Tuesday, July 20, 2021

शीर्षक

साहित्य में शीर्षकों का स्थान

पिछले दिनों एक चुटकुला पढ़ने में आया था- एक लेखक महोदय अपने मित्र से अपनी नई कृति के शीर्षक के लिये सलाह मांगते हैं। मित्र महोदय लेखक से प्रश्न करते हैं इस उपन्यास में ‘ढोल‘ शब्द है, लेखक सोचकर जवाब देते हैं- ‘नहीं‘ और ‘मंजीरा‘ मित्र पूछते हैं ‘नहीं‘ लेखक फिर कहते हैं। तब शीर्षक रख दो ‘न ढोल न मंजीरा‘, मित्र महोदय ने सुझाया।

शीर्षक की समस्या ने सचमुच छोटे लेखकों से बड़े साहित्यकारों तक को उलझन में डाला है। संभवतः इसीलिए शेक्सपीयर ने अपने एक नाटक का शीर्षक दिया था ‘एज यू लाईक इट‘ (जैसा तुम चाहो) और यह परेशानी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजी के सामने भी रही होगी तभी तो उन्होंने अपने एक लेख का शीर्षक दिया था- ‘क्या लिखूं‘।

शीर्षकों की माया प्राचीन काल से ही रही है। प्राचीन साहित्य मे शीर्षकों की परंपरा में शीर्षक के साथ कभी ‘रासो‘ जोड़ा गया, कभी ‘अध्यायी‘ कभी ‘सागर‘ और ‘समुद्र‘ की परंपरा रही तो कभी संख्या-वाचक शीर्षकों की, जैसे ‘वैताल पचीसी‘, सिंहासन बत्तीसी‘, हनुमान चालीसा आदि।

आधुनिक काल में शुक्ल-युग तक तो संभवतः शीर्षक साहित्यकारों के लिये विशेष समस्या नहीं साबित हुए, कितु शुक्लोत्तर-युग के शीर्षकों में नवीनता तो थी ही, विचित्रता भी कम न थी, और वह भी विशेषकर सन ‘40 के बाद के शीर्षकों में।

लंबे शीर्षक रखना इस काल की परंपरा थी। इसी काल के कुछ शीर्षक इस प्रकार थे- ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये‘ और ‘अरी ओ करूणा प्रभामय‘ (अज्ञेय) लगभग इस काल की रचनाओं के ये शीर्षक भी दृष्टव्य हैं- ‘तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूं‘ (यशपाल), ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ (मुक्तिबोध), ‘एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता‘ (शमशेर) आदि। इसी संबंध में अज्ञेय की ‘लिखि कागद कोरे‘ की भूमिका ‘सांचि कहऊं‘ के ये वाक्य उल्लेखनीय हैं- ‘असल में मुझे शीर्षक देना चाहिए था ‘अथ सांचि कहऊं मैं टांकि टांकि कागद अध कोरे‘ पर साठोत्तरी उपन्यास के पाठोत्तरी पाठक भी महसूसते (उन्हीं की भाषा है) कि इतने लंबे शीर्षक नहीं चलने के।‘

शीर्षक मे इन विचित्रताओं और नयेपन का आखिर कारण क्या है। आलोचकों का कथन है कि ऐसे शीर्षक उस पुस्तक के प्रति पाठक की उत्सुकता बढ़ाने के लिये होते हैं। सचमुच इन शीर्षकों के प्रति कौन उत्सुक नहीं होता- ‘एक गधे की आत्मकथा‘ (कृश्न चन्दर) ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूं‘ और ‘कितनी नावों में कितनी बार‘ (अज्ञेय) ‘आकाश में फसल लहलहा रही है‘ (रामदरश मिश्र) ‘जब ईश्वर नंगा हो गया‘ (शिव शर्मा), ‘थैला भर शंकर‘ (शंकर) आदि।

शीर्षकों की आधुनिक परंपरा में एक प्रमुख है- नामवाचक शीर्षकों की परंपरा। ‘बेबी‘ (विजय तेन्डुलकर), ‘अलका‘ और ‘अर्चना‘ (निराला), ‘नीरजा‘ (रविन्द्रनाथ ठाकुर) ‘दिव्या‘ (यशपाल) आदि । जीवनी में तो नामवाचक शीर्षक होते ही हैं। शीर्षकों में सर्वनाम का भी कभी-कभी जमकर प्रयोग होता है- ‘मेरी, तेरी, उसकी बात‘ (यशपाल), ‘वाह रे मैं वाह‘ (क. मा. मुंशी), ‘हम हशमत‘ (कृष्णा सोबती). ‘मैं‘ (विमल मित्र), ‘उनसे न कहना‘ (भगवती प्रसाद बाजपेयी) ये कुछ इसी तरह के शीर्षक हैं।

कुछ विशेषणयुक्त शीर्षक ये हैं- ‘घासीराम कोतवाल‘ और ‘सखाराम बाइंडर‘ (तेन्डुलकर) ‘पगला घोड़ा‘ (बादल सरकार) ‘मैला आंचल‘ (फणीश्वरनाथ रेणु) ‘लालपीली जमीन‘ (गोविन्द मिश्र) रिश्ते के संबंधों ने भी शीर्षक मे कभी-कभार स्थान पाया। ‘देवकी का बेटा‘ (रांगेय राघव), कनुप्रिया (भारती) ‘रतिनाथ की चाची‘ (नागार्जुन) ‘कैदी की पत्नी‘ (रामवृक्ष बेनीपुरी) आदि इसके उदाहरण हैं। विरोधाभासी और आश्चर्यजनक शीर्षकों की भी आधुनिक हिंदी साहित्य में बहुतायत है। इस तरह के कुछ शीर्षक हैं- ‘झूठा सच‘ (यशपाल), ‘आवारा मसीहा‘ (विष्णु प्रभाकर), ‘जिंदा मुर्दे‘ (कमलेश्वर), एक बिछा हुआ आदमी‘ (विभुकुमार), ‘एक गांधीवादी बैल की कथा‘ (राधाकृष्ण) आदि। संख्यावाचक शीर्षकों की जो रचनायें प्रसिद्ध हुईं, उनमें है- ‘गवाह नम्बर तीन‘, ‘तीस चालीस पचास‘ (विमल मित्र), चार खेमे चौंसठ खूंटे (बच्चन) और ‘अट्ठारह सूरज के पौधे‘ (रमेश बक्षी)।

आंचलिक भाषा का उपयोग शीर्षकों में बहुत कम हुआ है, कभी कभी लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया जाता है, उदाहरणस्वरूप ‘फिर बैतलवा डाल पर‘ (डा. विवेकी राय), ‘कागा सब तन खाइयो‘ (गुरुबक्श सिंह), ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं‘ (भगवती चरण वर्मा) ‘नाच्यो बहुत गोपाल‘ (अमृतलाल नागर) आदि। अब कुछ संस्कृत शीर्षक वाली कृतियों का नाम पढ़ लीजिए- ‘वयं रक्षामः‘ (आचार्य चतुरसेन) ‘एकोSहं बहुस्याम्‘ (रघुवीर सहाय), मृत्युर्धावति पंचमः (अज्ञेय), ‘धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् (हजारी प्रसाद द्विवेदी)।

