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Thursday, December 15, 2022

पुरानी खड़ी बोली

हरि ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा को कण-कण समेटा, उसका एक नमूना यह लेख, जिसकी हस्तलिखित प्रति आशीष सिंह जी ने उपलब्ध कराई, उनका आभार। लेख के प्रकाशन की जानकारी नहीं मिली है। यहां प्रस्तुत-


दक्षिण कोसल में सोलहवीं शताब्दी की खड़ी बोली का नमूना 

कितने आश्चर्य की बात है कि पन्द्रहवीं शताब्दी की खड़ी बोली के गद्य का नमूना हमें उस क्षेत्र प्राप्त हुआ है जहां अब पूर्णरूप से उडिया भाषा बोली जाती है। छत्तीसगढ़ से लगा हुआ उड़ीसा प्रदेश का एक जिला है सुन्दरगढ़। इस जिले के बड़गाँव थाने के अन्तर्गत बरपाली नामक गाँव में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसकी भाषा प्रारंभिक खड़ी बोली है। सम्पूर्ण लेख नागरी लिपि तथा गद्य में है। वह ताम्रपत्र लेख ‘एन्सियेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन्स‘ नामक शोध पत्रिका में श्री के.एस. बेहरा ने प्रकाशित किया है। 

अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कोसल या दक्षिण कोसल कहलाता था। इस दक्षिण कोसल की भौगोलिक सीमा का वर्णन करते हुए श्री एस.सी. बेहरा ने अपने शोध निबंध में लिखा है- रायपुर, बिलासपुर, सम्बलपुर, सुन्दरगढ़, बोलांगीर, कालाहांडी, बौद-फूलबनी और कोरापुट- ये क्षेत्र दक्षिण कोसल में थे। रायपुर और बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हैं ही। शेष जिले उड़ीसा में हैं। उक्त निबंध के लेखक ने रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग और राजनांदगाँव जिलो को भूलवश छोड़ दिया है। वस्तुतः ये जिले प्राचीन दक्षिण कोसल में ही थे। बस्तर का कुछ हिस्सा दक्षिण कोसल में था। शेष दण्डकारण्य कहलाता था।

सन् १७५० में छत्तीसगढ़ पर मराठों का अधिकार हो गया। लगभग उसी समय यह सम्पूर्ण क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। उस समय भी उड़ीसा के उपर्युक्त जिले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन राजा बिम्बाजी के अधीन थे और छत्तीसगढ़ के ही परगना माने जाते थे। सन् १९०५ में बंग-भंग के समय छत्तीसगढ़ के ये उड़ियाभाषी जिले उड़ीसा में मिला दिए गये। इस प्रकार यदि देखा जाये तो इस ताम्रपत्र को दक्षिण कोसल या छत्तीसगढ़ का माना जा सकता है। किन्तु, तथ्य यह है कि वर्तमान में बरपाली उड़ीसा में है। 

इस ताम्रपत्र के प्रदाता थे हम्मीर देव जो सुन्दरगढ़ राज्य के शासक थे। वे परमार शेखर राजवंशके प्रारंभिक राजा थे। यह ताम्रपत्र लेख वस्तुतः एक दानपत्र है। यह दानपत्र राजा हमीरदेव ने अपने स्वर्गीय पिता के आदेश का पालन करने हेतु राजगुरु श्री नारायण बीसी को प्रदान किया था। दानपत्र में राजगुरु को बरपाली गांव दान में देने का उल्लेख है। दान पत्र पर विक्रम तिथि अंकित है तदनुसार २४ जनवरी १५४४ ई. की तारीख पड़ती है। उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ा था। 

हमीरदेव का ताम्रपत्र लेख

(१) 
‘‘ सोस्ती श्री माहाराजा धीराज माहाराज
श्रीश्री हंमीर देव के राजगुरु श्री
नारायण वीसीई को परनाम पूर्व
सो पीता स्यामी का हुक्म था
के एक गांव कुसोदक दे देना सो
बमौजी व हुकुम पीता जी के
वो अपने घुसी में मौजे बरपाली

(२)
गांव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन
में कुसोदक कर दिआ पुत्र पौत्र
भादीक भोग किया करो जावत
चन्द्र दीवाकर रहेगे तावत भोग
करोगे वौ गार्गवंस वीन्द होगा
औवर जो कोहि होय सो जगह
को ग्राश्चन्ही करेगा तारीफ १५
पुस समत १६०० साल सही ‘‘

भाषा की दृष्टि से दान-पत्र का यह लेख ऐतिहासिक महत्व रखता है। उड़िया भाषी क्षेत्र में इस दान पत्र का प्राप्त होना इस बात का संकेत करता है कि सोलहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र की भाषा वही थी जो इस दानपत्र में है। कम से कम राज-काज की भाषा तो यह निश्चित रूप से ही थी, यह ताम्रपत्र लेख से स्वयं प्रमाणित है। निश्चय ही इस भाषा को उस समय की जनता समझ सकती थी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि सुन्दगढ़ राज्य छतीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। छत्तीसगढ़ के राजाओं के कामकाज की भाषा भी लगभग यही थी।

इस लेख की दूसरी विशेषता है कि वह शुद्ध गद्य में है और खड़ी बोली में है। इसकी भाषा पर हमें ब्रज या अवधी का कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। खड़ी बोली के व्याकरण के अनुसार इस प्रकार की भाषा का इस क्षेत्र में प्राप्त यह प्रथम और दुर्लभ लेख है।

लेख में हिज्जे की अनेक त्रुटियां हैं। ये त्रुटियां ताम्रपत्र पर लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भी हो सकती हैं। स्वस्ति को सास्ति, महाराजा का माहाराजा, वीसी को बीसीई, पूर्वक को पुर्व पिता को पीता, स्वामी को स्यामी, एक को येक, कुशोदक को कुसोदक, खुशी को घुसी, गांव को गाव, आसीमांत को आसीन्त, सूर्य को सुर्ज्य, दिशा को दिआ, पौत्रादिक को पौत्रादीक, यावच्चंद्र को जावतचन्द्र, दिवाकर को दीवाकर, व या औ को वौ, वृन्द को वीन्द और को अवर, कोई को कोहि, ‘ग्रहण नहीं‘ को ग्राश्चन्हीं, तारीख को तारीक, पूस को पुस, संवत् को समत लिखा गया है। ये त्राुटियाँ दान-पत्र को लिपिबद्ध करने वाले की भी हो सकती हैं।

लेख की अन्य विशेषता है- संस्कृत तथा अरबी-फारसी के शब्दों का एक साथ प्रयोग। संस्कृत के शब्द स्वस्ति, कुशोदक, आसीमान्त, यावच्चन्द्र दिवाकर आदि प्रयोग इस बात का घोतक है कि दान पत्र लिखने वाला संस्कृत का पंडित था। साथ ही वह उर्दू के शब्दों से भी परिचित था जैसे बमौजी, हुकुम, खुशी, मौजा, तारीख, साल आदि। उर्दू शब्दों के प्रयोग से यह भी सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र की राज-काज की भाषा पर उर्दू का प्रभाव पड़ चुका था।

लेख में १५ पंक्तियां हैं। ताम्रपत्र के प्रथम पृष्ठ पर ७ पंक्तियां हैं। द्वितीय पृष्ठ पर ८ पंक्तियां हैं। खड़ी बोली के गद्य के विकास का अध्ययन करने वालों के लिए यह लेख पर्याप्त रुचिपूर्ण हो सकता है।

उपर्युक्त लेख में की पंक्ति क्रमांक १२ में बीन्द शब्द आया है। इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभवतः यह वृन्द के अर्थ में आया हो। वस्तुतः यहाँ पर ‘‘गोत्र‘‘ शब्द होना चाहिए था। इस लेख को आज की भाषा में इस प्रकार लिखा जायेगा-

‘‘स्वस्ति श्री महाराजा धिराज महाराज श्री श्री हम्मीर देव के राजगुरु श्री नारायण वीसी को प्रणाम पूर्वक सो पिता स्वामी का हुक्म था कि एक गांव कुशोदक दे देना सो बमौजी (स्वेच्छा से) व हुक्म पिताजी के व अपनी खुशी से मौजा बरपाली गाँव आसीमांत सूर्यग्रहण में कुशोदक कर दिया (कि) पुत्र पौत्रादिक भोग किया करो यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे तब तक भोग करोगे और गर्ग वंश गोत्र में रहेगा और जो कोई भी हो इस जगह (गाँव) को अधिग्रहण नहीं करेगा तारीख १५ पूस संवत् १६०० साल सही।‘‘

सोलहवीं शताब्दी के पूर्व की खड़ी बोली के कुछ नमूने उपलब्ध हैं जैसे पृथ्वीराज, मेवाड़ के राजा रावल समर सिंह, महात्मा गोरखनाथ, तथा स्वामी विट्ठलनाथ जी को पत्र। किन्तु इन पत्रों की भाषा को खड़ी बोली का गद्य कहना न्यायोचित नहीं कहा सकता। खड़ी बोली का उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण अमीर खुसरो का है किन्तु उसकी भाषा पर भी ब्रज भाषा का गहरा प्रभाव है। दूसरी बात, उनकी रचनाएं पद्य में हैं।

प्रस्तुत ताम्रपत्र लेख की खड़ी बोली के गद्य के समकक्ष स्वामी विट्ठल नाथ जी का यह गद्यांश रखा जा सकता है-

‘‘स्वामी तुम्हैं तो सतगुरु अम्हे तो लिष सबद एक पूछिवा दया करि कहिबा, मन न करिबा रोस। पराधीन उपरांति बन्धन नाहीं, सो आधीन उपरांति मुकुति नाई। यह भी १६००वीं शताब्दी का गद्य है। अब इसी के समकक्ष समकालीन दक्षिण कोसल के ताम्रपत्र लेख के लेख को गद्य की भाषा से तुलना कीजिए-
 
‘‘ सो पीता स्वामी का हुक्म था के येक गाँव कुसोदक दे देना सो बमौजी व हुकुम पीताजी के वो अपने घुसी में मौजे बरपाली गाँव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन में कुसोदक कर दिआ।‘‘

यदि इस गद्य को लिपिबद्ध करने वाले ने हिज्जे के प्रति सावधानी रखी होती तो यह अपने समय के उत्कृष्ट गद्य का उदाहरण होता फिर भी मेरे विचार से इन दोनों उदाहरणों में से यह दूसरा उदाहरण खड़ी बोली का अधिक शुद्ध रूप है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि खड़ी बोली के गद्य का यह नमूना हमें अहिंदी क्षेत्र से प्राप्त हुआ है जो इस बात का भी प्रमाण है कि अहिन्दी क्षेत्र में भी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी प्रचलित थी और राजकाज की भाषा थी।
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Sunday, September 25, 2022

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां

रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘राष्ट्रबंधु‘ में श्री हेमनाथ यदु के दो लेख प्रकाशित हुए थे। इन लेखों की प्रकाशन तिथि में व्यतिक्रम जान पड़ता है। ‘छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां‘ 16-12-1976 में प्रकाशित हुआ, जिसके आरंभ में चौदहवीं शताब्दी और स्व. श्री गोपाल मिश्र का उल्लेख आया है। इस लेख के अंत में ‘(शेष आगामी अंक में)‘, उल्लिखित है, जबकि इसी शीर्षक का लेख इसके पहले 21-28/12/1976, दीपावली अंक में प्रकाशित हुआ था, इस लेख का आरंभ 1956 से ‘सहयोगी प्रकाशन‘ के माध्यम से होने वाले प्रकाशन से होता है। पत्रिका के संपादक यशस्वी हरि ठाकुर जी के योग्य उत्तराधिकारी-पुत्र श्री आशीष सिंह ने, न सिर्फ यह सब संभाल कर रखा है, बल्कि अपने पिता की तरह ही उदारतापूर्वक मुझ जैसे जिज्ञासुओं के लिए पूरी तहकीकात सहित सामग्री-जानकारी उपलब्ध कराते हैं। 

