Monday, August 27, 2018

केदारनाथ सिंह के प्रति


‘‘शुरू करो खेला/पैसा न धेला/जाना अकेला।‘‘ कहने वाले केदारनाथ सिंह बलिया जनपद के तुक मिलाते से नाम वाले गांव चकिया में पैदा हुए। अब उनके न होने पर उन्हीं के शब्दों में- ‘‘मेरा होना/सबका होना है/पर मेरा न होना/सिर्फ होगा मेरा।‘‘ जो कहते हैं- ‘‘पर मृत्यु के सौन्दर्य पर/संसार की सर्वोत्तम कविता/अभी लिखी जानी है।‘‘ वे पाठक को संबोधित कहते हैं- ‘‘जा रहा हूं/लेकिन फिर आऊंगा/आज नहीं तो कल/कल नहीं तो परसों/परसों नहीं तो बरसों बाद/हो सकता है अगले जनम में ही‘‘ ऐसे स्मृतिशेष केदारनाथ पर, धतूरे का कांटेदार फल और फूल की अंजुरी अर्पित-

उनके न रहने पर उनकी एक कविता ‘हाथ‘- ‘‘उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।‘‘ और दूसरी ‘जाना‘- ‘‘मैं जा रही हूँ- उसने कहा/जाओ- मैंने उत्तर दिया/यह जानते हुए कि जाना/हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है‘‘ (‘तेरा जाना, दिल के अरमानों का लुट जाना‘ टाइप), सबसे अधिक उद्धृत हुईं। मुझे लगता है कि इन कविताओं में ऐसी कोई बात नहीं है, जो कवि का नाम हटा लेने के बाद भी खास या महत्वपूर्ण मानी जाय। यहां ‘धीरे धीरे हम‘ शीर्षक कविता को भी याद किया जा सकता है। घर उल्लेख वाली उनकी चर्चित कविता है- मंच और मचान। इस कविता के साथ '(उदय प्रकाश के लिए)' उल्लेख है, इसलिए बरबस ध्यान जाता है ‘विद्रोह‘ पर, जिसमें मूल की ओर लौटने, ‘वापस जाना चाहता हूं‘ का भाव है। ऐसा ही भाव ‘मातृभाषा‘ में हैं, जहां वे चींटियों, कठफोड़वा, वायुयान और भाषा के लौटने की बात करते हैं, लेकिन ये कविताएं वैसी असरदार नहीं जैसी उदय प्रकाश की ‘मैं लौट जाऊंगा‘।

अंतिम दो पड़ाव सन 2014 में प्रकाशित ’सृष्टि पर पहरा’ संग्रह और इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2017-18 के आधार पर उनका कवि-मन की छवि कुछ इस तरह दिखती है- अजित राय से बात करते हुए उन्होंने बताया था कि- तोलस्तोय अपने गांव के लोगों से बहुत प्यार करते थे... गांव वालों के लिए तरसते थे। और फिर सवाल पर कि- क्या आपके चाचा या चकिया (बलिया जिले का उनका गांव) वालों को पता है कि आप देश के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं? उन्होंने परेशान होकर टालने की गरज से कहा, ‘ए भाई, तू बहुत बदमाश हो गइल बाड़अ, पिटइबअ का हो? इसी बातचीत में उन्होंने ‘बनारस‘ कविता सुनकर रोने लगी महिला के बारे में बताया कि- ‘वह कविता के लिए नहीं बनारस के लिए रो रही है जहां वह कभी नहीं जा पाएगी। ... यह जादू बनारस का है मेरी कविता का नहीं।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का ब्लर्ब विचारणीय है जहां कहा गया है कि- केदारनाथ सिंह का यह नया संग्रह कवि के इस विश्वास का ताजा साक्ष्य है कि अपने समय में प्रवेश करने का रास्ता अपने स्थान से होकर जाता है। यहां स्थान का सबसे विश्वसनीय भूगोल थोड़ा और विस्तृत हुआ है, जो अनुभव के कई सीमांत को छूता है। ... ये कविताएं कोई दावा नहीं करतीं। वे सिर्फ आपसे बोलना-बतियाना चाहती हैं- एक ऐसी भाषा में जो जितनी इनकी है उतनी ही आपकी भी। और दूसरी तरफ यह भी कि- कार्यक्षेत्र का प्रसार महानगर से ठेठ ग्रामांचल तक। इस संग्रह की कविता ‘घर में प्रवास‘ का अंश है- ‘अबकी गया तो भूल गया वह अनुबंध/जो मैंने कर रखा था उनके साथ/जब अन्दर प्रवेश किया/जरा पंख फड़फड़ाकर/उन्होंने दे दी मुझे अनुमति/कुछ दिन उस घर में रहा मैं उनके साथ/उनके मेहमान की तरह/यह एक आधुनिक का/आदिम प्रवास था/अपने ही घर में।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का समर्पण भी गहरे अर्थ वाला है- “अपने गांववालों को, जिन तक यह किताब कभी नहीं पहुंचेगी।“ इसकी भूमिका उनकी कविता ‘चिट्ठी‘ में पहले ही बन गई थी कि- ‘‘मुझे याद आई/एक और भी चिट्ठी/जो बरसों पहले/मैंने दिल्ली में छोड़ी थी/पर आज तक/ पहुंची नहीं चकिया‘‘ या ‘गांव आने पर‘ कविता के इन शब्दों में- ‘‘जिनका मैं दम भरता हूं कविता में/और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे‘‘ केदार जी का आशय क्या है? उनके गांव वालों तक किताब-चिट्ठी पहुंचना, ऐसा कौन सा मुश्किल था, जो नहीं हो सकता था? फिर गांव वालों तक किताब न पहुंच पाने में कारक कौन? केदारजी, गांववाले या स्वयं किताब (उसमें कही गई बात)? दिवंगत केदार जी के प्रति पूरी श्रद्धा के बावजूद- क्या उन्हें लगने लगा था कि उनकी बात साहित्य प्रेमियों, समीक्षकों, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वालों के समझ में तो आती है लेकिन इस भाषा-शैली में कही गई कविता की बातें उनके गांववालों तक पहुंच पाएगी? (उनकी कई बातें-कविताएं मुझे भी अबूझ लगीं तब सोचा कि क्या मैं भी उनके गांववालों की तरह हूं?) उनकी कविताई बातें अपने ही गांववालों के लिए बेगानी होती चली गई है? क्या इस समर्पण-कथन में उन्हें यही अफसोस साल रहा है? अपने पर इस तरह का भरोसेमंद संदेह, केदार जी जैसा कवि ही कर सकता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर उनके वक्तव्य में भी उल्लेख है कि अपने गांव के अनुभव में पके कर्मठ किसान के ‘कुछ सुनाओ‘ कहने पर वे अवाक रह गए थे और कहते हैं- ‘मैं जानता हूं कि यह आज की कविता की एक सीमा हो सकती है, पर कोई दोष नहीं कि वह बूढ़े किसान को सुनायी नहीं जा सकती।‘

