Tuesday, July 11, 2023

देव-द्यूत

पिछले कुछ दिनों से जुए के फेर में पड़ गया हूं। मन ही मन पासे फेंकता, दांव-लगाता, जीत-हार का मनोराज्यं। वेद-पाठ, कला-रस और देव-आराधन का आनंद भी है इस मनोद्यूतं में। तिरी-पग्गा, तिरी-पच्चा, तिरी-पांचा, जैसे जाने कितने शब्द ‘जुआ-चित्ती‘ के लिए इस्तेमाल होते हैं। इनके करीबी है ‘तिया-पांचा‘ या ‘तीन-पांच‘, जो शायद जुए-पासे के खेल में छल-कपट के लिए ही प्रयुक्त होता है, ऐसे संकेत भी वैदिक साहित्य में मिल जाते हैं और गीता में कृष्ण ‘द्यूतं छलयतामस्मि‘ बताते हैं।

ऋग्वेद का संदर्भ मिलता है जहां ‘पासा फेंकने‘ की धनदायक या नाशक के रूप में देवों से तुलना की गई है। पासा खेलने वाले व्यक्ति का पूरी संपत्ति सहित पत्नी के हार जाने का संकेत भी पहले-पहल ऋग्वेद में आया है। वैदिक साहित्य में ‘त्रिपंचाश‘ शब्द भी आया है, जिसका सीधा मतलब तिरपन समझ में आता है, मगर विद्वान एकमत नहीं हैं और एक बड़ी संख्या का अभिव्यंजक भी माना है। याद कीजिए- ‘जाओ, तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं‘ वाली बात ‘... पचीसो देखे हैं‘ भी कहा जाता है। पौ-बारह, जैसे शब्द भी बाजी मार लेने के लिए आते हैं। चार से विभाजित हो ऐसी संख्या ‘कृत‘, चार से विभाजित करने पर तीन शेष रहे तो ‘त्रेता‘, दो बचे तो ‘द्वापर और एक बच जाए तो ‘कलि‘ कहे जाने का भी उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में रैक्व प्रसंग में कृत-विजय का और तीन, दो, एक- क्रमशः त्रेता, द्वापर और कलि को संबद्ध किया है।

महाभारत के आरंभ में ही आदिपर्व के द्यूतपर्व में विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध किया जाता है। स्वयं को हारने के बाद युधिष्ठिर कहते हैं- यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है, मगर विवेकशील धर्मराज द्रौपदी को दांव पर लगाते हैं, बड़े-बूढ़े धिक्कारते हैं। आगे चलकर वनपर्व के ‘नलोपाख्यान‘ आता है, जिसमें द्यूत प्रसंग को पिछले संदर्भ से जोड़ने का संकेत भी नहीं है मगर मानों पांडवों-युधिष्ठिर के बहाने पाठकों को बताया जाता है। कथा चलती है कि अवसर पा कर नल के शरीर में कलियुग प्रवेश करता है, इधर राजा नल का रिश्ते में भाई पुष्कर, कलियुग के ही उकसावे में उसे धर्मपूर्वक जुआ खेलने को बार-बार कह कर राजी कर लेता है। पुष्कर और नल के बीच कई महीनों तक जुआ चलता रहा। लगातार हारते नल से अंत में पुष्कर ने पत्नी-दमयंती को दांव पर लगाने के लिए कहा। किंतु कलियुग के प्रभाव में होने के बावजूद भी नल ने ऐसा नहीं किया। 

मनु ने द्यूत को बुरा खेल माना है। राजा के अधीन खेलने का उल्लेख और व्यवस्था मिलती है। कात्यायन ने लिखा है कि यदि द्यूत की छूट मिले तो वह खुले स्थान में द्वार के पास खिलाया जाना चाहिए, जिससे भले व्यक्ति धोखा न खाएं और राजा को कर मिले। नारद, बृहस्पति, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य जैसे विभिन्न ग्रंथों और महाभारत में भी द्यूत की निन्दा और व्यवस्था संबंधी उल्लेख मिलते हैं।

ध्यान रहे कि शास्त्रीय ग्रंथों में द्यूत पर दी गई व्यवस्था, प्रतिद्वंन्दियों के बीच होने वाले खेल के लिए है, न कि पति-पत्नी के बीच के खेल के लिए। विवाह संस्कार पूरे हो जाने के बाद बारात वापस आने पर कंकण छुड़ाने की रस्म में नवदंपति के बीच जुआ-खेल खेला जाता है। वैष्णव परंपरा में कृष्ण लीला पुरुष हैं तो इधर शिव की लीलाएं भी कम नहीं। शिल्पशास्त्रीय या प्रतिमाविज्ञान का आधार नहीं मिलता मगर शिव-पार्वती के उमा-महेश विग्रह को शिल्प में चौसर खेलते दिखाया जाता हैै, ऐसी दुर्लभ शिल्प-कृतियां कलात्मक और रोचक कल्पनाशील हैं। 

उमा, पार्वती है, पर्वत-पुत्री, नगाधिराज-सुता, ऐश्वर्यशाली। उमा के पास दांव लगाने के लिए क्या कमी। मगर औघड़-फक्कड़ शिव के पास भांग-चिलम के अलावा उनके आयुध त्रिशूल, डमरू, नाग, खट्वांग ही हैं, वे सब उमा के लिए बेमतलब, किसी काम के नहीं, इसलिए जिनका दांव पर लगाया जाना, उमा को मंजूर न हुआ हो। नन्दी, कुछ काम के हो सकते थे, तो महेश की ओर से वही दांव के लिए प्रस्तुत और स्वीकृत हुए। शिल्प में नन्दी को हार जाना रूपायित किया जाता है। 

छत्तीसगढ़ में अब तक ज्ञात मुख्यतः ताला-6 वीं सदी इस्वी, सिरपुर-8 वीं सदी इस्वी, भोरमदेव-11 वीं सदी इस्वी, मल्हार-12 वीं सदी इस्वी और डमरू-13 वीं सदी इस्वी की शिल्प-कृतियां हैं।

तालाएवं सिरपुर

ताला और मल्हार के ऐसे शिल्प खंडों के तीन कोष्ठों से पूरे कथानक को न सिर्फ समझा जा सकता हैै, बल्कि ध्यान देने पर, पूरे प्रसंग और पात्रों का हाव-भाव और वह क्षण भी जीवंत हो उठता है। मुख्य पात्र उमा और महेश हैं, नन्दी हैं और हैं शिवगण समूह और पार्वती परिचारिकाएं। ताला में देवरानी मंदिर के प्रवेश द्वार के अंतः-पार्श्व के शिल्पखंड के मध्य में उमा-महेश चौपड़ खेल रहे हैं। बायें कोष्ठ में शिवगण प्रदर्शित हैं और दायें कोष्ठ में पार्वती की परिचारिकाएं विजित नन्दी को खींच कर ले जाने का प्रयास कर रही हैं और अनिच्छुक नन्दी अड़ा हुआ है। सिरपुर की प्रतिमा में उपर चौपड़ के एक-एक ओर सम्मुख शिव-पार्वती को दिखाया गया है और नीचे नन्दी को हांक कर ले जाया जाना अंकित है।
मल्हार, भोरमदेव एवं डमरू

