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Saturday, November 12, 2011

ईडियट के बहाने

भेद-भाव की अपनी समस्‍याएं हैं तो समानता के भी अलग संकट हैं, ऐसी किसी वजह से ''एक सिर बराबर एक मत (वोट)'', बीसवीं सदी का सबसे खतरनाक अविष्कार कहा गया होगा। 'थ्री ईडियट्‌स' फिल्म की प्रशंसा से अलग कुछ कहना शायद इसीलिए जल्दी संभव नहीं हुआ। उग्र प्रजातंत्र के माहौल में अपनी राय प्रकट करने के पहले कोई पक्ष बहुमत बन चुका हो तो सावधानी जरूरी है। लेकिन यहां राय, अल्पमत में रहकर विशेषाधिकार पा लेने या धारा के विरुद्ध खड़े होने जैसी क्रांतिकारिता के कारण नहीं है और यह वाद-विवाद प्रतियोगिता भी तो नहीं, जिसमें अपनी बात 'मैं इस सदन की राय के विपक्ष में कहने खड़ा हुआ हूं' इस जुमले की तरह रस्‍मी हो।

आप कभी-कभार और मुख्‍यतः अत्यधिक अनुशंसा के कारण फिल्में देखने जाते हों तो वापस आकर फिल्म की आलोचना का साहस जुटाना कठिन हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने पर आप अनुशंसकों के आलोचक बनते हैं फिर निर्माता-निर्देशक ने तो आपको आमंत्रित किया नहीं था, आपने खुद चलकर, समय लगाकर, खर्च कर फिल्म देखी इसलिए फिल्म देखने का अपना निर्णय ईडियॉटिक मानने के बजाय, दुमकटी लोमड़ी बनकर हां में हां मिलाना अधिक सुविधाजनक और समझदारी भरा जान पड़ता है।

यह फिल्म पसंद न आने में मैंने अपने संस्कार और रूढ़ मन को टटोलना शुरू किया। सत्तरादि दशक के आरंभ में हम माध्यमिक शाला की पढ़ाई आठवीं कक्षा पास कर लेते तो उच्चतर शाला की नवीं कक्षा में प्रवेश के लिए जाते, बिना ताम-झाम और तैयारी के। पढ़े-लिखे, जागरूक अभिभावकों को भी खबर नहीं होती थी। सब गुरुजी तय कर देते। साठ फीसदी तक अंक वाले छात्रों का नाम नवीं 'अ' में पचास तक 'ब' में और उसके नीचे 'स' में। अ का मतलब होता, गणित विषय, इन्जीनियर, ब का मतलब बायोलाजी (उच्चारण होता बैलाजी) यानि डाक्टर बनेगा और बचे-खुचों के लिए स, माना जाता कि आगे पढ़ना तो है ही सो स यानि कला की पढ़ाई और क्या बनेगा के सवाल पर जवाब होता- अफसर न हुआ तो काला कोट पहनेगा, तो कभी भूगोल की प्रायोगिक कक्षा की याद दिला कर कहा जाता जमीन की पैमाइश तो कर ही लेगा। इस अ, ब, स में परिवर्तन कभी-कभार ही होता।

नवीं 'ब' में भरती हुई लेकिन डॉक्टर बनने के लक्षण और योग्यता मेरे परीक्षा परिणामों में नहीं दिखी। अपनी क्षमताओं का 'तत्‍वज्ञान' मुझे तो काफी हद तक हो ही चला था, इससे एक तरफ परीक्षा प्रणाली पर मेरा विश्‍वास बना रह गया और दूसरी ओर स्नातक बनने के लिए बीएस-सी से बीए करने लगा। विषय चुनने की बात आई, तो इस बात पर दृढ़ रहा कि मेरी पढ़ाई का विषय भाषा-साहित्य या गणित नहीं होगा, क्‍योंकि ये दोनों विषय मुझे आरंभ से और अब भी उतने ही पसंद हैं। मुझे लगता, बल्कि दृढ़ मान्यता रही कि पढ़ाई के लिए विषय के रूप में इनका चयन कर लेने पर इनमें मेरी रुचि बनी नहीं रह पाएगी, इन विषयों की स्‍वाभाविक समझ और उनके प्रति मौलिक सोच बची न रह पाएगी, इन्‍हें प्रशिक्षित रूढ़ ढंग से देखना शुरू कर दूंगा और ये दोनों विषय तो यों भी पढ़ लूंगा फिर और कुछ क्यों न आजमाया जाए।

बाद में मेरी पढ़ाई और स्नातकोत्तर डिग्री प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व की हुई, बावजूद इसके कि विगत में रुचि होने पर भी इतिहास मेरे सख्‍त नापसंद का विषय था। विषय चयन करने की बात पर मैंने इतिहास के लिए अपनी अरुचि प्रकट की तो मुझसे इसका कारण पूछा गया। मैंने बताया कि तिथि-सन रटना न मुझे पसंद है न मुझसे हो सकता। तब बताया गया कि पुरातत्व ऐसा इतिहास है, जिसमें सन का रट्‌टा नहीं है। सदी से और कभी सदियों और सहस्राब्दी से भी काम चल जाता है फिर तो कुछ पता किए बिना यह चयन करने में कोई असमंजस नहीं रहा।

