Monday, December 19, 2022

पदुम-नलिन

सत्यं कटु न हो मगर प्रियं होने से अच्छा है कि वह सुंदरं हो और ऐसा तब होता है, जब सत्यं, सहजं हो। इसी सत्यं सहजं के दर्शन होते हैं 75 वर्षीय डॉ. नलिनी श्रीवास्तव में। 2007 में प्रकाशित, 8 खंडों और लगभग 5000 पृष्ठों वाले, ‘पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ग्रन्थावली‘ का संपादन आपने किया है। बख्शी जी के बड़े सुपुत्र महेंद्र कुमार बख्शी जी की ज्येष्ठ पुत्री नलिनी जी ने 1986 में अपने दादाजी पर पी-एच डी की, विषय था, ‘हिन्दी निबंध की परम्परा में बख्शी जी के योगदान का अनुशीलन‘।


बताती हैं किस तरह बख्शी जी की रचनाओं को एकत्र किया, तब जीवनसाथी, श्रीवास्तव जी (वही जैसा गायक का नाम था, यानि किशोर कुमार श्रीवास्तव जी) का सहयोग होता था। ‘यात्री‘ जैसी उनकी कुछ पुस्तकें बस देखने को मिलीं तो दिन-रात लग कर स्वयं कापी पेन नकल बनाई। अब भी सृजन-सक्रिय, सजग-स्मृति संपन्न हैं। फिटनेस की तारीफ को सहजता से स्वीकार करते कहती हैं, लिखती-पढ़ती रहती हूं, स्वास्थ्य ठीक रहा है, न शुगर न बीपी, सिरदर्द भी नहीं हुआ। 

बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष ललित कुमार जी के आमंत्रण पर अरविंद मिश्र जी, आशीष सिंह जी और राकेश तिवारी जी के साथ भिलाई गया। पूर्व अध्यक्षों में मध्यप्रदेश के दौरान गठित इस पीठ के पहले अध्यक्ष प्रमोद वर्मा जी, छत्तीसगढ़ गठन के बाद सतीश जायसवाल जी, बबन मिश्र जी, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र के कार्यकाल के साथ, पीठ के गठन के और इसके महत्वपूर्ण कारक कनक तिवारी जी की स्मृतियां ताजी होती रहीं। लंबे समय बाद सुअवसर बना नलिनी जी से प्रत्यक्ष मुलाकात का। फोन पर चर्चा जरूर होती रही। एक प्रसंग- बख्शी जी की एक रचना ‘कला का विन्यास‘ टटोल रहा था। ग्रन्थावली में न पा कर उन्हें फोन किया। पहले लगा कि उनका जवाब अनमना सा है- ‘देख लीजिए, निबंध वाले खंड में होगा‘ साथ ही पूरे भरोसे से यह भी कहा कि इस शीर्षक से तो उनका कोई निबंध नहीं है। 

मैंने निबंध का पहला पेज उन्हें वाट्सएप किया, फिर पहला पैरा पढ़ कर सुनाया कि शैली तो उन्हीं की है, वे सहमत हुईं, फिर कहा कि देख कर बताउंगी। मुझे बिलकुल अनुमान न था कि इस बात ने उन्हें कितना बेचैन कर दिया है। देर शाम हुई बात के जवाब में अगली सुबह ही फोन आ गया कि खंड 1, पेज 223 देखिए। फिर बताया कि मुझसे बात होने के बाद रात भर उन्हें नींद नहीं आई। सोचती रहीं कि यह रचना क्योंकर छूट गई होगी। ग्रन्थावली के संस्करण में इसे जोड़ना होगा, आदि। 

सहज सरल मास्टर जी यानि बख्शी जी के व्यक्तित्व की उदारता और सहजता, साहित्यिक जिम्मेदारी और आग्रह की परंपरा को नलिनी जी से मुलाकात कर जीवंत महसूस किया जा सकता है। प्रातः और नित्य स्मरणीय मास्टर जी को नलिनी जी के माध्यम से नमन।

Thursday, December 15, 2022

पुरानी खड़ी बोली

हरि ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा को कण-कण समेटा, उसका एक नमूना यह लेख, जिसकी हस्तलिखित प्रति आशीष सिंह जी ने उपलब्ध कराई, उनका आभार। लेख के प्रकाशन की जानकारी नहीं मिली है। यहां प्रस्तुत-


दक्षिण कोसल में सोलहवीं शताब्दी की खड़ी बोली का नमूना 

कितने आश्चर्य की बात है कि पन्द्रहवीं शताब्दी की खड़ी बोली के गद्य का नमूना हमें उस क्षेत्र प्राप्त हुआ है जहां अब पूर्णरूप से उडिया भाषा बोली जाती है। छत्तीसगढ़ से लगा हुआ उड़ीसा प्रदेश का एक जिला है सुन्दरगढ़। इस जिले के बड़गाँव थाने के अन्तर्गत बरपाली नामक गाँव में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसकी भाषा प्रारंभिक खड़ी बोली है। सम्पूर्ण लेख नागरी लिपि तथा गद्य में है। वह ताम्रपत्र लेख ‘एन्सियेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन्स‘ नामक शोध पत्रिका में श्री के.एस. बेहरा ने प्रकाशित किया है। 

अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कोसल या दक्षिण कोसल कहलाता था। इस दक्षिण कोसल की भौगोलिक सीमा का वर्णन करते हुए श्री एस.सी. बेहरा ने अपने शोध निबंध में लिखा है- रायपुर, बिलासपुर, सम्बलपुर, सुन्दरगढ़, बोलांगीर, कालाहांडी, बौद-फूलबनी और कोरापुट- ये क्षेत्र दक्षिण कोसल में थे। रायपुर और बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हैं ही। शेष जिले उड़ीसा में हैं। उक्त निबंध के लेखक ने रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग और राजनांदगाँव जिलो को भूलवश छोड़ दिया है। वस्तुतः ये जिले प्राचीन दक्षिण कोसल में ही थे। बस्तर का कुछ हिस्सा दक्षिण कोसल में था। शेष दण्डकारण्य कहलाता था।

सन् १७५० में छत्तीसगढ़ पर मराठों का अधिकार हो गया। लगभग उसी समय यह सम्पूर्ण क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। उस समय भी उड़ीसा के उपर्युक्त जिले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन राजा बिम्बाजी के अधीन थे और छत्तीसगढ़ के ही परगना माने जाते थे। सन् १९०५ में बंग-भंग के समय छत्तीसगढ़ के ये उड़ियाभाषी जिले उड़ीसा में मिला दिए गये। इस प्रकार यदि देखा जाये तो इस ताम्रपत्र को दक्षिण कोसल या छत्तीसगढ़ का माना जा सकता है। किन्तु, तथ्य यह है कि वर्तमान में बरपाली उड़ीसा में है। 

इस ताम्रपत्र के प्रदाता थे हम्मीर देव जो सुन्दरगढ़ राज्य के शासक थे। वे परमार शेखर राजवंशके प्रारंभिक राजा थे। यह ताम्रपत्र लेख वस्तुतः एक दानपत्र है। यह दानपत्र राजा हमीरदेव ने अपने स्वर्गीय पिता के आदेश का पालन करने हेतु राजगुरु श्री नारायण बीसी को प्रदान किया था। दानपत्र में राजगुरु को बरपाली गांव दान में देने का उल्लेख है। दान पत्र पर विक्रम तिथि अंकित है तदनुसार २४ जनवरी १५४४ ई. की तारीख पड़ती है। उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ा था। 

