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Thursday, August 11, 2022

समय के सवाल

किस चक्की का पिसा आटा? वाला सवाल, समय के साथ अधिक प्रासंगिक होने लगा है, जब ‘शक्तिवर्धक‘ पैकेटबंद ने हर आम-खास की रसोई में अपनी जगह पक्की कर ली है। आटा, सब्जी, फल, दूध जैसे सभी खाद्य-पदार्थ को खराब होने से बचाए रखने के क्रम में वह कीड़ों के खाने लायक सुरक्षित नहीं रह जाता, हमें खुशी-खुशी अपने लिए उपयुक्त लगता है। जबकि रोजमर्रा के खाद्य पदार्थों में नमक के सिवा सभी कुछ जैविक या जैव-उत्पाद हैं, और इसलिए खाद्य होने की उसकी आयु और स्थिति की सीमा है, इसमें परिवर्तन-प्रासेस, जिसमें स्थानांतरण, हस्तांतरण, परिवहन शामिल, जितना सीमित हो, उतना बेहतर। यह खाने-पीने की शुद्ध-स्वास्थ्यकर सामग्री से ले कर स्वावलंबन तक के लिए सहायक है।

प्रसंगवश, ‘धर्मो रक्षति रक्षितः‘ के तर्ज पर ‘जीवो रक्षति रक्षितः’ कहा जाता है, जिसका सामान्य अर्थ होगा- अन्योन्याश्रय या जीवों की रक्षा करने पर, रक्षित जीव, रक्षक की रक्षा करते हैं। खाद्य के रूप में जीव भोजन बन कर हमारी जीव-रक्षा करते हैं मगर उन्हें भोज्य बनाने के लिए, हमेें अच्छी तरह अधिकतर उनका जीव हरना पड़ता है। साथ ही ध्यान रहे कि सिर्फ मानवता के लिए नहीं, बल्कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए भी जीव-रक्षा आवश्यक है। 

भोजन के लिए, उगाना, संग्रहण-भंडारण, कूटना-पीसना और पकाने (सरलतम, भूनना, सेंकना, उबालना) में लगने वाला समय और तरीका स्वावलंबन और स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त, पर्यावरण के अनुकूल था। अब चावल- पालिश्ड से फोर्टिफाइड होने लगा, दाल सुंदर चमकदार पालिश्ड मिलेगा, तेल रिफाइंड, दूध पाश्चराइज्ड, पानी प्यूरीफाइड फिल्टर्ड, और नमक आयोडाइज्ड। सभी, मूल्य और प्रक्रिया संवर्धित। फास्ट फूड दौर के बाद भविष्य कि ‘व्यस्त और सावधान‘ पीढ़ी को रोटी-चावल के बदले कैप्सूल का विकल्प मिल जाए, तो वह उसे राजी-खुशी स्वीकार करने को तैयार होगी।

पुस्तक ‘समय के सवाल‘ समाज के साफ माथे पर गहराती चिंता की लकीरें हैं। यहां भावुक पर्यावरणीय चिंता नहीं हैं, बल्कि तथ्यपूर्ण वैचारिक स्थितियों को रेखांकित किया गया है, जो हम सभी की नजरों के सामने, मगर नजरअंदाज-से हैं। समस्याओं के प्रकटन-विवेचन के साथ-साथ उसके व्यावहारिक निदान की ओर भी ध्यान दिलाया गया है। पुस्तक में हमारी सांस्कृतिक जीवन पद्धति में प्रकृति से सामंजस्य बनाते पर्यावरण के साथ दोस्ताना के बदलते जाने को जिस शिद्दत के साथ अनुपम मिश्र ने दर्ज किया था, माथे पर उभरी वे लकीरें लगातार गहराती जा रही हैं, और समाज ऐसी हर समस्या का तात्कालिक निदान पा कर निश्चिंत-सा है, जबकि सबको खबर है कि कहां, क्या और क्यों गड़बड़ हो रही है। बाजार ने उसे ‘मैं हूं ना‘ समझाते, ‘आश्वस्त‘ कर रखा है। ऐसी हर स्थिति पर सबसे सजग नजर और चुस्त तैयारी बाजार की है। ऐसे मुद्दों की यह पुस्तक, ‘पर्यावरण, धरती, शहरीकरण, खेती, जंगल और जल है तो कल है‘, शीर्षकों के छह भाग में 53 लेखों का संग्रह है।

भाग-1 ‘पर्यावरण‘ और भाग-2 ‘धरती‘ में कोयला बनाम परमाणु उर्जा तथा यूरेनियम के खनन, प्रसंस्करण और परीक्षण या विस्फोट से जुड़ी त्रासदी और जीव-जंतु और वनस्पतियों की तस्करी की ओर तथ्यों सहित ध्यान दिलाया है। साफ शब्दों में आगाह किया गया है- ‘ध्यान रहे, हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।‘

ग्लोबल वार्मिंग के तकनीकी पक्षों को आसान रूप में स्पष्ट किया गया है। पत्तों, खर-पतवार को जलाना, नष्ट करने की समस्या का भयावह रूप है वहीं पुस्तक में हिसाब निकाल कर दिखाया गया है कि रात्रिकालीन एक क्रिकेट मैच के आयोजन में लगने वाली बिजली की खपत, एक गांव के 200 दिन के बिजली खपत के बराबर होगा। खदान, बंजर-कृषि भूमि, मरुस्थल, ग्लेशियर, बर्फीले इलाकों को भी शामिल करते हुए बीहड़ में बदलती जमीन को आंकड़ों से स्पष्ट किया गया है कि गत 30 वर्षों के दौरान इसमें 36 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

भाग- 3 व 4 में ‘शहरीकरण‘ और ‘खेती‘ शीषकों के अंतर्गत दिखाया गया है कि एक तरफ महानगर हैं तो उसके साथ अनियोजित शहरी विकास भी। दिल्ली के भिखारियों के बारे में दिल्ली वालों को भी शायद ही पता हो, कि यहां ‘एक लाख से अधिक लोगों का ‘‘पेशा‘‘ भीख मांगना है। और कई अनधिकृत बस्तियों में बच्चों को भीख मांगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। यहीं विकलांग, दुधमुंहे बच्चे, कुष्ठरोगी आदि विशेष मांग पर ‘सप्लाई‘ किए जाते हैं।‘ इसी तरह महानगरीय अपसंस्कृति की देन- अपराध की विवेचना है। जल-निकास, भराव और नदी-तालाबों की स्थिति के साथ एक तरफ जानलेवा जाम है तो दूसरी और फ्लाईओवर से उपजी समस्याएं हैं। सफाई के संकल्प और हकीकत में कचरे और उसके निपटान के चिंताजनक हालात का विवरण है। रेल लाइन के किनारे का कचरा, ई-कचरा और स्वच्छ भारत अभियान की भी विवेचना है। जैसा कि कहा गया है- ‘कचरे को कम करना, निबटान का प्रबंधन आदि के लिए दीर्घकालीन योजना और शिक्षा उतनी ही जरूरी है, जितनी बिजली, पानी और स्वास्थ्य के बारे में सोचना।‘

