Showing posts with label कोसल. Show all posts
Showing posts with label कोसल. Show all posts

Friday, January 19, 2024

चंदखुरी

भरोसे पर संदेह हो और भरोसा सच्चा हो तो उस पर किया गया हर संदेह अंततः उसे मजबूती देता है, कमजोर नहीं करता इसलिए अपने संदेहों पर भरोसा रहे कि वे सत्य का मार्ग प्रशस्त करेंगे। सत्य, तथ्यों की तरह जड़ नहीं होता, जीवंत होता है और वह 'सच्चा-सच' है तो उस पर किया गया हर विचार, आपत्ति, उसके सारे पक्ष-कारक, अंततः उसकी चमक बनाए रखने में सहायक साबित होते हैं।

परलोक में भरोसा करने वाले जन-मानस के लिए इहलोक में प्रत्यक्ष और प्रचलित का महत्व कम नहीं होता। कोसल, कौशल्या, भांचा राम, सुषेण पर इसी तरह संदेह-भरोसे से विचार करने का प्रयास है, रहेगा। ध्यान रहे कि रामकथा के ग्रंथों में उसका लोकप्रिय पाठ तुलसीकृत रामचरित मानस है तो शास्त्रीय मान्यता वाल्मीकि रामायण की है, किंतु पाठालोचन के विद्वान इसके कम से कम तीन भिन्न पाठों को मान्यता देते हैं, इन पाठों में भी आंशिक भेद है। माना जाता है कि इसका कारण आरंभ में रामकथा का मौखिक रूप ही प्रचलित रहा, बाद में अलग-अलग लिखित रूप दिया गया। इसके साथ रामकथा और उसकी आस्था के लोक-प्रचलन की बहुलता और विविधता को, उस पर विचार-चिंतन के अवसर की तरह सम्मान करना समीचीन है।

रामलला, अयोध्या के साथ छत्तीसगढ़ में ननिहाल, भांचा राम और इससे संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा फिर से हो रही है। इस क्रम में कुछ आवश्यक संदर्भों की ओर ध्यान दिया जाना प्रासंगिक होगा, इनमें मेरी जानकारी में चंदखुरी में कौशल्या मंदिर के सर्वप्रथम उल्लेख का संदर्भ इस प्रकार है-

The Indian Antiqury, VOL- LVI,-1927 में (राय बहादुर) हीरालाल का शोध लेख 'The Birth Place of the Physician Sushena' प्रकाशित हुआ था। 9 फरवरी 1913 को चंदखुरी में ग्रामवासियों ने उन्हें जलसेना (जल-शयन) तरई के बीच टापू पर रखे कुछ पत्थर बताए, जिन्हें वे बैद सुखेन मान कर पूजते हैं। हीरालाल ने यह भी उल्लेख किया है कि समान नाम के अन्य ग्रामों से इसकी भिन्न पहचान के लिए इसे ‘बैद चंदखुरी‘ कहा जाता है। (एक अन्य चंदखुरी रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर है, जिसमें अब बैतलपुर ग्राम नाम से लुथेरन चर्च के अमेरिकन इवेंजेलिकल मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ-आश्रम है।) इस विषयक मुख्य लेख की पाद टिप्पणी में कौशल्या के मंदिर का नामोल्लेख है।

प्रसंगवश, पुरातात्विक स्थलों के आरंभिक उल्लेख के लिए अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वे रिपोर्ट को खंगालना आवश्यक होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक कनिंघम ने प्राचीन स्थलों के सर्वेक्षण के लिए 1881-82 में इस अंचल का दौरा किया था, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में वाल्युम-17 में प्रकाशित है। इसमें देवबलौदा, राजिम, आरंग, सिरपुर आदि स्थलों के अलावा आरंग और रायपुर के बीच नवागांव का उल्लेख मिलता है, किंतु चंदखुरी का उल्लेख नहीं है। 1909 के रायपुर गजेटियर में तुरतुरिया के साथ लव-कुश और कोसल का उल्लेख है, किंतु चंदखुरी का नहीं। इसी प्रकार 1973 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में चंदखुरी का उल्लेख वहां के डेयरी फार्म के संदर्भ में हुआ है, न कि सुषेण या कौशल्या माता के लिए। स्थानीय स्रोतों द्वारा बताया जाता है- ‘तालाब के बीच टापू पर स्थित मंदिर अत्यंत प्राचीन है, जिसके गर्भगृह में रामलला को गोद में लिए माता कौशल्या की मूर्ति है। इस मंदिर का पुनरुद्धार सन 1973 में कराया गया।‘

चंदखुरी स्थित ‘शिव मंदिर‘ को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित करने की अधिसूचना तिथि 5.3.1986 दर्ज है। संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ के प्रकाशन में इस स्मारक का उल्लेख इस प्रकार है-

'राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 06 नागपुर-सम्बलपुर रोड पर 16 कि. मी. पर स्थित मंदिर हसौद से 12 किलोमीटर दूर चंदखुरी गांव में बायें किनारे पर यह स्मारक अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण 10-11 वीं शती ईसवी में हुआ था किन्तु इस मंदिर का अलंकृत द्वार तोरण किसी दूसरे विनष्ट हुए सोमवंशी मंदिर (काल- 8वीं शती ईस्वी) का है। इसकी द्वार शाखाओं पर गंगा एवं यमुना नदी देवियों का अंकन है। सिरदल पर ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी बैठी हुई हैं जिसके एक ओर बालि-सुग्रीव के मल्लयुद्ध एवं मृत बालि का सिर गोद पर रखकर विलाप करती हुई तारा का करुण दृश्य प्रदर्शित है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ मंदिर है। इसमें मण्डप नहीं है। कुल मिलाकर यह क्षेत्रीय मंदिर का अच्छा उदाहरण है।'

इस विभागीय संरक्षित स्मारक का निरीक्षण 1993 में तत्कालीन प्र. उपसंचालक श्री जी. एल. रायकवार द्वारा किया गया था। श्री रायकवार ने इस स्मारक और स्थल के संबंध में जानकारी दी है कि- 

यह मंदिर मूल रूप से परवर्ती सोमवंशी शासकों के काल में निर्मित है, जिसका कलचुरि शासकों ने करवाया। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। प्रवेश द्वार पर गंगा तथा यमुना का अंकन है। सिरदल पर गजलक्ष्मी तथा धनुष बाण सहित राम लक्ष्मण, बालि सुग्रीव युद्ध, विलाप करती तारा, मिथुन आकृति एवं अंत में अस्पष्ट आकृति है। मंदिर के प्रांगण में पीपल के पेड़ के नीचे अस्पष्ट देव प्रतिमाएं, नंदी, अस्पष्ट देवी प्रतिमा, नागयुग्म, शैवाचार्य, भारवाहकगण तथा स्तंभ पर अंकित भारवाहक आदि की खंडित प्रतिमाएं तथा स्थापत्यखंड रखे हैं।

श्री रायकवार ने यह भी उल्लेख किया है कि इस ग्राम में अनेक प्राचीन सरोवर हैं। मंदिर के निकट के एक सरोवर के मेड़ पर पीपल के पेड़ के जड़ के बीच प्राचीन जलहरी लम्बी प्रणालिका सहित तथा एक आदमकद पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग, फंसी हुई रखी है। खंडित पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग संकलन योग्य है। ग्राम में एक स्थान पर परवर्ती काल के 11 वीं 12 वीं सदी ईसवी के भग्न मंदिर का अवशेष विमान है। इस भग्न मंदिर का अधिष्ठान क्षत-विक्षत होने पर भी आंशिक रूप से बच रहा है। यहाँ पर एक शिवलिंग तथा खंडित नंदी रखा हुआ है। ग्राम के एक घर में खंडित तीर्थंकर की प्रतिमा तथा अत्याधिक क्षरित प्रतिमा रखी हुई है जिसकी ये पूजा करते हैं। चन्दखुरी नाम संभवतः चन्द्रपुरी का अपभ्रंश है। सोमवंशी अथवा कलचुरियों के काल में निःसंदेह यह महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल रहा होगा।
-0-0- 

यहां उपरोक्त जानकारियों की प्रस्तुति का उद्देश्य, कि मूल स्रोत, प्राथमिकी-आरंभिक उल्लेख का विशेष महत्व होता है। साथ ही किसी स्थल विशेष पर विचार करते हुए, वहां से संबंधित दस्तावेज, अभिलेख आदि के साथ उस स्थान की प्रचलित परंपरा, नाम-शब्द, लोकोक्तियां, दंतकथाएं, आस्था का भी न सिर्फ ध्यान रखना आवश्यक होता, बल्कि उनके संकेतों से खुलने वाली संभावनाओं को भी देखना-परखना होता है।

इस दृष्टि से विचारणीय कि छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं के रूप में सुखेन जैसे नामों में देगन गुरु और परउ बइगा, बहुव्यवहृत और प्रतिष्ठित-सम्मानित है। देगन या दइगन, मूलतः देवगण गुरु अर्थात् वृहस्पति हो सकते हैं। परउ के अलावा अन्य- सुनहर, बोधी, तिजउ, लतेल बइगा जैसे कई नाम लोक में प्रचलित हैं। ऐसा माना जा सकता है कि इन नामों के प्रभावी बइगा, गुनिया, देवार, सिरहा, ओझा हुए, जिनकी स्मृति में थान-चौंरा बना दिया गया, जिसके साथ मान्यता जुड़ गई कि उनका स्मरण-पूजन, उस स्थान की मिट्टी या आसपास की वनस्पति, औषधि का काम करती है।

