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Saturday, August 24, 2024

आईनासाज़

भाषाओं के रास्ते इतिहास में प्रवेश कर साहित्य की जिस दुनिया का साक्षात्कार हो सकता है, उसका एक उल्लेखनीय नमूना अनामिका का ‘आईनासाज़‘ है, जिसमें लेखक के लोक और शास्त्र, दोनों के प्रति स्वाभाविक और समान लगाव का सौंदर्य भी झलकता है। किताब के खंड-1 चाँदगाँव में ‘अथ खुसरो कथा‘ है, खंड-2 ‘बैक गियर‘ है। निष्कर्ष जैसा, संक्षिप्त सा खंड-3 ‘सिलसिले‘ का समापन ‘कलंदर‘ से होता है, जो दो खंडों में बंटी, अलग-अलग सी दो पुस्तकों को मानों एक जिल्द में रखने को सार्थक करता, निचोड़ है। 

किताब, मानों लेखक के दिल के आईने में झिलमिलाता अमीर खुसरो का अक्स है, ढेरों अरमानों और हसरतों से रंग कर आकार दिया गया, कहन का ढंग देखिए- ‘अवध जाओगे, वहीं की बोली तुम्हारी शायरी में फ़ारसी का तबोताब, बांग्ला की मिठास और पंजाबियत का सूफ़ी नूर पाकर ऐसी दमकेगी कि एक नई जबान पा लेगा ये हिन्दोस्तां।... जाओ मेरे अलमस्त कबूतर, कुछ देर आसमाँ में पंख तौलकर आओ। लौटकर आना तो मेरे ही कंधे पर बैठना। मेरा दिल ही घोंसला है तुम्हारा-मेरा दिल और ये देहली।‘ या ‘तौबा, सब्र, शुक्र, रज़ा, ख़ौफ़ और फ़कीरी- ये ही छः सीढ़ियाँ हैं जहाँ से हम उस छत पर पहुँचते हैं जहाँ चाँद, सूरज और यह पूरी कायनात जो हमारे भीतर है और हमारे बाहर भी-देह की बंदिशें तोड़कर एक-दूसरे की बाँहों में लीन हो जाती है....फना हो जाती है।’ 

इसी तरह खंड-1 के शीर्षक 13- निजाम पिया की बैठक... और शीर्षक 14- बादलों के चेहरे... में, छोटे-छोटे लाजवाब वाक्यों में खुसरो और उस देश-काल के प्रसंग उभारा गया है, ज्यों- ‘मेरे मन का काजी कहता है कि तू मर गया और वह विधवा है। कम-से-कम तेरे भीतर का शौहर तो उसी दिन मर गया जिस दिन तूने उस पर हाथ उठाया।‘ या ‘दीया जला है तो बुझेगा जरूर-तेल चुकने से बुझे याकि हवाओं के झोंके से।‘ दो अंश और, पहला- ‘या ख़ुदा ! पद्मिनी, मलिका या महरू-जैसी औरतें तेरा ही आईना हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने कायनात-जैसी पानीदार सूरतें पाई हैं बल्कि इसलिए कि उन्होंने समंदर- सा दिल पाया है जो सौ लहरों के उछाह से, सौगुना करके हर दान लौटा देता है और अपने हिस्से कुछ भी नहीं रखता। सब-कुछ लुटाकर खाली हो जाने का जज़्बा ही तो सच्ची इबादत है।‘ 

और दूसरा अंश- ‘घर-गृहस्थी और बच्चों की ओट तो खुद पचपन घूँघटों की ओट है। औरत चाहे तो इनके पीछे ऐसे जा छिपे कि मर्द को उसकी एक झलक भी मुहय्या न हो। औरत चाहे तो अपना जिस्म ऐसे परोसे, जैसे कोई बाह्मनी नाक पर आँचल रख गली के कुत्ते को बासी भात परोसती है और मुँह बिदोड़े घड़ियाँ गिनती है कि कब इसकी चप-चप बन्द हो और उसे वापस अपनी हाँड़ी मिल जाए जिसमें कल फिर से इसको खाना देना होगा। भूख लगे, तो और जाएगा भी कहाँ, दुम हिलाता यहीं आएगा। न आए तो इन्तजार भी करेगी, आकुल हो इधर-उधर देखेगी और अगर आ गया तो वही आक्-थू!‘ 

औरत-बहनापे की बात, बारीक अंतरंगता मगर ठेठपन के साथ आती हैं, खास कर ऐसे हिस्सों में जहां दो स्त्री पात्र आपसी एकांत में हैं, जैसे- ‘ठीक से देखो तो हर औरत अपने नैसर्गिक संवेगों में आदिवासी ही होती है...।’ एक स्थान पर यह कहा भी गया है- ‘एक स्त्री दूसरी स्त्री से जैसा सहज संवाद साध सकती है, शायद ही किसी पुरुष से- चाहे वह उसका कितना ही अपना क्यों न हो।‘ या ‘अस्सी प्रतिशत महिलाओं पर लागू है कि घर के भीतर प्रवेश करते ही उनकी बत्ती गुल हो जाती है और पब्लिक प्लेटफार्म पर भी वे शायद ही कभी सहज रह पाती हैं।‘ 

कहन का जादू ऐसा कि पाठक धीरे-धीरे उसमें डूबते, उसी रस में सराबोर हो जाता है, जिसमें लेखक रचते हुए या पात्र अपने जीवन में रहे हों। किताब पढ़ने में वही धीरज अपेक्षित है, जैसा इसमें एक जगह कहा गया है- ‘हम मनुष्य नहीं रह पाते, अगर भीतरी चेतावनियाँ सुनने का सूफी धीरज न हो।‘