मनोहर श्याम जोशी कहते थे- ‘हर व्यक्ति के वास्तविक संसार और काल्पनिक या आदर्श संसार में गहरा अंतर होता है। वह जो होता है, वही तो नहीं होता जो होना चाहता है या जो उसने चाहा था। जो उसने होना चाहा, उसकी कविताएं हो जाती हैं।‘ शायद ऐसी ही होने लगी थीं उनकी कविताएं। ‘बंटवारा‘ की पंक्तियां हैं- ‘‘कि यह जो कवि है मेरा भाई/जो बरसों ही रहता है मेरी सांस/मेरे ही नाम में/अच्छा हो, अगली बरसात से पहले/उसे दे दिया जाय/कोई अलग घर/कोई अलग नंबर।‘‘ स्वयं को निरस्त करने का दुर्लभ साहस लेकिन उनमें दिखता है, जब वे कहते हैं- ‘‘जो लिखकर फाड़ दी जाती हैं/कालजयी होती हैं/वही कविताएं।‘‘ या ‘‘कविताएं करा दी जाएं प्रवाहित/किसी नाले में‘‘ और मानों वसीयत लिख रहे हों- ‘‘और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे/कि लिख चुकने के बाद/इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना‘‘ लेकिन उन्हें उम्मीद है कि- ‘‘पर मौसम/चाहे जितना खराब हो/उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें‘‘।

बहरहाल उनकी पुण्य स्मृति को समर्पित- ‘‘मेरे गांव की मतदाता सूची में/नहीं है आपका नाम/न था, न होगा/इसलिए/आपका राशन कार्ड भी/यहां नहीं है/न आधार कार्ड/इस मामले में आप वैसे ही हैं/जैसा किसी चकिया के लिए मैं/न रहने के बाद भी/मैं हूं कही न कहीं/और कुछ न कुछ/वहां भी/ठीक वैसे ही/जैसे न होने के बाद भी/आप अपनी कविताओं में हैं, वैसे के वैसे।‘‘ उन्हें समर्पित मेरी ये पंक्तियां, मात्र संयोग है कि उनके द्वारा तैयार की गई अंतिम पांडुलिपि, जो अब प्रकाशित है, का शीर्षक ‘मतदान केन्द्र पर झपकी‘ है। इसी शीर्षक वाली कविता की अंतिम पंक्तियां है- मैंने खुद से कहा/अब घर चलो केदार/और खोजो इस व्यर्थ में/नया कोई अर्थ।

समाचार पत्र ‘नवभारत‘, रायपुर में
इस प्रकार प्रकाशित हुआ।


Sunday, August 5, 2018

मितान-मितानिन

फ्रेन्डशिप डे वाली दोस्तियां बहुधा एक दिन का मामला होती हैं और फेसबुक का तो ढांचा ही फ्रेन्डबुक जैसा है, जिसने हर रिश्ते को दोस्ती में बदलकर, इसके बनने-बिगड़ने को एक क्लिक पर ला दिया है। आभासी दुनिया पर दोस्ती वस्तुतः एक फलता-फूलता व्यापार है। इस दौर-दौरे में छत्तीसगढ़ में प्रचलित मित्रता की परंपरा के सौहार्द और समरस सद्भाव का स्मरण आवश्यक है। यहां पारम्परिक मितान-मितानिन, ऐसी मित्रता है जो न सिर्फ आजन्म बल्कि पीढ़ियों के लिए रिश्ते में बदल जाती है। इसका रोचक पहलू यह भी कि मितानी बदने के लिए सहज से ले कर विधि-विधान वाले कई तरीके हैं, किन्तु मितानी तोड़ने-छोड़ने का कोई प्रावधान, किसी भी तरीके की मितानी में नहीं है।