मल्हार में कथानक तीन लंबवत कोष्ठों में है, जिनमें से प्रथम में चौपड़ खेलते उमा-महेश, दूसरे में शिवगण और पार्वती की परिचारिका के बीच नन्दी के लिए विवाद हो रहा है। तीसरे कोष्ठ के अंकन से स्पष्ट अनुमान होता है कि इस विवाद में दोनों उलझ जाते हैं और नन्दी बाबा मौका पा कर सरक जाते हैं। भोरमदेव मंदिर के पूर्वी मुख्य प्रवेश पर दक्षिणी शाखा पर शैव द्वारपाल और नदी देवी के ऊपर दो कोष्ठों में शिल्पांकन है। पहले में उमा-महेश को चौकोर चौपड़ और परिचारिका-गण के साथ दिखाया गया है। इसके पार्श्व खंड में पीछे की ओर सिर घुमाए प्रतिरोध करते नंदी, दंड लिए शिव गण और पार्वती-परिचारिका को दोनों हाथ उठा कर दंड-प्रहार को रोकने का प्रयास करते दिखाया गया है। डमरु की प्रतिमा में चौपड़ खेलते शिव-पार्वती और दाहिनी ओर गणेश को पहचाना जा सकता है।

श्री जी. एल. रायकवार ने सागर-जबलपुर अंचल की ऐसी तीन प्रतिमाओं की पहचान पहले-पहल की थी और 1984 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ दीपावली विशेषांक में इस पर रोचक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी स्तुतियां हैं, जिनमें पार्वती और शिव के बीच द्यूत क्रीड़ा और पार्वती का गंगा के प्रति डाह उजागर होने का संवाद है। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों की स्तुतियों में भी द्यूत-क्रीड़ारत शिव-पार्वती की वंदना की गई है।

क्षेपक की तरह एक कथा सुनने को मिली है कि जुए में नन्दी को हारने के बाद हुआ यह कि भटकते रहने वाले भोला-भंडारी वाहन-विहीन हो गए और घर पर ही पार्वती के पास रहने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीते। पार्वती को अपनी पुरानी शिकायत याद आई कि शिव ने गंगा को सिर पर बिठा रखा है, जबकि वह किसी काम-धाम की नहीं है, और कैलाश पर पानी की समस्या होती है तो उन्होंने इस शर्त पर नंदी को वापस लौटाया कि शिव, गंगा को रोज घर का पानी भरने के काम पर लगा दें।

इस नोट को तैयार करने में सर्वश्री रायकवार, डॉ. के पी. वर्मा, श्री हयग्रीव परिहार, श्री प्रभात सिंह, श्री अमित सिंह ठाकुर ने सहयोग किया है।

Sunday, July 9, 2023

कंठी देवल बनाम मुकरबा

अगस्त-सितंबर 1990 में बिलासपुर के समाचार पत्रों में खास खबर होती थी, इन समाचार कतरनों के संदर्भ में स्पष्ट करना आवश्यक है कि तब राज्य शासन के बिलासपुर पुरातत्व कार्यालय में श्री जी. एल. रायकवार और राहुल कुमार सिंह यानि मैं पदस्थ थे। स्वाभाविक ही मीडिया के लिए इस ‘ऐतिहासिक सनसनी‘ के साथ पत्रकार बंधुओं का हमारे कार्यालय में लगातार आना-जाना हुआ। खबरों की भाषा-सामग्री और शिलालेख का पठन-व्याख्या से हमारे कार्यालय की भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है। शिलालेख का पाठ नीचे के समाचार के साथ आया है। वस्तुतः (संशोधन संभव) पाठ होगा- ऊ नमः सिवाय। महंत? द/सोवाय श्री भगवानां भी-/सन्यासी संतोसगीरि के करनी करता- देव स्(थ)/लः सुभःमस्तु समप...। इसी तारतम्य में मुकरबा-मकबरा, छतरी और समाधि पर कुछ बातें, तीन समाचार कतरन के बाद यहां लेख की गई हैं।

छत्तीसगढ़ के अनमोल धरोहर की दुर्दशा खुले आसमान के नीचे बिखरी पड़ी है रतनपुर की संस्कृति 
कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ अवस्था में मानव हड्डियाँ मिली ...

बिलासपुर ऐतिहासिक नगरी रतनपुर के कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मानव हड्डियां मिलने से इस बाात की संभावना बलवती हो गर्ह है कि वास्तव में यह शिवमंदिर न होकर वहां के शासक या किसी महन्त की समाधि है। यह मंदिर महामाया कुण्ड के सामने अवस्थित था, जो कि वर्तमान में विद्यमान नहीं है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निमाण के नाम से इसे पूरी तरह तोड़ दिया है। पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास निर्मित कण्ठीदेवल मंदिर इसलिए भी महत्व है, चूंकि मराठाकाल की स्थापत्य शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाला, मुगलिया शैली का सम्भवतःप्रथम दुमंजिला मंदिर है। जिस ढंग से, इसका निर्माण कार्य चल रहा है, लगता है कि भारतीय पुरातत्व विभाग, एतिहासिक दस्तावेज के रूप में विद्यमान छत्तीसगढ़ के इस अनमोल धरोहर के साक्ष्य मिटा कर रख देगा।

कण्ठीदेवल मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग के नीचे, खुदाई करने पर मात्र दो मीटर चालीस सेन्टीमीटर नीचे मानब हड्डियाँ उर्ध्वाधर समाधिस्थ अवस्था में प्राप्त हुई है। वैसे भी महामाया मंदिर को प्राचीन तांत्रिक सिद्ध शक्ति पीठ माना जाता है। शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत कौल कापालिक भी तंत्र मार्ग का अनुसरण करते है। अतः एक सम्भावना यह भी सम्भावित है, कि भैरव उपासकों के द्वारा इस स्थल का उपयोग तंत्रमंत्र साधना के लिए किया जाता हो। मानव हड्डियाँ जिस स्थान में समाधिस्थ अवस्था में मिली है, वहां शव के पास, सिंदूर, बंदन, अक्षत या सिक्के वगैरह नहीं मिले है, इससे स्पष्ट होता है कि वास्तव में वह किसी महान व्यक्ति की समाधि है। कण्ठी देवल का प्रचीन संस्कृत साहित्य के शाब्दिक अर्थ के अनुसार देवकुल होता है। देवकुल के बारे में यह बात पुरातत्व सर्वेक्षण में आती है, कि पूर्व में मृत राजाओं की पाषाण प्रतिमाओं को पूर्वजों को देखने के लिए प्रदर्शित किया जाता था। वास्तव में कण्ठी देवल मंदिर कोई मंदिर नहीं अपितु शासनाधिपति की याद के लिए इस तरह के स्मारक का निर्माण कराया गया था। इस बात का प्रमाण टीकमगढ़ जिले के ओरछा में बेतवा नदी के किनारे (देवकुल) परिपाटी के मंदिर में राजारानी की प्रतिमाएं स्थापित है।

