Tuesday, August 31, 2021

भास्कर गेस्ट

गेस्ट कॉलम
राहुल कुमार सिंह, पुरातत्वविद्

सारे ख्वाब पूरे हुए

पुरातत्तवविद् एवं शिक्षाशास्त्री राहुल कुमार सिंह ने ताउम्र जैसा सोचा वैसा ही हुआ। उनकी नजरों में यह उनके पूर्व जन्म के कर्मों और भाग्य का प्रतिफल है...

मुझे समाज से, प्रकृति से, ईश्वर से वो सभी सामान्य परिस्थितियां मिली, जो एक इंसान को मिलनी चाहिए। बौद्ध दर्शन का क्षणवादी जीवन मनुष्य का होता है, जिसमें हर क्षण अनिश्चित है। कुछ कर्मों से, कुछ प्रारब्ध से हम उसे निश्चित करते चलते हैं। दार्शनिक रूप से जो मृत्युलोक में होता रहता है, वो सब मेरे साथ भी होता रहा है।

राहुल कुमार सिंह कहते हैं, पुरातत्व के क्षेत्र में रूचि बचपन से थी। पर यह नहीं सोचा था कि इसी क्षेत्र में सेवा करूंगा। लोक विश्वास, दंतकथाएं , किवदंतियां और मान्यताएं, जो प्राचीन स्थलों से जुड़ी होती है उसे जानने में गहरी रुचि थी। मेरे मूल निवास अकलतरा में कोटगढ़ का दुर्ग, जांजगीर का भीमा तालाब, नकटा का प्राचीन शिव मंदिर, सभी के बारे में चमत्कारपूर्ण मिथक और फैंटेसी कथाएं थी। ये किसी भी बालक और वयस्क को आकर्षित करती है।

ग्यारहवीं तक विज्ञान पढ़ा। घरवाले चाहते थे डाक्टर बनूं। दो साल बीएससी की पढ़ाई की पर अनुत्तीर्ण हुआ। रुचि सोशल साइंस और मानविकी में थी इसलिए महत्वाकांक्षा से इस ओर कदम बढ़ाया। दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में पुरातत्व भी कला का एक विषय था। परिवार नृतत्व शास्त्र, साहित्य और अर्थशास्त्र से संबंधित था और गुरू भी सच्चे अर्थों में हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने वाले मिले। पढ़ाई पूरी होने के बाद घूमा-फिरा, पारिवारिक खेती का काम देखा।

जीवन में कोई टर्निग पाइंट तो नहीं है, पर विज्ञान विषय छोड़ना और जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई ठीक उसी अवधि में बिलासपुर में संग्रहालय आरंभ होना संयोग रहा है। ये तय था कि रुचि के अनुसार घूमना, जगहों की खोज और पढ़ाई जारी रहती और इसका आधार पारिवारिक खेती होती। एमए में रविशंकर विश्वविद्यालय में स्वर्णपदक मिला और संग्रहालय विज्ञान डिप्लोमा में विशिष्ट प्रावीण्य सूची में था। भोपाल में डिप्लोमा करने के दौरान नेशनल म्यूजियम दिल्ली में काम करने का अवसर भी मिला। इन कारणों से 1984 में तदर्थ रूप से और 1987 में लोक सेवा आयोग के माध्यम से स्थाई रूप से संग्रहाध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई।

पुरातत्व की दृष्टि से बिलासपुर संभाग बहुत महत्वपूर्ण है। ‘ताला‘ का भारतीय कला में विशिष्ट स्थान है। मल्हार में अट्ठाइस सौ वर्षों का नियमित क्रमबद्ध इतिहास है। प्रतिमाएं, मंदिर, शिलालेख, मनके, मृदभांड, ताम्रपत्र, आवासीय संरचनाएं, सभी प्रकार के पुरावशेष यहां मिले हैं और ऐसे स्थान बहुत कम हैं। कलचुरी काल के पुरावशेष यहां इतनी बड़ी मात्रा में मिले कि उस काल की दृष्टि से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। संभावनायुक्त स्थलों की भी कमी नहीं है। किरारी में मिला अठारह सौ वर्ष पुराना काष्ठ स्तंभ दुनिया में सबसे पुराना है। मल्हार की सामग्रियां अक्सर खेती-बाड़ी का काम करते किसानों से मिली हैं।

धार्मिक मान्यताओं के कारण अनेक पुरावशेष सुरक्षित हैं, पर कहीं कहीं नुकसान भी हुआ है। अभी जितने स्मारक संरक्षित है उससे कहीं ज्यादा असंरक्षित पड़े हैं। विभाग नया है, अमला कम है। इसलिए जनसहयोग, जागरूकता और स्थानीय प्रशासन के सहयोग से ही धरोहर सुरक्षित रह सकती है। जब तक पुरातत्व को लोक जीवन से जोड़कर न देखा जाए तब तक वे बेजान होते हैं। विश्वास और आस्थामूलक तत्व उसके साथ जुड़ते हैं तो वे सजीव हो जाते हैं।

हिंदी और अंग्रेजी साहित्य, लोकजीवन शैलियां, लोकगीत, संस्कृति और उससे जुड़े मुद्दे मेरी रूचि का विषय रहे हैं। घूमना सुदूर इलाकों में जाना, जनजातियों के बीच समय बिताना। काम के बीच इन रूचियों को पूरा करने का भरपूर अवसर मिलता रहा है। इसलिए मैं अपनी सेवा की स्थितियों से बहुत संतुष्ट हूं।

बस्तर में काम का अलग रोमांच है। वहां नक्सलवादियों के अगल-बगल होने की एक-आध घटनाएं हुई पर उन्होंने कभी परेशान नहीं किया, काम में रूकावट नहीं डाली। ताला में काम करते हुए भी रोमांचक अवसर मिले। उसकी प्राप्ति स्थल पर सात-आठ दिन रहने का अवसर एक नए व्यक्ति के लिए भी रोमांच पैदा कर देता है और मैं तो पूरे समय इससे जुड़ा रहा।

शासकीय सेवा में मेरी स्मरणीय तिथि 27 (वस्तुतः 17) जनवरी 1988 है, जब ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा प्राप्त हुई। शासकीय सेवा के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर मैं इससे जुड़ा ये संतुष्टि का बहुत बड़ा कारण है। पारंपरिक हस्तशिल्प कार्यशाला रायपुर, कंटेपरेरी आर्टस, पेंटर्स की कार्यशाला में भी सुनने, देखने और जानने का अवसर मिला।

पूरे जीवन कोई ऐसी घटना नहीं हुई जब मैंने अपनी किस्मत को बहुत रोया हो। काम में किसी गंभीर दखलअंदाजी का सामना कभी नहीं करना पड़ा। कहावत है ‘कोयले की दलाली में हाथ काला‘, पुरातत्व के क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति की तरह शिकायतें मेरे विरूद्ध भी हुई, पर जिस इच्छा और विश्वास से मैंने काम किया था उन शिकायतों को भी मैंने उतनी ही रूटीन माना जितनी समाज की बाकी अच्छाईयां या बुराईयां हैं। 
  • नूपूर रायजादा

यह दैनिक भास्कर, बिलासपुर के छत्तीसगढ़ प्लस पेज पर 28 जून 2001 को प्रकाशित हुआ था। यह डिस्पैच बातचीत के आधार पर नूपूर जी ने तैयार किया था। मेरे कहने और वह यहां प्रस्तुति में कुछ फर्क रहा, जैसे यह लगता है मानों कहने वाला शर-शैया पर लेटे हुए अपनी बात कह रहा हो। पूर्व जन्म के कर्मों और भाग्य की बात, वस्तुतः यह थी कि मैंने हमारी चिंतन पद्धति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध की बात कही थी, जिसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया। पढ़ कर स्पष्ट हो सकता है कि मेरी बातें साक्षात्कार के कुछ सामान्य प्रश्नों, जैसे- बचपन, शिक्षा, रुचि, टर्निंग प्वाइंट, यादगार अनुभव, उपलब्धियां, महत्वाकांक्षा आदि, के जवाब में हैं। बहरहाल, इसमें कुछ गंभीर आपत्तिजनक नहीं है।
नूपूर जी और दैनिक भास्कर का आभार।

प्रसंगवश ध्यानाकर्षण कि गेस्ट कॉलम के बगल में सर्वेक्षण के अंतर्गत ‘सरकार नक्सलियों से बात करे‘ में किस गंभीरता से सरगुजा की नक्सली समस्या को रखा गया है, उल्लेखनीय है।

Monday, August 30, 2021

पीएससी परीक्षा

नये स्वरूप के साथ स्वागतेय पीएससी परीक्षा

छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की राज्य सेवा संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा के नये स्वरूप की चर्चा और अनुमानों पर विराम लग गया है। पीएससी के नये पैटर्न के प्रस्ताव पर सरकारी मुहर लग गई है। साथ ही कैरियर के लिए शासकीय सेवा के इच्छुक युवाओं और उनके अभिभावकों के लिए यह राहत देने वाली उत्साहजनक बात है कि राज्य में शासकीय सेवा के 210 पदों पर भर्ती के लिए विज्ञप्ति जारी हो गई है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि परीक्षाओं की विज्ञप्ति, परीक्षा प्रणाली में आवश्यक संशोधन सहित उसे दुरुस्त करते हुए पूरी तैयारी के साथ की गई है। 2011 के निरंतर अगले इस कैलेंडर वर्ष 2012 में आई विज्ञप्ति के साथ अब परीक्षाएं लगातार प्रत्येक वर्ष होने की संभावना बनी है।

हमारे संविधान के भाग 14, अध्याय 2, 315 के अंतर्गत संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग का प्रावधान है। रोजगार के लिए शासकीय सेवा को लक्ष्य बनाने वाले युवाओं की आशा का केन्द्र संघ और राज्य के लोक सेवा आयोग ही होते हैं। बदलते परिवेश में उच्च तकनीकी शिक्षा, विदेश में रोजगार के अवसर और उच्चस्तरीय जीवन शैली की महत्वाकांक्षा के कारण, विशेषकर महानगरीय युवाओं में लोक सेवा का आकर्षण घट गया है। राज्य लोक सेवाओं में विगत वर्षों में पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में चयन और पदांकन में अड़चनें आती रही हैं, छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है। इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद नगरीय और कस्बाई युवाओं में शासकीय सेवा का आकर्षण आज भी बना हुआ है।

