदेवराज का सारंगढ़ (चुल्लाण्डरक ग्रामदान) ताम्रलेख
• सुदेवराज का पोखरा ताम्रलेख (मध्य पृष्ठ)
• प्रवरराज का ठकुरदिया ताम्रलेख राज्यवर्ष 3
• प्रवरराज का मल्हार ताम्रलेख राज्यवर्ष 3
• रक्सा (पोखरा) ताम्रलेख
• अमरार्यकुल के व्याघ्रराज का मल्हार ताम्रलेख राज्यवर्ष 4
• कोसल पाण्डुवंश के ईशानदेव का लक्ष्मणेश्वर मंदिर, खरौद शिलालेख
• तीवरदेव का बोंडा ताम्रलेख राज्यवर्ष 5
• तीवरदेव का राजिम ताम्रलेख राज्यवर्ष 7
• तीवरदेव का बलौदा ताम्रलेख राज्यवर्ष 9
• तीवरदेव का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष
• तीवरदेव का (तिरुवनंतपुरम) ताम्रलेख राज्यवर्ष
• नन्नराज का अड़भार (अधूरा)ताम्रलेख
• भवदेव रणकेसरी का आरंग या भांदक में प्राप्त शिलालेख
• वासटा का लक्ष्मण मंदिर (सिरपुर) से प्राप्त शिलालेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का बरदुला ताम्रलेख राज्यवर्ष 9
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का बोंडा ताम्रलेख राज्यवर्ष 22
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का मल्लार ताम्रलेख फाल्गुन वर्ष- 57
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का लोधिया ताम्रलेख राज्यवर्ष 57
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का मल्लार ताम्रलेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 25
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 37
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 38
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 46
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 48
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख राज्यवर्ष 55
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख तिथिरहित कतम्बपदूल्लक ग्रामदान लेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख तिथिरहित कोशम्ब्रक ग्रामदान लेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख तिथिरहित चोरपद्रक ग्रामदान लेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख
• महाशिवगुप्त बालार्जुन का सिरपुर ताम्रलेख
• मल्हार के रघुनंदन प्रसाद पाण्डेय और गुलाब सिंह ताम्रलेख
• सिरपुर गंधेश्वर मंदिर से प्राप्त जोर्ज्जराक शिलालेख व अन्य शिलालेख
• सेनकपाट, सिरपुर शिलालेख
• सिरपुर सुरंग टीले से प्राप्त शिलालेख
• बुद्धघोष का सिरपुर के निकट प्राप्त शिलालेख
• मल्हार का तिथिरहित कैलासपुर ग्रामदान ताम्रलेख
• तिथिरहित शुष्क सिरिल्लिका ग्रामदान ताम्रलेख,
• तिथिरहित पातिकारसीमक ग्रामदान का अधूरा ताम्रलेख
• मल्हार का बासिन डिपरा शिलालेख
• सिरपुर गंधेश्वर मंदिर के शिलालेख

• भवदत्तवर्मन का रिठापुर ताम्रपत्र, राज्यवर्ष-11
• स्कंदवर्मन? का पोड़ागढ़ शिलालेख, राज्यवर्ष-12
• अर्थपति भट्टारक का केसरीबेड़ा ताम्रपत्र, राज्यवर्ष-7
• विलासतुंग का राजिम शिलालेख

• बड़े डोंगर (बस्तर) का उभपार्श्वीय शिलालेख
• मोहला (दुर्ग) का वाकाटक अधूरा ताम्रलेख
• शिवदुर्ग का दुर्ग में प्राप्त शिलालेख
• मदकूदीप से प्राप्त दो शिलालेख

• त्रिपुरी कलचुरियों का महेशपुर शिलालेख
• डीपाडीह शिलालेख

• पृथ्वीदेव प्रथम का रायपुर ताम्रलेख कलचुरि संवत 821
• पृथ्वीदेव प्रथम का अमोदा ताम्रलेख कलचुरि संवत 831
• जाजल्लदेव प्रथम का रतनपुर शिलालेख कलचुरि संवत 866
• जाजल्लदेव प्रथम के पाली मंदिर के लघु लेख
• रत्नदेव द्वितीय का शिवरीनारायण ताम्रलेख कलचुरि संवत 880
• रत्नदेव द्वितीय का सरखों ताम्रलेख कलचुरि संवत 880
• रत्नदेव द्वितीय कालीन अकलतरा शिलालेख
• रत्नदेव द्वितीय का पारागांव ताम्रलेख कलचुरि संवत 885
• पृथ्वीदेव द्वितीय कालीन कोटगढ़ शिलालेख
• पृथ्वीदेव द्वितीय का दहकोनी ताम्रलेख कलचुरि संवत 890
• रत्नदेव द्वितीय कालीन कुगदा शिलालेख कलचुरि संवत् 893
• रत्नदेव द्वितीय का पासिद ताम्रलेख कलचुरि संवत 893
• पृथ्वीदेव द्वितीय का बिलाईगढ़ में प्राप्त ताम्रलेख कलचुरि) संवत् 896
• राजिम शिलालेख कलचुरि संवत 896
• पारागांव ताम्रपत्र कलचुरि संवत 897
• शिवरीनारायण मूर्तिलेख कलचुरि संवत् 898
• कोनी शिलालेख कलचुरि संवत 900
• अमोदा ताम्रलेख कलचुरि संवत 900?
• पृथ्वीदेव द्वितीय का घोटिया में प्राप्त ताम्रलेख कलचुरि संवत 1000? (900)
• गोपालदेव का पुजारीपाली शिलालेख
• पृथ्वीदेव द्वितीय का अमोदा में प्राप्त ताम्रलेख कलचुरि संवत् 905
• पृथ्वीदेव द्वितीय कालीन रतनपुर शिलालेख कलचुरि संवत 910
• पृथ्वीदेव द्वितीय कालीन रतनपुर शिलालेख कलचुरि संवत 915
• जाजल्लदेव द्वितीय का समडील शिलालेख क.सं. 913
• जाजल्लदेव द्वितीय का अमोदा ताम्रलेख कलचुरि संवत् 91(9)
• जाजल्लदेव द्वितीय कालीन मल्हार शिलालेख कलचुरि संवत 919
• अमरकंटक मूर्तिलेख कलचुरि संवत 922
• रत्नदेव तृतीय का खरौद शिलालेख कलचुरि संवत 933
• पासिद ताम्रलेख कलचुरि संवत 934
• प्रतापमल्ल का पेंडराबंध ताम्रलेख कलचुरि संवत 965
• प्रतापमल्ल का कोनारी ताम्रलेख कलचुरि संवत 968
• प्रतापमल्ल का बिलाईगढ़ ताम्रलेख कलचुरि संवत् 969
• वाहर के महामाया मंदिर, रतनपुर शिलालेख संवत 1552
• वाहर का कोसगई प्रथम शिलालेख
• वाहर का कोसगई द्वितीय शिलालेख विक्रम संवत 1570
• ब्रह्मदेव का रायपुर शिलालेख विक्रम संवत् 1458
• हरि ब्रह्मदेव का खल्लारी शिलालेख विक्रम संवत 1470
• भानुदेव का कांकेर शिलालेख शक संवत 1242
• अमरसिंह देव का आरंग ताम्रपत्र संवत 1792

• लखनी देवी मंदिर, रतनपुर शिलालेख
• लहंगाभाठा जबलपुर संग्रहालय शिलालेख

• मलुगिदेव का कोटेरा ताम्रलेख शक संवत 1106
• भोजदेव का कोटेरा ताम्रलेख शक संवत 1126 का ताम्रलेख
• भोरमदेव से प्राप्त सं. 1407 का सती शिलालेख
• देवकूट मंदिर शिलालेख

• बाघराज का तिथिरहित गुरुर स्तंभलेख
• कर्णराज का सिहावा लेख शक संवत 1114 (ईस्वी 1191-92)
• पम्पराज के दो ताम्रपत्र लेख कलचुरि संवत 965 और 966 (ईस्वी 1213 और 1214)
• भानुदेव का कांकेर शिलालेख शक संवत 1242 (ईस्वी 1320)


• रतनपुर कर्णार्जुनी मंदिर शिलालेख सं.1927
• शिवरीनारायण सिंदुरगिरी मंदिर शिलालेख

रत्नपुर भोंसलाकालीन उत्कीर्ण लेख
• रतनपुर कर्णार्जुनी मंदिर शिलालेख संवत 1927
• शिवरीनारायण सिंदुरगिरी मंदिर शिलालेख
• सरगुजा अंचल के अन्य उत्कीर्ण लेख
• महेशपुर से प्राप्त त्रिपुरी कलचुरियों का शिलालेख
• डीपाडीह शिलालेख

मेरे द्वारा तैयार यह सूची पूर्व में इस ब्लाग के पेज के रूप में थी, अब पोस्ट के रूप में प्रस्तुत की गई है। पोस्ट पर आई टिप्पणियों को भी यथावत रखा जा रहा है।

1. शकुन्तला शर्मा June 10, 2013 at 6:26 PM छत्तीसगढ की पावन धरा इतनी समृध्द है, ऐसा तो मैने कभी सोचा भी नहीं था, मुझे लगता है कि जिस तरह राहुल जी की गति बढ रही है, यह लिस्ट भी बढेगी। जितने भी शिलालेख, भित्तिलेख, गुहालेख, स्तम्भलेख, प्रतिमालेख एवम् ताम्रपत्रलेख उपलब्ध हैं, इन सबको शीघ्रातिशीघ्र, पढने की उत्कट इच्छा हो रही है। राहुल जी की साधना स्तुत्य है।
2. RAM SUMER July 16, 2013 at 6:18 PM Mati m mil jaahi re mati ke chola kaakhar karaun main gumaan. ... Sir! Ye abhilekh likhne-likhaane vaale raaje -mahaaraaje yaa unke vansh ke log smy ke pravaah me kahaan kho gaye sir.....! Aur chhattisgarh fir se matiyaet hone jaa rahaa hai power plant ke baadh me.... Jim kisaano ko kayi sau saal tk unke kheton ko pani ke liye trsna padaa.... ab apne purkhon ki thaati ko kaudiyon ke daam bechkr kin dhoolkno me gum ho jayenge. pta nhi ?
3. Unknown January 8, 2019 at 9:22 PM Excellent knowledge sir...
4. mspotapani April 25, 2020 at 8:27 PM दुर्लभ संकलन एवं शोध के लिए सादर-सादर नमन सरजी।
5. Anonymous July 1, 2020 at 2:49 PM सर इसमें धमधा के महामाया मंदिर का शिलालेख और दानी तालाब का ताम्रपत्र भी जोड़ सकते हैं।
6. Unknown July 8, 2021 at 11:10 PM Sbhi shilalekh k bare m detail jankari upload kre....

Monday, September 21, 2020

गांधीजी की तलाश

सदी बीत गई, सन् 1920, जब गांधीजी आए थे। इस साल 2 अक्टूबर के आगे-पीछे, गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रथम प्रवास के बताए जाने वाले माह, सितंबर-दिसंबर के बीच भटकते मन ने सत्य के प्रयोग करना चाहा, यहां उसका लेखा-जोखा है। विभिन्न स्रोतों से यहां एकत्र की गई जानकारियों का उद्देश्य यह कि गांधीजी के प्रथम छत्तीसगढ़ प्रवास की तथ्यात्मक, असंदिग्ध जानकारी स्पष्ट हो सके, ताकि ‘सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय‘ तथा ऐसे अन्य प्रामाणिक स्रोतों में जहां यह सूचना दर्ज नहीं है, प्रविष्टि के लिए ठोस प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सके।

‘‘श्री रविशंकर शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ‘‘ का प्रकाशन उनकी 79 वीं जन्म-तिथि पर अगस्त 1955 में हुआ था। सन 1920 में गांधीजी के रायपुर आने का संभवतः पहले-पहल उल्लेख यहीं हुआ है। इस ग्रंथ के जीवनी खंड में श्री रविशंकर शुक्ल के ‘मेरे कुछ संस्मरण‘ शीर्षक लेख में पेज 44 पर उल्लेख आया है कि ‘‘सन् 1920 की कलकत्ता की विशेष कांग्रेस से पूर्व महात्मा गांधी रायपुर आये थे।‘‘ इस पंक्ति के अलावा गांधीजी के रायपुर आगमन-प्रवास का कोई विवरण यहां नहीं दिया गया है। इसके पश्चात् ‘‘सन् 1920 में दिसम्बर मास में कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में हुआ‘‘, उल्लेख आता है। आगे उनकी 1933 की यात्रा का विवरण पर्याप्त विस्तार से है। ध्यातव्य है कि सन 1920 में कलकत्ता में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का विशेष अधिवेशन, गांधीजी की उपस्थिति में 4 से 9 सितंबर तक हुआ था, जिसमें असहयोग, हंटर कमेटी की रिपोर्ट तथा पंजाब में हुए अत्याचारों के संबंध में ब्रिटिश मंत्रिमंडल के रुख पर प्रस्ताव पारित किये गये।

‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 30 जनवरी 1988 अंक में सितम्बर, 1920 की 20 एवं 21 तारीख को गांधीजी की छत्तीसगढ़ यात्रा, जिसमें रायपुर, धमतरी और जाने तथा यात्रा का कारण कंडेल नहर आंदोलन, उल्लेख आया है। इसी अंक में अन्य स्थान पर धमतरी से कुरुद और कन्डेल ग्राम जाने का भी लेख है। पुनः इस अंक में श्यामसुन्दर सुल्लेरे के लेख का उद्धरण है- ‘‘21 दिसंबर, 1920 को गांधी जी रायपुर से धमतरी होते हुए कुंडेल गांव भी गए और सत्याग्रहियों से मिलकर उनके साहस की सराहना की।

अक्टूबर 1969 में मध्यप्रदेश गांधी शताब्दी समारोह समिति के लिए सूचना तथा प्रकाशन संचालनालय द्वारा ‘मध्यप्रदेश और गांधीजी‘ पुस्तक प्रकाशित की गई। प्रस्तावना में बताया गया है कि पुस्तक की सामग्री का संकलन, लेखन, सम्पादन तथा मुद्रण का कार्य श्री श्यामसुन्दर शर्मा ने किया है। पुस्तक के आरंभ में ‘‘दस ऐतिहासिक यात्राएँ‘‘ शीर्षक लेख है, जिसमें बताया गया है कि ‘‘सन् 1920 में रायपुर तथा धमतरी की यात्रा में भी मौलाना शौकतअली गांधीजी के साथ थे।‘‘ तथा ‘‘गांधीजी की रायपुर तथा धमतरी की प्रथम यात्रा इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कही जा सकती है कि धमतरी की जनता ने सत्याग्रह-युग के विधिवत् उद्घाटन के पहले ही असहयोग तथा बहिष्कार के मार्ग पर चलकर सफलता प्राप्त की थी। सन् 1920 में जब गांधीजी धमतरी गए तब तक वहां कण्डेल नहर सत्याग्रह द्वारा जनता विदेशी शासन से लोहा ले चुकी थी और उसे सफलता भी मिल चुकी थी।‘‘ यहां तिथि अथवा माह का उल्लेख नहीं है।

पुस्तक में ‘‘दूसरी यात्रा-1920 रायपुर तथा धमतरी में‘‘ लेख की उल्लेखनीय प्रासंगिक जानकारियां इस प्रकार है कि सितंबर 1920 कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन और दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन, इन दो ऐतिहासिक अधिवेशनों के बीच (पं. रविशंकर शुक्ल के संस्मरण में दी गई जानकारी से यह अलग है।) रायपुर नामक स्थान को इस बात का गौरव प्राप्त है कि उसने गांधीजी का स्वागत किया औैर उनके राजनीतिक विचारों का श्रवण तथा मनन किया। ... जुलाई के महीने में धमतरी के निकट कंडैल नामक गांव में नहर-सत्याग्रह आरंभ हो गया। गांधीजी की रायपुर की यह यात्रा इसी सत्याग्रह की पृष्ठभूमि में हुई थी। कंडैल नहर-सत्याग्रह के प्रमुख संचालक, पं. सुन्दरलाल शर्मा को गांधीजी से परामर्श के लिए कलकत्ता भेजा गया। किन्तु कलकत्ता में उन की गांधी से भेंट न हो सकी और दक्षिण भारत के किसी स्थान पर ही यह भेंट हुई। श्री शर्मा ने उन्हें कण्डैल नहर-सत्याग्रह का परिचय दिया तथा उनसे धमतरी आने का अनुरोध किया। इस प्रकार वे पं. सुन्दरलाल शर्मा के साथ 20 अथवा 21 दिसम्बर 1920 को कलकत्ता से रायपुर पधारे। उनके साथ अली-बन्धुओं में मौलाना शौकत अली भी थे।

आज जो गांधी चौक है, उस स्थान पर एक विशाल सार्वजनिक सभा में उनका भाषण हुआ। इस समय गांधीजी ने अपने भाषण में असहयोग के महत्व पर प्रकाश डाला। ... रायपुर से गांधी जी मोटर द्वारा धमतरी और कुरुद गये। ... धमतरी पहुंचने पर गांधीजी का बड़े उत्साह से स्वागत हुआ। कंडैल सत्याग्रह अब तक समाप्त हो चुका था ... उनके भाषण का प्रबंध जामू हुसैन के बाड़े में किया गया था ... श्री उमर सिंह नामक एक कच्छी व्यापारी ने उन्हें कंधे पर बिठाया और मंच तक ले गया ... श्री बाजीराव कृदत्त ने नगर तथा ग्राम-निवासियों की ओर से गांधीजी को 501 रु. की थैली भेंट की। लगभग 15000 लोगों की उपस्थिति में गांधीजी और मौलाना शौकत अली के भाषण हुए। गांधीजी ने अपने भाषण में असहयोग और सत्याग्रह की बात लोगों को समझाई। श्री शौकतअली ने अपने भाषण में सदा की तरह मजाकिया अंदाज में कहा- मैं तो हाथी जैसा हूं और गांधीजी बकरी जैसे हैं ...

