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Sunday, May 28, 2023

फायर

दैनिक ‘नवभारत‘, 12-01-99 की कतरन -

समलैंगिकता के बहाने महिलाओं की समस्याओं से मुंह मोड़ा जा रहा 

फायर पर एक सार्थक चर्चा 


बिलासपुर. ‘‘फिल्म ‘फायर‘ जानलेवा एकांत और महिलाओं के मनवोचित अधिकारों का प्रश्न उठाती है. उस से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये. अपने अपने ढंग से जीने की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है, उसे कोई दूसरा अपने विचार और आस्थाओं के बंधन में बांधने की कोशिश न करें. जो ‘फायर‘ पर समलैंगिकता के प्रचार का आरोप लगाकर मूल प्रश्नों को खारिज करने की कोशिश करते हैं वे शायद अपनी असहायता व हार की खीझ मिटाने का प्रयास कर रहे हैं.‘‘


‘‘फायर के बहाने‘‘ परिचर्चा का प्रस्ताविक करते हुए नंदकुमार कश्यप ने कहा कि ‘‘फिल्म ‘फायर‘ ने सनसनाती परंपरा पर प्रहार किया है. इसी ने स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता का सवाल खड़ा किया है. हम उसे परंपरावादी रिश्तों में नहीं बांध सकते. जिनमें विचारों को समझाने की, सहने की शक्ति नहीं होती वे जनतांत्रिक मूल्यों को नहीं मानते और मूल्य विकास में बाधक होते हैं. इस फिल्म पर अश्लीलता का आरोप लगाने वालों से उन्होंने सवाल किया कि, ‘‘स्त्री को बाजार की वस्तु बनाने वाले अश्लील विज्ञापनों और अन्य फिल्मों में दिखाये जाने वाले भौंडे देह प्रदर्शन या अश्लीलता के विरोध में तथाकथित संस्कृति के ठेकेदार क्यों नहीं खड़े होते. 

श्री प्रदीप पाटील ने अपने आलेख में ‘फायर के बहाने‘ उत्पन्न हुए अनेक प्रश्नों व समस्याओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया. उनका कहना था, ‘‘मनुष्य जीवन की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होने के बजाय उस पर मोहक कल्पना के रंग भरे जाते हैं या पारलौकिकता की धुंध पैदा की जाती है. फिल्म ‘फायर‘ इसी विडंबना को सीधे यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़े करती है. संस्कार और संस्कृति के नाम पर प्रचलित सोच पर, पुरुष दंभ पर, उसके सत्ता केंद्र पर प्रहार करती है. सांस्कृतिक घपलेबाजी को उधेड़ने वाली सवालों की लपटें कहीं पारंपरिक सामाजिक सत्ता सूत्रों को भस्म न कर दे इसी डर के कारण शायद उसका विरोध हो रहा है.‘‘ प्रो. हेमलता महेश्वर ने अपने आलेख में तथाकथित संस्कृति संरक्षकों की खबर लेते हुए कहा कि, ‘‘जब भी कोई प्रताड़ित स्वतंत्रता की बात करता है, सुविधा भोगी तबका तिलमिला जाता है. स्त्री केवल हाड़मांस का लोथड़ा नहीं है वह एक पूर्ण मानव है जिसके कुछ सपने हैं, इच्छा-आकांक्षायें हैं. अतः विकृति कहने वालों को विकृति उत्पन्न करने वाली स्थिति की समीक्षा करनी चाहिये. स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये यह आवश्यक है.‘‘ 

चर्चा में भाग लेते हुए श्री शशांक दुबे, श्रीमती इंदिरा रॉय तथा श्री भरतचंदानी ने कहा कि, ‘‘समलैंगिकता का प्रचलन पश्चिमी देशों में है और फिल्म ‘फायर‘ में समलैंगिकता दर्शाने का उद्देश्य केवल प्रसिद्धि पाना व पैसे कमाना है‘‘ इसका सार्थक चर्चा कड़ा प्रतिवाद श्री रंजन रॉय ने कहा कि ‘‘इस फिल्म की कथावस्तु समलैंगिकता नहीं है बल्कि वह स्त्री की घुटन को उजागर करती है. पुरूष वर्चस्व की बर्बरता से मुक्ति ही वास्तव में स्त्री मुक्ति है‘‘ फिल्म के कलापक्ष, श्लील-अश्लील की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘‘कला में कुछ अरोपित हो, सार्थक न हो वह अश्लील है‘‘ 

श्रीमती जया जादवनी ने सवाल किया कि ‘‘पुरूष को क्यों आपत्ति है कि स्त्री किसे अपनाये? अहंकार आहत हुआ है. कोई आपको आईना दिखाता है तो अपको क्यों तकलीफ होती है?‘‘ आनंद मिश्रा का कहना थ कि, हमारा समाज विषमताओं का समाज है. समाज के इस यथार्थ से हम आंखे मूंद नहीं सकते. हम जो अन्याय करते हैं उसका अहसास हमें नहीं होता है.‘‘ रफीक अहमद का कहना था कि ‘‘स्त्री को पत्नी के रूप में उसके अधिकार मिलने चाहिये‘‘ डा. उर्मिला शुक्ला ने कहा कि ‘‘यदि फिल्म को समलैंगिकता नहीं जोड़ा जाता तो यह एक अच्छी फिल्म है.‘‘ 

श्रीमती स्नेह मिश्र ने सवाल किया कि ‘‘चड्डी पहन कर मोर्चा निकालना व विरोध दर्ज कराना कौन सी संस्कृति है?‘‘ श्री नंदकिशोर तिवारी का कहना था कि, ‘‘सौंदर्य आस्था से जुड़ी चीज है. इसका ध्यान रखा जाना चाहिए‘‘ श्री राहुल सिंह ने फिल्म ‘फायर‘ की कलात्मकता की चर्चा करते हुए कहा कि ‘‘इस फिल्म पर दुराग्रहपूर्वक विवाद खड़े किये जा रहे हैं. यह समलैंगिकता की नहीं बल्कि हरेक के अपने-अपने अकेलेपन से उपजी प्रतिक्रिया की फिल्म है और जहां कहीं भी प्रतिक्रिया के उद्दीपक तत्व मौजूद होते हैं तभी प्रतिक्रिया व्यक्त होती है. 

परिचर्चा के इस कार्यक्रम में काफी बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन मौजूद थे. ‘सम्यक विचार मंच‘ के संयोजक श्री कपूर वासनिक ने ‘फायर के बहाने‘ आयोजित परिचर्चा का उद्देश्य कथन कर स्वागत किया, तथा श्री का. रा. वालदेकर ने कार्यक्रम का संचालन और आभार प्रदर्शन किया.
प्रदीप पाटिल जी ने अखबार की यह कतरन उपलब्ध करा दी है,
उनका आभार।