एक नजर डालते चलें, छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2003, 2005, 2008 और 2011 में परीक्षाएं हुई हैं। इनमें से 2003 के परिणामों से चयनित प्रत्याशी शासकीय सेवा में हैं, लेकिन इनका चयन कानूनी अड़चनों के साये से अभी भी पूरी तरह मुक्त नहीं है। 2005 परीक्षा के परिणामों को ले कर भी कुछ निजी याचिकाएं न्यायालय में हैं। 2008 की परीक्षा प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, परिणाम भी तैयार बताए जाते हैं लेकिन न्यायालयीन रोक के कारण परिणाम अब तक घोषित नहीं हुए हैं वहीं 2011 परीक्षा के प्रारंभिक का परिणाम पिछले दिनों आया है और शेष चरण प्रक्रियाधीन है, इसकी मुख्य परीक्षा के लिए भी बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न पैटर्न तय किया गया है।

तेजी से बदलते दौर में लोक प्रशासन के लिए लोक सेवकों के चयन की प्रक्रिया और तौर-तरीकों में बदलाव जरूरी है। अब लोक सेवक के चयन में उसकी सामान्यज्ञता, तर्कशक्ति, अभिवृत्ति को परखने पर अधिक जोर दिया जा रहा है, जो अधिक उपयुक्त है। यों भी प्रतियोगी परीक्षाएं ज्ञान की नहीं, क्षमताओं की परीक्षा है। इसीलिए प्रतियोगी परीक्षाओ में उपाधि परीक्षाओं की तरह परिचयात्मक और विवरणात्मक मात्र नहीं बल्कि विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक प्रश्न पूछे जाते हैं और उसी के अनुसार उत्तर अपेक्षित होते हैं।

प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए न सिर्फ छत्तीसगढ़, बल्कि प्रत्येक राज्य के लिए मुख्यतः यूपीएससी मॉडल को अपनाया जाना उपयुक्त है, क्योंकि लोक सेवकों के चयन में राज्यों के साथ ऐसी कोई विशिष्ट स्थिति नहीं होती कि उन्हें पृथक चयन प्रक्रिया अपनानी पड़े, अलावे इसके कि राज्य लोक सेवा आयोग के लिए उस प्रदेश से संबंधित जानकारी, भाषा आदि को महत्व दिया जाता है, जो स्वाभाविक है। ध्यान देने वाली बात है कि यूपीएससी मुख्य परीक्षा में भाषा के प्रश्नपत्र क्वालिफाइंग मात्र होते हैं लेकिन एक महत्वपूर्ण परचा निबंध का होता है, जिससे अभ्यर्थी के अध्ययन, समझ, विश्लेषण क्षमता, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति का आकलन होता है।

प्रारंभिक प्राक्चयन परीक्षा में मुख्य परीक्षा के लिए स्क्रीनिंग की जाती है, इसलिए इसके अंकों की महत्व अंतिम परिणाम को प्रभावित नहीं करता तथा इसमें सब के लिए समान, बहुविकल्प वाले वस्तुनिष्ठ प्रश्नपत्र, जिसमें ऋणात्मक मूल्यांकन भी हो, उपयुक्त है। इस परीक्षा के उत्तर-पुस्तिका, ओएमआर अर्थात ऑप्टिकल मार्क रीडर शीट की जांच कम्प्यूटर द्वारा कर ली जाती है। इसमें परिणाम कम समय में तैयार हो जाता है, मूल्यांकन में मानवीय कारक का प्रभाव नहीं होता और सबसे महत्वपूर्ण कि सभी अभ्यर्थियों के लिए समान प्रश्नपत्र होने के कारण स्केलिंग की स्थिति नहीं रह जाती।

मुख्य परीक्षा की योजना में अब तक विभिन्न ऐच्छिक विषयों में सामंजस्य के लिए अपनाई जाने वाली सांख्यिकीय स्केलिंग की विसंगति और उससे उपजा असंतोष न्यायालयीन प्रकरणों तक का कारण बनता रहा है। मुख्य परीक्षा के लिए विषयों की बहुलता और ऐच्छिक प्रश्नपत्रों की दृष्टि से यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि बड़ी संख्या में ऐसे प्रत्याशियों का चयन होता रहा है, जो अपनी उपाधि परीक्षा के विषयों के बजाय ऐसे विषय का चयन करते हैं, जिनसे उनका नाता मात्र प्रतियोगी परीक्षा तक ही होता है।

निबंधात्मक शैली की मुख्य परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक उत्तर के साथ, प्रस्तुति में भाषा-अभिव्यक्ति का परीक्षण होगा, किसी लोक-प्रशासक के लिए इस क्षमता का मूल्यांकन आवश्यक होता है। परीक्षा में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी का समावेश और अनिवार्यता भी उल्लेखनीय है, लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि परीक्षा में पूछे जाने वाले छत्तीसगढ़ की जानकारी वाले प्रश्न, अधिकतर प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयार किए गए प्रकाशनों पर ही आधारित होते हैं, इस दृष्टि से यह आवश्यक नहीं रह जाता कि छत्तीसगढ़ से संबंधित प्रश्नों का जवाब छत्तीसगढ़ से जुड़ा परीक्षार्थी ही दे सके, बल्कि यह पाठ्य सामग्री, उसकी उपलब्धता और तैयारी के अनुरूप बेहतर ढंग से दिया जा सकता है।

वैसे तो न्यायालय में विचाराधीन प्रकरणों के कारण अभ्यर्थियों का असमंजस अब भी बरकरार है। आनलाइन आवेदन की व्यवस्था और बदली हुई परीक्षा प्रणाली को ले कर संभावना तो है कि अभ्यर्थियों का कोई वर्ग इसमें नुक्स निकाले, किन्तु समय की जरूरत के अनुरूप विवेकपूर्ण युक्तियुक्तकरण से संदेह के बादल छंट जाने की अधिक उम्मीद है। पीएससी की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता और प्रतिवर्ष की नियमितता की सर्वाधिक जरूरत इस समय है, परीक्षा पद्धति के ताजे निर्णय के साथ 210 पद रिक्तियों के लिए विज्ञप्ति जारी हो जाने से सकारात्मक वातावरण बनता दिखता है, जो प्रत्येक स्तर पर स्वागत योग्य है। 
(लेखक वरिष्ठ अधिकारी और कैरियर सलाहकार हैं।)


मेरा यह लेख नवभारत, रायपुर में 25 दिसंबर 2012 को प्रकाशित हुआ था। समाचार पत्र में निर्धारित स्थान की सीमा के कारण लेख को संक्षिप्त करने के लिए कुछ अंश कम किया गया था, जो यहां तिरछे अक्षरों में है।

Sunday, August 29, 2021

सलखन - बालचन्द्र

मूर्तियों की कहानी
(श्री बालचन्द्र जैन)

बिलासपुर जिले की जांजगीर तहसील के सलखन नामक ग्राम में, १९३६ में एक श्रमिक ने खड़खोड़ी तालाब की मिट्टी खोदते समय एक बड़ा धातु का घड़ा पाया. इस घड़े में धातु की पांच मूर्तियां, चार घंटियां और तीन लम्बी शमादानें थीं. घड़े के पास तांबे का एक छोटा घड़ा भी खुदाई में प्राप्त हुआ जो खाली था तथा बुरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट था. इस प्रकार से मिली हुई समस्त वस्तुएं ग्रामीणों द्वारा स्थानीय मंदिर में ले जाकर स्थापित की गईं जहां उनका पूजन किया जाने लगा. इन वस्तुओं की प्राप्ति के साथ ही एक ऐसी घटना हुई कि गांव में हुए हैजे का निराकरण हो गया जिससे इन वस्तुओं को धार्मिक दृष्टि से देखा जान लगा और गांव के लोग उन्हें अपने यहां से हटाने को तैयार न हुए. बिलासपुर के सरकारी अधिकारियों के सत्प्रयत्नों से निखात-निधि अधिनियम (ट्रेजर ट्रोव एक्ट) के अन्तर्गत केन्द्रीय संग्रहालय, नागपुर में रखने के लिये उनमें से तीन मूर्तियां और एक घंटी हासिल की गई.

ये धातुमूर्तियां मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से अत्यधिक आकर्षक हैं. ये मूर्तियां हिन्दुओं के वैष्णव और शैव दोनों मतावलम्बियों से संबंधित हैं और पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की कही जा सकती है. ये मूर्तियां अब नागपुर संग्रहालय को मूल्यवान सम्पत्ति है.

श्रीधर
निचली चौकी पर खड़ी हुई एक फुट दो इंच ऊंची धातुमूर्ति विष्णु को श्रीधरमूर्ति है. इस मूर्ति को चार भुजायें हैं जिनमें चार आयुध पद्म, चक्र, गदा और शंख है. दाहिनी ओर के नीचे और ऊपर के हाथों में क्रमशः पद्म और चक्र हैं तथा बाईं ओर के हाथों में गदा और शंख है. विष्णु के चारों हाथों में आयुधों को इस प्रकार की व्यवस्था उनकी(1) श्रीधरमूर्ति को विशेषता का दिग्दर्शन करती है. इसे मूर्तिविज्ञान के सिद्धान्तों द्वारा ठीक समझा गया है और इसका पूजन निम्न जाति के लोगों तथा वैश्यों द्वारा किया जाता है. इससे इस तथ्य का पता चलता है कि आरंभ में इस धातुमूर्ति की स्थापना किसी ऐसे मन्दिर में की गयी थी जिसे शूद्रों ने बनवाया था और उस जाति के स्थानीय लोगों द्वारा उसका पूजन किया जाता था.

श्रीधर-विष्णु को यह धातुमूर्ति धोती, मुकुट, कान के अलंकार, गले को माला, बाजूबन्द, कड़ा और अन्य अलंकारों से सज्जित है. इस मूर्ति के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है. इस मूर्ति के दोनों ओर दो सेविकाएं हैं जिनके बाहरी तथा भीतरी हाथों में क्रमशः कमल का फूल और कोई एक फल है. विष्णु का वाहन गरुड़ चौकी पर घुटने टेके हुए ऐसी मुद्रा में दिखलाया गया है मानो कि वह अपने स्वामी को कोई फल अथवा फूल भेंट कर रहा हो.

उमा
दूसरी धातुमूर्ति उमा की है जो चौकी पर स्थित उल्टे फूल पर स्थित है. यह गौरी की बारह मूर्तियों में से एक है जिसका वाहन(2) गोध कहा गया है; परन्तु यह धातुमूर्ति एक कमल पर स्थित बतलाई गई है. तथापि उनके वाहन का संबंध कमल पर अवस्थित उनकी दो सेविकाओं से है. इस देवी की चार भुजाएं हैं जिनमें क्रमशः अक्षसूत्र, कमल, दर्पण और कमण्डलु है जो उनके (3)परिचायक है. इस मूर्ति के तीन नेत्र हैं तथा यह मूर्ति विभिन्न आभूषणों से सज्जित है. उनके पुत्र गणेश उनके साथ में हैं जो उनकी दाहिनी ओर की सीधी शलाका के छोर पर बैठे हुए हैं और बायीं ओर की शलाका का छोर खाली है.