कभी कभी लेखक अपनी रचना को किसी की डायरी या किसी का पोथा बताते हैं- ‘अनामदास का पोथा‘ (हजारी प्रसाद द्विवेदी), ‘एक साहित्यिक की डायरी‘ (मुक्तिबोध), ‘लफ़्टंट पिगसन की डायरी‘ (बेढब बनारसी), ‘अजय की डायरी‘ (डा. देवराज) आदि इसी प्रकार के उदाहरण हैं। आजकल की डायरियां ज्यादातर नेताओं की ‘मेरी जेल डायरी‘ होती है।

कुछ शीर्षक देख कर ही सामान्य पाठक भयभीत हो जाता है। ‘अस्वीकृति का अकाव्यात्मक काव्यशास्त्र‘ (रमेश कुंतल), एक ऐसा ही शीर्षक है। ऐतिहासिक या पौराणिक नाम, जिनसे पाठक अनजान रहता है, वे भी कुछ ऐसा ही प्रभाव डालते हैं- ‘प्रमथ्यु गाथा‘ और ‘वृहन्नला‘ (भारती), ‘एक और नचिकेता‘ (जी. शंकर कुरुप), ‘संपाति के बेटे‘ और ‘आछी का पेड़, पैशाची; जरथुस्त्र और मैं‘ (कुबेरनाथ राय)।

अब कुछ भ्रामक शीर्षक- इस बारे में श्रीलाल शुक्ल के ये वाक्य प्रसंगानुकूल हैं ‘‘मैंने ‘शेखर एक जीवनी‘ पढ़ी है। वह उपन्यास है। खेती सींखने के लिए मैंने अज्ञेय रचित ‘हरी घास पर क्षण भर‘ पढ़ा। उसमें कविताएं हैं। ... बच्चों के पढ़ने के लिए ‘तितली‘ और लक्ष्मीनारायण लाल का ‘बया का घोंसला और सांप‘ मंगाई पर उन्हें बच्चों ने नहीं, नर-नारियों के संबंधों के ज्ञाता बुजुर्गों ने ही पढ़ा।‘‘
नवभारत, रायपुर का 3 सितंबर 1978 का पृष्ठ-3

लेखन, अभिव्यक्ति के साथ-साथ सार्वजनिक करने के लिए भी हो तो उस पर कुछ न कुछ असर इस बात का होता है कि वह प्रस्तुत-प्रकाशित कहां होगा। मेरी पीढ़ी 20-22 की उम्र में कुछ डायरी में तो कुछ पत्रों में अभिव्यक्त होती थी, लेकिन कुछ सार्वजनिक करना है, छपना-छपाना है तो पत्रिकाओं और समाचार पत्र की ओर देखना होता था कि वहां क्या और कैसा लिखा-छपा होता है। लिखने के बाद छपने के लिए तब अखबारों में जगह होती थी, मिल जाती थी। अखबारों में नाम सहित कुछ छप जाना, चाहे ‘पाठकों पत्र/आपकी चिट्ठी‘ ही क्यों न हो, संग्रहणीय नहीं तो उल्लेखनीय जरूर होता, बधाइयां भी मिल जातीं। स्थानीय अखबारों के कार्यालय तक पहुंच आसान होती थी। इस तरह लेखन का विषय चुनते, उसे अंतिम रूप देते, पत्र-पत्रिका का संपादक पहले और प्रत्यक्ष ध्यान में होता, पाठक उसके बाद, परोक्ष। आम लेखन की शैली, स्तर और टेस्ट इसी के आधार पर तय होता।

आजकल का लोकप्रिय लेखन, अधिकतर पहले फेसबुक-ट्विटर पर उगता है, कुछ-कुछ ब्लाग पर भी। सामान्यतः अनुकरण होता है उनका, जिस पर ढेरों लाइक-कमेंट हों, फिर थोड़ी अपनी पसंद और उसके बाद अपने लेखन-क्षमता, कौशल। इस तरह पहचाने गए नये लेखकों में, लेखन का स्वरूप तय करने का पहला और महत्वपूर्ण कारक लाइक-कमेंट करने वाला पाठक होता है। तब उसके लिए जरूरी होता है कि गंभीर बात भी रोचक-चुटीले अंदाज और बोलचाल की भाषा में कही जाए। बात कहने के लिए लंबी भूमिका भी नहीं चलने की। हर पैरा ऐसा हो, जो आगे पढ़ने की उत्सुकता और रुचि बरकरार रखे। नये वाले अधिकतर लोकप्रिय लेखकों के साथ यह लागू है।

अब के लेखन से तब की कलम-घिसाई का फर्क। यहां आई कुछ पोस्ट, पुराने दौर का लेखन है, यह अभ्यास तब इसी तरह हुआ था।

Monday, July 19, 2021

ताला

इन मंदिरों पर से सदियां गुजर चुकी हैं 

मध्यप्रदेश में शिवनाथ की सहायक नदी मनियारी के बायें तट पर गुप्तकाल में निर्मित दो शैवमंदिर आज भी पांचवीं-छठी शताब्दी के मूक साक्षी बने खड़े हैं। ये मंदिर तत्कालीन शरभपुरीय शासकों के स्थापत्य प्रेम का प्रतीक तो हैं ही, साथ ही वैष्णव शासकों की धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक भी हैं। कभी इस भू-भाग ने पाषाणयुगीन मानव को भी आकर्षित किया था। यहां पाये गये लघु पाषाण उपकरण इस बात का प्रमाण हैं। 

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर यह स्थान ‘ताला‘ नाम से जाना जाता है, जहां ये दो स्मारक भग्नप्राय स्थिति में विद्यमान है। स्थानीय लोगों में ये मंदिर ‘देवरानी-जिठानी के मंदिर‘ नाम से जाने जाते हैं। यह इन मंदिरों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इक्का-दुक्का ही पुरातत्वविदों ने इनकी खोज-खबर ली। सन् 1873-74 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रथम महानिदेशक ए. कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेग्लर को इनकी सूचना रायपुर के तत्कालीन असिस्टेंट कमिश्नर मि. फिशर द्वारा मिली थी। बेग्लर ने स्वयं तो इन स्मारकों को नहीं देखा, मगर रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर पुरातात्विक महत्व के स्थल के रूप में ‘जिठानी-देवरानी का मंदिर‘ नाम दर्ज कर दिया गया। इसी शताब्दी के सातवें दशक के अंत में दुर्गा महाविद्यालय, रायपुर के डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर ने इस स्थान की खोज-खबर ली। 

कुछ वर्ष पहले अमेरिकी शोधार्थियों और मध्यप्रदेश शासन ने इस स्थान की छानबीन की और छत्तीसगढ़ में पहली बार गुप्तकालीन मंदिरों की उपस्थिति का आभास लोगों को हुआ। इसी समय राज्य पुरातत्व विभाग ने इसके संरक्षण की चिंता पहली बार की। 1985 में राज्य पुरातत्व विभाग के तत्कालीन सलाहकार और संप्रति हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. प्रमोदचंद्र ने इस स्थान का निरीक्षण किया, लेकिन इस सबके बाद भी यह स्थान मामूली चर्चा का ही विषय बन सका। 

कथित देवरानी और जिठानी मंदिर में, देवरानी अधिक सुरक्षित स्थिति में है। दोनों मंदिरों के बीच की दूरी मात्र 15 मीटर है और ये मंदिर वस्तुतः शिव मंदिर हैं। देवरानी मंदिर के तलविन्यास में आरंभिक चंद्रशिला और सीढ़ियों के पश्चात अर्द्धमंडप, अंतराल और गर्भगृह तीन प्रमुख भाग हैं। गर्भगृह का तल अंतराल से कुछ बड़ा है।