हमीरदेव का ताम्रपत्र लेख

(१) 
‘‘ सोस्ती श्री माहाराजा धीराज माहाराज
श्रीश्री हंमीर देव के राजगुरु श्री
नारायण वीसीई को परनाम पूर्व
सो पीता स्यामी का हुक्म था
के एक गांव कुसोदक दे देना सो
बमौजी व हुकुम पीता जी के
वो अपने घुसी में मौजे बरपाली

(२)
गांव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन
में कुसोदक कर दिआ पुत्र पौत्र
भादीक भोग किया करो जावत
चन्द्र दीवाकर रहेगे तावत भोग
करोगे वौ गार्गवंस वीन्द होगा
औवर जो कोहि होय सो जगह
को ग्राश्चन्ही करेगा तारीफ १५
पुस समत १६०० साल सही ‘‘

भाषा की दृष्टि से दान-पत्र का यह लेख ऐतिहासिक महत्व रखता है। उड़िया भाषी क्षेत्र में इस दान पत्र का प्राप्त होना इस बात का संकेत करता है कि सोलहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र की भाषा वही थी जो इस दानपत्र में है। कम से कम राज-काज की भाषा तो यह निश्चित रूप से ही थी, यह ताम्रपत्र लेख से स्वयं प्रमाणित है। निश्चय ही इस भाषा को उस समय की जनता समझ सकती थी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि सुन्दगढ़ राज्य छतीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। छत्तीसगढ़ के राजाओं के कामकाज की भाषा भी लगभग यही थी।

इस लेख की दूसरी विशेषता है कि वह शुद्ध गद्य में है और खड़ी बोली में है। इसकी भाषा पर हमें ब्रज या अवधी का कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। खड़ी बोली के व्याकरण के अनुसार इस प्रकार की भाषा का इस क्षेत्र में प्राप्त यह प्रथम और दुर्लभ लेख है।

लेख में हिज्जे की अनेक त्रुटियां हैं। ये त्रुटियां ताम्रपत्र पर लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भी हो सकती हैं। स्वस्ति को सास्ति, महाराजा का माहाराजा, वीसी को बीसीई, पूर्वक को पुर्व पिता को पीता, स्वामी को स्यामी, एक को येक, कुशोदक को कुसोदक, खुशी को घुसी, गांव को गाव, आसीमांत को आसीन्त, सूर्य को सुर्ज्य, दिशा को दिआ, पौत्रादिक को पौत्रादीक, यावच्चंद्र को जावतचन्द्र, दिवाकर को दीवाकर, व या औ को वौ, वृन्द को वीन्द और को अवर, कोई को कोहि, ‘ग्रहण नहीं‘ को ग्राश्चन्हीं, तारीख को तारीक, पूस को पुस, संवत् को समत लिखा गया है। ये त्राुटियाँ दान-पत्र को लिपिबद्ध करने वाले की भी हो सकती हैं।

लेख की अन्य विशेषता है- संस्कृत तथा अरबी-फारसी के शब्दों का एक साथ प्रयोग। संस्कृत के शब्द स्वस्ति, कुशोदक, आसीमान्त, यावच्चन्द्र दिवाकर आदि प्रयोग इस बात का घोतक है कि दान पत्र लिखने वाला संस्कृत का पंडित था। साथ ही वह उर्दू के शब्दों से भी परिचित था जैसे बमौजी, हुकुम, खुशी, मौजा, तारीख, साल आदि। उर्दू शब्दों के प्रयोग से यह भी सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र की राज-काज की भाषा पर उर्दू का प्रभाव पड़ चुका था।

लेख में १५ पंक्तियां हैं। ताम्रपत्र के प्रथम पृष्ठ पर ७ पंक्तियां हैं। द्वितीय पृष्ठ पर ८ पंक्तियां हैं। खड़ी बोली के गद्य के विकास का अध्ययन करने वालों के लिए यह लेख पर्याप्त रुचिपूर्ण हो सकता है।

उपर्युक्त लेख में की पंक्ति क्रमांक १२ में बीन्द शब्द आया है। इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभवतः यह वृन्द के अर्थ में आया हो। वस्तुतः यहाँ पर ‘‘गोत्र‘‘ शब्द होना चाहिए था। इस लेख को आज की भाषा में इस प्रकार लिखा जायेगा-

‘‘स्वस्ति श्री महाराजा धिराज महाराज श्री श्री हम्मीर देव के राजगुरु श्री नारायण वीसी को प्रणाम पूर्वक सो पिता स्वामी का हुक्म था कि एक गांव कुशोदक दे देना सो बमौजी (स्वेच्छा से) व हुक्म पिताजी के व अपनी खुशी से मौजा बरपाली गाँव आसीमांत सूर्यग्रहण में कुशोदक कर दिया (कि) पुत्र पौत्रादिक भोग किया करो यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे तब तक भोग करोगे और गर्ग वंश गोत्र में रहेगा और जो कोई भी हो इस जगह (गाँव) को अधिग्रहण नहीं करेगा तारीख १५ पूस संवत् १६०० साल सही।‘‘

सोलहवीं शताब्दी के पूर्व की खड़ी बोली के कुछ नमूने उपलब्ध हैं जैसे पृथ्वीराज, मेवाड़ के राजा रावल समर सिंह, महात्मा गोरखनाथ, तथा स्वामी विट्ठलनाथ जी को पत्र। किन्तु इन पत्रों की भाषा को खड़ी बोली का गद्य कहना न्यायोचित नहीं कहा सकता। खड़ी बोली का उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण अमीर खुसरो का है किन्तु उसकी भाषा पर भी ब्रज भाषा का गहरा प्रभाव है। दूसरी बात, उनकी रचनाएं पद्य में हैं।

प्रस्तुत ताम्रपत्र लेख की खड़ी बोली के गद्य के समकक्ष स्वामी विट्ठल नाथ जी का यह गद्यांश रखा जा सकता है-

‘‘स्वामी तुम्हैं तो सतगुरु अम्हे तो लिष सबद एक पूछिवा दया करि कहिबा, मन न करिबा रोस। पराधीन उपरांति बन्धन नाहीं, सो आधीन उपरांति मुकुति नाई। यह भी १६००वीं शताब्दी का गद्य है। अब इसी के समकक्ष समकालीन दक्षिण कोसल के ताम्रपत्र लेख के लेख को गद्य की भाषा से तुलना कीजिए-
 
‘‘ सो पीता स्वामी का हुक्म था के येक गाँव कुसोदक दे देना सो बमौजी व हुकुम पीताजी के वो अपने घुसी में मौजे बरपाली गाँव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन में कुसोदक कर दिआ।‘‘

यदि इस गद्य को लिपिबद्ध करने वाले ने हिज्जे के प्रति सावधानी रखी होती तो यह अपने समय के उत्कृष्ट गद्य का उदाहरण होता फिर भी मेरे विचार से इन दोनों उदाहरणों में से यह दूसरा उदाहरण खड़ी बोली का अधिक शुद्ध रूप है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि खड़ी बोली के गद्य का यह नमूना हमें अहिंदी क्षेत्र से प्राप्त हुआ है जो इस बात का भी प्रमाण है कि अहिन्दी क्षेत्र में भी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी प्रचलित थी और राजकाज की भाषा थी।
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Saturday, December 10, 2022

