फ्रेन्डशिप डे वाली दोस्तियां बहुधा एक दिन का मामला होती हैं और फेसबुक का तो ढांचा ही फ्रेन्डबुक जैसा है, जिसने हर रिश्ते को दोस्ती में बदलकर, इसके बनने-बिगड़ने को एक क्लिक पर ला दिया है। आभासी दुनिया पर दोस्ती वस्तुतः एक फलता-फूलता व्यापार है। इस दौर-दौरे में छत्तीसगढ़ में प्रचलित मित्रता की परंपरा के सौहार्द और समरस सद्भाव का स्मरण आवश्यक है। यहां पारम्परिक मितान-मितानिन, ऐसी मित्रता है जो न सिर्फ आजन्म बल्कि पीढ़ियों के लिए रिश्ते में बदल जाती है। इसका रोचक पहलू यह भी कि मितानी बदने के लिए सहज से ले कर विधि-विधान वाले कई तरीके हैं, किन्तु मितानी तोड़ने-छोड़ने का कोई प्रावधान, किसी भी तरीके की मितानी में नहीं है।
मितान बदने या गियां-गांठी की परम्परा पूरे छत्तीसगढ़ में है। पुरुष आपस में मितान होते हैं तो महिलाएं मितानिन। मितान बदना यानि मिताई या मित्रता में बद्ध होना, बंधना। इसी प्रकार गियां-गांठी का तात्पर्य गियां, गुइयां या गोई (और गो या सिर्फ ग, सामान्यतः पुरुषों में प्रयुक्त) और गांठी अर्थात दो व्यक्तियों के बीच अटूट संबंधों की गांठ। इस तरह छत्तीसगढ़ी में बदना, वस्तुतः बंधना या गांठ बांध लेना है जिसमें शपथ, सौगंध और संकल्प आशय भी निहित है। मित्र बनाने की इस परम्परा में जाति, धर्म जैसी कोई असमानता बाधक नहीं होती, बल्कि कई बार तो इसी भेद-भाव में सांमजस्य के लिए मितानी होती है। गांव में अल्पसंख्यक समुदाय या जाति का व्यक्ति, गांव के अन्य लोगों से मितान बद कर भाईचारा बना लेता है। ऐसा नहीं कि मितानी एक-दूसरे के मन मिलने पर ही होती है, कई बार कद-काठी, चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल में समानता देख कर या एक ही नाम वाले सहिनांव-हमनाम के लिए लोग सुझाते हैं कि ‘गियां बने फभिही‘ और मितानी बद ली जाती है। इससे एक कदम आगे, दो व्यक्तियों के बीच लगातार किन्तु अकारण मनमुटाव होता रहे तो इसके निवारण के लिए उनकी मितानी करा दी जाती है और इसके बाद उनके संबंध बहुधा मधुर मैत्रीपूर्ण बन जाते हैं।
महाप्रसाद मेडल |
रोजमर्रा में मितानी का एक रोचक नमूना 'छत्तीसगढ़ की आत्मा' में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की पात्र कारी के कथन में है- ''अपन तुलसीदल के संग डोंगरगांव गे रहेंव औउर अब अपन गंगा-जल के संग रायपुर जाहों। वोकर जंवारा तो आवत हये।'' दूसरी ओर मीत-मितानी का संबंध सिर्फ तीज-त्यौहार और खाने-पीने का नहीं, बल्कि दार्शनिक भाव के साथ आध्यात्मिक उंचाइयों तक पहुंच जाता है, जहां मित्रता के बंधन को तीर्थ का दरजा दिया गया है। ‘मितान-मितानीन दया-मया मा बंधाय, तीज तिहार मा जेवन बर जोरा अमराय।‘ ‘दस इन्दरी के महल जर जावै, मितानी झन झूटै, दिन दूभर हो जावै।‘ ‘मीत बंधन ले जनम भर के पिरीत, घर-दुवार बन जाथे दूनो के तिरीथ।‘ एक सरगुजिहा गीत में महापरसाद रिश्ते की महत्ता गाई जाती है कि कठिन समय के लिए, विपत्ति के दिनों का सामना करने के लिए महापरसाद बद लो। लड़कियां फूल बदती हैं, जो उनके विवाह के बाद निभ पाना संभव नहीं होता, लेकिन पुरुषों में बदा महापरसाद जीवन भर का साथ है-
ओह रे, बद ले महापरसाद, बड़े कठिना में बद ले।
कोन तो बदे फूल फुलवारी, कोन तो बदे महापरसाद।
लड़की मन तो बदें फूल फुलवारी, लइका बदे महापरसाद।
कै दिन रहय तोर फूल फुलवारी, कै दिन रहय महापरसाद।
दुइ दिन रहय तोर फूल फुलवारी, जियत भर रहय महापरसाद।
बड़े कठिना में...
