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Wednesday, January 31, 2024

जंजगिरहा छत्तीसगढ़ी

बहुतेरे मानते हैं कि महानदी-हसदेव-लीलागर के बीच, यानि लगभग वर्तमान जांजगीर जिला, में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी अनूठी-मीठी है। उन बहुतेरों में एक मैं, सब साथ छोड़ दें तब भी। खरौद-रहौद-रसौंटा, नंदेली-कोसा-कोनार, नरियरा-बनाहिल-सोनसरी, गांव के नाम सिर्फ इसलिए कि जिन गांवों के निवासियों की बोली याद आई, कान में गूंजी और इन सबके साथ कोटमी-अकलतरा-मुलमुला। 


श्री रमाकांत सिंह
इसी मुलमुला के हैं हमारे आदरणीय बड़े भाई साहब रमाकांत सिंह जी, हम सब के बाबू साहब। इन गांवों में बोली-बानी की जैसी अभिव्यक्ति है, उसका असल सुख तो सुनने में ही है, मगर कामचलाउ समझने के लिए उसकी एक बानगी बाबू साहब की यह पोस्ट, दुहराते हुए कि बोली का गुरतुरपन (गुड़तुल्यपन) मिठास तो बोलने-सुनने में ही है, लिखते हुए क्षय स्वाभाविक है और अनुवाद में कुछ और अधिक क्षय, यों भी अनुवाद का अभ्यास रहा नहीं, छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों मेरे लिए सहज अवश्य है, इसी के चलते पहले ‘जसमा ओड़न‘ नाटक का छत्तीसगढ़ी अनुवाद फिर रेरा चिरई गीत और अकबर खान के किस्से का हिंदी, फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लिए बच्चों की सात पुस्तिकाओं का नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए छत्तीसगढ़ी अनुवाद का काम किया। जरूरी मानकर पहले रमाकांत सिंह जी की फेसबुकपर आई छत्तीसगढ़ी पोस्ट की प्रति और उसके बाद मेरे द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद- 

नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन ...‘ 
ममा दाई के दाई पीली दाई कहय बाबू ..... 
लिम के पाके फर गुरतुर होके मीठा जाथे 
फेर दाई ददा के पाके नई मिठाय बेटा 
आजकाल कहाँ दाई ददा लईका संग रथें? 
सकेले बर परथे नता ल, ऑंखि कस पुतरी राखे बर परथे 
नई त बरी कस भूरिया आऊ फुसिया जाथे परे परे 
नता घला ल पागे पर परथे या फेर अथान कस मरिसा म सुग्घर जचों के धर आउ टिपटिप ले भर सरसों तेल ... 
बड़ मया पिरित लगाके पागे बर परथे खाजा कस। 
जइसे पगाये रथें पपची चिकि गुर के चाशनी म। 
फेर खा के ...दे ...दे जोरन म बड़ मिठाथे। 
बस नता घलो ल चुरोये बर परथे मन लगाके कम आंच म 
डेहरी आउ ओरी के छांव आय नता मन 
फेर दाई आउ ददा, भाई बहिनी सब्बो लागमानी सरग के फर आय एकेच घ मिलथे नई मिलय दूसर घानी। 
बड़ मरन हो जाथे 
बड़ फदीयत आय बंटा जाथे बेटा घलो ह बहुरिया आय म 
सब्बो नता बबा, दाई, कका, फूफा, के कहे म भाँवर परेहे 
उढ़री होतिस त बात आन तान होतिस .... 
20 ...22 बछर अपन घर बाढ़े, मऊरे आउ पऊढे बहुरिया 
अपन आँखि म बड़कन सपना धर के आथे 
फोकला घर मिलिस त फदकगे 
भरे पूरे घर मिलिस त केंवटिन गौटिन 
होगे बड़ सासत हो जाथे राम हो 
दाई ददा भरे पूरे घर म साझी के हो जाथे 
माताराम कहै बेटा ‘साझी के सूजी सांगा म जाय‘ 
चार बेटा होगे बंटागे दाई ददा 
चैत ले जेठ रामलाल के पारी आय 
अषाढ़ ले भादों बड़े मंझला ह देखहि 
अगहन ले मांघ किशोर बुतरू के बाँहटा 
पूस ले फागुन साध राम देहि खाय बर 
आउ खर मास परगे त दाई ददा ढेंकी कुरिया म खाहिं 
चाउर दार पारी पारी पहुंच गईस त ठीक नहीं त ... 
चूल्हा म गईस सब नता मया पिरित 
चार सियान कहिस त सुने म आईस एकादशी के दिन 
अपन मन मजा करिन हमन जनम गयेन 
एमा काय बड़े बुता होंगे राम जी 
बाह रे जमाना सियान गियानी लईका घलो ल नवा बहुरिया एकेच रात म समझा डारथे रामायन। 
जिनगी के बेरा ओहर जाथे जिनगी समझत म 
ई सब म चुन्दी संग उमर खंटावत पाक जाथे नता 
लिम के फर पाक के मीठ होगे आउ दाई ददा होगे करू 
अगोरत देखे हावव आंसूं धरे महतारी ल 
आउ डेहरी म हंफरत पेट ऐंठत सियान ल अपने घर म 
फेर कोन कइथे दाई ददा म करगा (अपवाद) नई होवय 
एक ठन हमरे तुंहर घर के गोठ 
दाई गोंदा बाई बेटा बहोरन के सुरता आगे 
बहोरन......गोंदा दाई तेँ हर जनम भर मोर घर रहिजा 
जऊंन बनहि मिल बांट के खा लेबो 
गोंदा बाई.... सुन न बहोरन तेँ हर मोला सोन के सीथा खवाबे तभी तोर करा नई रहौ...ग 
बहोरन .... कस दाई मैं तो भूतियार मनसे आंव, मान ले काल तेँ हर सोन के लेंडी हाग देहे त मैं गरीब आदमी ओला
धरिहौ कोन कोठी म? 
तभो ले सोच ले काकर संग रहिबे? 
एहि लटर पटर म कब संझा ले बिहनियां होंगे पता नई चलिस हमरो चुन्दी पाकगे 
बोयें होबो तेला काटबो काय संसो करना 
राखिहैं राम लेजिहैं कोन, आउ लेजिहैं राम त राखिहैं कोन 
बस अपनो की याद और मेरे अपनों को समर्पित 
जनम दिस मोर महतारी फेर भरूहा धराइस मोर गुरु 