उनकी एक ओर एक सेविका हाथ में चंवर लिये हुए खड़ी है तथा उसका दूसरा हाथ उसकी जंघा पर रखा हुआ है. सेविका गोध पर खड़ी हुई है जो कि देवी का वाहन है.

चामुण्डा
चामुण्डा सप्तमातृका में से एक है जो सामान्यतः अस्थि-पंजरमय होती है. मांसविहीन, हड्डियां उभरी हुई, निमग्न आंखें और भीतर को घुसा हुआ पेट(4) विश्व की जितनी भी भयावह वस्तुएं हैं, उन सबके भाव लेकर इस देवी की कल्पना की गई है. वह मानो प्रलय और संहार की प्रतीक है. प्रस्तुत धातुमूर्ति में वह शव पर नाच रही है. उसके गले में हड्डियों और खोपड़ियों की माला है. हाथ दस हैं और उनमें खेट, पाश, धनुष, वज्र जैसे भयानक हथियार है. देवी की दो परिचारिका है और वे भी उसीके समान रक्तपात्र और छुरा लिए हुए हैं.

पाद टिप्पणियां-

(1) देवतामूर्ति प्रकरण-५-११ श्रीधरः पद्म चंगाशः; रूपमण्डन-३-१५, श्रीधरो वारिज चक्र गदा शंख दधातिच. देवतामूति प्रकरण ५-३. पूजिता श्रीधरो मूर्तिः शूद्राणाञ्च सुखप्रद। चर्मकृद्र जकानाञ्च नदस्य वरटस्य च।।
(2) देवतामति प्रकरण ८--१.
(3) चतुर्भुजा त्रिनेत्रा चं सर्वाभरणभूषिता। गोधासनोपरिस्था च कर्तव्या सर्वकामदा।। तत्रैव ८--३. अक्षसूत्रञ्च कमलञ्च दर्पणञ्च कमण्डलुम्। उमा नाम्नी भवेन्मतिः पूजिता त्रिदशेरपि।
(4) द्दष्ट्राला क्षीणदेहा च गर्ताक्षा भीमरुपिणी। दिग्बाहुः क्षामकुक्षिश्च रूपमण्डन ५--७०.

मूल लेख में पाद टिप्पणियों के लिए संकेत चिह्न प्रयुक्त है, उन्हें यहां सुविधा के लिए कोष्ठक में क्रमांक (-) कर दिया गया है।

बालचन्द्र जी का यह लेख प्रगति पत्रिका के मार्च-अप्रैल 1956 अंक में प्रकाशित हुआ था। छत्तीसगढ़ में सिरपुर (तथा संलग्न ग्राम फुसेरा या फुसेराडीह) से समय-समय पर प्राप्त धातु प्रतिमाएं विशेष उल्लेखनीय है, किंतु इन धातु प्रतिमाओं के बारे में अधिकतर अनभिज्ञता है। ये प्रतिमाएं, नागपुर से महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर के संग्रह में आ गईं। इसी तरह एक अन्य धातु प्रतिमा सूर्य की है, जो अकलतरा के निकट स्थित ग्राम हरदी (जरवे) के प्रतिष्ठित पंडित बालाराम शुक्ल जी के भाई सखाराम शुक्ला जी को मिली थी, उन्हीं के निवास पर देवी प्रतिमा के रूप में पूजित रखी गई। इस ग्राम की पहरी में विभिन्न प्रकार की फुटकर सामग्री सतह पर दिखती है, जिनके प्राचीन होने का अनुमान होता है।

Saturday, August 28, 2021

कांकेर सोमवंश - बालचन्द्र

कांकेर का प्राचीन सोम-वंश
बालचन्द्र जैन

प्राचीन लेखों में कांकेर को काकयर, काकरय अथवा काकैर कहा गया है।(1)

कांकेर के प्राचीन सोमवंश के संबंध में पांच उत्कीर्ण लेखों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है। वे लेख हैं, (1) बाघराज का गुरुर स्तंभ लेख, (2) कर्णराज का सिहावा लेख, (3)-(4) पम्पराज के दो ताम्र पत्र लेख और (5) भानुदेव का कांकेर शिलालेख। गुरुर के स्तंभ लेख में संवत्सर का उल्लेख नहीं है। सिहावा के लेख में शकसंवत 1114 (ईस्वी 1191-92) का उल्लेख है। पम्पराज के ताम्रपत्र लेख क्रमशः कलचुरि संवत् 965 और 966 (ईस्वी 1213 और 1214) के हैं, जबकि भानुदेव का शिलालेख शक संवत् 1242 (ईस्वी 1320) का है।

सिहावा का शिलालेख कर्णराज के राज्य काल में उत्कीर्ण किया गया था। (2) उस लेख में कर्णराज के पिता बोपदेव, पितामह वाघराज और प्रपितामह सिंहराज का उल्लेख है। लेख में दी गयी तिथि के अनुसार, कर्णराज ईस्वी सन् 1191-92 में राज्य कर रहा था। यदि उसके पूर्ववर्ती नरेशों ने औसतन बीस-बीस वर्ष राज्य किया हो तो सिंहराज का राज्यकाल लगभग 1130-1150 ईस्वी, बाघराज का 1150-1170 ईस्वी और वोपदेव का 1170-1190 ईस्वी संभाव्य है। यदि ऐसा है तो कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के सेनापति जगपाल ने काकयर का प्रदेश सिंहराज से जीता होगा। इस काकयर विजय का उल्लेख करने वाला जगपाल का राजिम शिलालेख कलचुरि संवत 896 (ईस्वी 1144) का है।

सिहावा के लेख से ज्ञात होता है कि काकैर के कर्णराज ने देवहृद में पांच मंदिरों का निर्माण कराया था और छठे मंदिर का निर्माण अपनी रानी भोपाल्ला देवी के नाम पर कराया था। इससे जान पड़ता है कि सिहावा के तीर्थस्थान को देवहृद भी कहते थे। जगपाल के राजिम शिलालेख में उसे ही मेचका सिहावा कहा गया प्रतीत होता है।

कर्णराज के पितामह वाघ देव के राज्यकाल का उल्लेख गुरुर के स्तंभ लेख में है।(3) वह लेख सिहावा के लेख से प्राचीन है। उसमें कांकेर को काकराय कहा गया है। लेख में वाघदेव के राज्यकाल में एक नायक द्वारा काल भैरव के मंदिर को भूमिदान किये जाने की सूचना दी गई है। इस वाघदेव को पश्चातवर्ती नरेश भानुदेव के कांकेर शिलालेख में व्याघ्र के नाम से स्मरण किया गया है।

वाघदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी वोपदेव के पश्चात इस वंश का राज्य तीन शाखाओं में बंट गया प्रतीत होता है। सिहावा के लेख के अनुसार कर्णराज उसका उत्तराधिकारी था पर पम्पराज के ताम्रपत्रलेखों में सोमराज को और भानु देव के शिलालेख में कृष्ण को बोपदेव का उत्तराधिकारी कहा गया है।

पम्पराज के ताम्रपत्रलेख कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर दूरवर्ती तहनकापार नामक स्थान के एक प्राचीन कुएं में प्राप्त हुये थे।(4) प्रथम ताम्रपत्र लेख कलचुरि संवत् 965 (ईस्वी 1213) का और द्वितीय ताम्रपत्र लेख संवत् 966 (ईस्वी 1214) का है। प्रथम ताम्रपत्र लेख में काकैर के राजाधिराज परमेश्वर, परममाहेश्वर, सोमवंशान्वयप्रसूत, कात्यायनीवरलब्ध- पञ्चमहाशब्दाभि-नंदित, निजभुजोपार्जित महाभाण्डलिक श्री पम्पराजदेव के राज्यकाल का उल्लेख है। राजा के अलावा उसकी रानी लक्ष्मीदेवी, कुमार बोपदेव और प्रधान (अमात्य) डोगरा का भी नामोल्लेख है। कुछ अन्य अधिकारियां का भी उल्लेख किया गया है। यह लेख विष्णुशर्मा द्वारा ताम्रपत्रों पर लिखा गया था और श्रेष्ठि केशव ने उत्कीर्ण किया था। लेख की तिथि भाद्रपद वदि 10, सोमवार, मृग नक्षत्र, (कलचुरि) संवत् 965 है जो 12 अगस्त 1213 ईस्वी को पड़ी थी। ताम्रपत्र पाडिपत्तन में दिया गया था। डाक्टर मिराशी जी ने इसको पहचान उस पाडे नामक ग्राम से की है जो कांकेर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह व्यापारिक अभिलेख गैता लक्ष्मीधर को दिया गया था और जपरा तथा चिखली ग्रामों का राजस्व तय करने से संबंधित है। इस लेख में विजयराजटंक नामक सिक्के का उल्लेख मिलता है।

द्वितीय ताम्रपत्रलेख में परमभट्टारक महामाण्डलिक पम्पराजदेव द्वारा धृतकौशिक गोत्र के गैन्ता माधवशर्मा के पौत्र, गैन्ता गदाधर के पुत्र, गैन्ता लक्ष्मीधर शर्मा को (जो यजुर्वेद का पाठभि था) ईश्वर नाम संवत्सर में कार्तिक मास के रविवार को, चित्रा नक्षत्र में, सूर्यग्रहण के समय, श्री प्रांकेश्वर के समक्ष कोंगरा नाम का ग्राम दान में दिये जाने और उसी समय पम्पराज के पुत्र कुमार वोपदेव द्वारा आण्डलि ग्राम दान में दिये जाने का उल्लेख किया गया है। इस लेख में भी रानी लक्ष्मीदेवी और कुमार वोपदेव का उल्लेख है। प्रथम लेख के समय प्रधान (अमात्य) डोगरा थे, पर इस लेख के समय बाघु उस पद पर अधिष्ठित थे। लेख में दी गयी तिथि 5 अक्टूबर 1214 को पड़ती है। उस दिन कांकेर में सूर्य ग्रहण दिखायी पड़ा था। ईश्वर नामक संवत्सर उत्तर भारतीय गणना के अनुसार 2 सितम्बर 1212 से 29 अगस्त 1213 तक ही रहा। 5 अक्टूबर 1214 ईस्वी को उत्तर भारतीय गणनानुसार बहुधान्य संवत्सर था और दक्षिण भारतीय गणनानुसार भाव नामक संवत्सर था। डाक्टर मिराशी जी ने अपने ग्रंथ में इस संबंध में विवेचना की है।(5) डाक्टर मिराशी पाडी को पम्पराज की द्वितीय राजधानी मानते हैं।

पम्पराज के पिता सोमराज के नाम के साथ परम भट्टारक महामाण्डलीक उपाधि का उल्लेख किया गया है जबकि पितामह वोपदेव के नाम के साथ केवल महामांडलिक पद का प्रयोग हुआ है। इससे उनकी राजकीय श्रेणी का बोध होता है।

