Monday, December 5, 2022

डीपाडीह - वेदप्रकाश

वेदप्रकाश नगायच
1988 से 1990 सरगुजा में पुरातत्वीय गतिविधियों के उल्लेखनीय वर्ष हैं। इस दौरान डीपाडीह के स्मारक, पुरावशेष अनावृत्त हुए। इस कार्य में जी.एल. रायकवार जी के साथ, लगभग पूरे समय मेरी सहभागिता रही। आरंभिक चरण में बारी-बारी शामिल विभाग के अन्य अधिकारी में वेदप्रकाश नगायच जी की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। काम के साथ, विभिन्न प्राप्तियों पर विस्तार से विचार-विनिमय होता। नगायच जी ने इन अधपकी चर्चाओं को करीने और सलीके से अपने अनुभव का आधार दे कर लेख का स्वरूप दिया, जो ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 25 फरवरी 1989 अंक में प्रकाशित हुआ, यहां प्रस्तुत-

डीपाडीह
मंदिरों का नगर

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में स्थित सरगुजा जिला प्राचीन इतिहास की अनेक श्रृंखलाओं को अपने में समाहित किये हुये है। सरगुजा का संपूर्ण क्षेत्र अलौकिक सौंदर्य से ओत प्रोत है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने वनों, पर्वतों, नदियों एवं सरोवरों की नैसर्गिक छटा यहां बिखेर दी हो। संभवतः इसी से इसे ‘स्वर्गजा‘ की संज्ञा से विभूषित किया गया एवं पश्चातवर्ती काल में अपभ्रंश होते हुये इसका नाम सरगुजा हो गया।

इस जिले के पुरातत्वीय महत्व के स्थलों में रामगढ़ स्थित जोगीमारा एवं सीतावेंगा की गुफायें तथा पहाड़ पर ही स्थित विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला है जो तीसरी दूसरी शती ईसा पूर्व की है। जिसका अभिलेखीय साक्ष्य भी है। इसके अतिरिक्त मुख्य पुरातत्वीय स्थलों में महेशपुर, लक्ष्मणगढ़, सतमहला, देवगढ़, सीतामढ़ी, हरचौका, बेलसर, एवं डीपाडीह है। परंतु ये सभी स्थल पुरातत्वीय संपदा से सम्पन्न होते हुये भी रामगढ़ की विश्व विख्यात कीर्ति के समक्ष अपनी पहचान व महत्व के लिये उपेक्षित ही बने रहे।

हाल ही में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आयुक्त श्री के. के. चक्रवर्ती ने इन उपेक्षित स्थलों का निरीक्षण करते हुये प्रथम दृष्टया डीपाडीह को पुरातत्वीय अन्वेषण का केंद्र बनाया। यहां के टीलों में दबे पड़े मंदिरों, मूर्तियों, परावशेषों को अनावृत्त करने हेतु राज्य पुरातत्व विभाग के अधिकारियों द्वारा मलवा सफाई का कार्य उनके निर्देशन में जारी है।

ग्राम डीपाडीह जिला मुख्यालय अंबिकापुर से ७३ कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है जो कुसमी तहसील के अंतर्गत आता है। डीपाडीह की स्थिति अत्यन्त मनोरम है. चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा कन्हर, सूर्या तथा गलफुल्ला नदियों के संगम के किनारे बसा है। जहां सूर्या नदी का पानी गर्म है वहीं कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों का पानी ठंडा है। समुद्रतल से डीपाडीह की ऊंचाई लगभग २९०० फीट है जिस से यहां का मौसम काफी सुहावना रहता है।