मितान बदने या गियां-गांठी की परम्परा पूरे छत्तीसगढ़ में है। पुरुष आपस में मितान होते हैं तो महिलाएं मितानिन। मितान बदना यानि मिताई या मित्रता में बद्ध होना, बंधना। इसी प्रकार गियां-गांठी का तात्पर्य गियां, गुइयां या गोई (और गो या सिर्फ ग, सामान्यतः पुरुषों में प्रयुक्त) और गांठी अर्थात दो व्यक्तियों के बीच अटूट संबंधों की गांठ। इस तरह छत्तीसगढ़ी में बदना, वस्तुतः बंधना या गांठ बांध लेना है जिसमें शपथ, सौगंध और संकल्प आशय भी निहित है। मित्र बनाने की इस परम्परा में जाति, धर्म जैसी कोई असमानता बाधक नहीं होती, बल्कि कई बार तो इसी भेद-भाव में सांमजस्य के लिए मितानी होती है। गांव में अल्पसंख्यक समुदाय या जाति का व्यक्ति, गांव के अन्य लोगों से मितान बद कर भाईचारा बना लेता है। ऐसा नहीं कि मितानी एक-दूसरे के मन मिलने पर ही होती है, कई बार कद-काठी, चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल में समानता देख कर या एक ही नाम वाले सहिनांव-हमनाम के लिए लोग सुझाते हैं कि ‘गियां बने फभिही‘ और मितानी बद ली जाती है। इससे एक कदम आगे, दो व्यक्तियों के बीच लगातार किन्तु अकारण मनमुटाव होता रहे तो इसके निवारण के लिए उनकी मितानी करा दी जाती है और इसके बाद उनके संबंध बहुधा मधुर मैत्रीपूर्ण बन जाते हैं।

महाप्रसाद मेडल
मितानी परम्परा में महापरसाद (महाप्रसाद) का सर्वाधिक महत्व है, यह मित्रता में सबसे बड़ा रिश्ता माना जाता है। महापरसाद अर्थात् जगन्नाथपुरी का सूखा चांवल, भगवान जगन्नाथ जी पर चढ़ाया गया भोग, जिसे विधि-विधानपूर्वक दो वयस्क व्यक्ति आपस में एक-दूसरे को खिलाकर मितान बदते हैं। इस अवसर पर एक-दूसरे को नारियल, सुपारी, धोती-साड़ी भेंट कर, सीताराम महापरसाद बोलकर मैत्री संबंध स्थापित किया जाता है। इसी प्रकार की मितानी गजामूंग भी है। आषाढ़ मास की द्वितीया, अर्थात रथयात्रा-गोंचा पर्व का प्रसाद, गजामूंग यानि बड़ा मूंग (मोठ), चना दाल और गुड़, एक-दूसरे को खिलाकर आजीवन मैत्री संबंध निर्वाह के लिए संकल्प लिया जाता है। इसके बाद यह खून के रिश्ते की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी निभाया जाता है, मितान बिरादर-हंड़िहरा जैसा हो जाता है, एक दूसरे के घर की गमी में सिर मुड़ाना, सूतक का पालन करने लगता है। विवाह के अवसर पर परिवार की तरह ही पंचहड़ (पांच बर्तन) दिये जाने की रस्म भी मितान पूरी करता है। मितान के बाद एक-दूसरे के सभी रिश्ते आपस में उसी सम्मान के साथ निभाए जाते हैं, किन्तु रोटी-बेटी की मर्यादा का निर्वाह किया जाता है साथ ही इसका नाजुक पक्ष है कि पुरुष मितानों की पत्नियां अपने पति के मितान को कुंअरा ससुर (जेठ) जैसा मानकर उससे परदा करती है।

रोजमर्रा में मितानी का एक रोचक नमूना 'छत्तीसगढ़ की आत्मा' में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की पात्र कारी के कथन में है- ''अपन तुलसीदल के संग डोंगरगांव गे रहेंव औउर अब अपन गंगा-जल के संग रायपुर जाहों। वोकर जंवारा तो आवत हये।'' दूसरी ओर मीत-मितानी का संबंध सिर्फ तीज-त्यौहार और खाने-पीने का नहीं, बल्कि दार्शनिक भाव के साथ आध्यात्मिक उंचाइयों तक पहुंच जाता है, जहां मित्रता के बंधन को तीर्थ का दरजा दिया गया है। ‘मितान-मितानीन दया-मया मा बंधाय, तीज तिहार मा जेवन बर जोरा अमराय।‘ ‘दस इन्दरी के महल जर जावै, मितानी झन झूटै, दिन दूभर हो जावै।‘ ‘मीत बंधन ले जनम भर के पिरीत, घर-दुवार बन जाथे दूनो के तिरीथ।‘ एक सरगुजिहा गीत में महापरसाद रिश्ते की महत्ता गाई जाती है कि कठिन समय के लिए, विपत्ति के दिनों का सामना करने के लिए महापरसाद बद लो। लड़कियां फूल बदती हैं, जो उनके विवाह के बाद निभ पाना संभव नहीं होता, लेकिन पुरुषों में बदा महापरसाद जीवन भर का साथ है-

ओह रे, बद ले महापरसाद, बड़े कठिना में बद ले।
कोन तो बदे फूल फुलवारी, कोन तो बदे महापरसाद।
लड़की मन तो बदें फूल फुलवारी, लइका बदे महापरसाद।
कै दिन रहय तोर फूल फुलवारी, कै दिन रहय महापरसाद।
दुइ दिन रहय तोर फूल फुलवारी, जियत भर रहय महापरसाद।
बड़े कठिना में...