रतनपुर का कण्ठीदेवल मंदिर चार पांच सौ साल पुराना बताया जाता है। मराठा काल के मंदिर के बारे में पुरातत्वविद् यह मानते हैं, कि यह मंदिर प्राचीन भग्न मंदिरों से प्राप्त स्थापत्य खण्डों से निर्मित है। चूंकि पूर्व में मंदिरों की दीवारों में प्रस्तर की प्राचीन प्रतिमाएं जड़ी हुई थीं। इन प्रतिमाओं में शिशु सहित मातृत्व भाव महिला की बच्चे को स्तनपान कराते दिखाया गया है। इस मूर्ति के दोनो तरफ सिंह का किर्तीमुख बना है। दूसरी प्रस्तर की शालभंजिका की प्रतिमा है, जबकि तीसरी प्रतिमा लिगोद्भव शिव की तथा एक अन्य प्रस्तर की आसनस्थ कलचुरी शासक की प्रतिमा उत्किर्णीत है। जिसके कारण यह मान जाता है, कि यह मंदिर बाद में काल में निर्मात कराया गया है। कण्ठीदेवल मंदिर के समीप अनेक चौरानुमा, समाधियां है जो छोटे महन्त शिष्यों राज्य परिवार के शासको तथा सती नारी की भी हो सकती है। सम्भावना है चूंकि रतनपुर के समीप कोई नदी न होने के कारण, इसी स्थान में राजकुल का श्मशान था।

मराठा काल के स्थापत्य कला एवं मुगलिया शैली का प्राचीन कण्ठीदेवल मंदिर वर्गाकार बूतरे पर निर्मित था। इस मंदिर के सम्मुख में प्रारंभ में मण्डप रहा होगा। तथापि अब निर्माण के कारण ४.७६ मीटर लम्बा ४.७६ मीटर चौडा चालीस फिट की ऊंचाई वाला मंदिर को तोड़ दिया गया है। नये निर्माण के कारण नीव की खुदाई कर, सीमेटकार्य पूर्ण कर लिया गया है। दूर से देखने पर इस समय सपाट मैदान दिखाई पड़ला है। मंदिर के पत्थरों को बाजू की जमीन में नम्बर डालकर रख दिया गया है, जिसे देखने पर एकबारगी ऐसा लगता है कि मानो पत्थरों के कब्रस्तान में पहुंच गये हो। एकदम खुले आसमान के नीचे रखे इन पत्थरों पर बारिश ठण्ड और कड़ी धूप की सीधी मार पड़ रही है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने सन् ८७ मे कण्ठीदेवल मंदिर को इसलिए तोड़ दिया चूंकि गिर रहा था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर को गिरने से बचाना जरूरी भी था अतएव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के छत्तीसगढ़ जोन के भुवनेश्वर मुख्यालय ने तोड़ने का आदेश दे दिया। बिलासपुर में भारतीय पुरातत्व विभाग का उप मण्डल छोटा सा कार्यालय है, जिसके अन्तर्गत सम्भाग के बीस पच्चीस पुराने और महत्वपूर्ण स्मारक संरक्षित है। इसका एक दुःखद पहलू यह है, कि चूंकि यहां न तो कोई योग्य अधिकारी नियुक्त है और न ही इस कार्यालय के पास पर्याप्त अधिकार ही है। इसलिए छोटे मोटे काम के लिए उड़ीसा के भुवनेश्वर कार्यालय का मुंह ताकना पड़ता है।

आधा तीतर आधा बटेर:- आश्चर्यजनक बात है, कि भुवनेश्वर (उड़ीसा) से संचालित, छतीसगढ़ के पुरातात्विक वैभव के बारे में कितना विरोधाभास है कि कुछ बड़े अधिकारियों को जिन्हें न तो छत्तीसगढ़ से मतलब है न तो यहां के पुराने स्मारको से भावनात्मक ढंग से जुड़े हैं न तो ठीक ढंग से हिन्दी जानते, और यहां के छोटे कर्मचारी जिन्हें उनकी भाषा समझ में नहीं आती, कुल मिलाकर आधा अधूरा, आधा तीतर आधा बटेर समझने वाले कुछ अधिकारी पुरातत्व सम्पदा को तुड़वाकर भुनेश्वर में बैठे हैं। पुरातत्व अधिकारी यदाकदा कुछ आते हैं, देख कर औपचारिकता निभाकर वापस चले जाते हैं।

क्या ऐतिहासिक मंदिर पहले जैसे बनेगा:- पुरातत्वविदों का कथन है, कि कण्ठीदेवल मंदिर का हश्र, मल्हार के उस मंदिर की भांति होगा जो आठवीं शताब्दी का था। उस मंदिर को इसी तरह खो दिया है। आज के हालत यह है कि सन् ८० मे पुननिर्मित इस मंदिर के जो कागजात है, उनका संदिग्ध ढंग से गुम होना शुरू हो गया है। इसके बारे में यह भी कहा जा रहा है, कि वर्तमान में श्री एम. आर. चतुर्वेदी (संरक्षक सहायक) और बी.बी. सुखदेव फोरमेन काफी उत्साही है परन्तु यहां अभी किसी काफी बुजुर्ग और जानकार वरिष्ठ अधिकारी की आवश्यकता है ताकि पुराने स्मारक की रक्षा हो सके। नहीं तो बाद में बड़े अधिकारी अपनी गर्दन बचाने के लिए यहां से कागजात गुम करना शुरू कर देंगे।

प्रस्तरखण्डों की चोरी- कण्ठीदेवल मंदिर की हिफजात के लिए हालांकि वहां तीन व्यक्ति रहते है, परन्तु इसके बावजूद मंदिर से प्रस्तर खण्डो को निकाल कर खुले मैदान में नम्बर डालकर रखे गये प्रस्तर खण्डों की चोरी जाने की जानकारियां मिल रही है।
राजूतिवारी
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रतनपुर का ऐतिहासिक दस्तावेज कण्ठीदेवल 
अवशेष सहित नरकंकाल की सुरक्षा आवश्यक 