ग्राम डीपाडीह से करीब २ कि.मी. पर शाल वृक्षों के घने झुंडों के मध्य मुख्य रूप से शिव मंदिरों के करीब २० टीले एवं एक बावली है। इस स्थल को यहां के लोग सामत सरना कहते हैं। यहां की प्रचलित लोक-कथा के अनुसार बिहार प्रांत के टांगीनाथ से यहां के सामत या सम्मत राजा का युद्ध हुआ था जिसमें टांगीनाथ ने अपनी कुल्हाड़ी फेंककर सामत राजा पर वार किया और वह यहीं वीरगति को प्राप्त हुये थे, जिनकी यहां स्थित विशाल प्रतिमा को लोग पूजते हैं। वस्तुतः यह परशुधर शिव की प्रतिमा है जो कालक्रम में कई भागों में भग्न हो गई जिसे ग्रामवासियों द्वारा इस स्थल के विविध टीलों (मंदिरों के) से अलंकृत प्रस्तर खंड व प्रतिमाएं लाकर घेरकर एक लघु मढ़िया का रूप दे दिया है तथा सामत राजा के नाम से इन्हें पूजते हैं व आदिवासी लोग यहां अपने समाज की बैठकें किया करते हैं।

सामत सरना में टीलों के ऊपर भी प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी है जिनमें गणेश, भैरव, वीरभद्र, शिवगण, नदी-देवी, महिषासुरमर्दिनी, चामुण्डा व विविध शिल्पखंड प्रमुख हैं।

सामत सरना से थोड़ा आगे उरांवटोली (उरांव लोगों की बस्ती) स्थित है। सामत सरना एवं उरांव टोली के मध्य करीब ७-८ टीले तथा एक पक्का रानी तालाब भी है। सामत सरना से करीब १ कि.मी. पश्चिम की ओर कन्हर नदी के किनारे भी दो मंदिरों के भग्नावशेष हैं जिस में मंदिरों की द्वार चौखटें तथा अलंकृत शिल्पखंड यत्र तत्र बिखरे हुये हैं।

इस प्रकार डीपाडीह के ४-५ कि. मी. के क्षेत्रफल में करीब ३० मंदिरों के टीले हैं जो स्पष्टतया डीपाडीह के मंदिरों का नगर होना प्रमाणित करते हैं। अभी तक डीपाडीह के उरांवटोली स्थित एक विशाल टीले तथा सामत सरना के ३ टीलों की मलवा सफाई कार्य संपन्न हुये हैं जिनसे मंदिर के वास्तु एवं प्रतिमा विधान के नये आयाम स्थापित हुये हैं।

उरांवटोली जो कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों संगम के समीप स्थित है, के विशाल टीले की मलवा सफाई में शिवमंदिर के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये हैं। मंदिर का शिखर एवं मंडप भाग पूर्णतः धराशायी हो चुके हैं मंदिर की जगती एवं अधिष्ठान अपने मूलरूप में अनावृत्त हुये हैं।

मंदिर निर्माण योजनानुसार एक विशाल चबूतरे पर जिसमें मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह तीनों अंग स्पष्ट हुये हैं। पूर्वाभिमुख इस मंदिर के मंडप में तीन सीढ़ी चढ़कर पहुंचते हैं। मंडप १६ स्तंभों पर आधारित रहा होगा। चार स्तंभों की तीन पंक्तियां हैं जिनकी कुंभियां अपने मूल स्थान पर हैं तथा उत्तर व दक्षिण दिशा में दो दो दीवाल स्तंभ हैं।

अंतराल खंड में एक एक शार्दूल प्रतिमा शार्दूल मंडप में स्थापित थी जिसमें एक शार्दूल मंडप में रखा पाया गया है। अंतराल की उत्तरी दिशा में नदी देवी गंगा तथा दक्षिणी दिशा में यमुना की प्रतिमायें प्रदर्शित थी जो वर्तमान में मूल स्थान से हटकर पायी गयी हैं। मात्र गंगा की प्रतिमा का निचला खंड भाग मूल स्थान पर है।

मंदिर की द्वार चौखट में मात्र दो द्वार शाखायें हैं जिनमें विद्याधरों का पुष्पहार लिये अंकन है। इस प्रकार का अंकन राजिम (रायपुर) एवं मल्हार (बिलासपुर) के मंदिरों में भी पाया गया है। 

मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है तथा बीच में स्लेटी प्रस्तर का विशाल शिवलिंग गोलाकार जलहरी सहित मूल स्थान पर भग्नावस्था में स्थापित है। 

मंदिर की बाह्य भित्ति पर खुरभाग में गोधा, सर्प, विच्छू, केला खाते बंदर, सर्प, मयूर, युद्ध, कमंडलु, व दंड को एक ओर रखे उपासक की लेटे हुये तथा मुक्तालड़ी युक्त मयूरों आदि का अंकन है। सामान्यतया छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इस प्रकार का अंकन नगण्य है। मालवा की परमार कला में ही ऐसा अंकन पाते हैं। मंदिर के जंघा भाग पर कमलफुल्लों, पुरुष शीर्ष, चैत्यगवाक्ष में उमा महेश्वर युगल आदि का अंकन है। 

इस मंदिर की मलवा सफाई में प्राप्त प्रतिमाओं में दंडधारिणी कीचक, नदी देवी गंगा, एक सिर दो धड़ युक्त सिंह, मिथुन युगल, अर्ध उत्कटासन में बैठा पुरुष, चैत्य गवाक्ष में सूर्य, कुत्ते पर सवार त्रिशूल लिये भैरव तथा नक्काशीदार शिल्पावशेष प्रमुख हैं। 

यह मंदिर मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य के आधार पर लगभग ८वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में निर्मित प्रतीत होता है। 

सामत सरना स्थित विशाल टीले की मलवा सफाई के पश्चात् इसका वर्गाकार गर्भगृह, द्वारचौखट, वर्गाकार मंडप, विशाल एवं अद्वितीय प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इसी के सामने ध्वस्त आयताकार नंदी मंडप मिला है जिसमें अतिसुंदर एवं विशाल नदी का भक्तिभाव से अपने आराध्य एवं स्वामी शिव की ओर निहारते हुये रखा है। मलवा सफाई में निकले इस शिव मंदिर की जगती दोहरे चबूतरे युक्त है तथा ऊंचे चबूतरे पर मंडप की दीवार बनी है।


यह पूर्वाभिमुख सप्तरथयुक्त मंदिर विशाल वर्गाकार मंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह इन तीन अंगों वाला है। वर्गाकार मंडप आठ स्तंभों पर आधारित रहा है जिसके दो स्तंभों की कुंभियां अपने मूल स्थान पर है। मंडप से प्राप्त दो स्तंभों पर जो गोलाकार है, नीचे से ऊपर तक चारों ओर मान्मथ अंकन है। मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी भित्ति से लगी प्रतिमाओं के ४-४ पादमूल (पेडेस्टल) पाये गये हैं जिनमें उत्तरी भित्ति के केवल दो पादमूलों पर १० भुजी महिषासुर मर्दिनी, १० भुजी भैरव, प्रतिमा प्रदर्शित पायी गयी तथा दक्षिणी भित्ति के एक पदमूल पर गौरी की (दो भागों में विभक्त) प्रतिमा है। पूर्वी भित्ति के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भी एक- एक पादमूल पर क्रमशः नृवराह तथा कल्याण सुंदर मूर्ति (शिव विवाह दृश्य का आधा खंड भाग ही) प्रदर्शित है। इस प्रतिमा में ब्रम्हा को पुरोहित का कार्य करते एवं अग्नि द्वारा भी मानव रूप में विवाह दृश्य देखने का लोभसंवरण न कर पाना स्पष्टतः अंकित है। गणेश एवं कार्तिकेय भी विवाह में उपस्थित हैं व नंदी भी प्रसन्न होकर निहार रहा है। 