पारंपरिक-आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र में माधव और वाग्भट्ट का नाम कम प्रचलित है, किंतु चरक, सुश्रुत नाम बहुश्रुत हैं। महाभारत में अश्विनीकुमार-द्वय से उत्पन्न वैद्य-चिकित्सक के रूप में जुड़वा नकुल-सहदेव का नाम आता है, उसी तरह रामकथा के संदर्भ में योद्धा, धर्म नामक वानर के पुत्र और वालि (बालि) के श्वसुर सुषेण की प्रतिष्ठा है, जिसने अमोघ शक्ति प्रहार से मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी (के साथ विशल्यकरिणी, सावर्ण्यकरिणी जैसे नाम भी मिलते हैं।) के लिए हनुमान को भेजा था। इस आधार पर संभव है कि चंदखुरी में कोई प्रसिद्ध वैद्य हुआ हो, वहां रामकथा-प्रसंग का शिल्पांकन है ही तो उस वैद्य को सम्मान सहित याद करने के लिए उसे रामकथा के वैद्य सुषेण जैसा मानते याद किया जाने लगा हो।

इस प्रकार प्राचीन शिव मंदिर के शिल्पांकन में रामकथा के प्रसंगों के साथ एक अन्य स्थिति पर विचार भी आवश्यक है। कौशल्या के प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण सामान्यतः प्राप्त नहीं होते और कहीं हों तो सुस्थापित नहीं हैं। इसी तरह की स्थिति रामलला के साथ है। राम शिल्प में सामान्यतः द्विभुजी, धनुर्धारी दिखाए जाते हैं, मगर उनके बालरुप के लिए विशिष्ट प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण का अभाव है। अतएव किसी नारी प्रतिमा के साथ शिशु रुप की प्रतिमा की पहचान कौशल्या और राम के रूप में की जा सकती है, विशेषकर तब यदि वह शिशु लिए हो और अंबिका का रूप न हो साथ ही तब विशेषकर, जब ऐसा शिल्पांकन रामकथा के अन्य प्रसंगों के साथ उपलब्ध हो।

इसी तरह चंदखुरी स्थल के प्राचीन शिव मंदिर के सिरदल पर रामकथा का बालि-सुग्रीव प्रसंग संबंधी शिल्पांकन, राम की सेना के वानर योद्धा सुषेण, जो बालि के श्वसुर भी हैं और वैद्य भी, इसलिए मूर्तिशिल्प में वानरमुख आकृति की पहचान बालि, सुग्रीव, हनुमान की तरह सुषेण के रूप में की जा सकती है। तो इस स्थान को कौशल्या माता और वैद्य सुषेण से संबद्ध करने का मूर्त आधार इस तरह भी संभव है।

नाम साम्य की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के अन्य ग्रामों कोसला, कोसलनार, केसला, कोसिर, कोसा और मल्हार से प्राप्त ‘गामस कोसलिय‘ अंकित मृण-मुद्रांक और मल्हार से ही प्राप्त महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र में आए नाम कोसलनगर की चर्चा भी अप्रासंगिक न होगी। साथ ही चंदखुरी नाम पर विचार करते हुए, मरवाही के पड़खुरी, पथरिया के बेलखुरी, बसना के भैंसाखुरी के साथ इसी नाम के अन्य ग्रामों को भी संदर्भ में रखना होगा तथा यह भी उल्लेखनीय है कि जनगणना रिपोट में इस गांव का नाम Chandkhuri नहीं बल्कि Chandkhurai (चंदखुरई?) इस तरह दर्ज है। स्मरणीय कि महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित (दक्षिण) कोसल के ऋषभतीर्थ की पहचान सक्ती के निकट स्थित स्थल गुंजी-दमउदहरा से निसंदेह की जाती है। इसी तरह वायु पुराण के मघ-मेघवंशी कोसल नरेशों के नाम वाले प्राचीन सिक्के मल्हार से प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध, प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ विजय क्रम में पहले जिन दो राज्यों का नाम आता है, वे कोसल और महाकांतार हैं।
मल्हार से प्राप्त आरंभिक इस्वी सदी का
ब्राह्मी ‘गामस कोसलिया‘ अभिलिखित मृण-मुद्रांक

इन कथा-मान्यताओं का आधार यहां शिल्प में तलाशने का प्रयास है, उसी तरह यहां ऐसे शिल्प की रचना किए जाने के आधार में, इस स्थल का रामकथाभूमि होने की संभावना को बल मिलता है। स्थानीय अन्य जानकारियों और पार्श्व-परिप्रेक्ष्य की संबंधित कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर आस्था सम्मत इतिहास की छवि के समग्र रूप को निखार सकने की प्रबल और व्यापक संभावना यहां है।