पीथमपुर - सतीश जायसवाल

लीलागर-महानदी-हसदेव तट के मेलों में पीथमपुर की खास पहचान है। होली-धूल पंचमी पर भरने वाला यह मेला मौसम और भूगोल की संधि पर होता है। यह मेला छोटी-मोटी फौजदारी से ले कर कभी हत्या तक की घटनाओं के लिए बदनाम रहा हैं। यह भी देखा गया है कि इस दौरान आंधी-तूफान से एक बार मेला उजड़ कर फिर जमता है। यहां कलेश्वरनाथ मंदिर के पुजारी साहू जाति के हैं। इस अंचल में कनकी के जांता महादेव मंदिर के पुजारी यादव होते हैं और राजिम के राजीव लोचन मंदिर के पुजारी क्षत्रिय हैं।

पीथमपुर पर अश्विनी केशरवानी जी ने कलम चलाई है और यहां सतीश जायसवाल जी की लेखनी का प्रवाह है। सतीश जी कविता-कहानी वाले साहित्य में रमे रहते हैं, लंबे समय तक पत्रकारिता भी की है, अवसर अनुकूल अपनी भूमिका निर्धारित कर लेते हैं। कथा और कथेतर के भेद को जोड़ते-मिटाते अपनी धारणा को साहित्यिक रंग देते, खतरनाक प्रयोग करना उन्हें आनंदित करता है, जो उनके पात्रों के लिए हमेशा सहज नहीं होता। ऐसे ही कुछ विवादित प्रयोग मुक्तिबोध का ‘विपात्र‘ और हबीब तनवीर का नाटक ‘हिरमा की अमर कहानी‘ है। इस शैली में उनके कुछ संतुलित प्रयोग भी हैं, जैसे ‘मछलियों की नींद का समय‘। कहानी के नायक डॉ. शंकर शेष हैं और एक पात्र सतीश (कहानी के लेखक स्वयं) भी।

मेरी दृष्टि में उनका महत्वपूर्ण काम यात्रा-संस्मरण और छत्तीसगढ़ की संस्कृति, कला, इतिहास और परंपरा के विशिष्ट आयाम को बेहद सजग और संवेदनशील देखना-समझना और संजीदगी से अभिव्यक्त-दर्ज करना है। भाट चितेरे, नरसिंहनाथ, बालपुर, जयरामनगर और जनजाति, बस्तर, महानदी जैसे विषयों से जुड़े उनके लेख छत्तीसगढ़ की अस्मिता और गौरव के ऐसे दस्तावेज हैं, जो अन्यथा दुर्लभ हैं। बातचीत के दौरान हां-हूं करते वे अपनी इस खासियत के प्रति रूखे की हद तक उदासीन रहते हैं। आभार कि ऐसी टिप्पणी की छूट, इतना अधिकार उन्होंने मुझे दे रखा है या कहें मैंने ले रखा है।

नवभारत, बिलासपुर में 14-3-93, पृष्ठ -7 पर प्रकाशित रपट, यहां प्रस्तुत-

पीथमपुर मेला: भीड़ कम और धार्मिकता ज्यादा 
मान्यता: रोगियों की पीड़ा का हरण
कलेश्वरनाथ की कृपा

(पीथमपुर से सतीश जायसवाल की रपट)


बिलासपुर. महानदी के तट पर भरने वाले शिवरीनारायण के मेले में घटित घटना का जो असर हसदो तट पर भरने वाले पीथमपुर मेले में पड़ना आशंकित था, वैसा ही हुआ। धूलि- पंचमी के दिन, शिव-बारात के उठने के समय, पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष शिव बारात के प्रमुख बाराती नागा-साधुओं की संख्या अधिक थी, लेकिन इस बारात को देखने के लिये दूर-दूर से आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या कम थी और शिव-बारात की व्यवस्था के लिये नियुक्त किये जाने वाले नियमित पुलिस बल के मुकाबले विशेष सशस्त्र बल के सिपाहियों की संख्या अधिक थी, जो किसी भी आशंकित स्थिति के लिये पूरी तरह तैयार थे, लेकिन सौभाग्य से कोई भी अप्रिय स्थिति निर्मित नहीं हुई।

पीथमपुर के पुराने मेले की याद रखने वालों का कहना है कि जिस समय शिव जी का बारात लेकर नागा साधू चलते है, उस समय एक लाख लोगों तक की भीड़ जुड़ जाया करती थी, लेकिन इस वर्ष यह भीड़ २५ से ३० हजार के बीच सिमट कर रह गई। लोगों ने बताया कि शाम होने के साथ-साथ भीड़ यहां जिस हिसाब से बढ़ती है, उस हिसाब से दिया-बत्ती के बाद भी वह भीड़ ४० हजार लोगों को पार नहीं कर पायेगी। बताया गया कि शिवजी की बारात के साथ चलने वाले नागा साधुओं की संख्या पिछले वर्ष १४-१५ से अधिक नहीं थी, लेकिन इस वर्ष ३५-३६ से अधिक साधू शिवजी की बारात के साथ नजर आये। इस वर्ष ये साधू दक्षिण में केरल से लेकर, जूनागढ़ (गुजरात) गोरखपुर तथा वाराणसी (उ.प्र.) अमरकंटक (म.प्र.) और हिमाचल प्रदेश आदि के अखाड़ों से आये। एक शताब्दि से भी अधिक पुराना होने जा रहा यह पारम्परिक मेला, भीड़ के अतिरिक्त भी अपने बिखराव की तरफ दिखाई दे रहा है। शिवजी की बारात के आगे-आगे चलने वाले पटे बाज, तलवार के हुनर दिखाने वाले, रंगे-चंगे नंदी, झांकी के साथ चलने वाले हनुमान, शिव-पार्वती आदि अब नहीं दिखते, लेकिन कुछ नई धार्मिक परम्पराएं स्थापित होती भी दिखाई दीं। चांपा के करीब तपसी बाबा आश्रम से लगभग दो-अढ़ाई सौ कांवड़ियों ने यहां शिवजी को जल अर्पित किया। नई मनोकामना लेकर अथवा पुरानी मनौतियां पूर्ण होने पर, जमीन पर लेटते हुये पीथमपुर पहुंच कर भगवान कलेश्वर नाथ (शिवजी) को नारियल चढ़ाने वाले आस्थावादी भी बढ़ रहे हैं। चांपा से पीथमपुर तक, लगभग ८ किलोमीटर की दूरी, जमीन पर लेटकर नापती हुई पहुंची एक महिला श्याम बाई ने बताया कि उसके पांच वर्षीय नाती को गंभीर खूनी पेचिश थी और उसकी जान बचाने के लिये बिलासपुर के सरकारी अस्पताल में २ बोतल खून मांगा गया। दो बोतल खून के लिये श्याम बाई के पास न तो पैसे थे, न परिचय, लेकिन पता नहीं कहां से एक अपरिचित युवक आया, जिसे श्याम बाई नहीं जानती कि वह मनुष्य था या देवता, दो बोतल खून दे गया। उसके नाती की जान बच गई। श्याम बाई ने तभी मनौती मांगी थी कि जमीन पर लेटते हुये पीथमपुर आयेगी तथा भगवान कलेश्वर नाथ को नारियल चढ़ायेगी।

