Monday, August 27, 2018

केदारनाथ सिंह के प्रति


‘‘शुरू करो खेला/पैसा न धेला/जाना अकेला।‘‘ कहने वाले केदारनाथ सिंह बलिया जनपद के तुक मिलाते से नाम वाले गांव चकिया में पैदा हुए। अब उनके न होने पर उन्हीं के शब्दों में- ‘‘मेरा होना/सबका होना है/पर मेरा न होना/सिर्फ होगा मेरा।‘‘ जो कहते हैं- ‘‘पर मृत्यु के सौन्दर्य पर/संसार की सर्वोत्तम कविता/अभी लिखी जानी है।‘‘ वे पाठक को संबोधित कहते हैं- ‘‘जा रहा हूं/लेकिन फिर आऊंगा/आज नहीं तो कल/कल नहीं तो परसों/परसों नहीं तो बरसों बाद/हो सकता है अगले जनम में ही‘‘ ऐसे स्मृतिशेष केदारनाथ पर, धतूरे का कांटेदार फल और फूल की अंजुरी अर्पित-

उनके न रहने पर उनकी एक कविता ‘हाथ‘- ‘‘उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।‘‘ और दूसरी ‘जाना‘- ‘‘मैं जा रही हूँ- उसने कहा/जाओ- मैंने उत्तर दिया/यह जानते हुए कि जाना/हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है‘‘ (‘तेरा जाना, दिल के अरमानों का लुट जाना‘ टाइप), सबसे अधिक उद्धृत हुईं। मुझे लगता है कि इन कविताओं में ऐसी कोई बात नहीं है, जो कवि का नाम हटा लेने के बाद भी खास या महत्वपूर्ण मानी जाय। यहां ‘धीरे धीरे हम‘ शीर्षक कविता को भी याद किया जा सकता है। घर उल्लेख वाली उनकी चर्चित कविता है- मंच और मचान। इस कविता के साथ '(उदय प्रकाश के लिए)' उल्लेख है, इसलिए बरबस ध्यान जाता है ‘विद्रोह‘ पर, जिसमें मूल की ओर लौटने, ‘वापस जाना चाहता हूं‘ का भाव है। ऐसा ही भाव ‘मातृभाषा‘ में हैं, जहां वे चींटियों, कठफोड़वा, वायुयान और भाषा के लौटने की बात करते हैं, लेकिन ये कविताएं वैसी असरदार नहीं जैसी उदय प्रकाश की ‘मैं लौट जाऊंगा‘।

अंतिम दो पड़ाव सन 2014 में प्रकाशित ’सृष्टि पर पहरा’ संग्रह और इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2017-18 के आधार पर उनका कवि-मन की छवि कुछ इस तरह दिखती है- अजित राय से बात करते हुए उन्होंने बताया था कि- तोलस्तोय अपने गांव के लोगों से बहुत प्यार करते थे... गांव वालों के लिए तरसते थे। और फिर सवाल पर कि- क्या आपके चाचा या चकिया (बलिया जिले का उनका गांव) वालों को पता है कि आप देश के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं? उन्होंने परेशान होकर टालने की गरज से कहा, ‘ए भाई, तू बहुत बदमाश हो गइल बाड़अ, पिटइबअ का हो? इसी बातचीत में उन्होंने ‘बनारस‘ कविता सुनकर रोने लगी महिला के बारे में बताया कि- ‘वह कविता के लिए नहीं बनारस के लिए रो रही है जहां वह कभी नहीं जा पाएगी। ... यह जादू बनारस का है मेरी कविता का नहीं।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का ब्लर्ब विचारणीय है जहां कहा गया है कि- केदारनाथ सिंह का यह नया संग्रह कवि के इस विश्वास का ताजा साक्ष्य है कि अपने समय में प्रवेश करने का रास्ता अपने स्थान से होकर जाता है। यहां स्थान का सबसे विश्वसनीय भूगोल थोड़ा और विस्तृत हुआ है, जो अनुभव के कई सीमांत को छूता है। ... ये कविताएं कोई दावा नहीं करतीं। वे सिर्फ आपसे बोलना-बतियाना चाहती हैं- एक ऐसी भाषा में जो जितनी इनकी है उतनी ही आपकी भी। और दूसरी तरफ यह भी कि- कार्यक्षेत्र का प्रसार महानगर से ठेठ ग्रामांचल तक। इस संग्रह की कविता ‘घर में प्रवास‘ का अंश है- ‘अबकी गया तो भूल गया वह अनुबंध/जो मैंने कर रखा था उनके साथ/जब अन्दर प्रवेश किया/जरा पंख फड़फड़ाकर/उन्होंने दे दी मुझे अनुमति/कुछ दिन उस घर में रहा मैं उनके साथ/उनके मेहमान की तरह/यह एक आधुनिक का/आदिम प्रवास था/अपने ही घर में।‘