Saturday, October 21, 2023

बेलदार सिवनी

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ पुरातत्व, संस्कृति विभाग के अंतर्गत, संचालनालय सस्कृति एवं पुरातत्व के रूप में आया। संचालनालय द्वारा पत्रिका ‘बिहनिया‘ का प्रकाशन आरंभ हुआ, जो मुख्यतः संस्कृति से संबंधित थी, वहीं शोध पत्रिका ‘कोसल‘ का भी प्रकाशन किया जाने लगा, जो पुरातत्व की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका के रूप में स्थापित हुई। विभागीय दायित्वों के निर्वाह के क्रम में शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक के रूप में मेरा नाम होता था, यह मुख्यतः विभागीय उत्तरदायित्व की दृष्टि से होता था। पत्रिका के संपादन में प्रो. ए.एल. श्रीवास्तव, प्रो. लक्ष्मीशंकर निगम और श्री जी.एल. रायकवार जैसे विद्वानों की मुख्य भूमिका होती थी।

यह भूमिका शोध पत्रिका ‘कोसल‘ के अंक-10, वर्ष 2017 में प्रकाशित दो प्रविष्टियों के संदर्भ में है। पत्रिका के इस अंक के संपादन में उक्तानुसार नाम हैं, जिसमें पुस्तक समीक्षा- ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘ मेरी पुस्तिका संबंधी है तथा इसी अंक में एक अन्य लेख मेरे द्वारा किए गए ग्राम बेलदार सिवनी के स्थल निरीक्षण से संबंधित है। प्रसंगवश ‘बेलदार‘ में मेरी जिज्ञासा लंबे समय से रही है। कुछ गांवों में बेलदारपारा तो है, मगर वहां बेलदार समुदाय का कोई नहीं। यह भी जानकारी मिलती है कि बेलदार, तालाब निर्माण के विशेषज्ञ, राजमिस्त्री होते हैं और इन्हीं में एक वर्ग सैनिेक-योद्धा भी है। सिरपुर में बेलदार समाज के आराध्य मंदिर होने की भी जानकारी मिलती है। बहरहाल, यहां इस स्थल निरीक्षण का प्रतिवेदन, जिसके आधार पर लेख रूप में प्रस्तुति के लिए श्री रायकवार का सहयोग मिला-

बेलदार सिवनी (तिल्दा नेवरा) से ज्ञात प्रतिमाएं
राहुल कुमार सिंह 

छत्तीसगढ़ में अनेक स्थलों से संयोग अथवा आकस्मिक रूप से प्राप्त होने वाले पुरावशेषों के वर्ग में आहत सिक्कों से लेकर विभिन्न राजवशों के सिक्के, मृणमयी मुद्रायें, ताम्रपत्र तथा प्रतिमायें आदि पुरावशेष गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से प्राप्त हुये हैं। विगत वर्षों में छत्तीसगढ़ में सिरपुर, मल्हार, महेशपुर, लीलर, सिली पचराही, तरीघाट, मदकूद्वीप, डमरू, राजिम, आदि स्थलों से सम्पन्न उत्खनन कार्य से अज्ञात तथा दुर्लभ प्रकार के अनेकानेक पुरावशेषों की उपलब्धि हुई है जिनसे प्रदेश का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास समृद्ध हुआ है। 

छत्तीसगढ़ के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुरास्थल मल्हार (बिलासपुर) से कृषकों को भू-सतह से आकस्मिक रूप से विभिन्न प्रकार के लघु पुरावशेष प्राप्त होते रहे हैं। इस ग्राम के एक कृषक श्री गुलाब सिंह ठाकुर द्वारा भू-सतह से संग्रहीत विविध प्रकार के लघु पुरावशेषों का अच्छा संग्रह किया गया है। इनमें से कुछ विशिष्ट अवशेषों का विद्वानों के द्वारा अध्ययन कर शोध ग्रंथों में प्रकाशन भी किया गया है। प्राचीन बसाहटों के भू-सतह से लघु पुरावशेषों का संग्रहण धैर्यपूर्ण तथा उबाऊ शौक के साथ-साथ एक कला भी है जिसके लिए रूचिसम्पन्न होना एक अनिवार्य गुण है। पुरावशेषों के महत्व से परिचित तथा खोज के क्षेत्र में समर्पित व्यक्ति अपने धैर्यपूर्ण परिश्रम तथा लगन से संकलित सिक्कों, अभिलिखित ठीकरों, पकी मिट्टी से निर्मित खिलौनों, मुहरों तथा प्रतिमा फलकों के माध्यम से संबंधित स्थल के विस्मृत वैभव को उजागर करने इतिहासकारों तथा पुराविदों को स्थल के अध्ययन, प्रकाशन तथा पुरातत्त्वीय कार्य के लिये उत्प्रेरित करते हैं। कालान्तर में मल्हार (बिलासपुर) में उत्खनन का सबसे ठोस आधार भू-सतह से विभिन्न प्रकार के प्रचुर पुरावशेषों की उपलब्धि रही है। 