अंतिम उत्कीर्ण लेख भानुदेव के समय का है।(6) वह कांकेर में मिला था। उममें स्थान का प्राचीन नाम काकैर दिया हुआ है। लेख से ज्ञात होता है कि भानुदेव के राज्यकाल में नायक दामोदर के प्रपौत्र, पोलू के पौत्र, भीम के पुत्र नायक वासुदेव ने भगवान् शंकर के दो मंदिरों का निर्माण कराया था जो मण्डप, पुरतीभद्र और प्रतोली से शोभित थे तीसरा मंदिर क्षेत्रपाल का बनवाया, एक सरोवर खुदवाया तथा कौदिक नामक बांध निर्मित कराया गया था। शक्ति कुमार द्वारा लिखित यह प्रशस्ति शक संवत 1242 में, रौद्र नामक संवत्सर में, ज्येष्ठ वदि पंचमी, तदनुसार 27 या 28 मई 1320 ईस्वी के दिन समारोपित की गई थी। इसमें दी गयी सोमवंश की वंशावली में क्रमशः सिंहराज व्याघ्र, बोपदेव, कृष्ण, जैतराज, सोमचन्द्र और भानुदेव के नाम हैं। 

इस प्रशस्ति में सिंह राज से लेकर वोपदेव तक तीन राजाओं के नाम उसी क्रम में है जिस क्रम में सिहावा के कर्णराज के लेख में मिलते हैं। पर वोपराज के पुत्र और उत्तराधिकारी का नाम सिहावा के लेख में कर्णराज, भानुदेव की प्रशस्ति में कृष्ण और पम्पराज के ताम्रलेख मे सोमराज बताया गया है। ऐसा लगता है कि वोपदेव के पश्चात कांकेर के सोमवंश की तीन शाखाएं हो गयी थीं और उसके तीनों पुत्र राजा बन बैठे थे। किंतु तीनों ही शाखाओं के नरेश स्वयं को कांकेर का राजा बताते हैं। इसका कारण समझ में नहीं आता। यह भी संभव है कि सिहावा और तहनकापार लेखों वाली शाखा एक रही हो और भानुदेव वाली दूसरी। वैसी स्थिति में कर्णराज की मृत्यु के पश्चात् (संभवतः उसके निस्संतान होने के कारण) उसका चचेरा भ्राता (सोमराज का पुत्र) पम्पराज राजसिंहासन पर अभिषिक्त हुआ होगा और उसके एक अन्य चचेरे भाई (कृष्ण के पुत्र) जैतराज ने भिन्न शाखा स्थापित की होगी। उस शाखा में जैतराज के पुत्र सोमचन्द्र और पौत्र भानुदेव ने राज्य किया।

इस प्रकार सिंहराज (लगभग 1130 ईस्वी) से लेकर भानुदेव (1320 ईस्वी) तक ये सोमवंशी नरेश लगभग 200 वर्षों तक कांकेर के प्रदेश पर राज्य करते रहे। भानुदेव के अनन्तर वंश का प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। पर स्वातंत्र्य-पूर्व समय तक सोमवंशी ही कांकेर के अधिपति रहे हैं। 

ऊपर वर्णित उत्कीर्ण लेखों में कांकेर के सोमवंशियों की जो वंशावलियां मिली हैं, वे निम्नलिखित प्रकार हैं-

सिहावा का लेख       गुरुर का लेख       तहकापार ताम्रलेख             कांकेर लेख
 
सिंहराज                         -                                -                                 सिंहराज 
     ।                                                                                                       । 
वाघराज                     वाघराज                          -                                   व्याघ्र 
     ।                                                                                                       । 
वोपदेव                          -                            वोपदेव                               वोपदेव 
     ।                                                              ।                                       । 
कर्णराज                         -                         सोमराज                                कृष्ण 
                                                                                                            
(1191 ईस्वी)                   -                         पम्पराज                              जैतराज 
                                                              (1213 ईस्वी)                              । 
                                                                     ।                                        । 
                                                                 बोपदेव                               सोमचन्द्र 
                                                                                                               । 
                                                                                                           भानुदेव 
                                                                                                        (1320 ईस्वी)

पाद टिप्पणियां-

(1) कलचुरि पृथ्वीदेव (द्वितीय) के राजिम शिलालेख में काकयर, गुरुर के बाघराज के स्तंभ लेख में काकरय और कर्णराज के सिहावा लेख में काकैर।
(2) एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 182 इत्यादि; हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, कमांक 182।
(3) इंडियन एक्टिक्वरी, 1926, पृष्ठ 44, हीरालाल की सूची, द्वितीय संस्करण, क्रमांक 235।
(4) एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द नौ, पृष्ठ 166 इत्यादि हीरालाल की सूची, क्रमांक 300, 301, कार्पस इन्सक्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार, पृष्ठ 596-599, 599-602।
(5) कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम्, चार।
(6) एपि. इं., जिल्द नौ, पृष्ठ 123 इत्यादि, हीरालाल की सूची, क्रमांक 299; उत्कीर्ण लेख पृष्ठ 152 इत्यादि।



यह लेख संभवतः महाकोशल इतिहास परिषद की पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। लेख, अन्यथा महत्व के साथ-साथ बालचन्द्र जी की सहज-सपाट अनूठी शैली का भी नमूना है।

Friday, August 27, 2021

देवबलौदा - लक्ष्मीशंकर

देवबलौदा का कलचुरि कालीन शिव मंदिर
लक्ष्मीशंकर निगम

रायपुर और भिलाई के मध्य स्थित एक छोटा सा रेल्वे स्टेशन है, ‘चरौदा देवबलौदा‘। चरौदा रेल्वे का विस्तृत यार्ड है, किन्तु देवबलौदा निकटस्थ स्थित एक ग्राम का नाम है। देव बलौदा का छत्तीसगढ़ के कला एवं स्थापत्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां एक छोटा, किन्तु अत्यंत कलात्मक कलचुरि कालीन शिव मन्दिर स्थित है। रायपुर-भिलाई मार्ग पर, चरौदा से २-३ किलोमीटर पहले दक्षिण की ओर रेल्वे मार्शलिंग यार्ड हेतु मार्ग है। इसी मार्ग से लगभग ३ किलोमीटर जाने पर देव बलौदा पहुंचा जा सकता है।

देव बलौदा के इस प्राचीन मन्दिर के निर्माण से सम्बंधित अनेक किवदन्तियां प्रचलित हैं। इस कथा के अनुसार देव बलौदा और आरंग का मन्दिर एक ही स्थपति (Architect) द्वारा निर्मित किया गया था। जब दोनों मन्दिरों का निर्माण पूर्ण हो गया तब एक मन्दिर के शिखर पर स्थपति चढ़ गया तथा दूसरे मन्दिर के शीर्ष-भाग में स्थपति की बहन। वस्तुतः एक औपचारिक अनुष्ठान की प्रक्रिया के अन्तर्गत मन्दिरों की शीर्ष भाग में निःवस्त्र होकर पहुंचना था। मन्दिरों की ऊंचाई के कारण दोनों ने एक दूसरे को निःवस्त्र देखा और शर्म एवं पश्चाताप के कारण दोनों मन्दिरों के शिखर से कूद पड़े तथा पाषण में परिवर्तित हो गये। इनमें से आरंग का मन्दिर जैन मन्दिर है तथा भाण्ड देवल के नाम से प्रसिद्ध है, दूसरा मन्दिर देव बलौदा का शिव मदिर है। दोनों मंदिर भिन्न-भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बंधित है, अतः एक स्थपति द्वारा निर्माण किये जाने का उल्लेख उपयुक्त प्रतीत नही होता।

उपरोक्त किवदन्ती के कथानक में थोड़ी सी विभिन्नता भी मिलती है। एक जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में वनसूकर उत्पात मचाया करते थे, यहां रहने वाले उक्त शिल्पी के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि इसे ‘शिव क्षेत्र‘ में परिवर्तित करना चाहिए। इस प्रकार वह शिव मंदिर के निर्माण में समर्पित हो गया, अन्ततः उसका लक्ष्य पूरा हुआ। निर्माण कार्य के समय, उसकी एक मात्र बहन उसकी सेवा में संलग्न रही। एक दिन उक्त स्थपति ने मंदिर के शिखर में कलश चढ़ाने का मुहूर्त निकाला। उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुए कि ईश्वर और उनके बीच पावनता में वस्त्र क्यों बाधक बनें। अतः वह निःवस्त्र होकर मंदिर के शिखर में स्वर्ण कलश सहित पहुंचा। इसी समय स्थपति की बहन, भाई के लिए भोजन लेकर पहुंची। तेज सूर्य रश्मियों के मध्य स्वर्ण कलश स्वयं सूर्य जैसा प्रकाशित हो रहा था उसके निकट कलश चढ़ाने को तत्पर शिल्पी खड़ा था। अचानक बहन को देख कर, अपनी निःवस्त्रता पर उसे ग्लानि हुई और मंदिर के निकट तालाब में वह कूद गया। एक मात्र भाई को मृत्यु का दुःख उसकी बहन सहन न कर पाई और वह भी तालाब में कूद पड़ी और दोनों पाषाण में परिवर्तित हो गए। एक अन्य जनश्रुति भी इस मंदिर के सम्बन्ध में प्रचलित है, जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण एक ही रात्रि में किए जाने का उल्लेख है।

स्थापत्य एव कला की दृष्टि से यह मन्दिर उत्तरी भारत के अन्य मंदिरों के सदृश्य है। भू-विन्यास (Ground Plan) के अंतर्गत मण्डप, अन्तराल एव गर्भगृह निर्मित है। गर्भगृह (जहां देव प्रतिमा अथवा शिवलिग स्थित रहता है), का बाह्य भाग वर्गाकार है तथा प्रत्येक ओर १३ फीट है। मण्डप, स्तभों पर आधारित है तथा खुला हुआ है, इसकी लम्बाई २२ फीट १ इन्च है। गर्भगृह और मण्डप के मध्य भाग को अन्तराल कहा जाता है, यह ३ फीट ५ इंच चौड़ा है। इस प्रकार मंदिर ३९ फीट लम्बा और २९ फीट चार इंच चौड़ा है। मंदिर का शिखर ध्वस्त हो चुका है, १८८१-८२ में यहां आये भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक अलेक्जेंडर कनिंघम ने इसकी ऊंचाई लगमग ४० फीट उल्लिखित की है। पुराने गजेटियर के एक चित्र में मंदिर का शिखर दिखाई पड़ता है। मंदिरों में सामान्यतः एक ही प्रवेश द्वार होता है जो पूर्व दिशा की ओर स्थित रहता है। सूर्य की प्रथम किरणें मदिर प्रवेश करें, यही इसका प्रमुख उद्देश्य होता है। यहां पूर्व दिशा में प्रवेश तो है ही, साथ ही एक अन्य प्रवेश द्वारमण्डप के उत्तर दिशा में निर्मित किया गया है जो संलग्न तालाब की ओर खुलता है। यह तालाब ६० फीट लम्बा तथा ५२ फीट चौड़ा है, जिसके चारों ओर पाषाण के सोपान बने हुए हैं।