मंदिर की सीढ़ियों में शिवगण व अन्य देवियों तथा गंधर्वों की मूर्तियां बनाने में अनूठी कलात्मकता के दर्शन होते हैं। निचले हिस्से पर शिव-पार्वती विवाह दृश्य अंकित है और उभय पाश्र्वों पर गज, द्वारपाल व मकरमुख उत्कीर्ण है। प्रवेशद्वार के उत्तरी और दक्षिणी दोनों पाश्र्व चार-चार भागों में विभक्त हैं, जिनमें उत्तरी पाश्र्व में ऊपरी क्रम से उमा-महेश, कीर्तिमुख, द्यूत-प्रसंग व गंगा-भगीरथ का अंकन है। उमा-महेश प्रतिमा का लास्य, द्यूत प्रसग में हारे हुए शिव के नंदी का पार्वती-गणों के अधिकार में होना व भगीरथ अनुगामिनी गंगा स्पर्श से समर- वंशजों की मुक्ति, कलाकार की मौलिकता और कुशलता का परिचायक है। अत्यंत कलात्मक और बारीक पच्चीकारी वाले प्रवेश द्वार पर गजाभिषिक्त लक्ष्मी और शिव-कथानक का अंकन है।

जिठानी मंदिर तो अब लगभग ढह चुका है। इसमें ध्वस्त मंदिर से अत्यंत महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है। जिठानी मंदिर में पूर्व व पश्चिम की सीढ़ियों से प्रवेश किया जा सकता है। उत्तर की ओर दो विशाल हाथियों का अग्र भाग है। विशाल स्तंभों व प्रतिमाओं के पादपीठ सहित विभिन्न आकार की ईंटों व विशालकाय पाषाणखंडों से निर्मित संरचना आकर्षित करती है। यहां प्रसन्नमात्र नामक शरभपुरीय शासक की उभरी हुई रजत मुद्रा भी प्राप्त हुई है, जिस पर ब्राह्मी के क्षेत्रीय रूप, पेटिकाशीर्ष लिपि में शासक का नाम अंकित है। शासक की यह एकमात्र रजत मुद्रा प्राप्त हुई, जबकि ऐसी स्वर्ण मुदाएं बहुतायत में मिली हैं। कलचुरियों की रतनपुर शाखा के दो शासक, रत्नदेव व प्रतापमल्ल की भी एक-एक मुद्रा प्राप्त हुई है, जिससे अनुमान होता है कि यह क्षेत्र लगभग बारहवीं सदी ई. तक निश्चय ही जनजीवन से संबद्ध रहा। इस बात की पुष्टि यहां प्राप्त अन्य सामग्री, मिट्टी के खिलौने व पात्र, टिकिया, मनके लौह उपकरण से होती है। 

मदिर में अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश, गणेश, कार्तिकेय, नायिका, नागपुरुष आदि विभिन्न प्रतिमाएं एवं स्थापत्यखंड प्राप्त हुए है। प्रतिमाओं का आकार भी उल्लेखनीय है। इनमें कुछ तो तीन मीटर से भी अधिक लबी हैं। प्रतिमाओं में अलौकिक सौंदर्य, आकर्षक अलंकरण तथा कमनीयता का संतुलित प्रदर्शन है। दो अन्य पाषाण प्रतिमाएं विष्णु और गौरी की हैं, इनका काल लगभग आठवीं सदी ई. है। ताला के इन मंदिरों पर गभीर शोध की आवश्यकता है।
यह लेख, ‘हिंदी का पहला साप्ताहिक अखबार‘ टेग लाइन और संतोष भारतीय के संपादन वाले, दिल्ली से प्रकाशित ‘चौथी दुनिया‘ के 16 से 22 अगस्त 1987 अंक के पृष्ठ 10 पर आया था। यह लेख छपने पर, सरसरीपन के कारण मुझे अच्छा नहीं लगा था, स्वीकार करते हुए सार्वजनिक करना आवश्यक समझता हूं, इसलिए यहां प्रस्तुत किया है।

Saturday, July 17, 2021

होली

होली की उमंग
मस्ती के रंग
फाग के संग

खेत खलिहान गर्व से भरे हैं, टेसू के फूल प्रकृति की सुन्दरता द्विगुणित कर रहे हैं, आम के बौर की भीनी सुगंध वातावरण को मादक बना रही है, बसंती झोंके तन मन को गुदगुदा रहे हैं, मदन देवता के धनुष पर पंचशर चढ़े हैं और प्रत्यंचा खिंची हुई है, धूप में कुनकुनाहट आ गई है इन सबका मूक संदेश है- होली आ रही है। होली मस्ती का त्यौहार, फाग का त्यौहार, बड़े-बूढ़े बच्चे सबका त्यौहार, आल्हादकारी और भेदभाव रहित त्यौहार।

होली के स्वरूप में अंतर भले ही हो किन्तु होली का उत्साह और उन्माद भारत भर में सब पर समान रहता है। होली का उन्माद सब पर एक सा क्यों न हो, किसके अंग न कसमसायेंगें इस मौसम में-
अंग-अंग कसमस हुए, कर फागुन की याद। आंखों में छपने लगे फिर मन के अनुवाद।।

होली की स्वरूपों की बात चल पड़ी है तो आइये कुछ प्रमुख और चर्चित होली देखते चलें- होली की चर्चा में पहला नाम फालैन का याद आता है। फालैन में होली मनाने का तरीका कोई विशेष अनोखा नहीं है, चर्चा का कारण है एक पण्डा परिवार। इस परिवार का कोई एक सदस्य हर होली के अवसर पर धधक चुकी होली के अग्निकुंड में से नंगे पांव निकला करता है। इसके लिये उसे अग्निकुंड पर 10-12 कदम चलने होते हैं, जिसमें लगभग आधे मिनट का समय लगता है। और इस समय होली की लपटें कम से कम 4-5 फीट ऊपर उठती रहती हैं। होली के अवसर पर फालैन का यह कार्यक्रम अत्यधिक अनूठा और आश्चर्य का विषय है।

चर्चित होलियों में पहला नाम नंदगांव और बरसाने की लठमार होली का है। फागुन के कृष्ण पक्ष की नवमीं को नंदगांव के हुरिहार और बरसाने की गोपिकायें इस कार्यक्रम का रूप संजोते हैं। नारियां घूंघट की आड़ में पुरुषों पर लाठी का प्रहार करती हैं और नंदगांव के हुरिहार उस प्रहार को ढाल पर रोकते हैं। बरसाने की होली के दूसरे दिन नंदगांव में भी ऐसी ही लठमार होली होती है। फर्क इतना है कि इस होली में बरसाने के गुसाईं हुरिहार होते हैं और नंदगांव की गोपियां प्रहार करती हैं।

मथुरा के निकट एक स्थान है, दाऊजी, यहां के हुरंगा अर्थात वृहद होली का अपना ही अंदाज है। पुरुष पिचकारी से महिलाओं पर टेसू का रंग डालते हैं और रिश्ते के इन देवर पुरुषों के कपड़े फाड़कर स्त्रियां कोड़े बनाती है, पानी में भीगे इन कोड़ों का प्रहार देवरों की पीठ लाल कर डालता है और स्त्री पुरुषों की टोली विदा होते समय पुरूष गाते हैं-
हारी रे गोरी घर, चाली रे कोई जीत चले हैं, ब्रज ग्वाल। स्त्रियों का प्रत्युत्तर कथन होता है- हारे रे रसिया, घर चाले रे कोई जीत चली है, ब्रजनार।

