नासदीय सूक्त, ऋग्वेद 10.129 -
को अद्धा वेद कइह प्रवोचत्कृत आजांता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव।।
इयं विसृस्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे वयोमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद।।
(...कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सृष्टि की उत्पत्ति में सबसे पहले काम अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुई। ... ... ... देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ। ... ... ... वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।)
कौन मनुष्य जानता है और यहाँ कौन कहेगा कि यह सृष्टि कहाँ से और किस कारण उत्पन्न हुई, क्योंकि विद्वान् या दूरदर्शी भी इस सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद ही उत्पन्न हुए हैं, इसलिए यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई उसे कौन जानता है। यह सृष्टि जिससे पैदा हुई वह इसे धारण करता भी है या नहीं, इसको हे विद्वन् ! वही जानता है। जो परम आकाश में रहता हुआ इस सृष्टि का अध्यक्ष है यदि अथवा सम्भवतः वह भी नहीं जानता हो।
-महर्षि दयानंद सरस्वती, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
निश्चित रूप से कौन जानता है? किसने बताया है कि उद्भव किसमें से हुआ और यह सृष्टि कहां से आई? देवगण भी सृष्टि के बाद के हैं। तब कौन जान सकता है कि इसका उद्भव कहां से हुआ? इसे किसने रचा? या नहीं भी रचा? परम आकाश में जो नियामक के रूप में स्थिति है, हे प्रिय, वह जानता होगा। न भी जानता हो!
-के. दामोदरन
कौन जानता है? कौन कह सकता है? कहां से यह सृष्टि उत्पन्न हुई। देवता भी इसके जन्म के बाद हुए, तो फिर कौन जाने यह कहां से विकसित हुई? 'यह सृष्टि कहां से फैली? यह जन्मी भी है या नहीं? परम व्योम में जो इसका अध्यक्ष है वही इसे जानता है, पर वह भी जानता है या नहीं?
-वासुदेव शरण अग्रवाल
(अपनी अज्ञानता, प्रश्नाकुलता, जिज्ञासा, संदेह, अनिश्चितता पर नासदीय सूक्त का सहारा मिल जाने पर भरोसा बना रह गया है, स्वयं पर और वेदों पर। दार्शनिक, वैचारिक प्रश्नों/जिज्ञासा पर निष्कर्ष न आए तो सतत जाग्रत चिंतन क्रम बना रहता है।)
नारद-भक्तिसूत्र - न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत्साधनञ्च कार्यमेव।।६२।।
भगवान को सर्वस्व अर्पण नहीं कर पाने तक, लौकिक आचार व्यवहार, निन्दित समझकर त्याग नहीं करना; किन्तु कर्मफल का त्याग एवं कर्मफल के त्याग के लिए साधना अर्थात अभ्यास करना उचित है।
ईश्वर में सर्वतोभावेन आत्मार्पण नहीं कर पाने तक लौकिक आचार-व्यवहार का बलपूर्वक त्याग नहीं करना चाहिए। किंतु कर्म फल का त्याग कर एवं फल की कामना के त्याग के अभ्यास के साथ सारे कर्म करते जाना उचित है।