चाय बागानों से जूट, दाल, कपास की खेती की समस्याएं हैं वहीं भविष्य का सपना देखते, अपनी सुविधा का सामान जुटाते, प्लास्टिक, ई-कचरा, यूज एंड थ्रो, डिस्पोजेबल या नये-पुराने मॉडल का बदलाव, की सच्चाई कि यह कुछ और आगे के भविष्य का कचरा भी है, की ओर ध्यान शायद जाता है। सारा दोष प्लास्टिक-पॉलीथिन के सिर मढ़ते हुए, यह नजरअंदाज हो जाता है कि इससे इतर वस्तुएं भी उत्पादन की प्रक्रिया पूरी होते तक पर्यावरण के लिए कितनी प्रतिकूल हैं। पुस्तक में चौंकाने और चितिंत करने वाला आंकड़ा है कि बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कंपनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट अवैध हैं। बोतलबंद पानी की खपत दो अरब लीटर पार कर गया है।

भाग-5, जंगल में वन और वन्य प्राणियों मुख्यतः असम में गैंडा, देश के विभिन्न राज्यों में हाथी, शुतुरमुर्ग के पालन और विक्रय, शिकार और संरक्षण की विसंगतियों का चित्रण है। कहा गया है- भूमंडलीकरण के दौर में पुरानी कहावत के जायज, ‘प्यार और जंग‘ में अब ‘व्यापार‘ भी जुड़ गया है। सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों की हकीकत, ‘सफेद हाथी‘ बन गया सोन चिरैया प्रोजेक्ट, ग्वालियर के घाटीगांव और करेरा-शिवपुरी इलाके के गांवों को उजाड़ कर चिड़िया को बसाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है और वह भी तब, जब चिड़िया फुर्र हो चुकी है। सन 1993 में इस अभ्यारण्य क्षेत्र में 5 पक्षी देखे गए, उसके बाद कई साल संख्या शून्य रही, लेकिन सरकारी खर्च होता रहा।

अंतिम भाग-6 ‘जल है तो कल है‘ में जहरीला होते भूजल के विभिन्न मामले, फ्लोराइडग्रस्तता, जल स्रोतों नदी-नालों के प्रभावित होने के बाद ‘सभ्यता‘ की चपेट में आ रहा समुद्र, दिल्ली के पास यमुना में समाहित होने वाली नदी हिंडन, जो लालच और लापरवाही के चलते ‘हिडन‘ बन गई है, का विवरण है। बताया गया है केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक भारत की कुल 445 नदियों में से आधी नदियों का पानी पीने योग्य नहीं है। प्रमुख नदियों गंगा, यमुना और कावेरी के प्रदूषण और अन्य समस्याओं का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है।

प्रकृति निर्भर आखेटजीवी-खाद्य संग्राहक यायावर, समय के साथ आत्मनिर्भर, स्वावलंबी गोप-कृषक हुआ। सभ्यता की यह इकाई मानव, औद्योगिक विकास से गुजरते हुए एआई दौर में आ कर वह कर्ता-निमित्त के बाद मैन पावर या मानव-संसाधन, बेजान पुर्जा बनता जा रहा है। जैसा कहा जाता है कि ‘गुलामी की कसौटी कठिन श्रम नहीं या किसी की आज्ञा पालन नहीं। गुलामी की कसौटी है अपने को गैर के हाथों में मशीन बनाकर सिपुर्द कर देने में।‘ हरबर्ट मारक्यूज के जुमले के सहारे- ‘भौतिक समृद्धि के नर्क‘ में छलांग लगाने को उद्यत सभ्यता के वर्तमान में, उसके भविष्य की साफ तस्वीर झलक रही है।

समाज का बड़ा तबका, यहां तक सक्षम जिम्मेदार ओहदाधारियों की मानसिकता भी ‘रोज कमाओ, रोज खाओ’ जैसी गरीबी रेखा के नीचे वाली हो गई है। मानों पूरी सभ्यता ‘एक लालटेन के सहारे‘ सरक रही है, उसे बस अगला कदम दिखता है, लेकिन यह नहीं कि आगे खड्ड, जहां से लौटना संभव नहीं होगा, कितना करीब आ गया है। प्रकृति अपने घाव खुद भरती है, किंतु घाव जो उसके अपने नहीं, ‘सभ्यता‘ ने दिए हैं और बहुत गहरे हैं, शायद वह भी भर जाएं, मगर उसके लिए जितना समय लगेगा, तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी, यों सभ्यता ने इन घावों को अपने हाल पर भी नहीं छोड़ा है, किसी 'झोला छाप डाक्टर वाली समझ और योग्यता' के साथ उसे रोजाना छेड़ने को उत्सुक और जाने-अनजाने उद्यत है। भगवान सिंह के शब्दों में- ‘सचाई यह है कि हमने बहुत बड़ी कीमत देकर बहुत कम पाया है। जिन सुविधाओं पर हमें गर्व है, उनकी यह कीमत कि नदियॉं गंदी हो जाएँ, धरती के नीचे का जल जहरीला हो जाए, अंतरिक्ष कलुषित हो जाए, मोनो ऑक्साइड से ओजोन मंडल फट जाए, और अब तक के ज्ञात ब्रह्मांड की सबसे विलक्षण और सुंदर धरती नरकलोक में बदलती चली जाए।‘

सन 2018 में प्रकाशित इस पुस्तक के समर्पण में ‘जल-जंगल-जमीन‘ के साथ जन और जानवर को भी जोड़ा गया है। लेखक पंकज चतुर्वेदी अपने स्वाभाविक और स्थायी सत्यान्वेषी पत्रकार-तेवर के साथ हैं, मगर जिम्मेदार नागरिक की तरह उपायों की चर्चा भी करते चलते हैं। इस दौर में जब प्रत्येक सत्य-विचार और वक्तव्य, दलगत पक्ष-प्रतिपक्ष से अधिक, समर्थक-विरोधी, राजनीतिक-सापेक्ष होने लगा है, तब नेता, अफसर, व्यापारी और हरेक जिम्मेदार को कटघरे में खड़ा करना उल्लेखनीय है, खासकर इसलिए भी कि इसका प्रकाशन भारत सरकार के ‘वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग‘ और ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी‘ द्वारा किया गया है।

Wednesday, April 6, 2022

शेर राजा

शेर राजा

शेर जंगल का राजा है।
शेर बचेगा तो जंगल बचेगा
जंगल को बचाना है
इसलिए शेर को बचाना है
हमारा सरोकार!
हम पर सारा दारोमदार?