श्री हेमनाथ यदु (01.04.1928-05.04.1979) स्वयं छत्तीसगढ़ी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। लोक निर्माण विभाग की शासकीय सेवा में रहे। उनकी रचनाएं ‘सोन चिररइया‘, छत्तीसगढ़ के गउ तिहार‘, ‘छत्तीसगढ़ी रामायण‘, ‘नवा सुरुज के अगवानी‘, ‘मन के कलपना‘ आदि हैं। 

लेख के आरंभ में ‘चौदहवीं शताब्दी‘ आया है, मगर इस काल के साथ किसी का नाम नहीं है, संभवतः यह धर्मदास के लिए है। इसके बाद गोपाल मिश्र का नाम आता है, जिनका जीवन काल संवत 1706-1781 (1649-1724) तथा उनकी कृति ‘खूब तमाशा‘ का रचनाकाल सन 1689 के आसपास माना जाता है। लेख में कृतियों के रचनाकाल, प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है, साथ ही जान पड़ता है कि सूची कालक्रम अनुसार नहीं है। लेख में कुछ मुद्रण-प्रूफ त्रुटियां भी हैं, वह सुधिजनों के लिए अड़चन नहीं करेगा, मगर शोध आदि प्रयोजन हेतु इस ओर ध्यान रखना आवश्यक होगा। 

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां (16.12.1976) 

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां चौदहवीं शताब्दी से मिलती हैं। प्रकाशन में स्व० श्री गोपाल मिश्र का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जा सकता है। भक्त चिन्तामणि, खूब तमाशा, सुदामा चरित्र, रामप्रताप, जैमिनी अश्वमेध इनकी कृति है। स्व० माखनचंद्र मिश्र का छंदविलास, जगमोहन सिंह का श्यामास्वप्न, पं. मालिक त्रिवेदी द्वारा रचित रामराज्य वियोग एवं प्रबोधचन्द्रिका उल्लेखनीय है। छन्द रत्नमाला, रामलीला, मित्रकाव्य, रामविनोद, रामस्तव के रचयिता रघुबरदयाल है। उमराव बख्शी द्वारा रामायण नाटक रचित है। कुछ अन्य लेखकों की कृतियां इस प्रकार हैः- 

अज्ञातवास, सीता अन्वेषण, मधुकर सीकर - सरयू प्रसाद त्रिपाठी ‘मधुकर‘
सावित्री. गीतवल्लरी - विद्याभूषण मिश्र
अपराधी - यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव
ज्योति निर्झर- रूपनारायण ‘वेणु‘ 
अग्नि परीक्षा, लहर ओर चांद - देवीसिंह चौहान 
निशा - बृजभूषणलाल पाण्डे 
बिहारी सतसई को सतलरी, ज्ञानेश्वरी का अनुवाद, गीत गोविन्द का अनुवाद - वृजराज सिंह ठाकुर, माधो प्रसाद तिवारी 
चांपा दर्शन- हरिहर प्रसाद तिवारी
कवर्धा दर्पण - सम्पादक पं० गिरधर शर्मा
इस्पात के स्वर-सम्पादित डा० सच्चिदानन्द पाण्डेय एण्ड डा० मनराखन लाल साहू
समकालीन कविता सार्थकता और समझ-राजेन्द्र मिश्रा
रम्य रास, कल्पना कानन, जोशे फरहद, बैगडिया का राजकुमार - राजा चक्रधर सिंह
भूल भुलैया, छत्तीसगढ़ गौरव - सुरलाल पाण्डेय 
छन्द प्रभाकर - जगन्नाथ प्रसाद भानु
कृष्णायन, सत्य की खोज - बिसाहूराम 
छत्तीसगढ़ी हल्बी ओर भतरी का तुलनात्मक अध्ययन - भालचन्द्रराव तैलंग 
अन्तिम अध्याय - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी 
वाह री ससुराल - घनश्याम प्रसाद ‘श्याम‘
भूख - स्वराज प्रसाद त्रिवेदी
शराबी - मुकुन्द केशव पाध्ये 
चन्द्रशेखर आजाद को जीवनी - विश्वनाथ वैशम्पायन
कामायनी एक अध्ययन, साहित्यकार की डायरी, चांद का मुंह टेढ़ा - गजानन्द माधव मुक्तिबोध
दुर्ग दर्पण- गोकुल प्रसाद
माया दर्पन - श्रीकांत
हरिना संवरी - मनहर चौहान
जानौ अतका बात - गयाराम साहू 
बलिदान - तुलाराम गोपाल

छत्तीसगढ़ से प्रकाशित कृतियां (21-28.12.1976)

छत्तीसगढ़ में प्रकाशन के अभाव में अनेकों कृतियां अप्रकाशित है। इस समस्या को हल करने के लिए सन् १९५६ में सहयोगी प्रकाशन का जन्म होता है। सहयोगी प्रकाशन के माध्यम से इस अंचल के कवि प्रथम बार पुस्तकाकार में प्रकाशित हुए। उनके द्वारा प्रकाशित निम्नलिखित कृतियां है। पता है सहयोगी प्रकाशन कंकाली पारा रायपुर। 

प्रकाशित कृतियों की सूची:-

१. नये स्वर १ सम्पादक हरि ठाकुर 
२. नये स्वर २ सम्पादक हरि ठाकुर 
३. नये स्वर ३ सम्पादक नन्दकिशोर तिवारी
४. गीतों के शिलालेख - हरि ठाकुर
५. नये विश्वास के बादल हरि ठाकुर 
६. लोहे का नगर - हरि ठाकुर 
७. कुंजबिहारी चौबे के गीत (छत्तीसगढ़ी)
८. सुआ गीत (संलकन - हेमनाथ यदु 
९. सुन्दर कांड (छत्तीसगढ़ी) हेमनाथ यदु
१०. किष्किंधा कांड (छत्तीसगढ़ी) हेमनाथ यदु 
११. रंहचुली (छत्तीसगढ़ी) भगतसिंह सोनी 
१२. छत्तीसगढ़ के रत्न- हरि ठाकुर
१३. संझौती के बेरा ( छत्तीसगढ़ी) - लखनलाल गुप्त 
१४. छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन - नन्दकिशोर तिवारी

ज्योति प्रकाशन के द्वारा निम्नांकित पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। पता - सत्तीबाजार रायपुर है।

१. डोकरी के कहनी शिवशंकर शुक्ल
२. रधिया के कहनी - शिवशंकर शुक्ल
३. राजकुमारी नयना - शिवशंकर शुक्ल 
४. अक्कल हे फेर पइसा नइये - शिवशंकर शुक्ल
५. मोंगरा - शिवशंकर शुक्ल 
६. दियना के अंजोर - शिवशंकर शुक्ल 
७. छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का सामाजिक अध्ययन डा. दयाशंकर शुक्ल 
८. भाभी का मन्दिर - शिवशंकर शुक्ल 

प्रकाशन के क्षेत्र में प्रयास प्रकाशन बिलासपुर का नाम भुलाया नहीं जा सकता। प्रयास प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की सूची निम्नानुसार है। 

१. प्रयास (काव्य संग्रह) सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
२. नये गीत थिरकते बोल - काव्य संग्रह - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक
३. सुघ्धर गीत (छत्तीसगढ़ी) सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
४. नवा सुरुज नवा अंजोर (छत्तीसगढ़ी) सम्पादक स्व. अखेचंद क्लांत
५. भोजली गीत छत्तीसगढ़ी) स्व. अखेचन्द क्लांत 
६. खौलता खून - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक
७. मैं भारत हू - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
८. जागिस छत्तीसगढ़ के माटी - गयाराम साहू 
९. चंदा उए अकास म (छत्तीसगढ़ी) - बृजलाल शुक्ला
१०. नव जागृति हो सबके मन में - श्याम कार्तिक चतुर्वेदी
११. जीवन मधु - श्याम कातिक चतुर्वेदी
१२. घरती के भगवान - सीताराम शर्मा
१३. चन्दा के छांव म - शकुन्तला शर्मा ‘रश्मि‘ 
१४. अब तो जागौ रे - गयाराम साहू 
१५. जला हुआ आदमी - कृष्ण नागपाल बूंद
१६. जंगल में भटकते यात्री - कृष्ण नागपाल बूंद
१७. फुटहा करम - ठा. हृदयसिंह चौहान
१८. छत्तीसगढ़ी लोक कथा - डा. विनयकुमार पाठक
१९. प्रबंध पाटल - डा. पालेश्वर शर्मा
२०. सुसक झन कुररी! सुरता ले - डा. पालेश्वर शर्मा
२१. वैदेही विछोह - कपिलनाथ कश्यप 
२२. नवा बिहान (छत्तीसगढ़ी) - भरतलाल तिवारी 
२३ छत्तीसगढ़ी साहित्य अऊ साहित्यकार - डा. विनयकुमार पाठक 
२४. भुइयां के पाकिस चूंदी - राजेन्द्रप्रसाद तिवारी 
२५. राम विवाह - टीकाराम स्वर्णकार 
२६. बेलपान (छत्तीसगढ़ी) - देवधर दास महन्त 
२७. कलस करवा - सतीश कुमार प्रजापति एवं संगमसागर 

छत्तीसगढ़ सहयोगी प्रकाशन के माध्यम से मात्र एक पुस्तक सोन चिरइया (छत्तीसगढ़ी) रचयिता हेमनाथ यदु का ही प्रकाशन हो पाया। इसी तरह साहित्य समागम जोरा रायपुर द्वारा सुमन संचय का ही प्रकाशन किया गया है। इसके सम्पादक है उदयकुमार साहू। 

कुछ अन्य फुटकर प्रकाशन का विवरण नीचे लिखे अनुसार है। 

दानलीला - सुन्दरलाल शर्मा 
दानलीला - बैजनाथ प्रसाद 
दानलीला - नर्मदाप्रसाद दुबे 
नागलीला - गोविन्दराव विट्ठल 
कांग्रेस आल्हा - पुरुषोत्तमलाल 
श्री मातेश्वरी गुटका - जगन्नाथ भानु 
लड़ाई के गीत - किशनलाल ढोटे 
राम केवट संवाद - द्वारिका प्रसाद तिवारी 
कुछु काही -‘‘- 
सुराज गीत -‘‘- 
फागुन गीत -‘‘- 
राम बनवास - श्यामलाल चतुर्वेदी 
सोन के माली - नारायणलाल परमार 
सुदामा चरित्र - फूलचन्द श्रीवास्तव 
ग्राम संगीत - -‘‘- 
गंवई के गीत - विमलकुमार पाठक 
सियान गोठ - स्व. कोदूराम दलित 
हीरू के कहनी - बंशीधर पांडेय 
महादेव के बिहाव - गयाप्रसाद बसोढ़िया 
छत्तीसगढ़ी लोक कहानियां - नारायणलाल परमार 
श्याम सन्देश- स्व. जमनाप्रसाद यादव 
छत्तीसगढ़ी सुराज - गिरधरदास वैष्णव 
गंवई में अंजोर - रामकृष्ण अग्रवाल 
चन्दा अमरित बरसाइस - लखनलाल गुप्त 
सरग ले डोला आइस - 
अपूर्वा - डा. नरेन्द्र देव वर्मा 
छत्तीसगढ़ी रामचरित नाटक - उदयराम 
साहूकार से छुटकारा - टिकेन्द्र टिकरिहा 
जले रक्त से दीप- रघुवीर पथिक 
बिन भांडी के अंगना - प्रभंजन शास्त्री 
सब के दिन बहुरे - दाऊ निरंजनसिंह 
बेटी ेचई - मनोहरदास नृसिंह 
छत्तीसगढ़ी के लोक गीत - दानेश्वर शर्मा 
बहराम चोट्टा - विश्वेन्द्र ठाकुर 
मैथली मंगल - सुकलाल प्रसाद पांडेय 
विजय गीत - मावलीप्रसाद श्रीवास्तव 
चन्द्रहास - गेन्दराम सागर 
धान के देश में - हरिप्रसाद अवधिया 
पर्वत शिला पर - हरिप्रसाद अवधिया 
मोक्ष द्वारा - सीताराम शर्मा 
उल्लू के पंख - लतीफ घोंघी 
शतरंज की चाल - लक्ष्मण शाकद्विपीय 
शिव सरोज गोविन्द रोदन - गोविन्दराव बिट्ठल .. 
खुसरा चिराई के बिहाव - कपिल नाथ 
युग मेला - कृष्णकुमार भट्ट 
मन के कलपना - हेमनाथ यदु 
स्वराज्य प्रश्नोत्तरी हमारे नेता - स्व. रामदयाल तिवारी 
गियां - सुकलालप्रमाद पडिय 