सत्यं स्व पराभासी, प्रमाणं वाद विवर्ज्यते- अज्ञात
बृहदारण्यकोपनिषद - स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत् । स हैतावानास यथा स्त्रीपुमा सौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः पतिश्च पत्नी चाभवतां तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव ता समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त॥ ३ ॥
वह रममाण नहीं हुआ। इसीसे एकाकी पुरुष रममाण नहीं होता। उसने दूसरेकी इच्छा की । वह जिस प्रकार परस्पर आलिङ्गित स्त्री और पुरुष होते हैं वैसे ही परिमाणवाला हो गया। उसने इस अपने देहको ही दो भागों में विभक्त कर डाला। उससे पति और पत्नी हुए । इसलिये यह शरीर अर्द्धबृगल (द्विदल अन्नके एक दल) के समान है— ऐसा याज्ञवल्क्यने कहा। इसलिये यह [पुरुषार्द्ध] आकाश स्त्रीसे पूर्ण होता है । वह उस (स्त्री) से संयुक्त हुआ; उसीसे मनुष्य उत्पन्न हुए हैं॥ ३ ॥
... ... ... उससे - उस द्विधा पातनसे पति और पत्नी हुए - यह लौकिक पति-पत्नियों [के पति-पत्नी नाम] - का निर्वचन किया गया है । इसीसे, क्योंकि यह जो स्त्री है शरीरका ही पृथग्भूत अर्धभाग है, इसलिये यह शरीर आत्माका अर्धबृगल है। जो अर्ध (आधा) हो और बृगल - विदल हो उसे अर्धबृगल ( दो दलोंमेंसे एक दल) कहते हैं, अर्थात् अर्धविदल-सा है। किंतु स्त्रीसे विवाह करनेसे पूर्व यह किसका अर्धबृगल होता है, सो श्रुति बतलाती है - स्व अर्थात् अपना ही — ऐसा निश्चय ही याज्ञवल्क्यने कहा है । यज्ञका वल्क-वक्ता यज्ञवल्क कहलाता है, उसका पुत्र याज्ञवल्क्य अर्थात् दैवराति अथवा ब्रह्माका पुत्र याज्ञवल्क्य ।
कुबेरनाथ राय - मैं राजनीति के कपटाचरण और हिंसा के इस प्रच्छन्न पोषण के खिलाफ हूँ। इसलिए आज मुझे गाँधी-स्मरण आते हैं। हिन्दी के नये साहित्यकार कहते फिर रहे हैं, 'देखो, देखो, मैं कितना महान्, मैं विद्रोही हूँ। मैं जोखिम उठा रहा हूँ।' लेकिन तथ्य तो यह है कि अपप्रचार और अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के फलस्वरूप उनका यह रास्ता बिल्कुल जोखिम या किसी भी खतरे से आक्रांत नहीं है। बल्कि तथ्य तो यह है कि आज यह प्रतिष्ठित होने का सर्वाधिक सुलभ 'शॉर्टकट' है। आज की हरेक राजनीतिक पार्टी जिस तरह गुण्डे पालने के सिद्धान्त में विश्वास करती है, वैसे ही साहित्यकार भी पालती है। ये आज व्यवस्था के सर्वाधिक स्थापित अंग के पालतू हैं। उसी की 'दीन-इलाही' को तरह-तरह दुहराकर, अन्त में 'भरतवाक्य' की तरह दो-चार गालियाँ भी उसे दे देते हैं।
*आज समाज ही नहीं धर्म, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य के सारे प्रश्न प्रकारान्तर से राजनीति के प्रश्न बना दिये गये हैं। अतः आज सामाजिक चेतना का अर्थ होता है राजनैतिक चेतना और वह भी मात्र अगले चुनाव की राजनैतिक चेतना जो एक सिद्धान्तविहीन व्यूह-रचना से अधिक नहीं है।