(कार्यालय प्रतिनिधि द्वारा) 

बिलासपुर. ऐतिहासिक नगरी रतनपुर स्थित कण्ठी देवल मंदिर के गर्भगृह की खुदाई के दौरान मिली मानव हड्डियों की सुरक्षा आवश्यक हो गई है। मराठा काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम तुड़वा दिया है। मंदिर के पत्थर खुले आसमान नीचे तथा मंदिर के भीतर और बाहर पत्थरों में उत्कीर्णित कलापूर्ण प्राचीन मूर्तियां एक साधारण झोपड़ी में पड़ी हुई है।

मराठा स्थापत्य काल की मुगलिया शैली का पंचकोणीय गुम्बद वाले मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने पुनर्निर्माण के नाम से तुड़वा दिया है। मानव हड्डियों के मिलने से पुरातत्व विभाग के अधिकारियों का मानना है, कि उपरोक्त मानव कंकाल और कण्ठी देवल मंदिर का निर्माण वर्ष एक समय का है। अब पुरातत्व विभाग का सिरदर्द है, कि वह हड्डियों का परीक्षण करा कर मंदिर के निर्माण कर्ता का पता लगाये। वैसे इस मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि रतनपुर कलचुरियों के काल से ही राजधानी रही है। साथ ही वहां की भौगोलिक परिस्थितियां, मंदिर निर्माण तथा ऐतिहासिक संम्भावनाओं के आधार पर यह भी कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी के अलावा भी यह स्थान तीर्थस्थल के रूप में मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण के समकक्ष सम्भवतः विख्यात रहा होगा। ऐसा समझा जा रहा है कि पातालेश्वर, लक्ष्मणेश्वर के समान यह मंदिर नील कण्ठेश्वर के नाम से कलचुरि काल में प्रसिद्ध रहा होगा। चूंकि ख्याति प्राप्त होने के कारण भग्नोपरांत मराठा शासकों ने धरोहर को सुरक्षित रखने के लिये मुगल शैली में इसका निर्माण करा दिया होगा। 

बाद में कलचुरियों एवं मराठा शासकों के पतन के पश्चात् रत्नपुर श्रीहीन हो गया और जनमानस में यह मंदिर केवल, कण्ठी देवल मंदिर भर रह गया। नर कंकाल के मिलने से लोगों में काफी उत्सुकता बढ़ गई है और इस बात की चर्चा सरगर्म हो गई है कि वास्तव में नरकंककाल की आयु क्या होगी? वैसे पुरातत्व विभाग के द्वारा खुदाई के दौरान मिलने वाले नर कंकाल पांच हजार तक सुरक्षित प्राप्त भी हुए हैं। भोपाल से लगभग तीस किलोमीटर दूर भीमबैठका शैलाश्रय में डा. वाकणकर एवं सागर विश्वविद्यालय के सहयोग से की गई खुदाई के दौरान मानव नर कंकाल प्राप्त हुआ जो कि सम्भवतः तीन से पांच हजार वर्ष प्राचीन है।

कण्ठीदेवल मंदिर में प्राप्त पत्थर की शिशु सहित मातृका की ग्यारही एवं बारहवीं शताब्दी इस्वी की प्रतिमा है, जिसमें शिल्प खण्ड पर प्रकोष्ठ के मध्य गोद में, शिशु को दुलारते हुए माता का भावपूर्ण अंकन किया गया है। इसी प्रकार मंदिर में आठवीं नवीं सदी इस्वी की शालभंजिका मिली है। पाषाण में उत्कीर्णित यह प्रतिमा नारी सौंदर्य तथा अलंकरण में अद्वितीय है। उसके विविध आभूषण केश विन्यास तथा परिधान में सूक्ष्म अलंकरण तथा मौलिकता स्पंदित है। शालभंजिका के अतिरिक्त वृक्ष में फल खाते तथा उछलते कूदते वानर सहित फूल जुगते हुए पारम्परिक पक्षियों का भी अंकन है।

इसी प्रकार कण्ठी देवल मंदिर के भिती में जड़ी शिल्प खण्ड में शिव की सर्वाेच्च सत्ता का मूर्तिमान किया गया है। लिंगोद्भव की यह कथा, शिवपुराण, वायु पुराण तथा शिल्प संहिताओं मे उपलब्ध है। कथा के अनुसार ब्रह्मा तथा विष्णु के बीच सर्वाेच्चता सिद्ध करने के लिये विवाद होने लगा। 

इसी बीच उनके मध्य एक ज्योतिर्यम स्तम्भ प्रकट हुआ जिसका आदि और अन्त का पता लगाने में दोनों देव असफल हुये। अन्त में दोनों हारकर विनम्र स्तुति करने लगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि सभी देवताओं में शिव ही सर्वश्रेष्ठ है। चित्र में ज्योति स्तम्ब विवादरत ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्त में आराधना करते विष्णु दृष्टव्य है। 
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रतनपुर के ऐतिहासिक स्मारक की टूटी कड़ी का महत्वपूर्ण सूत्र मिला
कण्ठीदेवल मंदिर का मानव कंकाल संतोष गिरि सन्यासी का ...

बिलासपुर. रतनपुर स्थित कण्ठीदेवल मंदिर में समाधिस्थ कंकाल श्री संतोष गिरी नामक किसी सन्यासी की है। यह बात, कंठी देवल मंदिर की पुर्नसंरचना के लिए, शिलाखण्डों को उपर से उतारते समय, पश्चिम दिशा में जंघा भाग पर प्राप्त एक शिलालेख से मालूम होती है। इस शिलालेख में, देवनागरी लिपि में कुल पांच पंक्तियां है। शिलालेख का आकार ५२ बाई २७ बाई १३ सेन्टीमीटर है।

शिलालेख में मिले पांच पंक्तियों के देवनागरी में अनुवाद किया गया है, उसका शब्दशः इस प्रकार है। प्रथम पंक्ति - नमोः शिवाय द्वितीय पंक्ति - श्री भगवानाः। तीसरी पंक्ति - सन्यासी संतोष गिरि चौथी पंक्ति - करनी अंतिम पांचवीं पंक्ति - लः सुभःमस्तु सम।