प्रकाशन के संकल्प में छत्तीसगढ़ साहित्य संगम दुर्ग का योगदान प्रशंसनीय है। पसर भर अंजोर कृति का प्रकाशन कर छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक और कड़ी जोड़ दिया। इस कृति के सम्पादक है हेमनाथ यदु। हिन्दी साहित्य समिति कुरूद द्वारा डा. महेन्द्र कश्यप राही कृत चन्दा (छत्तीसगढ़ी) का प्रकाशन किया गया है। छत्तीसगढ़ विभागीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन रायपुर द्वारा भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हैं। 

१. लोचनप्रसाद पांडेय की जीवनी - स्व० प्यारेलाल गुप्त 
२. समवाय - प्रधान सम्पादक शारदाप्रसाद तिवारी 
३. मिटती रेखाएं - शारदाप्रसाद तिवारी 
४. छत्तीसगढ़ी गीत अऊ कविता - हरि ठाकुर 
५. मड़इया के गीत - देवीप्रसाद वर्मा 
६. कांवर भर धूप - नारायणलाल परमार 
७. रामकथा - कपिलनाथ कश्यप 
८. रोशन हाथों का दस्तकें - स्व० सतीश चौबे 
९. सत्रह कहानियां - स्व० पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा देवीप्रसाद वर्मा 

रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा प्रकाशित कृति प्राचीन छत्तीसगढ़ है। इसके लेखक हैं स्व० प्यारेलाल गुप्त। बुनकर सहकारी समिति द्वारा प्रकाशित कृति ठाकुर प्यारेलाल सिंह की जीवनी इस क्षेत्र के लिए अमूल्य निधि है। इस कृति के लेखक है हरि ठाकुर। सुरुज मरे नइय कृति के कृतिकार है नारायणलाल परमार। अभिनन्दन ग्रन्थ में विप्र अभिनन्दन ग्रन्थ एंड जतर अभिनन्दन ग्रंथ उल्लेखनीय है। गौरहा कृत छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर की पाठ्य पुस्तक (वैकल्पिक विषय में) स्वीकृत किया गया है। 

छत्तीसगढ़ के कुछ लेखक और कवियों को कृति अन्य स्थानों से प्रकाशित है जिसमें स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसी तरह स्व० बल्देव प्रसाद मिश्र काी कृति भी अन्य प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित को गई है। श्री लक्ष्मण शाकद्विपीय द्वारा सत्य के अवशेष बोर नन्दकिशोर तिवारी द्वारा मुकुटधर पांडेय व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्य प्रकाशको द्वारा की गई है। कुछ अन्य पठनीय पुस्तकों में गोकुलप्रसाद द्वारा रचित रायपुर रश्मि, और दुर्ग दर्पण है। खण्डहरों का वैभव में मुनि कान्तिसागर के विद्वता का परिचय है। छत्तीसगढ़ परिचय स्व० बल्देव प्रसाद मिश्र की अनमोल कृति है। सन् १८९० में प्रकाशित हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा रचित छत्तीसगढ़ी व्याकरण छत्तीसगढ़ी साहित्य में प्रथम प्रकाशित कृति है।
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Saturday, September 10, 2022

'घर-द्वार' समाचार

छत्तीसगढ़ी फिल्मों के इतिहास में 'घर-द्वार' महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिसके बारे में ढेरों जानकारियां असानी से विस्तारपूर्वक मिल जाती हैं। यहां देखने का प्रयास है कि इस फिल्म निर्माण संबंधी माहौल, उस दौर के समाचारों को पढ़कर कैसा महसूस होता है। राष्ट्रबंधु समाचार पत्र को यहां आधार बनाया गया है, जिसके सम्पादक हरि ठाकुर ने इस फिल्म के लिए गीत लिखे थे। 


28-1-71 अंक के सचित्र समाचार का चित्र और टेक्स्ट यहां प्रस्तुत- 

फिल्म-संसार में नयी सम्भावनाओं के साथ प्रस्तुत 
जे.के. फिल्म्स का
घर-द्वार 
छत्तीसगढ़ी में 
एक अभूतपूर्व फिल्म 


छत्तीसगढ़ी में फिल्म व्यवसाय और स्थानीय कलाकारों की प्रतिभा को उजागर करने की नई संभावनाओं के साथ छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘घर द्वार‘ का निर्माण कार्य जे.के. फिल्म्स के युवा निर्माता श्री जयकुमार पांडे ने पूरा कर लिया है। इस फिल्म के माध्यम से समर्थ तथा अनुभवी निर्देशक श्री निर्जन तिवारी ने छत्तीसगढ़ की आंचलिक समस्याओं और विशेषताओं को सार्वभौमिक स्तर पर अभिव्यक्ति देने का अद्भुत प्रयास किया है। 

कथा - बिंदु 

छत्तीसगढ़ की धान बहुल शस्य श्यामला धरती के महमहाते ग्रामीण वातावरण में मालगुजारी परंपरा के प्रतीक के रूप में दीनानाथ (भगवतीचरण दीक्षित) का चरित्र अपने समस्त पुरातन संस्कारों और विश्वासों के साथ प्रकट होता है। उनके दो पुत्र हैं- महेश (कान मोहन) और रमेश (शिशिर)। इन तीनों को लेकर आधुनिकता और पुरातन का संघर्ष चित्रित करते हुए कथा का बुनाव चालू होता है। परंपरागत भारतीय परिवार के टूटने बिखरने के मार्मिक प्रसंगों के साथ कथा आगे बढ़ती है और मामा जगत नारायण (शिवकुमार) एक सुखी परिवार की शांति के लिए अभिशाप बनकर पदार्पण करता है। मामा गांव के सेठ (बसंत दीवान) के साथ मिलकर दोनों भाइयों में फूट डालने, उनके परिवार को तबाह करने, गांव में दंगा कराने के षड्यंत्र में सफल होता है। खलनायक मामा ने षड्यंत्र को अपनी हास्यपूर्ण भूमिका के साथ बड़ी विचित्रता के साथ प्रस्तुत किया है। अंत में बड़े भाई को गांव छोड़कर शहर की शरण लेनी पड़ती है। 

फिल्म में हरिठाकुर के मादक गीतों को जमाल सेन ने संगीतबद्ध कर छत्तीसगढ़ी लोक धुनों के माधुर्य में वृद्धि की है। अनिल साहा ने बड़ी सूझबूझ के साथ फोटोग्राफी की है। फिल्म की नायिका नवोदित कलाकार रंजित ठाकुर हैं। अन्य कलाकार हैं दुलारी, गीता कौशल, कालेले, जोगलेकर, बल्लू रिजवी, मीनाकुमारी (जूनियर) नशीने, जे.पी. पांडे, जयकुमार आदि। 

इसके अतिरिक्त ऊपर आए दिनांक 3.12.70 अंक के समाचार ‘निर्देशक श्री निर्जन तिवारी से भेंट-वार्ता‘ में बताया गया है कि फिलहाल फिल्म के केवल 4 प्रिंट तैयार होंगे। ... ... ... श्री तिवारी ने बताया कि उन्हें स्थानीय कलाकारों से जिन्होंने कैमरे का कभी मुंह नहीं देखा था, न केवल सराहनीय सहयोग मिला बल्कि उनके निष्ठा पूर्ण कार्यों से उन्हें भरपूर संतोष भी हुआ। उन्होंने कहा कि कुछ कलाकारों का अभिनय तो इतना मर्मस्पर्शी, नयापन और खुलापन लिए हुए है कि वे अनुभवी, व्यवसायी कलाकारों को भी पछाड़ सकते हैं। निश्चय ही यह फिल्म छत्तीसगढ़ के नये कलाकारों को नई प्रेरणा प्रदान करेगी। ... ... ... दिनांक 29 नवंबर को होटल नटराज में एक प्रेस वार्ता में श्री तिवारी ने बताया कि फिल्म की लागत लगभग दो लाख रुपये है और इसकी लंबाई 14 है। उन्होंने बताया कि वे शीघ्र ही एक हिंदी फिल्म स्थानीय कलाकारों के सहयोग से बनाने की घोषणा करेंगे। पत्रकारों ने फिल्म के गीत सुने और उन्हें पसंद किया। श्री तिवारी ने सराईपाली के कुमार साहबों- श्री बीरेंद्रकुमार सिंह और श्री महेंद्रकुमार सिंह जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त किया जिन्होंने शूटिंग के समय हर प्रकार का सहयोग प्रदान किया। ... ... ... फिल्म छत्तीसगढ़ के चार बड़े शहरों में एक साथ रिलीज होगी दयाल फिल्म रायपुर फिल्म के वितरक हैं।

Saturday, September 3, 2022

दानीपारा शिलालेख-1969

पिछली पोस्ट, दानीपारा शिलालेख-2006 की पाद टिप्पणी 6 में विष्णुसिंह ठाकुर की पुस्तक ‘राजिम‘ में आए उल्लेख के आधार पर इस शिलालेख के राष्ट्रबंधु साप्ताहिक के दीपावली विशेषांक में संक्षिप्त प्रकाशन का लेख किया गया है। इस संदर्भ को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रबंधु पत्र के संपादक श्री हरि ठाकुर के पुत्र श्री आशीष सिंह के सत्प्रयासों से उपलब्ध कराई गई सामग्री को उनकी सहमति उपरांत यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

उल्लेखनीय कि राष्ट्रबंधु साप्ताहिक में इस शिलालेख की प्राप्ति पहले समाचार के रूप में प्रकाशित हुई थी और उसके पश्चात लेख के रूप में। राष्ट्रबंधु में प्रकाशित लेख में शिलालेख के चर्चा या प्रकाश में आने की पृष्ठभूमि की भी जानकारी मिलती है। प्रथम दृष्टया लिपि के आधार पर शिलालेख का काल बारहवीं शताब्दी अनुमान किया गया था, किंतु संपादन करते हुए तिथि, पंद्रहवीं शती निर्धारित की गई। यहां प्रस्तुत करते हुए जानकारी अद्यतन करना समीचीन होगा कि लेख में आए नाम श्री कृष्ण कुमार जी दानी, के तीन पुत्र (स्व.) अनिरुद्ध दानी, विजय दानी, अजय दानी (अजय माला प्रकाशन वाले) हुए। अपनी सीमा में मेरे द्वारा शिलालेख की वर्तमान स्थिति जानने और फोटो लेने के प्रयास में पता लगा कि वर्तमान में दानीपारा वाले उक्त मकान में परिवार के सदस्य निवास नहीं कर रहे है। इस भूमिका के साथ, राष्ट्रबंधु में प्रकाशित दोनों अंश-