शेर, शिकार करता है
अपनी भूख मिटाने को
अपनी प्राण रक्षा के लिए।
प्रकृति का नियम पालन करते
भोजन चक्र पूरा करते
संतुलन बनाए रखता है।

शेर, रोज शिकार नहीं करता
शिकार करता है,
तसल्ली से उसे सहेजता,
कई दिनों जीमता रहता है
फिर कुछ दिनों सोता है
बचा-खुचा, जूठन-छोड़न
रह जाता है, मुंह मारने
गीदड़, चील, लकड़बग्घों के लिए

इस राजा की प्रजा आखिर कौन है!
न पहेली है, न सवाल
जवाब सीधा सा,
प्रजा है हिरण।
यह प्रजा, कभी हाड़ मांस की
चाहे माया-मृग बनाई जा कर
आखेट-शिकार के लिए हमेशा मुफीद

दिहाड़ी हिरण के लिए
काम के घंटे,
सूर्योदय से सूर्यास्त
सातों दिन, बारहों महीने
काम-कमाई पेट भरना।
पूरे दिन लगातार घास चरना
प्रकृति का नियम पालना-पलना
भीड़ बन, समूह में रहना
और राजा का ग्रास बनना
उसका पेट भरना।

राजा का बचना, राजा को बचाना
हमारा पाठ, सीख, हमारा संकल्प।
एक राजा के लिए
बहुल प्रजा की कुर्बानी
प्रकृति का सं-विधान
पर्यावरण-प्रजातंत्र, नारे और अभियान।

शेर भी नहीं बचेगा
अगर जंगल नहीं बचेगा।
जंगल भी नहीं बचेगा
अगर हिरण नहीं बचेगा।
हिरण भी तभी बचेग
जब घास-पात बचेगा।
घास-पात बचा रहे।

प्रकृति अपने घाव खुद भरती है।
और प्राकृतिक नियम
जैसा हम नियंता बन, जाने-समझे-मानें
मगर वैसा अपवाद?
तदैव सदैव नहीं होता।

(यहां शेर, बाध से अभिन्न है, आशय lion-tiger दोनों से है, सामान्यतः lion-सिंह, बबर शेर और tiger के लिए शेर ही प्रचलित है।) 

‘समाज में सदाचार का बहुमत, बिखरा हुआ होता है और बहुमत का इकट्ठा होना, कभी स्वाभाविक, कभी खतरा आभास कराने पर, प्राण-रक्षा के लिए होता है‘ मेरे ऐसा कहने पर जैव-रूप अध्येता श्री अनुपम सिसोदिया ने मेरी इस बात को दुर्बोध स्थापना कहते, व्याख्या वाली ‘सुबोध‘ निर्मम बात कही, कि यह शिकारी-शिकार जैसा रिश्ता है। शिकारी महत्वपूर्ण माना जाता है और शिकार उनका स्वाभाविक भक्ष्य। शिकारी, शीर्ष पर अल्प और शिकार अंतिम पायदान पर, सीमांत और बहुल। समाज में देखना होता है कि कौन भरा पेट है और किसे अपने पेट के लिए दिन भर भटकना है। इस तरह भटकता, असंगठित बहुमत ही होगा। उसका शिकार होना, ग्रास बन जाना, सहज मान लिया जाता है। इस जगह मानव-समाज ने, उसी ‘बर्बर‘ व्यवस्था को, नियम की तरह स्वीकार कर पालनीय, संहिता की तरह मान्य कर लिया है, आदि ... वही कविता की शक्ल में।

Sunday, January 16, 2022

चकमक – अनुपम

परिवेश में घट रहा स्वाभाविक, कब भाषा ज्ञान के साथ कहानी बनने लगता है और लिपि ज्ञान के बाद लिख जाता है, यह अनुपम के साथ हुआ जब वे छह साल के थे, पहली कक्षा में। एक दृश्य, जिसे ठहरकर उन्होंने देखा, उनके बाल मन में कहानी सा बन गया और वे इसे सबको बताते, बार-बार सुनाते। थोड़े से प्रोत्साहन पर लिख भी डाला। वही तब ‘चकमक‘ बाल विज्ञान पत्रिका के अक्टूबर 1996 अंक में छपा।



चिड़िया और साँप

हमारे घर के पीछे मुनगा का पेड़ था। उसमें बरसात में बया घोसला बनाती थी। एक दिन क्या हुआ कि एक साँप चढ़ने लगा मुनगा के पेड़ पर। घोसला में से अण्डा खाने। सब बया ची-चीं करने लगीं। गौरैया भी आ गई। मैना आकर चिऊँ-चिऊँ करने लगी। सुनकर एक कौवा आ गया। तब तक साँप एक अण्डा खा गया। कौवा के काँव-काँव से डरकर साँप नीचे उतरने लगा। पर कौवा के उड़ जाने के बाद साँप फिर ऊपर चढ़ने लगा। फिर सब चिड़िया चिल्लाने लगीं। इस बार कौवा आया और चोंच से मारकर साँप को भगा दिया।
दार भात चुर गे
मोर किस्सा पुर गे

- अनुपम सिसौदिया, पहली, अकलतरा, बिलासपुर, म.प्र.


सस्टेनेबल डेवलपमेंट के स्नातकोत्तर पत्रोपाधिधरी अनुपम, अब वन-संपदा, जीवन और वन्य-प्राणियों और पर्यावरण जैसे क्षेत्र में रुचि लेते हैं। एक संयोग यह भी कि पत्रिका के इस अंक के मुखपृष्ठ पर मसालों की तस्वीर है, और अनुपम को खान-पान, मसालों, स्वाद, पाक-कला और पाक-शास्त्र में भी खासी रुचि है। स्वास्थ्य, स्वावलंबन, पर्यावरण और अर्थशास्त्र को जोड़ कर देखते हुए कहा करते हैं कि सप्लाई चेन-परिवहन और प्रासेसिंग को यथासंभव सीमित रखना ढेर सारे आदर्श लक्ष्यों की प्राप्ति का सहज तरीका हो सकता है।