पुरानी मान्यता है कि भगवान कलेश्वर नाथ की कृपा से पेटदर्द के रोगियों की पीड़ा का हरण होता है इसलिये पेट दर्द से छुटकारा पाने की आस लिये आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ रही है। इन आस्था वादियों में चांपा के एक पत्रकार भी भगवान कलेश्वरनाथ के दर्शन के लिये पहुंचे। पीथमपुर का धार्मिक महत्व अब होली या धूलि पंचमी के दो दिनों में केन्द्रित न होकर, शिवरात्रि से शुरू होने लगा है। लोगों बताया कि पिछले वर्षों के मुकाबले इस वर्ष पीथमपुर में महाशिवरात्रि पर सर्वाधिक चढ़ाये गये। दरअसल, पीथमपुर का कुल महत्व उसके धार्मिक तथा व्यावसायिक पक्षों में बंटा हुआ है। भगवान कलेश्वर नाथ की अर्चना-पूजा महाशिवरात्रि पर्व से प्रारंभ हो जाती है और वस्तुतः पीथमपुर मेले की धार्मिक शुरूआत महाशिवरात्रि पर्व से ही प्रारंभ होती है, जबकि पारम्परिक मेले की व्यावसायिक शुरूआत होली के दिन से होती है, जब दूर-दूर से यहां पहुंची दुकानों में लेन-देन प्रारंभ होता है।

इस वर्ष मेले की जगह भी बदली गई है। एक सीध वाली लम्बाई में भरने वाला मेला अब चौड़ाई में फैला है और दुकानों की कतारें नदी तट की ओर उतरी है। जिन दुकानदारों ने पहले की तरह, लम्बी सीध से अपना शामियाना लगाया, उनकी दुकानदारी कमजोर रही। पहुंच की दृष्टि से पीथमपुर, जांजगीर, चांपा तथा सारागांव से लगभग बराबर-बराबर दूरी पर है। लगभग ८ किलोमीटर, लेकिन चांपा और सारागांव की तरफ से यहां आने वालों का रास्ता नदी की तरफ से है इसलिये इस वर्ष नदी तट की तरफ वाले दुकानदारों को अधिक ग्राहकों का लाभ मिला।

स्थानीय लोगों ने शिकायत की कि मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम पीथमपुर मेला को फायदे का सौदा नहीं मानता। एक दिन में, न्यूनतम १० हजार से लेकर अधिकतम १ लाख तक यहां पहुंचने वाले दर्शनार्थियों के लिये या तो तांगों का सहारा है अथवा निजी टैक्सियां। गांवों के लोग गाड़ा-गाड़ी से आ जाते है और बकाया के लिये यहां पैदल ही जाना है ... पुलिस सुरक्षा व्यवस्था के साथ साथ दीगर प्रशासनिक व्यवस्था भी इस वर्ष पहले के मुकाबले बेहतर है। एक प्रशासनिक आदेश के जरिये, मेला-अवधि के दौरान, मध्य भारत पेपर मिल को हसदो नदी में जल प्रवाहि करने पर पाबंदी लगा दी गई। हसदो नदी उस तट पर स्थित, मिल द्वारा रसायनिक द्रव युक्त प्रदूषित पानी के नदी में प्रवाहित किये जाने से यहां जल प्रदूषण की शिकायतें आसपास के गावों से की जाने लगी है। अपने सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रम के तहत पेपर मिल ने अपनी ओर से मेले में पेयजल के लिये ‘प्याऊ‘ लगाया है। विभिन्न शालेय तथा विश्वविद्यालयीन परीक्षाओं को ध्यान में रखकर लाउडस्पीकरों के उपयोग पर लगे प्रतिबंध का असर मेले में देखने मिला। लाउडस्पीकर पर बजने वाले फिल्मी गीतों के अभाव में मेला सूना- सूना लगा।

एक जनश्रुति के अनुसार, यहां के स्वयंभू शिव की मूल प्रतिमा जिस तेली हीरा साय के घर घूरे के नीचे से मिली थी, उस परिवार के लोगों को शिव बारात प्रस्थान से पूर्व पूजा का प्रथम अधिकार प्राप्त है तथा उस परिवार के पुरुष सदस्य शिवजी की पालकी उठाकर चलना अपना गौरव मानते हैं। इस परिवार की महिलाएं आज भी यही मानती और बतलाती है कि शिवजी का मूल स्थान उनका घर है, इसलिये उनके घर को शिव गद्दी होने का महत्व है। पत्रकारों के एक दल ने पीथमपुर और आसपास, से मेले में आयी हुई तेली युवतियों की भूरी-हरी आंखों चमत्कारिक सौदर्य को देखा और तथ्यों की पुष्टि की। इस पत्रकार दल ने राष्ट्रीय सेवा योजना की चांपा इकाई के समक्ष प्रस्ताव रखा है कि इस नृतत्व शास्त्रीय विशिष्टता का प्रारंभिक अध्ययन करें। अनुमान किया जा रहा है कि आगामी वर्षों में, यह विशिष्टता, पीथमपुर के मेले में आने वाले दर्शनार्थियों के लिये आकर्षण का मुख्य केन्द्र होगी। 
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Monday, December 5, 2022

डीपाडीह - वेदप्रकाश

वेदप्रकाश नगायच
1988 से 1990 सरगुजा में पुरातत्वीय गतिविधियों के उल्लेखनीय वर्ष हैं। इस दौरान डीपाडीह के स्मारक, पुरावशेष अनावृत्त हुए। इस कार्य में जी.एल. रायकवार जी के साथ, लगभग पूरे समय मेरी सहभागिता रही। आरंभिक चरण में बारी-बारी शामिल विभाग के अन्य अधिकारी में वेदप्रकाश नगायच जी की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। काम के साथ, विभिन्न प्राप्तियों पर विस्तार से विचार-विनिमय होता। नगायच जी ने इन अधपकी चर्चाओं को करीने और सलीके से अपने अनुभव का आधार दे कर लेख का स्वरूप दिया, जो ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 25 फरवरी 1989 अंक में प्रकाशित हुआ, यहां प्रस्तुत-

डीपाडीह
मंदिरों का नगर

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में स्थित सरगुजा जिला प्राचीन इतिहास की अनेक श्रृंखलाओं को अपने में समाहित किये हुये है। सरगुजा का संपूर्ण क्षेत्र अलौकिक सौंदर्य से ओत प्रोत है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने वनों, पर्वतों, नदियों एवं सरोवरों की नैसर्गिक छटा यहां बिखेर दी हो। संभवतः इसी से इसे ‘स्वर्गजा‘ की संज्ञा से विभूषित किया गया एवं पश्चातवर्ती काल में अपभ्रंश होते हुये इसका नाम सरगुजा हो गया।