राजस्थान के एक नगर बाड़मेर की होली की अब सिर्फ यादें रह गई हैं। बाड़मेर की 60-70 वर्ष पूर्व की होली पत्थरमार होली हुआ करती थी। धुलेंडी अर्थात होलिका दहन की अगली प्रभात से ही 15 दिन पूर्व से की गई तैयारी वाली पत्थरबाजी प्रारंभ हो जाती थी। किन्तु न तो इसमें वैमनस्यता रहती थी न ही दुश्मनी का भाव। रस्सी अथवा कपड़े के कोड़ो से देवरों की पिटाई का प्रचलन यहां अब भी है। साथ ही एक परंपरा ईलाजी की प्रतिमा बनाने की है, मान्यता है कि ईलाजी बांझ महिलाओं को पुत्र प्रदान करते हैं।

वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में कहीं भी होली का उल्लेख नहीं है, किंतु अन्य गीतकारों ने अपने प्रिय देवताओं के होली का वर्णन किया है। फाग में होली अवध में राम भी खेलते हैं प्रजाजन और देवी सीता के साथ। शिव खेलते हैं गौरा के साथ, अपनी ही मस्ती में और ब्रज की होली नटवर कृष्ण का क्या कहना वह तो सखाओं, गोप-ग्वालों, राधा सभी के साथ खेलता है। होली के अवसर पर जितने फाग गीत गाये जाते हैं उतने गीत शायद ही किसी अन्य त्यौहारों में गाये जाते होगें। फाग के राम सीता की यह होली देखिये-
होरी खेले रघुबीरा अवध में।
केकरा हाथ कनक पिचकारी, केकरा हाथ अबीर।
राम के हाथ कनक पिचकारी, सीता के हाथ अबीर।

सूर सागर की बसंत लीला का राधा कृष्ण का फाग है-
मैं तो, खेलूंगी, कान्हा तोसे होरी बरजोरी।
हम घनश्याम बनब मथुरा में, तोहे नवल ब्रज वनिता बनाई।
मोर मुकुट कुंडल हम पहिरब, तोहे लला बेनूली पहनाई।
मुरली मधुर लेबि हम अपना, चूड़ी पहनाइब, कान्हा तोहरी कलाई।

बीकानेर में फाग ‘रम्मत‘ के रूप में प्रचलित है। रम्मतों में सास-बहू का ख्याल, देवर-भाभी की रम्मत, बूढ़े बालम की रम्मत और अमर सिंह राठौर की, आदि रम्मत होती है। रम्मत न के बराबर साज-श्रृंगार के बाद मंच पर खेली जाने वाली काव्य नाटिका है। मारवाड़ के गांव में जहां ढोला-मारू की प्रेमगाथा की बहुतायत है वहीं पेशवाओं के महाराष्ट्र में ‘तमाशे‘ का अपना रंग है। तमाशे के लिये मराठी शाहिर खास गीत रचा करते हैं और नर्तकियां उसे गाकर प्रेक्षकों का अनुरंजन करती हैं। एक तमाशे के गीत में मदनविद्ध नायिका अपने प्रेमी से कहती है-
सख्या चला बागामधिं रंग खेलू जरा, सब शिमम्याचा करा गुलाल गोटा घ्यावा
लाल हाती फेकू न मारा छाती, रंगभरी पिचकारी माझपाहाती
हरी करीन या रिती जसा वृन्दावनी खेले श्रीपति गोपी धेऊनी संगानी

कृष्ण प्रेमिका, बाजबहादुर की बेगम रूपमती ने लगभग 1637 विक्रम संवत में अपनी प्रेम कविता को फाग के रूप में लिखा है इसका माधुर्य दृष्टव्य है-
मोर मुकुट कुंडल को अतिछवि आंखन नैन अंजन धरे कोना। ‘रूपमती‘ मन होत बिरागी बाज बहादुर के नन्द दिठौना।।

मध्यप्रदेश में लगभग पूरे बुदेलखंड में प्रचलित चौकड़िया फाग ही गाया जाता है जो ईसुरी कवि की रचनायें मानी जाती हैं। छत्तीसगढ़ के हिस्से में भी विशेषकर श्रृंगारिक फाग का अत्यधिक प्रचलन है किन्तु कभी-कभी यह अश्लील दहकी गीतों की सीमा तक पहुंच जाता है। छत्तीसगढ़ी फागों में होली के त्यौहार को कुंवारों के लिये अनुपयुक्त माना गया है। एक ऋतु गीत की कुछ पंक्तियां उल्लेखनीय है-
माघ महिना राड़ी रोवय होत बिहनियां नहाय हो जाय
नहा खोर के घर म आवय अउ तुलसी हूम जलाय
फागुन महिना डिडवा रोवय गली-गली में खेले फाग।

नवभारत, रायपुर के होली परिशिष्ट, मुख्य लेख के रूप में, पृष्ठ-3 पर रविवार, दिनांक 11 मार्च 1979 को यह प्रकाशित हुआ था। संभवतः यही मेरा पहला लेख है, जिसके लिए समाचार पत्र के रामअधीर जी ने मौखिक रूप से अनुबंधित करते हुए, कुछ संदर्भ-सामग्री पढ़ने को दी। तब गूगल नहीं था। कुछ अपने पुराने नोट्स और याददाश्त काम आया। पारिश्रमिक भी मिला, लेकिन तब नवभारत के ऐसे परिशिष्ट में रविवार को मुख्य लेख छप जाना, छत्तीसगढ़ स्तरीय पुरस्कार से कम न था। अब लेख पढ़ते हुए लगा कि इस लेखक में थोड़ी सांस्कृतिक, साहित्यिक रुचि तब से है और उससे भविष्य में कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती थी।

Friday, July 16, 2021

कठपुतलियां

आइये-आइये आपके शहर में कठपुतलियों का नाच सिर्फ दस पैसे में आइये जल्दी आइये- माधव की बेजान सी आवाज एक पिचके चोंगे से विस्तारित हो रही थी। आज ही इस बस्ती में ये कठपुतली वाले आए, दिन भर जुटकर इन्होंने यह एक खेमा तैयार किया था और इस खेमे के आसपास ही इस बस्ती की लगभग सारी आबादी केन्द्रित थी।

रघु खेमे के अंदर टूटे से तख्ते पर बैठकर कठपुतलियां ठीक कर रहा था। यही तख्ता खेल शुरू होने पर मंच के काम आता था। इनकी बूढ़ी मां खेमे के पीछे आसपास से लकड़ियां चुनकर आग जला चुकी थी और उस पर भात की तैयारी में एक अल्यूमीनियम की पिचकी देगची में पानी रख रही थी। बाहर दरवाजे पर माधव और रमली दस-दस पैसे लेकर दर्शकों को अंदर भेजते जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माधव ने अंदर झांककर देखा। भीड़ काफी हो चुकी थी अतः खेल शुरू करने के लिये अंदर जाते जाते रमली से उसने कहा- ‘भाभी खेल शुरू होते होते दरवाजा बन्द कर देना।