इसी प्रकार मितानी के नाजुक रिश्तों का मजबूत और अटूट बंधन है- तुलसीदल, गंगाबारू, गंगाजल। इनमें मितानी का माध्यम क्रमशः तुलसी का पत्ता, गंगा की रेत और गंगाजल होता है, जिसे एक-दूसरे को ग्रहण करने को दिया जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि महापरसाद की तरह तुलसीदल, गंगाजल और गंगाबारू ऐसी पवित्र वस्तुएं हैं, जो भागवत की वेदी और मृत्यु के समय प्रयुक्त होती हैं। इन माध्यमों से मितानी में भावना होती है कि यह पवित्र रिश्ता जीवन-मरण का है। हर संकट और दुख की घड़ी में साथ निभाने वाला है। यह बस्तर अंचल के मरई-बदने की परम्परा में अधिक उजागर है, जो श्मशान घाट में तय हुआ मित्रता का रिश्ता है। कहा जाता है- ‘तुलसीदल, महापरसाद, जगन्नाथ के आसिस, सुरुज-आगी के साखी मा जियव लाख बरीस। यानि ऐसे संबंधों में भगवान जगन्नाथ का आशीष है, सूर्य, अग्नि और ध्रुव तारा इसके साक्षी है। और इसका निर्वाह विशेष पर्व-त्यौहारों दीवाली, दशहरा और राखी पर अवश्य निभाया जाता है। ‘मीत बदै सुरुज, आगी, धुरुतारा के साखी मा, जेमन मितानी निभावै देवारी, दसराहा, राखी मा।

सरगुजा अंचल में मितानी के लिए अधिक प्रचलित शब्द हैं- सखी जोराना या फूल जोराना। जोराना, यानि जुड़ना या जोड़ना। वैसे सखी जोराने या बदने का चलन पूरे छत्तीसगढ़ में है। यह मुख्यतः दो विवाहित, बाल-बच्चेदार महिलाओं के बीच होता है। रोचक यह है कि इस मित्रता का आधार संतति और उनका जन्म-क्रम होता है। यानि किसी महिला की पहली लड़की और उसके बाद दो पुत्र हैं तो वह वैसी ही महिला से सखी संबंध बनाएगी, जिसके लड़की, लड़का का जन्मक्रम और संख्या वैसी ही हो। इस तरह सखी बन गई महिलाओं में से किसी की संतान की मृत्यु होने पर या अन्य संतान हो जाने पर संख्या घट-बढ़ होने पर नई मितानी का रास्ता बन जाता है। कई बार मन मिल जाने पर जन्मक्रम के बजाय मात्र संतानों, पुत्र-पुत्री की कुल संख्या को आधार मानकर भी सखी जोराते हैं।

सखी जोराने में दोनों परिवार के प्रमुख की उपस्थिति होती है। दोनों पक्ष के लोग आंगन में इकट्ठे होते हैं। दोना में चावल, फूल ले कर बैठते हैं, गौरी-गणेश की पूजा होती है और एक दूसरे के कंधे पर साड़ी रखकर, कान में फूल खोंस देते हैं और एक दूसरे का पैर छू कर अभिवादन करते हैं। इसके बाद पूरे परिवार के लोग जोहार भेंट होते हैं, एक दूसरे परिवार को भोज, उपहार-भेंट दिया जाता है। सखी का रिश्ता जुड़ जाने के बाद दोनों पक्ष एक-दूसरे के प्रति आत्मीय और सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं- जैसे सखी दाई, सखी दाउ, सखी भाई या सखी बहिनी। सरगुजा अंचल में गेंदा या अन्य फूलों के माध्यम से और कई बार गौरा पत्ता (चमकदार कागज-सनफना) को भी माध्यम बनाकर मितानी बना ली जाती है। एक अन्य मितानी जलीय वनस्पति गेल्हा है। सरगुजा के एक अधरतिया किसुन खेल करमा गीत में गेल्हा की बात, आभूषणों का विवरण देते हुए, पूरे लालित्य के साथ संग-सहेली न हो पाने की व्यथा बन कर उभरती है-

ओह रे ए रे
काकर जग मैं बदों गेल्हा, संग सहली होइ गे डोल्हा।
उंगरी के चुटकी उंगरी ला विराजे, पांव के पैरी हर होय गे डोल्हा।
जाग के जंगहिया हर जाग ला विराजे, कनिहा के करघनिया हर होय गे डोल्हा।
छाती के हंसली हर छाती ला विराजे, मांग के मघोटी हर होय गे डोल्हा।
हाथ के चुरी हर हाथ ला विराजे, बांह कर बाजू हर होय गे डोल्हा।
कान के तरकी हर कान ला विराजे। नाक के नथिया होय गे डोल्हा।
काकर जग मैं बदों गेल्हा।