राष्ट्रबंधु साप्ताहिक, रायपुर के दिनांक 17-4-69 में ‘बारहवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त‘ - ‘रायपुर नगर की प्राचीनता पर नया प्रकाश‘ शीर्षक से प्रकाशित समाचार-

रायपुर के दानीपारा में इसी सप्ताह एक ऐसे महत्वपूर्ण शिलालेख को जानकारी मिली है जिसे लिपि के आधार पर बारहवीं शताब्दी का माना जा रहा है। पुरातत्व के प्रकांड विद्वान श्री बालचन्द्र जैन को ज्यों ही इस शिला लेख की सूचना मिली, वे स्थल पर पहुंच गये किन्तु उनके पास उस शिला लेख की छाप लेने की सामग्री नहीं थी। उन्होंने स्थानीय म्युजियम के अधिकारी से इस संबंध में सामग्री मांगी किन्तु उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। इस दन्तनिपोरी के पश्चात श्री जैन ने किसी प्रकार शिलालेख का छाप ले ली है और जहां तक वे उसे पढ़ पाने में सफल हुए हैं उससे ज्ञांत होता है कि यह शिलालेख बारहवीं शताब्दी का है। इस शिलालेख में रायपुर, राजिम तथा आरंग में विभिन्न निर्माण कार्याे का उल्लेख है। इस शिलालेख की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गोठाली नामक स्थान का भी उल्लेख है। इस स्थान का उल्लेख रतनपुर के शिलालेख में भी मिलता है। शिला लेख में सेनापति तथा प्रमुख वंशों के पुरुषों के नाम भी आये हैं।

शिलालेख के नीचे का भाग टूट गया है और अप्राप्य है। किन्तु जितना भी हिस्सा उपलब्ध है उससे यह स्पष्ट है कि रायपुर नगर चौदहवीं शताब्दी से पूर्व बस गया था। इस सम्बन्ध में जब तक प्राप्त सूचनाओं के आधार पर रायपुर में प्राप्त यह प्राचीनतम शिलालेख कहा जा सकता यदि हरिठाकुर को प्राप्त शिलालेख को छोड़ दिया जाये।

राष्ट्रबंधु साप्ताहिक, रायपुर के दीपावली विशेषांक, दिनांक 6-11.69 में श्री बालचन्द जैन लिखित लेख-

पन्द्रहवीं शताब्दी
रायपुर में प्राप्त
एक अप्रकाशित शिलालेख 
लेखक- श्री बालचन्द्र जैन

प्रस्तुत शिलालेख श्री कृष्ण कुमार जी दानी के दानीपारा (रायपुर) स्थित घर में रखा हुआ है। पहले यह उनके पुराने मकान की एक मोटी दीवाल में जड़ा हुआ था। पर जब उस मकान का पुनर्निर्माण कराया गया तो शिलालेख को वहां से हटाकर मकान के आंगन में लाकर रख दिया गया और तब से वह वही रखा हुआ है। लेखयुक्त प्रस्तर खंड की चौड़ाई 55 से.मी. और ऊंचाई 45 से.मी. है।

लेख में चौदह पंक्तियां हैं जो 40 से.मी. चौड़े और 29 से.मी. ऊंचे स्थान में उत्कीर्ण है। लेख की ऊपरली दो पंक्तियों के प्रारंभ का आधा भाग क्षत हो जाने के कारण वह भाग पढ़ा नहीं जा सकता। उसी प्रकार सबसे नीचे की पंक्ति के लगभग सभी अक्षरों का निचला भाग क्षतिग्रस्त है। बाकी पूरा लेख अच्छी हालत में है। अक्षर साफ, सुडौल हैं।

लेख की लिपि नागरी है। उसमें तिथि तो नहीं पड़ी है पर अक्षरों की बनावट के आधार पर उसे पंद्रहवीं शती ईसवी का अनुमान किया जा सकता है। शिलालेख की भाषा संस्कृत है प्रारंभ में ‘‘श्री गणेशाय नमः‘‘ और अंत में ‘‘मंगल‘‘ को छोड़कर बाकी पूरी रचना छन्दोबद्ध है। कुल श्लोक दस हैं और उन पर क्रमांक पड़े हुए हैं। तीसरे श्लोक के अंत में भूल से क्रमांक 2 पड़ गया है किंतु आगे के श्लोकों में वह भूल सुधार ली गई है। पहले और तीसरे से लेकर आठवें श्लोकों की रचना अनुष्टुप छंद में की गई है। बाकी तीन श्लोक अर्थात 2, 9 और 10 शार्दूलविक्रीड़ित छंद में हैं। ध्यान देने की बात है कि तीसरा श्लोक में छह चरण है। ऐसे उदाहरण पौराणिक काव्यों में पाए जाते हैं। रायपुर में ही प्राप्त हुए एक दूसरे शिलालेख कलचुरी वंश के राजा ब्रह्मदेव के राज्य काल में विक्रम संवत 1458 में लिखा था। प्रस्तुत लेख में ब के स्थान पर सर्वत्र व अक्षर लिखा गया है। पंक्ति 6 में चंद्रशेखर के ख के स्थान पर रट्ट और उसी प्रकार पंक्ति चार में द्वि के स्थान पर द्धि उत्कीर्ण है। श्लोकों के द्वितीय चरणों के अंत में भी दो दण्डों का प्रयोग किया गया है जबकि एक दंड का ही प्रयोग होना चाहिए था। श्लोकों के अंत में आने वाले म् को भी अनावश्यक रूप से अनुस्वार में परिवर्तित किया गया है।

इस प्रशस्ति में पीलाराय नामक व्यक्ति के चार पुत्रों द्वारा विभिन्न स्थानों पर कराए गए पुण्य कार्यों का विवरण दिया गया है। प्रशस्ति के प्रारंभ में गणेश जी को नमस्कार किया गया है। उसके बाद प्रथम श्लोक में किसी देवी की वंदना है। लेख का अंश खंडित हो जाने के कारण देवी का नाम नहीं मिलता पर संभवतः वह सरस्वती है। दूसरे श्लोक में शिवदास का उल्लेख मिलता है। उनके दो पुत्र थे, एक पीलाराय और दूसरा प्राणनाथ। तीसरे श्लोक में पीलाराय के चार पुत्रों के नाम गिनाए गए हैं और बताया गया है कि वे सभी धर्म तत्पर तथा गो-ब्राह्मणों के सेवक थे। पीलाराय के ज्येष्ठ पुत्र दरियाव के गोठाली नाम का एक रमणीक सरोवर खुदवाया था, चंद्रशेखर (शिव) के मंदिर का निर्माण कराया था और अत्यंत मनोहर बगीचा लगवाया था। ये सभी कार्य रायपुर में कराए गए थे जैसा कि पांचवें श्लोक से जान पड़ता है क्योंकि उस श्लोक में बतलाया गया है कि उस ज्ञानी और परमार्थी दरियाव ने ही रायपुर में राम भक्त मारुति (हनुमान) के मंदिर का भी निर्माण कराया था। छठे श्लोक में कहा गया है कि दरियाव से छोटे तेजीराज ने रायपुर में ही पाटी नाम का एक सुंदर स्वच्छ सुविख्यात और भव्य सरोवर खुदवाया था। तीसरे भाई महाराज (शुद्ध नाम महाराज) ने अपने पुण्य कार्यों को राजिम और आरंग में केंद्रित किया। सातवें और आठवें श्लोक से विदित होता है कि उसने राजीवनयन नामक स्थान में एक जगन्नाथ जी का मंदिर और एक खूब मजबूत शिव मंदिर का निर्माण कराया तथा उसी प्रकार का आरिंग ग्राम में प्रफुल्ल कमलों से सुशोभित सरोवर और महामाया का मंदिर बनवाया।

प्रशस्ति के नौवें श्लोक में कनिष्ठ भ्राता मधुसूदन के गुणों की प्रशंसा की गई है। उसके द्वारा कराए गए निर्माण कार्यों का उल्लेख संभवतः दसवें श्लोक में कहा हो पर शिलालेख ही अंतिम पंक्ति अपाठ्य होने के कारण वह ज्ञात नहीं हो सका है। इस प्रशस्ति की रचना महेश्वर नामक पंडित ने की थी। उसने सभी प्रकार की विद्याएं प्राप्त कर ली थीं। दसवें श्लोक में रायपुर नगर की प्रशंसा की गई है। प्रशस्ति का पूरा पाठ नीचे दिया जा रहा है। इसे मैंने रायपुर के सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर श्री दिलीप विरदी द्वारा उतारे गए फोटोग्राफ से पढ़ा है।

(प्रशस्ति का पाठ चित्र में देख सकते हैं, पृथक से नहीं दिया जा रहा है।)

बालचन्द्र जैन जी का अंगरेजी में प्रकाशित शोध-लेख


Friday, January 14, 2022

मुकुट-प्यारे-हरि

हरि ठाकुर, छत्तीसगढ़-गौरव के शोध, लेखन, प्रकाशन जैसे सभी क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहे। इतिहास को कण-कण समेटने के लिए उनका उद्यम लाजवाब और व्यग्रता अनूठी थी, लेकिन इसके इस्तेमाल में वे संयत रहते थे। इसके ढेरों प्रमाण अब भी उनके योग्य उत्तराधिकारी पुत्र आशीष सिंह सहेजे हुए हैं। यह भूमिका, हरि ठाकुर की लिखावट वाले यहां प्रस्तुत किए जा रहे 7 पृष्ठों के दस्तावेज के लिए है।

यह दस्तावेज मुकुटधर पांडेय द्वारा प्यारेलाल गुप्त को सन 1963 में लिखे पत्र की प्रतिलिपि है। गुप्त जी अपनी संकलित सामग्री, पत्रों आदि की चर्चा ठाकुर जी से करते, उन्हें दिखलाते और ऐसी किसी भी सामग्री की नकल उतार कर उसे सुरक्षित करने में ठाकुर जी देर नहीं करते। यह पत्र उसी का एक नमूना है।

यों तो पत्र का मजमून, गंभीर शोध-आलेख से कम नहीं, जिस पर पूरी टीका लिखी जानी चाहिए, किंतु यहां कुछ बिंदुओं का उल्लेख समीचीन होगा। छत्तीसगढ़-उड़ीसा संबंधों और इतिहास की दृष्टि से रायगढ़-संबलपुर के साथ सारंगढ़ का विशेष महत्व है। इस दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथों ‘सम्बलपुर इतिहास‘ और ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेख पत्र में आया है। वे ‘पूज्याग्रज‘ संबोधन, पं. लोचन प्रसाद पांडेय जी के लिए प्रयोग करते थे।

प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में लिखी जाने वाली हिन्दी की रोचक चर्चा है, जिसमें 2 ताम्रपत्रों की प्रतिलिपियां भेजने का उल्लेख है। ये ताम्रपत्र संभवतः वही हैं, जो सारंगढ़ में होने की जानकारी अन्य स्रोतों से मिलती है। (मेरे द्वारा इस संबंध में बहुत पहले प्रयास किया जा रहा है, लेकिन सफलता अब तक नहीं मिली है।)