मंदिर के अंतराल एवं गर्भगृह में प्रविष्ट होने हेतु प्रस्तर निर्मित विशाल द्वार चौखट है जिसका उदुम्बर अपने मूल स्थान पर है जिसमें मध्य में चंद्रशिला अर्धपद्माकृति में है तथा दोनों ओर ढाल तलवार लिये योद्धा एवं गज पर पीछे से हमला करते हुये सिंह का अंकन है। प्रवेशद्वार की द्वार शाखायें त्रिशाल हैं। दायीं ओर की द्वारशाखा में वाहन मकर पर सवार नदी देवी गंगा का अनुचरों सहित अंकन है बीच में वानर एवं ऊपर वीणाधारिणी बनी है तथा लता पत्रावली का सुरुचिपूर्ण अंकन है। ऐसा ही अंकन बायीं ओर की द्वारशाखा नदी देवी यमुना वाहन कच्छप के अंकन सहित है। सिरदल भी त्रिशाख है मध्य में गजलक्ष्मी का अंकन है तथा दोनों ओर माला लिये विद्याधरों का अंकन है। दायें किनारे पर नंदी पर आरूढ़ चतुर्भुजी नृत्य शिव तथा बायीं ओर चर्तुभुजी परशुधर शिव अंकित है। ऊपर व नीचे के शाख पर लता-पत्रावली का अंकन है।

वर्गाकार गर्भगृह के बीच में चौकोर जलहरी के मध्य विशाल सिलेटी प्रस्तर का भग्न शिवलिंग है। मलवा सफाई में मंदिर के मंडप की बाहय भित्तियों के पास नृत्यगणेश, कार्तिकेय, विराट स्वरूप विष्णु, ब्रम्हा की अतिसुंदर एवं विशालकाय प्रतिमायें पायी गयी हैं जो समानुपातिक एवं कलात्मक हैं तथा गर्भगृह की बाह्य भित्तियों के मलवे में गौरी प्लेक एवं विविध देव सिर, अर्धनारीश्वर, भैरव, शिव, विष्णु उमा-महेश्वर, शिवगण, सूर्य, शार्दूल, गणेश आदि की प्रतिमायें व प्रतिमा खंड मिले हैं।

इस शिव मंदिर का चबूतरा जगती एवं अधिष्ठान मलवा सफाई में प्रकाश में आये हैं। अधिष्ठान में पद्मपत्र अलंकरण युक्त अधिष्ठान बंध है। अधिष्ठान बंध के ऊपर जंघाभाग में लघु स्तंभों पर आधारित मंडपिकाओं का अंकन है जिनके छाद्य में कमल पत्रों पर लघु कलशों का अंकन है। इनके ऊपर मध्य रथिका में चैत्य गवाक्ष का क्रमिक अंकन है। अधिष्ठान बंध के ऊपर कुड्य स्तंभों से बनी मंडपिकाओं पर बीच में बने पद्म अलंकरण युक्त दो घंटों के दोनों ओर सिंह (शार्दूल) अंकन है। यह अंकन मंदिर की तीनों ओर की बाह्य भित्ति पर हुआ है उत्तरी दिशा में अधिष्ठान बंध में कीर्तिमुख अंकन युक्त जलहरी बनी है।

इस मंदिर का शिखर एवं मंडप पूर्णतः धराशायी हो चुका है जिनके भग्नावशेष एवं शिल्पखंड चारों ओर पाये गये हैं। प्रतिमाओं एवं स्थापत्य विधा को देखते हुये इस मंदिर का काल लगभग ९वीं शती ई. का निर्धारित होता है। इस मंदिर के दक्षिणी पार्श्व में ५-६ लघु मंदिर, लघु शिवलिंग की स्थापना सहित चबूतरे पर स्थापित हैं।


सामत सारना स्थित मुख्य शिव मंदिर के उत्तरी पार्श्व में तीन गर्भगृह वाला मंदिर समूह मलवा सफाई में निकला है जो पूर्वाभिमुख हैं तथा एक दीवाल से दो भागों में विभक्त है जिस से एक मंडप व एक गर्भगृह का एक मंदिर तथा एक मंडप दो गर्भगृह के दो मंदिर के रूप में यह दीवाल विभक्त करती है। ये मंदिर समूह मात्र अधिष्ठान तक ही चारों ओर है शेष भाग पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है।