स्‍नातकोत्‍तर परीक्षा के प्रश्‍न-पत्रों के अंतराल में परीक्षा की पढ़ाई के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है', 'कुरु कुरु स्‍वाहा' और 'प्‍लेग' पढ़ा। इस परीक्षाफल में मुझे प्रथम स्‍थान और फलस्‍वरूप स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त हुआ। इस बार परीक्षा प्रणाली के प्रति विश्‍वास(?) बना कि मैं इस खेल के नियम कुछ-कुछ समझने लगा हूं, बस इतना ही और इसके बावजूद अव्‍वल आने की न चाहत बनी न आदत। वैसे भी अव्‍वल होते रहने के भाव के साथ कभी छल-छद्म का सहारा और सूक्ष्‍म हिंसा तो लगभग सदैव जुड़ी होती है।
अंततः संयोग यह भी बना कि निजी तौर पर अपरिग्रहवादी मैंने संग्रहालय विज्ञान में पत्रोपाधि ली। इस चाहे-अनचाहे अनिश्चित सिलसिले का सिला, शासकीय सेवा के अपने काम में पुरातत्व-इतिहास के साथ भ्रमण, दूरस्थ अंचलों में लंबी अवधि तक कैम्प, लोककला और संस्कृति से जुड़ाव का रुचि-अनुकूल अवसर मिलता रहा है।

थ्री ईडियट्‌स का नायक बीएड नहीं है, बाल मनोविज्ञानी भी नहीं, उद्यमी भी नहीं लेकिन स्कूल चला रहा है, व्यवसायी नहीं पर अविष्कार कर उसे पेटेंट करा रहा है। आइआइटीयन चेतन भगत युवा लेखक और विचारक हैं। दो-तीन आइआइटीयन को मैं जानता हूं, जिनमें से एक ने डिग्री पूरी कर सन्यास ले लिया, कोई रेडियो जॉकी बन गया या उनमें से कुछ और इसी तरह का भलता कुछ काम करने लगे और यों अपरिचित और काम के नए क्षेत्र में सफल भी हैं। देकार्त विधिस्नातक थे, सैनिक बने, गणित करने लगे और दार्शनिक के रूप में जाने गए। लियोनार्डो दा विंची, बैरिस्‍टर गांधी और आइसीएस बोस ... न जाने कितने उदाहरण हैं। पढ़ाई के विषय और रुचि में तादात्म्य, रोजगार-जीवन यापन की शुरुआत, बीच में बदलाव और कई बार उसके समानान्तर कार्य को रुचि के अनुकूल बना लेना या पसंद का काम, मुआफिक संभावना खोज लेना भी आवश्यक कौशल है।

'तारे जमीं पर' की याद करते चलें, जो मुझे कुछ बेहतर फिल्‍म लगी, बावजूद इसके कि डिस्लैक्सिया और बच्चों में छिपी नैसर्गिक प्रतिभा और उसके उजागर होने को गड्‌ड-मड्‌ड कर दिया गया है, मध्यान्तर तक नायक नहीं आता, लेकिन आता है तो फिर नायक, नायक ही है और ईशान भी अंततः फर्स्ट आता है, तभी जाकर फिल्म और शायद फिल्मकार की मुराद पूरी होती है।

थ्री ईडियट्‌स की कामेडी चर्चा में रही और पसंद की गई लेकिन यहां भी व्यापक मान्यता और स्वीकृति पा लेने के बाद इसे सहज आसानी से भोंडा की हद तक सुरुचिरहित कहना कठिन हो रहा है। फिल्म के हास्य की आलोचना की कठोरता कम करने के लिए यह कहा जा सकता है कि शालीनता और मर्यादा में हास्य की गुंजाइश कम होती है। अब तो 'दबंग' और 'डेल्ही बेली' भी हैं, जिसके भोंडेपन को जीवन और सामाजिक व्यवहार की स्वाभाविकता के तर्क में रंगा जा सकता है। इस फिल्म की कामेडी ऐसी है कि अपनी दिनचर्या में सभ्य नागरिक को इन बातों या स्थितियों का सामना करना पड़े तो वह असहज हो जाता है, लेकिन यहां...। सभ्य और नागरिक शब्द क्रमशः सभा और नगर से बने हैं और इसी तरह भदेस, गवांरु, देहाती शब्द देसी-गवंई से बने हैं लेकिन फूहड़ और अश्लील के लिए रूढ़ हो गए हैं। इसे संदर्भ के साथ आप जोड़ लें। मैं तो यही कहूंगा कि लोकप्रिय हो जाने के कारण, लोगों (बच्चे-बच्चे) की जबान पर चढ़ जाने के कारण भोंडे और फूहड़ को सुरुचिपूर्ण की स्वीकृति नहीं मिल जाती।

निष्कर्ष इतना कि कुछ अच्छे सीक्वेंस, संवाद, दृश्य-गीत के बावजूद मैं इसे बतौर अच्‍छी फिल्म स्‍वीकार नहीं कर पाया। बहरहाल, इस ईडियट के बहाने आमिर खान ने अपनी बाक्‍स आफिस समझ जरूर साबित की है।