अठारहवीं सदी मध्य अर्थात् रतनपुर राज पर मराठा भोंसलों के आधिपत्य के पूर्व रतनपुर-सम्बलपुर के तनाव और राजनैतिक षड़यंत्र, अस्थिरता का उल्लेख आया है। इस दौर के इतिहास में सारंगढ़-रायगढ़ राजा की भूमिका का महत्व भी उजागर हुआ है।

रोचक यह भी कि इस लंबे गंभीर शोध-सूचनापूर्ण पत्र का समापन करते हुए लिखा गया है कि- ‘‘इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा।‘‘ और ‘‘लिखते २ थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।‘‘

अपनी ओर से मेरी बात बस इतनी कि धन्य हमारे ऐसे पुरखे। (प्रसंगवश पत्रिका ‘हमर छत्तीसगढ़‘ का अंक-3, जनवरी-दिसंबर 2003 मुकुटधर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित था, जिसमें डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने अपने लेख में बताया है कि पाण्डेय जी द्वारा 1959 से 1975 के मध्य प्यारेलाल गुप्त जी को लिखे गए लगभग 121 पत्रों को मैंने पढ़ा‘ इस पर श्री मिश्र से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि उनके पास पं. मुकुटधर के बहुत से पत्रों का संग्रह सुरक्षित है, मैंने उनसे निवेदन किया है कि उसे सुरक्षित और सार्वजनिक करने के लिए डिजिटाइज कर वेब पर लाना आवश्यक मानता हूं और इसमें उन्हें मेरे सहयोग की आवश्यकता हो तो मैं सहर्ष तैयार रहूंगा।)

आगे पत्र का पूरा मजमून-

श्रीराम
रायगढ़
२-१०-६३

मान्यवर गुप्त जी,

७-९ का कार्ड कल मिला। कल रात को डा. शर्मा ने उडिया भाषा में प्रकाशित सम्बलपुर इतिहास नामक पुस्तक ला कर दी जिसकी पृष्ठ संख्या ६४० है। लेखक हैं श्री शिवप्रसाद दाश B.A. M.Ed. विश्व भारती प्रेस सम्बलपुर में सन् १९६२ में प्रथम बार मुद्रित हुई है। कीमत है १५) । ये शिवप्रसाद दाश जी वही हैं जिनका नामोल्लेख स्व. पूज्याग्रज की जीवनी में ”सुधी समादर” के शीर्ष में हुआ है। वे सन् १९२४ में अपने इसी ग्रंथ के संबंध में ‘जयचंद्रिका‘ काव्य की नकल लेने को बालपुर पधारे थे। ‘जयचंद्रिका‘ का उल्लेव ग्रंथ में अनेक स्थलों पर हुआ है पर ग्रन्थकार ने पूज्याग्रज का नामोल्लेलख कहीं नहीं किया है जिनके द्वारा जयचंद्रिका पहले-पहल उन्हें देखने को मिली। खैर! प्रायः ४० वर्ष के उनके परिश्रम का फल है यह ग्रंथ। लगभग सौ पुस्तकों से उन्होंने सहायता ली है जिनका नामोल्लेख अंत में किया है, लेखक ने परिश्रम बहुत किया है, तभी ऐसे ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं।

आपको आश्चर्य होगा, मैंने सरसरी तौर से कल रात को ही १२ बजे तक पूरी किताब देख ली जो बातें आपके मतलब की मिलीं, लिख रहा हूं-

(१) प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में कैसी हिन्दी लिखी जाती थी ‘शीर्षक‘ लेख के काम की दो चीजें मिली- २ ताम्रपत्र जिनकी प्रतिलिपियॉं भेज रहा हूं। इनमें से एक-रतनपुर के राजा राजसिंह के पत्र का समसामयिक है। राजसिंह का पत्र संवत् १७४५ का है, छत्रसाय का लेख संवत १७४७ का। रतनपुर और सम्बलपुर में लगभग ६० कोस का अन्तर है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इनका अध्ययन बड़ा मजेदार होगा। बस्तर वाला लेख संवत् १७६० का है। दूसरा ताम्रपत्र जैतसिंह का लगभग ८० वर्ष पीछे का है संवत् १८३८ का। अब आपको ४ प्राचीन लेख मिल गए - चारों प्रामाणिक। इन ताम्रपत्रों से तो प्रमाणित होता है कि उस समय सम्बलपुर (उड़ीसा हीराखंड) की राजभाषा हिन्दी थी।

(२) इस ग्रंथ के द्वारा पता चलता है कि सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय की (सं. १७४७ के लगभग) जिनके ताम्रपत्र का जिक्र उपर आया है, १२ रानियां थीं। रतनपुर की हैहय राजकुमारी उनकी अन्यतमा महिषी थीं। इस रानी के गर्भ से बूढ़ा राय का इस जन्म हुआ। नवजात शिशु को देखने के लिए रतनपुर राजा सम्बलपुर गये थे (राजा का नाम नहीं दिया है पर संवत् १७४७ के लगभग रामसिंह रतनपुर के राजा थे जिनका पत्र सं० १७४५ का लभ्य है, यह स्पष्ट है।) रत्नपुर की राजकुमारी पुरुषोत्तम सिंह और मान मिश्र नामक दो राजकर्मचारियों को बहुत मानती थी। अन्यान्य कर्मचारी उनसे ईर्ष्या करते थे। उन्होंने राजा छत्रसाय से चुगली खाई कि रतनपुर के राजा और राजकुमारी बूढ़ाराय को गद्दी पर बिठाने का षड़यन्त्र कर रही हैं। उन्होंने जालसाजी द्वारा मिथ्या आरोप को प्रमाणित कर दिया। इस पर राजा ने माता-पुत्र को जीवन्त समाधि का दण्ड दिया। खबर पा कर रत्नपुर के राजा बड़े क्रुद्ध हुए। उन्होंने नागपुर के भोंसलों की सहायता से सम्बलपुर पर आक्रमण कर छत्रसाय को बन्दी बनाया। छत्रसाय क्षमा-भिक्षा मांगने पर मुक्त हुए। उन्होंने शेष जीवन पुरी क्षेत्र में व्यतीत कर पाप का प्रायश्चित किया। पुरी में उनकी मृत्यु हुई।

ज्ञातव्य यह है कि क्या रतनपुर के इतिहास से इन बातों की पुष्टि होती है?

(३) रायगढ़ और सारंगढ़ के केवल उन्हीं राजाओं का उल्लेख यहां पाया जाता है जिनका सम्बलपुर के इतिहास से सम्बंध रहा है, यों वे सम्बलपुर के करद राजा थे, अठारह गढ़ों में सारंगढ़ और रायगढ़ भी थे।

सारंगढ़ के राजा बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने २ बार सम्बलपुर के महाराजाओं को राज्य-भ्रष्ट होने पर उनका सहाय्य कर उन्हें फिर से गद्दी पर बिठाया। वे पहले देवान कहलाते थे।

(अ) नरवर राय के पुत्र भीखराय देवान ने महाराजा बलभद्र साय के लिए बौत्नू-विजय करके उनसे ‘सोहागपुर सरखों‘ नामक १२ गॉंव पुरस्कार में प्राप्त किए थे। भीखराय देवान ने संवत् १६२४ से १६४४ तक राज्य किया था।

(ब) सम्बलपुर के महाराजा छत्रसाय के समय सैनिकों ने विद्रोह कर राजधानी को हस्तगत कर लिया। छत्रसाय अपने पुत्र अजित सिंह को साथ लेकर सारंगढ़ आए। उस समय उद्योतसाय सारंगढ़ के देवान थे। सैनिक विद्रोह का हाल पा कर उन्होंने अविलम्ब अपनी सेना सज्जित कर महाराजा सहित उत्तराभिमुख यात्रा की। वे रायगढ़ पहुंचे रायगढ़ में उस समय ठाकुर दुर्जय सिंह सम्बलपुर के सहायक सामन्त राजा थे। उन्होंने भी अपनी सेना उनके साथ कर दी। सारंगढ़ और रायगढ़ की सेना ने मिलकर सम्बलपुर के सैनिक विद्रोह का दमन किया। महाराजा छत्रसाय ने प्रसन्न होकर किकरदा परगने से ४२ गांव उद्योतसाय को ताम्रपत्र के द्वारा पुरस्कार में दिए। (संवत् १७१७)

(स) सबलपुर के राजा जैतसिंह के समय अकबर राय दीवान सर्वेसर्वा बन गया। महाराजा उसके भय से मंडला भाग गए। सारंगढ़ के राजा विश्वनाथ साय अपनी सेना लेकर सम्बलपुर गये। अकबर राय देवान को मार कर जैतसिंह को फिर से गद्दी पर बिठाया। तब उन्हें सरिया का परगना इनाम में मिला। इसका प्रमाण जैतसिंह द्वारा प्रदत्त सं० १८३८ का ताम्रपत्र है।

(4) रायगढ़ के सम्बंध में इतना ही लिखा है- ‘‘ठाकुर दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाय के समय सम्बलपुर के सहायक सामंत राजा थे। वे गौड़ (गोंड) वंश के थे। छत्रसाय ने उन्हें राजा की उपाधि दी थी। दुर्जय सिंह के पूर्व पुरुष नागपुर के अन्तर्गत बैरागढ़ (चांदा?) से आकर प्रथम फुलझर में रहे, उसके बाद सारंगढ़ और अंत में, रायगढ़ आए जहां उन्होंने अपने वंश की प्रतिष्ठा की। परवर्ती काल में रायगढ़ के राजा को बरगड़ का परगना भी प्राप्त हो गया। बाज पक्षी इनका वंश या राजचिन्ह है।

मदनसिंह1 जिसका जिक्र आपने अपने कार्ड में किया है दुर्जय सिंह के पहले हुए या पीछे। मदन सिंह का काल निर्णय पं. ज्वा. प्र. मिश्र ने यदि किया होगा तो पता चलेगा। दुर्जय सिंह महाराजा छत्रसाल के समय थे जिनका काल संवत् १७४७ के लगभग है।
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रायगढ़ के राजवंश के संबंध में मुझे इतनी और जानकारी है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज्य जब बंगाल और नागपुर में भोसलों का राज्य था तब राजा जुझार सिंह के समय रायगढ़ का राज्य बड़ा शक्तिशाली था। वह उन दोनों बड़े राज्यों के मध्य में Buffer State के समान था। जुझार सिंह के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी की संधि हुई थी। जुझार सिंह ने ही शायद बरगड़ का किला सर किया था। रायगढ़ राज्य की खरसिया तहसील में बरगड़ का परगना है। मैं जब राजशाही में दण्डाधिकारी था मैंने बरगड़ परगने का दौरा किया था, तभी बरगड़ के कुछ भग्नावशेषों को जा कर देखा था।

जुझार सिंह का समय क्या है, नहीं कह सकता। पं. ज्वा. प्र. जी ने शायद कुछ जानकारी दी हो। इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम। जानिएगा। लिखते 2 थक गया हूं। विशेष विनय लिखने को और कुछ है भी नहीं।

आपका
मुकुटधर

सारंगढ़ के किसी ऐसे सज्जन का नाम मुझे नहीं मालूम जो आपको आवश्यक जानकारी दे सके।


मुकुटधर पांडेय जी का एक अन्य पत्र, जिसका महत्व स्वयं स्पष्ट है-
पोस्ट कार्ड पर रायगढ़ डाकखाने की मुहर 23.1.88 की
तथा अंबिकापुर 28.1.88 की है।