अंदर जाकर उसने ढोलक संभाल ली और रघु डोरियों का फंदा अपनी ऊंगलियों में फंसाने लगा। ढोलक पर अब माधव के हाथ चलने लगे। दर्शकों का शोर थम गया और एक एक करके कठपुतलियां मंच पर आती गईं, रघु सीटी बजा बजाकर कठपुतलियां नचाता रहा और माधव तेज आवाज में दृश्य समझाता गया, कभी दर्शक दम साध लेते तो कभी बच्चों के खिलखिलाने की आवाज आने लगती और रघु के हाथों का दर्द तेज हो जाता, रघु के हाथों का बढ़ता हुआ दर्द डोरियों के सहारे उतर कर कठपुतलियों को जीवंत बना रहा था और मानों वे कठपुतलियां रघु की प्राण शक्ति को लेकर ही नाच रही थीं। अंततः ढोलक की एक तेज आवाज के साथ रघु की ऊंगलियों में तनी डोरियां ढीली पड़ गई, कठपुतलियों का यह खेल खत्म हो गया।

रोज ही हरेक तमाशे के बाद रघु और माधव के स्थान परिवर्तित हो जाया करते थे अब रघु बैठ रहा था ढोलक पर और डोरियां थी माधव के जिम्मे। अगले खेल में माधव के साथ ठीक वही हुआ जो पिछले खेल में रघु के साथ हुआ था इस बार खेल के अंतिम दौर में माधव कराह उठा था और उसकी कराह को बड़ी चतुराई से रघु के ढोलक की तेज थापों से दर्शकों तक न पहुंचने दिया था।

तीसरे दिन भी हर दिन की भांति दो खेल हो चुके थे। तीसरा खेल शुरू होना था काफी दर्शक आ चुके थे कुछ लोग तमाशा देखने के लिये आसपास के पेड़ों पर चढ़कर बैठे थे। माधव के मना करने पर उसे धमकी भी दे चुके थे। थोड़ी देर बाद ही खेल शुरू हुआ था। यह क्या हुआ? कठपुतलियों के मरने का दृश्य पांच मिनट बाद ही मंचित हो गया। माधव ने झांककर पर्दे में देखा। रघु ऊंगलियों से डोरियों का फंदा उतार चुका था और मंच के पिछले भाग पर दोनों हाथ, पैरों के नीचे दबाये हुए बैठा था।

माधव यह देख कर समझ गया कि रघु को फिर वही पुराना दौरा आया है, जो पहिले कभी महीनों में आया करता था, किन्तु फिर बीच के दिन कम होते गये और यदि रघु दिन में दो तमाशा दिखाना जारी रखे तो शायद रघु के हाथों का तमाशा ही खत्म हो जाये एक दिन। अचानक दर्शकों का शोर तेज हो गया, दर्शक समूह चूंकि पैसे देने के बाद भी पूरा खेल नहीं देख पाया था अतः उत्तेजित हो रहा था तो कुछ कठपुतलियों मर जाने पर उदास थे किन्तु अन्य सभी चिल्ला रहे थे- स्साले पैसे वापस करो नहीं तो सब पर्दे फाड़कर फेंक देंगे।

माधव ने रघु की सलाह से निर्णय लिया कि पैसे वापस कर दिए जाये नहीं तो हमारी खैर नहीं है। सभी दर्शकों को उनके पूरे पैसे वापस हो गए; इन्हें चिंता हुई दूसरे दिन की, रघु की नसें फूल आई थीं और माधव एक खेल ही दिखा सकता था, दिन में।

दूसरे दिन शाम इनमें फिर वही उल्लास था, नियति ने इनकी समस्या हल कर दी थी। रघु के हाथों की मांसपेशियां ठीक हो गई थीं। रघु सोच रहा था कि शायद आज वह तमाशा दिखाना शुरू करें तो फिर वही कल सा तमाशा न हो जाये खैर। कल पैसे भी कम मिले थे इन कठपुतली वालों को, फिर ऊपर से रघु के तेल पानी का खर्च। आज खाने को इन्हें आधा पेट ही मिल पाता अगर बुढ़िया बीमार न हो जाती। लगातार पिछले दिनों से बुढ़िया का ताप तेज था, फिर भी खाना बनाकर वह लेट रही थी किन्तु आज तो मानों उसका शरीर जल रहा था, खाना नहीं खाया गया उससे और ये तीनों फिर उसी तरह चावल की लेई मिर्च के साथ निगलकर तमाशे की तैयारी में लग गए।

रघु बड़ा प्रसन्न हो रहा था। आज फिर वह दो खेल सकुशल दिखा चुका था। लाख लाख दुआयें दे रहा था ईश्वर को। किन्तु उसकी वह प्रसन्नता टिकी न रह सकी। दूसरे दिन उसका पुराना दौरा पहले ही खेल के अंत में आ गया, उस दिन भी दो ही खेल हो पाये। पेट आज फिर न भर पाया था उनका, यह स्थिति देखकर रघु ने माधव से दो खेल दिखाने को कहा। माधव भी स्वीकृति देने के सिवा और क्या कर सकता था। अब किसी तरह माधव दो खेल दिखाया करता। रघु के हाथों को तो इस दौरे ने मानों नाकाम ही कर दिया था।

जीवन के एक दो दिन फिर शांति से गुजर गए इन यायावरों के किन्तु अब दर्द उठा माघव के हाथों में।

किसी तरह उसी लीक पर इनका जीवन पागे बढ़ता गया, माधव के हाथों ने रघु के हाथों की तेजी ले ली। अब वह किसी तरह दिन में दो खेल दिखा लिया करता था, कभी कमाई अच्छी हो जाती तो वे कुछ पैसे भविष्य के लिये बचा लेते। किन्तु कितने नादान थे ये। इनके भविष्य में कुछ भी तो नही था, आज ऐसी दुर्घटना घटी जिसने इनके जीवन के स्थायित्व को फिर से तितर बितर कर दिया। सबेरे उठकर उन्होंने देखा कि बुढ़िया के मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं। उनके परिवार की इस कठपुतली का नाच खत्म हो चुका था। बुढ़िया की दवा दारू से जो कुछ पैसे बचे रह गए थे उससे इन्होंने दाह संस्कार की सामग्रियां जुटाई। शवयात्रा में कुछ और लोग भी शामिल हो गए थे किन्तु उनमें कोई भी एक दूसरे से परिचित न था। रघु, माधव और इन्हें परिचय का एक ही सेतु जोड़ता था- गरीबी।

शवयात्रा में मनहूस शांति छाई थी। उन्हें अपने खेल की चिंता थी तो किसी को साहूकार के कर्ज की। कोई उस दिन के खाने के इन्तजाम के बारे में सोच रहा था तो किसी को बेटी की शादी की चिंता खाए जा रही थी।

बुढ़िया को जलाकर वे वापस आ गए, और खेमे में वहीं दायरा सा बना कर बैठ गए। तीनों के चेहरों पर कोई भाव न थे, न वे आपस में कुछ बोल ही पा रहे थे। काफी देर तक वे इसी तरह बैठे रहे, फिर तीनों की आंखें मानों आपस में सलाह करने लगीं। अचानक तीनों उठ खड़े हुए, रघु पर्दे गिराने लगा। रमली और माधव बांस पर कठपुतलियां बांधकर और ढोलक पीटते निकल गए।

रात को लोगों ने सुना, माधव की आवाज भोंपू से और तेज आ रही है- आइये आइये आपके शहर में कठपुतलियों का...।