’सृष्टि पर पहरा’ का समर्पण भी गहरे अर्थ वाला है- “अपने गांववालों को, जिन तक यह किताब कभी नहीं पहुंचेगी।“ इसकी भूमिका उनकी कविता ‘चिट्ठी‘ में पहले ही बन गई थी कि- ‘‘मुझे याद आई/एक और भी चिट्ठी/जो बरसों पहले/मैंने दिल्ली में छोड़ी थी/पर आज तक/ पहुंची नहीं चकिया‘‘ या ‘गांव आने पर‘ कविता के इन शब्दों में- ‘‘जिनका मैं दम भरता हूं कविता में/और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे‘‘ केदार जी का आशय क्या है? उनके गांव वालों तक किताब-चिट्ठी पहुंचना, ऐसा कौन सा मुश्किल था, जो नहीं हो सकता था? फिर गांव वालों तक किताब न पहुंच पाने में कारक कौन? केदारजी, गांववाले या स्वयं किताब (उसमें कही गई बात)? दिवंगत केदार जी के प्रति पूरी श्रद्धा के बावजूद- क्या उन्हें लगने लगा था कि उनकी बात साहित्य प्रेमियों, समीक्षकों, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वालों के समझ में तो आती है लेकिन इस भाषा-शैली में कही गई कविता की बातें उनके गांववालों तक पहुंच पाएगी? (उनकी कई बातें-कविताएं मुझे भी अबूझ लगीं तब सोचा कि क्या मैं भी उनके गांववालों की तरह हूं?) उनकी कविताई बातें अपने ही गांववालों के लिए बेगानी होती चली गई है? क्या इस समर्पण-कथन में उन्हें यही अफसोस साल रहा है? अपने पर इस तरह का भरोसेमंद संदेह, केदार जी जैसा कवि ही कर सकता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर उनके वक्तव्य में भी उल्लेख है कि अपने गांव के अनुभव में पके कर्मठ किसान के ‘कुछ सुनाओ‘ कहने पर वे अवाक रह गए थे और कहते हैं- ‘मैं जानता हूं कि यह आज की कविता की एक सीमा हो सकती है, पर कोई दोष नहीं कि वह बूढ़े किसान को सुनायी नहीं जा सकती।‘

मनोहर श्याम जोशी कहते थे- ‘हर व्यक्ति के वास्तविक संसार और काल्पनिक या आदर्श संसार में गहरा अंतर होता है। वह जो होता है, वही तो नहीं होता जो होना चाहता है या जो उसने चाहा था। जो उसने होना चाहा, उसकी कविताएं हो जाती हैं।‘ शायद ऐसी ही होने लगी थीं उनकी कविताएं। ‘बंटवारा‘ की पंक्तियां हैं- ‘‘कि यह जो कवि है मेरा भाई/जो बरसों ही रहता है मेरी सांस/मेरे ही नाम में/अच्छा हो, अगली बरसात से पहले/उसे दे दिया जाय/कोई अलग घर/कोई अलग नंबर।‘‘ स्वयं को निरस्त करने का दुर्लभ साहस लेकिन उनमें दिखता है, जब वे कहते हैं- ‘‘जो लिखकर फाड़ दी जाती हैं/कालजयी होती हैं/वही कविताएं।‘‘ या ‘‘कविताएं करा दी जाएं प्रवाहित/किसी नाले में‘‘ और मानों वसीयत लिख रहे हों- ‘‘और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे/कि लिख चुकने के बाद/इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना‘‘ लेकिन उन्हें उम्मीद है कि- ‘‘पर मौसम/चाहे जितना खराब हो/उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें‘‘।

बहरहाल उनकी पुण्य स्मृति को समर्पित- ‘‘मेरे गांव की मतदाता सूची में/नहीं है आपका नाम/न था, न होगा/इसलिए/आपका राशन कार्ड भी/यहां नहीं है/न आधार कार्ड/इस मामले में आप वैसे ही हैं/जैसा किसी चकिया के लिए मैं/न रहने के बाद भी/मैं हूं कही न कहीं/और कुछ न कुछ/वहां भी/ठीक वैसे ही/जैसे न होने के बाद भी/आप अपनी कविताओं में हैं, वैसे के वैसे।‘‘ उन्हें समर्पित मेरी ये पंक्तियां, मात्र संयोग है कि उनके द्वारा तैयार की गई अंतिम पांडुलिपि, जो अब प्रकाशित है, का शीर्षक ‘मतदान केन्द्र पर झपकी‘ है। इसी शीर्षक वाली कविता की अंतिम पंक्तियां है- मैंने खुद से कहा/अब घर चलो केदार/और खोजो इस व्यर्थ में/नया कोई अर्थ।

समाचार पत्र ‘नवभारत‘, रायपुर में
इस प्रकार प्रकाशित हुआ।


11 comments:

  1. Wah! Kya baat hai. Hamesha ki tarah umda. Abhinandan aapkaa aur naman smriti-shesh kavi Kedarnath Singh ji ko.

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  5. नये साल कि ढेर सारी शुभकामनाऐ

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