श्री अनुपम सिसोदिया, राहुल कुमार सिंह के, यानि मेरे पुत्र हैं।

Thursday, March 17, 2016

सोनाखान, सोनचिरइया और सुनहला छत्तीसगढ़

'अमीर धरती के गरीब लोग' जुमला वाले छत्तीसगढ़ का सोनाखान, अब तक मिथक-सा माना जा रहा, सचमुच सोने की खान साबित हुआ है। पिछले दिनों सोनाखान के बाघमड़ा (या बाघमारा) क्षेत्र की सफल ई-नीलामी से छत्तीसगढ़, गोल्ड कंपोजिट लाइसेंस की नीलामी करने वाला पहला राज्य बन गया है। बलौदाबाजार जिले के सोने की खान, बाघमड़ा क्षेत्र 608 हेक्टेयर में फैला है और आंकलन है कि यहां लगभग 2700 किलो स्वर्ण भंडार है। इस क्षेत्र का एक्सप्लोरेशन 1981 में आरंभ किया गया था और मध्य भारत के इस महत्वपूर्ण और पुराने पूर्वेक्षित क्षेत्र के साथ, अधिकृत जानकारी के अनुसार, रोचक यह भी कि इस क्षेत्र में प्राचीन खनन के चिह्न पाए गए हैं। इसके अलावा मुख्यतः कांकेर, महासमुंद और राजनांदगांव जिला भी स्वर्ण संभावनायुक्त है।
बाघमड़ा (या बाघमारा) गांव के पास की पहाड़ी की वह छोटी गुफा,
जिसे स्‍थानीय लोग बाघ बिला यानि बाघ का बिल या निवास कहते है,
माना जाता है कि इसी के आधार पर गांव का नाम बाघमड़ा पड़ा है.
चित्र सौजन्‍य- डॉ. के पी वर्मा
इस सिलसिले में छत्तीसगढ़ के कुछ महत्वपूर्ण स्वर्ण-संदर्भों को याद करें। मल्हार में ढाई दिन तक हुई सोने की बरसात से ले कर बालपुर में पूरी दुनिया के ढाई दिन के राशन खर्च के बराबर सोना भू-गर्भ में होने की कहानियां हैं। दुर्ग जिले में एक गांव सोनचिरइया है तो सोन, सोनसरी, सोनादुला, सोनाडीह, सोनसिल्ली, सोनभट्ठा, सोनतरई, सोनबरसा जैसे एक या एकाधिक और करीब एक-एक दर्जन सोनपुर और सोनपुरी नाम वाले गांव राज्य में हैं। कुछ अन्य नाम सोनसरार, सोनक्यारी हैं, जिनसे स्वर्ण-कणों की उपलब्धता वाली पट्‌टी का अर्थ ध्वनित होता है और दुर्गुकोंदल का गांव सोनझरियापारा भी है, जिसका स्पष्ट आशय सोनझरा समुदाय की बसाहट का है।

छत्तीसगढ़ के सोनझरा, अपने सूत्र बालाघाट और उड़ीसा से जोड़ते हैं। एक दंतकथा प्रचलित है, जिसमें कहा जाता है कि पार्वती के मुकुट का सोना, इन सोनझरों के कारण नदी में गिर गया था, फलस्वरूप इनकी नियति उसी सोने को खोजते जीवन-यापन की है। जोशुआ प्रोजेक्ट ने छत्तीसगढ़ निवासियों को कुल 465 जाति-वर्ग में बांटा है। इसी स्रोत में देश की कुल सोनझरा जनसंख्या 17000 में से सर्वाधिक उड़ीसा में 14000, महाराष्ट्र। में 1500, मध्यप्रदेश में 400 और छत्तीसगढ़ में 700 बताई गई है।
सुनहली महानदी 
चित्र सौजन्‍य- श्री अमर मुलवानी
मुख्यतः रायगढ़ और जशपुर के रहवासी इन सोनझरों का काम रेत से तेल निकालने सा असंभव नहीं तो नदी-नालों और उसके आसपास की रेतीली मिट्‌टी को धो-धो कर सोने के कण निकाल लेने वाला श्रमसाध्य जरूर है। इन्हें महानदी के किनारे खास कर मांद संगम चन्दरपुर और महानदी की सहायक ईब और मैनी, सोनझरी जैसी जलधाराओं के किनारे अपने काम में तल्लीन देखा जा सकता है। बस्तर की कोटरी, शबरी और इन्द्रावती नदी में बाढ़ का पानी उतरने के बाद झिलमिल सुनहरी रेत देख कर इनकी आंखों में चमक आ जाती है। इन्हें शहरी और कस्बाई सराफा इलाकों की नाली में भी अपने काम में जुटे देखा जा सकता है।
सोनझरा महिला के कठौते में सोने के चमकते कण
चित्र सौजन्‍य- श्री जे आर भगत
सोना झारने यानि धोने के लिए सोनझरा छिछला, अवतल अलग-अलग आकार का कठौता इस्तेमाल करते हैं। इनका पारंपरिक तरीका है कि जलधाराओं के आसपास की तीन कठौता मिट्‌टी ले कर स्वर्ण-कण मिलने की संभावना तलाश करते हैं, इस क्रम में सुनहरी-पट्‌टी मिलते ही सोना झारते, रास्ते में आने वाली मुश्किलों को नजरअंदाज करते, आगे बढ़ने लगते हैं। ऐसी मिट्‌टी को पानी से धोते-धोते मिट्‌टी घुल कर बहती जाती है और यह प्रक्रिया दुहराते हुए अंत में सोने के चमकीले कण अलग हो जाते हैं।

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मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। वैदिक-पौराणिक एक कथा है राजा पृथु वाली और दूसरी, मयूरध्वज की। पृथु को प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है, यह भी उल्लेख मिलता है कि इसका अभिषेक दंडकारण्य में हुआ था। यह पारम्परिक लोकगाथाओं से भी प्रमाण-पुष्ट हो कर सच बन जाता है, जब देवार गायक गीत गाते हैं- ''रइया के सिरजे रइया रतनपुर। राजा बेनू के सिरजे मलार।'' यानि राजा (आदि राजा- पृथु?) ने रतनपुर राज्य की स्थापना की, लेकिन मल्हार उससे भी पुराना उसके पूर्वज राजा वेन द्वारा सिरजा गया है।

पृथु की कथा से पता लगता है कि उसने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। इसी दौर में जंगल कटवाये गए। कहा जाता है कि सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा (छत्तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा काटना' मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और गोरखपुर में बनकटा ग्राम नाम जैसे कई उदाहरण हैं।) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ।

बहरहाल, एक कथा में गाय रूप धारण की हुई पृथ्वी की प्रार्थना मान कर, उसके शिकार के बजाय पृथु ने उसका दोहन किया, (मानों मुर्गी के बजाय अंडों से काम चलाने को राजी हुआ)। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का बोध कराया। राजकाज के रूपक की सर्वकालिक संभावना वाली इस कथा पर जगदीशचन्द्र माथुर ने 'पहला राजा' नाटक रचा है।

मयूरध्वज की कथा जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी थोड़े फेरबदल से आई है। कथा की राजधानी का नाम साम्य, छत्तीसगढ़ यानि प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रत्नपुर से है और अश्वमेध के कृष्णार्जुन के युद्ध प्रसंग की स्मृति भी वर्तमान रतनपुर के कन्हारजुनी नामक तालाब के साथ जुड़ती है। कथा में राजा द्वारा आरे से चीर कर आधा अंग दान देने का प्रसंग है। रेखांकन कि पृथु और मयूरध्वज की इन दोनों कथाओं का ताल्लुक छत्तीसगढ़ से है।