बस्तर अंचल में भी दशहरा के अवसर पर सोनपत्ती के माध्यम से मितानी बदी जाती है। महिलाएं, कुड़ई फूल और संगात बदती हैं। लड़कियां एक दूसरे के बालों-जूड़े में हजारी फूल खोंसकर, बाली फूल रिश्ता बनाती हैं। इसी प्रकार देवता और बड़े-बुजुर्गों के समक्ष चम्पाफूल बदा जाता है। दोने में चावल की अदला-बदली कर पुरुष या महिला दोनिया सखी बन जाते हैं। केंवरा, बदना अविवाहित युवकों और युवतियों में होता है। एक अन्य मितानी, सामान्यतः दो परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के बीच होता है, त्रिनाथ मेला बंधन है। यह किसी धार्मिक स्थल या पीपल-बरगद के पास बड़े आयोजन के साथ सम्पन्न होता है। माटी हांडी की मितानी यादव समाज में अधिक प्रचलित है।

वानस्पतिक फूल-पत्तियों के माध्यम से मितान बदना प्रचलित है। सामान्यतः अविवाहित युवतियां रक्षाबंधन के अगले दिन भोजली पर्व पर एक-दूसरे के कान में भोजली लगाकर भोजली देवी के समक्ष संकल्प करते हुए गियां बदती है। अन्य सभी एक-दूसरे को भोजली दे कर अभिवादन-भोजली भेंट करते हैं। इसी तरह दौना और केंवरा, सुगंधित वनस्पतियां हैं, जिनके माध्यम से मितान बदा जाता है। इनमें दौना (नगदौना) की विशेषता है कि सांप इसकी गंध के पास नहीं फटकता जबकि केंवरा की महक सांपों को आकर्षित करती है। दोनों नवरात्रि के अवसर पर अंतिम दिन जंवारा विसर्जन के पश्चात ‘जंवारा मितानी’ बदी जाती है, जिसमें मितान बदने वाले दोनों पात्र, चंउक पर रखे पीढ़ा पर खड़े होकर एक-दूसरे से नारियल की अदला-बदली करते हैं। उल्लेखनीय है कि कहीं-कहीं जंवारा विसर्जन अभिभावकों की निगरानी में युवक-युवती परिचय सम्मेलन की तरह भी होता है। युवा लड़के-लड़कियों के बीच भी जंवारा का संबंध होता है, जो मित्रता का और कभी-कभी विवाह संबंध में भी बदल जाता है। इसी प्रकार गोदना बदने में दो व्यक्ति एक-दूसरे का नाम गुदवाकर मैत्री संबंध स्थापित करते हैं। सावन में दुबी अर्थात् दुर्वा जैसे तृण को भी माध्यम बनाकर मितानी होती है। दीवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा से प्राप्त गोबर का एक-दूसरे के माथे पर लगाकर गोबरधन बदते हैं, जिसमें गले मिलकर एक-दूसरे को नारियल, यथाशक्ति वस्त्र आदि भी भेंट करते हैं। जब मितान मिलते है तो सीताराम गोबरधन बोलते हैं। महिलाएं एक दूसरे का पैर छूती है। इसी प्रकार किसी पर्व, रामायण, कीर्तन, सत्यनारायण कथा या भागवत के अवसर पर मितानी बदने के लिए उपयुक्त अवसर माना जाता है।

इस बारे में वेरियर एलविन का उल्लेख रोचक है, वे अपनी डायरी में 8 मई 1934 को लिखते हैं- गोंड समाज कई तरह की दोस्ती से जुड़ा हुआ है और वे शादियों से भी ज्यादा टिकाऊ हैं। इनके नाम हैं- बाजली, सखी, जवार, महाप्रसाद, गंगाजल, अमरबेल, गुलाबफूल, केलापान, नर्मदा जल इत्यादि। शामराव की एक छोटे भद्दे लड़के के साथ बाजली और आमिर के साथ गुलाबफूल दोस्ती है। मेरी अपनी गुलाबफूल एक नन्हीं लड़की है। मेरे तीन जवार हैं- नन्हीं जिगरी, कोटरी का एक सुन्दर लड़का और मेरे गाँव का कुन्दरू। 11 नवंबर 1935 को लिखते हैं- पंडा बाबा और मैं ‘सखी‘ बनने की योजना बनाते हैं। पंडा बाबा कहते हैंः ‘यह मित्रता आकाश से आती है। दूसरी मित्रताएं धरती से।‘ ‘सखी‘ बनने की यह योजना कार्यरूप में परिणित हो जाती है, 6 दिसंबर की डायरी में पूरा विवरण है कि- ‘दिसम्बर 6, बोंडार जाता हूँ जहाँ मेरे और पंडा बाबा के बीच 'सखी' मित्रता का अनुष्ठान होना है। उनके घर तक जानेवाली सड़क को खम्बों और घास के गुच्छों से सजाया गया है। हम उसके छोटे-से घर में पहुँचकर आग के चारों तरफ बैठ जाते हैं। गाँववाले आने लगते हैं। मिसेज पंडा बाहर आती हैं और आँगन के बीच पवित्र खम्बे के ठीक नीचे की थोड़ी-सी ज़मीन को गोबर से लीप देती हैं। फिर थोड़ा आटा लेकर लिपे स्थान पर अजीब तरह के पैटर्न बनाती हैं। पंडा बाबा एक ओर, मैं दूसरी ओर बैठता हूँ। और दो प्राणी खाली तरफों पर बैठकर वर्गाकार बनाते हैं। आग जलाई जाती है, इस पर घी डाला जाता है। पतला-सा धुंआ उठता है। हम सब दूध के कटोरे में अपनी उँगलियाँ डुबोते हैं और एक-दूसरे के माथे को छूते हैं। तब पंडा बाबा अपने दोनों हाथ मेरे सिर पर रखते हैं, मैं उनके सिर पर। हम मनके और नारियल बदलते हैं। दो पीतल की थालियों में सामान लाया जाता है। पंडा बाबा की थाली में कुछ चावल, नमक और एक रुपया है : मेरी थाली में चावल, नमक, एक धोती और एक कम्बल है। हम तीन बार थालियाँ बदलते हैं और कहते हैं, “सीताराम सखी।' अनुष्ठान पूरा हो जाता है। हम अनन्तकाल तक एक-दूसरे के साथी रहेंगे। मिसेज पंडा और भूतपूर्व मिसेज पंडा भी मेरी सखी बन जाती हैं। प्रथा के अनुसार। मैं डरते हुए पंडा बाबा से पूछता हूँ, 'क्या मैं अनन्तकाल तक इनके साथ भी रहूँगा ?" परोपकार भाव के तहत बूढ़ा आदमी कहता है, 'निश्चित रूप से।' नारियल तोड़े जाते हैं और उनके छोटे-छोटे टुकड़े सबको बाँटे जाते हैं। देर रात में, सोहोरी के बनाए स्वादिष्ट भोजन पाने के बाद, हम उस कमरे में सोते हैं जिसमें पंडा बाबा के धन्धे से सम्बन्धित चीजें दीवार पर टॅंगी हुई हैं।‘