गैर पुरातत्त्वीय स्थलों में उपलब्ध होने वाले प्राचीन लघु प्रतिमाओं की दृष्टि से रायपुर जिले के ग्राम हीरापुर (रायपुर नगर का विस्तारित आवासीय क्षेत्र) तथा ग्राम बेलदार-सिवनी (तिल्दा नेवरा) उल्लेखनीय है। उपरोक्त दोनों स्थलों के प्रतिमाओं की कलाशैली तथा प्राप्त होने की स्थिति में पर्याप्त समानताएं है। वर्ष 2010 में हीरापुर में नाली निर्माण के लिए की जा रही खुदाई के समय एक कच्चे मकान से संलग्न भाग पर लगभग पांच फीट की गहराई में मजदूरों को लघु आकार की कुछ प्रतिमाएं दबी हुई स्थिति में प्राप्त हुई थीं। इन प्रतिमाओं में कार्तिकेय, एकमुख लिंग, लज्जागौरी तथा विष्णु प्रतिमा उल्लेखनीय हैं। ये प्रतिमाएं चारों ओर से कोर कर निर्मित की गई हैं। इन पुरावशेषों को कुछ समय तक एक स्थानीय मंदिर में पूजा उपासना हेतु संग्रह कर रखा गया था। स्थानीय प्रशासन के सहयोग से इन्हें संग्रहालय हेतु अवाप्त कर लिया गया है। 

ग्राम बेलदार सिवनी के चतुर्दिक दस किलोमीटर के क्षेत्र में ऐतिहासिक स्मारक स्थल नहीं है। तथापि ग्राम में स्थित आधुनिक शिव मंदिर में पूजित प्राचीन शिवलिंग तथा अन्य क्षरितप्राय प्रतिमाखंड रखे हुये हैं। ग्राम में प्रवेश करते ही बायीं ओर एक प्राचीन सरोवर है जिसके चारों ओर पक्का घाट निर्मित है। अनुमानतः यह सरोवर कलचुरि-मराठा काल में निर्मित है। विगत वर्ष स्थानीय सरपच श्री विजय वर्मा के माध्यम से आवासीय उद्देश्य से निर्माण कार्य के समय प्राचीन प्रतिभाए उपलब्ध होने की जानकारी प्राप्त होने पर विभाग के सेवानिवृत्त उप संचालक श्री जी. एल रायकवार, तकनीकी कर्मचारी सर्वश्री प्रभात कुमार सिंह, पर्यवेक्षक तथा प्रवीन तिर्की, उत्खनन सहायक के साथ स्थल निरीक्षण किया गया। विवेच्य प्रतिमाओं का प्राप्ति स्थल (चित्र क्र. 1) श्रीमती गीता वर्मा, पंच, वार्ड क्रमांक 9 के स्वामित्व का आवासीय मकान है। इस मकान से संलग्न बाड़ी में शौचालय निर्माण हेतु गड्ढा खोदने के दौरान भू-सतह से लगभग नौ फीट की गहराई में लघु आकार की प्रस्तर निर्मित 9 प्राचीन प्रतिमाएं व अन्य अवशेष उपलब्ध हुये (चित्र क्र. 2)। 

उपलब्ध पुरावस्तुओं के संबंध में संक्षिप्त जानकारी निम्नानुसार है- 

क्र. - पुरावशेष का नाम - सामग्री - आकार - चित्र संख्या

1- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 17.5X8X5 सेमी. - 3 
2- एकमुख लिंग - प्रस्तर - 20X7.5X6.5 सेमी. - 4 

3 - पार्वती - प्रस्तर - 10.5X5X3.5 सेमी - 5 
4 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 15.5X8X3.5 सेमी. - 6
5 - कार्तिकेय - प्रस्तर - 17.5X7.5X3 सेमी.-7 
6 - मानवाकृति नंदी - प्रस्तर - 11.5X10X4.5 सेमी. - 8 

7 - कुबेर -प्रस्तर - 13X9X6 सेमी. - 9 
8 - कुबेर -प्रस्तर - 12X9X3.5 सेमी. - 10 
9 - सिंह - प्रस्तर - 10.5X6.5X3.5 सेमी. - 11 
10 - पायेदार सिलबट्टा - प्रस्तर 17.5X145X13 सेमी. - - 