धमतरी से गांधीजी कंडैल ग्राम भी गये। इस अवसर पर वे कुरुद गांव भी गये ... धमतरी में गांधीजी के ठहरने की व्यवस्था श्री नारायणराव मेघावाले के निवास-स्थान पर की गई थी जहां उन्होंने रात्रि विश्राम किया। प्रातःकाल वे पुनः रायपुर के लिये रवाना हो गये। ... धमतरी से लौटने के बाद गांधीजी ने रायपुर में महिलाओं की एक सभा को भी संबोधित किया ... अनुमानतः दो हजार रुपयों के मूल्य के सोने चांदी के गहने और रुपये एकत्रित हो गये। ... इस सभा के पश्चात् बापू नागपुर की ऐतिहासिक-कांग्रेस के लिए रवाना हो गये।

रायपुर से प्रकाशित राष्ट्रबंधु साप्ताहिक के गांधी जन्म शताब्दी अंक 2-10-1969 में पेज-4 पर श्री रामानन्द दुबे का संस्मरण, ‘मुझे महिलाओं में देखकर बापू खिलाखिला कर हंस पड़े थे‘ शीर्षक प्रकाशित हुआ। यह शीर्षक सन 1945 मई के बंबई में आयोजित शिविर के प्रसंग से संबंधित है। मगर इस लेख का आरंभ होता है- ‘गांधीजी को निकट से निहारने की लालसा बचपन से थी। सन् 1920-21 में जब वे कलकत्ता जाते हुए रायपुर पधारे थे तब मैं नौ वर्ष का निरा नादान बालक था। आनन्द समाज पुस्तकालय के समीप ‘विनोबा‘ बालोद्याान के मैदान में टट्टों से बने विशाल पेंडाल में उनका कार्यक्रम था। टट्टों के छेद से घुसकर किसी प्रकार मैं मंच के पास पहुंच ही गया और गांधीजी को जी भरकर देखा। यह प्रथम दर्शन लाभ था। बाल मन पर उनका अमिट प्रभाव पड़ा जो जीवन पर्यन्त कायम रहेगा।‘ इस संस्मरण में तिथि रहित काल 1920-21 तथा ‘कलकत्ता जाते हुए‘ विशेष ध्यान देने योग्य है।

सन 1970 में ‘‘छत्तीसगढ़ में गाँधीजी‘‘ का प्रकाशन, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से गांधी शताब्दी समारोह समिति द्वारा डॉ. ठा. भा. नायक के सम्पादकत्व में हुआ। इस पुस्तक में श्री हरि ठाकुर ने अपने लेख में लिखा है कि ‘‘देश को गांधीजी ने सर्वप्रथम सत्याग्रह का मार्ग सुझाया। ... कन्डेल नामक ग्राम में नहर सत्याग्रह आरम्भ हुआ। इस सत्याग्रह के सूत्रधार थे पं. सुन्दरलाल शर्मा ... अन्त में इस सत्याग्रह के नेताओं ने गांधीजी से पत्र-व्यवहार किया। और गांधीजी ने इस सत्याग्रह का मार्गदर्शन करना स्वीकार किया। गांधीजी उस समय बंगाल का दौरा कर रहे थे। उन्हें बुलाने के लिये पं. सुन्दरलाल शर्मा गये। 20 दिसम्बर सन् 1920 को महात्मा गांधी का प्रथम बार रायपुर आगमन हुआ। उसी दिन उन्होंने गांधी चौक में अपार जनसमूह को संबोधित किया। रायपुर से गांधीजी मोटर द्वारा धमतरी और कुरुद गये।... गांधीजी के आगमन के साथ ही कंडेल सत्याग्रह स्थगित हो गया। ... इसलिये गांधीजी धमतरी से ही वापस लौट आये। धमतरी और कुरुद से वापस लौटने पर गांधीजी पुनः राययपुर में रुके और उन्होंने महिलाओं की एक विशाल सभा को संम्बोधित किया। महिलाओं से गांधीजी ने ‘तिलक स्वराज्य‘ फण्ड के लिए मांग की और उन्हें तुरन्त दो हजार रु. के मूल्य के गहने प्राप्त हुए।

इस पुस्तक में केयूर भूषण मिश्र ने अपने लेख में मात्र उल्लेख किया है कि ‘‘कन्डेल सत्याग्रह सन् 1917 में प्रारंभ हुआ और 1920 में इस सत्याग्रह ने सफलता प्राप्त की।‘‘ किंतु यहां सन् 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास की कोई चर्चा नहीं है। डॉ. शोभाराम देवांगन के लेख में ‘‘इस सत्याग्रह को व्यापक तथा सर्वदेशीय रूप प्रदान करने हेतु यहां से पं. सुन्दरलालजी शर्मा राजिम वाले को 2 दिसम्बर सन् 1920 ईं को महात्मा गांधीजी के पास कलकत्ता इस परिस्थिति का ज्ञान कराने तथा उन्हें धमतरी लाकर आशीर्वाद प्राप्त करने के अतिरिक्त इस सत्याग्रह का संचालन सूत्र उनके हाथ में देने की अपेक्षा कर रवाना किया।’’ ... इस तरह यह नहर सत्याग्रह, महात्मा गांधी के धमतरी आगमन के पूर्व ही पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न हुआ।‘‘(पेज-90) यहां सन् 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास की स्पष्ट चर्चा नहीं है।

हरिप्रसाद अवधिया ने लिखा है कि ‘‘अपने आन्दोलन के सर्व प्रथम चरण में ही सन् 1920 में मौलाना शौकत अली को साथ लिये गांधीजी का रायपुर में आगमन हुआ। इस पुस्तक में डॉ बलदेव प्रसाद मिश्र और घनश्याम सिंह गुप्त के संस्मरणों में सन 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ के प्रवास की चर्चा नहीं है।

अब्बास भाई का संस्मरण है कि सन् 1921 में महात्माजी और मौलाना शौकत अली का रायपुर में आगमन हुआ। उन्हें धमतरी जाना था परन्तु शासन और पुलिस के आतंक के कारण मोटर मिलना दुष्कर था। पं. शुक्लजी के आह्वान पर मैं महात्माजी, मौलाना शौकत अली और उनकी पार्टी को अपनी मोटर बस में ले जाने के लिए तैयार हुआ। समय पर पुलिस वालों ने मेरे मोटर ड्राइवर को वहीं रोक लिया। ... मैं महात्माजी और मौलाना सहित पं. शुक्लजी और दूसरे नेतागण को रायपुर ब्राह्मणपारा में जो लाइब्रेरी है, वहां सं बैठाकर धमतरी ले गया। ... रायपुर मोटर बस सर्विस, रायपुर के नामसे सर्विस चलती थी तथा प्रोप्रायटर वली भाई एण्ड ब्रदर्स। ... डिप्टी कमिश्नर श्री सी. ए. क्लार्क ने हमारी कंपनी का मोटर चलाने का लाइसेंस भी रद्द कर दिया।

प्रभूलाल काबरा ने लिखा है कि- राजनांदगांव में गांधीजी मौ. मोहम्मद अली, शौकत अली, जमनालाल बजाज, के साथ जब कलकत्ता जा रहे थे ... जिस समय वे कलकत्ता के खास अधिवेशन में जा रहे थे उसी ट्रेन में लोकमान्य तिलक, दादा साहब खापर्डे, डा. मुंजे भी प्रथम दर्जे के डब्बे में यात्रा कर रहे थे ... आखिर गांधीजी ने दरवाजा खोला। इसके पश्चात्, जब गांधीजी रायपुर आयेः- में बताया है कि ‘‘ज्योंही गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी, श्री शुक्ल आदि नेतागण ... इस विवरण के साथ सन् नहीं दिया गया है, लेकिन अनुमान होता है कि यह सन् 1933 का विवरण है। कन्हैया लाल वर्मा का संस्मरण भी बिना सन् के उल्लेख के है। अद्वैतगिरी जी ने लिखा है कि सन् 1920 में गांधीजी रायपुर आये। स्वर्गीय श्री सुन्दरलालजी शर्मा के भांजे कन्हैयालाल जी अध्यापक के निवासगृह में उनके ठहरने की व्यवस्था की गई। संध्याकाल उन्होंने एक आमसभा को संबोधित किया। भाषण के मुख्य विषय देश की स्वतंत्रता, एकता और सत्याग्रह थे।

महंत लक्ष्मीनारायण दास जी ने लिखा है कि सन् 1921 की घटना है, जब महात्मा गांधी पहली बार रायपुर आये और उन्होंने जैतूसाव मठ को अपनी अविस्मरणीय भेंट दी। ... महात्मा गांधी के साथ उनके दो अनन्य मित्र और अनुयायी स्वर्गीय शौकत अली और स्वर्गीय मोहम्मद अली भी साथ थे।

इसी पुस्तक के अन्य लेख में डा. शोभाराम देवांगन ने लिखा है कि पं. सुन्दरलालजी शर्मा, राजिम वाले, महात्मा गांधी को धमतरी लाने के लिये 2 दिसम्बर, सन् 1920 को कलकत्ता गये थे किन्तु वहां उनसे भेंट न हो सकी। ... अंत में उनसे दक्षिण भारत के एक नगर में जहां महात्माजी का कार्यक्रम अधिक दिनों के निश्चित था, वहां भेंट होना संभव हुआ। वे गांधीजीको धमतरी तहसील के कंडेल गांव के नहर सत्याग्रह का पूर्ण परिचय कराकर धमतरी में लाने में सफल हुए (पेज-41)। 21 दिसंबर, 1920 ई. को ठीक 11 बजे महात्मा गांधी मौलाना शौकत अली के साथ, रायपुर होते हुए यहां पधारे। ... महात्मा गांधीजी के भाषण का प्रबन्ध यहां के एक प्रसिद्ध सेठ हुसेन के वृहत बाड़े में निश्चित हुआ था ... गुरुर निवासी श्री उमर सेठ नामक, एक कच्छी व्यापारी झट महात्माजी को उठाकर और अपने कंधों पर बिठाकर ... मालगुजार श्रीमन बाजीराव कृदत्त महोदय के हाथ से 501/ रुपये की थैली भेंट कर उनका हार्दिक स्वागत किया गया। लेख में बताया गया है कि लगभग 1 घंटे का भाषण हुआ इसके पश्चात् लगभग साढ़े बारह बजे सभा का कार्य समाप्त हुआ। श्री नत्थूजी जगताप के भवन पर फलाहार और लगभग दो बजे दिन को यहां से रायपुर के लिए प्रस्थान किए। इस तरह तीन चार घंटे के लिये यह नगर महात्माजी के आगमन पर आनंद विभोर में मग्न रहा।

श्रीमती प्रकाशवती मिश्र ने लिखा है कि महात्माजी के दर्शन 1920 के दिसम्बर माह में हुए जब रायपुर में उनका आगमन हुआ। कलकत्ते में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ। लाला लाजपतराय अध्यक्ष थे। उसके पश्चात अखिल भारतवर्षीय दौरे पर कांग्रेस का असहयोग आन्दोलन के प्रचारार्थ महात्माजी रायपुर पधारे। महात्माजी उस समय ठक्कर बैरिस्टर के बंगले में ठहरे थे। ... महात्माजी रायपुर के दौरे के समय कुरुद व धमतरी भी गये थे।

धमतरी नगरपालिका परिषद, शताब्दी वर्ष 1981 की स्मारिका में, त्रिभुवन पांडेय ने सम्पादकीय में गांधीजी का पहली बार धमतरी आगमन नहर सत्याग्रह से प्रभावित होने के कारण और प्रवास की तिथि 21 दिसंबर 1920 बताया है। स्मारिका के इतिहास खण्ड ‘महात्मा गांधी की धमतरी यात्रा‘ शीर्षक सहित है, जिसमें 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास संबंधी जानकारी ‘मध्यप्रदेश और गाांधीजी‘ से ली गई है।

इस स्मारिका में भोपालराव पवार का लेख है, जिसका प्रासंगिक अंश- ‘‘अगस्त 1920 में कलकत्ता अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विशेष अधिवेशन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने असहयोग का प्रस्ताव खूब कश्मकश के बीच पास कराया और देश को तीन नये नारे दिये:- (1) सरकारी शिक्षालयों में पढ़ना पाप है। (2) सरकारी अदालतों में जाना पाप है। (3) विदेशी वस्त्रों का उपयोग करना पाप है। उन दिनों मैं भी श्री त्र्यंबकरावजी कृदत्त के साथ कलकत्ता में पढ़ता था। स्व. पं. सुन्दरलालजी शर्मा और स्व. नत्थूजीराव जगताप कलकत्ता अधिवेशन में आये थे और उसी मकान में ठहरे थे - जहां हम लोग रहते थे। ... स्व. शर्मा जी और स्व. जगताप साहेब ने महात्मा जी को धमतरी आने का निमंत्रण दिया, जिसे महात्मा जी ने स्वीकार किया। जिस दिन असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ - उसी दिन रात में कलकत्ता के विल्गिंटन स्क्वेयर में गांधीजी की आमसभा हुई। जिसमें उन्होंने अपने तीन नारों को दुहराया। दूसरे दिन हमलोग भी पढ़ाई छोड़कर उसी गाड़ी से घर आये-जिससे महात्मा जी रायपुर आये। रायपुर से महात्माजी को कार द्वारा धमतरी लाया गया और हम लोग ट्रेन से धमतरी आये।’’ अन्य स्रोतों के तथ्य इससे मेल नहीं खाते, इसलिए यह विश्वसनीय नहीं रह जाता।

सन 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास के संबंध में 1973 में प्रकाशित रायपुर जिला गजेटियर में जानकारी दी गई है कि महात्मा गांधी, कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के ठीक पहले 20 दिसंबर 1920 को अली बंधुओं के साथ तिलक कोष और स्वराज्य कोष के सिलसिले में रायपुर आए। गांधी जी धमतरी तथा कुरुद भी गए। गजेटियर में कंडेल नहर सत्याग्रह की घटना का विवरण गांधीजी के साथ नहीं, बल्कि पृथक से हुआ है। उल्लेखनीय है कि उक्त जानकारी के मूल स्रोत-संदर्भ का हवाला भी यहां नहीं दिया गया है।