इसी प्रकार मितानी के नाजुक रिश्तों का मजबूत और अटूट बंधन है- तुलसीदल, गंगाबारू, गंगाजल। इनमें मितानी का माध्यम क्रमशः तुलसी का पत्ता, गंगा की रेत और गंगाजल होता है, जिसे एक-दूसरे को ग्रहण करने को दिया जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि महापरसाद की तरह तुलसीदल, गंगाजल और गंगाबारू ऐसी पवित्र वस्तुएं हैं, जो भागवत की वेदी और मृत्यु के समय प्रयुक्त होती हैं। इन माध्यमों से मितानी में भावना होती है कि यह पवित्र रिश्ता जीवन-मरण का है। हर संकट और दुख की घड़ी में साथ निभाने वाला है। यह बस्तर अंचल के मरई-बदने की परम्परा में अधिक उजागर है, जो श्मशान घाट में तय हुआ मित्रता का रिश्ता है। कहा जाता है- ‘तुलसीदल, महापरसाद, जगन्नाथ के आसिस, सुरुज-आगी के साखी मा जियव लाख बरीस। यानि ऐसे संबंधों में भगवान जगन्नाथ का आशीष है, सूर्य, अग्नि और ध्रुव तारा इसके साक्षी है। और इसका निर्वाह विशेष पर्व-त्यौहारों दीवाली, दशहरा और राखी पर अवश्य निभाया जाता है। ‘मीत बदै सुरुज, आगी, धुरुतारा के साखी मा, जेमन मितानी निभावै देवारी, दसराहा, राखी मा।
सरगुजा अंचल में मितानी के लिए अधिक प्रचलित शब्द हैं- सखी जोराना या फूल जोराना। जोराना, यानि जुड़ना या जोड़ना। वैसे सखी जोराने या बदने का चलन पूरे छत्तीसगढ़ में है। यह मुख्यतः दो विवाहित, बाल-बच्चेदार महिलाओं के बीच होता है। रोचक यह है कि इस मित्रता का आधार संतति और उनका जन्म-क्रम होता है। यानि किसी महिला की पहली लड़की और उसके बाद दो पुत्र हैं तो वह वैसी ही महिला से सखी संबंध बनाएगी, जिसके लड़की, लड़का का जन्मक्रम और संख्या वैसी ही हो। इस तरह सखी बन गई महिलाओं में से किसी की संतान की मृत्यु होने पर या अन्य संतान हो जाने पर संख्या घट-बढ़ होने पर नई मितानी का रास्ता बन जाता है। कई बार मन मिल जाने पर जन्मक्रम के बजाय मात्र संतानों, पुत्र-पुत्री की कुल संख्या को आधार मानकर भी सखी जोराते हैं।
सखी जोराने में दोनों परिवार के प्रमुख की उपस्थिति होती है। दोनों पक्ष के लोग आंगन में इकट्ठे होते हैं। दोना में चावल, फूल ले कर बैठते हैं, गौरी-गणेश की पूजा होती है और एक दूसरे के कंधे पर साड़ी रखकर, कान में फूल खोंस देते हैं और एक दूसरे का पैर छू कर अभिवादन करते हैं। इसके बाद पूरे परिवार के लोग जोहार भेंट होते हैं, एक दूसरे परिवार को भोज, उपहार-भेंट दिया जाता है। सखी का रिश्ता जुड़ जाने के बाद दोनों पक्ष एक-दूसरे के प्रति आत्मीय और सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं- जैसे सखी दाई, सखी दाउ, सखी भाई या सखी बहिनी। सरगुजा अंचल में गेंदा या अन्य फूलों के माध्यम से और कई बार गौरा पत्ता (चमकदार कागज-सनफना) को भी माध्यम बनाकर मितानी बना ली जाती है। एक अन्य मितानी जलीय वनस्पति गेल्हा है। सरगुजा के एक अधरतिया किसुन खेल करमा गीत में गेल्हा की बात, आभूषणों का विवरण देते हुए, पूरे लालित्य के साथ संग-सहेली न हो पाने की व्यथा बन कर उभरती है-
ओह रे ए रे
काकर जग मैं बदों गेल्हा, संग सहली होइ गे डोल्हा।
उंगरी के चुटकी उंगरी ला विराजे, पांव के पैरी हर होय गे डोल्हा।
जाग के जंगहिया हर जाग ला विराजे, कनिहा के करघनिया हर होय गे डोल्हा।
छाती के हंसली हर छाती ला विराजे, मांग के मघोटी हर होय गे डोल्हा।
हाथ के चुरी हर हाथ ला विराजे, बांह कर बाजू हर होय गे डोल्हा।
कान के तरकी हर कान ला विराजे। नाक के नथिया होय गे डोल्हा।
