सभ्यता, किसी पहाड़ी की कोख-कंदरा में जन्म लेती है और विकसित होती हुई नदी तटों पर पहुंचती है लेकिन संस्कृति, नदियों के अगल-बगल, आभूषित, अलंकृत होती है और नदी-जलधाराओं के उद्गम और संगम बिंदु, संस्कृति के घनीभूत केंद्र होते हैं। ऐसा ही केंद्र है- छत्तीसगढ़ में पेण्ड्रा के निकट ग्राम सोन बचरवार का सोनमुड़ा या सोनकुण्ड। सोन नदी नहीं, सोन नद का उद्गम जो 'शोण' या 'शोणभद्र' नाम से भी जाना गया है।
लोक विश्वास में अमरकंटक का सोनमुड़ा (सिद्ध शोणाक्षी शक्ति पीठ) 'सोन' तथा 'भद्र' दो भिन्न जलधाराओं का उद्गम, साथ ही भद्र का सोन में संगम स्थल माना जाता है, किन्तु तथ्य की दृष्टि से यह भ्रम है। इस विश्वास के कारणों में प्रमुख तो पौराणिक भूगोल की जानकारियां हैं, जिनमें सोन और नर्मदा का उद्गम मेकल से और पास-पास होना बताया गया है साथ ही एक रोचक किंतु अविश्वसनीय तथ्य यह भी है कि लोक विश्वास और परंपरा (प्रशासनिक अड़चन, राजनैतिक कारणों) का ध्यान रखते हुए सन 1952-53 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अमरकंटक के सोनमुड़ा को ही सोन का उद्गम बताकर दिखाया गया। उल्लेखनीय है कि इसी अवसर पर आदर्श ग्राम 'राजेन्द्रग्राम' नामकरण भी हुआ (गांव का मूल नाम बसनिहा बताया जाता है)। अमरकंटक वाले सोनमुड़ा का प्रवाह, आमानाला, आमाडोब नाला, माटीनाला होकर अरपा में मिल जाता है जो अरपा, शिवनाथ होकर महानदी में मिलती है। किंतु वास्तविक सोन का उद्गम मौके पर तो स्पष्ट है ही गंभीर अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे, 19वीं सदी के जे.डी. बेगलर के पुरातत्वीय सर्वेक्षण और देवकुमार मिश्र की पुस्तक 'सोन के पानी का रंग' में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है।
पचासेक साल पहले मध्यप्रदेश में नवमी कक्षा की हिन्दी पाठ्य पुस्तक 'नव-साहित्य-सुधा' में पाठ-7, श्री राखालदास वन्द्योपाध्याय का 'अमरकंटक' शीर्षक निबंध होता था। इस निबंध की आरंभिक पंक्तियां हैं- ''विन्ध्यप्रदेश में विन्ध्यपर्वत के एक शिखर से तीन भारी-भारी नदियां निकली हैं- महानदी, सोन (शोणभद्र) और नर्मदा। इसीलिए अमरकंटक समस्त भारतवर्ष में विख्यात है।'' यहां सोन उद्गम की भूल तो है ही, महानदी को भी यहां से निकली बताया गया है जबकि जोहिला, वस्तुतः जिसका उद्गम यहा है, का नाम भी नहीं है। राखालदास वन्द्योपाध्याय से ऐसी भूल और यह पाठ्यपुस्तक के लिए स्वीकृत हो कर पढ़ाया जाना, आश्चर्यजनक है।
देश की प्रसिद्ध पुल्लिंग जलधाराओं में ब्रह्मपुत्र के साथ सोन मुख्य है। सिक्किम की कुंवारी कही जाने वाली नदी तिस्ता की प्रेम कहानी का नायक नद रंगीत है। छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख जलधारा, शिवनाथ तथा सरगुजा का कन्हर भी नद माने गये हैं। दमेरा पहाड़ी, जशपुर से निकली सिरी और बांकी जलधाराएं क्रमशः भाई-बहन मानी जाती हैं। सरगुजा के सूरजपुर-प्रतापपुर की दो जलधाराओं, बांक और बांकी नाम में दंतकथा की पूरी संभावना है। कांकेर वाली दूध नदी, महानदी की पुत्री मानी जाती है। कोल्हान नाला को राजा कहा जाता है। कोरिया की मेन्ड्रा पहाड़ी के उत्तर से निकली गोपद को नारी और दक्षिण से निकले हसदेव को पुरुष माना जाता है। छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश की सीमा पर ग्राम बांकी (पंडरीपानी) के कांदावानी-दंतखेड़ा पहाड़ी से निकलने वाली हांफ-हंफनिन, प्रेमी-प्रेमिका मानी जाती हैं। हांफ, शिवनाथ के बांयें तट पर तरपोंगी, बेमेतरा जिला और दाहिने तट पर बलौदाबाजार जिले के तरपोंगा मावली माता मंदिर के पास शिवनाथ से महानदी होते बंगाल की खाड़ी में जाती है। हंफनिन (हलो), नर्मदा की सहायक बुढ़नेर नदी में मिल कर अरब सागर चली जाती है। अर्थात नर्मदा और सोन की तरह इनका भी 'मिलन' नहीं हो पाता। कान्हा-मुक्की की नर्मदा की सहायक जलधारा ‘बंजर‘, पुल्लिंग तो भीमलाट संगम की दूसरी नदी ‘जमुनिया‘ स्त्रीलिंग मानी जाती है। इसी तरह मवई, मंडला की जलधाराओं और गांव का नाम ही ‘भाई-बहन नाला‘ है।