यहां 1975 में प्रकाशित द्वारिका प्रसाद मिश्र के ‘लिविंग एन एरा‘ का उल्लेख आवश्यक है, 1998 में इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद ‘मेरा जिया हुआ युग‘ प्रकाशित हुआ, जिसके अध्याय-2 में 1920 के नागपुर अधिवेशन प्रसंग है। इसमें गांधी के छत्तीसगढ़-रायपुर प्रवास का उल्लेख नहीं है। यहां प्रासंगिक अंश मात्र इतना है- 
‘काँग्रेस के नागपुर अधिवेशन की तिथि ज्यों-ज्यों निकट आती गई त्यों-त्यों देश में उत्साह और आशा का संचार बढ़ता गया। रायपुर में भी उत्तेजना थी। दर्शक होकर इस महत्वपूर्ण अधिवेशन में उपस्थित रहने के लिए अनेक व्यक्ति बड़े उत्सुक थे। यह सुगम भी था क्योंकि रायपुर से नागपुर रेल और सड़क दोनों से जुड़ा था। सभी काँग्रेस कार्यकर्ताओं और उनके नेता रविशंकर शुक्ल से परिचित होने के कारण मैं सरलता से काँग्रेस का प्रतिनिधि बन गया।
१९२० से मैंने काँग्रेस के वार्षिक और लगभग सभी विशेष अधिवेशन देखे हैं लेकिन नागपुर के इस अधिवेशन की तुलना में कोई भी अन्य अधिवेशन नहीं ठहर सकता। कई कारणों से वह अनूठा था। १४००० से भी अधिक प्रतिनिधि इस अधिवेशन में उपस्थित थे।'

‘मध्यप्रदेश संदेश‘ का 15 अगस्त 1987 का अंक में स्वाधीनता आंदोलन विशेषांक था। इसमें सन्तोष कुमार शुक्ल के लेख में कंडेल नहर सत्याग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि ‘‘पं. सुन्दरलाल शर्मा, श्री नारायणराव मेघावाले तथा छोटेलाल बाबू ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रेरणा पाकर ऐसा कदम उठाया था। जब नहर सत्याग्रह उग्र रूप से चल रहा था तभी पं. सुन्दरलाल ने सत्याग्रह के प्रणेता महात्मा गांधी से परामर्श लेकर इसे अखिल भारतीय रूप प्रदान करने का विचार किया। वे गांधीजी से मिलने कलकत्ता गये और उन्हीं के साथ 20 दिसम्बर, 1920 को कलकत्ता से रायपुर पधारे व उनके साथ मौलाना शौकतअली भी रायपुर आये थे। छत्तीसगढ़ में गांधीजी की यह प्रथम यात्रा थी। रायपुर में गांधी जी पं. रविशंकर शुक्ल के निवास-स्थान पर ठहरे। गांधीजी धमतरी और कुरूद भी गये। धमतरी में गांधीजी की ठहरने की व्यवस्था श्री नारायणराव मेघावाले के निवास-स्थान पर हुई थी। जब गांधीजी धमतरी पहुंचे तब कंडेल सत्याग्रह समाप्त हो चुका था। धमतरी की जनता विजयी सत्याग्रही के समान सत्याग्रह आंदोलन के जन्मदाता का स्वागत कर रही थी। धमतरी की सभा में श्री बजीराव कृदत्त ने ग्रामवासियों की ओर से 501 रुपये की थैली गांधीजी को भेंट दी। गांधीजी ने कंडेल ग्राम जाकर ग्रामवासियों को धन्यवाद दिया था, सत्याग्रह के मौलिक गुणों को समझाया भी था।‘‘

इस अंक में सुन्दर लाल त्रिपाठी के लेख के विवरण से सन 1921 तक बस्तर के लोग महात्मा गांधी से अनजान थे। वे स्वयं 1921 में उत्तरप्रदेश गए तब महात्मा गांधी के दर्शन का भी सौभाग्य मिला। उनके इस लेख में 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास की कोई चर्चा नहीं की है। स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के लेख में कहा गया है- सन 1920 में तिलक निधि के संग्रह के सिलसिले में महात्मा गांधी के रायपुर आगमन ने राष्ट्रीयता की भावना को प्रस्फुटित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। तब कांग्रेस में महात्मा गांधी का वर्चस्व स्थापित हो चुका था। उनके द्वारा प्रणीत सत्याग्रह के शस्त्र का सर्वप्रथम उपयोग हुआ रायपुर जिले के कण्डेल नहर सत्याग्रह के रूप में, जिसके सूत्रधार थे धमतरी के बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव। ... किसानों के इस अभूतपूर्व सत्याग्रह की सूचना महात्मा गांधी तक पहुंची। राजिम के लोकप्रिय नेता. पं. सुन्दरलाल शर्मा जो कि स्वयं उन दिनों हरिजन उद्धार के रचनात्मक अभियान के सूत्रधार थे, गांधी जी को लेकर रायपुर आये। गांधी जी के आगमन की सूचना से हुकुमत के शिविर में हड़कम्प मच गया। सरकारी कार्यवाही वापिस ली गई लेकिन इस सत्याग्रह को राष्ट्रव्यापी महत्व मिला। स्वयं गांधी जी धमतरी गये जहां उनका सार्वजनिक अभिनंदन, तत्कालीन नगरपालिका के द्वारा किया गया।‘‘

इसी अंक में सालिकराम अग्रवाल ‘शलभ‘ के लेख का उद्धरण है- ‘‘छत्तीसगढ़ के गांधी पंडित सुन्दरलाल शर्मा 3-12-1920 (तिथि छपाई के अक्षर के बजाय हाथ की लिखावट में है, जिससे अनुमान होता है कि यह अंतिम प्रूफ में संशोधित किया गया है।) को महात्मा गांधी से मिलने कलकत्ता गए और कंडेल ग्राम के नहर के सत्याग्रह और अंग्रेजों की दमन नीति से गांधी जी को अवगत कराया। अंग्रेजी सरकार से असहयोग करने की वृहत योजना लेकर जब श्री सुन्दरलाल शर्मा वापस आये तब धमतरी तहसील सहित समूचे रायपुर जिले में खलबली मच गई‘‘ इस लेख में तब गांधी जी के छत्तीसगढ़ प्रवास का कोई उल्लेख नहीं है। आगे इस अंक में राजेन्द्र कुमार मिश्र द्वारा प्रस्तुत पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के संस्मरण में सन 1920 और गांधीजी की चर्चा में छत्तीसगढ़ प्रवास का उल्लेख नहीं है। इसी तरह श्यामलाल चतुर्वेदी द्वारा प्रस्तुत पंडित मुरलीधर मिश्र ने 1919 में जलियांवाला बाग के शहीदों की स्मृति में शोक दिवस मनाने और जुलूस निकाले जाने के बाद सीधे 1921 में नागपुर कांग्रेस के बाद जिला राजनीतिक सम्मेलन को याद किया है। इस बीच 1920 और गांधी जी के छत्तीसगढ़ प्रवास का उल्लेख नहीं किया है।

डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र एवं डॉ. शांता शुक्ला की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास‘ द्वितीय संस्करणः 1990 में पेज 106 पर उल्लेख है- ‘1920 का वर्ष भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में नये युग का प्रतीक था। ... चूंकि महात्मा गाँधी इस वर्ष छत्तीसगढ़ आये थे और धमतरी तहसील के विभिन्न स्थानों व रायपुर नगर की यात्रा की थी,‘। पेज 108 पर- पं. सुन्दरलाल शर्मा (राजिम वाले) को 2 दिसंबर 1920 को, महात्मा गाँधी को धमतरी आमंत्रित करने हेतु कलकत्ता भेजा गया, सत्याग्रह की बागडोर उनके हाथों में सौंपकर सत्याग्रह को सफल बनाने का निर्णय लिया गया।‘ इसी पेज पर- ‘यह नहर सत्याग्रह महात्मा गाँधी के धमतरी आगमन के पूर्व ही सफलता के साथ खत्म हो गया। गाँधीजी के छत्तीसगढ़ आगमन पर धमतरीवासियों ने विजयी सत्याग्रहियों के रूप में गाँधीजी का हार्दिक स्वागत किया।‘ पेज 214 पर- ‘शर्माजी ने स्थिति का निरीक्षण करने के लिए महात्मा गाँधी को आमन्त्रित किया व उन्हें लाने के लिए स्वयं कलकत्ता गये और महात्मा गाँधी जी को लेकर 20 दिसम्बर, 1920 को रायपुर आये। गाँधीजी का यह प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन था।‘ (प्रसंगवश, पुस्तक के इस संस्करण के अंत में ‘छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक स्रोत‘ सूची है, जिसमें 1979 तक के शोध-प्रबंध सम्मिलित हैं, अतएव पुस्तक का पहला संस्करण इसके पश्चात का होगा, किंतु पेज-2 पर उल्लेख है कि ‘वर्तमान छत्तीसगढ़ में रायपुर, सरगुजा, बिलासपुर, दुर्ग एवं बस्तर जिले हैं‘, यहां रायगढ़ और राजनांदगांव जिले का नामोल्लेख न होना, समझ से परे है।)

डाॅ. भगवान सिंह वर्मा की पुस्तक छत्तीसगढ़ का इतिहास राजनीतिक एवं सांस्कृतिक (प्रारंभ से 1947 ई. तक), संस्करणः तृतीय संशोधित 1995, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल में पेज 153 पर उल्लेख इस प्रकार है- ‘कन्डेल का आन्दोलन - इन दिनों छत्तीसगढ़ में शासन के खि़लाफ़ आन्दोलन करने के लिए लोगों में ग़ज़ब का उत्साह था। 20 सितम्बर सन् 1920 ई. को कण्डेल नहर सत्याग्रह के संदर्भ में गाँधीजी का रायपुर आगमन हुआ। वे कुरुद और धमतरी भी गये।‘

इसी पुस्तक में पुनः पृष्ठ - 155-56 पर उल्लेख है- कंडेल ग्राम का यह आन्दोलन अनेक माह तक चलता रहा। सरकारी अत्याचार दिनों दिन बढ़ते गये, ऐसी स्थिति में आन्दोलन का नेतृत्व गाँधीजी को ही सौंपने का विचार किया गया। इस आशय की प्रार्थना गाँधीजी से की गयी, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस हेतु पं. सुन्दरलाल शर्मा गाँधीजी से भेंट करने कलकत्ता गये। इसकी सूचना पाकर सरकार की सक्रियता में वृद्धि हुई। आन्दोलन स्थल पर जाकर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने वस्तुस्थिति का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने यह सुझाव दिया कि ग्रामवासियों पर लगाया गया आरोप निराधार है। ऐसी स्थिति में उन्होंने जुर्माने की राशि को माफ करने की घोषणा की और प्रामीणों को जानवर वापस कर दिये गये। इस प्रकार गांधीजी के यहाँ आने के पूर्व यह सत्याग्रह आन्दोलन सफलतापूर्वक समाप्त हो गया, जो सम्पूर्ण क्षेत्र के लिए गौरव का प्रतीक था। गाँधीजी ने यहाँ आकर आन्दोलन को क्रियान्वित करने के सम्बन्ध में जनता का मार्गदर्शन किया।

गाँधीजी का छत्तीसगढ़ प्रवास - दिसम्बर सन् 1920 ई. में गांधीजी का छत्तीसगढ़ आगमन हुआ। वे सर्वप्रथम रायपुर आये। उनके आगमन से इस अंचल में राजनीतिक हलचल तीव्र हो उठी। रायपुर की जनता ने उनका हार्दिक स्वागत किया। गांधी चैक से उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया। उन्होंने लोगों से यह आह्वान किया कि दासता से मुक्ति पाने के लिए वे असहयोग आन्दोलन में जुड़ें। 21 दिसम्बर सन् 1920 ई. को गांधीजी धमतरी पहुंचे। वहाँ भी उनका शानदार स्वागत किया गया। उन्होंने वहाँ लोगों को मंडई-बन्ध-चौक में सम्बोधित किया। धमतरी तहसील के प्रतिष्ठित जमींदार बाज़ीराव कृदत्त ने 501/- (पाँच सौ एक रुपये) की थैली भेंटकर उनका अभिनन्दन किया। उन्होंने अपने भाषण में कंडेल आन्दोलन की सफलता के लिए लोगों को बधाई दी और उनसे काँग्रेस के कार्यक्रम में सक्रियता से भाग लाने की अपील की। वहाँ से वे लगभग 3.00 बजे रायपुर के लिये रवाना हुये। मार्ग में उन्होंने कुरुद को जनता से भेंट की। रायपुर आने पर उन्होंने आनन्द समाज वाचनालय के समीप महिलाओं को एक सभा को सम्बोधित किया। सभा के दौरान महिलाओं ने तिलक स्वराज्य फंड के लिए 2,000/- (दो हजार रुपये) का दान दिया। इसके बाद वे वापस चले गये, पर उनका व्यक्तित्व यहाँ के युवकों और महिलाओं को प्रभावित करता रहा। उन्होंने महिलाओं को भी स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

यही उल्लेख डाॅ. भगवान सिंह वर्मा की पुस्तक छत्तीसगढ़ का इतिहास (राजनीतिक एवं सांस्कृतिक) (प्रारंभ से 2000 ई.) पंचम संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण 2007, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल के पेज 220 तथा पेज 221-222 पर भी है।

2003 में प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर-20‘, पं. सुन्दरलाल शर्मा जयंती समारोह परिशिष्टांक तथा इस दौर के अन्य स्रोतों से भी इसी से मिलती-जुलती जानकारी सामने आती है, जिनमें से दो का उल्लेख यहां किया जा रहा है। 1992 में प्रकाशित ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर स्मृति ग्रंथ में महात्मा गांधी के 1926 में बिलासपुर आगमन पर बैरिस्टर का स्वागताध्यक्ष होना बताया गया है तथा कुलदीप सहाय ने 1917 से 1921 तक के अपने संस्मरण में गांधी जी के छत्तीसगढ़ आने का उल्लेख नहीं किया है। एक अन्य प्रकाशन, अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तराधिकार परिषद द्वारा 11 सिंतबर 1995 तिथि पर महात्मा गांधी 125 वां जन्म वर्ष समारोह आयोजन कर स्मारिका निकाली गई। स्मारिका समिति में राजेन्द्र प्र. पाण्डेय के साथ 9 अन्य नाम हैं। स्मारिका में ‘गांधी जी की छत्तीसगढ़ यात्रा‘ शीर्षक भुवनलाल मिश्र का लेख है। इस लेख में कहा गया है कि ‘‘इसी कंडेल नहर सत्याग्रह के नेतृत्व को गांधी जी को सौंपने हेतु पंडित सुंदर लाल शर्मा अपने सहयोगियों के परामर्श से कलकत्ता गये एवं महात्मा गांधी को 20 दिसंबर सन् 1920 को साथ लेकर रायपुर आये।‘‘ ... ‘‘अंतोतगत्वा गांधी जी के आगमन के एक दिन पूर्व अंग्रेजी शासन को आंदोलनकारियों के कदमों पर झुकना पड़ा।‘‘ ... ‘‘इस तरह इतिहास की धारा ही बदल गयी, अन्यथा बिहार के प्रसिद्ध चंपारन सत्याग्रह के बाद महात्मा गांधी को कंडेल नहर सत्याग्रह का नेतृत्व करना पड़ता जिससे पूरा छत्तीसगढ़ गौरवान्वित हुआ होता।’’ इसके पश्चात लेख में गांधी जी की रायपुर सभा, धमतरी और वहां से लौटते हुए कुरुद की सभा की जानकारी दी गई है। इसी लेख में आगे कहा गया है कि ‘‘सन 1920 एवं सन 1933 में किये गये दो यात्राओं के अवसर पर महात्मा गांधी ने छत्तीसगढ़ का कुल मिलाकर 6-7 दिन भ्रमण किया था।‘‘ तथा ‘‘शासकीय ग्रंथों में राष्ट्रपिता के छत्तीसगढ़ भ्रमण को बहुत ही संक्षिप्त रूप में लिखा गया है जो खेद की बात है। धमतरी के देशभक्त स्व. डा, शोभाराम देवांगन, भूतपूर्व शिक्षा मंत्री श्री भोपाल राव पवार आदि लेकों ने उसे विस्तार पूर्वक लिखने का प्रयास किया है, किंतु इस दिशा में और शोध की आवश्यकता है।‘‘