वासुदेव शरण अग्रवाल - पुराण-निर्माता सुधी जनों ने भी वैदिक तत्त्वों को ही लोकोपकार के लिए, अनेक तरह से कथा और गल्पों का आश्रय लेकर, वर्णित किया है। शेषशायी विष्णु, शिव का मदन-दहन, वामन और विराट्, परशुराम और रेणुका, आदि कितनी ही कथाएं श्रुतिवर्णित रहस्यों के विस्तार-मात्र हैं। साधारण लोग कथा में ही भटके रहते हैं। एक वे हैं, जो कथाओं को सत्य मानते हुए भी उनके तत्त्व को नहीं जानते; दूसरे वे हैं जो तत्त्व को न देखते हुए कथाओं को असत्य मानते हैं। दोनों की बात एक-सी है । ज्ञानी जन कथा से ऊपर उठ कर इसके रहस्य को समझते हैं, और अनेक भांति से मूल सिद्धांत को ही पल्लवित देख कर आनंदित होते हैं।
*समुद्र कामना-विह्वल होकर हजार-हजार हाथों से नदी-मुख को पकड़ने की चेष्टा में था और नदी उसी संवेग से उसकी ओर चुंबन-प्रस्तुत होंठों वाली कोणार्क-मुद्रा में उपस्थित थी। कामातुर नदी, कामातुर समुद्र। पुरुष-प्रकृति की आदिम रति-क्रिया का सगुण रूपांतर। पंचमहाभूत साक्षी थे। तो लज्जा का प्रश्न नहीं था। लज्जा का अनुप्रवेश होता है मानवीय उपस्थिति पर। मनुष्य अपने साथ पाप-बोध ले जाता है और पाप-बोध की संतति है लज्जा।
*प्राचीन बेबीलोनी भाषा में ईदु शब्द का अर्थ है चंद्रमा या द्वितीया का वक्र चंद्र (ईद?) लेकिन रोचक यह कि इसी शब्द से इंंदुु, इंडस, हिंदू और हिंदुस्तान शब्द बनना भी असंभव नहीं, माना गया है।
*'समाज', 'राष्ट्र' आदि भाववाचक संज्ञायें हैं। ये शब्द-संज्ञायें हैं। 'व्यक्ति' और 'परिवार' शब्द-संज्ञायें नहीं वे सगुण-संज्ञायें हैं।
युवाल नोआ हरारी के शब्दों में fictional reality और objective reality.
मनोहर श्याम जोशी - लेकिन अमेरिकी सत्ता-वर्ग साहित्य और संस्कृति में अपने आदर्श मानकों के खंडित होते जाने से विशेष चिंतित नहीं होता। साहित्यकारों और कलाकारों का सत्ता की राजनीति का विरोध ही उसे कोई खास परेशान करने वाला मामला प्रतीत नहीं हुआ है। पश्चिम के उन्नत औद्योगिक देशों का समाज कलाकारों और साहित्यिकों को गालियां बुदबुदाने के लिए बहुत खुशी से बख्शीश देता है! जो जितना अधिक विद्रोही होता है वह उतना ही वरेण्य हो जाता है। इसका अर्थ शायद यह है कि उन्नत औद्योगिक समाज साहित्य-कला-संस्कृति को उतना शक्तिशाली नहीं मानता जितना अगले रोमानपरवर जमाने में उन्हें माना जाता था। इस दृष्टि से सोवियत संघ कुछ पिछड़ा हुआ ही समझा जाएगा कि वहां आज भी लेखकों की आजादी पर जारशाही प्रतिबंध लगाना जरूरी समझा जाता है। आजादी पर प्रतिबंध लगाने वाले पिछड़ेपन से आजादी को महत्त्वहीन समझने वाली प्रगतिशीलता तक कैसी विडम्बनामयी यात्रा पूरी की है एक लेखक ने कुज्नेत्सोव से ए. आनातोल बन जाने में!