काकर जग मैं बदों गेल्हा।
बस्तर अंचल में भी दशहरा के अवसर पर सोनपत्ती के माध्यम से मितानी बदी जाती है। महिलाएं, कुड़ई फूल और संगात बदती हैं। लड़कियां एक दूसरे के बालों-जूड़े में हजारी फूल खोंसकर, बाली फूल रिश्ता बनाती हैं। इसी प्रकार देवता और बड़े-बुजुर्गों के समक्ष चम्पाफूल बदा जाता है। दोने में चावल की अदला-बदली कर पुरुष या महिला दोनिया सखी बन जाते हैं। केंवरा, बदना अविवाहित युवकों और युवतियों में होता है। एक अन्य मितानी, सामान्यतः दो परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के बीच होता है, त्रिनाथ मेला बंधन है। यह किसी धार्मिक स्थल या पीपल-बरगद के पास बड़े आयोजन के साथ सम्पन्न होता है। माटी हांडी की मितानी यादव समाज में अधिक प्रचलित है।
वानस्पतिक फूल-पत्तियों के माध्यम से मितान बदना प्रचलित है। सामान्यतः अविवाहित युवतियां रक्षाबंधन के अगले दिन भोजली पर्व पर एक-दूसरे के कान में भोजली लगाकर भोजली देवी के समक्ष संकल्प करते हुए गियां बदती है। अन्य सभी एक-दूसरे को भोजली दे कर अभिवादन-भोजली भेंट करते हैं। इसी तरह दौना और केंवरा, सुगंधित वनस्पतियां हैं, जिनके माध्यम से मितान बदा जाता है। इनमें दौना (नगदौना) की विशेषता है कि सांप इसकी गंध के पास नहीं फटकता जबकि केंवरा की महक सांपों को आकर्षित करती है। दोनों नवरात्रि के अवसर पर अंतिम दिन जंवारा विसर्जन के पश्चात ‘जंवारा मितानी’ बदी जाती है, जिसमें मितान बदने वाले दोनों पात्र, चंउक पर रखे पीढ़ा पर खड़े होकर एक-दूसरे से नारियल की अदला-बदली करते हैं। उल्लेखनीय है कि कहीं-कहीं जंवारा विसर्जन अभिभावकों की निगरानी में युवक-युवती परिचय सम्मेलन की तरह भी होता है। युवा लड़के-लड़कियों के बीच भी जंवारा का संबंध होता है, जो मित्रता का और कभी-कभी विवाह संबंध में भी बदल जाता है। इसी प्रकार गोदना बदने में दो व्यक्ति एक-दूसरे का नाम गुदवाकर मैत्री संबंध स्थापित करते हैं। सावन में दुबी अर्थात् दुर्वा जैसे तृण को भी माध्यम बनाकर मितानी होती है। दीवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा से प्राप्त गोबर का एक-दूसरे के माथे पर लगाकर गोबरधन बदते हैं, जिसमें गले मिलकर एक-दूसरे को नारियल, यथाशक्ति वस्त्र आदि भी भेंट करते हैं। जब मितान मिलते है तो सीताराम गोबरधन बोलते हैं। महिलाएं एक दूसरे का पैर छूती है। इसी प्रकार किसी पर्व, रामायण, कीर्तन, सत्यनारायण कथा या भागवत के अवसर पर मितानी बदने के लिए उपयुक्त अवसर माना जाता है।
इस बारे में वेरियर एलविन का उल्लेख रोचक है, वे अपनी डायरी में 8 मई 1934 को लिखते हैं- गोंड समाज कई तरह की दोस्ती से जुड़ा हुआ है और वे शादियों से भी ज्यादा टिकाऊ हैं। इनके नाम हैं- बाजली, सखी, जवार, महाप्रसाद, गंगाजल, अमरबेल, गुलाबफूल, केलापान, नर्मदा जल इत्यादि। शामराव की एक छोटे भद्दे लड़के के साथ बाजली और आमिर के साथ गुलाबफूल दोस्ती है। मेरी अपनी गुलाबफूल एक नन्हीं लड़की है। मेरे तीन जवार हैं- नन्हीं जिगरी, कोटरी का एक सुन्दर लड़का और मेरे गाँव का कुन्दरू। 11 नवंबर 1935 को लिखते हैं- पंडा बाबा और मैं ‘सखी‘ बनने की योजना बनाते हैं। पंडा बाबा कहते हैंः ‘यह मित्रता आकाश से आती है। दूसरी मित्रताएं धरती से।