Showing posts with label लुगदी. Show all posts
Showing posts with label लुगदी. Show all posts

Wednesday, September 14, 2016

हिन्दी का तुक


समय-समय पर और खासकर हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के साथ तुक मिला कर बिन्दी-चिन्दी जैसे शीर्षकों वाले लेख छपते हैं, इनमें भाषा-साहित्य की बखिया भी उधेड़ी जाती रहती है। आज रायपुर के अखबारों में एक शीर्षक है 'बाजार के जरिये विश्व भाषा बन रही है हिंदी'। हिन्दी दिवस पर 'अविरल व्यक्तित्व के धनी क्रान्तदृष्टा साहित्यकार-पत्रकार श्री रावलमल जैन 'मणि' की 108वीं कृति के प्रकाशन अवसर पर दो पेज में फैला 'विशेष' भी है। और विनोद कुमार शुक्ल से बातचीत छपी है, जिसका शीर्षक है- 'हिन्दी जनता की भाषा है' - 'और जनता से बड़ा ग्राहक कौन होगा?' इसी तारतम्य में दो बातें याद आ रही है, सैकड़ों हिन्दीे पुस्तकों के लेखक-बेस्ट सेलर सुरेन्द्र मोहन पाठक, जिनके एक उपन्यास की लगभग ढाई करोड़ प्रतियां बिकने की चर्चा दुनिया भर में हुई थी, पिछले माह एक कार्यक्रम में रायपुर आए थे और इसके साथ बेतुकी सी लग सकने वाली बात कि-

विनोद जी के चर्चित उपन्या‍स 'नौकर की कमीज' का अंगरेजी अनुवाद, संभवतः 2000 प्रतियों का संस्करण, 'द सर्वेन्ट्स शर्ट' पेंगुइन बुक्स ने 1999 में छापा था, उन्हें 2001 में छत्तीसगढ़ शासन का साहित्य के क्षेत्र में स्थापित पं. सुंदरलाल शर्मा सम्मान मिला। लगभग इसी दौर में एक विवाद रहा, जैसा मुझे याद आता है- पेंगुइन बुक्स ने श्री शुक्ल को पत्र लिखा कि उनकी पुस्त‍कें बिक नहीं रही हैं, यों ही पड़ी हैं, जिन्हें वे लुगदी बना देने वाले हैं, लेकिन श्री शुक्ल‍ चाहें तो पुस्तक की प्रतियों को किफायती मूल्य पर खरीदे जाने की व्यवस्था कर सकते हैं, यह बात समाचार पत्रों में भी आ गई। साहित्य बिरादरी, विनोद जी के प्रशंसकों, और खुद उनके लिए यह अप्रत्याशित था, प्रमाण जुटाने के प्रयास हुए कि किताब खूब बिक रही है और प्रकाशक रायल्टी देने से बचने के लिए ऐसा कर रहा है।

बहरहाल, इस भावनात्मक उबाल को मेरी जानकारी में, समय और बाजार ने जल्द ही ठंडा कर दिया और अंततः क्या हुआ मुझे पता नहीं, लेकिन लुगदी बना देने वाली बात से यह सवाल अब तक बना हुआ है कि सामाजिक-जासूसी उपन्यास, जो लुगदी साहित्य कह कर खारिज किए जाते हैं, बड़ी संख्या में छपते-बिकते और पढ़े जाते हैं, सहेज कर रखे भी जाते हैं, पुनर्प्रकाशित हो रहे हैं। सोचें कि ‍'लुगदी-पल्प' मुहावरा और शब्दशः के फर्क की विवेचना से क्या बातें निकल सकती हैं। लुगदी की तरह मटमैले कागज पर छपने वाला लेखन होने के कारण लुगदी साहित्य कहा जाता है या छपने-पढ़ने के बाद जल्द लुगदी बना दिए जाने के कारण। यह निसंदेह कि प्रतिष्ठित साहित्यकार भी अधिक से अधिक बिकना चाहता है और कथित लुगदी लेखन करने वाले, साहित्यिक बिरादरी में अपने ठौर के लिए व्यग्र दिखते हैं।

इस तारतम्य में याद आता है कि बिलासपुर के एक महानुभाव ने अपनी आत्मकथा लिख डाली और उसे छपाने का इरादा कर बैठे। कुछ दिन भटकने के बाद पाकेट बुक छापने वाली एक लोकप्रिय प्रकाशन संस्था तैयार हुई, अपनी तर्ज, शर्त-खर्च के साथ। बाजार की नब्ज समझने वाले इन लेखक को सभी शर्तें सहज-स्वाभाविक लगीं, बात तय होने को थी तभी उन्होंने इस बात की चर्चा मुझसे की। वे पांडुलिपि मुझे पढ़ा चुके थे, मैंने उनसे कहा कि इन शर्तों पर तो कोई अच्छा, प्रतिष्ठित प्रकाशक भी इसे छापने को तैयार हो सकता है। इस पर उन्होंने कहा कि स्वयं की गणना साहित्यकार में कराने की उनकी कोई रुचि नहीं है, वे तो बस यह चाहते हैं कि लोग इसे खरीदें, बस स्टैंड और रेल्वे स्टेशनों पर, सफर में पढ़ें और अपनी जिंदगी के साथ कुछ समानता पा कर थोड़ा मन बहला लें। पता चला कि कुछ महीनों बाद इस किताब का संस्करण छपने वाला है और उस प्रकाशक की फरमाइश पर वे अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लिख रहे हैं।

पुनश्चः और अब साहित्य नोबल पुरस्कार के लिए बाब डिलन का नाम, इस तारतम्य में उल्लेखनीय है।