दक्षिणी ओर के एक गर्भगृह वाले मंदिर का प्रवेश सादा सिल पर है, जिस पर पूर्व में द्वारशाखा रही होगी। मंडप वर्गाकार है जिसमें ४ कुंभियां अपने मूल स्थान पर है पर स्तंभ नहीं, तथा दीवारों के किनारे दो प्रतिमाओं के पादमूल है पर प्रतिमायें नहीं हैं। मंडप के दोनों ओर दीवारें मात्र एक मीटर तक ही ऊंची हैं। आयताकार अंतराल भाग में दक्षिणी ओर शिव एवं उत्तरी ओर चतुर्भुजी शिव की स्थानक भग्नसिर प्रतिमायें पादमूल पर स्थापित हैं।

इस शिव मंदिर के गर्भगृह की द्वारशाखा में दायीं ओर कूर्मवाहना नदी देवी यमुना एवं बायीं ओर नदी देवी गंगा है जिसके वाहन का अंकन पादमूल पर नहीं हुआ है दोनों को घट एवं छत्र सहित अंकित नहीं किया गया है, पर दोनों हाथ में माला लिये सौम्य मुख मुद्रा एवं अलंकरण युक्त हैं। गंगा एक कान में चक्र कंडल एवं दूसरे में पोंगी पहने हुये हैं। यहां की काफी प्रतिमाओं के कानों में पोंगी का अंकन प्रभूत मात्रा में हुआ है। आज भी उरांव जनजाति की स्त्रियों के कानों में पोंगी पहनने का प्रचलन पाते हैं।

गर्भगृह छोटा वर्गाकार है जिसकी जलहरी ३-४ भागों में भग्न मंडप में शिवलिंग प्रतिमा सहित पायी गयी। गर्भगृह भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त है व करीब २ मीटर ऊंचा ही शेष है। 

इस मंदिर के बाह्य दक्षिणी पश्चिमी किनारे पर चतुर्भुजी परशुधर शिव की अद्वितीय प्रतिमा लगी है जो हाथों में नागपाश, त्रिशूल, अक्षमाला तथा परशु लिये हैं तथा उनका दायां पैर परशु पर रखा है। पीछे पर्वत का अंकन है तथा शिव की जटायें लहराते हुये. अंकन है। यह प्रतिभा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण मूर्ति है।

मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर व प्रतिमायें ८ वीं शती ई. की निर्धारित की गयी है। 

इस मंदिर के उत्तरी पार्श्व में दो गर्भगृह एवं एक मंडप युक्त शिव मंदिर मलवा सफाई में निकाला गया है। पहले मंदिर की तरह इन दोनों के गर्भगृह भी एक ही सीध में हैं। ये दोनों भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त हैं। इसका मंडप आयताकार हैं जिसमें ४ स्तंभों की कंुभियां मंडप के मध्य हैं पर स्तंभ प्राप्त नहीं हुये हैं। मध्य मंडप का धरातल कुछ ऊंचा है मंडप के दोनों ओर की दीवालें मात्र १ मीटर ही ऊंची हैं मंडप की उत्तरी दीवारों एवं दक्षिणी से लगी ४ प्रतिमाओं में से तीन ही पायी गयी हैं। जो ठीक आमने सामने हैं। दक्षिणी दीवाल से लगी चतुर्भुजी नृत्यगणेश एवं समपाद स्थानक विष्णु की प्रतिमायें हैं इन दोनों के सिर भग्न हैं। उत्तरी दीवाल से लगी नृत्य गणेश प्रतिमा के ठीक सामने सूर्य प्रतिमा का निचला भाग है जिस में गमबूट पहने पैरों व नीचे सप्त अश्वों का अंकन मात्र ही है। चौथी प्रतिमा का मात्र पाद्मूल ही शेष है। 