छत्तीसगढ़ की इस विशिष्ट और समृद्ध परम्परा लोक-जीवन में कितनी और किस तरह से घुली-मिली है, यह प्रचलित कथनों में परिलक्षित होता है। लोकप्रिय कहावत है- ‘मितानी बदै जान के, पानी पीयव छान के।‘ लेकिन मित्रता करते हुए पात्र चयन में सावधानी रखना आवश्यक होता है, इसके लिए नसीहत दी जाती है- ‘भले मनसे ले मीत बदै जिंगनी हा सधे, खिटखिटहा ल मीत बनाय बोझा मा लदे।‘ लेकिन मितानी में जात-पांत का भेद नहीं होता, यह देख कर पड़ोसी को भी ईर्ष्या हो सकती है और मित्र की बातें मीठी लगती हैं, जबकि पड़ोसी की सीठी, कुछ यों- ‘मितान के मितानी देख परोसी ल होवै ईरखा, जात-पांत भुला जावै, गांड़ा सईस दिरखा।‘ और- ‘मितानी के गोठ मीठ-मीठ, परोसी के सीठ-सीठ।‘ संक्षेप में कहें तो छत्तीसगढ़ में मीत-मिठास का यह लोक-संस्कार, सोलह संस्कारों जैसा ही मान्य और प्रतिष्ठित है।

छत्तीसगढ़, सांस्कृतिक समृद्धि का ऐसा सागर है, जिसमें हर डुबकी के साथ हाथ आई सीप हमेशा आबदार मोती वाली ही निकलती है। ऐसा ही एक मोती 'मितान-मितानिन' की मिताई है।
समाचार पत्र ‘नवभारत‘ में
इस प्रकार प्रकाशित हुआ।


Friday, July 27, 2018

एक थे फूफा


एक थे फूफा, बड़े-छोटे सबके, जगत फूफा। मानों फूफा रिश्ता नहीं नाम हो, इस हद तक फूफा। ... ... ...

'एक थे फूफा' 1 दिसंबर 2018 को आई और 20 दिन में सारी प्रतियां बिक गई, अब दूसरा संस्‍करण जनवरी 2019 में आ गया है।


आकस्मिक लेखक और आदतन पाठक, कभी-कभार टिप्पणीकार हूं। अपने लिखे 'एक थे फूफा' को इतने समय बाद पाठक की तरह पढ़ते हुए टिप्पणी करने का मन बना, इसलिए यह प्रयोग, स्वयं के लिखे पर पाठकीय नजरिए से टिप्पणी-

'फूफा‘ का अफसाना जहां से शुरू होता है, समाप्त भी होता है उन्हीं शब्दों ‘एक थे फूफा‘ पर, मानों जीवन-वृत्त, वही आदि वही अंत। शीर्षक का 'थे' यह अनुमान करा देता है कि आगे जो कुछ आने वाला है वह हो चुका है, बीत चुका है, यह बस दुहराया जा रहा है। पहले पैरा के अंश ‘अपने ही घर में फूफा‘ में अपने-इनसाइडर के बेगाने-आउटसाइडर हो जाने का संकेत मिलता है।

फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्‍य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्‍म देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए। छत्तीसगढ़ी के शब्दों और वाक्याशों का प्रयोग आंचलिक माहौल बनाता है, लेकिन कभी ठिठकने को मजबूर भी करता है, इसलिए छोटी रचना होने के बावजूद इसे एक बैठक में और रवानी के साथ पढ़ पाने में अड़चन होती है। जीवन-चक्र एक बार फिर, अपनी बातों-फैसलों के असर की परवाह न करने वाले फूफा के जीवन में पहले तेज-तर्राट छोटी बहू, फूफा की खांसी और तबियत की चिंता के आड़ में बिड़ी के बेवजह खर्च की बातें परदे से करती है, जो फूफा के कानों में पड़ती है और फिर जिस तरह फूफा ने लम्मरदारी बुजुर्गों से अपने हाथ में ली होती है, उसी तरह कहानी के उत्तरार्द्ध में कहा गया है कि ‘योग्य सुपुत्रों ने कोई खास काम उनके लिए छोड़ा न था।‘