प्रसंगवश, सन 2004 में कु. साधना श्रीवास्तव के पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के शोध-प्रबंध ‘छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय आंदोलन में धमतरी अंचल का योगदान‘ में पंढरी राव कृदत्त का साक्षात्कार शामिल है, जो 29-3-2001 को लिया गया था। शोध प्रबंध में यह साक्षात्कार शोधार्थी की लिखावट में, पंढरी राव कृदत्त के हस्ताक्षर सहित है। यहां गांधीजी का दो बार आना कहा गया है, किंतु पहली बार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है और ‘गांधी जी जब 1930 में आये‘ उल्लिखित है‘, अतएव ठोस प्रमाणस्वरूप स्वीकार किया जाना संभव नहीं होता। साक्षात्कार शब्दशः इस प्रकार है-


साक्षात्कार
पंडरी राव कृदत्त

1930 में नवागांव में जंगल सत्याग्रह लोगों ने किया। उसमें दो-तीन दिन लोगों की गिरफ्तारियां हुई। गोली चली व दो लोगों की मृत्यु हो गयी। नत्थूजी जगताप व बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में सत्याग्रह चल रहा था। नारायण राव जी का भी सहयोग था। गांधी जी का यहां दो बार आना हुआ। एक बार उनका मुनिस्पल हाई स्कूल में उनका भाषण हुआ था। जहां लोगो ने अपने गहने तक उतार कर आंदोलन के लिये दिये उनमें से एक यशोदाबाई कृदत्त जो कि नत्थूजी जगताप की बुआ थी उन्होंने भी अपने गहने उतार कर दिये।

इस आंदोलन के पहले 1920 में कंडेल का एक नहर आंदोलन हुआ जिसमें सरकार द्वारा नहर के किनारे चरने वाले पशुओं को कांजी हाउस में बंद करने का षड़यंत्र सरकार द्वारा हुआ तो इस आंदोलन के आधार पर जितने भी बैल बाजार हैं उन्हें बेचने के लिये घुमाया गया पर किसी ने नहीं खरीदा व सरकार को झुकना पड़ा।

गांधी जी जब 1930 में आये तो उन्होंने कहा कि यह आंदोलन तो मेरे आंदोलन के पूर्व ही हो चुका है और सराहनीय है।

धमतरी क्षेत्र में बहुत से और भी आंदोलन हुये। आज भी कई लोगों को पेंशन मिलती है। धमतरी के मराठा पारा में एक आश्रम हुआ करता था जहां सत्याग्रही लोग एकत्र होकर प्रभातफेरी किया करते थे। व सुबह सुबह प्रभात फेरी में जाया करते थे मेरी उम्र उस समय 8 वर्ष की थी मैं भी उन लोगो के साथ घूमा करता था।

पंढरीराव कृदत
29-3-2001

सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खंड 18, जुलाई 1966 में प्रकाशित संस्करण, नेट पर उपलब्ध है, जिसके पेज 229-230 पर, जुलाई से नवंबर 1920, ‘हमारी दैनन्दिनी‘ शीर्षक के अंतर्गत 10 अगस्त से 26 अगस्त तक का विवरण देते हुए लिखा है कि ‘‘हम लगातार 24 घंटे मद्रासके अतिरिक्त और किसी स्थानपर न रह सके और मद्रास भी इसी कारण रह पाए क्योंकि हम पहले-पहल वहीं गये थे। बादमें तो केन्द्रस्थान होनेके कारण हम आते-जाते दो-चार घंटे वहाँ रुकते। सेलमसे बंगलौर की 125 मीलकी यात्रा हमें मोटरमें तय करनी पड़ी थी। इस रफ्तार से यात्रा करना हमारे लिए कुछ अधिक हो जाता था; लेकिन निमन्त्रण बहुत जगहोंसे मिले थे। इनकार करना उचित नहीं लगता था और फिर यह लोभ भी था कि हम जितनी दूरतक अपना सन्देश पहुँचा सकें उतना ही अच्छा है।‘‘ इस दौरे में बम्बई और अहमदाबाद होते गांधीजी 3 सितंबर 1920 की रात में कलकत्ता पहुंचे थे। इसके पश्चात् 10 सितंबर तक कलकत्ता में, 17 सितंबर तक बंगाल में और 20 सितंबर को साबरमती आश्रम में होने की स्पष्ट जानकारी मिलती है। इस प्रकार कलकत्ता विशेष अधिवेशन के पूर्व गांधीजी के रायपुर आगमन की संभावना नहीं जान पड़ती।

सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खंड 19, नवंबर 1966 में प्रकाशित संस्करण, नेट पर उपलब्ध है, जिसमें नवंबर 1920 से अप्रैल 1921 में पेज 133 पर 16 दिसंबर 1920, गुरुवार को ढाका से कलकत्ता जाते हुए मगनलाल गांधी को लिखे पत्र की जानकारी है। पेज 143 पर 18 दिसंबर को नागपुर की सार्वजनिक सभा में भाषण की जानकारी है। पेज 151 पर 25 दिसंबर को नागपुर की बुनकर परिषद् में भाषण तथा पेज 152 पर नागपुर के अन्त्यज सम्मेलन में भाषण। पेज 161 पर 26 दिसंबर को नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन के उद्घाटन दिवस पर, गांधीजी द्वारा में भाषण, श्री विजयराघवाचार्य को कांग्रेस का अध्यक्ष चुनने के प्रस्ताव का अनुमोदन किया था।

सी.बी. दलाल की अंगरेजी पुस्तक ‘गांधीः 1915-1948‘ ए डिटेल्ड क्रोनोलाजी, गांधी पीस फाउंडेशन नई दिल्ली ने भारतीय विद्या भवन बम्बई के साथ मिलकर सन 1971 में प्रकाशित किया है। पुस्तक के पेज 35 पर माह दिसंबर, सन 1920 के गांधीजी के दैनंदिन का उल्लेख है, जिसके अनुसार गांधीजी ने 17 दिसंबर 1920 को कलकत्ता छोड़ा और 18 दिसंबर 1920 को नागपुर की आमसभा में रहे। इसके पश्चात दिनांक 19 से 23 तक नागपुर में तथा पुनः 31 दिसंबर तक नागपुर के विभिन्न कार्यक्रमों में शामिल हुए। एक अन्य अंगरेजी पुस्तक के. पी गोस्वामी की ‘‘महात्मा गांधी ए क्रोनोलाजी‘‘ मार्च 1971 में पब्लिकेशन डिवीजन से प्रकाशित हुई है। इसमें भी गांधीजी के प्रवास की तिथियां दलाल की पुस्तक की तुलना में संक्षिप्त, किंतु पुष्टि करने वाली हैं।

सन 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ आने के संबंध में पं. सुंदरलाल शर्मा द्वारा किया गया कोई उल्लेख नहीं मिलता, वहीं सर्वविदित है कि गांधीजी की आत्मकथा के अंतिम दो शीर्षकों में से ‘असहयोगका प्रवाह‘ में सितंबर 1920 के कलकत्ता के विशेष अधिवेशन का तथा ‘नागपुरमें‘ में दिसंबर 1920 के नागपुर वार्षिक अधिवेशन का उल्लेख है। यहां भी छत्तीसगढ़ का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इस तरह पं. सुंदरलाल शर्मा और महात्मा गांधी, दोनों द्वारा 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास का उल्लेख न होने से संदेह/संभावना की गुंजाइश रह जाती है कि ऐसा संयोग-मात्र हो सकता है किंतु विसंगतियों तथा प्रामाणिक प्रकाशनों से मिलान करने पर छत्तीसगढ़ के लिए इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक गौरव के प्रसंग पर तथ्यों, दस्तावेजों के साथ असंदिग्ध जानकारियों आवश्यक हो जाती है। अपने संसाधनों की सीमा में जितनी जानकारी जुटा पाया, जानता हूं कि वह पर्याप्त नहीं है, सुधिजन के परीक्षण हेतु प्रस्तुत है। आशा है कि कुछ और पुष्ट जानकारी प्राप्त हो सकेगी, जिससे इतिहास के पन्नों में स्पष्टीकरण, संशोधन हो सके। अन्यथा, मान लेना होगा कि 1920 में छत्तीसगढ़ में गांधीजी का सघन-आह्वान हुआ, जिसके चलते समय बीत जाने पर वे साकार सत्य की तरह साक्षात हो गए।

Sunday, November 24, 2019

राज्‍य-गीत

साहित्यकार एवं भाषाशास्त्री आचार्य डॉ. नरेन्‍द्र देव वर्मा लिखित छत्तीसगढ़ी गीत 'अरपा पइरी के धार...' को मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल द्वारा राज्योत्सव के मंच से 3 नवम्बर 2019 को छत्तीसगढ़ का राज्य-गीत घोषित किया गया। इस दिन डॉ. वर्मा पूरे 80 वर्ष के होते। यह राज्य-गीत सोमवार, 18 नवम्बर 2019 को राजपत्र में प्रकाशित हो कर, अधिसूचना जारी दिनांक से प्रभावशील हो गया। राज्य-गीत का गायन सभी शासकीय कार्यक्रमों के प्रारंभ में सुनिश्चित किए जाने के निर्देश जारी हुए हैं। राज्य-गीत का अधिसूचित स्वरूप आगे है-

अरपा पइरी के धार महानदी हे अपार,
इन्द्राबती ह पखारय तोर पइँया।
महूँ पाँव परँव तोर भुइँया,
जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया॥
सोहय बिन्दिया सही घाते डोंगरी, पहार
चन्दा सुरूज बने तोर नयना,
सोनहा धाने के संग, लुगरा के हरियर रंग
तोर बोली जइसे सुघर मइना।
अँचरा तोरे डोलावय पुरवइया।।
(महूँ पाँव परँव तोर भुइँया, जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया।।)
रइगढ़ हाबय सुघर तोरे मँउरे मुकुट
सरगुजा (अऊ) बेलासपुर हे बहियाँ,
रइपुर कनिहा सही घाते सुग्घर फभय
दुरुग, बस्तर सोहय पयजनियाँ,
नाँदगाँवे नवा करधनियाँ
(महूँ पाँव परँव तोर भुइँया, जय हो जय हो छत्तिसगढ़ मइया।।)

इस गीत का अंग्रेजी अनुवाद स्‍वयं डॉ. नरेन्‍द्र देव वर्मा ने इस प्रकार किया था-

Arpa and Pairi, the streams
And the great Mahanadi flow,
Indravati washes your feet,
I salute thee, O my land,
My Mother Chhattisgarh

Hills and mountains are
A 'bindiya' on your forehead
The sun and the moon, your eyes
You are enriched with golden paddy
Your 'sari' is green
The wind flutters the full of your 'sari'
I salute thee, O my land,
My Mother Chhattisgarh.

Raigarh your crown, ceremonious and beautiful,
Sarguja and Bilaspur are your hands
Raipur is your waist
Durg and Bastar are your feet
Rajnandgaon in your new belt
I salute thee, O my land,
My Mother Chhattisgarh.

राज्य गीत गायन के संबंध में निर्देश
अवधि- 1 मिनट 15 सेकंड
यह गीत सन 1973 में लिखा गया, डाॅ. वर्मा के पारिवारिक सदस्यों ने बताया कि यह गीत डायरी में उनकी लिखावट में दर्ज सुरक्षित है। गीत के पांच अंतरा में से पहले दो अंतरा राज्य-गीत के रूप में आए हैं। गीत में रइगढ़ को मँउरे मुकुट और बेलासपुर के साथ सरगुजा को बहियाँ कहा जाना, ऐसी काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, जो मेरे लिए जिज्ञासा का विषय है अर्थात् लगता है कि सरगुजा को मुकुट और रायगढ़ को बांह, क्यों नहीं कहा गया है? बहरहाल ...

इस गीत की रचना, संगीत और गायन डाॅ. वर्मा ने किया था। डाॅ. बिहारीलाल साहू और सुरेश देशमुख इसके प्रथम चरण का स्मरण करते हैं। रायपुर, जोरापारा के सुकतेल भवन में तब संगीत बैठकें होती थीं। इस गीत के साथ रामेश्वर वैष्णव, धनीराम पटेल, पद्मलोचन जायसवाल, ललिता शर्मा को भी याद किया जाता है। आगे चलकर यह गीत दाऊ महासिंग चंद्राकर के ‘सोनहा बिहान‘ के साथ जुड़ा। ‘सोनहा बिहान‘ डाॅ. वर्मा के हिन्दी उपन्यास ‘सुबह की तलाश‘ का नाट्य रूपांतर था। मुकुंद कौशल और विवेक वासनिक सोनहा बिहान के दौर और इस गीत की संगीत रचना के साथ गोपाल दास वैष्णव, सत्यमूर्ति देवांगन (बुद्धू गुरूजी), मुरली चंद्राकर, जगन्नाथ भट्ट, दुर्गा प्रसाद भट्ट, मदन शर्मा, श्रवण कुमार दास को याद करते हैं। यह सर्वविदित है कि इस गीत की रचना के बाद अब तक उस दौर के केदार यादव, साधना यादव, ममता चंद्राकर, लक्ष्मण मस्तुरिया, कविता वासनिक, गणेश यादव, जयंती यादव, कुलेश्वर ताम्रकार से आज की बाल प्रतिभा आरु साहू जैसे सभी प्रमुख गायकों ने अपना स्वर दे कर इसे राज्य के जन-गीत की प्रतिष्ठा दी है।

डॉ. नरेन्‍द्र देव वर्मा की डायरी में
उनकी हस्तलिपि में दर्ज गीत की पंक्तियां


Sunday, October 27, 2019

ऐतिहासिक छत्‍तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल अर्थात्‌ वर्तमान छत्तीसगढ़ व उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक मानव संस्कृति के रोचक पाषाण खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल (तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व) के बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास गुफा की दीवार पर रंग में डूबी कूंची फेरकर, अपनी कलाप्रियता का प्रमाण भी दर्ज कर दिया। मानव संस्कृति की निरन्तर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर, प्रतिमा, सिक्के व अभिलेख में अभिव्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों के गौरवपूर्ण कला रुझान व महत्वाकांक्षी अभियानों से इस क्षेत्र के सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ। धरोहर सम्पन्न छत्‍तीसगढ़ की परिसीमा, आज भी पुरा सम्पदा का महत्वपूर्ण केन्द्र है।

छत्‍तीसगढ़ का यह क्षेत्र नैसर्गिक सम्पदा से पूर्ण रहा है। महानदी, इन्द्रावती, शिवनाथ, अरपा, हसदेव, केलो, रेन आदि सरिताओं के सुरम्य प्रवाह से सिंचित तथा सघन वनाच्छादित यह भू भाग आदि मानवों द्वारा संचारित रहा है। इनके पाषाण उपकरण और शैलचित्र, नदी तटवर्ती क्षेत्र तथा सिंघनपुर, कबरा पहाड़, करमागढ़ (रायगढ़ जिला) आदि स्थलों से ज्ञात हुए हैं। शास्त्रीय ग्रन्थों में इस क्षेत्र से संबंधित उल्लेख प्राप्त होने लगते हैं। रामायण के कथा प्रसंगों तथा राम के वन गमन का मार्ग, इस क्षेत्र से सम्बद्ध किया जाता है। महाभारत में पाण्डवों के दिग्विजय व अन्य प्रसंगों तथा पौराणिक ग्रन्थों में भी दक्षिण कोसल का उल्लेख अनेक स्थलों पर आया है। प्राचीन परम्पराओं और दंतकथाओं से भी यह अनुमान होता है के यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही विशेष महत्व का भू भाग रहा है।