निर्मल वर्मा, रेणु के लिए - वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे। यहां मैं संत शब्द का उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूं-एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता-हर जीवित तत्व में पवित्रता और सौंदर्य और चमत्कार खोज लेता है-इसलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अंधेरे और आंसुओं को नहीं देखता बल्कि इन सबको समेटने वाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है। ... सौंदर्य का असली मतलब मनोहर चीजों का रसास्वादन नहीं, बल्कि गहरे अर्थ में चीजों के पारस्परिक सार्वभौमिक दैवी रिश्ते को पहचानना होता है-इसलिए उसमें एक असीम साहस और विवेक तथा विनम्रता छिपी रहती है। इस अर्थ में हर संत-व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि में कवि और हर कवि अपने सृजनात्मक कर्म में संत होता है।
*कला, मिथक और यथार्थ* मनुष्य का आत्मबोध-यह कि मैं हूँ और मनुष्य हूँ-इतिहास में कोई बहुत पुरानी घटना नहीं है। हम इस घटना, इस आत्मबोध के इतने आदी हो गए हैं कि लगता है मानो यह मानव-स्वभाव का कोई 'शाश्वत तत्त्व' हो, उसके मनुष्य-तत्त्व से जुड़ा हुआ, मनुष्य की चेतना का अभिन्न भाव-चिरन्तन और सार्वभौम-जिसका दिशा-काल से कोई सम्बन्ध न हो। हम अक्सर भूल जाते हैं कि मनुष्य की आत्मचेतना-कि मैं धरती पर अकेला अजनबी हूँ और स्वयं अपनी नियति के लिए जवाबदेह हूँ-यहूदी-ईसाई परम्परा का अंग है जिसने पश्चिमी सभ्यता को एक विशिष्ट आध्यात्मिक चरित्र प्रदान किया था। इस परम्परा की अन्तिम परिणति-तार्किक परिणति-रेनेसेंस मनुष्य के उस सर्वांगीण व्यक्तित्व में प्रस्फुटित हुई, जिसे अपने 'अहं' पर भरोसा था, जो धरती के केन्द्र में था, (उसी तरह जैसे धरती सौरमंडल के केन्द्र में थी), जिसकी कसौटी पर दुनिया की हर चीज नापी जाती थी-आत्मविश्वासी, आत्मकेन्द्रित, गर्वीला मनुष्य।
*हमारी चुनी हुई चुप्पियाँ* व्यक्तिगत जीवन में चुप्पी का अपना महत्त्व है। कुछ बातें करने लायक नहीं होती, कुछ को शर्म-लिहाज में दबा लिया जाता है या शायद हम इसलिए भी कभी-कभार चुप्पी साध लेते हैं कि हमें लगता है कि हम जो कहेंगे, उसमें हमारा अनकहा अनसुना रह जाएगा, जिससे कहे का मूल्य भी बेमानी हो जाएगा। हम कुछ छिपाना नहीं चाहते, सिर्फ आशा करते हैं कि कहे में कहीं अनकहा भी ध्वनित हो जाएगा।
*एक कलाकार-मेरे लिए हमेशा एक बोहेमियन और विदूषक रहा है, इसलिए जो लेखक अपने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, वे हमेशा मुझे कुछ हास्यास्पद-से जान पड़ते रहे हैं।
टाल्सटाय - कला की एक अकाट्य कसौटी, जो उसे नकली कला से अलग करती है वह है दर्शक या पाठक या श्रोता पर उसका संक्रामक प्रभाव. यदि व्यक्ति अपनी ओर से बिना कोई परिश्रम किये और बिना अपने वैचारिक प्रस्थान बिन्दु से विचलित हुए किसी लेखक, कलाकार के काम को देख-पढ़कर उसके अन्तर्मन की स्थिति को और अन्य दर्शकों, पाठकों की भाव स्थिति को प्राप्त कर साझा कर पाता है, तब वह चीज जिसने यह असर पैदा किया वह कला है। यह संक्रामक असर न केवल उस वस्तु के कला होने की कसौटी है बल्कि उस कला की गहराई का सटीक मापक भी है।