बुआ और नोनीबाई का प्रसंग प्रत्येक पाठक-रुचि के अनुकूल है, लेकिन दोनों थोड़ी असमंजस वाली, खासकर नोनीबाई, जिसमें पाठक आगे क्या होगा का अनुमान के साथ व्यग्र रहता है और इस प्रसंग का अंत अप्रत्याशित होता है, किसी भी संभव अनुमान से अलग। दूसरी तरफ फूफा का अंत इतना पूर्वनिर्धारित होता है, पाठक मान सकता है कि कहानी उसकी ही तय की गई और लिखी हुई है।

बिड़ी पर इस बारीकी से शायद अब तक नहीं लिखा गया है, साथ ही चिड़ियों की बोली वाली बात मजेदार है जिसे समझने की वंशगत थाती को फूफा के पिता चोचला मानते थे कि अगल-बगल की बात तो समझ में आती नहीं और वाह रे चिड़ियों की बोली के ज्ञाता। काकभुशुंडी और शुकदेव, पौराणिक कथावाचक हैं तो कौआ पितरों का प्रतीक भी माना जाता है, वही फूफा के जन्म का संकेत देता है और उसी के साथ वंश आगे बढ़ने 'नामलेवा-पानीदेवा' की बात आती है तो दूसरी तरफ शुक-तोता को शुभ-अशुभ का संकेत देने वाले माना गया है और देह पिंजर में जीव-शुक के प्रती‍क को कहानी में सहज गूंथा गया है। उन्मुक्त पक्षियों की बोली का रस लेने वाले फूफा ने चौथेपन में पिंजरे वाली चिड़िया, तोता पाल लिया, सारी कवायद के बाद वह तोतारटंत टें-टें ही करता रहा, मानों जीवन का बेसुरा राग।

कहानी का प्रवाह उबड़-खाबड़ सा है, कुछ बातें-प्रसंग बेढंगी, जीवन की तरह। कहानी के बीच रेखाचित्र और खंड-शीर्षक इस उलझी सी बुनावट को कसावट देते हैं, फिर भी पूरा मसौदा ऐसा, जिसे सुगढ़ लेखन कतई नहीं माना जा सकता, शुरुआती लेखकीय वक्तव्य अपना बचाव करते दिखता है- 'पाठक नीर-क्षीर विवेक को सक्रिय न होने दे। और कहानी का परिशिष्ट ‘दस्तावेजी कच्चा-चिट्ठा‘ है, जिसमें इसे किसी डायरी के अंश की तथा-कथा बताया गया है, कि जिसमें कुछ खाली पन्ने भी हैं, ऐसी डायरी, जो समय के साथ ‘रद्दी‘-निरर्थक हो जाती है। यह भी तय नहीं हो पाता कि यह कहानी है, उपन्याेसिका, व्यसक्ति चित्र या कुछ और। कहीं लगता है कि 'ये लिखना भी कोई लिखना है लल्लूल' क्यों्कि लेखन में अनगढ़-अनाड़ीपन है।

अवसान, दिन का हो, जीवन का या कहानी का, उदास करता है। फूफा का अंत सहज-स्वाभाविक नियति की तरह है फिर भी तटस्थ भाव से कही जा रही कथा में पाठक फूफा के साथ खुद को जोड़कर ऐसी सहानुभूति महसूस करने लगता है कि फूफा की चिंता, पाठक की व्यथा बन जाती है। और कहानी खत्म होते ही पाठकीय मन लौटकर आ जाता है पहले वाक्य पर- एक थे फूफा।

Friday, January 19, 2018

कहानी - अनादि, अनंत ...

एक कहानी पढ़ी मैंने, छोटी सी। बात बस इतनी कि कहानी का नायक सरकारी मुलाजिम, जो वस्तुतः बस केन्द्रीय पात्र है, के शादी की पचीसवीं वर्षगांठ है। कार्यालय में इस पर बात होती है, लेकिन वह चाय-पानी में बिना शामिल घर लौट आता है, घर में भी अनायास माहौल पाता है, यहां शामिल न रह कर भी शामिल है, बस। कहानी में लगभग कोई घटना नहीं है। घटनाहीन भी कोई कहानी होती है? बहरहाल, इतनी सी बात संक्षेप में ही कही गई है। अब ऐसी मजेदार, या कहें त्रासद-हास्य या हास्यास्पद-त्रास, कहानी को पढ़कर, स्वाभाविक ही लगा कि इसे औरों से भी बांट लिया जाए।

मैंने यही कहानी कईयों को सुनाने की कोशिश की। इसे सुनने में वे रुचि लें इसलिए पढ़ना शुरु करने के पहले बताता कि यह जो कहानी आप सुनने वाले हैं, उसमें कैसे बमुश्किल चार लाइन की बात को लेखक कहता गया है, एक दिन और वह भी शाम पांच पच्चीस से रात दसेक बजे तक कुछ घंटों का अहवाल, इसी तरह सपाट सी कहानी को 15 पृष्ठों में और पाठक कैसे उसमें रमा रह जाता है कि बस सफे-सतर।