मौर्य काल अर्थात्‌ ईस्वी पूर्व चौथी सदी से इस क्षेत्र में नगर सभ्यता के विकास का संकेत मिलने लगता है। सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी के ब्राह्मी अभिलेख के सिवाय आहत सिक्के, मिट्टी के गढ़ और मृद्‌भाण्ड विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे इस क्षेत्र की सांस्कृतिक सम्पन्नता का अनुमान सहज ही होता है।

मौर्यों के पश्चात्‌ तत्कालीन क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव रहा, जिसके सीमित प्रमाण उपलब्ध होते हैं। ईसा की आरंभिक शताब्दियों के स्पष्ट प्रमाण के रूप में अभिलेख, सिक्के, प्रतिमाएं, लाल ओपदार ठीकरे आदि प्राप्त हुए हैं। इस काल में विदेश व्यापार संबंध के परिचायक रोम और चीन के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।

चौथी सदी ईस्वी के वाकाटक-गुप्त काल के पश्चात्‌ से इस क्षेत्र के इतिहास की रूपरेखा स्पष्ट होने लगती है। समुद्रगुप्त के प्रसिद्ध इलाहाबाद अभिलेख में दक्षिणापथ के शासकों में कोसल के महेन्द्र नामक शासक का उल्लेख प्रथम क्रम पर है। गुप्तों के प्रभाव के अन्य साक्ष्य भी ज्ञात होते हैं।

गुप्तों के समकालीन शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डुवंश की सूचना मुख्‍यतः ताम्रपत्रों से मिलती है। राजर्षितुल्य कुल के भीमसेन द्वितीय के ताम्रपत्र से इसके महत्वपूर्ण शासक होने का स्पष्ट अनुमान होता है। सुवर्ण नदी से जारी किए गए इस ताम्रपत्र में शूरा को राजवंश का संस्थापक बताया गया है। मेकल के पाण्डुकुल के ताम्रपत्रों से जयबल, वत्सराज, नागबल, भरतबल एवं शूरबल जैसे शासकों के नाम मिलते हैं।

लगभग पांचवीं-छठी ईस्वी में शरभपुरीय या अमरार्यकुल नामक महत्वपूर्ण राजवंश की सूचना प्राप्त होती है। इस वंश की प्रमुख राजधानी शरभपुर थी, जो बाद में प्रसन्नपुर स्थानान्तरित हो गई। इनकी द्वितीय राजधानी के रूप में श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) का नाम ज्ञात होता है। इस वंश के विभिन्न ताम्रपत्रों से शरभ, नरेन्द्र, प्रसन्नमात्र, जयराज, सुदेवराज, प्रवरराज तथा व्याघ्रराज का नाम मिलता है। इनमें एकमात्र प्रसन्नमात्र के सिक्के विस्तृत भूभाग से प्राप्त हुए हैं।

लगभग छठी ईस्वी में एक अन्य राजवंश का उदय होता है, जो इतिहास में कोसल के पाण्डुवंश के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी राजधानी श्रीपुर थी। इस वंश का आरंभ उदयन से ज्ञात होता है। इस वंश के शिलालेखों व ताम्रपत्रों से इन्द्रबल, ईशानदेव, नन्न, तीवरदेव, महाशिवगुप्त बालार्जुन आदि शासकों के नाम ज्ञात होते हैं।

लगभग सातवीं सदी ईस्वी से दसवीं सदी ईस्वी का काल मुखयतः सोमवंशी शासकों के आधिपत्य का है। इनकी राजधानी सुवर्णपुर, उड़ीसा थी। इस वंश के अभिलेखों से वंश के प्रथम शासक शिवगुप्त के अतिरिक्त ययाति, धर्मरथ, नहुष उद्योतकेसरी, कर्णकेसरी आदि शासक नाम मिलते हैं। इसी काल में त्रिपुरी के कलचुरियों के प्रच्छन्न प्रभाव के अतिरिक्त बाणवंशी शासकों के आधिपत्य के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।

दसवीं सदी ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरियों की एक शाखा ने तुम्माण (वर्तमान तुमान, कोरबा जिला) को राजधानी बना कर शासन आरंभ किया। इस वंश के राजाओं में आरंभिक नाम कलिंगराज, कमलराज मिलते हैं। इसके पश्चात्‌ रत्नदेव, पृथ्वीदेव, जाजल्लदेव, प्रतापमल्ल आदि शासकों के नाम मिलते हैं। परवर्ती काल में इस वंश की राजधानी रत्नपुर स्थानान्तरित हुई, पुनः इसी वंश की एक शाखा ने रायपुर को अपनी राजधानी बनाया। मराठों के आगमन अर्थात्‌ अठारहवीं सदी ईस्वी तक इस क्षेत्र पर कलचुरियों का एकाधिपत्य रहा।

इस क्षेत्र में उपरोक्त वर्णित राजवंशों के विभिन्न निर्माण कार्यों से जहां उनकी धार्मिक सहिष्णुता, कलाप्रियता व शास्त्रीय मान्यताओं के संरक्षण का परिचय मिलता है वहीं काव्य चमत्कार, भाषा ज्ञान, धातु सम्पन्नता की झलक, अभिलेख व सिक्के हैं। इस प्रकार की महत्वपूर्ण पुरा सम्पदा निम्नानुसार है-

स्थापत्य अवशेषों के महत्वपूर्ण उदाहरण इस क्षेत्र में विद्यमान हैं। रामगढ़ की गुफाओं से आरंभ होकर निःसंदेह इसका विशिष्ट पड़ाव मल्हार था, किन्तु मल्हार से अब तक कोई महत्वपूर्ण संरचना प्रकाश में नहीं आई अतः इसके पश्चात्‌ बिलासपुर जिले के अत्यंत विशिष्ट स्थल ताला पर दृष्टि केन्द्रित की जा सकती है, जहां उत्तर गुप्त कालीन दो शिव मंदिर हैं। इनमें से देवरानी मंदिर नाम से प्रसिद्ध स्मारक अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और पूर्वज्ञात संरचना है, जबकि जिठानी मंदिर की अवशिष्ट संरचना पुरातत्व विभाग के कार्यों से स्पष्ट हुई है।

इसके पश्चात्‌ पाण्डु-सोमवंशी शासकों के निर्माण का काल छठी-सातवीं सदी के आरंभ होता है। इन राजवंशों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरणों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, खरौद के मंदिर, राजिम का राजीव लोचन व अन्य मंदिर, अड़भार का शिव मंदिर, धोबनी का चितावरी दाई मंदिर, पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर, मल्हार का देउर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की क्षेत्रीय वास्तु शैली की विशेषता ताराकृति योजना पर बने ईंटों के मंदिर हैं।

लगभग दसवीं सदी ईस्वी तक इस कालावधि में कुछ अन्य राजवंशों ने भी महत्वपूर्ण निर्माण कार्य कराया। इनमें उल्लेखनीय उदाहरण सरगुजा जिले के डीपाडीह, देवगढ़, सतमहला, महेशपुर आदि स्थलों में विद्यमान है। रायगढ़ जिले में इस काल के उदाहरणस्वरूप नेतनागर, पुजारीपाली, सारंगढ़, कांसाबेल के अवशेष हैं। इस परिप्रेक्ष्‍य में पाली का महादेव मंदिर व शिवरीनारायण का केशवनारायण मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं।

कलचुरि शासकों के निर्माण का क्रम ग्यारहवीं सदी ईस्वी से प्रारंभ होता है। इन शासकों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरण तुमान, जांजगीर, गुड़ी, मल्हार, शिवरीनारायण, किरारी गोढ़ी, सरगांव, रतनपुर आदि स्थलों के मंदिर अवशेष, विशेष महत्व के हैं।

कुछ अत्यंत विशिष्ट और उल्लेखनीय प्रतिमाओं में मल्हार के अभिलिखित विष्णु, स्कन्द माता, कुबेर, डिडिनेश्वरी देवी के रूप में पूजित राजमहिषी आदि हैं। अड़भार में महिषासुरमर्दिनी, अष्टभुजी शिव, पार्श्वनाथ, गंगा-यमुना, मिथुन आदि प्रतिमाएं हैं। ताला के रूद्र शिव, कार्तिकेय, शिव लीला के दृश्य व कीर्तिमुख भारतीय कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। खरौद की गंगा-यमुना, शिवरीनारायण के शंख व चक्र पुरुष तथा विष्णु के विभिन्न रूपों युक्त केशवनारायण मंदिर का द्वार शाख भी उल्लेखनीय है। पाली के मंदिर की प्रतिमाओं का संतुलन व विविधता दर्शनीय है। अन्य स्थलों से भी कुछ विशिष्ट प्रतिमाएं ज्ञात हैं, जिनमें रतनपुर के कंठी देवल और किला प्रवेश द्वार की प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है। महमंदपुर की सर्वतोभद्र महामाया जैसी कई विशिष्ट किन्तु अल्पज्ञात प्रतिमाएं भी क्षेत्र में उपलब्ध हैं।

छत्‍तीसगढ़ की मूर्तिकला विविध कला शैलियों के परिपक्व अवस्था का परिचायक है। यहां के प्राचीन शिल्पियों ने शास्त्रीय ज्ञान और मौलिक प्रतिभा का अनूठा समन्वय, अत्यंत रोचक है। मूर्तिकला में नैसर्गिक रूप-सौन्दर्य लावण्य, भावाभिव्यक्ति तथा सुरुचिपूर्ण अलंकरण सहज आकर्षक है।

अभिलेखों की दृष्टि से इस क्षेत्र में प्रारंभिक अभिलेख ईस्वी पूर्व तीसरी सदी के हैं। रामगढ़ पहाड़ी के गुफालेख, ऋषभतीर्थ, गुंजी चट्टानलेख, बूढ़ीखार मूर्तिलेख, सेमरसल शिलालेख, किरारी काष्ठ स्तंभलेख, आरंग व दुर्ग के ब्राह्मी शिलालेख प्रमुख हैं। इन लेखों का काल ईस्वी पूर्व तीसरी-दूसरी सदी है। ये लेख पालि-प्राकृत भाषा में, ब्राह्मी लिपि के रूपों में उत्कीर्ण हैं।

चौथी सदी ईस्वी के पश्चात्‌ क्षेत्रीय राजवंशों के विभिन्न अभिलेख प्राप्त होने लगते हैं। इनमें मुख्‍यतः पीपरदुला, कुरुद, मल्हार, आरंग, खरियार, सिरपुर, कौआताल, सारंगढ़, रायपुर, पोखरा, ठकुरदिया, बोण्डा, राजिम, बलौदा, अड़भार, लोधिया, बरदुला, सेनकपाट, खरौद, पाली, ताला आदि स्थलों के ताम्रपत्र व शिलालेख हैं। ये अभिलेख दसवीं सदी ईस्वी तक के उपरोल्लिखित राजवंशों से सम्बद्ध हैं। कुछ स्थानों पर तीर्थयात्रियों अथवा सामान्य नामोल्लेख वाले अभिलेख मिले हैं। इन लेखों की लिपि, पेटिकाशीर्ष और कीलाक्षर में विकसित ब्राह्मी, कुटिल या आरंभिक नागरी है, लेखों की भाषा लगभग शुद्ध संस्कृत है।

दसवीं सदी ईस्वी के पश्चात्‌ कलचुरियों के अभिलेख प्राप्ति के महत्वपूर्ण स्थल हैं- रायपुर, अमोदा, रतनपुर, पाली, शिवरीनारायण, खरौद, अकलतरा, कोटगढ़, सरखों, पारगांव, दैकोनी, कुगदा, कोथारी, बिलईगढ़, राजिम, कोनी, घोटिया, पुजारीपाली, मल्हार, पेन्डराबंध, कोसगईं, खल्लारी, आरंग, कोनारी तथा एक अन्य राजवंश का लहंगाभांठा शिलालेख। कुछ स्थानों से मूर्तिलेख भी प्राप्त हुए हैं। ये लेख भी ताम्रपत्र या शिलालेख हैं, तथा संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। लिपि, नागरी का विकसित होता हुआ रूप है।

इस क्षेत्र से सिक्कों की प्राप्तियां भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आरंभिक काल के सिक्कों में मौर्यकालीन आहत सिक्के ठठारी से प्राप्त हुए हैं। मघ, रोमन, कुषाण, सातवाहन आदि राजवंशों के सिक्कों का प्रमुख प्राप्ति स्थल मल्हार व बालपुर है। विभिन्न कालों और धातुओं से निर्मित विविध तकनीक के सिक्के जिन स्थानों से प्रमुखतः मिले हैं, उनमें केरा, सोनसरी, भगोड़, धनपुर, केन्दा, चकरबेढ़ा, आदि ग्रामों का उल्लेख किया जा सकता है। सातवाहन शासक अपीलक, माघश्री सिक्के तथा प्रसन्नमात्र व अन्य शासकों के ठप्पांकित तकनीक से निर्मित सिक्के इस क्षेत्र की मुद्राशास्त्रीय विशिष्टता रेखांकित करते हैं।

नवम्‍बर 1986 में मध्‍यप्रदेश राज्‍य स्‍थापना के तीन दशक पूरे होने पर मूलतः डा. लक्ष्‍मीशंकर निगम के मार्गदर्शन एवं श्री जी एल रायकवार के सहयोग से मेरे द्वारा संयोजित लेख, अब नई जानकारियां शामिल कर इस पेज अद्यतन किया जा रहा है। यहां आई जानकारियां पूर्व में हुए शोध और प्रकाशनों से भी ली गई हैं, लेकिन स्‍मारक, अवशेषों का सर्वेक्षण और तथ्‍यों का परीक्षण यथासंभव मेरे द्वारा किया गया है।

Saturday, November 1, 2014

रेरा चिरइ


रेरा चिरइ, रम चूं... चूं... चूं
मोर नरवा तीर बसेरा
रोवत होही गदेला, रम चूं... चूं... चूं
रम चूं... चूं... चूं

सब झन खाइन कांदली
मैं पर गेंव रे फांदली, रम चूं... चूं... चूं
मोला सिकारी उड़ान दे
मोर मुंह के चारा ल जान दे, रम चूं... चूं... चूं

मोर रद्‌दा ल जोहत होही
भुख-पियासे म रोवत होही, रम चूं... चूं... चूं
नई उघरे उंकर रे आंखी
नई जामे हे डेना अउ पांखी, रम चूं... चूं... चूं

बछरू ल गाय पियात हे
ओला देख के सुरता आत हे, रम चूं... चूं... चूं
सुरुज बुड़े बर जात हे
लइकोरहिन लइका खेलात हे, रम चूं... चूं... चूं

सिकारी कहिस रे चिरइया
तंय मोर भूख मिटइया, रम चूं... चूं... चूं
लइका संग हंड़िया उपास हे
तोर काया ले सबके आस हे, रम चूं... चूं... चूं

गरीबी महा दुखदाई
मै काला बतावंव चिराई, रम चूं... चूं... चूं
मैं तोला बेंचे बर जाहूं
बलदा म चाउंर बिसाहूं, रम चूं... चूं... चूं

तोर दुखड़ा ल लइका ल बताहूं
मैं होत बिहाने आहूं, रम चूं... चूं... चूं
फेर मोला बेंच के खा ले
तंय भूख के आगी बुझा ले, रम चूं... चूं... चूं

अंधियार म रेरा भटक गे
गर म कांटा खबस गे, रम चूं... चूं... चूं
भुंइया म गिरे गदेला
रोवत हे माटी के ढेला, रम चूं... चूं... चूं

खोजत सिकारी ह आइस
मरे देख पछताइस, रम चूं... चूं... चूं
गदेला ल छू छू देखय
रेरा ल देख के रोवय, रम चूं... चूं... चूं

नई मारे के खाइस किरिया
मै निच्चट पांपी कोढ़िया, रम चूं... चूं... चूं
अब नांगर बइला बिसाहुं
मै धान कोदो ल जगाहूं, रम चूं... चूं... चूं

अब चहकय रेरा के डेरा
उठावै नांगर के बेरा, रम चूं... चूं... चूं
लइका संग खेलय गदेला
अब नइये कउनो झमेला, रम चूं... चूं... चूं

श्री सनत तिवारी
कैफियत- खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र का अनूठा काव्यात्‍मक पक्षीकोश ''खुसरा चिरई के ब्याह'' है। छत्तीसगढ़ में पक्षियों पर अन्य रचनाएं भी हैं, इन्हीं में एक लोरीनुमा यह गीत ''रेरा चिरइ'' है। रेरा या सुहेरा छत्तीसगढ़ में बया को कहा जाता है। इस पारंपरिक गीत के कुछ ही शब्द और टूटी-फूटी पंक्तियां मिलती थीं। कभी बातों में बिलासपुर के श्री सनत तिवारी जी ने ''रेरा अउ सिकारी के गोठ'' कविता, पूरे लय और मार्मिकता सहित गा कर सुना दी। मैं चकित रह गया, फिर पंक्तियों को दुहरा कर ध्यान दिया तो संदेह हुआ कि क्या पारंपरिक, पुराना स्वरूप ऐसा ही था। वन-पर्यावरण के प्रति सदैव सजग सनत जी ने सहजता से स्वीकार किया कि गीत कुछ-कुछ ही ध्यान में था, क्योंकि बचपन में दादी-नानी से ''रम चूं... चूं... चूं, रम चूं... चूं... चूं'' बार-बार सुनते नींद आ जाती थी, बाद में अपनी ओर से शब्द और पंक्तियां जोड़ कर यह गीत बनाया है, अब इसे छत्तीसगढ़ी का पारंपरिक गीत कहें या सनत जी की मौलिक रचना, बहरहाल मुझे अत्यंत प्रिय है और सनत जी से सस्वर सुनने का अवसर मिले फिर तो वाह, इसके क्या कहने, एकदम रम चूं... चूं... चूं ... ... ...