श्रीराम

रायगढ़ 22-1-88

(ठीक दिखता नहीं अन्दाज़ से लिख रहा हूं। जानिएगा।)

श्री छात्राएं
शासकीय कन्या उ.मा. शाला
अम्बिकापुर

आप लोगों का मुद्रित पत्र
प्राप्त हुआ। धन्यवाद।
आप लोगों को यह जान कर
दुःख होगा कि इस समय
(93 वर्ष की अवस्था में)
मोतियाबिन्दु से पीड़ित हूं-
आंखें काम नहीं कर रही हैं,
डा. ऑपरेशन की सलाह दे रहे हैं,
पशोपेश में हूं।

मुझे इस बात का अत्यन्त
खेद है कि मैं आप लोगों की
मांग पूरा करने में असमर्थ हूं।
मेरी बहुत सी कविताएं
संग्रह ग्रन्थों में आपको
मिलेंगी। आप उनमें से कोई

कविता अपने संग्रह के लिए
ले सकती हैं। मुझे कोई
आपत्ति नहीं। इस अवस्था में
चित्र भी भेजने में असमर्थ हूं,
क्षमा चाहता हूं।

प्रस्तावित संग्रह ग्रन्थ की
सफलता के लिए शुभकामना
सहित, आप लोगों का

मुकुटधर पाण्डेय

श्री छात्राएं
द्वारा प्राचार्य
शा.क.उ.मा. शाला
अम्बिकापुर (म.प्र.)
---
हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास की लिए उनकी शुभाशंसा का नमूना भी उल्लेखनीय है-

‘मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता यह है कि अवधिया जी ने ‘धान के देश में‘ नाम देकर पहली बार उपन्यास को रचना की है। उपन्यास रचना में उन्हें कितनी सफलता हुई है इसका निर्णय तो सुविज्ञ आलोचक और मर्मज्ञ पाठक ही करेंगे। अवधिया जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते। मैं तो यही कहूँगा कि उनकी इस प्रथम कृति से मुझे असन्तोष नहीं हुआ है। मुझे यह आशा भी है कि जब वे अन्य उपन्यास लिखेंगे तो उन्हें उत्तरोत्तर अधिक से अधिक सफलता प्राप्त होगी।‘
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Saturday, October 9, 2021

सुराजी

आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर हरि ठाकुर स्मारक संस्थान से ‘हमर सुराजी‘ का प्रकाशन पिछले दिनों हुआ है। इसमें छत्तीसगढ़ के नौ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों- गैंद सिंह, वीर नारायण सिंह, हनुमान सिंह, गुण्डा धूर पं. सुंदरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डा. खूबचंद बघेल, क्रांति कुमार भारतीय और परसराम सोनी का जीवन-वृत्तांत है। पुस्तक में हरि ठाकुर जी के लेखों का अंगरेजी भावानुवाद अशोक तिवारी जी द्वारा किया गया है और आशीष सिंह ने उनका छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतरण किया है। भाई आशीष से इस पुस्तक की पाण्डुलिपि देखने का अवसर मुझे मिला तब इस पर मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने लिख कर देने का कहा, वह अब इस पुस्तक में शामिल है, इस तरह-

पहला भी, अनूठा भी

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं, करि विचार देखहु मन माहीं।।

गोस्वामी तुलसीदास की ये पंक्तियां मानों अग्निमंत्र हैं। पं. माधवराव सप्रे ने ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के उपाय‘ में स्वावलंबन शीर्षक में बात आरंभ करने के लिए इन्हीं पंक्तियों को आधार बनाया है। सन 1908 में परिस्थितिवश उन्होंने सरकार से क्षमा मांगी और पश्चातापग्रस्त रहे। किंतु इससे उबरने के लिए उन्होंने श्रीसमर्थरामदासस्वामी कृत मराठी ‘दासबोध‘ का हिन्दी अनुवाद किया। दासबोध के कुछ शीर्षक ध्यान देने योग्य हैं- राजनैतिक दांवपेंच, अभागी के लक्षण, भाग्यवान के लक्षण, राजनीति का व्यवहार आदि। सप्रे जी ने भूमिका में लिखा कि ‘इसमें ऐसी अनेक बातें बताई गई हैं जो आत्मा, व्यक्ति, समाज और देश के हित की दृष्टि से विचार करने तथा कार्य में परिणत करने योग्य हैं।‘ यह आसानी से देखा जा सकता है कि रामकथा हो या दासबोध, संतवाणी हो या राजनय संहिता, हमारी परंपरा में ऐसी रचनाओं, उनकी टीका-व्याख्या का उद्देश्य सदैव सुराज रहा है।

ऐसा ही एक प्रसंग सन 1934 का है, जब क्रांतिकुमार भारतीय ने बेमेतरा में गणेशोत्सव के अवसर पर रामायण के भरत मिलाप प्रसंग को सही मायने में सुराज, संदर्भ लिया था। उन्होंने कहा कि मातृभूमि की सेवा और स्वाधीनता के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। इस मौके पर उन्होंने सिविल नाफरमानी, सेना के लिए किए जाने वाले गौ-वध, स्वदेशी, छुआ-छूत और नशा-मुक्ति की बातें भी कहीं। उल्लेखनीय है कि अप्रैल 1934 में ’नेशनल वीक’ के दौरान नागपुर में क्रांतिकुमार भारतीय के प्रवचन-भाषणों को राजद्रोह प्रकृति का मान कर उन्हें चालान किया गया। उनका लिखित बयान दाखिल कराया गया, जिसमें उन्होंने (चतुराईपूर्वक) कहा था कि वे रामायण प्रवचन करते रहेंगे, लेकिन भविष्य में शासन विरोधी अथवा राजद्रोह के भाषण नहीं करेंगे।

बैरिस्टर साहब, ठाकुर छेदीलाल ने अकलतरा में सन 1919 में रामलीला मंडली की स्थापना की, 1924 से 1929 तक व्यवधान रहा इसके बाद 1933 तक अकलतरा रामलीला की पूरे इलाके में धूम होती थी। अकलतरा के रंगमंच में पारम्परिकता से अधिक व्यापक लोक सम्पर्क तथा अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध अभिव्यक्ति उद्देश्य था। इसका एक दस्तावेजी प्रमाण, लाल साहब डा. इन्द्रजीत सिंह की निजी डायरी से मिलता है कि सन 1931 में 23 से 26 अप्रैल यानि वैशाख शुक्ल पंचमी से अष्टमी तक क्रमशः लंकादहन, शक्तीलीला, वधलीला और राजगद्दी नाटकों का यहां मंचन हुआ। कहना न होगा कि इन सभी नाटकों का चयन संवाद और प्रस्तुति शैली सोद्देश्य सुराजी होती थी।

छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सुराज में स्व-राज और सु-राज, दोनों को लगभग समान आवश्यक माना। हमारे ये पुरखे, एक ओर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते रहे वहीं सुशासन के प्रति भी सजग रहे। ब्रिटिश हुकूमत, राज्य-व्यवस्था का ढोंग करते हुए हमें गुलाम बनाए रखना चाहती थी, उसकी मानसिकता उपनिवेशवादी थी और प्राथमिक उद्देश्य भारत जैसे ‘सोने की चिड़िया‘ को गुलाम बनाए रखते शोषण, दोहन करते रहना। इसके लिए बर्बरता और क्रूरता का सहारा लेने में उन्हें तनिक भी देर न लगती थी।

हमारे पुरखे स्व-राजियों ने हमारी परंपरा के सु-राज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। इस भावना की मुखर अभिव्यक्ति गांधी में हुई। हमारी स्वाधीनता के रास्ते में रोड़े पैदा करने वाले तत्वों- धर्म, जाति-वर्ग, भाषा, प्रांत के भेद और सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास को दूर करने के लिए सदैव उद्यत रहे। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा देशी रियासतों को दिए जा रहे महत्व के बावजूद, राष्ट्रवादी विचार और नेता प्रभावी होते गए। नेहरू, टैगोर, बोस, जिन्ना, अंबेडकर, राजगोपालाचारी जेसे नेताओं से मतभेदों के बावजूद समावेशी गांधी ने साध्य और साधन की पवित्रता और तात्कालिक स्व-राज के साथ सु-राज के वृहत्तर और दूरगामी लक्ष्य को कभी ओझल होने नहीं दिया। यही कारण था कि उन्होंने देश की आजादी के जश्न में स्वयं के शामिल होने को जरूरी नहीं समझा और उस मौके पर हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में लगे रहे।

‘हमर सुराजी‘ शीर्षक इस पुस्तक में स्वाधीनता संग्राम के नौ सेनानियों के जीवन-पक्ष अनूठे स्वरूप में उद्घाटित हो रहे हैं। काल की दृष्टि से इनमें 1857 के बहुत पहले, पिछड़े समझे जाने वाले परलकोट-बस्तर क्षेत्र के गैंदसिंह हैं, जिन्होंने जनजातीय दमन और अत्याचार के विरोध का बिगुल फूंका था। दूसरी तरफ डॉ. खूबचंद बघेल, जिन्होंने आजादी के बाद भी स्वाधीनता को सुराज में बदलने के लिए कोई कसर न रखी। ये सभी सेनानी वास्तव में छत्तीसगढ़ी अस्मिता के नवरत्न हैं।

छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा के प्रखर स्वर हरि ठाकुर की कलम ने इन पुरखों और उनके जीवन-संग्राम को अमर बनाया है, जिनका संकलन इस पुस्तक में प्रकाशित किया जा रहा है। किन्तु खास बात यह है कि इन सेनानियों के जीवन-वृत्तांत को मूल के साथ सुगम और प्रवाहमयी अंग्रेजी में भी प्रस्तुत किया जा रहा है और हमारे इन अस्मिता पुरुषों के जीवन-पक्षों को जीवंत-प्रभावी बनाने के लिए नाट्य रूपांतर भी किया गया है। इस दृष्टि से यह प्रकाशन आपने आप में न सिर्फ अनूठा, बल्कि संभवतः पहला भी है। निसंदेह, इस विशिष्ट स्वरूप से इसकी उपयोगिता और इसका महत्व बहुगुणित है।

हमारे इन सुराजियों का स्मरण और उनकी इस गांधी-अभिव्यक्ति की सार्थक प्रासंगिकता, उनकी प्रेरणा में है कि स्व-राज का लक्ष्य पा लेने के साथ सु-राज के लिए हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यही सुराज, जो दीर्धकालीन, बल्कि सतत प्रक्रिया है, वास्तविक रामराज्य है। इसके लिए हमें सजग और सक्रिय रखने की कड़ी में यह दस्तावेज, एक प्रकाश-स्तंभ, हमारा पथ-प्रदर्शक हो सकता है।

Monday, September 20, 2021

हरि-रामकथा

राम के नाम पर कुछ ऐसे भी काम हुए हैं, होते रहे हैं, जिनके महत्व के अनुरूप चर्चा नहीं होती, इसका एक कारण ऐसी जानकारी का सार्वजनिक, सहज उपलब्ध न होना है। राम वनगमन पथ की योजना मूर्त रूप ले रही है, तो हमारे सामूहिक-चेतना में बसे राम का स्मरण भी आवश्यक है। इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आरंभिक दिनों तक स्वधारित उत्तरदायित्व वहन करने वाले मनीषी हरि ठाकुर जी का यह लेख और सूची, उनके पुत्र आशीष सिंह जी की अनुमति से प्रस्तुत है-

छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास
- हरि ठाकुर

छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास अत्यंत प्राचीन काल से हो रहा है। रामकथा के रचयिता आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम तुरतुरिया में था, ऐसा उल्लेख रायपुर जिला गजेटियर तथा अन्य ग्रंथों में है। कुश तथा लव का जन्म स्थान तुरतुरिया को ही माना जाता है। इसी आश्रम में रामकथा का भी जन्म हुआ, ऐसा मानना अनुचित नहीं होगा। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में एक प्रसंग का उल्लेख है। भगवान श्रीराम द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में वाल्मीकि भी आमंत्रित थे। वाल्मीकि सीताजी के साथ कुश तथा लव को भी अपने साथ अयोध्या ले गये थे। वहां कुशल तथा लव ने वाल्मीकि के आदेश पर रामकथा का गायन किया था। भगवान श्रीराम ने इस कथा गायन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में ही इस बात के भी संकेत हैं कि इस क्षेत्र में राम कथा की एक लोक शैली भी प्रचलित थी। तात्पर्य यह कि छत्तीसगढ़ ही रामकथा की जन्मभूमि है। रामकथा का विकास यहीं से प्रारंभ होता है। इस तथ्य की पुष्टि में म.प्र. संस्कृत अकादमी के सचिव डा. भागचन्द्र जैन भागेन्दु का यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है - सम्पूर्ण रामायण वाड.मय का अधिकांश छत्तीसगढ़ केन्द्रित है। रायपुर में वाल्मीकि समारोह आयोजित करने के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा - रायपुर में आयोजन का ध्येय वाल्मीकि की छत्तीसगढ़ से जुड़ी यादों को पुनस्थापित करना था।

प्रसिद्ध इतिहासकार पार्जीटर, राधाकमल मुकर्जी, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, ठाकुर जगमोहन सिंह, प्रो. के.डी. बाजपेयी, पं. सुंदरलाल त्रिपाठी, डा. हीरालाल शुक्ल, डा. श्याम कुमार पाण्डेय आदि ने इस तथ्य का समर्थन किया है कि भगवान श्रीराम अपने वनवास काल में एक लम्बे समय तक इस क्षेत्र में रहे और यहीं से होते हुए वे आगे दण्डकारण्य गये। वैसे भी भगवान श्रीराम का इस क्षेत्र से रागात्मक संबंध था। उनकी माता महारानी कौशल्या का जन्म छत्तीसगढ़ में ही हुआ था। छत्तीसगढ़ भगवान श्रीराम का मामा घर है।
राम के महतारी कौसिल्या इहें के राजा के बिटिया।
हमर भाग कइसन हे बढ़िया इहें राम के ममिआरो॥

इस छत्तीसगढ़ी गीत में छत्तीसगढ़ के लोगों के पुरातन लोक-विश्वास की अभिव्यक्ति है। वास्तव में भगवान श्रीराम छत्तीसगढ़ की जनता को राक्षसों के उपद्रव और आतंक से मुक्त कराने आये थे। यही कारण है कि उनके जीवन काल में ही श्री राम छत्तीसगढ़ के लोगों के लिये जन-नायक बन गये थे। अपने मुक्तिदाता का चरित गान करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। निश्चय ही यह चरित गान लोक भाषा में मौखिक रूप से प्रचलित रहा होगा। महर्षि वाल्मीकि ने प्रथम बार इस चरित गायन को संस्कृत भाषा में छन्दोबद्ध किया। इसी ग्रंथ के माध्यम से रामकथा का प्रचार उत्तर भारत में हुआ। छत्तीसगढ़ में रामकथा का लोकभाषा में प्रारंभिक स्वरूप क्या था यह कहना कठिन है। ग्यारहवीं शताब्दी में सारंगढ़ से 35 कि.मी. दूर स्थित पुजारीपाली के एक प्राचीन मंदिर में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। इस लेख के रचयिता महाकवि नारायण थे। इस लेख में महाकवि नारायण द्वारा रचित रामाभ्युदय महाकाव्य की सूचना है। इस महाकाव्य की रचना संस्कृत में हुई थी। इस महाकाव्य के विषय में लिखा गया है कि यह काव्य अत्यंत रसमय और भव्य है। इस काव्य रचना से वाग्देवी इतनी प्रसन्न हो उठी कि वे वीणा बन गयी। दुर्भाग्यवश अभी तक न तो रामाभ्युदय महाकाव्य की पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है और महाकवि नारायण के विषय में कोई जानकारी प्राप्त है। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने संभावना व्यक्त की है - “This Narayan is stated to be the great-grand father of Vishwanath, the author of Santyadarshan."(कोसल कौमुद्री पृ. 332) तोसगांव (सराईपाली) निवासी गजाधर सतपथी द्वारा महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय को प्रदत्त हस्तलिखित ताड़पत्र पर रामायण ग्रंथ के अंश हैं। यह कितना प्राचीन है, यह अभी निश्चित नहीं किया गया है।

ग्यारहवीं शताब्दी के पश्चात् छत्तीसगढ़ में रामकथा पर आधारित किसी ग्रंथ का उल्लेख नहीं मिलता। लिखा भी गया होगा तो उसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं है। किन्तु, छत्तीसगढ़ में गांव-गांव में रामायण मण्डलियों की स्थापना और रामकथा के गायन की परम्परा निर्बाध रूप से चली आ रही है।

सत्रहवीं शताब्दी में रतनपुर के राजा राजसिंह के आश्रित महाकवि गोपाल ने चार महाकाव्यों की रचना की थी। उनमें से एक महाकाव्य राम प्रताप श्रीराम के चरित पर केन्द्रित है। महाकवि गोपाल की गणना आचार्य कवियों की श्रेणी में की जा सकती है। राम प्रताप महाकाव्य कवि के जीवन काल के अंतिम वर्षों की रचना है। ग्रंथ को पूर्ण करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। उसे उनके सुयोग्य पुत्र कवि माखन ने इस खूबी से पूरा किया कि पता ही नहीं चलता कि इस ग्रंथ का प्रणयन दो कवियों ने मिलकर किया है। इस ग्रंथ में 60 प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है जो गोपाल महाकवि को आचार्य केशवदास के समकक्ष प्रमाणित करता है।

भारतेन्दु युग के पूर्व छत्तीसगढ़ में आचार्य कवि रघुवर दयाल के तीन ग्रंथों का उल्लेख प्राप्त होता है- 1. राम विनोद 2. रामस्तव 3. रामलीलामृत । रामस्तव ग्रंथ में तीन छंद संस्कृत में तथा हिन्दी के दोहा, सांगृत, कवित्त, सवैया, कुंडलिया, झूलना तथा छप्पय छंदों का प्रयोग किया गया था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाबू पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के पितामह उमराव बख्शी द्वारा रचित रामकथा पर आधारित चार ग्रंथ -1. कवित्त रामायण 2. रामायण नाटक 3. जानकी पंचाशिका 4. हनुमन्नाटक उल्लेखनीय है। इसी युग के रतनपुर के महाकवि बाबू रेवाराम ने 1. रामाश्वमेध 2. सार रामायण दीपिका का प्रणयन किया। उनका यह दूसरा ग्रंथ संस्कृत में है। गोविद लाल साव (ग्राम सरिया सारंगढ़) ने सन 1867 में रामचरित मानस का उड़िया भाषा में अनुवाद किया था।

भारतेन्दु युग में ठाकुर भोला सिंह बघेल द्वारा रचित सचित्र ताश रामायण तथा तत्व ज्ञान रामायण उल्लेखनीय हैं। सचित्र ताश रामायण की मूल पाण्डुलिपि मैंने देखी थी। ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रिय शिष्य पं. मालिकराम त्रिवेदी (भोगहा) शबरीनारायण निवासी थे। उन्होंने राम वियोग नाटक की रचना की थी महापहोपाध्याय बाबू जगन्नाथप्रसाद भानु का तो रामकथा पर अद्भुत अधिकार था। उन्होंने रामायण प्रश्नोत्तरी, श्रीरामायण वर्णमाला. तथा नवपंचामृत रामायण नामक ग्रंथों की रचना की। उनके दो ग्रंथ तुलसी तत्व प्रकाश तथा तुलसी भाव प्रकाश भी रामचरित मानस पर आधारित हैं। रनतपुर निवासी पं. तेजनाथ शास्त्री ने सन 1895 में संस्कृत में रामायण सार संग्रह नामक ग्रंथ का प्रणयन किया।

द्विवेदी युग तथा उसके बाद राम कथा पर आधारित कई ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। पं. शिवशंकर दीक्षित, बिलासपुर ने सन 1914 में कौसल किशोर नामक ग्रंथ की रचना की। डा. बलदेव प्रसाद मिश्र द्वारा रचित तीन ग्रंथ कोशल किशोर, साकेत संत, तथा रामराज्य पर्याप्त प्रसिद्ध हुए। उल्लेखनीय है कि तुलसी दर्शन पर डी. लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले डा. बलदेव प्रसाद मिश्र प्रथम व्यक्ति हैं। पं. शुकलाल प्रसाद पाण्डेय का ग्रंथ मैथिली मंगल, कपिल नाथ कश्यप का वैदेही विछोह तथा पं. सरयू प्रसाद त्रिपाठी मधुकर का सीता अन्वेषण विशेष उल्लेखनीय है। पं. सुंदरलाल शर्मा ने भी छत्तीसगढ़ी में रामायण की रचना की थी, ऐसा सुनने में आया है। दुर्ग के उदय प्रसाद उदय ने छत्तीसगढ़ी में रामचरित नाटक की रचना की है। कपिलनाथ कश्यप ने सम्पूर्ण रामकथा पर छत्तीसगढ़ी में प्रबंध काव्य की रचना की है। इस ग्रंथ के प्रमुख अंशों को छत्तीसगढ़ी हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने प्रकाशित किया था। उदयप्रसाद 'उदय' ने रामायण-रश्मि नामक ग्रंथ का भी प्रणयन किया है, जो हाल ही में प्रकाशित हुआ है। छुईखदान के धानूलाल श्रीवास्तव ने रामचरित मानस का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया है। राजनांदगांव के कविराज शीतल प्रसाद का राम रसामृत तथा यहीं के बाबू बसंत लाल का बसंत रामायण भी उल्लेखनीय है। लक्ष्मीनारायण प्रेस से प्रकाशित एक, छत्तीसगढ़ी रामायण की भी सूचना मिलती है। इनके अतिरिक्त कुंवर दलपत सिंह द्वारा रचित रामयश मनरंजन दो खण्डों में है, ध्रुवराम वर्मा द्वारा अलकरहा रामायण, गजराज बाबू द्वारा रामायणाष्टक, दुर्ग के राधिका रमण दुबे द्वारा शबरी वृत्ति, बालमुकुंद द्वारा सीता स्वयंवर, शिव प्रसाद पाण्डेय द्वारा भक्त निषाद, शंकर प्रसाद अकलतरा द्वारा सार रामायण, श्यामलाल पोतदार, रायगढ़ द्वारा बालकाण्ड का नया जन्म, शुकलाल प्रसाद पाण्डेय द्वारा केवट विनय पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' द्वारा राम-केवट संवाद, श्यामलाल चतुर्वेदी द्वारा राम वनवास ग्रंथ रामकथा पर ही आधारित है। ग्राम सावनी, जिला दुर्ग के लक्ष्मण प्रसाद यादव रचित विचित्र रामायण की सूचना भी प्राप्त होती है। यमुना प्रसाद यादव ने भी छत्तीसगढ़ी में रामायण की रचना की। पं. चन्द्रकांत पाठक का रामभक्ति प्रकाश नामक ग्रंथ प्रकाशित है। उन्होंने संस्कृत में रामचरित महाकाव्यम् नामक ग्रंथ की रचना भी की है किन्तु वह अप्रकाशित ही रह गया। हेमनाथ यदु ने रामचरित मानस पर आधारित छत्तीसगढ़ी में सुन्दरकाण्ड तथा किष्किंधा काण्ड की सुंदर रचना की है। गिरधारी लाल श्रीवास्तव ने भी छत्तीसगढ़ी में रामायण की रचना की है। रामकथा (कुडुख), रामनापिटो (मुरिया) रामना बेसोड़ (दण्डामी मारिया) ग्रंथ मानस प्रकाशन, भोपाल द्वारा प्रकाशित हैं । ये रामकथाएं बस्तर के आदिवासियों में प्रचलित हैं। इसके कुछ अंश छत्तीसढ़ सेवक के गणतंत्र अंक सन् 92 में प्रकाशित हैं। श्री पंचराम सोनी ने छत्तीसगढ़ी में रामकथासार लिखा है। यह अप्रकाशित है।