मयूरध्वज की कथा का असर यहां डेढ़ सौ साल पुराने इतिहास में देखा जा सकता है। पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे का प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर को, लकड़ी का सामान्य काम करने वाले को बढ़ई से अलग कर, 'अंरकसहा' नाम दिया गया है और निकट अतीत तक आवश्यकता के कारण, उनकी पूछ-परख तो थी, लेकिन समाज में उनका स्थान सम्मानजनक नहीं था।

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।

सोनझरा की परंपरा और पृथु, मयूरध्वज की कथाभूमि छत्तीसगढ़, स्वर्ण नीलामी वाला पहला राज्य है। पहल करने में श्रेय होता है तो लीक तय करने का अनकहा दायित्व भी। इन कथा-परंपराओं के बीच सुनहरे सच की पतली सी लीक है- सस्टेनेबल डेवलपमेंट (संवहनीय सह्‌य या संपोषणीय विकास) की, जिसकी अवधारणा और सजगता यहां प्राचीन काल से सतत रही है। हमने परंपरा में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को आवश्यक माना है लेकिन इसके साथ ''समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥'' भूमि पर पैर रखते हुए, पाद-स्पर्श के लिए क्षमा मांगते हैं। अब सोने की खान नीलामी के बाद उत्पादन का दौर शुरू होने के साथ याद रखना होगा कि संसाधन-दोहन का नियमन-संतुलन आवश्यक है, क्योंकि मौन और सहनशील परिवेश ही इस लाभ और विकास का पहला-सच्चा हकदार है, लाभांश के बंटवारे में उसका समावेश कर उसका सम्मान बनाए रखना होगा और यही इस नीलामी की सच्ची सफलता होगी।

पुछल्‍ला- सोनाखान के साथ वीर नारायणसिंह, बार-नवापारा, तुरतुरिया, गुरु घासीदास और गिरौदपुरी, महानदी-शिवनाथ और जोंक की त्रिवेणी को तो जोड़ना ही चाहता था, विनोद कुमार शुक्‍ल के 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की सोना छानती बूढ़ी अम्‍मां भी याद आ रही है और छत्‍तीसगढ़ की पड़ोसी सुवर्णरेखा नदी भी। लेकिन इन सब को जोड़ कर बात कहने की कोशिश में अलग कहानी बनने लगी, इसलिए फिलहाल बस यहीं तक।

Wednesday, June 6, 2012

मेरा पर्यावरण

कल एक और पर्यावरण दिवस हमने बिता लिया।

खबर है इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का विषय- ''हरित अर्थव्यवस्था: क्या आप इसमें शामिल हैं?'' (Green Economy: Does it include you?)। यह भी खबर है कि इस अवसर पर विशेष प्रदर्शनी रेलगाड़ी के 8 डिब्बों में जैव विविधता और आजीविका के बीच का संबंध भी प्रदर्शित होगा।

पर्यावरण दिवस की अगली सुबह, आज शुक्र पारगमन हो रहा है। यह वैसी उजली नहीं, सूरज पर एक धब्‍बा बनेगा। यह सुबह मेरी रोजाना की साथी मछलियों के लिए हुई ही नहीं। रायपुर के इस खम्‍हारडीह तालाब में मछलियां, मछुआरों की आजीविका बनती रहीं, आज देखा तालाब का कालिख हो रहा हरा पानी और मछलियां...-




लगता है, बच्‍ची ने रट लिया है और सुबकते, पाठ अनचाहे दुहरा रही है-
मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओ डर जाती है
बाहर निकालो मर जाती है

आज तो यह पाठ झूठा हुआ।

Friday, March 18, 2011

गौरैया

''1906/07 जब मादा अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरैया सूराख के पास कील पर बैठा था। मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा। ... ... ... अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरैयों को मार गिराया'' अविश्वसनीय लग सकता है कि यह प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली की हरकत है और उन्हीं का बयान 'एक गौरैया का गिरना' से लिया गया है। इतना ही नहीं, आगे टिप्पणी है- ''मुझे इस नोट पर गर्व है। ... ... ... आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।''

पुस्तक के 'बस्तरः1949'अध्याय में लिखा है- ''अपने लंबे जीवन में सरगुजा के महाराजा की अपनी प्रजा के प्रति भलाई करने वाली एकमात्र प्रतिबद्धता थी, बाघों की हत्या करना। ... उन्होंने 1170 से अधिक बाघ मारकर, निश्चय ही किसी प्रकार का रिकार्ड बनाया होगा तथा अपने अंतकरण में, यदि उनमें था, उसकी कचोट अनुभव की होगी।'' एक अन्य उद्धरण है- ''सरगुजा राज्य के एक पड़ोसी राज्य, कोरेआ (पूर्वी मध्य प्रदेश) के महाराज के शिकार में अपना नाम अमर कर लिया है। उन्होंने ... भारत के अंतिम तीन चीतों का शिकार कर इस जाति का भारतीय जमीन पर से हमेशा के लिए सफाया कर दिया।''

जिम कार्बेट की हथेली पर चिडि़या
सिद्धार्थ और देवदत्त की प्रसिद्ध कहानी की सीख है- मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (ज्‍यों डिसेक्‍शन करने वाले हाथ ही शल्‍य चिकित्‍सा कर जान बचाते हैं)। ऊपर आए उद्धरणों के साथ कुमाऊं और रूद्रप्रयाग के आदमखोरों के शिकारी जिम कार्बेट का उदाहरण, उनके एक हाथ में लिए अंडों को बचाते हुए दूसरे हाथ से गोली दागने वाले प्रसंग सहित, स्मरणीय है। यों कहें कि भक्षक ही रक्षक या संहारक ही संरक्षक बन जाए तो इससे बेहतर रक्षा, और क्‍या होगी। बेगूसराय, बिहार के चिडि़मार अली हुसैन को सालिम अली द्वारा अपना सहयोगी पक्षी संरक्षक बना देने की नजीर है ही।

वन-वन्‍यजीव संरक्षण के दो उद्धरण- पहला, मृदुला सिन्‍हा द्वारा लिपिबद्ध राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्‍मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' से- ''अपने शौक के लिए ही क्‍यों न सही, वन्‍य-संपदाओं के संरक्षण के लिए इन राजा-महाराजाओं ने जितनी सतर्कता बरती थी, वैसी तो आज जंगलों की रक्षा और पर्यावरण के प्रहरी बनने का ढोल पीटने वाले आधुनिक लोग भी नहीं बरतते होंगे। ये राजा-महाराजा इस बात के लिए अत्‍यंत जागरूक रहा करते थे कि शेरों की संख्‍या निर्धारित सीमा के नीचे कभी न जाने पाए। इसीलिए उनके हाथों वन्‍य-जीवों का संगोपन और संवर्ध्‍दन हो सका। और दूसरा, थोरो के 'वाल्‍डन' से- ''शिकार के जानवरों का शायद सबसे बड़ा मित्र ('पशु-परोपकारी समाज' को मिलाकर भी) शिकारी ही होता है।''

सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्‍तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।

छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी खरौद के खुशखत, कवि कपिलनाथ मिसिर, बड़े पुजेरी की विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचना है 'खुसरा चिरई के बिहाव'। यह काव्य, पक्षी कोश के साथ जैव विविधता जैसे आधुनिक शास्त्रीय विषयों और सूक्ष्म अवलोकन की समर्थ लोक अभिव्यक्ति हैं। रचना में खुसरा चिड़िया के विवाह अवसर पर पूरी जमात को शामिल और पक्षियों को उनके व्यवहार के अनुसार भूमिका निभाते बताया गया है। गौरैया के लिए 'गुड़रिया धान कुटाती है' और एक बार 'गौरेलिया पाठ पढ़ाता है' कहा गया है। वाद्यों में निसान, ढोल, मांदर, तमूरा, करताल, खंजरी, मोहरी, दफड़ा, टिमटिमी, नफेरी के साथ उनकी ध्वनि को शब्दों में उसी तरह बांधा गया है जैसे परती परिकथा में रेणु जी ने ('खुसरा...' का प्रकाशन 1948-49 में बताया जाता है)। इस रचना में विवाह के नेग-चार के साथ अन्न और पेड़ों की नाम-सूची के अलावा शिव-स्तुति श्लोक भी हैं।

धूल-स्‍नानःबाथ सीन
गौरैया, छत्तीसगढ़ी में सामान्‍यतः गुड़ेरिया और बाम्हन चिराई भी कही जाती है। कहा जाता है कि इसके चूजे को कोई व्‍यक्ति स्‍पर्श कर दे तो यह उसे त्‍याग देती है और यह भी कि बाम्हन चिराई को पानी मिला और वह नहाने लगती है। वैसे गौरैया धूल में भी नहाती है, घाघ-भड्‌डरी की कहावत है-
'कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर।
चींटी ले अंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।'
गौरैया का धूल-स्नान, आसन्न वर्षा का तो जल-स्नान, वर्षा न होने का संकेत माना जाता है।

माना गया है कि गौरैया, रोग-व्‍याधि मुक्‍त स्‍थान पर ही घोंसला बांधती है। वह ब्राह्मणों की तरह छुआ-छूत में सख्‍त भी मानी गयी है। मनुष्य द्वारा छू लिये जाने पर उस गौरैया को छूत मान कर, जात निकाला दे कर चोंच मारा जाता है लेकिन सूपे को किसी डंडी से तिरछा टिका कर या कमरा बंद कर गौरेया पकड़ना, फिर उसे लाल-काला रंग कर या धागा बांधकर, उड़ाने के अभियान से शायद ही कोई बचपन अछूता हो।

एक किस्से में गौरेया मनुष्य जाति के लिए संदेश लेकर आती है कि दिन में एक बार खाना और दो बार नहाना, लेकिन कहने में उससे हुई चूक से मनुष्य एक बार स्नान और दो बार भोजन करने लगा। इसकी सजा स्वरूप उसके पैरों में अदृश्य बेड़ी पड़ गई और उसे चम्पा (एक साथ दोनों पैर पर, फुदककर) चलना पड़ता है। किस्से में यह भी बताया जाता है कि प्रायश्चित स्वरूप उसे खुद बार-बार स्नान करना पड़ता है और भोजन के फिराक में लगे रहना होता है। साल में दो बार त्यौहारों पर बेड़ी छूटती भी है, तब यह ठुमक-ठुमक कर, इतराती चलती है और यह दुर्लभ दृश्य, शुभ माना जाता है, इसके विपरीत गौरैया का प्रजनन देखना निषेध किया जाता है। पक्षी मैथुन, खासकर काग-मैथुन देख लेने पर झूठी मृत्यु सूचना दी जाती है और प्रायश्चित होता है जब कोई स्वजन इस खबर पर रो ले। पक्षियों, विशेषतः सर्वाधिक घरू गौरैया, मैना और कौए की बोली की व्याख्‍या करने वालों के भी रोचक संस्मरण सुनाए जाते हैं। गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल और बारम्‍बारता है।
आंचलिक भावों के कवि कैलाश गौतम के फागुनी दोहे, बड़की भौजी जैसी कविताएं खूब पसंद की जाती हैं, उनकी ऐसी ही एक कविता 'भाभी की चिट्‌ठी' का दोहा है-
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।

एक किस्से में काम के दौरान व्यवधान की सजा बतौर गौरैया के पैरों में लुहार द्वारा बेड़ी डालने की बात कही जाती है। गौरेया के लिए प्रचलित एक अन्य कहानी में चियां-म्यांरी (चूजे-मां) कुदुरमाल (कबीरपंथियों का प्रमुख केन्द्र) मेला के बजाय भांटा बारी (बैगन की बाड़ी) पहुंच कर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और किस्से के साथ गीत में इसकी मार्मिकता बयान होती है। पंचतंत्र की गौरैया के अंडे मदमत्‍त जंगली हाथी के कारण गिर कर फूट जाते हैं, तब वह विलाप तो करती है, लेकिन कठफोड़वा, मक्‍खी और मेंढक की मदद से बदला भी लेती है।

गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्‍नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए।
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में,
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुकम हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं,
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएं।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को,
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।

बताया जाता है कि 1958 में माओ त्से-तुंग, आजकल उच्चारण माओ जिदौंग है, ने गौरेयों से होने वाले फसल का नुकसान कम करने के लिए गौरैयों को ही कम कर देना चाहा, लेकिन इस चक्कर में गौरैयों के भोजन बनने से बच जाने से टिड्‌डे इतने बढ़े कि उनसे हुए नुकसान से अकाल की स्थिति भुगतनी पड़ी।

''गांवों में कहा जाता हैः जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती वह घर निर्वंश हो जाता है। एक तरह से घर के आंगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुगकर मुड़ेरी पर बैठना, हर सांझ, हर सुबह हर कहीं तिनके बिखेरना, और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना, अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्‍थ के लिए बच्‍चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्‍छलता का प्रतीक है।'' यह विद्यानिवास मिश्र के 'आंगन का पंछी' (और बनजारा मन) का उद्धरण है, जो निबंध, चीन में गौरैयों के साथ किए जा रहे उक्‍त सलू‍क के प्रति आक्रोश और व्‍यथा से उपजी रचना है। विश्‍वमोहन तिवारी ने अपनी पुस्‍तक में लिखा है कि ''घोंसला बनाने के लिए इसकी दृढ़ इच्‍छाशक्ति के सामने तो मौलाना अबुल कलाम आजाद भी हारे थे'' का आशय अब तक तलाश रहा हूं।

