Saturday, August 22, 2015

राजा फोकलवा


'राजा फोकलवा', नाटक के केन्द्रीय पात्र फोकलवा के राजा बन जाने की कहानी है। पूरे नाटकीय पेंचो-खम के साथ इस लोक कथा का प्रवाह महाकाव्यीय परिणिति तक पहुंचता है। फोकलवा अलमस्त, बेलाग और फक्कड़ है, दीन बेबस-सी लेकिन ममतामयी, स्वाभिमानी मां का इकलौता सहारा। इस चरित्र में राजसी लक्षण आरंभ से हैं, नेतृत्व, चुनौतियों का सामना करने का साहस, अपने निर्णय के क्रियान्वयन की इच्छा-शक्ति और उसके बालहठ में राजहठ की आहट भी। उसमें कुटिल चतुराई है तो बालमन की नादानी और निर्भीकता के साथ खुद को धार में झोंक देने का दुस्साहसी आत्मविश्वास भी। आम इंसानी कमी-खूबियों वाले इस चरित्र में विसंगत ट्रिगर होने वाला व्यवहार, कहानी में नाटक के रंग भरता है और यह चरित्र आत्मीय न बन पाने के बावजूद दर्शक की सहानुभूति नहीं खोता।

एक दिव्य सुंदर साड़ी और आभूषण- 'तोड़ा' जोड़े के प्रपंच में बार-बार नाटकीय मोड़ बांधे रखता है, दर्शक जैसे ही राग-विभोर होता है, 'सीन' में डूबता है, लय बदल जाती है। मधुरता कैसी और कितनी भी हो, देर तक बने रहने पर एकरसता बन जाती है। कहा जा सकता है कि कहानी में 'हू मूव्ड' वाले 'चीज' का ध्यान रखना, नाटककार के लिए भी अच्छा होता है। नाटक में अप्रत्याशित मोड़, बार-बार चमत्कृत करता है, रिमोट से चैनल-बदल के इस दौर की शायद एक आवश्यकता यह भी है, लेकिन पिछले प्रिय के छूट जाने पर नया बेहतर पाने की चाह दर्शक में जगाना और इस चाहत को पूरा कर पाना, नाटककार के लिए चुनौती होती है और यहां इसे बखूबी निभा लिया गया है।

अभिनेता की सब से बड़ी सफलता है, यदि लगे कि नाटक का चरित्र, उसे देख कर गढ़ा गया है, नायक हेमंत का 'अभिनय' इतना ही स्वाभाविक होता है, कि लगता है, वह इस पात्र से अलग कुछ हो ही नहीं सकता। यवनिका पात पर लगभग प्रत्येक दर्शक प्रशंसा भाव सहित फोकलवा को मंच-परे, उसकी वास्तविकता में देखना, देखे पर विश्वास-अविश्वास के द्वंद्व से उबरना चाहता है। इस चरित्र में नाचा के जोक्कड़ की छाप तो है ही, लेकिन यह हंसाने वाला विदूषक-मात्र नहीं, जिम्मेदार व्यंगकार जैसा भी है। छत्तीसगढ़ी की पहली और उस पूरे दौर की सबसे लोकप्रिय वीडियो फिल्म राकेश तिवारी की ही 'लेड़गा ममा' के नायक की झलक भी इस फोकलवा में है। पारंपरिक लोक-नाट्‌य के कलाकारों की सहजता, प्रत्युत्पन्न-मति और प्रतिभा, नाटक में सहज प्रवाहित है। वैसे भी आरंभिक मंचनों में इस नाटक की व्यवस्थित और पूरी लिखित कोई स्क्रिप्ट नहीं थी, शायद अब भी नहीं है, इससे नाटक की अनगढ़ता कभी इसकी कमजोरी लगती है तो कभी मजबूती और इसी से यह संभव होता है कि लगभग एक घंटे के इस नाटक की अवधि घटाई-बढ़ाई जा कर आसानी से आधी-दूनी हो जाती है।