शिलालेख के बारे में ऐसा समझा जाता है, कि इसमें अधिक पंक्तियां रही होंगी जो प्रस्तर के घिसने से मिट गई होंगी या खोदी नहीं जा सकी होंगी। वैसे, शिलालेख का शुभारंभ स्तुतिमान से होता है। इस शिलालेख में, सन्यासी संतोष गिरी का नाम उल्लेखित है। लेख के आधार पर यह अधिकतम दो सौ वर्ष प्राचीन है। शिलालेख मिलने के पश्चात् इस बात की सम्भावना बलवती हो गई है मंदिर से प्राप्त अस्थि कंकाल, संन्यासी संतोष गिरी की है। सूत्रों का इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के बारे में मानना है कि चूंकि अस्थी कंकाल मूलतः सवाधान के रखा गया था तथा मृतक का सिर उत्तर में और पैर दक्षिण की ओर था। चूंकि खुदाई के दौरान अस्थियों के टुकड़ों में जबड़ा, बांह, पैर, घुटने तथा खोपड़ी आदि मिले है।

मृत सन्यासी का आयु पैतालीस वर्ष से साठ वर्ष के बीचः:- प्राप्त अस्थि कंकाल के अवलोकन करने से एक बात यह भी सामने आयी है, कि चूंकि कंकाल के मिले जबड़े में पूरे दांत उपस्थित है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि मृतक सन्यासी की उम्र पैतालीस से लेकर साठ वर्ष के बीच की रही होगी। 

अस्थियां क्षरित होने के बावजूद सुरक्षित:- सन्यासी संतोष गिरी की अस्थियों के बारे में विशेषज्ञों का कथन है कि हालांकि समय की मार से, समाधिस्थ हड्डियां क्षरित हो चुकी है परन्तु इसके बावजूद हड्डियाँ सुरक्षित है। वैसे छानबीन में एक बात यह भी आयी है, कि प्राप्त अस्थि कंकाल कण्ठीदेवल, मंदिर के गर्भगृह के नीचे केन्द्र से दो तीन फिट हट कर है।

मंदिर निर्माण अनुमान:- रतनपुर के ऐतिहासिक कंठीदेवल मंदिर के बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि इस मंदिर में विभिन्न काल की कला शैली एवं धर्म सम्प्रदाय की प्रतिमाएं तथा स्थापत्य खण्ड सहज उपलब्धता की दृष्टि से इकत्रित कर उन्हें मंदिर में जड़ दिया गया जिससे यह पता लगाना उस समय तक कठिन काम है जब तक की किसी शिलालेख में इसका उद्धरण न हो। वैसे कण्ठी देवल मंदिर के पूर्व की ओर निर्मित इस मंदिर के बाजू में ईंट निर्मित स्मारक भी किसी महन्त या राजपरिवार की समाधि होने की आशंका व्याप्त की गयी है।

भारतीय पुरातत्व विभाग की लापरवाही:- पुरातत्व विभाग का मुख्य मण्डल कार्यालय भुवनेश्वर में स्थित है। बिलासपुर में संरक्षण सहायक और पुरातत्व विभाग ने एक फोरमेन की नियुक्ति की है। जानकारी के अनुसार भारतीय पुरातत्व के बिलासपुर शाखा में अब कंठीदेवल मंदिर में पुनर्निमाण के लिए शिलाखण्डों को उतारा गया उस समय सर्किल कार्यालय भुवनेश्वर से सभी लोग उपस्थित थे। सभी कोनो से शिला उतारे गये, किन्तु जब इसका निर्माण प्रारंभ हुआ तब, इसका सारा सिर दर्द बिलासपुर कार्यालय पर थोप दिया गया और बलि का बकरा बनाने के लिए दोनों स्थानीय अधिकारियों पर ऐसी जिम्मेदारी सौप दी गई, जो साधनहीन है। जबकि जानकार अधिकारियों मानना है कि मंदिर का पुननिर्माण दुरुह कार्य है जबकि इसके लिए भारतीय पुरातत्व विभाग का भुवनेश्वर कार्यालय इसे एक अभियान के रूप में यहां स्थापत्य इंजीनियर, पुरातत्व मानचित्रकार, वरिष्ठ तकनिकी दल एवं रसायनिक परीक्षण विभाग का होना आवश्यक है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि बिलासपुर स्थित भारतीय पुरातत्व कार्यालय के अन्तर्गत २०-२५ महत्वपूर्ण पुरातत्व इमारत है परन्तु इन दो कनिष्ठ अधिकारियों के पास काम का इतना अधिक बोझ है कि सालों में बड़ी मुश्किल से दूर के स्मारको को देख पाते हैं। 
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इस परिप्रेक्ष में ऐसी संरचना और छत्तीसगढ़ की परंपरा पर कुछ बातें। रतनपुर थाना के पास कुंवरपार तालाब पर गोसाईपारा है, किंतु यहां अब गोसाई-गोस्वामी परिवार नहीं हैं, बल्कि करइहापारा में गोसाईं परिवार हैं, जिनका सौ वर्षों से अधिक का ज्ञात इतिहास है और परंपरानुसार इन परिवारों की जड़े और गहरी हैं। करइहापारा निवासी 55 वर्षीय सोमेश्वर गिरि गोस्वामी जी बताते हैं कि यहां नागा साधुओं का डेरा रहता था और भोग-भंडारा के लिए कड़ाहा करइहा चढ़ता था, इसी से इस पारा का नाम पड़ा। संभव है कि कंठी देउल मंदिर से प्राप्त शिलालेख से इसके सूत्र जुड़ते हों। लीलागर नदी के दाहिने तट पर बलौदा-महुदा के देवरहा में भी इसी तरह का एक स्मारक मोतिया-कुकुरदेव मंदिर है, लीलागर नदी के बायें तट पर स्थित इस स्मारक के दूसरी ओर ग्राम कुगदा है, जहां पृथ्वीदेव द्वितीय का खंडित शिलालेख, कलचुरि संवत 893 (सन 1141-42) प्राप्त हुआ है, इसके पास ही बछौदगढ़ स्थित है। मोतिया मंदिर में कलचुरिकालीन शिलालेख के टुकड़े भी हैं, जो संभव है कि नदी के दूसरे तट के कुगदा शिलालेख से संबंधित हों। इस स्मारक के साथ नायक-बंजारा की कथा जुड़ी है। यों छत्तीसगढ़ में शवाधान के महापाषाणीय स्मारकों से ले कर बस्तर के उरुसकल-उरुसगट्टा तक की परंपरा है। दुर्ग जिले के छातागढ़, बिलासपुर जिले के मल्हार और कांकेर जिले के आतुरगांव से ईस्वी की आरंभिक सदी काल के स्मारक शिलालेख भी उल्लेखनीय हैं।