अनुवाद 

नानी की अम्मा बड़े प्यार से बुलाती थी ‘रामाकन,, 
नानी की मां पीली दाई कहतीं बाबू 
नीम का पका फल मीठा हो कर स्वादिष्ट हो जाता है 
मगर उम्र पके मां बाप नहीं सुहाते 
आजकल बच्चों के साथ कहां रहते हैं मां-बाप 
रिश्तेदारी को सहेज-समेट रखना होता है, आंख की पुतली की तरह (संभाले) रखना होता है 
अन्यथा बड़ी की तरह फफूंद लगी, बासी हो जाती है पड़े-पड़े 
रिश्तों को भी पागना होता है या फिर अचार की तरह घड़े में प्यार और जतन से भरा-पूरा हो सरसों तेल से 
बहुत ममता-प्रीति के साथ पागना होता है खाजा की तरह 
जैसे पगाया हो पपची (एक मिष्ठान्न) या चिकी गुड़ के साथ 
खा कर और फिर दे दो जोरन (विदाई-भेंट) में बहुत स्वादिष्ट 
बस रिश्तों (नात-गोत) को भी इसी तरह पकाना होता है, मन लगा कर धीमी आंच में 
डेहरी और ओरी (घर-प्रवेश का मुख) की छांव है रिश्ते 
मगर मां और पिता, भाई बहन सब रिश्ते-नाते स्वर्ग के फल हैं, एक बार ही मिलते हैं, नहीं मिलते दूसरी बार।
असमंजस (धर्मसंकट) हो जाता है 
बड़ी फजीहत है कि बेटा भी बंट जाता है बहू आने पर 
सभी रिश्ते बाबा, मां, चाचा, फूफा की सहमति से फेरे पड़े हैं 
भगा कर लाई गई होती तो और बात होती 
20-22 साल अपने घर पली-बढ़ी-सज्ञान बहू 
अपनी आंखें में बहुत से सपने संजो कर आती है 
खाली-निर्धन घर मिला तो बात बिगड़ी 
भरा-पूरा घर मिला तो दरिद्र भी मालकिन हो गई 
बहुत सांसत हो जाती है राम हो 
मां-बाप भरे पूरे घर में साझे (सब) की हो जाती है 
माताजी कहती थीं बेटा ‘साझे की सुई सांगा (भारी बोझ उठाने में प्रयुक्त दंड) में जाती है 
चार बेटे हुए, बंट गए मां-बाप 
चैत से जेठ तक रामलाल की बारी 
आषाढ़ से भादों बड़े-भंझला देखेगा 
अगहन से माघ किशोर बुतरू के हिस्से 
पूस से फागुन साधराम देगा खाने को (खिलाना-पिलाना करेगा) 
और खर मास पड़ा तो मां-बाप का खान-पान, घर के साझे हिस्से में 
(तब) चावल-दाल बारी-बारी पहुंच जाए तो ठीक, वरन 
चूल्हे में गए सब रिश्ते, ममता-प्रीति 
चार बुजुर्गों का तो कहा सुनने मिला, एकादशी के दिन 
आप मजा किए, हम पैदा हो गए 
यह कौन सी बड़ी बात राम जी 
वाह रे जमाना, समझदार लड़के को भी नई बहू एक ही रात में समझा डालती है रामायण। 
जिंदगी का समय ढल जाता है जिंदगी को समझते 
इसी सब में बाल के साथ उम्र पक जाती है खंटते 
नीम का फल पक कर मीठा हो गया और मां-बाप हो गए कड़ुए 
आंसू भरे इंतजार करते देखा है मां को 
और सीढ़ी पर हाफते पेट ऐंठते बुजुर्ग को अपने घर में 
फिर कौन कहता है मां-बाप में करगा (अपवाद) नहीं होता 
एक हमारे-आपके घर की बात 
मां गोंदाबाई बेटा बहोरन याद आए 
बहोरन- गोंदादाई तुम आजन्म मेरे घर रह जाओ 
जो भी होगा, मिल-बांट कर खा लेंगे 
गोंदाबाई- सुनो बहोरन, तुम मुझे सोने का सीथा (भात का गिरा हुआ दाना) खिलाओगे तब भी तुम्हारे पास नहीं रहूंगी 
बहोरन- क्यों मां, मैं तो मजदूर आदमी हूं, मान लो कल तुम सोने की लेड़ी हग दी तो मैं गरीब आदमी उसे किस कोठी में रखूंगा? 
तब भी सोच लो किसके साथ रहोगी? 
इसी लटर-पटर में कब शाम से सबेरा हो गया पता नहीं चला, हमारे बाल भी पक गए 
बोया होगा वही काटेंगे, क्यों चिंता करना 
रखेंगे राम ले जाएगा कौन और ले जाएंगे राम तो रखेगा कौन 
बस अपनों की याद और मेरे अपनों को समर्पित 
जन्म दिया मां ने मगर भरुहा (नरकुल-लेखनी) धराया मेरे गुरु ने।

Wednesday, October 26, 2022

पुनः खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से दूसरा, ‘पुनः खरौद‘ प्रस्तुत-

घुमक्कड़राम की डायरी

मंदिरों के कस्बे - खरौद में

बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग पर शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर पहले बाईं ओर सड़क व्यपवर्तन है। यह पक्की सड़क ढाई किलोमीटर दूर तक चली जाती है। इस सड़क पर चलते हुए, खरौद कस्बे को पार करते हुए खरौद के एक छोर, मिसिर तालाब तक पहुंचा जा सकता है, यहीं तालाब के किनारे सड़क के बाईं ओर पत्थर की ऊंची चहारदीवारी दिखलाई पड़ती है इसके अंदर है प्रसिद्ध लक्ष्मणेश्वर मंदिर, जो इस क्षेत्र के पांच प्राचीन और प्रसिद्ध शिवलिंग मंदिरों में से एक है; अन्य है- फिंगेश्वर के फिंगेश्वर, राजिम के कुलेश्वर, सिरपुर के गंधेश्वर और रतनपुर के बूढ़ा महादेव (बेगलर रिपोर्ट 1873-74)।