इस जिले के पुरातत्वीय महत्व के स्थलों में रामगढ़ स्थित जोगीमारा एवं सीतावेंगा की गुफायें तथा पहाड़ पर ही स्थित विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला है जो तीसरी दूसरी शती ईसा पूर्व की है। जिसका अभिलेखीय साक्ष्य भी है। इसके अतिरिक्त मुख्य पुरातत्वीय स्थलों में महेशपुर, लक्ष्मणगढ़, सतमहला, देवगढ़, सीतामढ़ी, हरचौका, बेलसर, एवं डीपाडीह है। परंतु ये सभी स्थल पुरातत्वीय संपदा से सम्पन्न होते हुये भी रामगढ़ की विश्व विख्यात कीर्ति के समक्ष अपनी पहचान व महत्व के लिये उपेक्षित ही बने रहे।

हाल ही में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आयुक्त श्री के. के. चक्रवर्ती ने इन उपेक्षित स्थलों का निरीक्षण करते हुये प्रथम दृष्टया डीपाडीह को पुरातत्वीय अन्वेषण का केंद्र बनाया। यहां के टीलों में दबे पड़े मंदिरों, मूर्तियों, परावशेषों को अनावृत्त करने हेतु राज्य पुरातत्व विभाग के अधिकारियों द्वारा मलवा सफाई का कार्य उनके निर्देशन में जारी है।

ग्राम डीपाडीह जिला मुख्यालय अंबिकापुर से ७३ कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है जो कुसमी तहसील के अंतर्गत आता है। डीपाडीह की स्थिति अत्यन्त मनोरम है. चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा कन्हर, सूर्या तथा गलफुल्ला नदियों के संगम के किनारे बसा है। जहां सूर्या नदी का पानी गर्म है वहीं कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों का पानी ठंडा है। समुद्रतल से डीपाडीह की ऊंचाई लगभग २९०० फीट है जिस से यहां का मौसम काफी सुहावना रहता है।

ग्राम डीपाडीह से करीब २ कि.मी. पर शाल वृक्षों के घने झुंडों के मध्य मुख्य रूप से शिव मंदिरों के करीब २० टीले एवं एक बावली है। इस स्थल को यहां के लोग सामत सरना कहते हैं। यहां की प्रचलित लोक-कथा के अनुसार बिहार प्रांत के टांगीनाथ से यहां के सामत या सम्मत राजा का युद्ध हुआ था जिसमें टांगीनाथ ने अपनी कुल्हाड़ी फेंककर सामत राजा पर वार किया और वह यहीं वीरगति को प्राप्त हुये थे, जिनकी यहां स्थित विशाल प्रतिमा को लोग पूजते हैं। वस्तुतः यह परशुधर शिव की प्रतिमा है जो कालक्रम में कई भागों में भग्न हो गई जिसे ग्रामवासियों द्वारा इस स्थल के विविध टीलों (मंदिरों के) से अलंकृत प्रस्तर खंड व प्रतिमाएं लाकर घेरकर एक लघु मढ़िया का रूप दे दिया है तथा सामत राजा के नाम से इन्हें पूजते हैं व आदिवासी लोग यहां अपने समाज की बैठकें किया करते हैं।

सामत सरना में टीलों के ऊपर भी प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी है जिनमें गणेश, भैरव, वीरभद्र, शिवगण, नदी-देवी, महिषासुरमर्दिनी, चामुण्डा व विविध शिल्पखंड प्रमुख हैं।

सामत सरना से थोड़ा आगे उरांवटोली (उरांव लोगों की बस्ती) स्थित है। सामत सरना एवं उरांव टोली के मध्य करीब ७-८ टीले तथा एक पक्का रानी तालाब भी है। सामत सरना से करीब १ कि.मी. पश्चिम की ओर कन्हर नदी के किनारे भी दो मंदिरों के भग्नावशेष हैं जिस में मंदिरों की द्वार चौखटें तथा अलंकृत शिल्पखंड यत्र तत्र बिखरे हुये हैं।

इस प्रकार डीपाडीह के ४-५ कि. मी. के क्षेत्रफल में करीब ३० मंदिरों के टीले हैं जो स्पष्टतया डीपाडीह के मंदिरों का नगर होना प्रमाणित करते हैं। अभी तक डीपाडीह के उरांवटोली स्थित एक विशाल टीले तथा सामत सरना के ३ टीलों की मलवा सफाई कार्य संपन्न हुये हैं जिनसे मंदिर के वास्तु एवं प्रतिमा विधान के नये आयाम स्थापित हुये हैं।

उरांवटोली जो कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों संगम के समीप स्थित है, के विशाल टीले की मलवा सफाई में शिवमंदिर के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये हैं। मंदिर का शिखर एवं मंडप भाग पूर्णतः धराशायी हो चुके हैं मंदिर की जगती एवं अधिष्ठान अपने मूलरूप में अनावृत्त हुये हैं।

मंदिर निर्माण योजनानुसार एक विशाल चबूतरे पर जिसमें मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह तीनों अंग स्पष्ट हुये हैं। पूर्वाभिमुख इस मंदिर के मंडप में तीन सीढ़ी चढ़कर पहुंचते हैं। मंडप १६ स्तंभों पर आधारित रहा होगा। चार स्तंभों की तीन पंक्तियां हैं जिनकी कुंभियां अपने मूल स्थान पर हैं तथा उत्तर व दक्षिण दिशा में दो दो दीवाल स्तंभ हैं।

अंतराल खंड में एक एक शार्दूल प्रतिमा शार्दूल मंडप में स्थापित थी जिसमें एक शार्दूल मंडप में रखा पाया गया है। अंतराल की उत्तरी दिशा में नदी देवी गंगा तथा दक्षिणी दिशा में यमुना की प्रतिमायें प्रदर्शित थी जो वर्तमान में मूल स्थान से हटकर पायी गयी हैं। मात्र गंगा की प्रतिमा का निचला खंड भाग मूल स्थान पर है।

मंदिर की द्वार चौखट में मात्र दो द्वार शाखायें हैं जिनमें विद्याधरों का पुष्पहार लिये अंकन है। इस प्रकार का अंकन राजिम (रायपुर) एवं मल्हार (बिलासपुर) के मंदिरों में भी पाया गया है। 

मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है तथा बीच में स्लेटी प्रस्तर का विशाल शिवलिंग गोलाकार जलहरी सहित मूल स्थान पर भग्नावस्था में स्थापित है। 

मंदिर की बाह्य भित्ति पर खुरभाग में गोधा, सर्प, विच्छू, केला खाते बंदर, सर्प, मयूर, युद्ध, कमंडलु, व दंड को एक ओर रखे उपासक की लेटे हुये तथा मुक्तालड़ी युक्त मयूरों आदि का अंकन है। सामान्यतया छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इस प्रकार का अंकन नगण्य है। मालवा की परमार कला में ही ऐसा अंकन पाते हैं। मंदिर के जंघा भाग पर कमलफुल्लों, पुरुष शीर्ष, चैत्यगवाक्ष में उमा महेश्वर युगल आदि का अंकन है। 

इस मंदिर की मलवा सफाई में प्राप्त प्रतिमाओं में दंडधारिणी कीचक, नदी देवी गंगा, एक सिर दो धड़ युक्त सिंह, मिथुन युगल, अर्ध उत्कटासन में बैठा पुरुष, चैत्य गवाक्ष में सूर्य, कुत्ते पर सवार त्रिशूल लिये भैरव तथा नक्काशीदार शिल्पावशेष प्रमुख हैं। 

यह मंदिर मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य के आधार पर लगभग ८वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में निर्मित प्रतीत होता है। 