बीते माह उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति के जिक्र सहित समाचार आया कि फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से मधुमक्खियां, तितलियां, कीट और गौरेया गायब हो गई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में रायपुर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान 8 जनवरी को उन्‍होंने बातचीत में कहा कि हमने अपने घर के खिड़की-दरवाजों को जाली से इस तरह बंद कर लिया है कि मच्छर भी न घुस सके, फिर गौरैया कैसे घर में प्रवेश करे (पंछी भी पर न मार सके)।

25 अप्रैल 2003 को इंडियन हिस्टारिकल रेकार्ड्‌स कमीशन के 58वें सत्र के उद्‌घाटन अवसर पर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री के उद्‌बोधन का समापन वाक्य था- 'देश का तीसरा गर्म शहर रायपुर में आपका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं।' प्रदूषण में भी यह शहर अव्वल ही न हो, होड़ में तो जरूर होगा। इस गरम, प्रदूषित शहर के इतिहास में सन 1938 की एक रिपोर्ट में यहां संग्रहालय भवन में अपरिमित गौरैयों का प्रवेश परेशानी का सबब बताया गया है।
सन 1875 मे निर्मित संग्रहालय भवन

चटका पर चटका (संस्‍कृत में चिडि़या या गौरैया के लिए यही शब्‍द है, रायगढ़ के उड़ीसा सीमावर्ती झारा इसे चोटिया कहते हैं) यानि गौरैया पर क्लिक करें और देखें गत वर्ष से तय 20 मार्च, गौरैया दिवस के बारे में। हरेली पर चतुर्दिक हरियाली और दीपावली पर दीपों की रोशनी होती है, धन-धान्‍य से घर भरा हो तो नवाखाई और छेरछेरा, रंगों से सराबोर होली। लेकिन दिवस मनाने की अनिवार्य शर्त की तरह कमी और संकट का सयापा करना औपचारिकता बन गया है इसलिए ये 'दिवस', त्यौहार से भिन्न विलाप पर्व बन जाते हैं। अब हम क्या करें, गौरैया कम होने का रोना कैसे रोएं, कैसे हो इस दिवस की ऐसी औपचारिकता का निर्वाह। ये देखिए, शिवमंगल सिंह सुमन के शब्‍दों में 'मेरे मटमैले आंगन में फुदक रही गौरैया' या बच्‍चन जी के 'नीड़ का निर्माण फिर', 'ए‍क दूजे के लिए' और 'एक चिडि़या, अनेक चिडि़या' वाले मेरे इर्द-गिर्द के दृश्य।
इस शहर रायपुर में तो गौरैया बहुतायत थीं, हैं और मेरा विश्वास है कि रहेंगी। सो हम इस 'दिवस' को त्‍यौहार जैसा ही मान रहे हैं और क्‍यों न रायपुर को गौरैया नगर मान लिया जाए।

पोस्‍ट आपको पसंद आए तो श्रेय उन ढेरों (अब्‍लॉगर) लोगों का, जिनके पास ऐसी 'अनुत्पादक' सूचनाओं का खजाना होता है, इनमें कुछेक से मेरा संपर्क-संवाद बना रहता है। इनमें रायपुर निवासी और अब भोपालवासी अग्रज आदरणीय बाबूदा (श्री नंदकिशोर तिवारी) भी हैं, जिन्‍होंने तत्‍काल संवाद के इस युग में पत्र लिखकर आशीर्वाद-स्‍वरूप कुछ महत्‍वपूर्ण संदर्भ डाक से नहीं, बल्कि हस्‍ते भेजा। इनलोगों से मिलते रहने पर अपनी अल्‍पज्ञता के साथ वेब की सीमाओं का भान होता रहता है। यह भी लगता है कि सब हमारे ही जिम्‍मे नहीं, बड़े-बुजुर्ग भी हैं। ऐसे सुहृद, मेरी ललचाई नजर को पहचान लेते हैं और मुखर हो कर, घर-आंगन से दुनिया-जहान तक के किस्से सुनाने लगते हैं।

Tuesday, June 1, 2010

पर्यावरण

सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा, (छत्‍तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा' काटना मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और खासकर गोरखपुर में 'बनकटा' ग्राम नाम, जिनका उच्‍चारण 'बनक्‍टा' होता है, जैसे उदाहरण कईएक हैं) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ। तात्पर्य यह कि पर्यावरण की स्थिति, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से नहीं बल्कि दोहन से असंतुलित होती है। छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर को कृष्ण-मोरध्वज की कथा-भूमि माना जाता है। कथा में राजा द्वारा स्वेच्छापूर्वक आरे से आधा काट कर शरीर दान का प्रसंग है। स्थान नाम आरंग की व्युत्पति को भी आरे और इस कथा से संबद्ध किया जाता है। बहरहाल यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरणीय चेतना बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।

कथा का असर, इतिहास में डेढ़ सौ साल पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्‍बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ के निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे के प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर 'अरकंसहा' को निकट अतीत तक महत्व मिलने के बाद भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था।

पर्यावरण का संरक्षण नीति और योजना मात्र से नहीं होगा, पर्यावरण को जीवन का समवाय महसूस करते रहना होगा। अन्यथा यह सब 'रस्मी' और पर्यावरण संरक्षण 'नारा' बनकर रह जाएगा। यदि पेड़ छाया के लिए और तालाब का निस्तारी इस्तेमाल नहीं रहा तो उन्हें सिर्फ पर्यावरण की दुहाई देकर बचाने का प्रयास संदिग्ध बना रहेगा। पीढ़ियों से इस्तेमाल हो रहे कुओं का नियमित उपयोग बंद होते ही उसके कूड़ादान बनते देर नहीं लगती। विश्व पर्यावरण दिवस का उत्साह कार्तिक स्नान और अक्षय नवमी, वट सावित्री, भोजली पर भी बना रहना जरूरी है। बसंत में टेसू, पलाश और आम के बौर देखने और कोयल की कूक सुनने की ललक रहे तो पर्यावरण रक्षा की उम्मीद बनी रहेगी। ज्यों माना जाता है कि शेर से जंगल की और जंगल से शेर की रक्षा होती है वैसे ही पर्यावरणीय उपादान, समुदाय की दिनचर्या के केन्द्र में हों, तभी उनका बचा रहना संभव होगा।

पर्यावरण की चर्चा करते और सुनते हुए 'डरपोक मन' में यह आशंका भी बनी रहती है कि बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिए कोई ऐसी मशीन न ईजाद हो जाए, जिसका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियां करने लगे और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाए।