यह स्थान और इसका निकटवर्ती क्षेत्र दंतकथाओं में रामकथा के पात्रों और स्थानों नामों से संबंधित किया जाता है खरौद के साथ एक रोचक दंतकथा भी प्रचलित है, जिसमें इस स्थान का नाम रावण के भाइयों, खर और दूषण से व्युत्पन्न माना जाता है। प्राचीन स्मारक उसके अवशेष और तत्संबंधी जिज्ञासा विभिन्न दन्तकथाओं को जन्म देते हैं, एक दत्तकथा लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निर्माण के साथ भी जुड़ी है, जिसमें बताया जाता है कि लक्ष्मण के क्षयरोग की मनौती के फलस्वरूप, उन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि जिस प्रकार राम ने रामेश्वरम स्थापित किया, उसी तरह लक्ष्मण ने यहां लक्ष्मणेश्वर स्थापित किया था।

यह मंदिर लगभग 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है चबूतरे से इसकी प्राचीन का अनुमान होता है किन्तु मंदिर अपनी बाहिरी संरचना से सर्वथा नवीन जान पड़ता है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पूर्व की ओर सीढ़ियां हैं। चबूतरे पर पहुंच कर स्पष्ट अनुमान होता है मंदिर और उसकी चतुर्दिक रचनाएं पुनर्संरचित हैं और इन्हीं पुनर्संरचनाओं के आधार पर मंदिर के पंचायतन होने का भी अनुमान होता है। पंचायतन अर्थात ऐसा मंदिर, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों किनारों पर चार उप-मंदिर हों। मंदिर की दशा अब ऐसी है, जिससे प्राचीन या वास्तविक मंदिर के रूप का क्षीण अनुमान ही हो पाता है। उप-मंदिरों, जो संख्या तीन हैं, में विभिन्न मूर्तियां बाद में लाकर जड़ी गई हैं। इनमें एक जैन मूर्ति पटल, कुछ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा उपासक की एक रोचक मूर्ति है। उपासक की मूर्ति के नीचे पादपीठ पर मूर्तिलेख है, जिसमें व्यक्ति नाम ‘दामोदर‘ स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। बताया जाता है कि ये प्रतिमाएं किसी व्यक्ति को गढ़ के अंदर खुदाई करते हुई प्राप्त हुई थीं।

मंदिर के अंदर जाने पर मंडप की बाईं दीवार पर सूचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण अभिलेख है जिस पर 933 चेदि संवत (सन 1182) अंकित है, जिसमें कलचुरि नरेश रत्नदेव तृतीय और उसके प्रधानमंत्री गंगाधर का उल्लेख है। मंडप की दाहिनी दीवार पर भी अभिलिखित प्रस्तर खण्ड जड़े हैं, जिसकी लिखावट अस्पष्ट है। कहा जाता है कि गोरा साहबों को मंदिर के खजाने का पता न मालूम हो जाए इस उद्देश्य से छेनी का प्रहार कर उसे अस्पष्ट कर दिया गया, किन्तु उसमें पाण्डुवंशी दो राजाओं इन्द्रबल और ईशानदेव का नाम पढ़ लिया गया है, जो लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी के नृपति माने जाते हैं।

मंदिर में गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर दोनों पार्श्वों में दो मूर्तियां हैं, जो अपने वाहनों मकर व कच्छप से गंगा और यमुना के रूप में पहचानी जा सकती है। मंदिर का गर्भगृह अष्टकोणीय है, जिसमें अष्टकोणीय लिंग स्थापित है, किन्तु इसका रूप छिद्रयुक्त है, जिससे पानी भरा रहता है। इसे लिंग के रूप में पहचाना जा सकना कठिन है। कहा जाता है कियह लिंग लक्षरंध्रयुक्त है, लगभग 75 सेंटीमीटर व्यास वाले इस लिंग व छिद्रों को अनन्त बताया जाता है। ये छिद्र प्राकृतिक परिवर्तन के फल जान पड़ते हैं।