किस तरह एक बुजुर्ग नौकरीपेशा, शाम को अपने आफिस से घर लौटने को है। छुट्टी का समय होने की बात, आफिस की दीवार घड़ी से उनकी कलाई घड़ी पर आ जाती है, जिसके पुरानेपन की बात पर से यह पता चल जाता है कि यह आज के ही दिन उन्हें मिली थी, और यह कि आज उनकी शादी की पचीसवीं वर्षगांठ है, वे आफिस के साथियों की चाय-पानी की फरमाइश तो पूरी कर देते हैं, लेकिन खुद साथ देने नहीं रुकते, नियम-अनुशासन के पक्के। परम्परा के संवाहक। अपने वरिष्ठ को मन ही मन याद करते, प्रेरणा लेते, उनका अनुकरण कर अपनी जीवन नैया के हिचकोलों को कम करते, भवसागर पार करने वाले।

आफिस से निकल कर बिड़ला मंदिर में थिर कदम, भटकते मन और कान में गीता प्रवचन। घर का रास्ता अभी तय होने के बीच सब्जी मंडी है, लेकिन आठ बजने को हैं, बस अब घर। दरवाजे पर चौंकाने वाली सजावट, झालर और रोशनी। घर में भी माहौल है। पार्टी, रिश्तेदार, बच्चे, बच्चों के दोस्त। केक, कोल्ड ड्रिंक्स से ले कर व्हिस्की तक। समहाउ, इम्प्रापर बट एनीहाउ। उन्हें शामिल होना पड़ा है, अनमने। सब लौट जाते हैं। बच्चों की जिद, पाजामा-कुर्ता पर गिफ्ट में आया गाउन पहनाया जाता है, बस। जिस जिंदगी में ऑफिस और घर ही हो, उसमें मंदिर और सब्जी मंडी से अधिक की गुंजाइश भी कहां।

लेकिन अपनी इस पसंदीदा कहानी को पढ़ कर सुनाने की बात कुछ बन नहीं पाई। तो आजमाने की सोची, और कोई न मिले तो घर-परिवार की साहित्यिक रुचि में अभिवृद्धि का फर्ज पूरा करना क्या बुरा। हाथ में पुस्तक और घरु श्रोता। थोड़ी भूमिका और कहानी शुरु। दो पेज, तीन पेज, चार, पांच..., अटकते-बढ़ते बात यहां तक आ गई कि... हामी के साथ वाहवाहियों की टिप्पणी आती रही, लेकिन साथ ही अब बारी-बारी से किसी को कोई बात, कोई काम याद आने लगा, बुलावा होने लगा। श्रोता, कोरम में अधूरे रह जाने से बुकमार्क लग गया, जो लगा रहा।

इस बीच बराबर अवसर की तलाश रही, लेकिन बात न बननी थी, तो नहीं बनी। तो कोरम की परवाह बगैर मैंने किताब हाथ में लेकर, बुकमार्क खिसकाते, बात का सिरा पकड़ा, जो कहानी उस दिन अधूरी रह गई, अब आगे बढ़ते हैं। सवाल आया, उस दिन वाली कहानी? वह कहानी तो उसी दिन पूरी हो गई थी। श्रोताओं के लिए पूरी हो गई इस अधूरी कहानी को साबित न कर सका कि कहानी पूरी क्या, तब तो आधी भी नहीं हुई थी।

सोने से पहले मन में सवाल अटक गया कि क्या कहानी मुझे पसंद है, औरों को नहीं, लोग सुनना नहीं चाहते या मेरी ओर से कहानी की बात ही बेसमय होती रही। लोगों ने जितना सुना, वह कहानी सुनने में लगे समय की सीमा थी या मेरे लिहाज की। विकल मन से रात गुजरी, ब्रह्म मुहूर्त में बात बनी कि कहानी घटनाहीन हो तो वह न कभी अधूरी होती है, न कभी पूरी या कहें वह हमेशा पूरी होती है और अधूरी भी। उर्फ ये जो है जिंदगी। अब कोई सुनने वाला नहीं और न ही सुना कर पूरा करने की चाह। फिर भी कहानी की कहानी, आधी-अधूरी, जैसे बन पड़े, सुनाना न हो सके तो यहां लिख कर ही सही।

हां! मनोहर श्याम जोशी की इस कहानी का शीर्षक है, ‘सिल्वर वेडिंग‘। और कहानी के नायक हैं सेक्शन ऑफिसर वाई.डी. (यशोधर) पंत। इन यशोधर बाबू को कहानी के आखिर में पाजामा-कुर्ता पर गिफ्ट में आया गाउन पहनाया गया है, सोचता हूं कि मैं उन्हें कभी विनोद कुमार शुक्ल वाले ‘नौकर- संतू बाबू की कमीज‘ पहना कर देखूं, कितनी फिट आती है।

मर्म की बात, कहानी हो घटनारहित, बस हिलोरे लेते, परतदार, न कहीं शुरू न कहीं खत्म। तो कहानी का एप्रीसिएशन भी क्यों न हो इसी जैसा, तरंगों की तरह। केन्द्र के चारों ओर का वृत्त, उससे बड़ा, फिर बड़ा, और बड़ा, वृहत्तर कि केन्द्र से मुक्त हो कर दूसरी तरंगों में घुल-मिल जाए। अनादि, अनंत ...