ईश्वरीय न्याय की व्याख्या आसान नहीं लेकिन उससे न्याय की अपेक्षा करते हुए उसकी कृपा, उसके अनुग्रह की चाह सबको होती है। न्याय करते हुए फरियादी की व्यक्तिगत परिस्थितियों का ध्यान ईश्वर रखेगा (मेरा पक्ष लेगा), ऐसी कामना, यह विश्वास बना रहता है। लेकिन प्रकृति का न्याय पूरी तरह तटस्थ और पक्षरहित होता है, जिसमें पहले-पहल गलती होने के कारण 'रियायत' और बार-बार गलती की 'अधिक सजा' नहीं होती तो अच्छे कामों का पुरस्कार अनिवार्यतः, 'श्योर शाट गिफ्ट स्कीम' जैसा मिलता ही है। इसलिए प्रकृति के न्याय पर भरोसा रखें और पर्यावरण को विचार और चर्चा के विषय के साथ-साथ दैनंदिन जीवन से अभिन्न बने रहने की संभावना और प्रयास को बलवती करें। स्वामी विवेकानंद होते तो शायद कहते कि 'उठो, भगवान के भरोसे मत बैठे रहो, इसके लिए तुम्हें ही आगे आना होगा, हम सबको मिलकर बीड़ा उठाना होगा।

टीप - पिछले विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2009) पर सुभाष स्टेडियम कान्फ्रेंस हाल, रायपुर में नगर पालिक निगम एवं सिटी टेक्नीकल एडवायजरी ग्रुप के तत्वावधान में पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी आयोजित थी। कार्यक्रम के पहले अंधड़ और गरज-चमक के साथ बारिश हुई। बिजली गुल हो गई। कार्यक्रम मोमबत्ती जलाकर पूरा किया गया। उस दिन उत्‍पन्‍न व्‍यवधान आज प्रकृति की नसीहत जैसा लगता है। वैसे भी हमारी परम्परा में प्रकृति की विषमता को अनिवार्यतः विपक्ष के बजाय मददगार मानने की उदार सोच है। कालिदास पूर्वमेघ में उज्‍जयिनी पहुंचे मेघ से कहते हैं कि रमण हेतु जाती नायिका को बिजली चमका कर राह दिखाना, गरज-बरस कर डराना नहीं। एक गीत अनुवाद में यह भी जुड़ गया है कि चमक कर उसकी चोरी न खोल देना। पर्यावरण संरक्षण के लिए, प्रकृति अनुकूलन की ऐसी सोच को, इसमें निहित पूरी परम्परा को कायम रखने की जरूरत है।

यह पोस्‍ट 14 अगस्‍त 2010 को 'देशबंधु', रायपुर के पृष्‍ठ-6 पर ''पर्यावरण के साथ परंपरा का निर्वाह'' शीर्षक से प्रकाशित।

Wednesday, April 28, 2010

अर्थ-ऑवर





27 मार्च को अर्थ-ऑवर की सुगबुगाहट इस साल सन्‌ 2010 में रायपुर में भी हुई। रात साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे तक निर्धारित इस अवधि में विद्युत मंडल के अनुसार बिजली की खपत लगभग दस फीसदी कम हुई। अगले दिन सुबह टहलते हुए, धूप निकलते तक स्ट्रीट लाइट जलती देखा। कोई चालीस साल पहले पढ़ा, विज्ञान का पाठ 'फोटो सेल' याद आया, जिसमें पढ़ाया जाता था कि किस तरह से यह रोशनी के असर से काम करता है और स्ट्रीट लाइट के जलाने-बुझाने को नियंत्रित कर सकता है। मैं सोचता था गुरूजी बता रहे हैं, किताब में लिखा है, सच ही होगा, ताजा-ताजा अविष्कार है, विदेशों में इस्तेमाल हो रहा होगा, हमारे यहां भी आ जाएगा, विज्ञान का यह वरदान।

28 मार्च 2010 के किसी अखबार में यह खबर भी थी कि अर्थ-ऑवर पर भारी पड़ा 20-20 क्रिकेट, यानि मैच और खेल प्रेमी दर्शकों पर इसका कोई असर नहीं हुआ तब याद आया दस साल पहले का एकदिवसीय क्रिकेट का डे-नाइट मैच, जिसमें बताया जा रहा था कि फोटो सेल नियंत्रित फ्लड लाइट ढलते दिन की कम होती रोशनी में इस तरह से एक-एक कर जलती हैं कि खिलाड़ियों पर संधि बेला का फर्क नहीं होता और उजाला दिन-रात में एक सा बना रहता है।

अब सब बातें मिलाकर सोचता हूं कि फोटो सेल का पाठ यदि मैंने चालीस साल पहले पढ़ा, तो यह उससे पहले का अविष्कार तो है ही, फिर उसका प्रयोग हमारे देश में भी होने लगा है यह डे-नाइट क्रिकेट मैच में देख चुका हूं, तो फिर यह इस शहर की सड़कों तक, स्ट्रीट लाइट के जलने-बुझने के नियंत्रण के लिए क्यों नहीं पहुंचा? चालीस साल पहले तो फोटो सेल का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है, नादान मन ने अपने को समझा लिया था, लेकिन 'चिप' के दौर में, आज इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है।

अर्थ-ऑवर पर बिजली की बचत के लिए दो और बातें। पहली तो पुरानी यादों में से ही है, जब सुबह आठ बजे दुकानें खुल जाया करती थीं और शाम सात बजे से दुकान बढ़ाई जाने लगती थी, रात आठ बजते-बजते बाजार सूना हो जाता था। आज का बाजार सुबह ग्यारह बजे अंगड़ाई ले रहा होता है और शाम सात बजे के बाद शबाब पर आता है। रविवार को बाजार का खुलना-बंद होना चर्चा का विषय बन जाता है, लेकिन 27 मार्च के एक घंटे बत्ती गुल कर, क्या इस तरह की बातें सोची-याद की जा सकती हैं और एक दिन, एक घंटे में सोची गई इन बातों को पूरे साल के लिए विस्तार क्यों नहीं दिया जा सकता?

हम मन चंगा रखने के लिए कठौती में गंगा ले आते हैं। हर मामले के लिए हमने अलग-अलग आकार-प्रकार के कठौते बना लिए हैं। वैलेन्टाइन का, महिला, बच्चों, बूढ़ों का, हिन्दी का, भाषा का एक-एक दिन, कभी सप्‍ताह और पखवाड़ा, हर तरह के कठौते। हलषष्ठी पर तालाब तो अनंत चतुर्दशी पर पूरा समुद्र अपने आंगनों में रच लेते हैं। लेकिन चिंता और अवसाद-ग्रस्त मन के रचे कठौते, कूप-मण्डूक बना सकते हैं और आंख मूंद लेने की शुतुरमुर्गी सुरक्षा महसूस करा सकते हैं। ध्यान रखना होगा कि कठौते से कभी-कभार ही और सिर्फ तभी काम चलता है, जब मन चंगा हो।