प्राप्त मूर्तियाँ शैव एवं शाक्त धर्म से संबंधित हैं तथा बलुआ प्रस्तर से खिलौनानुमा लघु आकार में निर्मित हैं। आकार की दृष्टि से विवेच्य प्रतिमाएं चल विग्रह हैं तथा मुख्यतः तीर्थ यात्रियों, दीर्घकाल तक यात्रा करने वाले व्यवसायियों तथा राजकीय शिविरों में प्रवास काल में अर्चना के लिये उपयोग में लायी जाती रही होंगी। लघु आकार की धातु तथा प्रस्तर प्रतिमाएं, गृहस्थों के पूजा घरों में भी उपयोग में लायी जाती थीं। छत्तीसगढ़ अंचल में घरो के आंगन में तुलसी चौरा पर शालग्राम अथवा शिवलिंग की पिंडी रखे जाने की परंपरा अद्यतन दिखाई पड़ती है। सूर्य को जल अर्पण, शिवलिंग का जलाभिषेक तथा तुलसी के बिरवा की पूजा एक साथ सम्पन्न करने की यह सुंदर और सरल देशज विधि है। एक ही जगह पर गहराई में हंडा (दफीने) के सदृश्य लघु आकार की प्रतिमाओं को दबा कर गुप्त रूप से रखे जाने की प्रथा के संबंध में यह भी अनुमान होता है कि संबंधित स्थल में प्रस्तर शिल्पकार निवास करते थे तथा व्यवसायिक प्रयोजन से प्रतिमाओं का निर्माण करते थे अथवा अन्यत्र स्थल के व्यवसायी विक्रय करने के लिए इन्हें लाया करते। किसी आकस्मिक दुर्घटनाजन्य परिस्थिति के कारण इन प्रतिमाओं को सुरक्षित रखने, अपवित्र अथवा दूषित होने से बचाने के उद्देश्य से अथवा अज्ञानतावश अमंगलजनक समझकर किसी निश्चित एकांत स्थल पर भूमि के भीतर गहराई में दबा दिये जाते रहे होंगे। गैर पुरातत्त्वीय स्थलों से क्षेत्रीय कला शैली से पृथक कला शैली की लघु प्रतिमाओं/सिक्कों/मृत्पात्रों, पकी मिट्टी की मुहरों आदि की उपलब्धि से सांस्कृतिक एकता, परस्पर प्रभाव तथा तद्युगीन यात्रा पथों का एक संकेत प्राप्त होता है। 

संक्षेप में पृथक कला शैली के लघु पुरावशेषों की उपलब्धियों के निम्न कारण हो सकते हैं- 

1. तीर्थयात्रियों के द्वारा पडाव स्थलों में नित्य पूजा आराधना के लिए लघु प्रतिमायें साथ में रखी जाती रही होंगी। 
2. तीर्थ स्थल अथवा किसी अन्य कला केन्द्रों प्रत्यावर्तन के समय यात्रियों के द्वारा अल्पमूल्य, अल्पभार, आकर्षक एवं लघु आकृति के कारण पूजा-आराधना अथवा स्मृति चिन्ह के रूप में क्रय कर नियत गन्तव्य तक ले जाया जाता रहा होगा। 
3. लघु प्रतिमाओं का निर्माण प्राप्ति स्थल में ही यायावर शिल्पी समुदाय द्वारा किया जाता रहा होगा। किसी दुर्घटना के कारण इन्हीं शिल्पियों के द्वारा निर्मित लघु कलाकृतियाँ बाद में दबी हुई स्थिति में प्राप्त होती हैं। 

विवेचित कला शैली की लघु आकार की प्रतिमाएं छत्तीसगढ़ के मल्हार, हीरापुर तथा बेलदार सिवनी से उपलब्ध हुयी हैं। इन प्रतिमाओं के आकार, बनावट तथा कला शैली में समानताएं हैं। इनमें अलंकरण अत्यल्प हैं। रूपाकृति मूल विषयवस्तु पर केन्द्रित है। अतिरिक्त पौराणिक अथवा अलंकरणात्मक विस्तार का अभाव है। यक्ष आकृतियों के स्थूल सौंदर्य के सदृश्य प्रतिमालक्षण से परिपूर्ण हैं। इन कलाकृतियों में मूर्ति शिल्प के विकास, क्षेत्रीय परंपरा तथा तद्युगीन लुप्त प्रचलित संप्रदाय भी आभासित होता है। यक्ष परंपरा के संवाहक लघु आकार की देव आकृतियों की आराधना विशिष्ट साधना पथ का संकेतक है। 

बेलदार सिवनी से प्राप्त एकमुख लिंग प्रतिमाओं के बनावट में समरूपता नहीं है। मुख तथा शीर्ष के केश विन्यास में अंतर है तथापि दोनों प्रतिमाओं के ग्रीवा में ग्रैवेयक प्रदर्शित हैं। एक किंचित बड़े आकार के मुखलिंग में प्रौढ़ता तथा दूसरी प्रतिमा में सौम्यता प्रदर्शित है। कार्तिकेय की प्राप्त दोनों स्थानक प्रतिमायें दंडधर के सदृश्य दायें हाथ में शूल (शक्ति) धारण किये हैं। उनके शीर्ष में त्रिशिखी केश विन्यास है। ललितासन में आसनस्थ कुबेर के दायें हाथ में पात्र (चषक) तथा बायें हाथ में नकुली है। उनके शिरोभाग पर आकर्षक केश विन्यास है। पार्वती के दायें हाथ में स्थूल शूल है। मानव रूप में वज्रासन में बैठे हुये नंदी दोनों हाथ जोड़े हुये हैं। पिछले दोनों पैरों पर बैठे तथा अगले पैरों पर भार देकर उन्नत ग्रीव सिंह का मुख किंचित खंडित है। बेलदार सिवनी से प्राप्त लघु आकार की प्रतिमाओं में कला की प्रौढ़ता, सौष्ठव तथा सौंदर्य की अपेक्षा क्षेत्रीय प्रभाव अधिकतम प्रदर्शित है। इन प्रतिमाओं का काल लगभग 7वीं से 8वीं सदी ईसवी प्रतीत होता है। 
---