सामत सरना स्थित विशाल टीले की मलवा सफाई के पश्चात् इसका वर्गाकार गर्भगृह, द्वारचौखट, वर्गाकार मंडप, विशाल एवं अद्वितीय प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इसी के सामने ध्वस्त आयताकार नंदी मंडप मिला है जिसमें अतिसुंदर एवं विशाल नदी का भक्तिभाव से अपने आराध्य एवं स्वामी शिव की ओर निहारते हुये रखा है। मलवा सफाई में निकले इस शिव मंदिर की जगती दोहरे चबूतरे युक्त है तथा ऊंचे चबूतरे पर मंडप की दीवार बनी है।


यह पूर्वाभिमुख सप्तरथयुक्त मंदिर विशाल वर्गाकार मंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह इन तीन अंगों वाला है। वर्गाकार मंडप आठ स्तंभों पर आधारित रहा है जिसके दो स्तंभों की कुंभियां अपने मूल स्थान पर है। मंडप से प्राप्त दो स्तंभों पर जो गोलाकार है, नीचे से ऊपर तक चारों ओर मान्मथ अंकन है। मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी भित्ति से लगी प्रतिमाओं के ४-४ पादमूल (पेडेस्टल) पाये गये हैं जिनमें उत्तरी भित्ति के केवल दो पादमूलों पर १० भुजी महिषासुर मर्दिनी, १० भुजी भैरव, प्रतिमा प्रदर्शित पायी गयी तथा दक्षिणी भित्ति के एक पदमूल पर गौरी की (दो भागों में विभक्त) प्रतिमा है। पूर्वी भित्ति के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भी एक- एक पादमूल पर क्रमशः नृवराह तथा कल्याण सुंदर मूर्ति (शिव विवाह दृश्य का आधा खंड भाग ही) प्रदर्शित है। इस प्रतिमा में ब्रम्हा को पुरोहित का कार्य करते एवं अग्नि द्वारा भी मानव रूप में विवाह दृश्य देखने का लोभसंवरण न कर पाना स्पष्टतः अंकित है। गणेश एवं कार्तिकेय भी विवाह में उपस्थित हैं व नंदी भी प्रसन्न होकर निहार रहा है। 

मंदिर के अंतराल एवं गर्भगृह में प्रविष्ट होने हेतु प्रस्तर निर्मित विशाल द्वार चौखट है जिसका उदुम्बर अपने मूल स्थान पर है जिसमें मध्य में चंद्रशिला अर्धपद्माकृति में है तथा दोनों ओर ढाल तलवार लिये योद्धा एवं गज पर पीछे से हमला करते हुये सिंह का अंकन है। प्रवेशद्वार की द्वार शाखायें त्रिशाल हैं। दायीं ओर की द्वारशाखा में वाहन मकर पर सवार नदी देवी गंगा का अनुचरों सहित अंकन है बीच में वानर एवं ऊपर वीणाधारिणी बनी है तथा लता पत्रावली का सुरुचिपूर्ण अंकन है। ऐसा ही अंकन बायीं ओर की द्वारशाखा नदी देवी यमुना वाहन कच्छप के अंकन सहित है। सिरदल भी त्रिशाख है मध्य में गजलक्ष्मी का अंकन है तथा दोनों ओर माला लिये विद्याधरों का अंकन है। दायें किनारे पर नंदी पर आरूढ़ चतुर्भुजी नृत्य शिव तथा बायीं ओर चर्तुभुजी परशुधर शिव अंकित है। ऊपर व नीचे के शाख पर लता-पत्रावली का अंकन है।

वर्गाकार गर्भगृह के बीच में चौकोर जलहरी के मध्य विशाल सिलेटी प्रस्तर का भग्न शिवलिंग है। मलवा सफाई में मंदिर के मंडप की बाहय भित्तियों के पास नृत्यगणेश, कार्तिकेय, विराट स्वरूप विष्णु, ब्रम्हा की अतिसुंदर एवं विशालकाय प्रतिमायें पायी गयी हैं जो समानुपातिक एवं कलात्मक हैं तथा गर्भगृह की बाह्य भित्तियों के मलवे में गौरी प्लेक एवं विविध देव सिर, अर्धनारीश्वर, भैरव, शिव, विष्णु उमा-महेश्वर, शिवगण, सूर्य, शार्दूल, गणेश आदि की प्रतिमायें व प्रतिमा खंड मिले हैं।

इस शिव मंदिर का चबूतरा जगती एवं अधिष्ठान मलवा सफाई में प्रकाश में आये हैं। अधिष्ठान में पद्मपत्र अलंकरण युक्त अधिष्ठान बंध है। अधिष्ठान बंध के ऊपर जंघाभाग में लघु स्तंभों पर आधारित मंडपिकाओं का अंकन है जिनके छाद्य में कमल पत्रों पर लघु कलशों का अंकन है। इनके ऊपर मध्य रथिका में चैत्य गवाक्ष का क्रमिक अंकन है। अधिष्ठान बंध के ऊपर कुड्य स्तंभों से बनी मंडपिकाओं पर बीच में बने पद्म अलंकरण युक्त दो घंटों के दोनों ओर सिंह (शार्दूल) अंकन है। यह अंकन मंदिर की तीनों ओर की बाह्य भित्ति पर हुआ है उत्तरी दिशा में अधिष्ठान बंध में कीर्तिमुख अंकन युक्त जलहरी बनी है।

इस मंदिर का शिखर एवं मंडप पूर्णतः धराशायी हो चुका है जिनके भग्नावशेष एवं शिल्पखंड चारों ओर पाये गये हैं। प्रतिमाओं एवं स्थापत्य विधा को देखते हुये इस मंदिर का काल लगभग ९वीं शती ई. का निर्धारित होता है। इस मंदिर के दक्षिणी पार्श्व में ५-६ लघु मंदिर, लघु शिवलिंग की स्थापना सहित चबूतरे पर स्थापित हैं।


सामत सारना स्थित मुख्य शिव मंदिर के उत्तरी पार्श्व में तीन गर्भगृह वाला मंदिर समूह मलवा सफाई में निकला है जो पूर्वाभिमुख हैं तथा एक दीवाल से दो भागों में विभक्त है जिस से एक मंडप व एक गर्भगृह का एक मंदिर तथा एक मंडप दो गर्भगृह के दो मंदिर के रूप में यह दीवाल विभक्त करती है। ये मंदिर समूह मात्र अधिष्ठान तक ही चारों ओर है शेष भाग पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है।

दक्षिणी ओर के एक गर्भगृह वाले मंदिर का प्रवेश सादा सिल पर है, जिस पर पूर्व में द्वारशाखा रही होगी। मंडप वर्गाकार है जिसमें ४ कुंभियां अपने मूल स्थान पर है पर स्तंभ नहीं, तथा दीवारों के किनारे दो प्रतिमाओं के पादमूल है पर प्रतिमायें नहीं हैं। मंडप के दोनों ओर दीवारें मात्र एक मीटर तक ही ऊंची हैं। आयताकार अंतराल भाग में दक्षिणी ओर शिव एवं उत्तरी ओर चतुर्भुजी शिव की स्थानक भग्नसिर प्रतिमायें पादमूल पर स्थापित हैं।