मण्डप, भूमि सतह से ४,१/२ फीट ऊंचा है, जबकि मण्डप से अन्तराल होते हुए गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए चार सीढियां नीचे उतरना पड़ता है, इस आधार पर कनिंघम महोदय ने मत व्यक्त किया है कि मन्दिर का निर्माण दो चरणों में किया गया है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने गर्भगृह तथा मण्डप को वाह्य भित्तियों में अंकित कला वैष्णव और शैव देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई हैं। विष्णु के विभिन्न अवतारों में से नृसिंह, वाराह, वामन तथा कृष्ण का अंकन मिलता है। शिव का विविध रुपों में अंकन के साथ ही गणेश तया महिषासुर मर्दिनी का चित्रण भी मिलता है। इन प्रतिमाओं के अंकन में कलात्मकता के साथ प्रतिमा लक्षणों का प्रयोग सम्यक रुप से किया गया है। गर्भगृह को दक्षिणी दीवार में अंकित एक प्रतिमा का उल्लेख कनिंघम ने अष्टभुजी देवी के रुप में किया है। इस प्रतिमा को कनिंघम के मत का अनुकरण करते सभी विद्वानों ने अप्टभुजी देवी माना है। वस्तुतः यह देवी प्रतिमा नहीं बल्कि यहां शिव के गजासुर-वध का चित्रण किया गया है, जिसमें शिव को ऊपरी दो हाथों से हाथी को सिर के ऊपर उठाए हुए प्रदर्शित किया गया है।

मंदिर की बाह्य दीवारों में तत्कालीन जन-जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक दृश्यों का अंकन परिलक्षित होता है। शिकार से सम्बन्धित अनेक दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है। सूकर तथा हिरण पर कुत्तों द्वारा आक्रमण करने का चित्रण अत्यंत स्वाभाविक ढंग से किया गया है। नृत्य, और मिथुन मूर्तियां अत्यन्त सुन्दर उत्कीर्ण की गई हैं। एक स्थान पर राजकीय शोभा-यात्रा का चित्रांकन है, जिसमें राजा छत्र सहित प्रदर्शित है।

मंदिर के मण्डप में स्थित स्तंभ, अत्यन्त कलात्मक तथा चमकदार हैं। इसमें विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का चित्रण किया गया है। स्तंभों के कीर्तिमुखों को विशेष महत्व का कहा जा सकता है। विभिन्न स्तंभों में अंकित कीर्तिमुख, शिल्पी के प्रखर कल्पना-शक्ति तथा कला कौशल से परिचित कराती है। कीर्तिमुखों के चित्रण में किसी भी आकृति की पुनरावृत्ति परिलक्षित नहीं होती। गर्भगृह का द्वार पारम्परिक कला से युक्त है। इसके ऊपरी भाग के मध्य में गणेश के अंकन से ज्ञात होता है कि यह मंदिर शिव को समर्पित किया गया था।

मंदिर के सामने शिव मंदिरों की परम्परा के अनुसार नन्दी की एक प्रतिमा मिलती है, इसके अतिरिक्त कई लेखविहीन सती स्तंभ मिलते हैं, जो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व को प्रदर्शित करते हैं।

देवबलौदा की स्थिति छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण नगर रायपुर और औद्योगिक तीर्थ भिलाई के मध्य है, फिर भी सामान्यजनों को स्थापत्य के इस उत्कृष्ट उदाहरण के विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है। रायपुर-भिलाई के बीच तेजी से विकसित होते आवागमन एवं व्यापारिक सम्बन्ध के बीच यदि कुछ समय मनोरंजन एवं पर्यटन के लिए निकाला जावे तो उसमें इस मंदिर के भ्रमण को सम्मिलित किया जाना सर्वथा उपयुक्त कहा जा सकता है। रायपुर-भिलाई पर्यटन योजना बनाकर, उसमे नंदनवन, देवबलौदा, मैत्रीबाग और भिलाई इस्पात संयंत्र को सम्मिलित किया जा सकता है। वर्तमान में देव बलौदा का परिचय देते हुए एक बोर्ड जी.ई. रोड में लगाया जाना चाहिये, जिससे इसके विषय में लोगों को पर्याप्त जानकारी मिल सके।

मंदिर से लगे तालाब को विकसित एवं सुन्दर बनाने हेतु प्रयास के साथ ही, बैठने की व्यवस्था सहित एक छोटा सा उद्यान निर्मित किया जावे, तो यह स्थान एक ओर प्राचीन गौरव और वैभव को प्राप्त करेगा वहीं दूसरी ओर पर्यटकों को पर्याप्त रूप से आकर्षित भी करेगा।


यह लेख भिलाई की संस्था ‘समता‘ की स्मारिका, सन 1986 में प्रकाशित हुआ था।


Tuesday, August 24, 2021

शिव

प्रतीकों के देवः शिव

फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी अर्थात महाशिवरात्रि वह दिवस है जब ब्रह्माण्ड स्वरूप शिवलिंग का आविर्भाव हुआ था। कुछ मतों के अनुसार यह वह दिन है जिस दित से पार्वती ने शिव प्राप्ति के लिये एक पैर पर खड़े होकर अपनी तपस्या प्रारंभ की थी। अन्य मतों के अनुसार यही शिव और पार्वती का परिणय दिवस है। विभिन्न मतमतांतरों का इस बात पर भले ही मतैक्य न हो कि शिवरात्रि क्यों मनाई जाती है, किन्तु महाशिवरात्रि के दिन देवाधिदेव शिव की पूजा और उपवास के फल पर वे सभी अवश्य मतैक्य हैं।

शिव की मूर्तियों के बदले शिव-लिंग की पूजा होते देख सभी धर्म-सम्प्रदाय के अनुयायियों को अवश्य उत्सुकता होती है। शिवलिंग की पूजा के विभिन्न कारण प्राचीन धर्म-ग्रंथों में प्राप्त होते हैं, इसके लिये पद्मपुराण में जो कथा है, वह इस प्रकार है-

कल्प के आरंभ में शंकर दो बार अभिशापित हुए हैं, कि आपकी मूर्ति के बदले लिंग और योनि की पूजा लोक में प्रचलित होगी। पहली बार तब, जब त्रिमूर्ति में कौन सबसे अधिक पूज्य और श्रेष्ठ है, इस बात की परीक्षा के लिये भृगु ऋषि कैलास पर्वत पर गये परन्तु द्वार पर नन्दीगण ने उन्हें यह कहकर रोका कि पार्वती-महेश्वर विहार में हैं, और जब ब्रह्मा की सभा में भगवान शंकर, दक्ष के सम्मान में उठ खड़े नहीं हुए तब भी भृगु जी रुष्ट हुए परिणामतः उन्हें दूसरी बार यह शाप मिला।

दूसरी कथा लिंग-पुराण, शिव-पुराण और स्कन्द पुराण में मिलती है, जो इस प्रकार है- एक बार विष्णु और ब्रह्मा में महानता को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ, विवाद की अवधि में ही एक प्रचण्ड ज्योर्तिमय लिंग, जो अनादि अनन्त था, प्रकट हुआ। दोनों देवताओं ने तय किया कि जो इसका अंत पा लेगा, वही महान होगा। फलस्वरूप विष्णु, वराह रूप में नीचे और ब्रह्मा, हंस रूप में ऊपर गये, दस हजार वर्ष परिश्रम के बाद वे दोनों थककर लौट आये किन्तु ब्रह्मा के कहने पर शंकर के समक्ष केतकी के एक फूल ने झूठी गवाही दी कि ब्रह्मा, लिंग के अग्रभाग का पता लगा आये। तब शंकर ने केतकी को शाप दिया कि लिंगार्चन में केतकी का फूल न बरता जायेगा। इसी ज्योर्तिलिंग की स्थापना करके, प्रजावृद्धि के पवित्र प्रयोजन को स्मरण दिलाने के लिये, उसकी पूजा की जाती है। नये मतों के अनुसार लिंग की पूजा का अन्य अर्थ बतलाया जाता है, लिंग का तात्पर्य लक्षण या चिह्न, अतः लिंग पूजा अर्थात लक्षणों या प्रतीकों के सहारे पूजा, स्वयं शिवलिंग के अलावा शिव की पूजा में कई प्रतीक प्रयोग होते हैं।

लिंग को विभिन्न कारणों का प्रतीक माना गया है यह पूरी प्रतिमा शिव लिंग और पार्वती की योनि (स्कन्दपुराण के अनुसार आकाश और पृथ्वी) का प्रतीक है, प्रतिमा आदि शक्ति पार्वती और परम शक्ति शिव के सम्मिलन का प्रतीक है, यह सृष्टि की उत्पत्ति का भी प्रतीक माना जाता है। यह अशुभ के नाश का भी प्रतीक है, क्योंकि तारकासुर ने वरदान लिया था कि मैं शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के ही हाथों मारा जाऊं, किन्तु शिव समाधि में थे, पर देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने तारकासुर वध के लिये पुत्र उत्पन्न किया जो तारकासुर की मृत्यु का कारण बना।

‘शिव‘ नाम भी एक प्रतीक ही है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है शुभ मंगल, यदि शिव को ‘शव‘ धातु से व्युत्पन्न माना जाय तो इसका अर्थ होगा, ‘निद्रित होना‘ या जिस अवस्था में वासनाएं सो जाती हैं वह ‘शिव की अवस्था‘ है। मांडूक्योपनिषद में इस अवस्था को ‘चतुर्थ‘ कहा गया है। सामान्य मनुष्य जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, इन तीन अवस्थाओं का अनुभव प्रतिदिन करता है पर केवल साधना से परिशुद्ध योगी ही सिद्धि की दशा में इस चतुर्थ अवस्था ‘तुरीय‘ का उपभोग कर सकता है, यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था है।