रामकथा पर आधारित और भी ग्रंथ हो सकते हैं जिनकी सूचना हमें नहीं है। उन्हें भी सूचीबद्ध करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ऊपर लगभग 40 ग्रंथों का उल्लेख किया गया है। उनके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी में गाये जाने वाले लोक गाथाओं का भी पता चलता है। ऐसी तीन लोक गाथाओं की चर्चा डा. हीरालाल शुक्ल ने रायपुर में म.प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा आयोजित वाल्मीकि समारोह में किया था। हलबी में भी राम कथा पर आधारित एक ग्रंथ का पता चला है। शोध करने पर और भी अधिक ग्रंथों का पता चल सकता है।

रामकथा को लेकर इस क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण शोधकार्य भी हुए है। डा. बलदेव प्रसाद मिश्र का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। श्रीमती डा. शारदा चंदेल (भिलाई) ने रामचरित मानस तथा अध्यात्म रामायण का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोध, प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि अर्जित की है। डा. रविशंकर व्यास ने रामकथा में हनुमान जी की भूमि का पर शोध प्रबंध लिखा है। डा. हीरालाल शुक्ल ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ लंका की खोज में भगवान श्रीराम के इस क्षेत्र में वनवास कालीन प्रवास का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने महाकवि कालिदास के रघुवंश का हिन्दी में सार प्रस्तुत किया है। पद्मश्री मुकुटधर पाण्डेय ने रामकथा पर आधारित छत्तीसगढ़ी में काव्य प्रस्तुत करने का प्रयास अंतिम वर्षों में किया था। उसका एक अंश राष्ट्र बन्धु साप्ताहिक के सन 1977 के एक अंक में प्रकाशित हुआ था किन्तु, अस्वस्थता के कारण उनका प्रयास अधूरा रह गया। रामकथा भारतीय संस्कृति का आधार प्रस्तुत करती है। रामकथा का प्रचार भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों का प्रचार है। रामकथा आज भी हमारे लिये अत्यंत प्रासंगिक हैं।

छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास
रामाभ्युदय महाकाव्य- महाकवि नारायण
१. राम प्रताप- महाकवि गोपाल
२. तास रामायण- ठाकुर भोला सिंह बघेल
३. छत्तीसगढ़ी रामचरितनाटक- उदयराम
४. मैथिली मंगल- शुकलाल प्रसाद पाण्डेय
५. कोशल किशोर- डा. बलदेव प्रसाद मिश्र
६. छत्तीसगढ़ी रामायण- पं. सुन्दरलाल शर्मा
७. वैदेही-विछोह- कपिलनाथ कश्यप
८. राम विवाह- टीकाराम स्वर्णकार
९. राम केंवट संवाद- पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र
१०. राम बनवास- श्यामलाल चतुर्वेदी
११. रामकथा- कपिलनाथ कश्यप
१२. सुन्दर काण्ड- हेमनाथ यदु
१३. किष्किंधा काण्ड- हेमनाय यदु
१४. सीता अन्वेषण- सरयू प्रसाद त्रिपाठी मधुकर
१५. राम वियोग- मालिक राम त्रिवेदी
१६. रामस्तव- रघुबर दयाल
१७. रामविनोद- रघुबर दयाल
१८. रामायण नाटक- उमराव बख्शी
१९. लंका की खोज- डा. हीरालाल शुक्ल
२०. छत्तीसगढ़ी रामायण- लक्ष्मीनारायण प्रेस
२१. रामयश मनरंजन- बैजनाथ प्रसाद
२२. सार रामायण दीपिका- रेवाराम बाबू
२३. रामाश्वमेध- बाबू रेवाराम
२४. केंवट विनय- शुकलाल प्रसाद पाण्डेय
२५. अलकरहा रमायन- ध्रुवराम वर्मा
२६. कवित्त रामायण- उमराव बख्शी
२७. श्री रामायण वर्ण माला- जगन्नाथ प्र. भानु
२८. रामायण प्रश्नोत्तरी - ,, ,, ,,
२९. सीता स्वयंर- बाल मुकुन्द
३०. रघुवंशसार- पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय
३१. रामायणाष्टक- गजराज बाबू
३२. साकेत संत- डा. बलदेव प्रसाद मिश्र
३३. रामराज्य
३४ रामायण रश्मि- उदय प्रसाद उदय
३५ भक्त निषाद- शिवप्रसाद काशीनाथ पाण्डेय
३६. राम रसामृत- कविराज- शीतल प्रसाद राजनांदगांव
३७. वसंत रामायण- बसंत लाल बाबू ,, ,,
३८. रामचरित मानस छत्तीसगढ़ी अनुवाद (अप्रकाशित)- धानूलाल श्रीवास्तव छुईखदान
३९. सार रामायण- शंकरप्रसाद अकलतरा
४०. बालकाण्ड का नया जन्म- श्यामलाल पोतदार-रायगढ़
४१. शबरी वृत्ति- राधिका रमण दुबे, दुर्ग
४२. विचित्र रामायण- लक्ष्मण प्रसाद यादव सावनी, दुर्ग
४३. उत्तर रामचरित नाटक (गद्य-पद्य)- उदय प्रसाद उदय
४४. वाल्मीकि रामायण (हिन्दी-बालकाण्ड तथा अयोध्याकाण्ड)
४५. वाल्मीकि रामायण की पुष्पांजलि
४६. पं. चन्द्रकांत पाठक काव्यतीर्थ
४७. रामकथा सार- पंचराम सोनी (पाण्डुलिपि)

इन 47 पुस्तकों की सूची 1990 की डायरी में दर्ज की गई है। डॉ. पंचराम सोनी जी की यहां (पाण्डुलिपि) उल्लेख वाली पुस्तक ‘राम कथा सार‘ शीर्षक से वर्ष 2007 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक भूमिका हरि ठाकुर जी ने 19.12.1995 को लिखी थी। इससे अनुमान होता है कि यह सूची और संभवतः लेख भी 1990-95 के बीच का है।

इस सूची में सरगुजा की एक रामायण पुस्तक और बस्तर की तीन रामकथा पुस्तकें जुड़ती हैं। सन 1992-93 में ‘छत्तीसगढ़ी सरगुजिया गीत नृत्य रामायण‘ प्रकाशित हुई, जिसके संगृहिता लेखक समर बहादुर सिंह देव जी हैं, इस पुस्तक की पहली प्रति तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा जी को प्रेषित की गई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संग्रह को महत्वपूर्ण मानते हुए इसकी प्रशंसा की थी। अंबिकापुर के ही रामप्यारे ‘रसिक‘ की पुस्तिका सरगुजिहा रामायण है। इसी प्रकार सन 1998 में बस्तर की रामकथा के तीन ग्रंथों, हलबी रामकथा, माड़िया रामकथा और मुरिया रामकथा का प्रकाशन मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग से हुआ, जिसके सम्पादक प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल हैं तथा हलबी रामायण में उनके नाम के साथ संग्राहक और अनुवादक भी उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात डॉ. मन्नूलाल यदु जी ने रामकथा पर कई छोटी-बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन कराया। श्री प्रहलाद विशाल वैष्णव ‘अचिन्त‘ का तीन भागों में ‘रमाएन‘ क्रमशः 2013, 2015 तथा 2016 में प्रकाशित हुआ है, पुस्तक के शीर्षक के साथ जिसे ‘श्रीराम कहानी छत्तीसगढ़ी पद‘ कहा गया है।

Saturday, February 20, 2021

बिलासपुर की त्रिवेणी-1966

छत्तीसगढ़ की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था ‘भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर द्वारा पुस्तक प्रकाशन माला के पंचदश पुष्प के रूप में साहित्यिक त्रिमूर्ति अभिनंदन समारोह पत्रिका का प्रकाशन महाशिवरात्रि सं. 2022 यानि 18 फरवरी 1966 को किया गया था।
इसमें जिन तीन साहित्यिक विभूतियों का अभिनंदन हुआ, उनके बारे में पुस्तिका के आरंभ में कहा गया है-
जिन तीनों ने किया पल्लवित साहित्यिक उद्यान।
वे तीनों हैं ‘विप्र‘ के काव्य रसिक भगवान।।

इस पुस्तिका में छपा छायाचित्र और स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी का लेख प्रस्तुत है। पुस्तिका, प्रातःस्मरणीय हरि ठाकुर के संग्रह से उनके पुत्र आशीष सिंह द्वारा उपलब्ध कराई गई है।


।। बिलासपुर की त्रिवेणी ।।

[द्वारा- स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी]

बिलासपुर की साहित्यिक त्रिवेणी का यह सम्मान लगता है कि जैसे पुण्य तीर्थराज प्रयाग यहां साकार हो उठा है। आदरणीय मधुकर जी, प्यारेलाल जी गुप्त तथा यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव ने अपनी अकथ तपस्या और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत का सदैव ही पथ प्रदर्शन किया है।

आदरणीय मधुकर जी को काव्य शक्ति तो पैतृक विरासत में मिली है। मुझे स्मरण है कि मधुकर जी के पुण्य स्मरणीय पिता जी बिलाईगढ़ में चाकरी की अवधि में रायपुर आकर जब अपने सहयोगी के यहाँ जो मेरे किरायेदार थे, ठहरते थे तब हम बालकों का मनोरंजन यह कहकर किया करते थे “पुरानी है पुरानी है। मेरी डिबिया पुरानी है। जमाने भर की नानी है” आदि आदि। वयस्क होने पर जब मुझे ज्ञात हुआ कि वे मधुकर जी के पिता श्री थे तो मेरा मन अकस्मात ही उनके प्रति श्रध्दावनत हो गया। ऐसे मधुकर जी ७५ वर्ष पार कर साहित्य साधना में यदि आज भी युवकों को मात दे रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। 

आदरणीय गुप्त जी कवि, आलोचक, पुरातत्वज्ञ, इतिहासकार आदि क्या नहीं है? को-आपरेटिव्ह बैंक की सेवा करते हुए जमा खर्च के शुष्क आंकड़ों में व्यस्त रहते हुए भी उनका हृदय साहित्य की अमृतधारा से परिपूरित है। 

और यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव तो “कलम के जादूगर“ हैं ही। अपनी सशक्त लेखनी के द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में तथा अपनी वाणी और सक्रियता के द्वारा राजनीति के क्षेत्र में उनका योगदान स्मरणीय रहेगा। 

आज उनके अभिनन्दन के अवसर पर इस त्रिवेणी-स्वरूपा त्रिमूर्ति की सेवा में पुष्पान्जलि अर्पित कर कौन अपने को धन्य नहीं समझेगा?