मंदिर अब तक पूजित है, महाशिवरात्रि को आराधक ‘लाख चाऊर‘ अर्थात एक लाख चावल के अक्षत दाने चढ़ाते हैं। महाशिवरात्रि के दिन ही सुहागन स्त्रियां परिक्रमा करते हुए अपने सुहाग की परीक्षा भी करती हैं। इसके लिए वे, गर्भगृह की पश्चिमी दीवार के देवकोष्ट-आले में कंकड़ फेंकती है, जिसकी कंकड़ आले में रुक जाता है, वह स्त्री अखंड सुहागवती मानी जाती है। मंदिर में गणेश, उमामहेश्वर, गरुड़ तथा राजा रानी की मूर्तियां भी हैं, जो 11-12 शताब्दी की प्रतीत होती हैं। मंदिर का निर्माण काल पुरातत्व विभाग की सूचना के अनुसार 8 वीं शताब्दी है।

इस विस्तृत कस्बे के अन्य छोर पर भैरवाइन डबरी है, जिसके किनारे एक मंदिर है, यह मंदिर, एक मूर्ति को सुरक्षित करने हेतु ग्रामवासियों द्वारा कुछ वर्षों पूर्व ही बनवाया गया है। मूर्ति ग्रामवासियों द्वारा भैरव बाबा के रूप में पूजित है। खड़ी हुई- स्थानक यह प्रतिमा, दिगम्बर है, और अजानबाहु है, मूर्ति के ऊपर छत्र है, जिसमें दो हाथी अभिषेक करते दिखाए गए हैं। सिर के पीछे पद्मपत्र-सदृश प्रभामण्डल है, मानवाकार यह प्रतिमा संभवतः किसी जैन मुनि या तीर्थंकर की है।

इसके बाद मैं इन्दल देव मंदिर की ओर प्रस्थान करता हूं, संभव है यह नाम इन्द्रबलदेव से व्युत्पन्न हो। यह मंदिर भी कस्बेके एक छोर पर स्थित है और पश्चिमाभिमुख है, ईटों के इस मंदिर की रचना अत्यंत आकर्षक दिखाई देती है, यह मंदिर भी एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है। इसके प्रवेश द्वार का अलंकरण नयनाभिराम है। पार्श्वों पर लगभग पूरे द्वार के आकार की गंगा-यमुना को सुदर मूर्तियां हैं। प्रवेश द्वार के उपर नाग-कन्याएँ व नाग-पुरुष हैं। दो नागकन्याएं हाथ जोड़े, उपासना की मुद्रा में हैं, साथ ही ब्रह्मा, शिव-पार्वती और गरुड़ारूढ़ विष्णु हैं। गर्भगृह में कोई मूर्ति स्थापित नहीं है, किंतु संभवतः यह मंदिर शिव को समर्पित रहा होगा। गभगृह से शिखर की अंदरी बनावट, जो स्तूप कोणाकार है, स्पष्ट होती है। मंदिर की परिक्रमा करते हुए ईंटों पर बारीक उकेरन का काम दिखलाई पड़ता है। चैत्यगवाक्ष बनाए गए हैं, और कुछ आकृतियां ही स्पष्ट हो पाती हैं, जिसमें एक लम्बोदर गणेश की व कुछ अन्य गजारोही व अश्वारोही मानव आकृतियां हैं। 

कस्बे के लगभग प्रारंभ में ही सौंराई मंदिर है, मैं पुनः उसी ओर वापिस होता हूं। रास्ते में दाहिनी ओर एक गली में मेरी निगाह जाती है, और मैं ठिठक जाता हूं। पत्थर पर उकेरे सिंदूर लगे तीन सर्प-युग्म दिखाई पड़ते हैं। पास पहुंचने पर यह ज्ञात होता है कि यह महामाई मंदिर है। मंदिर का दरवाजा बंद है, फलस्वरूप में अंदर प्रविष्ट नहीं हो पाता, किन्तु बाहर ही मुझे कुछ रुचिकर पाषाण-खंड दिखाई दे जाते हैं। इनमें से एक, किसी स्तंभ का खंड है, जिस पर अत्यंत बारीक अलंकरण है, कुछ अन्य मूर्तियां हैं, जो मानव-वक्ष और आसन प्रतीत हो रही हैं। 