इस छत्‍तीसगढ़ी पद्य को पहली बार हिन्‍दी में अनुवाद का प्रयास किया है-

बया चिड़िया कहती है, नाले के पास मेरा बसेरा है, (वहां मेरा) चूजा रो रहा होगा.

सब ने चारा चुगा, (लेकिन) मैं फंदे में पड़ (फंस) गई, शिकारी मुझे उड़ जाने दो, मेरे मुंह के चारा को (ले) जाने दो.

(चूजा) मेरा रास्ता (जोह) देख रहा होगा, भूख-प्यास से रो रहा होगा, (अभी) उसकी आंखें नहीं खुली हैं, पंख-डैने नहीं (उगे) जमे हैं.

बछ्ड़े को गाय (दूध) पिला रही है, उसे देख कर मुझे (अपने बच्चों की) याद आ रही है, सूर्य डूबने जा रहा है, जच्चा बच्चे को बहला रही है.

शिकारी चिड़िया से कहता है, तुम मेरी भूख मिटाने वाली हो, मेरा लड़का हांडी सहित (बिना निवाले के) उपवास है, तुम्हारी काया से (पेट भरने की) सबकी आस है.

गरीबी महा दुखदाई है, मैं किसे बताऊं चिड़िया, मैं तुम्हें बेचने जाऊंगा, बदले में चावल खरीदूंगा.

(‍चिड़िया मोहलत मांगते हुए कहती है) मैं तुम्हारा कष्ट अपने चूजे को बताऊंगी, मैं सुबह होते ही आ जाऊंगी, फिर मुझे बेच कर (चावल) खा लेना, तुम (अपने) भूख की आग बुझा लेना.

(मोहलत पा कर अपने बसेरे के लिए वापस लौटते हुए) अंधेरे में चिड़िया भटक गई, (उसके) गले में कांटा चुभ गया, (उधर) चूजा जमीन पर गिर गया, (वहां अगर कोई रोने को है, तो बस) मिट्टी का धेला रो रहा है.

(चिड़िया के वापस न लौटने पर) शिकारी खोजते हुए आया, (चिड़िया को) मरा देख कर पछताया, चूजे को छू छू कर देखता है, ‍चिड़िया को देख कर रोता है.

(शि‍कारी) शिकार न करने की कसम खाता है, (सोचता है) मैं घोर पापी, आलसी हूं, अब हल-बैल खरीदूंगा, मैं धान-कोदो उपजाऊंगा.

अब बया के घोंसले में चहक (रौनक) है, (शिकारी के) हल उठाने का समय है, चूजा (शि‍कारी के) बच्चे के साथ खेल रहा है, अब कोई झमेला नहीं है.

प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ी में शिकारी और चिडि़या के अन्य कई मार्मिक प्रसंग सुनाए जाते हैं, जैसे- ''तीतुर फंसे घाघर फंसे, तैं का बर (या तूं कइसे) फंस बटेर, मया पिरित के फांस म आंखी ल देहें लड़ेर।'' आशय कि शिकारी ने जाल फैलाया, जाल के छेद इतने बड़े थे कि उसमें तीतर और घाघर फंसे, लेकिन छोटी चिडि़या बटेर को भी फंसी देख कर शिकारी पूछता है कि तुम कैसे फंस गई। बटेर जवाब देती है- तुम्हारे जाल में नहीं, बल्कि (जिनके साथ दाना चुग रही थी, उनका साथ निभाने) ममता-प्रीति के फंदे में फंसी आंखें बंद कर पड़ी हूं। 

छत्तीसगढ़ी लोक मन का  'मा निषाद प्रतिष्ठां...' कम मार्मिक नहीं। और ध्यातव्य, 'नैषधीयचरित' में नल द्वारा पकड़ लिये जाने पर हंस कहता है- 
मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिर्वरटा तपस्विनी। गतिस्तयोरेष जनस्तमर्दयन्नहो विधे त्वां करुणा रुणद्धि नो॥ 
(मैं अपनी माँ की एकमात्र संतान हूँ। मेरी माँ वृद्धावस्था से आकुल है। मेरी हंसिनी ने अभी-अभी चूजे जन्मे हैं। इन दोनों का मैं ही अकेला सहारा हूँ। हे विधाता, ऐसे मुझको मारते हुए क्या तुम्हें करुणा रोक नहीं रही?)

Monday, July 1, 2013

भाषा-भास्कर

शीर्षक तो अनुप्रास-आकर्षण से बना, लेकिन बात सिर्फ दैनिक भास्कर और समाचार पत्र के भाषा की नहीं, लिपि और तथ्यों की भी है। समाचार पत्र में 'City भास्कर' होता है, इसमें एन. रघुरामन का 'मैनेजमेंट फंडा' नागरी लिपि में होता है। 'फनी गेम्‍स में मैंनेजमेंट के लेसन' भी नागरी शीर्षक के साथ पढ़ाए जाते हैं।
लेकिन नागरी में 'हकीकत कहतीं अमृता प्रीतम की कहानियां' पर रोमन लिपि में 'SAHITYA GOSHTHI' होती है।
हिन्दी-अंगरेजी और नागरी-रोमन का यह प्रयोग भाषा-लिपि का ताल-मेल है या घाल-मेल या सिर्फ प्रयोग या भविष्य का पथ-प्रदर्शन। ('भास्‍कर' 'चलती दुकान' तो है ही, इसलिए मानना पड़ेगा कि उसे लोगों की पसंद, ग्राहक की मांग और बाजार की समझ बेहतर है।)

बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्‍कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्‍तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्‍तविक तथ्‍य और उनकी दो कहानियों में आए छत्‍तीसगढ़ के स्‍थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्‍यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्‍तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्‍पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्‍तीसगढ़ के रिश्‍ते के लिए।
पहले समाचार पत्रों में यदा-कदा भूल-सुधार छपता था, अब खबरों को ऐसी भूल की ओर ध्‍यान दिलाया जाना भी कठिन होता है, फोन पर संबंधित का मिलना मुश्किल और मिले तो नाम-परिचय पूछा जाता है, धमकी के अंदाज में। एक संपादक जी कहते थे, ''अखबारों की बात को इतनी गंभीरता से क्‍यों लेते हो, अखबार की जिंदगी 24 घंटे की और अब तो तुम तक पहुंचने के पहले ही आउटडेट भी'' क्‍या करें, बचपन से आदत है समाचार पत्रों को 'गजट' कहने की, और मानते जो हैं कि गजट हो गया, उसमें 'छापी हो गया' तो वही सही होगा, गलती कहीं हमारी ही न हो, लेकिन यह भी कैसे मान लें। पूर्व संपादक महोदय की बात में ही दम है शायद।

पुनश्‍चः 3 जुलाई 2013 के अखबार की कतरन
शीर्षक की भाषा और 'PREE' हिज्‍जे (स्‍पेलिंग) 
ध्‍यान देने योग्‍य है.

Thursday, May 9, 2013

लघु रामकाव्‍य

''रामकथा की ऐसी पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है जिसमें 32 पंक्तियों में रामायण के समस्त सर्गों को छंदबद्ध किया गया है। रामकथा पर उपलब्ध यह सबसे लघुकाय कृति है। यह रचना खैरागढ़, सिंगारपुर ग्राम में अगहन सुदी 07 संवत 1945 को जन्मे भक्त कवि गजराज बाबू विरचित है, जो पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शीजी के सहपाठी थे।'' यह जानकारी दैनिक नवभारत समाचार पत्र में 28 जनवरी 1981 को प्रकाशित हुई थी, जिसमें उल्लेख था कि डॉ. बृजभूषण सिंह आदर्श को यह कृति मिली है। मुझे इसकी प्रति राम पटवा जी के माध्‍यम से (वाया डॉ. जे.एस.बी. नायडू) मिली, जिसके दूसरे पेज पर लंका कांड की चौपाई व अन्‍य कुछ हिस्‍सा क्षत, इस प्रकार है-
श्री गणेशाय नमः
अथ रामायणाष्टक प्रारंभः
चौपया छंद
शंकर मन रंजन, दुष्ट निकंदन, सुन्दर श्याम शरीरा।
सुर गण सुखदायक, खल गण घाय(ल)क, गुण नायक रघुबीरा॥
मुनि चित रोचक, सब दुःख मोचक, सुखधामा रणधीरा।
बिनवै गजराजा, हे रघुराजा, राखहु निज पद तीरा॥१॥
जन्मे रघुनाथा, शक्तिन साथा, दशरथ नृप गृह आई।
करिमख रखवारी, खलगण मा(री) ताड़कादि दुखदाई॥
तारी रिषि नारी, भंजि धुन भारी, व्याह्यो सिय जग माई।
विनवै गजराजा, सिय रघुराजा, देहु परम पद साईं॥२॥ (इति बालकांड)
कुबरी मति मानी, दशरथ रानी, दियो राम बन राजा।
सीता रघुराई, सह अहिराई, गये बनहि सुर काजा॥
त्यागा नृप प्राना, भरत सुजाना, गये निकट रघुराजा।
समुझाय खरारी, अवध बिहारी, सह पांवरिं गजराजा॥३॥ (इति अयोध्या कांड)
तजि जयन्त नैना, सुखमा ऐना, पंचवटी पुनि धारी।
खर भगनी, आई, नाक कटाई, मारयो खर दनुजारी॥(मारे खर भुवि भारी)
कंचन मृगमारी, अवध बिहारी, खोयो जनक दुलारी।
भाखत गजराजा, पुनि रघुराजा, गीध अरु शबरी तारी॥४॥ (इति आरण्यकांड)
सुग्रीव मिताई, करि रघुराई, हते बालि कपि भारी।
हनुमत चित दीन्हा, लै प्रभु चीन्हा, खोजन जनक दुलारी॥
नारी तपधारी, सिय सुधि सारी, कही वास बन चारी।
खोजत गजराजा, तट नदराजा, आये वानर सारी॥५॥ (इति कृषकिंधा कांड)
सुरसा मद भाना, कपि हनुमाना, आयो सागर पारा।
लखि रमा दुखारी, गिरिवर धारी, धरि लघुरूप निहारा॥
सब बाग उजारी, अच्छहि मारी, कियो लंकपुर छारा।
तरि निधि बारी, सह कपि सारी, वन गजराज सिधारा॥६॥ (इति सुन्दरकांड)
.............................................
..........................................-धारी।
मुर्छित अहिराया, हनुमत लाया, द्रोणाचल ...
लखन मुरारी, रिपु हति अवध सिधारी ॥७॥ (इति लंका कांड)
सिय हरि अहिनाथा, सब कपि साथा, पहुंचे अवध मुरारी।
मिलि भरत सुजाना, राम सयाना, मिले सकल महतारी॥
राजे रघुराया, मंगल छाया, टारि सब दुख भारी।
विनवै गजराजा, वसु रघुराजा प्रियसः जनक दुलारी॥८॥ (इति उत्तर कांड)
 नृप दशरथ लाला, मख रखवाला, शिव धनुभंजन हारी।
पितु आज्ञा धारी, बनहि सिधारी, खरदूषण दनु जारी॥
शबरी गिध तारी, रावण मारि, पुर गजराज निहारी।
यह अष्टक गावे, प्रभु पद पावे, कटैं पाप कलि भारी॥

''इति गजराजकृत रामायणाष्टक सम्पूर्णम्‌॥

कुछ अन्‍य भी मिले, जिनमें श्री परमहंस स्वामी ब्रह्मानंद विरचित श्रीरामाष्टकम् का पहला श्लोक है-
कृतार्तदेववन्दनं दिनेशवंशनन्दनम्‌। सुशोभिभालचन्दनं नमामि राममीश्वरम्‌॥
और आठवां श्लोक है-
हृताखिलाचलाभरं स्वधामनीतनागरम्‌। जगत्तमोदिवाकरं नमामि राममीश्वरम्‌॥

इसी प्रकार श्रीव्यास रचित श्रीरामाष्टकम्‌ का पहला श्लोक है-
भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम्‌। स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव राममद्वयम्‌॥
और आठवां श्लोक है-
शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम्‌। विराजमानदेशिकं भजे ह राममद्वयम्‌॥

एक रामायणाष्टकम्‌, स्तुतिमंडलसंकलन से, जिसके कवि के रूप में अनिमेष नाम मिला, इस प्रकार आरंभ होता है-
रामं संसृतिधामं सर्वदनिष्कामं जगदारामं क्षीरे पंकजमालाशोभितश्रीधामं भुवनारामम्‌। मायाक्रीडनलोकालोकतमालोकस्वननारम्भं वन्देऽहं भुजगे तल्पं भुवनस्तम्भं जगदारम्भम्‌॥
और अंतिम पंक्ति है-
वन्देऽहं श्रुतिवेद्यं वेदितवेदान्तं हरिरामाख्‍यम्‌॥

अब आएं एकश्लोकि रामायणम्‌ पर-
आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं, वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम्‌।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं, पश्चाद्रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम्‌॥

एक छत्‍तीसगढ़ी बुजुर्ग ने शायद किसी मालवी की पंक्तियां सुन कर, अपने ढंग से रामायण याद रखा था, सुनाया-
एक राम थो, एक रावन्नो।
बा ने बा को तिरिया हरी, बा ने बा को नास करो।
इतनी सी बात का बातन्नो, तुलसी ने कर दी पोथन्नो।

भदेस सी लगने वाली इन पंक्तियों का भाव राममय तो है ही।

Thursday, January 10, 2013

अनूठा छत्तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल, वर्तमान छत्तीसगढ़ एवं उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक सभ्यता के रोचक पाषाण-खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल में यानि तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास- कन्दरा की भित्ति पर रंग ड़ूबी कूंची फेर कर, अपने कला-रुझान का प्रमाण दर्ज किया। मानव-संस्कृति की निरंतर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर एवं प्रतिमा, सिक्के, अभिलेख आदि में व्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों की महत्वाकांक्षा व कलाप्रियता से इस क्षेत्र में सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ और छत्तीसगढ़ का धरोहर सम्पन्न क्षेत्र, पुरातात्विक महत्व के विशिष्ट केन्द्र के रूप में जाना गया।