Monday, September 19, 2022

तलवा से प्राप्त सिक्के

सन 1995 का मई माह। अपने नोट्स और कुछ स्मृति के आधार पर कुछ बातें। किसी सुबह कलेक्टर, बिलासपुर श्री एम.के. राउत का फोन आया। उन्होंने बताया कि बाराद्वार थाने के किसी गांव से सोने के सिक्के मिले हैं, जिन्हें जब्त कर सक्ती अनुविभाग में जमा कराया गया है। स्थल का निरीक्षण और सिक्कों का परीक्षण किया जाए, बाराद्वार और सक्ती के संबंधित कार्यालयों को अवगत कराया गया है, मौके पर किसी तरह की कठिनाई हो तो उनसे संपर्क किया जावे। बाराद्वार थाने से प्राथमिक जानकारी मिल गई। और सक्ती में श्री कार्तिकेय गोयल, आइएएस ने अपने समक्ष सिक्कों का परीक्षण मुझे (संग्रहाध्यक्ष, जिला पुरातत्व संग्रहालय, बिलासपुर को) कराया। उक्त निर्देशों के परिपालन में की गई कार्यवाही/प्रतिवेदन- 

ग्राम तलवा, बिलासपुर से लगभग 105 कि.मी. दूर बाराद्वार-जैजैपुर मार्ग पर बस्ती बाराद्वार के निकट सक्ती-तहसील, थाना- बाराद्वार के अंतर्गत प.ह.नं.- 16 में स्थित है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्राम तलवा के तीन कृषि मजदूर क्रमशः हरिहर व हरिसिंह आ. कार्तिक तथा बुधराम आ. भोकलो को कृषि कार्य के दौरान खेत से धातु पिण्डों की प्राप्ति हुई थी जो माह मई 95 के प्रथम सप्ताह में जब्त कर तहसील कार्यालय सक्ती में लाकर जमा किये गये हैं।

उक्त सिक्कों का कथित प्राप्ति स्थल ग्राम-तलवा के दक्षिणी भाग में स्थित पनखत्ती तालाब के निकट है। तालाब के दक्षिण-पूर्वी पार के फूट जाने से इस मार्ग से तालाब की जा निकासी हुई थी जिससे संलग्न खेत में मिट्‌टी पट गई थी। खेत को पुनः समतल बनाते हुए उक्त सिक्के प्राप्त हुए बताये जाते हैं। सिक्कों का अवलोकन करने पर ज्ञात हुआ कि उक्त सिक्के 5वीं-6वी सदी ईसवी काल से संबंधित है। अवलोकन विवरण निम्नानुसार है :-

0 हरिहर आ. कार्तिक से मिले 56 स्वर्ण सिक्के विभिन्न आकार के सिक्के 1.9 से.मी. से 2.8 से.मी. तक के हैं। सिक्कों के ऊपरी भाग पर गरूड़ अंकित है तथा निचले भाग पर तत्कालिन पेटिकाशीर्ष शैली की ब्राह्मी में शासकों के नाम महेन्द्रादित्य तथा प्रसन्नमात्र अंकित है। सिक्के-उत्पीड़ितांक या ठप्पांकित (Repousse) शैली के है। 

0 हरिसिंह आ. कातिक से मिले 24 नग सिक्के जिनका न्यूनतम आकार लगभग 1.8 से.मी. तथा अधिकतम 2.2 से.मी. है। अंकित लिपि एवं चिन्ह पूर्व वर्णित सिक्कों के अनुरूप है। 

0 बुधराम आ. भोकलो से मिले एक सिक्का तथा दो सलाई (Sticks) हैं। यह सिक्का भी पूर्व वर्णित सिक्कों के अनुरूप है जिस पर श्री महेन्द्रादित्य उत्कीर्ण है। दो सलाइयां संभवतः स्वर्ण सिक्कों को ही गलाकर बनाई गई होगी जिनका आकार 5.3x.7x.5 से.मी. तथा 2.5x.5x.35 से.मी. है।

इस प्रकार उक्त प्राप्तियों में कुल 81 स्वर्ण सिक्के तथा 2 सलाइयां है जिसका कुल वजन लगभग 125 ग्राम है। जिनमें से सिक्के पुरातत्वीय महत्व के है, किन्तु सलाइयों का कोई पुरातात्विक-ऐतिहासिक कलात्मक महत्व नहीं है। पुरातात्विक महत्व के 81 सिक्कों के अधिक विस्तृत व गहन अध्ययन की आवश्‍यकता है जो उक्त सिक्कों की रसायनीकरण (साफ-सफाई) के पश्चात संभव हो सकेगी।

ठप्पाकित शैली के अब तक प्राप्त सिक्कों के परिप्रेक्ष्य में तलवा से प्राप्त निधि की स्थित इस प्रकार हैः-