*भारतवर्ष की धार्मिक परंपरा पुराण-साहित्य पर आश्रित रही है। भारतीय धर्म का ज्ञानकोष वेद है। कहा जाता है कि वेदों के ही उपबृंहण का कार्य पुराणों द्वारा किया गया है। पुराणों के रूप में लगभग चार लाख श्लोकों का विशाल साहित्य उपलब्ध है। इस समय पुराण साहित्य पर किस दृष्टिकोण से विचार किया जाए, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। आवेग-विहीन तथा विवेक-युक्त मस्तिष्क से पुराण-साहित्य पर विचार करना आवश्यक है।
*मैं अपराध, रहस्य, रोमांच और जासूसी कहानियाँ पढ़कर बड़ा हुआ हूँ, लेकिन मुझ पर उनका प्रभाव साहित्यिक ही रहा; जिस प्रकार अधिकांश पाठक हत्या और मारकाट से दूर हैं, मैंने भी अब तक कोई बड़ा अपराध नहीं किया है। ईमानदारी से कहूँ तो ऐसी बात नहीं है कि मुझमें कभी अपराध करने की इच्छा ही नहीं जगी हो। हममें से ज्यादातर में यह प्रबल इच्छा होती है कि हम किसी अप्रिय व्यक्ति मसलन किसी धौंस जमानेवाले, सतानेवाले, धोखेबाज या लुटेरे को हमेशा के लिए ठिकाने लगा दें। लेकिन हमारी नीच प्रकृति पर व्यावहारिक ज्ञान और सभ्य समाज के मानदंड हावी हो जाते हैं और हम सबसे जघन्य और अस्वाभाविक अपराध अर्थात् आदमी की हत्या करने से पीछे हट जाते हैं।
एक छोटे से बच्चे ने मुझे याद दिलाया कि यह इच्छापूर्ति पेड़ है इसलिए मैंने भी कामना की। मैंने कामना की कि अन्य पेड़ भी इसी तरह फलें- फूलें।
"क्या तुमने भी इस पेड़ से कुछ माँगा है?" मैंने लड़के से पूछा।
"मैंने कामना की है कि आप मुझे एक रुपया देंगे।" उसने कहा।
उसकी इच्छा तुरंत पूरी हो गई। मेरी इच्छा अनिश्चित भविष्य की किसी कंदरा में जाकर छिप गई। पर उसने इच्छा करने के संदर्भ में मुझे एक पाठ सिखाया।
विद्यानिवास मिश्र- अक्षरारंभ या विद्यारंभ, अक्षर के संसार में प्रवेश मानव-सृष्ट संस्कृति के संसार में प्रवेश होने के कारण महत्वपूर्ण घटना है।
* हिन्दू शास्त्र स्वयं ऐसा है जो जीवन है, जो अपना खण्डन स्वयं है। वेद को धर्म का मूल कहा गया है, पर स्वयं गीता में ही कहा गया कि कुएँ की जरूरत तभी तक है जब तक आदमी को पानी की प्यास है, और सामने सरिता का प्रवाह नहीं है, पर प्यास बुझ जाये या सामने नदी लहरा रही हो तो कुएँ की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती, उसी तरह वेद की आवश्यकता भी तभी तक है जब तक जीवन के प्रयोजन की जिज्ञासा है ... हिन्दू शास्त्रों में बड़ी परस्पर विरुद्ध बातें मिलती हैं ... तीर्थ की प्रशंसा भी, निन्दा या अनपेक्षा भी, वर्ण-व्यवस्था की संगति भी, निर्वर्ण-स्थिति की प्रशंसा भी, प्रवृत्ति धर्म को भी महत्त्व, निवृत्ति को भी महत्त्व, ब्राह्मण को कई दंडों से छूट और कई अपराधों के लिए दूसरों की अपेक्षा कई गुना दंड, स्त्री को आश्रित भी बतलाना और उसे सम्राज्ञी भी बतलाना, हिन्दू शास्त्र बस शंकर की तरह बड़े बीहड़ बौड़म शास्त्र हैं। उनको समझने के लिए उन्हें तो पूरा देखना ही पड़ता है, उनके साथ लोकाचार को भी देखना होता है, क्योंकि शास्त्राचार लोक से ही प्रमाणित होता है और लोकाचार भी शास्त्र बनकर ही प्रतिष्ठित होता है।
- हिन्दू धर्म जीवन में सनातन की खोज, पेज-83.
(इस संसार में शिष्टों अर्थात शब्दशास्त्रियों द्वारा अनुशासित शब्दों एवं उनसे भिन्न अननुशासित शब्दों की सहायता से ही सर्वथा लोक व्यवहार चलता है।)
इस संसार में कार्यों की धारा और प्रवृत्ति सदैव एकाग्र बुद्धि (शिष्ट) पर दृढ़ रहने वाले ऋषियों के शब्दों के माध्यम से, शिष्य (अनुशिष्ट) के निर्देशों द्वारा, प्रशिक्षित लोगों के शब्दों के माध्यम से, और बाकी का सभी के बोलचाल के शब्दों के माध्यम से बहती है।
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