कोरबा-बिलासपुर की एक छोटी नदी, लीलागर के नाम में लीला और आगर की संधि है, वैसे दो नदियां लीलागर और आगर अलग-अलग भी हैं और देवार गीत में लीला नारी और आगर पुरुष है, जिनके विवाह की गाथा गाई जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस गीत में कन्या-प्राप्ति के लिए करमसैनी की पूजा के फलस्वरूप लीला का जन्म हुआ है। पहाड़ और जलधारा का रिश्ता तो जन्मदाता और संतति का होता ही है। प्रचलित लोक मान्यता में अगल-बगल के तालाब सास-बहू, देवरानी-जेठानी या मामा-भांजा के होते हैं तो नदियों के बीच आपसी रिश्ता रानी-चेरी, प्रेमी-प्रेमिका या भाई-बहन का माना जाता है। समान उद्गम स्थल से निकली नदियां रानी-दासी या भाई-बहन तो मानी गई है किंतु प्रेमी-प्रेमिका के लिए सामान्यतः भिन्न उद्गम की सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा जाता है।
सोन ओर नर्मदा की प्रेमकथा पूरे अंचल में कई तरह से प्रचलित है। कहा जाता है कि राजा मेकल ने पुत्री राजकुमारी नर्मदा के लिए निश्चय किया कि जो राजकुमार बकावली के फूल ला देगा, उसका विवाह नर्मदा से होगा। राजपुत्र शोणभद्र, बकावली के फूल ले आए, लेकिन देर होने से विवाह संभव न हुआ। इधर नर्मदा, सोन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन आकर्षित हुई और नाइन-दासी जोहिला से संदेश भेजा। जोहिला ने नर्मदा के वस्त्राभूषण मांग लिए और संदेश ले कर सोन से मिलने चली। जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जोहिला का सोन से संगम, वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर हो जाता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी ही उल्टी दिशा में बह चलती है। रानी और दासी के पोशाक बदलने की कथा, अन्य संदर्भों में इलाहाबाद जिले के पूर्वी भाग की अवधी बोली क्षेत्र में भी प्रचलित है।
सोन को पवित्र और अभीष्ट फल देने वाला कहा गया है तथा यह भी कि गुरू के मकर राशि में आने पर जो यहां बास करे वह विनायक पद प्राप्त करता है। रामचरित मानस में आता है- ‘सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन। अर्थात अनुज लक्ष्मण सहित राम के युद्ध-यशरूपी सुहावना महानद सोन (उसमें आ कर) मिलता है। सोन के पुल्लिंग मानने का आधार तो पता नहीं चलता, किन्तु दशरथ घाट से मसीरा घाट जाते हुए और उसके आगे भी तेज ढाल वाला सोन का पाट पुरूष का विशाल, विस्तृत उरू प्रदेश लगता है। माघ पूर्णिमा की तिथि, हमारी संस्कृति में सामुदायिक मेल-मिलाप का उत्सव है। सोन बचरवार, आमाडांड और लाटा गांव के बीच स्थित सोन उद्गम 'सोनकुंड' पर भी जनसमूह इस तिथि पर आदिम संस्कृति, सभ्यता के लक्षणों सहित घनीभूत होने लगता है।
इस स्थान पर पहले पहल सन् 1930 में बनारस के ग्वारा घाट से स्वामी सहज प्रकाशानंद आए और साफ-सफाई कर कुटी बनाई। 1931 में पेंड्रा के जमींदार लाल अमोल सिंह ने कुंड का जीर्णोद्धार कराया। ब्रह्मचारी चिदानंद, योगानंद स्वामी जी के शिष्य हुए। सन् 1976 में स्वामी जी ब्रह्मलीन हुए अब उनकी समाधि वहां है तथा कुटी व धार्मिक क्रियाकलापों का संचालन वर्तमान बेलगहना वाले सिद्ध मुनि बाबा आश्रम के स्वामी सदानंद के अधीन होता है, जो माघ पूर्णिमा और गुरू पूर्णिमा पर स्वयं यहां विराजते हैं। रोजाना की गतिविधियों की निगरानी स्वामी कृष्णानंद की देख-रेख में होती है।
बस्तर में दंतेवाड़ा, रायपुर में राजिम और बिलासपुर (अब जांजगीर) में शिवरीनारायण की मान्यता आंचलिक पुण्य क्षेत्र की है वहां महानदी के रामकुंड की भांति सोनकुंड के प्रवाह में स्थानीय जन, श्राद्ध व अस्थि विसर्जन भी करते है। सोन उद्गम के अथाह कुंड के पार्श्व में भरने वाले ठेठ आंचलिक मेले के परंपरा की गहराई और सघनता अथाह है। संभवतः उतनी ही गहरी जितनी सोन का मूल अथवा उतनी ही सघन, जितनी मानव-मन की श्रद्धा।
दैनिक भास्कर, बिलासपुर में मेरा यह लेख ''छत्तीसगढ़ी कोख का 'सोन' सपूत'' शीर्षक से 21 फरवरी 2001 को लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ था।
छत्तीसगढि़या हम, मध्यप्रदेश से तो अभिन्न रहे ही हैं, लेकिन इससे आगे बढ़ कर मुझ जैसे, सोन के माध्यम से उत्तरप्रदेश और बिहार होते हुए खुद को गंगा से जुड़ा महसूस करते हैं। इस विषय पर एक अन्य पोस्ट बेहतर और रंगीन चित्रों के साथ यहां है।