बैरागी और कबीरपंथी जैसे समुदायों में मृतक संस्कार के साथ कब्र बनाने का प्रचलन है। कंठी देवल से प्राप्त शिलालेख के बाद कोई संदेह नहीं रहा कि यह समाधि स्थल-स्मारक है। संतोष नाम के साथ गिरि से यह अनुमान होता है कि वे दशनामी शैव संन्यासी संप्रदाय से संबंधित है। इस आधार पर कंठी देवल नाम को भी समझना आसान हो जाता है, देवल या देउल देवालय है और कंठी, बैरागियों द्वारा गले में धारण किये जाने वाली माला का परिचायक है।कई ऐसे हैं, जिनका निर्माण प्राचीन मंदिरों की प्रतिमाओं, स्थापत्य खंडों का इस्तेमाल कर बनाए गए हैं, जिनमें से एक यह कंठी देउल है। मेरी देखी ऐसी संरचनाओं में सबसे उल्लेखनीय, प्राचीन सामग्री का इस्तेमाल कर बनाई गई अत्यंत भव्य स्मारक, शहडोल के निकट स्थित पंचमठा है।
कंठीदेवल वर्तमान स्वरूप और सूचना फलक

गुम्बद, मुस्लिम स्थापत्य से जुड़ा है। भारत में चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक गुम्बददार इमारतें बनती रहीं, जिनमें मकबरे भी थे। सत्रहवीं सदी में बना आगरा का ताजमहल, दिल्ली का जामा मस्जिद और बीजापुर का गोल गुम्बद, स्थापत्य के खास नमूने हैं। इसके साथ ही गुम्बद, गैर-मुस्लिम भारतीय संरचनाओं में भी अपना लिया गया। गुम्बद वाले मंदिर भी बनने लगे। इनमें विशिष्ट है मुकरबे, यानि मकबरे, जो मुसलमानों के अलावा भारतीय-हिंदू मान्यताओं वाली संरचनाओं के लिए भी अपना लिए गए।

समाधियों, मृतक स्मारक-संरचनाओं के लिए छतरी और मुकरबा, शब्द अपना लिया गया। संभवतः मात्र संयोग मगर, गुम्बद का आकार, बौद्ध अवशेष को जतन से रखने के लिए बनाई जाने वाली संरचना, स्तूप से मिलता-जुलता है। दिल्ली, मध्य भारत, बुंदेलखंड, बघेलखंड में मुकरबे देखे-सुने जाते हैं। ग्वालियर, इंदौर की छतरियां प्रसिद्ध हैं। शिवपुरी में सिंधिया परिवार की और ओरछा में बुंदेलों की छतरियां-समाधि स्थल दर्शनीय है। ऐसी संरचनाओं के साथ मंदिर वाली आस्था और उसकी पवित्रता का भाव भी जुड़ जाता है, जैसा कंठी देउल के साथ रहा है। इसके पूजित होने की जानकारी नहीं मिलती, किंतु गर्भगृह में शिवलिंग की स्थापना रही है।

Thursday, July 6, 2023

मल्हार का खजाना

नवभारत, बिलासपुर के फीचर पेज ‘इंद्रधनुष‘ पर ‘पुरातत्व‘ के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित

प्राचीन सिक्कों में छिपी है वैभव गाथा
- पी. एन. सुब्रमणियन

मल्हार पुराने इतिहास और संबंधित सामग्री में दिलचस्पी लेने वालों के ‘मल्हार‘ का भौगोलिक परिचय अधिक जरूरी नहीं है क्योंकि यह स्थान न केवल छत्तीसगढ़ वरन् पूरे देश में इतिहासचेता लोगों में लगभग ५० वर्षों से बराबर चर्चा में रहा है। ईस्वी पूर्व की आठवीं सदी से प्रारंभ हो रही ढ़ाई हजार वर्षों से भी अधिक काल के इतिहास प्रमाण का निरंतर सिलसिला स्मारक, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन, मनके, दैनिक जीवन में उपयोग की विभिन्न सामग्री और इतिहास के पक्के- अभिलेख व सिक्कों के रूप में पूरी समृद्धि और विविधता सहित, मानो यहाँ इकट्ठी हैं। इसलिए दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी हेतु मल्हार का ही अनुमान होता है और यह स्थान व्यापारिक एवं धार्मिक गतिविधियों का विख्यात केन्द्र तो अवश्य रहा है। 

वैसे तो मल्हार की पुरातात्विक सामाग्रियां चर्चा में रही है, किन्तु ऐसी चर्चाओं का प्रतिशत, प्राप्तियों की तुलना में नगण्य है, यही कारण है कि स्थल में समय समय पर आनेवाले पुरातत्व के मेहमानों का ऐसा स्वागत किया है कि वे स्तम्भित रह गये हैं। सर्वश्री वि. श्री. वाकणकर, के. डी. बाजपेयी ये सभी यहाँ के अप्रत्याशित उपहार से अभिभूत हुए हैं। ऐसे भी विद्वानों और तथाकथित इतिहास प्रेमियों की कमी नहीं है जिन्होंने मल्हार की सामाग्रियों का दोहन व्यक्तिगत संग्रह कर मिथ्याभिमान करने से अधिक उपयोगी नहीं समझा और शायद ऐसे इतिहास प्रेमी उन ग्रामीण किसानों से कहीं अधिक दोषी हैं, जिन्हें ये सामाग्री खेती-बाड़ी के काम के दौरान या मकान के लिए मिट्टी खोदते हुए या बरसात के कटाव में प्राप्त होती है तथा जिनकी जागरूकता सीमित है। वे बस यह जानते है कि व्यक्तिगत परिचय वाले इतिहास प्रेमी इसे पाकर खुश होंगे और यदि पुलिस या शासन को इसकी सूचना मिली तो हम जेल में डाल दिये जायेंगे। चूंकि अधिकांश प्राप्त सामाग्री किसी व्यवस्थित तकनीकी उत्खनन का नहीं बल्कि इन्हीं ग्रामीणों की ‘चान्स डिस्कवरी‘ का फल होता है, अतः यह या तो प्रकाश में ही नहीं आ पाता या सार्थक हाथों में नहीं पड़ता। इसी तरह की सामग्री विशेषकर सिक्के मुझे मल्हार के ठाकुर गुलाब सिंह एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय के सौजन्य से देखने को मिले या प्राप्त हुए और इन सिक्कों में से कुछ ऐसे निकल आये जो स्वयं में विशिष्ट श्रेणी के हैं ही, इनके माध्यम से तत्कालीन क्षेत्रीय इतिहास पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है, इसी दृष्टि से उन कुछ विशिष्ट सिक्कों की चर्चा विषय का विशेषज्ञ न होने पर भी करना आवश्यक जान पड़ने लगा। 