पुनः, सौंराई मंदिर की ओर अग्रसर होता हूं। यह भी ईंटों से निर्मित मंदिर है, और सौंराई देवी के रूप में पूजित है। मंदिर के सामने कुछ सुंदर किंतु खंडित मूर्तियाँ छोटे से खुले मंडप में रखी हुई हैं। मंदिर के अंदर प्रविष्ट होने पर स्तंभयुक्त मंडप दिखलाई पड़ता है। संभवतः इन स्तंभों की संख्या सोलह रही होगी। इनमें से मात्र तीन स्तंभ ही प्राचीन जान पड़ते हैं। स्तंभों पर नारी मूर्तियाँ तथा धनुर्धारी, जो द्वारपाल जान पड़ते हैं, लगी हैं। एक मूर्ति के पादपीठ के नीचे कुबेर व कौबेरी स्पष्ट पहचान में आ रहे हैं। प्रवेश द्वार के उपर आकर्षक अंकन है जिसमें गरूड़ को दोनों हाथों से सर्प पकड़े दिखाया गया है। गरुड़ के पंख स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, और अनुमान होता है कि मंदिर विष्णु या विष्णु परिवार के किसी देवता का रहा होगा। गर्भगृह की मूर्ति को आवरण पहना दिया गया है, जिससे अब उसकी पहचान कर पाना कठिन है। मंदिर के बाहर एक आकर्षक मूर्ति अर्धनारीश्वर की है। मंदिर की बाहिरी दीवार पर इन्दलदेव की भांति ही उकेरन रहा होगा पर वर्तमान में अलंकारण की बारीकियां स्पष्ट नहीं हैं। 

कई टीले हैं और कुछ घरों में मूर्तियां हैं, जो चबूतरे में स्थापित कर ली गई हैं, पुरातत्व की दृष्टि से यह कस्बा सम्पन्न तो है ही किन्तु यदि इन टीलों की खुदाई हो और कस्बे में बिखरी विभिन्न मूर्तियों का विधिवत अध्ययन हो तो संभव है। इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास पर और भी प्रकाश पड़ेगा। 

इस कस्बे के अपने सहयोगी शेखर जी से मैं विदा लेता हूं और अपने सहयात्री रवीन्द्र जी के साथ खरौद की स्मृति लिए वापस लौट आता हूं।

Tuesday, October 25, 2022

खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से पहला, ‘खरौद‘ प्रस्तुत-

सदियों से मानव के जीवन यापन का क्षेत्र, और वह भी यदि ऐतिहासिक कला-साधना की तपोभूमि भी रहा हो, अवश्य ही सहज आकर्षण का केन्द्र होगा। वर्तमान खरौद ऐसी ही पवित्र भूमि पर बसा है और इसका आकर्षण भौगोलिक स्थिति के कारण और भी प्रबल हो जाता है। अन्य लोगों सहित मेरी भी यह धारणा है कि नदी तट का क्षेत्र व निवासी, विशेषकर यदि वह संगम क्षेत्र का हो, मनो-भौगोलिक कारणों से स्वाभाविक ही उसका विकास उदारचेता व्यक्ति के रूप में होता है। विशालता, उदात्तता और विस्तृत सोच का समावेश उसके व्यक्तित्व में सरलता से दिखाई देता है और ऐसे व्यक्तियों का कृतित्व अपनी कला-संस्कृति को अभिव्यक्त व विकसित कर, सुदीर्घं अवधि तक युग चेतना को आह्लाद और दिशा-निर्देश प्रदान करता है। इस क्षेत्र का विशिष्ट पुरातात्विक स्थल खरौद भी ऐसा ही स्थान है। 