शिव का श्मशान से संबंध भी प्रतीक रूप में हैं, ‘श्मशान‘ अर्थात संसार या मृत्युलोक, जहां शंकर का वास होने से सांसारिक नीच मनोवृत्तियां भस्म हो जाती है। शिव जो ‘मुण्डमाल‘ गले में धारण किये रहते हैं वह मृत्यु की याद दिलाकर वैराग्य को उत्पन्न और पुष्ट करता है। उनका ‘विषपान‘ और ‘गंगावतरण‘ आत्मत्याग और दूसरों के कल्याण की सीख देता है। इसी तरह वृषभ (शिव का वाहन) इस बात का प्रतीक है कि वे जीवभाव पर सवारी करते हैं जीव के स्वामी शिव ही है अतः उन्हें ‘पशुपति‘ नाम भी दिया गया है। ‘महाकाल‘ सर्ग के आरंभ में प्रकृति और पुरुष को जोड़ता है तथा प्रलय के समय उन्हें पृथक करता शिव का ‘डमरू‘ सापेक्ष समय का एवं ‘सर्प‘ काल का प्रतीक है। शिव महाकाल के रूप में समय के इन दोनों विभागों पर शासन करते हैं। अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी, इन पंचभूतों के शासक होने के कारण भूतनाथ हैं।

इसी तरह डमरू, गंगा, चंद्रमा, सर्प और त्रिशूल, पंचभूतों का प्रतीक है। ‘त्रिनेत्र‘ कर्म, उपासना और ज्ञान का ‘त्रिशूल‘ के तीन फल श्रवण, मनन और निदिध्यासन के, पांचों मुख ईशान (स्वामी), अघोर (निन्दित कर्म का शुद्धिकरण) तत्पुरुष (आत्मा में स्थिति लाभ), वामदेव (विकार नाशक) और सद्योजात (बालक की तरह परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार), के तथा ‘बिल्व पत्र‘ के तीन दल सत्व, रज और तम चित्त रूप के प्रतीक है, जिन्हें शिव पर चढ़ाने से जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन अवस्थाओं से युक्त जन्म का नाश हो जाता है और मुमुक्षु तुरीय की चतुर्थ अवस्था में पहुंचकर मुक्त हो जाता है। इन सब प्रतीकों के स्वामी महादेव शिव की कृपा कितनी आसानी से प्राप्त हो सकती है, शिव पूजा का क्या महत्व है? तथा उनकी पूजा किस तरह की जा सकती है? निम्नलिखित श्लोक में इन्हें स्पष्ट किया गया है-
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयामुधम। त्रिजन्मपाप संहारं एक विल्वं शिवार्पण्।।

यह लेख 7 मार्च 1978 को रायपुर से प्रकाशित दैनिक ‘नवभारत‘ समाचार पत्र में छपा था। संभवतः मेरा लिखा पूरे आकार का यह पहला प्रकाशित लेख है। तब मेरी आयु बीस पूरी नहीं हुई थी। रायपुर विवेकानंद आश्रम के छात्रावास में रहता था, साधु-संतों की वाणी और समृद्ध पुस्तकालय का लाभ सहज सुलभ था। छपने पर स्वामी आत्मानंद जी महराज से शाबासी भी मिली। मेरे लिए तो यही बहुत था कि उनकी नजर से यह गुजरा है। उन दिनों नवभारत में लेख छपना, यानि क्या कहने। प्रेस, अखबार, और उसके पत्रकार-लेखक और संपादक के साक्षात अस्तित्व से, गोविंदलाल वोरा जी, बबन मिश्र जी, रामअधीर जी से मिल कर, पहले-पहल परिचय हुआ। प्रेस में मशीन की आवाज, स्याही और कागज की मिली-जुली महक और माहौल से पहचान बनी। प्रूफ-रीडिंग और कलम घिसाई, होते देखा। लिखना-छपना, इसके बाद धीरे-धीरे अजनबी नहीं रहा।

Wednesday, August 18, 2021

संस्कृति की बपौती

अंग्रेजी का शब्द है लेगैसी, जिसका अर्थ, पैतृक संपत्ति होता है और बोलचाल में बपौती। इन दिनों संस्कृति विभाग, बपौती के लिए चर्चा में है। इसलिए प्रसंगवश कुछ बातें याद आ रही हैं। संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थापित-संचालित है और यह लगभग 150 साल पुरानी संस्था, हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के साथ सरकार को जोड़े-जुड़े रहने का केन्द्र है। इसलिए संस्कृति विभाग और यह संग्रहालय, दोनों एक-दूसरे के पर्याय की तरह देखे जा रहे हैं।

यहां इस भवन-संस्था की परंपरा, इतिहास और ‘बपौती‘ पर कुछ बातें। रायपुर शहर का एक पुराना नक्शा सन 1868 का है, जिसमें वर्तमान महाकोशल कला वीथिका, अष्टकोणीय भवन को म्यूजियम दर्शाया गया है। उस भवन के साथ एक शिलालेख हुआ करता था, जो अब वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय के प्रवेश पर लगा है। इसमें लेख है कि ‘सन् 1875 ईसवी में तामीर पाया बसर्फे महंत घासीदास रईस नांदगांव‘। यह छत्तीसगढ़ के गौरव का अभिलेख है।

देश में सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना जाता है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए।

सन 1953 में इस नये भवन का उद्घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। इस संस्था का पूरा क्षेत्र, मूलतः वर्तमान परिसर के अतिरिक्त गुरु तेग बहादुर संग्रहालय व हॉल, साक्षरता बगीचा, भी था। सन 1956 में मध्यप्रांत और बरार का पुनर्गठन हुआ और मध्यप्रदेश बना। इस नये प्रदेश के शासकीय डेढ़ मुख्यालय रायपुर में हुआ करते थे। एक संचालनालय ‘भौमिकी एवं खनिकर्म‘ और संचालनालय ‘पुरातत्व एवं संग्रहालय’ का आधा हिस्सा, संग्रहालय, रायपुर में रहा। रायपुर संग्रहालय में तब बंटवारे के फलस्वरूप, मध्यप्रदेश हिस्से के और विशेषकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पुरावशेष, जो नागपुर संगग्रहालय में थे, रायपुर संग्रहालय में आ गए। आज भी संग्रहालय में जबलपुर-कटनी अंचल के कारीतलाई, बिलहरी की कलाकृतियां संग्रहित, प्रदर्शित हैं। पूरे देश में मिलने वाले सिक्कों के दफीने का एक निश्चित हिस्सा बंटवारे में इस संग्रहालय का मिलता था।

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंद कृष्ण जी रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए।

इस संस्था को पुरातत्व, संगीत, साहित्य, कला के मर्मज्ञ संस्कारित करते रहे हैं। देश के मूर्धन्य विद्वान शोध-अध्ययन, संगोष्ठी, प्रदर्शन के लिए यहां पधारते रहे हैं, जिनकी उपस्थिति से यह संस्था संस्कारित होती रही है, जो अब क्षीण हो रही है। स्थानीय महानुभावों में सर्व आदरणीय रामनिहाल शर्मा, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, लक्ष्मीशंकर निगम, गुणवंत व्यास, वसंत तिमोथी, सरयूकांत झा, केयूर भूषण, बसंत दीवान, पीडी आशीर्वादम, राजेन्द्र मिश्र, यदा-कदा विनोद कुमार शुक्ल जैसे नाम हैं, जिनका रिश्ता इस संस्था से बना रहता था। वे संस्था की बेहतरी के लिए पहल करते थे और बदले में उनकी पूछ-परख होती थी। राज्य गठन के बाद अपने रायपुर प्रवास पर हबीब तनवीर इस संस्था के लिए समय अवश्य निकालते थे, जिनकी जयंती मनाए जाने के प्रसंग में ‘बपौती‘ की अवांछित स्थिति चर्चा में है।

इस संस्था से जुड़े विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। विभाग के कई अल्प वेतन भोगी सदस्य रहे हैं, जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश, चंदराम, कमल, लताबाई, फेंकनबाई, तिरबेनी बाई ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने इस संस्था की परवाह, अपनी बपौती से भी अधिक मान कर की है, इसे सहेजा है।

रायपुर संग्रहालय के पुरावशेषों का पिछले कई वर्षों से वार्षिक भौतिक सत्यापन, पंजियों-नस्तियों के आधार पर नहीं हुआ है, जो संग्रहालय प्रबंधन की बुनियादी आवश्यकता है। राज्य के 150 वर्ष पुराने इस संग्रहालय से वस्तुएं गुम होने की शिकायत विभाग के अधिकारियों द्वारा हुई है, इसके बावजूद भी इसकी जांच एवं भौतिक सत्यापन नहीं कराया जा सका है। उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में 15000 से भी अधिक बहुमूल्य पुरावशेष संग्रहित हैं, जिनकी ठीक पहचान और मिलान के लिए वर्तमान में कुछ ही पूर्व अधिकारी और विशेषज्ञ रह गए हैं, जो इसकी भरोसेमंद ढंग से पहचान और पुष्टि कर सकते हैं।

देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक रायपुर का यह महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय अब तक इंटरनेशनल कौंसिल आफ म्यूजियम्स, इंडिया (आइकॉम) का सदस्य नहीं है। राज्य के पुरातत्व और प्राचीन कला-संस्कृति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियमित और प्रभावी उपस्थिति के लिए यह आवश्यक है, जिसके अभाव में अत्यंत महत्वपूर्ण और पुरानी संस्था होने के बावजूद भी यह संग्रहालय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान में पिछड़ जाता है। आइकॉम, इंडिया की सदस्यता, संक्षिप्त कागजी औपचारिक कार्यवाही से ली जा सकती है, इसमें कोई वित्तीय प्रशासकीय अतिरिक्त भार नहीं होगा।

वर्तमान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व तथा संस्कृति भवन (कुछ वर्षों से ‘गढ़ कलेवा‘ वाला!) के रूप में जाना जाता है। ध्यान रहे की मूर्तियां मौन होती हैं, शिकायत नहीं करतीं, इसलिए उनकी देखरेख के लिए अधिक संवेदनशीलता, समझ और खुली-सजग निगाहों की जरूरत होती है। अपनी जिम्मेदारियों के सम्यक निर्वाह के लिए यह पता रहना और याद करते रहना आवश्यक होता है कि हम किस विरासत-लेगैसी के धारक-संवाहक हैं, इसकी गुरुता ही कर्तव्य-निर्वाह का उपयुक्त मार्ग प्रशस्त करती है। यह संग्रहालय-संस्कृति भवन, राज्य के साथ हम सबकी ऐसी बपौती है, जिसे यथासंभव बेहतर बना कर और नहीं तो कम से कम यथावत, अगली पीढ़ी को सौंपने की परवाह बेहद जरूरी है।

यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़‘ सांध्य दैनिक अखबार में 16 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुआ।


Saturday, August 14, 2021

ककहरा

संस्कृत-हिंदी भाषा के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला पर ध्यान जाने पर लगता रहा कि ‘अक्षर कोश‘ जैसा भी कुछ होता है?, तलाश करते ठीक-ठीक वैसा कुछ मिला नहीं, जैसा सोचता/चाहता था और इसका कारण समझ में आया कि मैं क्या सोचता/चाहता हूं, शायद ठीक-ठीक मुझे मालूम ही नहीं। संभव है कि कहीं ऐसा कुछ हो और मुझे जानकारी न हो। इस तरह शुरू हुआ, अक्षर और ध्वनि का संबंध और उसके आशय समझने का मनमाना प्रयास।