इस शिव मंदिर के गर्भगृह की द्वारशाखा में दायीं ओर कूर्मवाहना नदी देवी यमुना एवं बायीं ओर नदी देवी गंगा है जिसके वाहन का अंकन पादमूल पर नहीं हुआ है दोनों को घट एवं छत्र सहित अंकित नहीं किया गया है, पर दोनों हाथ में माला लिये सौम्य मुख मुद्रा एवं अलंकरण युक्त हैं। गंगा एक कान में चक्र कंडल एवं दूसरे में पोंगी पहने हुये हैं। यहां की काफी प्रतिमाओं के कानों में पोंगी का अंकन प्रभूत मात्रा में हुआ है। आज भी उरांव जनजाति की स्त्रियों के कानों में पोंगी पहनने का प्रचलन पाते हैं।

गर्भगृह छोटा वर्गाकार है जिसकी जलहरी ३-४ भागों में भग्न मंडप में शिवलिंग प्रतिमा सहित पायी गयी। गर्भगृह भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त है व करीब २ मीटर ऊंचा ही शेष है। 

इस मंदिर के बाह्य दक्षिणी पश्चिमी किनारे पर चतुर्भुजी परशुधर शिव की अद्वितीय प्रतिमा लगी है जो हाथों में नागपाश, त्रिशूल, अक्षमाला तथा परशु लिये हैं तथा उनका दायां पैर परशु पर रखा है। पीछे पर्वत का अंकन है तथा शिव की जटायें लहराते हुये. अंकन है। यह प्रतिभा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण मूर्ति है।

मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर व प्रतिमायें ८ वीं शती ई. की निर्धारित की गयी है। 

इस मंदिर के उत्तरी पार्श्व में दो गर्भगृह एवं एक मंडप युक्त शिव मंदिर मलवा सफाई में निकाला गया है। पहले मंदिर की तरह इन दोनों के गर्भगृह भी एक ही सीध में हैं। ये दोनों भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त हैं। इसका मंडप आयताकार हैं जिसमें ४ स्तंभों की कंुभियां मंडप के मध्य हैं पर स्तंभ प्राप्त नहीं हुये हैं। मध्य मंडप का धरातल कुछ ऊंचा है मंडप के दोनों ओर की दीवालें मात्र १ मीटर ही ऊंची हैं मंडप की उत्तरी दीवारों एवं दक्षिणी से लगी ४ प्रतिमाओं में से तीन ही पायी गयी हैं। जो ठीक आमने सामने हैं। दक्षिणी दीवाल से लगी चतुर्भुजी नृत्यगणेश एवं समपाद स्थानक विष्णु की प्रतिमायें हैं इन दोनों के सिर भग्न हैं। उत्तरी दीवाल से लगी नृत्य गणेश प्रतिमा के ठीक सामने सूर्य प्रतिमा का निचला भाग है जिस में गमबूट पहने पैरों व नीचे सप्त अश्वों का अंकन मात्र ही है। चौथी प्रतिमा का मात्र पाद्मूल ही शेष है। 

पहले गर्भगृह की दायीं द्वार शाखा में नदी देवी यमुना को वाहन कूर्म पर सवार एवं हाथ में माला लिये अंकन है। यमुना बांयें कान में पोंगी व दांयें में चक्र कुंडल पहने हैं तथा केयूर, कंकण, हार, पाजेब आदि अलंकरण भी धारण किये हैं। बायीं द्वारशाखा की नदी देवी गंगा मूल स्थान पर नहीं है। मात्र सादा पादमूल ही है। सादा गर्भगृह लघु एवं वर्गाकार है पर ध्वस्तावस्था में है। इसके पार्श्व के दूसरे गर्भगृह का उत्तरी भाग ध्वस्त है जिसकी दायीं ओर की सादा द्वारशाखा ही शेष है।

केवल एक शिवलिंग एवं जलहरी (भग्न) ही इस मंडप में मलवा सफाई में प्राप्त हुई है।

पूर्व मंदिर की तरह यह भी कालक्रम में ८वीं शती ई. का है।

मंदिर समूह के ठीक पीछे पश्चिम में स्थित टीले की मलवा सफाई में चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर अवशेष अनावृत्त हुये हैं जिनमें छोटे छोटे खंडों में शिवलिंग स्थापित है। मध्य टीले से मुख्य मंदिर एवं उसके चारों ओर पक्के फर्श का प्रदक्षिणा पथ प्रकाश में आया है जिसके मध्य में मंडप रहा है तथा यह मंदिर उत्तराभिमुख है। गर्भगृह के मध्य चामुंडा प्रतिमा तीन भागों में भग्न प्राप्त हुई है। इसका पादमूल सादा आयताकार प्रणालिका युक्त पाया गया है जबकि प्रणालिका शिवलिंग वाले मंदिरों में ही पायी जाती हैं। 

चबूतरे पर चारों ओर निर्मित लघु मंदिर एवं मध्य में प्रमुख मंदिर युक्त यह पंचायतन मंदिर भी ८वीं शती ई. का है। 

यहां के शेष टीलों का मलवा सफाई कार्य जारी है।

डीपाडीह के पूर्वाेत्तर में करीब २ कि. मी. पर चैला पहाड़ है जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यहां पर प्राचीन शिल्पकारों ने पहाड़ से चट्टान काटकर शिल्पाकृतियां तैयार की थी तथा यहीं से ले जाकर डीपाडीह के सामत सरना व उरांव टोली के मंदिरों का निर्माण एवं मूर्तियां स्थापित की गयी।

इस पहाड़ को तीन स्तरों में काटकर शिल्पियों ने समतल स्थान तैयार किये व शिल्पांकन किया। इनका नीचे से ऊपर की ओर क्रमिक स्तरीकरण पाते हैं निचले स्तर पर शिल्पांकन चिन्ह, मध्य स्तर पर एक स्थल पर ‘ॐ नमः विश्वकर्मायः‘ अभिलेख तथा बालि सुग्रीव युद्ध, हाथी, पुरुष, वज्र आदि का अंकन तथा ऊपर के स्तर पर अनगढ़ कुबेर, नंदी आदि की प्रतिमायें व शिल्पांकन चिन्ह पाये गये हैं। इन तीनों स्तरों पर चट्टानों, पत्थरों की छीलन व सादा सपाट कार्य करने के चबूतरे ऐसी झलक देते हैं कि शिल्पी कार्य करके अभी ही गये हों।

- वेद प्रकाश नगायच

Friday, December 2, 2022

बिलासपुर भास्कर: कल, आज और कल

सितंबर 2022, पहला हफ्ता। रात साढ़े दस बज गए हैं, फोन आता है। यह अक्सर अखबार वालों के फोन का समय होता है, फोन पर बात पूरी करने के बाद बता-दुहरा दिया करता हूं कि नींद से उठकर बात कर रहा हूं और ‘जागते रहो‘ वाला रिटर्न गिफ्ट दूंगा, कल सुबह-सुबह फोन कर के। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। फोन बिलासपुर वाले हर्ष पांडेय जी का था, दुआ-सलाम और एकाध औपचारिक बातों के साथ, बिलासपुर भास्कर प्रकाशन के 29 वर्ष पूरे होने पर पांचेक सौ शब्द में बिलासपुर कल, आज और कल, जैसा कुछ लिख कर देने का आग्रह।