सच्ची घटना पर आधारित, मेरी लिखी यह कहानी, समाचार-पत्र ‘नवभारत‘ रायपुर, दिनांक 13 मई 1979 के पृष्ठ 4 पर प्रकाशित हुई थी। अब इस कहानी का मूल्यांकन करते हुए कह सकता हूं कि प्रयास अच्छा है, किंतु इस लेखक में कहानीकार के लक्षण विरल हैं।

Sunday, July 4, 2021

कोरोना में किताबें

12 जून 2020 की वार्ता पर आधारित।

यश पब्लिकेशंस, दिल्ली के फेसबुक लाइव पर मैं राहुल सिंह, रायपुर, छत्तीसगढ़ से उपस्थित हूं। आप मुझे देख-सुन पा रहे होंगे। मुझे इस दौर में पढ़ी पुस्तकों पर बात करनी है। ऐसे लाइव में अक्सर कहा जाता है, थोड़ा इंतजार करें, कुछ लोग और आ जाएं, यह बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि जो समय पर आ गए हैं उनका समय क्यों खराब हो। तो मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं।

थोड़ी सी पृष्ठभूमि रख देना चाहूंगा। याद कर रहा हूं पंडित माधवराव सप्रे को, उनकी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ हिन्दी की पहली कहानी के रूप में जानी जाती है। पत्रकारिता और स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका नाम है। सन 1905 में उनकी पुस्तक आई थी ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट‘। यह छोटी सी, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। यहां उनकी चर्चा एक अलग संदर्भ में कर रहा हूं। 1901 में उनके पास समीक्षा के लिए पुस्तक आई, ‘ढोरों का इलाज‘। नाम से स्पष्ट है कि पशु चिकित्सा की पुस्तक थी, किसी अंगरेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद। उन्होंने इस पर टिप्पणी की है कि- डॉक्टर, दवाइयां या इस तरह की पुस्तकें, समालोचना के लिए भेजी जाती हैं। जिस विषय की जानकारी नहीं, उसमें क्या समालोचना कर सकते हैं और संपादक महोदय भी हमको ऐसी पुस्तकें दे देते हैं। उन्होंने चुटकी लेते हुए आखिर में यह भी लिखा है कि- यह विषय मुझे आता नहीं तो आप मान सकते हैं कि एक तरह से इस पुस्तक का यहां विज्ञापन है। यह छपा तो संपादक की नजरों से गुजरा ही होगा।

इसी में एक शब्द आया है- सालोतरी। मेरे लिए यह नया शब्द था। संभव है, आपमें से भी कुछ के लिए यह नया हो। अंग्रेजी और हिंदी के आम शब्दकोशों में यह शब्द नहीं मिलता। गूगल करेंगे तो जरूर मिल जाएगा। यह, पशु चिकित्सक या घोड़ों का इलाज करने वाले डॉक्टरों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है। घोड़ों का सामरिक और सफर, यातायात के साधन के रूप में उपयोग था, इसलिए घोड़ों का इलाज करने वाले महत्वपूर्ण होते थे, और इस खास शब्द सालोतरी से जाने जाते थे। सालोतरी की तलाश करते हुए ध्यान, अश्विनी कुमारों की ओर गया। वहां से नकुल और सहदेव तक, जो माद्री के जुड़वा पुत्र थे। माद्री, अश्विनी कुमार का ध्यान करती हैं और नकुल-सहदेव पैदा होते हैं। महाभारत की कथा में पांडव, अज्ञातवास के लिए विराट देश में जाते हैं तो वहां नकुल-सहदेव अश्वशाला का काम देखते हैं, पशुओं के चिकित्सक होते हैं। उन्हें इसका ज्ञान, उनकी विशिष्टता होती है (नाम में ही अश्व है)। अश्विनी कुमार, वैदिक देवता हैं, उनकी भी प्रतिष्ठा इस रूप में रही है। उल्लेख मिलता है कि वे यौवन के लिए भी दवाएं दिया करते थे। आंखों का इलाज करते थे, और बनावटी हाथ-पैर का उल्लेख मिलता है, जिसमें उन्होंने किसी के लिए लोहे का पैर बनाया था।

कोरोना के दौर में लाइव आने लगे, वेबिनार होने लगे। बच्चों की ऑनलाइन क्लास होने लगी मैंने पता करने की कोशिश की, कुछ पैरेंट्स से, बच्चों से, कि यह कैसा अनुभव है। उनमें किसी की मजेदार किंतु तात्विक टिप्पणी थी कि बच्चे को क्लास की पढ़ाई में तो समझ में नहीं आता, मन नहीं लगता तो इस तरह में कितनी पढ़ाई कर पाएंगे। ठीक उसी तरह वेबिनार की बात है कि सेमिनार में, पोस्ट लंच सेशन में लोग झपकी लेते हुए दिख जाते हैं। फिर भी यह परिवर्तन का दौर है जब धीरे-धीरे हम उस काल की ओर बढ़ रहे हैं। जैसे परिवर्तन की संभावनाएं भविष्य में हैं, उसको इस कोरोना संकट ने कुछ करीब ला दिया है। इस माध्यम से अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन यह भविष्य की झांकी है इससे कहीं, किसी को इंकार नहीं हो सकता।

अपनी पढ़ाई की बात पर आते हैं। यश, छत्तीसगढ से जुड़े साहित्य और लेखकों की किताबें छापते रहे हैं। मैं भी जुड़ा रहा, बात हुई तो शर्त रख कर बचना चाहा कि संभव है इसमें आपके द्वारा प्रकाशित किसी पुस्तक, अपनी भी पुस्तक का नाम न लूं, फिर भी वे तैयार हो गए। वार्ता के विषय की बातें होने लगी तो एक बात आई, कि अब पढ़ने के लिए अधिक समय है और इसमें क्या पढ़ रहा हूं। निसंदेह यह दौर अलग किस्म से बीत रहा है। दिनचर्या बदल गई है, यह फर्क समय दे रहा है, आपके पास समय होता है। अन्य दिनों की तुलना में मुझे भी खाली समय अधिक मिला, लेकिन कुछ न कुछ गतिविधियां दूसरे तरह की, कुछ कोरोना रिलीफ के कामों से जुड़ी, कुछ अपने छूटे और नियमित काम, यानि खालीपन नहीं रहा।

यह भी लगता है कि समय निकलना, मानसिक होता है। मैंने महसूस किया कि साढ़े चार-पांच सौ पेज वाली किताब शुरू नहीं कर पाता था, अब ऐसा मौका मिला, खाली समय को अपने ढंग से इस्तेमाल की अधिक संभावना बनी तो मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘कौन हूं मैं‘, हाथ में ली। ज्यादातर लोग परिचित होंगे, बहुत प्रसिद्ध केस था बंगाल का भवाल संन्यासी प्रकरण। ‘कौन हूं मैं‘ शीर्षक दिखता है कि सेल्फ एक्सप्लोरेशन, आत्म संधान है। पुस्तक का प्रारंभिक परिचय का हिस्सा देखते ही बनता है कि वे किस आध्यात्मिक, साहित्यिक ऊंचाई तक उसे ले गए हैं। कोऽअहं की बात हमारी परंपरा में, शास्त्रों में है, वह किस तरह यहां घट रही है। भवाल संन्यासी पर अलग-अलग, संन्यासी राजा, एक जे छिलो राजा, फिल्में भी बन चुकी हैं, बांग्ला में कई पुस्तकें लिखी गई हैं। फिर भी यह एक भारी भरकम किताब आई, जिसे शायद जोशी जी पूरी नहीं कर पाए थे। यह उनके अंतिम दिनों की, शायद छपकर निधन के बाद आई थी। लगता है कि उन्होंने ढेर सारे नोट लिए थे और इस स्वरूप के बजाए कुछ और काम करना चाहते, लेकिन स्वास्थ्यगत या जो भी परिस्थितियां रही हों, यह स्वरूप बना। बहरहाल, पुस्तक की पृष्ठभूमि का, उसी बीज का विस्तार, भवाल राजा का आधार ले कर किया गया है, वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण और अनूठा है।