यह भी ध्यान में आता रहा कि कोई अक्षर, दूसरे किस अक्षर में बदलता है, स-च-छ या ड़-ळ-ल-र या व-ब, य-ज आदि एक तरफा होता है या दोतरफा। छत्तीसगढ़ी में पाषाण-पत्थर के लिए पखना और पथरा, दोनों शब्द प्रचलन में हैं। यह रोचक उदाहरण है। पखना में ष का ख और ण का न बना है। और पाषाण, पत्थर-पाथर होते हुए पथरा तक आता है। लक्ष्मण का लखन, लषन तो अलट-पलट होता ही रहता है। शत्रुघ्न का सतरोहन, विभीषण का भभीछन, सरस्वती का सुरसती, द्रौपदी का दुरपती, यशोदा का दसोदा, त्रियुगी का तिरजुगी, अंबिका का अमरीका, योद्धा का जोइधा और दुर्याेधन का जिरजोधन हो जाना, पक्षी Black-winged Kite (या कभी Falcon, Shikra को) संस्कृत का सञ्चाण, सञ्चान, सचान, सिचान, सइचान, छत्तीसगढ़ी में छछान या छछांद है और इसी तरह वटसावित्री से बरसाइत, रथयात्रा यानि रथद्वितीया से रजुतिया और जीवितपुत्रिका का जिउतिया आसानी से हो जाता है। आग का पर्याय वैदिक अंगिरा, छत्तीसगढ़ी का अंगरा या अगरिया जनजाति में सुरक्षित है। इस तरह बोलियों में प्रयुक्त उच्चारण और बदल गए शब्द इसमें मददगार होते हैं।

भाषा-ध्वनि, उच्चारण-भेद में मुख-सुख के अलावा अन्य कारकों को उदाहरण के माध्यम से समझने के लिए छत्तीसगढ़ी में प्रचलित दो शब्दों पर ध्यान जाता है- ‘छुछु‘ और ‘दुदी‘ या ‘दूदी‘। स्कूल की पढ़ाई पहली कक्षा से आरंभ होती थी, मगर शाला में नियमित प्रवेश के पहले बच्चों को प्री-स्कूल के लिए भेजा जाता था, उनकी कक्षा ‘छुछु पहली‘ होती थी। छुछु में स्पष्ट है, शिशु के दोनों श का छ हो गया है और पहली इ की मात्रा उ में बदल गई है। शिशु का छिछु से आगे छुछु होने का कारण संभव है कि छि-छु (छि-छि, शु-शु), मल-मूत्र के करीबी पर्याय शब्द हैं। इसी तरह दूसरा शब्द दुदी है, यह दो-दो के लिए प्रयुक्त होता है। स्वाभाविक और अभ्यास से विकसित छत्तीसगढ़ी के फर्क के लिए दुदु/दुदी, ‘की-वर्ड‘ जैसा भी है। दो, छत्तीसगढ़ी में दू है और स्तन के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द दूध से बाल-तोतलेपन के अनुरूप दुधु से दुदु हो जाता है। दो-दो कहना हो तो यों दू-दू कहा जाएगा, लेकिन इसका आशय स्तन हो जाता है, इसलिए स्वाभाविक छत्तीसगढ़ी अभ्यासी इसे ‘दुदी‘ कहता है। यहां शिशु-छुछु के पहले शब्द में इ की मात्रा उ हुई है तो दुदु में दूध की पहली मात्रा दीर्घ से ह्रस्व फिर दूसरा शब्द ध सरल हो कर द हुआ है और उस पर उ की मात्रा, शायद मुख-सुख के कारण नहीं, बल्कि लोक-लाज के कारण उ का ई होता है।

भाषा शास्त्र, ध्वनि विज्ञान के शास्त्रीय अध्ययन के बिना सहज रूप से इसे कैसे और कितना समझा जा सकता है। धातु रूप, संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश (इंडो-आर्यन, इंडो-यूरोपियन, विदेशी भाषाओं सहित, उदाहरणार्थ- फादर, फ्योदोर, पितर, पिता या मदर, मातर, मातृ, माता, मादर, आदि।) इसमें किस तरह सहायक होंगी। जैसमाइन का जैस्मिन होते हुए यास्मीन हो जाना और यशोमति का यश, ज्यों दस-मत कइना, कैना/ओड़निन या जस्मा ओड़न तक विस्तार। भारतेन्दु का ‘इशुखृष्ट और ईशकृष्ण‘ शीर्षक लेख है, जिसमें लिखा है- ‘गोब्रिल (जिबरईल) गरुड़ का अपभ्रंश है। हमारा चन्‍द्रगुप्‍त, यूनानी सेण्‍ड्रॉकोट्टस बनता है तो मूल यूनानी अलेक्जेंडर, अलिकसुंदर, अलीकचन्‍द्र, अलेक्सांद्र, अलक्षेन्द्र, इस्कंदर होते हुए फारसी उच्चारण सिकंदर बनता है। ... दिव धातु से देववाची शब्द संसार में प्रसिद्ध है। भारत के इन्द्र देव वे देवेन्द्र और यूनान में दिवस या जियस।‘ इस पर याद आता है- देउस पितर, ज्यूपिटर, हमारे वृहस्पति, देव गुरु। जब मैंने जाना कि उपाध्याय ही घिसकर झा रह जाता है तो पहले-पहल विश्वास नहीं हुआ, फिर दिखाया गया कि उपाध्याय से उपझाय से ओझा से झा, तो लगा कि यह कितना सहज, स्वाभाविक है। इसी तरह मार्जन से समझने में मदद मिली कि मार्जन से मज्जन, मंजन होते मांजना बन जाता है।

संस्कृत चमत्कारों में वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन क्रम से और सार्थक, का यह प्रयोग मिला- कःखगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोैटौठीडढणः। तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोरिल्वाशिषां सह।। और फिर ‘वन्दे वाणीविनायकौ‘ में जाना कि विनायक अर्थात् विनयन, विशिष्ट नयन, ले जाने, पहुंचाने वाले हैं। तो इन विनायक के स्मरण के साथ सोचते हुए कि क्या वाणिज्य को बनिया-बनिए, बनता देख इसमें वाणी को भी अंटाया जा सकता है। यह सब उमड़ता-घुमड़ता रहा, बहुत सारा उल-जलूल जमा होता गया, तो उसे व्यवस्थित कर, अपने सवाल, अपनी जिज्ञासा, नासमझी को स्वयं समझने का परिणाम है ये टूटे-फूटे शब्द-

क- करना, कर-हाथ, क्रिया, काम, कल, काल-समय, कड़कड़ाहट, कर्कश-ध्वनि
ख- खाली, खोल, खोली, खोखला, खक्खी, शून्य, आकाश
ग- गमन, गति, गत
घ- घात, नुकसान, घटना, घर, घना
च- चर्वण, चबाना, चक्की, निश्चय, खचित, जाबेच्च, और
छ- छेद, छिद्र, छत, छाया, छाप, छतरी
ज- जन्म, पैदा, उत्पन्न
झ- झकझोर, हिलना, झाड़ना, झूलना, लटकना, झूला, झंडी, झालर, झंझावात
ट- टूटना, टुकड़ा, टीका
ठ- स्थिर, जड़, ठहरना, ठांव (ठग?)
ड- डोलना, डगमग, डर, उत्तेजना, डीह, डिपरा, डुगू, ऊंंचा, उभरा हुआ, असमान स्तर
ढ- ढकना, ढक्कन, ढलना, ढलान, ढाल
त- तोलना, तरल, तट, तल, तिरोहित, ताप, तराजू, तिरना, तैरना, पानी
थ- थमना, थामना, स्थिर, पृथ्वी, थक्का
द- देना, दान
ध- धन, धर्म, धारण, धरती
न- नकार, निषेध
प- पानी, पतला, पतला, पत्र, पत्ता, पतित, पांव, तुच्छ, पति, पालन
फ- फूलना, फल, फूल, फैलना
ब- बाग, बगरना, फूलना, फैलना
भ- भाग, भवन, भंडार, भाड़, भंग, भग, भरका, भोंडू, भोंगरा (छेद/गड्ढा) भजन, भंजन, भरा
म- मत्सर, मछली, मन - चंचल
य- यान, यज्ञ, यति... ?
र- रज्जु, राह, राग- सिलसिला, टेढ़ा-मेढ़ा, लहरदार
ल- लपट, लहर, लपलपाना, तरल, चल- अस्थिर, दृष्टि, लोचन, आलोचना, LOOK-लोक, अवलोकन, लंबा, लट्ठ
व- वर, वधू, वरण, खास, विद्या, वीक्षण ... ?
श- शांत
ष- छह
स- साथ, सहित, संबद्घ- जुड़ा हुआ
ह- हवा, हलचल, हिलना
क्ष- क्षत, नष्ट होना, विघटित, अभौतिक, अदृश्य, भेदक, सरल रेखा
त्र- तीन, त्राण, पात्र
ज्ञ- जानना

टीप-समझ अनुसार इसमें जोड़-घटाव करता रहूंगा। फिलहाल बस श्रीगणेश ...