बिलासपुर भास्कर के 1993 वाले आरंभिक दिनों को याद करता हूं। हमारे दफ्तर और संग्रहालय के बीच रास्ते, रेस्ट हाउस के सामने, तहसील चौक पर भास्कर प्रेस होता था। हर दूसरे चौथे दिन हमलोग, बिलासपुर के आयोजन पुरुष रामबाबू सोनथलिया जी और प्रेस के लोगों से मिलने वहां ठहर जाते। बिलासपुर भास्कर से इस तरह का पड़ोसी रिश्ता तब भी बना रहा, जब वह नार्मल स्कूल-हाई कोर्ट के सामने आ गया। यह मेरे निवास का पड़ोस था। मेरे लिए श्री बुक डिपो और कोचिंग के रास्ते के बीच। यह करीबी रिश्ता बना रहा। सुशील पाठक जैसे तब के कुछ साथी अब नहीं रहे। भास्कर परिवार के दिवाकर मुक्तिबोध, संजय द्विवेदी, अविनाश कुदेशिया, मनीष दवे से मोल-जोल बना रहा।

प्राण चड्ढा जी से लगभग रोज की मुलाकात थी। वे बरास्ते फोटोग्राफी और वन्य-जीवन, शौकिया अखबारों से जुड़े और भास्कर के संपादक रहे, सेवानिवृत्ति के बाद भी भास्कर परिवार से जुड़े रहे। छत्तीसगढ़ राज्य बनने की आहट थी, उनके और प्रेस परिवार के मशविरे पर योजना बनी कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता पर भास्कर के लिए लिखूं। शीर्षक तय हुआ ‘छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया‘। छत्तीस दिनों में छत्तीस नोट तैयार करने थे। इनमें से बीस नोट 9 से 29 मई 1998 के बीच प्रकाशित हुए। भास्कर के प्रवीण शुक्ला जी, सुनील गुप्ता जी जैसे साथी अब संपादक हैं। इस दौरान खबर मिली की हर्ष जी ने भी सिटी चीफ से संपादक तक का सफर तय कर लिया है, उन्हें बधाई।

हर्ष जी की बात पर लगा कि इस दौरान थोड़ी आमदरफ्त और लिखना-पढ़ना हाथ में लिया हुआ है कि तुरंत नहीं कर पाया तो यह पक्का लटका रह जाएगा। इसलिए उनसे फोन पर हुई बात का ही सूत्र पकड़ कर ब्रह्म मुहूर्त में नोट्स लेने लगा। यह ध्यान में था कि लोग सामान्यतः विवरणात्मक लिखेंगे, इसलिए दुहराव न हो, कुछ अलग हो। अलग इतना भी न हो कि अप्रासंगिक हो कर, हास्यास्पद हो जाय, सहज पठनीय प्रवाहमय, अपना-अपना सा लगे। नोट पूरा करते हुए देखा कि यही 500 शब्द हो गए हैं तो बस सुबह-सुबह साढ़े छह बजे, फोन आने के आठ घंटे बाद, जिसमें लगभग सात घंटे नींद के थे, जो रिटर्न गिफ्ट वाट्सएप पर भेजा वही यहां-

बिलासपुर: कल आज और कल

छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख शहर, रायपुर और बिलासपुर से मेरा ताल्लुक लगभग बराबर रहा है। शहरों का अपना मिजाज होता है, अपनी पहचान होती है और वह सिर्फ भवनों, सड़कों, प्रतिष्ठानों से ही नहीं, शहर के निवासियों से अधिक होती है। बिलासपुर के आत्मीय स्वभाव और रायपुर के कामकाजी-व्यावसायिक स्वभाव को फोन पर होने वाली बात से समझने का प्रयास करें। रायपुर में अभिवादन और कुशल-क्षेम के बाद फोन करने वाला, फोन करने के प्रयोजन पर न आए तो अगला उससे पूछ लेता है, ‘अच्छा, ठीक है, बताओ फोन कैसे किया?‘ दूसरी तरफ ठेठ बिलासपुर के फोन वार्तालाप में दो-चार मिनट देश-दुनिया, आगत-विगत की बात होती है और कई बार तो विदा भी, तब दूसरी बार फोन आता है कि ‘असल में फोन इसलिए किया था ...‘। यह पहचान किसी व्यक्ति-विशेष के गुण-दोष से नहीं, समय के साथ, अपने-आप, शहर की अपनी पहचान-‘सिगनेचर‘ जैसा विकसित होता है। मेरे लिए बिलासपुर, एक ऐसा ही आत्मीय शहर है।

शहरों के साथ इतिहास का वैसा आग्रह उचित नहीं होता कि उसके शिलान्यास और लोकार्पण की तिथि और मुख्य अतिथि निर्धारित करने लगें। उसका तो वैसा ही होना फभता है, जैसा बिलासपुर के साथ है, यानि आस्था और विश्वास से सराबोर मान्यता-दंतकथा। बिलासपुर, रतनपुर राज का कैम्प रहा, वहां जाजल्लदेव जैसे राजा भी हुए, जिनके नाम पत्थर पर खुदे हैं, प्राचीन राजधानी महामाया मंदिर के साथ वाहरसाय के नाम का शिलालेख है, मगर वह पत्थरों पर खुदी इबारत बन कर जड़ है। दूसरी तरफ, गोपालराय बिंझिया या गोपल्ला वीर और कल्याण साय का नाम, लोगों के मन-प्राण और जबान पर रहा, अमूर्त, और चला आ रहा है। कह सकते हैं- तू कहता पत्थर की लेखी, मगर आंखों की देखी हो न हो, मन में तो बसी और कायम है, ऐसा ही जीवन-स्पंदन नाम है ‘बिलासा‘, जिससे बिलासपुर शहर की धड़कन और असल पहचान है।

अरपा और जवाली नाले का संगम बसाहट का मंच बना। अरपा के दाहिने और जवाली के दाहिने, जुना बिलासपुर के साथ किला वार्ड, तो जवाली के बांयें शनिचरी पड़ाव। पहले-पहल तीन मालगुजारी गांव- बिलासपुर, चांटा और कुधुरडांड, यानि अब के जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड मिलकर आधुनिक बिलासपुर बने। रेलवे के साथ पेट्रोलियम डिपो, डीपूपारा बना, रेलवे की ही सीमा पर तार-घेरा के दूसरी ओर तारबाहर और चहारदीवारी सीमा के बाहर देवालबंद या दयालबंद। कतियापारा, गोंडपारा, तेलीपारा, घसियापारा, करबला, टिकरापारा, मसानगंज पर नगर, वार्ड, कॉलोनी की परतें चढ़ने लगीं और एसईसीएल, रेल-जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी नई पहचान बनी। मगर शहर के दिल की आदिम धड़कन, जो जुना बिलासपुर और गोलबाजार-गोंडपारा में थी, सरकंडा तक फैल गई अब भी उसी तरह यहीं धड़कती है। खांटी बिलसपुरिहा भाषा और लहजे से जान लेता है कि अगला गोंडपारा वाला है या नदी पार का। शहर का मिजाज, उसकी नब्ज आज भी यहीं आसानी से टटोली जा सकती है। फैलते शहर में शामिल होते गांव, कॉलोनी और सोसाइटी में बदलते जा रहे हैं, बदलते जाएंगे, मगर शहर की पहचान, उसकी अंतर्धारा, उसकी आत्मीय उष्मा जस की तस बनी रहे।