इस बीच पढ़ी पुस्तकों को एक साथ मिला कर याद करता हूं तो इसमें दो तरह की किताबें हैं। एक सेल्फ एक्सप्लोरेशन की, स्वयं की तलाश वाली और दूसरी, यात्रा-वृत्तांत, खासकर नदियों के यात्रा-वृतांत। इस संयोग में देख सकते हैं कि घुमक्कड़ी में देश को एक्सप्लोर करते हुए, भूगोल को एक्सप्लोर करते हुए, अपनी तलाश भी होती है। अपने संदर्भों से अलग हो कर, यात्रा में, अनजान जगहों पर, अपने तलाश की बेहतर संभावना होती है। अपने संदर्भों में रहते हुए, हमारे संदर्भ ही हावी हो जाते हैं।

क्षेपक- इस दौर में खोजा-पाया करते हुए मियां की मस्जिद, गूगल है। इसलिए वास्तविक खोज तो वही है, जो गूगल से संभव न हो। गूगल करते हुए हम कितनी भी गहराई में उतर जाने की सोचें वह वस्तुतः सतही विस्तार ही होता है। पैरोडीनुमा बात कुछ यूं हो सकती है- जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं नादां देखूं इंटरनेट, लिए लैपटाप बैठ।। इसलिए लगता है कि अब कुछ खोजना-पाना रह गया है तो वह है, खोजी-जानी वस्तुओं और शब्दों का स्वयं अनुभूत बोध और इस रास्ते आत्मबोध।

इस क्रम में अमृतलाल बेगड़ को छिटपुट पढ़ता रहा था। बेगड़ जी ने नर्मदा पर किताब लिखी है, ज्यादातर लोग उससे परिचित हैं। अब एक जिल्द में आ गई है ‘तीरे तीरे नर्मदा‘, तो इस दौर में वह सिलसिलेवार पढ़ने का मौका मिला। इसका तो कहना ही क्या, बहुत सारी अनूठी और रोचक बातें हैं। नर्मदा की परिकम्मा, परिक्रमा करने वालों में एक ऐसा भी है, जो कहता है कि मैंने अपनी गाय के साथ परिक्रमा शुरू की थी। गाय का नाम नर्मदा है, रास्ते में उसकी बछिया पैदा होती है, उसका नाम रेवा है और वह बहुत भाव से बताता है कि परिक्रमा का संकल्प तो इस नर्मदा का, गाय का है। मैं इसके साथ परिक्रमा कर रहा हूं। हां! संकल्प जरूर इसके लिए मैंने किया था। नदी के साथ आस्था के रंग हैं, हमारा जीवन है और इस क्रम में आत्म-संधान है, नदी की जीवंत धारा के साथ बहते हुए जिस तरह खुद को देख पाते हैं, वह यों संभव नहीं होता।

एक तरफ इस तरह की आस्था है उससे कुछ अलग ढंग की पुस्तक अभय मिश्र और रामेंदु जी की गंगा यात्रा की है ‘दर दर गंगे‘। पूरी पुस्तक पत्रकार नजरिए से लिखी गई है। एक तरफ जहां तीरे तीरे नर्मदा में आस्था का भाव है, वहां भी यह बात तो बार-बार आती है कि समय बदल रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, बांध बन रहे हैं, प्रोजेक्ट्स आ रहे हैं तो भविष्य किस तरह का होगा, लेकिन फिर भी उसमें बहुत मजबूत आस्था है। वही यहां टूटते हुए दिखती है, गंगा जैसी आस्था की नदी के साथ यात्रा करते हुए लिखी ‘दर-दर गंगे‘ का, एक तो स्वरुप बहुत अच्छा है। अलग-अलग जगहों की बातें हैं, वहां अलग-अलग पात्र हैं, और उन पात्रों के साथ जो कहानियां कही गई हैं वह मूलतः रिपोर्ताज है। पत्रकारिता का शब्द ‘स्टोरी फाइल करना‘, यानि जो खबरों से आगे की बात होती है, खबरों से ज्यादा गहरी बात, यहां उस तरह की कहानियां है।

नदी यात्रा संस्मरणों में बहुत पहले पढ़ी किताब है देव कुमार मिश्र की ‘सोन के पानी का रंग‘। नदियों पर लिखी गई किताबें और यात्रा संस्मरण में सोन, जो सिंधु या ब्रह्मपुत्र की तरह नद माना गया है, उसकी परिक्रमा उन्होंने की थी। परिक्रमा का हाल-अहवाल इस किताब में जिस तरह से वे कहते हैं, अपने आप में ऐसा सांस्कृतिक दस्तावेज है, मुझे लगता है कि नदियों पर और यात्राओं पर लिखी गई पुस्तकों में जिसकी भी रुचि है अगर वह इस पुस्तक को नहीं पढ़ पाया है तो वह बहुत अमूल्य रीडिंग से वंचित है। इस पुस्तक को जरूर देखना चाहिए।

नदी यात्रा की एक और पुस्तक हमेशा याद आती है। यह बाकी से एकदम अलग ढंग की, राकेश तिवारी जी की लिखी पुस्तक है। और पुस्तक, वह तो कहने ही क्या, नाम है ‘सफर एक डोंगी में डगमग‘। वे भी गंगा यात्रा करते हैं मगर नदी-नदी, धारों-धार और मजे की बात कि डोंगी, चप्पू खुद चलाते हुए यात्रा करते हैं, इस संकल्प के साथ कि वे पूरा सफर, सफर के दौरान रात्रि विश्राम, डोंगी में ही करेंगे। शायद 62 दिन की वह यात्रा है और किस तरह से यात्रा होती है, अनूठा विवरण है। इस किताब की, इसके लेखन की, अभिव्यक्ति की खास बात यह है कि यों पुराविद राकेश जी, उस तरह साहित्यकार नहीं है। कई बार स्थापित साहित्यकारों में ताजगी का अभाव होता है। राकेश जी को जब पढ़ें, भाषा की, भाव की, अभिव्यक्ति की, दृष्टि की ताजगी और कितना ज्यादा वह इन चीजों में इन्वॉल्व हैं, मगर जितने ज्यादा शामिल, उतने ही तटस्थ हैं। उनका ‘मैं‘ कहीं भी लेखन में हावी नहीं होता और इस कारण उनके लिखे से आत्मीय होने में पाठक को देर नहीं लगती।