Friday, August 13, 2021

बस्तर - नरेशकुमार

बस्तर के प्राचीन इतिहास और पुरातत्व का सर्वेक्षण-अध्ययन कर उजागर करने में राज्य पुरातत्च विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले श्री सोबरन सिंह यादव, डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल और बाद के श्री जगदेवराम भगत तथा अमृतलाल पैकरा, पूरे बस्तर संभाग के पुरातात्विक स्थलों की जानकारी इकट्ठी कर संजोते रहे। श्री अरुण कुमार शर्मा के नेतृत्व में श्री प्रभात कुमार सिंह और श्री प्रवीण तिर्की ने ढोलकल गणेश का संयोजन-उपचार और पुनर्संयोजन के चुनौती भरे काम को अंजाम दिया। श्री गिरधारी लाल रायकवार, स्वयं मूलतः बस्तर निवासी हैं, उनकी भूमिका लाभान्वित करती रही। श्री वेदप्रकाश नगायच ने कुटरू, नुगरू, इंचमपल्ली, बोधघाट परियोजना से जुड़े क्षेत्रों का गहन सर्वेक्षण किया। मुझे पोलावरम परियोजना से संबंधित कोन्टा क्षेत्र के प्रभावित होने वाले अंचल के सर्वेक्षण का अवसर मिला और बस्तर के प्राचीन स्मारकों की फोटोग्राफी तथा गढ़ धनोरा और भोंगापाल स्मारक-टीलों को उद्घाटित करने की परियोजना में काम करने का अवसर मिला। डॉ. नरेश कुमार पाठक अपनी पदस्थापना के दौरान जिन क्षेत्रों में रहे, उससे संबंधित विपुल लेखन किया, उसी का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है।

बस्तर - इतिहास एवं पुरातत्व
मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्व में स्थित बस्तर सम्भाग १७.४६‘ से २०.३४‘ उत्तरी अक्षांश और ८०.१५‘ से ८२.१‘ पूर्वी देशान्तर क बीच स्थित है। इसके पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में महाराष्ट्र, दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश और उत्तर में मध्यप्रदेश राज्य के रायपुर और दुर्ग जिलों की सीमायें स्पर्श करती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ३९१७१ वर्ग किलोमीटर है। इस जिले का गठन सन् १९४८ में रियासतों के विलीनीकरण के समय बस्तर एवं कांकेर रियासतों को मिलाकर किया गया था। इसे २० मार्च १९८१ को मध्यप्रदेश का बारहवां सम्भाग बनाया गया। भौगोलिक दृष्टि से विन्ध्य समूह, कड़प्पा समूह, प्राचीन ट्रेप, आद्य कल्प एव धारवाड़ शैल समूह में वर्गीकृत किया गया है। इस सम्भाग में गोदावरी, इन्द्रावती, महानदी, शबरी, दूधी आदि प्रमुख नदियों को मिलाकर कुल ३५ नदियां प्रवाहित होती है।

भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व के क्षेत्र में बस्तर का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। इस अंचल में पुरातत्व के विषय मे उस समय से जानकारी मिलती है,जब मानव सभ्यता का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था तथा मनुष्य पशुओं की भांति जंगलों, पर्वतों और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में जीवन यापन करता था। अन्य प्राणियों से बुद्धि मे श्रेष्ठ होने के कारण मानव ने पत्थरों को नुकीला बनाकर उसे उपकरण (हथियार) के में प्रयुक्त करना प्रारम्भ किया जिससे भोजन सरलता पूर्वक प्राप्त कर सके। पाषाण के प्रयोग के कारण यह युग पाषाण काल के नाम से सम्बोधित किया जाता है। विकास की अवस्था के आधार पर इसे ३ भागों में विभाजित किया जाता है। (१) पूर्व पाषाण काल, (२) मध्य पाषाण काल एवं (३) उत्तर पाषाण काल। पूर्व पाषाण युग के उपकरण जगदलपुर से लगभग तीन मील दूर इन्द्रावती तट पर कालीपुर ग्राम से प्राप्त हुये हैं। मध्य पाषाण युग की सामग्री इन्द्रावती के तट पर स्थित खड़कपाट, कालीपुर, गढ़ चन्देला, भाटेवाड़ा, देवरगांव,घाट लोहंगा, बिन्ता एवं नारंगी तट पर स्थित गढ़ बोदरा व राजपुर तथा उत्तर पाषाण युग के औजार चित्रकूट, गढ़ चन्देला, घाट लोहांगा तथा गुपनसर से मिले हैं । पाषाण काल के पश्चात् नव-पाषाण काल आता है। इससे संबंधित अवशेष दक्षिण बस्तर से मिले हैं। इस काल में मानव सभ्यता की दृष्टि से विकसित हो चुका था तथा उसने कृषि कर्म, पशुपालन, गृह निर्माण तथा बर्तनों का निर्माण करना सीख लिया था।

पाषाण युग के पश्चात् ताम्र और लौह युग आता है। इस काल की सामग्री का बस्तर में अभाव है। लौह युग में शव गाड़ने के लिये बड़े-बड़े शिला खण्डों का प्रयोग किया जाता था, अतएव उन्हें महापाषाणीय स्मारक के नाम से सम्बोधित किया जाता है। बस्तर में डिलमिली तथा गमेवाड़ा से महापाषाणीय स्मारक प्राप्त हुए हैं। प्रागैतिहासिक काल का मनुष्य जब पर्वत की कन्दराओं में निवास करता था तब उसने कन्दराओं में अनेक चित्र बनाये थे, जो उसके कला प्रिय होने के प्रमाण हैं। बस्तर में गुपनसर और आलोर ग्राम के निकट ऐसे चित्र मिले हैं। चट्टान के धरातल का क्षरण होने के कारण चित्र धूमिल हो गए हैं, पर मानव और पशु आकृतियों को आसानी से पहचाना जा सकता है।

आर्यों के आगमन के साथ ही भारतीय इतिहास में वैदिक युग प्रारम्भ होता है। इस काल की सामग्री का बस्तर में अभाव है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम ने अपना अधिकांश समय दण्डक वन में बिताया। यह दण्डक वन, बस्तर का दण्डकारण्य क्षेत्र ही है। महाभारत एवं पुराणों में इस क्षेत्र की गोदावरी और शबरी नदियों का उल्लेख है और यह क्षेत्र दक्षिणापथ के अन्तर्गत आता था। महाजनपद काल (छठवीं शताब्दी ई.पू.) में यहां की संस्कृति विषयक कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती। कालांतर में संभवतः यह क्षेत्र अशोक के साम्राज्य का अंग था।

मौर्याे के पश्चात् बस्तर महामेघ वंश के प्रतापी राजा खारवेल के अधिकार में आ गया। आगे चलकर जब सातवाहन शक्तिशाली हो गये तब गौमती पुत्र शातकर्णी के अधिकार में बस्तर का भू-भाग आ गया। सातवाहनोत्तर काल के दण्डकारण्य का इतिहास अस्पष्ट है। इसके पश्चात् भारतीय इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से विख्यात गुप्तकाल आता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उसके दक्षिणापथ विजय अभियान का वर्णन है, जिससे ज्ञात होता है कि उसने महाकान्तार (आधुनिक बरतर तथा सिहावा का जंगली प्रदेश) के राजा व्याघ्रराज को पराजित कर सिंहासनच्युत कर दिया था। तत्पश्चात् उसका राज्य वापस कर दिया। इस प्रकार गुप्तों का प्रभाव बस्तर में स्थापित हो गया।

इस क्षेत्र में गुप्तों के समकालीन नलवंशीय शासकों का आधिपत्य रहा है। इस वंश से संबंधित शासकों की ३२ मुद्राएं एडेंगा से प्राप्त हुई हैं। जिनमें २९ स्वर्ण मुद्रायें वराहराज की हैं, जिसका काल ५ वीं शताब्दी ई. का पूर्वार्ध माना गया है। एक स्वर्ण मुद्रा भवदत्त की है, जो वराहराज का पुत्र था। अन्य स्वर्ण मुद्रायें भवदत्त के पुत्र भट्टारक अर्थपति की है। नलवंश के भवदत्तवर्मा, स्कन्दवर्मा, अर्थवर्मा, पृथ्वीराज, विरुपाक्ष, विलासतुंग आदि शासकों ने बस्तर के भू-भाग पर शासन किया। गुप्तोत्तर काल की अनेक कालकृतियां बस्तर से प्राप्त हैं, जिसमें गढ़धनोरा से प्राप्त अवशेष, भोंगापाल स्थित स्तूप के अवशेष और बुद्ध प्रतिमा उल्लेखनीय है।

नलवंश के पश्चात् बस्तर में छिन्दक नागवंशी राजाओं का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश के अनेक महत्वपूर्ण शासकों ने इस क्षेत्र में शासन किया। इस वंश के शिलालेख, मंदिर, मूर्तियां एवं स्थापत्य कला संबंधी अवशेष एर्राकोट, कुरुषपाल, गढ़िया, चपका, चित्रकूट, छिन्दखड्क, जटनपाल, टेमरा, डोंगर, दन्तेवाड़ा, राजपुर, सोनारपाल, घोटिया, केशरपाल, बडे धाराऊर, छिन्दगांव, सिंगनपुर, पोषण-पल्ली, मद्देड, भोपालपटनम, समलूर, बोदरा, जगदलपुर, आदि स्थानों से प्राप्त हुये हैं। छोटे डोंगर में म.प्र. पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा मलबा सफाई में नागकालीन शिव मंदिर के अवशेष निकाले गए हैं। बस्तर ग्राम से इन्हीं शासकों की तीन चांदी की वराह द्रम्भ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। नागवंशीय राजा सोमेश्वर की स्वर्ण मुद्राएं भी मिलती हैं।

इसी जिले के कांकेर क्षेत्र में सोमवंशी शासकों ने राज्य किया। सोमवशी शासकों के शिलालेख, किले, मूर्ति एवं स्थापत्य अवशेष कांकेर, तहनकापार एवं गढ़धनोरा से प्राप्त हुये हैं। लगभग १४ वीं शताब्दी में बस्तर क्षेत्र में काकतीय राजवंश का आधिपत्य स्थापित हुआ। यह वंश स्वतंत्रता की प्राप्ति तक बना रहा। इनके शासन काल के अभिलेख, मूर्तिकला एवं स्थापत्य आदि बस्तर, डोंगर, जगदलपुर, भोपालपटनम, दन्तेवाड़ा आदि स्थानों से मिले हैं तथा मुस्लिम शासकों एवं अग्रेजों के भी सिक्के यही से मिले हैं। भैरमगढ़ से प्राप्त देवगिरि के यादव राजवंश के सिक्के, जिन्हें पद्म टंका कहा जाता था, मिले हैं।

बस्तर के काकतीय शासकों के समकालीन कांकेर में सोमवंशी राजपूतों की रियासत थी। इस वंण में अनेक महत्वपूर्ण राजा हुए। बस्तर (जगदलपुर) एवं कांकेर के शासक समय-समय पर मराठों एवं अंग्रेजों के अधीनस्थ शासक के रूप में भी रहे हैं।

बस्तर की पुरातत्व सम्पदा को संगृहीत करने हेतु मध्यप्रदेश शासन द्वारा जगदलपुर में जिला पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की गई है। इस संग्रहालय में लगभग ५० प्रतिमाएं एवं शिलालेख संगृहीत किए गए है, जिनका संकलन कुरूषपाल, केशरपाल, बस्तर, छोटे डोंगर, चित्रकूट, पूर्वी टेमरा आदि स्थानों से किया गया है। संग्रहालय अभी अपनी शैशव अवस्था में है। शासन की योजना है कि इस संग्रहालय को विकसित कर ऐसा स्वरूप प्रदान किया जावे, जिससे सम्पूर्ण बस्तर संभाग की पुरातत्वीय सम्पदा की झलक दृष्टिगोचार हो सके।
डॉ. नरेश कुमार पाठक, तब और अब

यह पत्रक दशहरा-पर्व 1988 में संग्रहाध्यक्ष, जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर के लिए पुरातत्ववेता, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था। आलेख श्री नरेश कुमार पाठक ने तैयार किया था।