इन सिक्कों में सबसे पहले कुछ आहत (Punch Marked coins) सिक्के हैं। इस प्रकार के सिक्के भारत में विनियम हेतु प्रयुक्त माध्यम ‘मुद्रा‘ का आदि स्वरूप है। इतिहास में वस्तु विनिमय की स्थिति के बाद ‘गौ‘ माध्यम से लेनदेन होता था। आवश्यकता और उपयोगिता के औचित्य से धातु पिण्डों को मानक और सुविधाजनक माना गया है और इनका प्रचलन बढ़ता ही गया। इस प्रकार अर्थशास्त्रीय दृष्टि से आहत सिक्के ही प्रथमतः प्रचलित हुए, जिन्हें ‘मुद्रा‘ की परिभाषिक संज्ञा के अनुक्रम में आरंभिक स्थान दिया जा सकता है। आहत सिक्के लगभग २७०० वर्ष पूर्व प्रचलन में आये और परवर्ती अन्य प्रकारों के साथ करीब १००० वर्ष तक प्रचलित रहे। सामान्यतः आहत सिक्कों के निर्माण में एक निश्चित वजन के चाँदी के टुकड़े पट्टी में से काटकर या ढालकर तैयार किये जाते थे जिन्हें आघात कर चिन्हांकित कर लिया जाता था। 

मल्हार से प्राप्त चांदी के दो आहत सिक्के अपने में विशिष्ट प्रकार के हैं। ये सिक्के ४ पण अर्थात ८ रत्ती (आज के संदर्भ में २५ पैसे) मूल्य के हैं। तत्कालीन मुद्रा प्रणाली में मानक कर्षापण था। आज के रूपये जैसा, जिसका वजन ३२ रत्ती होता था। एक कर्षापण सोलह पणों में विभाजित था। यह व्यवस्था ठीक रूपया आना की भांति से थी, अर्थात जहाँ १६ आने का १ रूपया होता था उसी तरह १६ पणों का कर्षापण। मुद्रा शास्त्रीय अध्ययन इतिहास में विशेषज्ञों ने हजारों आहत मुद्राओं के वजन, उन पर दृष्टिगोचर चिन्ह कृतियों का सूक्ष्म परीक्षण कर, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर निर्माण तकनीक, मुद्रा मानक, प्रचलन क्षेत्र आदि का निष्कर्ष निकाला। 

आहत सिक्कों के चलन के क्षेत्र की पहचान का मुख्य आधार उन पर अंकित चिन्ह ही है। इस दृष्टि से मल्हार के क्षेत्र में ‘४‘ चिन्हांकित सिक्कों का प्रचलन रहा होगा, क्योंकि विवेच्य दोनों आहत सिक्कों पर यह चिन्ह अंकित है, किन्तु इन चिन्हों के कारण ये सिक्के भारतीय आहत सिक्कों के वर्गीकरण में एक अलग श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्योंकि अब तक ज्ञात आहत, सिक्कों पर इस प्रकार के चिन्हों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, साथ ही कर्षापण मूल्यमान के सिक्के भी भारतीय मुद्राशास्त्र में अल्पज्ञात है। इसीलिए इन्हें विशिष्ट प्रकार के सिक्के माना गया है, निश्चय ही यह चिन्ह इस क्षेत्र के आहत सिक्कों की अलग श्रेणी निर्धारित करता है। इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यही चिन्ह मल्हार के विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग काल के भिन्न-भिन्न सिक्कों पर उपयोग होता रहा है। 

इन सिक्कों का मल्हार में पाया जाना, इनके विशिष्ट प्रचलन क्षेत्र का आभास तो कराता ही है साथ ही मल्हार के प्राचीन सुविकसित अंतर्देशीय व्यावसायिक केन्द्र होने की पुष्टि भी करता है। एक अन्य रोचक एवं प्रासंगिक साम्य यह भी है कि बौद्ध साहित्य में लगभग २५०० वर्ष पूर्व श्रावस्ती के श्रेष्ठि अनाथपिंडक द्वारा कुमार जेत के जेतवन नामक आम्रवन को बुद्ध के एक दिवसीय प्रवास हेतु क्रय करने का उल्लेख है। कुमार जेत आम्रवन बेचने को तैयार नहीं थे किन्तु अनाथपिंडकं द्वारा मुहमांगे मूल्य का प्रस्ताव रखा गया। पूरे वनक्षेत्र को सिक्कों (निश्चय ही तत्कालीन प्रचलित आहत सिक्के) से ढंक कर मूल्य दिये जाने की लगभग असंभव शर्त रखी, जिसे अनाथपिंडक ने सहर्ष स्वीकार कर गाडियों से सिक्के मंगवाकर वनक्षेत्र में फैलाना आरंभ कर दिया। मल्हार के सिक्कों के संदर्भ में यह कथा मात्र संयोग की सीमा से अधिक रोचक हो जाता है क्योकि मल्हार का निकटवर्ती ग्राम जैतपुर है। स्थल पर बौद्ध धर्म के अवशेष तो विद्यमान हैं ही, साथ ही सिक्के भी विपुल संख्या में प्राप्त होते हैं।

मल्हार से प्राप्त एक मिश्रधातु का सिक्का भारत पर विदेशी आक्रमणों के आरंभिक काल अर्थात २३०० साल पहले की याद दिलाता है। जब भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, इस काल भारतीय इतिहास का कुछ भाग ‘इण्डो-ग्रीक काल‘ के रूप में जाना जाता है।

संदर्भित सिक्के पर महान यूनानी योद्धा (सिकंदर) की मुख्यकृति अंकित है। लेखांकित सिक्के का लेख अस्पष्ट होने के बावजूद यह सिक्का यूनानियों का मल्हार तक संबंध इंगित करता है। सिक्के पर दो छिद्र बने है जो संभवतः बाद में किसी व्यक्ति द्वारा धारण करने के प्रयोजन से किये जान पड़ते है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिक्के मल्हार से मिले हैं जो अधिकतर सीसे के हैं। इन सिक्कों पर गज चिन्ह के साथ साथ ब्राह्मी लिपि का लेख ‘राञो मघसिरिस’ ‘मघ‘ अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों की बहुलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि मल्हार में दूसरी/तीसरी सदी में मघ वंश का शासन रहा होगा। यहाँ यह बताना समुचित होगा कि मघवंश का शासन कौसाँबी दूसरी/तीसरी सदी में (इलाहाबाद के पास वर्तमान कोसम), रीवां और बांधवगढ़ में वहाँ से प्राप्त सिक्कों का अध्ययन प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री श्री अजयमित्र शास्त्री द्वारा किया गया था। उन पर एक ग्रंथ ‘कौसाँबी होर्ड आफ मघ कॉयन्स‘ भी प्रकाशित हुई है। हमारे पुराणों में उल्लेख है कि मघ वंश का शासन दक्षिण कोसल में रहा परन्तु पुरातात्विक प्रमाणों के अभाव में श्री शास्त्री ने अपने निष्कर्षों में यह कहा है कि संभवतः दक्षिण कोसल की उत्तरी सीमा बांधवगढ़ तक रही होगी और इसी कारण मघ वंश के दक्षिण कोसल पर आधिपत्य का उल्लेख आ गया होगा। बड़ी मात्रा में मल्हार से प्राप्त हो रहे ‘मघ‘ सिक्कों से अब न केवल इस वंश के दक्षिण कोसल से उद्भव का पौराणिक उल्लेख प्रमाणित होता है, वरन् इस बात की संभावना भी बनती है कि मध वंश मूलतः मल्हार से अंकुरित होकर कौसाम्बी की ओर बढ़ा हो। लिखावट की शैली से यह तथ्य आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, बांधवगढ़, रीवां और कौसांबी मे मघ शासकों के शिलालेख पाये गये हैं परन्तु मल्हार में उनका न पाया जाना, सिक्कों के आधार पर उपरोक्त निष्कर्षाें को प्रभावित नहीं करते। शिलालेखों का अपने ही गृहनगर में उत्कीर्ण किया जाना किसी भी शासक के लिए अनिवार्य नहीं हुआ करता वह उनका उपयोग नये विजित क्षेत्रों में अपने अधिकार को जताने के लिये करता है। यह भी हो सकता है कि मल्हार में मघों के शिलालेख रहें हों और बाद के शासकों द्वारा नष्ट कर दिये गये हों अथवा संयोगवश अब तक प्राप्त न हो सके हों।