ठप्पांकित प्रकार के सिक्के हमारे देश में सर्वप्रथम 1926-27 में प्रकाश में आये बहरामपुर, जिला-कटक (उड़ीसा) से 47 प्रसन्नमात्र के सिक्के (स्वर्ण) सर्वप्रथम दर्ज ठप्पांकित सिक्के हैं।

अब तक कुल 306 ठप्पांकित सिक्के प्राप्त हुए है। तलवा निधि से प्राप्त सिक्कों को जोड़ने पर यह संख्‍या अब 387 हो गई है। इस प्रकार के सिक्के मूलतः दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) तथा सीमावर्ती क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं।

रायपुर जिले के खैरताल से 54 सिक्के पितईबंद से 49 सिक्के, ग्राम रीवां से 39 सिक्के सिरपुर उत्खनन से 1? सिक्का तथा महासमुन्द व सिरपुर क्षेत्रों में फुटकर 4 सिक्के प्राप्त हुए हैं। बस्तर जिले के एडेंगा से 32 सिक्के, दुर्ग जिले के कुलिया से 30, रायगढ़ जिले के साल्हेपाली से 1 सिक्का तथा बिलासपुर जिले के मल्हार से 2 (1 स्वर्ण व 1 ताम्र), ताला से 1 (रजत) तथा नन्दौर से 1 सिक्का प्राप्त हुआ है।

उड़ीसा में बहरामपुर से प्राप्त 47 सिक्कों के अतिरिक्त कालाहांडी जिले से बहना से 10 सिक्के मारागुडा से 8 सिक्के तथा मदनपुर रामपुर से 1 सिक्का प्राप्त हुआ है। महाराष्ट्र के भंडारा जिले से 12 सिक्के प्राप्त हुए हैं, बिहार में शाहाबाद जिले से 1 तथा अन्य फुटकर 6 सिक्के (नागपुर संग्रहालय को बिहार शासन से प्राप्त) उत्तरप्रदेश में लखनऊ संग्रहालय में 5 सिक्के तथा पश्चिम बंगाल में कलकत्ता के निजी संग्रहालय में 2 सिक्के हैं।

इस प्रकार तलवा से प्राप्त 81 सिक्कों की निधि संख्‍या की दृष्टि से अब तक प्राप्त सभी निधियों से अधिक है।

पूर्व में प्राप्त ठप्पांकित सिक्कों पर अंकित शासकों का नामवार वर्गीकरण इस प्रकार हैः- महेन्द्रादित्य 137 सिक्के, क्रमादित्य 4 सिक्के, (संभवतः क्रमशः कुमारगुप्त प्रथम व स्कन्दगुप्त), प्रसन्नमात्र के 24 सिक्के (शरभपुरीय शासक), वराहराज के 29 भवदत्त के 3, अर्धपति के 3, नंदनराज के 1, स्तंभ के 1 (सभी नलवंशी शासक) तथा अन्य 4 सिक्के जो संभवतः कुषाण तथा गुप्त शासकों से संबंधित है। 

तलवा निधि में प्राप्त सिक्कों में आरंभिक अनुमान के अनुसार 78 सिक्के महेन्द्रादित्य तथा 3 सिक्के प्रसन्नमात्र के हैं। इस प्रकार महेन्द्रादित्य की कुल सिक्कों की संख्‍या अब बढ़कर 215 तथा प्रसन्नमात्र की कुल सिक्कों की संख्‍या 127 हो जावेगी।

पूर्व में प्राप्त निधि संयोगों में महेन्द्रादित्य के सिक्के कुषाण व गुप्त शासकों के साथ प्राप्त हुए हैं तथा क्रमादित्य, प्रसन्नमात्र व अन्य नल शासकों के सिक्के साथ भी प्राप्त हो चुके हैं। ठप्पांकित प्रकार के सिक्के सामान्य तौर पर स्वर्ण धातु के ही हैं किन्तु अपवादस्वरूप प्राप्त चांदी तथा ताम्बे के 1-1 सिक्के बिलासपुर जिले के क्रमशः ताला एवं मल्हार से प्राप्त हुए हैं।
- - - - -
यह प्रतिवेदन संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर के शोध जर्नल ‘कोसल-12‘ वर्ष 2021 में Notes & News में पेज 214-216 पर प्रकाशित है। इसके साथ संपादकीय नोट इस प्रकार है-

टीप :- उल्लेखनीय है कि तलवा के इस महत्वपूर्ण मुद्रानिधि के संबंध में जानकारी का एकमात्र स्रोत लेखक द्वारा प्रस्तुत यह प्रतिवेदन आलेख ही है। इसमें लेखक ने तलवा मुद्रानिधि पर प्रतिवेदन के साथ ही तत्समय देश के विभिन्न क्षेत्रों से ज्ञात ठप्पांकित सिक्कों पर गंभीर शोधपरक जानकारी भी प्रस्तुत की है, जो पुरातत्त्वीय सर्वेक्षणकर्त्ताओं के कार्य हेतु मार्गदर्शी है। - संपादक