पहले गर्भगृह की दायीं द्वार शाखा में नदी देवी यमुना को वाहन कूर्म पर सवार एवं हाथ में माला लिये अंकन है। यमुना बांयें कान में पोंगी व दांयें में चक्र कुंडल पहने हैं तथा केयूर, कंकण, हार, पाजेब आदि अलंकरण भी धारण किये हैं। बायीं द्वारशाखा की नदी देवी गंगा मूल स्थान पर नहीं है। मात्र सादा पादमूल ही है। सादा गर्भगृह लघु एवं वर्गाकार है पर ध्वस्तावस्था में है। इसके पार्श्व के दूसरे गर्भगृह का उत्तरी भाग ध्वस्त है जिसकी दायीं ओर की सादा द्वारशाखा ही शेष है।

केवल एक शिवलिंग एवं जलहरी (भग्न) ही इस मंडप में मलवा सफाई में प्राप्त हुई है।

पूर्व मंदिर की तरह यह भी कालक्रम में ८वीं शती ई. का है।

मंदिर समूह के ठीक पीछे पश्चिम में स्थित टीले की मलवा सफाई में चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर अवशेष अनावृत्त हुये हैं जिनमें छोटे छोटे खंडों में शिवलिंग स्थापित है। मध्य टीले से मुख्य मंदिर एवं उसके चारों ओर पक्के फर्श का प्रदक्षिणा पथ प्रकाश में आया है जिसके मध्य में मंडप रहा है तथा यह मंदिर उत्तराभिमुख है। गर्भगृह के मध्य चामुंडा प्रतिमा तीन भागों में भग्न प्राप्त हुई है। इसका पादमूल सादा आयताकार प्रणालिका युक्त पाया गया है जबकि प्रणालिका शिवलिंग वाले मंदिरों में ही पायी जाती हैं। 

चबूतरे पर चारों ओर निर्मित लघु मंदिर एवं मध्य में प्रमुख मंदिर युक्त यह पंचायतन मंदिर भी ८वीं शती ई. का है। 

यहां के शेष टीलों का मलवा सफाई कार्य जारी है।

डीपाडीह के पूर्वाेत्तर में करीब २ कि. मी. पर चैला पहाड़ है जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यहां पर प्राचीन शिल्पकारों ने पहाड़ से चट्टान काटकर शिल्पाकृतियां तैयार की थी तथा यहीं से ले जाकर डीपाडीह के सामत सरना व उरांव टोली के मंदिरों का निर्माण एवं मूर्तियां स्थापित की गयी।

इस पहाड़ को तीन स्तरों में काटकर शिल्पियों ने समतल स्थान तैयार किये व शिल्पांकन किया। इनका नीचे से ऊपर की ओर क्रमिक स्तरीकरण पाते हैं निचले स्तर पर शिल्पांकन चिन्ह, मध्य स्तर पर एक स्थल पर ‘ॐ नमः विश्वकर्मायः‘ अभिलेख तथा बालि सुग्रीव युद्ध, हाथी, पुरुष, वज्र आदि का अंकन तथा ऊपर के स्तर पर अनगढ़ कुबेर, नंदी आदि की प्रतिमायें व शिल्पांकन चिन्ह पाये गये हैं। इन तीनों स्तरों पर चट्टानों, पत्थरों की छीलन व सादा सपाट कार्य करने के चबूतरे ऐसी झलक देते हैं कि शिल्पी कार्य करके अभी ही गये हों।

- वेद प्रकाश नगायच

3 comments:

  1. टांगीनाथ से कुल्हाड़ी और फंसे तक की चर्चा याद आई उन दिनों की ...
    आप से पूरी तरह सहमत हूं कि डीपाडीह प्राचीन काल में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थल था व्यापार और धर्म दोनों दृष्टिकोण से...

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