अंत में मल्हार से प्राप्त कुछ अन्य सिक्कों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो लगभग ‘मघ‘ सिक्कों के ही समकालीन है। इन सिक्कों पर चिन्ह भी मघ सिक्कों से मिलते जुलते हैं किन्तु लेख अलग-अलग हैं। राजा और श्री के प्राकृत रूप ‘रा´ो‘ तथा ‘सिरिस‘ के सामान्य उपयोग के अतिरिक्त शासक का नाम ‘चंद‘, ‘भालीगस‘, ‘अचड‘, ‘धमगस‘, ‘सालुकस‘ आदि प्राप्त होते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के मिलते हैं, जिनका आकार मसूर के दाने से अधिक है। मुद्राशास्त्रियों द्वारा इनका परीक्षण तथा विस्तृत विवेचन कर भारतीय इतिहास के उन चार सौ वर्षों (ईसापूर्व और पश्चात के दो दो सौ वर्ष) की स्थितियों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसका अधिकांश ‘अधंकार युग‘ माना जाता है। साथ ही साथ मल्हार में यदि पुरातत्वीय उत्खनन किन्हीं कारणों से संभव न हो तो कम से कम संग्रह हेतु शासकीय प्रयास विभागीय तौर पर कराये जाने का उपाय आवश्यक है अन्यथा भारतीय इतिहास के न जाने कितने धरोहर अनजान रह जायेंगे और इतिहास के कितने ही पक्षों के उजागर हो सकने संभावना स्रोत सूख जायेंगे।
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प्राचीन मुद्राओं और उनके अध्ययन पर कुछ बातें। अजयमित्र शास्त्री जी के अलावा डॉ. सुस्मिता बोस मजुमदार ने इन सिक्कों पर गंभीर शोध किया है। रुचि लेने वाले संग्राहकों और अध्येताओं में रोहिणी कुमार बाजपेयी जी, राजेश तिवारी जी भी रहे। 

इस प्रकाशित मसौदे के लेखक, मूलतः केरल के, जिनकी स्कूली शिक्षा जगदलपुर में हुई, अपना नाम पा.ना. सुब्रमणियन लिखते हैं, मलयालम, दक्षिण भारतीय अन्य भाषाओं के साथ हल्बी, छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी पर अधिकार है, भारतीय स्टेट बैंक में स्केल-5 अधिकारी रहे, हिंदी पखवाड़ा और उसके बाद भी अपनी मेज पर लिखा रखते ‘मुझे अंगरेजी नहीं आती‘। ‘बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक‘, जिसका मुख्यालय बिलासपुर में होता था, में महाप्रबंधक पद पर रहे हैं।

कुछ और स्मृतियां। इस बैंक के साथ इसके शुरुआती दिनों को याद किया जाना आवश्यक है। सिक्कों-मुद्रा के साथ बैंक का रिश्ता तो होता ही है।अनोखी सूझ और दृष्टि के व्यक्ति इतिहास-पुरातत्व सजग एच.एम. शारदा जी हैं, जिन्होंने तब इस बैंक की शाखाएं खोलने के लिए युक्ति अपनाई, वह बेमिसाल थी। उनका सोचना था कि जिन गांवों में पुरातात्विक अवशेष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो ग्राम महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, निश्चय ही वह आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा होगा, इसलिए ग्रामीण बैंक की शाखाएं ऐसे ही गांवों में होनी चाहिए। यह उनकी इतिहास-पुरातत्व रुचि के अनुकूल था और हम पुरातत्व अधिकारियों के लिए अमूल्य मददगार। तब, यानि 1985-90 के दौरान ग्रामीण बैंक में रामू महराज यानि रामप्रसाद शुक्ला जी, रंजन राय जी, परमानंद जी, महेशचंद्र पंत जी, विवेक जोगलेकर जी, उदय कुमार जी जैसे गुणी लोग रहे हैं।

वापस सुब्रमणियन जी पर। उनकी रुचि, सजगता और अध्ययन का प्रमाण यह लेख तो है ही। गोदान के प्रसंग वाले अभिलेख स्थल ऋषभतीर्थ-गुजी यानि दमउदहरा में बैंक की ओर से शिलालेख के परिचय वाला पट्ट लगवाया था। हमारा कार्यालय सीमित संसाधनों और स्टाफ वाला होता था, मगर ग्रामीण बैंक की शाखाएं दूरस्थ-दुर्गम अंचल में होने के कारण हमारी भागदौड़ भी कई बार सीमित हो जाती थी मगर बेहद महत्व की सूचनाएं, जानकारियां और कई बार कार्यवाही में मदद ग्रामीण बैंक के अधिकारियों के माध्यम से हो जाया करती थी।

सुब्रमणियन जी  का ब्लॉग मल्हार Malhar गंभीर मगर रोचक रहा है और मेरी ब्लॉग यात्रा का पहला कदम उन्हीं के सहारे उठा था। हां, सुब्रमणियन जी संबंधी एक खास बात और, वे अमृता-प्रीतम के पिता हैं। जी हां, उनकी पुत्री का नाम अमृता और पुत्र प्रीतम नामधारी हैं।सुब्रमणियन जी ने पुराने सिक्कों का संभवतः अपना सारा संग्रह देश के महत्वपूर्ण प्राचीन मुद्रा अध्ययन केंद्र आंजनेरी, नासिक को भेंट स्वरूप सौंप दिया है।