खोज और अध्ययन के विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप यह क्षेत्र, पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शैलाश्रयवासी आदि-मानव के प्रमाण, रायगढ़ के सिंघनपुर व कबरा पहाड़ और कोरिया के घोड़सार और कोहबउर में ज्ञात हैं। ऐसे ही प्रमाण राजनांदगांव, बस्तर और रायगढ़ अंचल के अन्य स्थलों में भी हैं। लौहयुग के अवशेषों की दृष्टि से धमतरी-बालोद मार्ग के विभिन्न स्थल यथा- धनोरा, सोरर, मुजगहन, करकाभाट, करहीभदर, चिरचारी और धमतरी जिले के ही लीलर, अरोद आदि में सैकड़ों की संख्‍या में महापाषाणीय स्मारक- शवाधान हैं।

इतिहास-पूर्व युग को इतिहास से सम्बद्ध करने वाली कड़ी के रूप में इस अंचल के परिखायुक्त मिट्‌टी के गढ़ों का विशेष महत्व है। ऐसी विलक्षण संरचना वाले विभिन्‍न आकार-प्रकार के गढ़ों को महाजनपदीय काल के पूर्व का माना गया है। जांजगीर-चांपा जिले में ही ऐसे गढ़ों की गिनती छत्तीस पार कर जाती है, इनमें मल्हार का गढ़ सर्वाधिक महत्व का है। इन गढ़ों के विस्तृत अध्ययन से इनका वास्तविक महत्व उजागर होगा, किन्तु प्रदेश की पुरातात्विक विशिष्टता में मिट्‌टी के गढ़ों का स्थान निसंदेह महत्वपूर्ण है।

प्रदेश की विशिष्ट पुरातात्विक उपलब्धियों में नन्द-मौर्य के पूर्व काल से संबंधित आहत-मुद्राएं बड़ी संख्‍या में तारापुर और ठठारी से प्राप्त हैं। मौर्य व उनके परवर्ती काल का महत्वपूर्ण स्थान सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी पर निर्मित शिलोत्खात, अभिलिखित गुफा है, जो सुतनुका देवदासी और उसके प्रेमी देवदीन नामक रूपदक्ष के अभिलेख सहित, प्राचीनतम रंगमंडप के रूप में प्रतिष्ठित है। सातवाहनकालीन इतिहास साक्ष्यों में जांजगीर-चांपा जिले का किरारी काष्ठ-स्तंभलेख इस अंचल की विशिष्ट उपलब्धि है, जो काष्ठ पर उत्कीर्ण प्राचीनतम अभिलेख माना गया है। लगभग इसी काल के दो अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखों में मल्हार की प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, जिस पर प्रतिमा निर्माण हेतु दान का उल्लेख उत्कीर्ण है तथा अन्य अभिलेख, सक्ती के निकट ऋषभतीर्थ-गुंजी के चट्‌टान-लेख जिसमें सहस्र गौ दानों के विवरण सहित, कुमारवरदत्तश्री नामोल्लेख है। इसी काल के स्थानीय मघवंशी शासकों के सिक्के और रोमन सिक्कों की प्राप्ति उल्लेखनीय है।

गुप्त शासकों के समकालीन छत्तीसगढ़ में शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डु वंश की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें राजर्षितुल्य कुल का एकमात्र ताम्रपत्र आरंग से प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात्‌ का काल क्षेत्रीय राजवंश- शरभपुरीय अथवा अमरार्यकुल से सम्बद्ध है। इस काल- लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के ताला के दो शिव मंदिर तथा रूद्र शिव की प्रतिमा तत्कालीन शिल्‍प के अनूठे उदाहरण हैं। इसी राजवंश के प्रसन्नमात्र व अन्‍य शासक के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्के तकनीक की दृष्टि से अद्वितीय हैं, नल शासकों के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्‍के बस्‍तर से मिले हैं। इस कालखंड में राजिम में उपलब्ध शिल्प तथा सिसदेवरी, गिधपुरी, रमईपाट के अवशेष भी उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार बस्तर के गढ़ धनोरा के मंदिर, मूर्तियां और भोंगापाल का बौद्ध चैत्य, भारतीय कला की महत्वपूर्ण कड़ियां हैं।

इसके पश्चात्‌ के सोम-पाण्डुवंशी शासकों के काल में तो मानों छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग घटित हुआ है। ईंटों के मंदिरों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, ईंटों के प्राचीन मंदिरों में भारतीय स्थापत्य का सर्वाधिक कलात्मक व सुरक्षित नमूना है। साथ ही पलारी, धोबनी, खरौद के ईंटों के मंदिर तारकानुकृति स्थापत्य योजना वाले, विशिष्ट कोसली शैली के हैं। इसी वंश के महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों के नौ सेट की निधि, एक ही शासक की अब तक प्राप्त विशालतम ताम्रलेख निधि है साथ ही तत्कालीन मूर्तिकला का शास्त्रीय और कलात्मक प्रतिमान दर्शनीय है। सरगुजा के डीपाडीह और महेशपुर तो जैसे प्राचीन मंदिरों के नगर हैं।

दसवीं से अठारहवीं सदी ईस्वी तक यह अंचल हैहयवंशी कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की विभिन्न गतिविधियों-प्रमाणों से सम्पन्न है। विश्व इतिहास में यह राजवंश सर्वाधिक अवधि तक अबाध शासन का एक उदाहरण है। कलचुरि राजाओं के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मंदिर व प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। संभवतः देश का अन्य कोई क्षेत्र अभिलेख व सिक्कों की विविधता और संख्‍या की दृष्टि से प्राप्तियों में इस क्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकता।

पुरातात्विक स्थलों की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्राम सिरपुर प्राचीन राजधानी के वैभव प्रमाणयुक्त है ही, मल्हार का भी विशिष्ट स्थान है। इस स्थल के राजनैतिक-प्रशासनिक मुख्‍यालय होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, किंतु मल्हार व संलग्न ग्रामों- बूढ़ीखार, जैतपुर, नेवारी, चकरबेढ़ा, बेटरी आदि विस्तृत क्षेत्र में लगभग सातवीं-आठवीं ईस्वी पूर्व से आरंभ होकर विविध पुरावशेष- आवासीय व स्थापत्य संरचना, अभिलेख, सिक्के, मनके, मृणमूर्तियां, मिट्‌टी के ठीकरे, मंदिर, मूर्तियां, मुद्रांक जैसी सामग्री निरंतर कालक्रम में प्राप्त हुए हैं।

इस प्रकार अभिलेख, सिक्कों का वैविध्यपूर्ण प्रचुर भण्डार, प्राचीनतम रंगशाला, प्राचीनतम काष्ठ स्तंभलेख, प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, उभारदार सिक्के, ताला आदि स्थलों के मंदिरों का अद्वितीय स्थापत्य, मूर्तिशिल्प और पुरातात्विक स्थलों की संख्‍या और विशिष्टता आदि के कारण देश के पुरातत्व में छत्तीसगढ़ का स्थान गौरवशाली और महत्वपूर्ण है।

Monday, January 7, 2013

कलचुरि स्थापत्य: पत्र

बात रतनपुर के तीन शिल्पखंडों से आरंभ करने में आसानी होगी, जो एक परवर्ती मंदिर (लगभग 15वीं सदी ई.) में लगा दिये गये थे। इस मंदिर 'कंठी देउल' का अस्तित्व वर्तमान में बदला हुआ है, क्योंकि यह एएसआइ द्वारा अन्य स्थान पर पुनर्संरचना की प्रक्रिया में है, इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है। दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्‌मा, विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं। ये तीनों शिल्पखंड लगभग 9 वीं सदी ई. में रखे जा सकते हैं।
कंठी देउल, रतनपुर
रतनपुर शाखा के कलचुरियों की कला देखने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में आठवीं सदी ई. तक के पाण्‍डु-सोमवंश की कला परम्परा है। नवीं सदी ई. की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध नहीं है, दसवीं सदी ई. के कुछ उदाहरण मिलते हैं, फिर ग्यारहवीं सदी के कलचुरि स्थापत्य-कला का भंडार इस क्षेत्र (छत्तीसगढ़ या दक्षिण कोसल) में है, वैसे इस शैली की अधिकांश सामग्री को बारहवीं सदी में रखना अधिक उपयुक्त है, कुछ उदाहरण तेरहवीं सदी के भी हैं, जो अवसान काल के माने जा सकते हैं। इस तरह कलचुरि कला शैली का आरंभ ग्यारहवीं सदी का है, विकास-समृद्धि बारहवीं सदी की और ह्रास तेरहवीं सदी में। इन काल खण्डों की अलग-अलग चर्चा उदाहरण सहित करने से यह स्पष्ट हो सकेगा।

चर्चा का पहला खंड ऐसी कलाकृतियां हैं, जिनमें पाण्‍डु-सोमवंशी शैली की स्पष्ट छाप देशी-पहचानी जा सकती है और जिनका काल नवीं सदी ई. निश्चित किया जा सकता है, इनमें रतनपुर के उपरिलिखित तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार हैं।

दूसरा खंड दसवीं सदी (विशेषकर उत्तरार्द्ध) से संबंधित है, जिसमें पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा दूसरा उदाहरण घटियारी का शिव मंदिर की मलबा-सफाई से प्राप्त प्रतिमाएं है। घटियारी का मंदिर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी राजवंश (फणिनाग?) से संबंधित नहीं किया जा सकता।

तीसरे खंड ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है, जिनका आरंभ तुमान से होता है, तुमान मंदिर का काल ग्यारहवीं सदी है। बारहवीं सदी के ढेर सारे उदाहरण हैं, जिनमें जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल (जैन मंदिर, भूमिज शैली), गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं।

चौथे खंड में तेरहवीं सदी के मंदिर हैं, जिनमें सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है।

तीसरे खंड के मंदिरों की कुछ विशिष्टताओं की थोड़ी और चर्चा यहां होनी चाहिये। अनियमित ढंग से शुरू करने पर तुमान का मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है। गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, (दोनों में अब जगती ही शेष है, मंडप का अनुमान मात्र संभव है) अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है। इस विशिष्टता के फलस्वरूप मल्हार का गर्भगृह निम्नतलीय है, किन्तु तुमान में ऐसा नहीं है (यहां अमरकंटक के पातालेश्वर का उल्लेख हो सकता है।) तुमान के द्वार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है, इस शिव मंदिर के द्वार शाख में दोनों ओर क्रमशः 5-5 कर विष्णु के दसों अवतार अंकित है। समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी विद्यमान है। (पाली, नारायणपुर और नारायणपाल मंदिरों में मंडप है।)

द्वारशाखों का सम्मुख और पार्श्व की चर्चा भी करनी चाहिये, रतनपुर किला में अवशिष्ट (या अन्य किसी स्थान से लाये गये) मात्र प्रवेश द्वार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन पुरानी रीति की स्मृति के कारण हुआ जान पड़ता है, इसलिये इसका काल निश्चित तौर पर नवीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाना उपयुक्त नहीं है यह और परवर्ती हो सकता है। शाख सामान्यतः विकसित नवशाख हैं, जिनमें दोनों ओर समान आकार की तीन-तीन आकृतियां (दो-दो प्रतिहारी व एक-एक नदी-देवियां) हैं और जिनका आकार लगभग पूरी ऊंचाई से दो-तिहाई या अधिक है। यह इन मंदिरों की सामान्य विशेषता बताई जा सकती है। शाखों के वाह्य पार्श्व तथा अंतःपार्श्व (द्वार में प्रवेश करते हुए दोनों बगल) के कुछ उल्लेख आवश्यक हैं।

रतनपुर किला के अवशिष्ट प्रवेश द्वार के वाह्य पार्श्व में कथानकों ('रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि) का अंकन है। रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के द्वारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं। जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्द्धस्तंभों का है (नारायणपुर में भी), जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के दूसरे मंदिर, शिव मंदिर में इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर कथानक व शिवपूजा के दृश्य भी हैं।

गनियारी के मंदिर के इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण है। प्रवेश द्वार के अंतःपार्श्व अधिकांश सादे हैं, किन्तु गनियारी में सोमवंशी स्मृति है, अर्थात इस स्थान पर सोमवंशियों में एक पूर्ण व दो अर्द्ध उत्फुल्ल पद्य अंकन हुआ है, गनियारी में पांच-छः पूर्ण उत्फुल्ल पद्य आकृतियां इस स्थान पर अंकित हैं, अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में है, इनमें द्वारशाख का अंतःपार्श्व सम्मुख से अधिक महत्वपूर्ण है, इसीका अनुकरण मल्हार के केदारेश्वर तथा शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर में है। यहां द्वारशाख सम्मुख तो परम्परागत हैं किन्तु अंतःपार्श्वों में देवप्रतिमाएं अंकित हैं, मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है। (अंतःपार्श्वों तथा द्वारशाख पर विष्णु स्वरूप नारायणपुर में भी है।)

अलग-अलग मंदिरों व स्थलों की चर्चा करें तो किरारीगोढ़ी का खंडित मंदिर स्थापत्य में रथ-योजना प्रक्षेपों की कलचुरि तकनीक देखने के लिये महत्वपूर्ण है, यहां मंडप के चबूतरे से मिले स्थापत्य खंड में 'व्याल, नायिका व देव प्रतिमा' ऐसे समूह वाले कई खंड हैं, जिनसे मंडप की प्रतिमा योजना व अलंकरण का अनुमान होता है, ऐसे ही खंड घुटकू में प्राप्त हुए हैं, बीरतराई के कुछ खंड भी मंडप के अंश जान पड़ते हैं, कनकी से कई द्वारशाख मिले हैं, जो स्थल पर ही नये निर्मित मंदिरों में लगाये गये हैं, भाटीकुड़ा के अवशेष-सिरदल आदि रोचक और महत्वपूर्ण हैं।

श्री मधुसूदन ए. ढाकी को  07.12.1989 को मेरे द्वारा (अन्‍तर्देशीय पर) प्रेषित पत्र का मजमून, इसी पत्र के आधार पर (अन्‍य कोई औपचारिक आवेदन के बिना) मुझे अमेरिकन इंस्‍टीट्यूट आफ इंडियन स्‍टडीज की फेलोशिप मिली थी। (पद्मभूषण) ढाकी जी से जुड़ी कुछ और बातें आगे कभी।

Sunday, December 30, 2012

छत्तीसगढ़ वास्तु - II

छत्तीसगढ़ में वास्तु कला का स्पष्ट और नियमित इतिहास भव्य कलात्मक देवालयों में झलकता है। पांचवीं-छठी सदी ईस्वी से आरंभ होने वाले इस क्रम की रचनात्मक गतिविधियां क्षेत्रीय विभिन्न राजवंशों से जुड़ी हुई हैं। आरंभिक क्रम में नल, शरभपुरीय और सोम-पाण्डु कुल हैं। राजनैतिक इतिहास के इसी कालक्रम में छत्तीसगढ़ अंचल में वास्तु प्रयोगों का स्वर्णिम युग घटित हुआ है। पत्थर और ईंटों पर ऐसी बारीक-सघन पच्चीकारी उकेरी गई है, उनका ऐसा सुसंहत संयोजन हुआ है कि देखते ही बनता है। वास्तुशास्त्र के निर्देश और प्रतिमा विज्ञान का मूर्तन, धार्मिकता से ओत-प्रोत है तो उसमें स्थापत्य विज्ञान और तकनीक का चमत्कार भी है और इसका संतुलित स्वरूप-आकार ही पूरी दुनिया को आकृष्ट करता है, हमें सिरमौर स्थापित कर देता है।