‘पवन ऐसा डोलै‘ उनकी दूसरी किताब है वह भी मैंने इस बीच पढ़ी, काफी समय से मेरे पास रखी थी। भाषा को ले कर, लोक को, पुरातत्व को, विभिन्न प्रकार के ऐसे क्षेत्रों को ले कर, एक अलग तरह की पुस्तक और जितने विषयों को, जितने क्षेत्रों को एक साथ और जिस क्रम से पिरोया गया है वह पूरी सभ्यता का उद्भव, गुफावासी मानव, आदिमानव, वहां से लेकर सभ्यता के विकास की भी कहानी है, लोक जीवन की भी कहानी है, पुरातत्व के खोज, शोध और उसके विकास की कहानी है तो कहीं न कहीं, जो सबसे कम दिखाई पड़ती है, अंतर्निहित है, वह पूरी पुस्तक राकेश जी के स्वयं की जीवन यात्रा भी है। बहुत महत्वपूर्ण है।

इस सफरनामे की दो पुस्तकें मैंने और पढ़ीं। एक अजय सोडाणी की, वे पेशे से डॉक्टर हैं। घूमने के शौकीन, वह अपने रोजमर्रा से इतर जिन चीजों को देखते हैं, संस्कृति के जिन पक्षों और आयामों को देखते हैं, उन्हें उनकी देख पाने की, पकड़ पाने की और उसे डॉक्यूमेंट करने की, अभिव्यक्त करने की, जैसी उनकी शैली है और उनके पास अपना, अपने पढ़े का, परंपराओं को, लोक को, जीवन को देखने का, अपना नजरिया है, अपनी शैली है। उसके साथ जब ‘दऱकते हिमालय पर दरबदर’ में अपनी बात कहते हैं तो वह कुछ अलग ही, कुछ खास बन जाती है। ठीक वैसी ही एक किताब मनीषा कुलश्रेष्ठ की है। वे जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं, उससे जुड़ी ‘होना अतिथि कैलाश का‘ पुस्तक लिखी है। मनीषा जी जैसी लेखिका है, जैसी साहित्यकार हैं, वैसी ही घुमक्कड़ भी। प्रोजेक्ट का प्रतिवेदन लिखते हुए यह वृतांत, कहां तथ्यात्मक विवरण और कब साहित्य, कब यात्रा संस्मरण, चीजें इतने सुंदर ढंग से एक दूसरे में शामिल होती जाती हैं और वह पूरा का पूरा कैलाश मानसरोवर की उनकी यात्रा में जो भाव उभरा है, उन्होंने गढ़ा है, पढ़ने में रोमांच होता है और रोचक तो है ही।

युवा लेखकों में कुछ मुझे बहुत प्रिय हैं। सिर्फ मुझे प्रिय नहीं है वे इस दौर के गंभीर, उम्र के चौथे दशक वाले, 40 साल से कम उम्र के लेखक हैं, उनमें आशुतोष भारद्वाज हैं। उनकी पुस्तक ‘पितृ-वध‘ आई, वह इस बीच मुझे पढ़ने का मौका मिला। पुस्तक में जितने गंभीर ढंग से हिंदी साहित्य के अलग-अलग लेखकों की, विचारों की विवेचना है, इसे खास बनाती है और जरूरी भी। पितृ-वध शीर्षक ही अपने आप में बहुत रोचक है, उसे रूपक के बतौर देखें तो दरअसल अपनी ऐसी परंपराओं से मुक्त होने का प्रयास, जिससे कुछ नया-ताजा सृजन संभव होता है। यह पितृ वध कंसेप्ट है, चाहे वह अस्तित्ववाद हो, यह आरंभिक काल से चला आता है। हमारे शास्त्रों में भी दिखता है, आधुनिक लेखन में भी है। उसे पीढ़ियां अपने ढंग से अपनाती हैं।

दूसरे युवा व्योमेश शुक्ल हैं। बनारस को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं हैं, रंगमंच पर तो वे हैं ही, कवि हैं, ‘काजल लगाना भूलना‘ और ‘कठिन का अखाड़ेबाज‘ उनकी दो पुस्तकें आई हैं। बनारस वाला अंश दोनों पुस्तकों में है। काजल लगाना भूलना, अपने आप में वह कविता है, गद्य है, गद्य-कविता है या पद्य-गद्य है, कुछ इस तरह की है, लेकिन है पठनीय, गंभीरता की मांग करती। उसमें आपको सोचने की खुराक मिलेगी, उसमें दृष्टि है। और तीसरे युवा लेखक सुशोभित, जिनको इस बीच पढ़ता रहा हूं, उनके लिखे गांधी से बहुत प्रभावित हुआ हूं। यह तीन ऐसे युवा लेखक हैं जिनके किसी भी लिखने पर नजर रहती है, प्रयास करता हूं कि इसमें से कुछ ना छूटे।

दो अनुवाद की चर्चा करूंगा। आप मानें कि नसीहत दे सकने जितना बुजुर्ग हो गया हूं तो खासकर युवा साथी अगर यहां है, यह देख सुन रहे हैं तो कहूंगा कि कोई न कोई एक क्लासिक, किसी विदेशी लेखकों की रचना, अन्य भाषाओं की रचना, कुछ पुराना साहित्य, पारंपरिक और समकालीन, इनका काम्बिनेशन अपने पढ़ने में जरूर रखिए। रस्किन बॉन्ड को, अंग्रेजी में छिटपुट पढ़ता रहा था लेकिन इस बीच स्वाति अर्जुन जी वाले हिंदी अनुवाद से जो रस्किन बॉन्ड आए हैं, मूल की तरह स्वाभाविक। उनका हास्य, आपने देखा होगा, अलग तरह का, बड़ा निर्मल हास्य होता है। हमारे भारतीय हास्य से अलग, पाश्चात्य हास्य है, जो मार्क ट्वेन में, जेम्स थर्बर में देख सकते हैं। इस बीच मैंने फकीर मोहन सेनापति को पढ़ा। उन्हें भी छिटपुट ही पढ़ा था, उनके अनुवाद का एक संग्रह मिला। पढ़ कर लगता है कि उस युग में साहित्यकार, अपने को कितना जिम्मेदार मानता था और रोचकता के साथ, समाज सुधार की भावना के साथ, जो बुराइयां है समाज की उसके साथ, वह किस सुंदर ढंग से बातें कहते हैं।

पुराने क्लासिक है भारतेंदु हरिश्चंद्र, गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, यह कुछ ऐसे लेखक हैं जो हमेशा मेरे आस-पास अगल-बगल होते हैं और किसी भी संदर्भों के लिए मैं उन्हें देखता रहता हूं। अंत में युवा साथियों के लिए दुहरा कर कहूंगा कि पढ़ने में, अन्य भाषाओं की अनूदित चीज, अन्य भाषाओं का अभ्यास हो तो कोई विदेशी भाषा, देश की अन्य भाषा, कुछ क्लासिक, शास्त्रीय रचनाएं, पुराने लेखकों की रचनाएं, कुछ समकालीन, गद्य-पद्य, इस तरह काम्बिनेशन रखें। इस तरह पढ़ना मानसिक स्वास्थ्य के लिए मददगार होगा।

यह पढ़ाई, मैं कर इसलिए पाया क्योंकि मानसिक रूप से लगा कि इस बीच मेरे पास समय है, वरना जिंदगी तो इसी तरह होती है, बस लगता है कि समय नहीं है। आप सब, जो यहां देख रहे हैं, मुझे सुन रहे हैं, शुक्रिया और यश पब्लिकेशन, जिन्होंने मुझे अपने पेज पर जगह दी, उनका भी बहुत-बहुत आभार, धन्यवाद।