गीत-संगीत, नाटक का प्रबल पक्ष है। पारंपरिक धुनों और गीतों का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। परम्परानुकूल गणेश-वंदना के साथ करमा, ददरिया, बिहाव-भड़ौनी, राउत, देवार गीतों का प्रसंगानुकूल संयोजन, एक ओर दृश्य-स्थापन में सहायक होता है, नाटक को गति देता है, वहीं छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा की झलक भी दे देता है। 'फोकलवा के फो फो' शीर्षक गीत मन में बस जाने वाला है और नाटक पूरा होने के बाद भी कानों में गूंजता रहता है। यह सब इसीलिए संभव हुआ है कि लोककथा पर आधारित इस नाटक का लेखन, गीत, संगीत, गायन, निर्देशन एक ही व्यक्ति का है।

नाटक की भाषा की बात करें तो इस छत्तीसगढ़ी नाटक का प्रदर्शन दिल्ली में कुछ विदेशी दर्शकों के सामने हुआ, कलकत्ता के पास धुर बंगला दर्शकों ने भी इसे देखा और अन्य भाषा-भाषियों ने भी, लेकिन नाटक पूरा होने के बाद की प्रतिक्रिया ने हर बार तय किया कि इस नाटक की छत्तीसगढ़ी, अन्य को भी सहज ग्राह्य है। इस नाटक के किसी प्रदर्शन में मेरे साथ एक दर्शक, छत्तीसगढ़ी-अपरिचित, ठेठ हिन्दीभाषी थे, उन्होंने इस नाटक का पूरा आनंद उठाया। दो-तीन महीने बाद छत्तीसगढ़ी के सुगम-सुबोध होने की बात पर वे असहमत हुए तो मैंने राजा फोकलवा का जिक्र किया, उन्होंने याद करते हुए मानों खुद से सवाल किया- अच्छा, वह नाटक छत्तीसगढ़ी में था। इस संदर्भ में स्वाभाविक ही नया थियेटर और हबीब तनवीर याद आते हैं। नाचा शैली के उनके कई छत्तीसगढ़ी नाटकों ने भाषाई हर सीमा लांघते हुए देश-विदेश में धूम मचाई थी। यह भी उल्लेखनीय है कि इस नाटक के शुरुआती दौर में अपने रायपुर प्रवास के दौरान हबीब जी ने एक विशेष आयोजन में इसे देख कर, निर्देशक राकेश और नायक हेमंत की पीठ थपथपाई, आंखों में प्रशंसा-भाव की चमक थी लेकिन लगा कि उनके मन में है- काश, यह मैं खेलता।

यह कृति तिवारी जी की बहुमुखी प्रतिभा का सक्षम प्रतिनिधि है। इसकी कहानी मैंने पहले-पहल उन्हीं से सुनी थी और जब उन्होंने बताया कि वे इसे नाटक रूप देने वाले हैं, उनकी प्रतिभा का कायल होने के बावजूद, तब यह मुझे असंभव लगा था, लेकिन नाटक की पहली प्रस्तुति देखने के बाद मेरे लिए तय करना मुश्किल हो गया कि वे बेहतर नाटककार हैं या किस्सागो। संगीतकार, गीतकार, गायक या निर्देशक। इसके बाद मैंने इसकी दसियों प्रस्तुतियां देखी हैं, हर बार उतनी ही जिज्ञासा और रोमांच के साथ। राजा फोकलवा की सौवीं प्रस्तुति होने वाली है, इस मौके पर अब बस इतना कि इसकी शतकीय प्रस्तुति को तो देखना ही चाहूंगा और शायद आगे भी सौ बार देखना मेरे लिए अधिक न होगा।

टीप- 'राजा फोकलवा' नाटक का 100 वां मंचन, महंत घासीदास संग्रहालय परिसर, रायपुर में आज 22 अगस्‍त 2015 को. इस अवसर पर प्रकाशित स्‍मारिका में मेरा लेख.