‘ ‘सखी‘ बनने की यह योजना कार्यरूप में परिणित हो जाती है, 6 दिसंबर की डायरी में पूरा विवरण है कि- ‘दिसम्बर 6, बोंडार जाता हूँ जहाँ मेरे और पंडा बाबा के बीच 'सखी' मित्रता का अनुष्ठान होना है। उनके घर तक जानेवाली सड़क को खम्बों और घास के गुच्छों से सजाया गया है। हम उसके छोटे-से घर में पहुँचकर आग के चारों तरफ बैठ जाते हैं। गाँववाले आने लगते हैं। मिसेज पंडा बाहर आती हैं और आँगन के बीच पवित्र खम्बे के ठीक नीचे की थोड़ी-सी ज़मीन को गोबर से लीप देती हैं। फिर थोड़ा आटा लेकर लिपे स्थान पर अजीब तरह के पैटर्न बनाती हैं। पंडा बाबा एक ओर, मैं दूसरी ओर बैठता हूँ। और दो प्राणी खाली तरफों पर बैठकर वर्गाकार बनाते हैं। आग जलाई जाती है, इस पर घी डाला जाता है। पतला-सा धुंआ उठता है। हम सब दूध के कटोरे में अपनी उँगलियाँ डुबोते हैं और एक-दूसरे के माथे को छूते हैं। तब पंडा बाबा अपने दोनों हाथ मेरे सिर पर रखते हैं, मैं उनके सिर पर। हम मनके और नारियल बदलते हैं। दो पीतल की थालियों में सामान लाया जाता है। पंडा बाबा की थाली में कुछ चावल, नमक और एक रुपया है : मेरी थाली में चावल, नमक, एक धोती और एक कम्बल है। हम तीन बार थालियाँ बदलते हैं और कहते हैं, “सीताराम सखी।' अनुष्ठान पूरा हो जाता है। हम अनन्तकाल तक एक-दूसरे के साथी रहेंगे। मिसेज पंडा और भूतपूर्व मिसेज पंडा भी मेरी सखी बन जाती हैं। प्रथा के अनुसार। मैं डरते हुए पंडा बाबा से पूछता हूँ, 'क्या मैं अनन्तकाल तक इनके साथ भी रहूँगा ?" परोपकार भाव के तहत बूढ़ा आदमी कहता है, 'निश्चित रूप से।' नारियल तोड़े जाते हैं और उनके छोटे-छोटे टुकड़े सबको बाँटे जाते हैं। देर रात में, सोहोरी के बनाए स्वादिष्ट भोजन पाने के बाद, हम उस कमरे में सोते हैं जिसमें पंडा बाबा के धन्धे से सम्बन्धित चीजें दीवार पर टॅंगी हुई हैं।‘
छत्तीसगढ़ की इस विशिष्ट और समृद्ध परम्परा लोक-जीवन में कितनी और किस तरह से घुली-मिली है, यह प्रचलित कथनों में परिलक्षित होता है। लोकप्रिय कहावत है- ‘मितानी बदै जान के, पानी पीयव छान के।‘ लेकिन मित्रता करते हुए पात्र चयन में सावधानी रखना आवश्यक होता है, इसके लिए नसीहत दी जाती है- ‘भले मनसे ले मीत बदै जिंगनी हा सधे, खिटखिटहा ल मीत बनाय बोझा मा लदे।‘ लेकिन मितानी में जात-पांत का भेद नहीं होता, यह देख कर पड़ोसी को भी ईर्ष्या हो सकती है और मित्र की बातें मीठी लगती हैं, जबकि पड़ोसी की सीठी, कुछ यों- ‘मितान के मितानी देख परोसी ल होवै ईरखा, जात-पांत भुला जावै, गांड़ा सईस दिरखा।‘ और- ‘मितानी के गोठ मीठ-मीठ, परोसी के सीठ-सीठ।‘ संक्षेप में कहें तो छत्तीसगढ़ में मीत-मिठास का यह लोक-संस्कार, सोलह संस्कारों जैसा ही मान्य और प्रतिष्ठित है।
छत्तीसगढ़, सांस्कृतिक समृद्धि का ऐसा सागर है, जिसमें हर डुबकी के साथ हाथ आई सीप हमेशा आबदार मोती वाली ही निकलती है। ऐसा ही एक मोती 'मितान-मितानिन' की मिताई है।
समाचार पत्र ‘नवभारत‘ में इस प्रकार प्रकाशित हुआ। |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-08-2018) को "वन्दना स्वीकार कर लो शारदे माता हमारी" (चर्चा अंक-3054) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हैप्पी फ्रेंड्शिप डे - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteVery nice article. I like your writing style. I am also a blogger. I always admire you. You are my idol. I have a post of my blog can you check this : Chennai super kings team
ReplyDeleteबहुत आनंद आया ये लेख पढ़ कर, आपको सादर प्रणाम🙏🌷🌷
ReplyDeleteGreat reading youur blog
ReplyDelete🙏🙏बहुत शानदार
ReplyDelete