राजिम के रामचन्द्र मंदिर में प्रयुक्त स्थापत्य खंड और राजीव लोचन मंदिर, छत्तीसगढ़ के आरंभिक वास्तु की झलक युक्त हैं, जो नलवंशी/शरभपुरीय वास्तुकला से संबंधित माने जाते हैं। नल वंश की कला पर भौगोलिक और राजनैतिक कारणों से वाकाटक सम्पर्कों का प्रभाव रहा है। इसी वंश की अन्य स्थापत्य गतिविधियों में बस्तर के गढ़ धनोरा के वैष्णव और शैव मंदिर तथा भोंगापाल के मंदिर और बौद्ध चैत्य हैं। बस्तर तथा उससे संलग्न विशेषकर महाराष्ट्र की सीमा में तथा उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमाओं पर भी नल वास्तु के अन्य केन्द्र उद्‌घाटित हो सकते हैं।

शरभपुरीय शासकों के काल की रचनाओं के कुछ अवशेष उड़ीसा की सीमा और रायपुर क्षेत्र से ज्ञात हुए हैं किन्तु इनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र ताला स्थित लगभग छठी सदी ईस्वी के दो मंदिर हैं। मंदिर वास्तु के अपेक्षाकृत सुरक्षित अवशेषों में क्षेत्रीय इतिहास के ये प्राचीनतम उदाहरण हैं। जिठानी और देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अधिक सुरक्षित व पूर्वज्ञात है, जबकि जिठानी मंदिर की संरचना कुछ वर्षों पूर्व राज्य शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा कराये गए कार्यों से स्पष्ट हुई और इसी दौरान देवरानी मंदिर के प्रांगण से प्रसिद्ध, बहुचर्चित रूद्रशिव की प्रतिमा प्राप्त हुई, जो अब विश्व विख्‍यात है, लेकिन वास्तु शास्त्र के अध्येताओं के लिए आज भी ताला के मंदिर प्रबल जिज्ञासा और आकर्षण के केन्द्र हैं। डोनाल्ड स्टेड्‌नर, जोना विलियम्स, माइकल माएस्टर जैसे विदेशी अध्येताओं के अतिरिक्त देश के प्राचीन वास्तु के शीर्ष अधिकारी ज्ञाताओं डाक्टर प्रमोदचंद्र, कृष्णदेव और एम.ए. ढाकी ने ताला की वास्तु कला को देखा-परखा और सराहा है। डा. के.के. चक्रवर्ती के शोध का प्रमुख हिस्सा ताला पर केन्द्रित है, जिसमें स्थल की वास्तु कला का सांगोपांग अध्ययन किया गया है।

शिखरविहीन देवरानी मंदिर विस्तृत जगती पर निर्मित है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। सुदीर्घ वास्तु कला परम्परा से विकसित उच्च प्रतिमान, पूरी संरचना को भव्य आकर्षक बना देता है। दक्षिणाभिमुख विलक्षण जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। इस मंदिर का तल विन्यास असमान सतह वाला और स्तंभों से कोष्ठकों में विभक्त है, निश्चय ही ऐसी संरचनाएं स्थानीय शास्त्रीय वास्तु ग्रंथों के निर्देशों का परिणाम हैं। दोनों मंदिर मूलतः विशाल पाषाण खंडों से निर्मित हैं, किंतु संभवतः परवर्ती परिवर्धन में ईंटों का प्रयोग किया गया है। देवरानी मंदिर का पूरा चबूतरा, मूल संरचना के निचले हिस्से को ढंकते हुए ईंट निर्मित कोष्ठकों को पूर कर बनाया गया है।

इसके पश्चात्‌ पाण्डु-सोमवंशी स्थापत्य उदाहरणों की भरमार छत्तीसगढ़ में है, जिनमें मल्हार के देउर मंदिर के अतिरिक्त सभी महत्वपूर्ण सुरक्षित संरचनाएं ईंटों से निर्मित हैं। इस क्रम का आरंभिक चरण सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर है, जो हर्षगुप्त की विधवा महारानी वासटा द्वारा बनवाया गया है। लगभग सातवीं सदी का यह मंदिर, ईंटों पर मूर्त, छत्तीसगढ़ के वास्तु सौन्दर्य का अग्रगण्य उदाहरण है। बारीक नक्काशी, चैत्य गवाक्ष अलंकरण, कीर्तिमुख आदि मंगल लक्षणों के साथ तीनों दिशाओं में उकेरे गए कूट गवाक्ष सिद्धहस्त कारीगरों की प्रतिभा के प्रमाण हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार, पाषाण निर्मित है और सामने का भाग स्तंभों पर आधारित मण्डप था, जो मंदिर संरक्षण के पूर्व ही मलबे का ढेर बन चुका था।

मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर महत्वपूर्ण और विशाल है, जिसके वास्तु विन्यास में ताला के स्थापत्य की स्मृति सुरक्षित जान पड़ती है। यहां गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप तथा अर्द्धमण्डप की भित्तियां कुछ ऊंचाई तक सुरक्षित हैं, लेकिन मंदिर शिखर विहीन है। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। मंदिर की वाह्य भित्तियों में आरंभिक दक्षिण भारतीय वास्तु शैली का प्रभाव झलकता है। इसके पश्चात्‌ खरौद, पलारी, धोबनी, सिरपुर आदि स्थानों पर विशेष प्रकार के तारकानुकृति योजना पर ईंटों से निर्मित मंदिर हैं। खरौद का लक्ष्मणेश्वर मंदिर पुनर्संरचित है। इन्दल देउल ऊंची जगती पर पश्चिमाभिमुख निर्मित है और सौंराई या शबरी मंदिर मंडप युक्त है। पलारी का मंदिर अत्यंत सुरक्षित स्थिति में नयनाभिराम रूप में है और धोबनी के मंदिर का अग्रभाग क्षतिग्रस्त है। इसी प्रकार सिरपुर का राम मंदिर व कुछ अन्य अवशेष तारकानुकृति ईंट निर्मित संरचनाएं हैं। सिरपुर उत्खनन से उद्‌घाटित आनंदप्रभकुटी विहार और स्वस्तिक विहार साम्प्रदायिक समन्वय और सहजीवन की तत्कालीन भावना को तो उजागर करते ही हैं, छत्तीसगढ़ में मंदिर-इतर वास्तु प्रयोगों के भी उदाहरण हैं। अड़भार के ध्वस्त मंदिर की भू-योजना व अवशेष ही प्राप्त हैं, किन्तु यहां अष्टकोणीय योजना व दोहरा प्रवेश द्वार, क्षेत्रीय वास्तु विशिष्टता को रेखांकित करता है।

रायगढ़ के देउरकोना और पुजारीपाली में तथा सरगुजा अंचल के मुख्‍यतः डीपाडीह, बेलसर, सतमहला, भदवाही आदि स्थानों में भी तत्कालीन स्थापत्य उदाहरण मंदिर व मठ प्रकाश में आए हैं। देउरकोना का मंदिर पाषाण निर्मित है, किन्तु इसका दृश्य प्रभाव ईंटों की संरचना जैसा है। इस मंदिर में कालगत सभी विशेषताओं का दिग्दर्शन होता है। पुजारीपाली के अधिकांश अवशेष काल प्रभाव से नष्टप्राय हैं, किन्तु यहां भी तत्कालीन वास्तु शैली में ईंटों की संरचनाओं के प्रमाण सुरक्षित हैं। डीपाडीह में अधिकांश मंदिर परवर्तीकालीन हैं, किन्तु समकालीन स्मारकों में उरांव टोला का शिव मंदिर महत्वपूर्ण है। यह मंदिर भी विशिष्ट कोसलीय शैली का तारकानुकृति योजना पर निर्मित मंदिर है, जिसके समक्ष विशाल मण्डप के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। बेलसर का मुख्‍य मंदिर, देवटिकरा के देवगढ़ का मंदिर समूह व छेरका देउल, भदवाही स्थित सतमहला के मंदिरों में तत्कालीन ईंट-पाषाण मिश्रित प्रयोग, तारकानुकृति योजना और वास्तु कला साधना की पुष्ट परम्परा के दर्शन होते हैं।

इसके पश्चात्‌ का कालखंड लगभग ग्यारहवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी का है। इस काल में रायपुर-बिलासपुर में प्रमुखतः कलचुरि, दुर्ग-राजनांदगांव में फणिनाग, बस्तर में छिन्दक नाग, कांकेर के परवर्ती सोमवंश और रायगढ़ अंचल में कलचुरि-कलिंग सोम मिश्रित राजवंशों की वास्तु गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विस्तृत क्षेत्र रत्नपुर के कलचुरियों के अधीन रहा। कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की वास्तु कला का प्रभाव शहडोल जिले के सीमावर्ती और अन्दरूनी हिस्सों के कुछ स्थलों तक दृष्टिगोचर होता है।

रत्नपुर कलचुरि शाखा का आरंभिक सुरक्षित उदाहरण तुमान से ज्ञात हुआ है। मूलतः तुम्माण संज्ञा वाला यह स्थल, रत्नपुर कलचुरियों की आरंभिक राजधानी भी था। यहां मुख्‍य मंदिर पश्चिमाभिमुख तथा शिव को समर्पित है। भू सतह पर आधारित संरचना-मूल से उन्नत विशाल मण्डप संलग्न है। खुले मण्डप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीन दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार शाखों पर विष्णु के दशावतारों का अंकन रोचक और विशिष्ट है।

पाली का पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना प्रवेश के सिरदल पर अभिलिखित है। जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का कलचुरि शैली में पुनरुद्धार हुआ। जांजगीर का शिखर विहीन विष्णु मंदिर विशाल व ऊंची जगती पर निर्मित है। मंदिर की अवशिष्ट मूल जगती पर आदमकद प्रतिमाएं व शास्त्रीय मान की अलंकरण योजना अनूठी और अपने प्रकार का एकमात्र उदाहरण है। इस चतुरंग-सप्तरथ मंदिर का मंडप वर्तमान में नहीं है। उत्सेध में भिट्‌ट, पीठ, जंघा, वरंडिका और शिखर मूल और शिखर शीर्ष का निचला भाग ही अवशिष्ट है। यह मंदिर कलचुरि वास्तु कला का सर्वाधिक विकसित और उन्नत उदाहरण है।

महानदी के दाहिने तट पर स्थित नारायणपुर के दो मंदिरों में जांजगीर के आस-पास स्थित विष्‍णु मंदिर और शिव मंदिर की साम्‍यता है। पूर्वाभिमुख मुख्‍य मंदिर विष्‍णु का है, किन्‍तु इसके गर्भगृह में मूल प्रतिमा नहीं है। प्रवेश द्वार पर शिवरीनारायण के केशवनारायण मंदिर की भांति विष्‍णु के 24 स्‍वरूप हैं। ऐसा अंकन जांजगीर के विष्‍णु मंदिर की वाह्य भित्ति पर है। इस मंदिर की जंघा पर पश्चिम में नृसिंह व बुद्ध, उत्‍तर में वामन व कल्कि तथा दक्षिण में वराह व बलराम प्रतिमा है। साथ ही कृष्‍ण लीला के पूतना वध और धेनुकासुर वध के अतिरिक्‍त मिथुन प्रतिमाएं भी हैं। इसके साथ की संरचना जांजगीर के शिव मंदिर तुल्‍य छोटी व सादी, पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर है, जिसके प्रवेश द्वार पर द्वादश आदित्‍य का अभिकल्‍प है।

मल्हार का स्थानीय प्रचलित पातालेश्वर नामक मंदिर, यहां प्राप्त अभिलेख के आधार पर बारहवीं सदी ईस्वी का केदारेश्वर मंदिर, पश्चिमाभिमुख तथा निम्नतलीय गर्भगृह वाला है, किन्तु मंडप की योजना तुमान के सदृश्य है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। आरंग का भाण्ड देउल जगती पर निर्मित भूमिज शैली का, तारकानुकृति योजना वाला जैन मंदिर है।

सरगुजा के त्रिपुरी कलचुरि काल के वास्तु अवशेष मुख्‍यतः डीपाडीह और महेशपुर से प्राप्त हुए हैं, जिनमें मध्ययुग के आरंभिक चरण की पुष्टता और सफाई दिखाई देती है। बस्तर में छिंदक नागवंशियों का केन्द्र बारसूर रहा, जहां विशाल गणेश प्रतिमाएं एवं चन्द्रादित्य, मामा-भांजा, बत्तीसा, बारा खंभा मंदिर तथा पेदम्मा गुड़ी महत्वपूर्ण स्मारक हैं। इस वास्तु शैली में सेउण देश, परमार और काकतीय वास्तु का साम्य दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार नारायणपाल, ढोंडरेपाल और छिन्दगांव के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं, जबकि दन्तेवाड़ा, बस्तर गांव और गुमड़पाल के मंदिर स्पष्टतः द्रविड़ शैली के और काकतीयों से संबंधित माने जा सकते हैं।

कवर्धा के निकट भोरमदेव मंदिर स्पष्टतः भूमिज शैली का फणिनाग वंश से संबंधित अपने प्रकार का सर्वोत्कृष्ट नमूना है, यह परिसर और निकटस्थ क्षेत्र इस वंश के सुदीर्घकालीन गतिविधियों का केन्द्र रहा। ग्राम चौरा स्थित मड़वा महल और छेरकी महल तथा आसपास ही गण्डई, सिली-पचराही, बिरखा-घटियारी, देवरबिजा, धमधा और अन्य स्‍मारक-अवशेष देव बलौदा तक फैले हैं। कांकेर सोमवंश से संबंधित दुधावा बांध के डूब में आया देवखूंट शिव मंदिर, सिहावा का कर्णेश्वर मंदिर तथा रिसेवाड़ा और देवडोंगर के स्थापत्य अवशेष उल्लेखनीय प्रतिनिधि स्मारक हैं।

किरारी गोढ़ी, गनियारी, नगपुरा, शिवरीनारायण आदि स्थानों में भी समकालीन वास्तु कला के महत्वचूर्ण उदाहरण शेष हैं। कुटेसर नगोई, पंडरिया, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी आदि स्थानों में भी स्फुट अवशेष प्राप्त होते हैं। वास्तु कला के परवर्ती उदाहरण सरगांव, बेलपान, रतनपुर, चैतुरगढ़, डमरू, मदनपुर, चन्दखुरी, सहसपुर, आमदी-पलारी, खल्‍लारी आदि स्थलों के स्मारकों और अवशेषों में दृष्टिगोचर होता है। छत्तीसगढ़ में इस क्रम का परवर्ती चरण मराठाकाल में घटित हुआ, जिसके महत्वपूर्ण उदाहरण रतनपुर का कंठी देउल, रामटेकरी मंदिर और रायपुर का दूधाधारी मंदिर है।

छत्तीसगढ़ का विस्तृत उपजाऊ मैदानी क्षेत्र लगभग चारों ओर से पहाड़ियों, नदियों से घिरकर प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित देश का मध्यस्थ हिस्सा है, इसलिए विभिन्न राजवंशों का कालक्रम में स्थायित्व व निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव संचार लगातार बना रहा, इसलिए इस क्षेत्र में राष्ट्रीय धारा के मूल तत्वों का प्रतिबिम्ब तो दिखाई देता ही है, अपनी मौलिकता और विशिष्टता भी सुरक्षित रही है, यही प्रवृत्ति छत्तीसगढ़ के वास्तु कला के विकसित होते, विभिन्न चरणों में देखी जा सकती है और सामान्य धारा की अनुभव सम्पन्न विशेषताओं में क्षेत्रीय और स्थानीय विचारधारा के साथ प्रयोगों का रंग घोलकर, परिणाम में हमारे समक्ष वास्तु कला का भव्य और चमत्कारिक किन्तु आकर्षक और आत्मीय प्रमाण, आज भी विद्यमान है।

(तस्वीर, एक भी नहीं, यह सब तो यहां आ कर और मौके पर जा कर देखें.)

लगभग 15 वर्ष पहले लिए गए मेरे नोट्स पर आधारित लेख का उत्तरार्द्ध, जिसका पूर्वार्द्ध यहां है.