यों तो खरौद में इतिहास की झांकी अत्यंत प्राचीन काल से मिलने लगती है। यहाँ के ध्वस्त-उजड़े गढ़ के धरातल की ही प्राप्तियों के आधार पर उस भूमि पर सभ्यता का इतिहास २६०० साल से भी अधिक पुराना माना जाता है, किन्तु व्यवस्थित उत्खनन अथवा विशिष्ट प्राप्तियों जैसे- सिक्के, ठीकरे आदि के लगभग अभाव के कारण, इसकी तिथि-सीमा निश्चित किया जाना संभव न हो सका है। परन्तु साथ ही यह भी संभावना है कि संबंधित संस्थाओं, व्यक्तियों एवं ग्रामवासियों की जागरुकता व प्रयास से निश्चय ही ऐसे प्रमाण प्रकाश में आ सकते हैं, जिससे खरौद तथा साथ ही साथ इस क्षेत्र के ऐतिहासिकता की स्पष्ट रूपरेखा निर्धारित की जा सके।

पुरातत्व की दृष्टि से खरौद के गढ़ का विशेष महत्व है। यह इस क्षेत्र के लगभग सौ गढ़ों में से एक है, जिनकी स्पष्ट विवेचना अब तक नहीं हो सकी है तथा छत्तीसगढ़ के पुरातल में जिनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण समझी जाती है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निकट का विशाल भू-भाग खाई से घिरा हुआ है यद्यपि वर्तमान में यह खाई स्थान-स्थान पर टूट गई है, किन्तु खाई (परिखा) की वृत्ताकार रेखा का अनुमान अब भी स्पष्टतः होता है। गढ़ क्षेत्र में पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण, उन्नत व विस्तृत टीले हैं तथा पूरे गढ़ क्षेत्र के धरातल पर टूटे-फूटे मिट्टी के बर्तन, धातु मल व कहीं-कहीं किसी संरचना के अस्पष्ट चिन्ह देखे जा सकते हैं। लगभग इसी क्षेत्र से सागर विश्वविद्यालय के सर्वेक्षण दल को मिट्टी के बर्तन का विशिष्ट टुकड़ा प्राप्त हुआ था, जिसके आधार पर डा. श्यामकुमार पान्डेय ने इस क्षेत्र की प्राचीनता chalcolithic होने की संभावना व्यक्त की है, किन्तु ऐसे अन्य प्रभावों की अभी भी प्रतीक्षा है, जिनसे यह संभावना, निश्चय में परिवर्तित हो सके।

‘खरौद‘ शब्द की व्युत्पत्ति एवं गढ़ के अस्तित्व में घनिष्ट संबद्धता मानी जा सकती है। इस शब्द का विग्रह ‘खर+उद्‘ किया जा सकता है, यहां ‘उद‘ शब्द का विशेष महत्व है। इस क्षेत्र के विभिन्न सर्वेक्षणों तथा बन्दोबस्त-जनगणना रपटों आदि में उदश् अन्त वाले ग्राम नामों को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है, जहाँ ‘उद‘ का तात्पर्य ‘जल‘ से है। खरौद निवासी पं. नन्हेंप्रसाद द्विवेदी ने भी लगभग यही व्युत्पत्ति सुझाई है। इस संदर्भ में इस विशेष संयोग की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है कि ‘उद्‘ अन्त नाम वाले ग्रामों से अधिकांशतः मिट्टी के गढ़ों (धूलि दुर्ग) की सूचना प्राप्त होती है। सागर विश्वविद्यालय ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर पूर्व में इन गढ़ों को ‘आटविक‘ प्रकार के दुर्ग ठहराया था, किन्तु अब डा. पान्डेय ने स्वयं अपने मत में परिवर्तन करते हुए उन गढ़ों का ‘औद्यक दुर्ग‘ होना स्वीकार किया है। डा. पान्डेय अपने हाल के सर्वेक्षणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन गढ़ों की प्राचीनता २६००-२७०० साल की है, अपने मत की प्रामाणिकता हेतु उन्होंने भी गढ़ क्षेत्रों का उत्खनन आवश्यक माना है।

‘खरौद‘ की उपर्युक्त व्युत्पत्ति यदि मान्य होती है और ‘उदान्त‘ नाम वाले ग्रामों की संबद्धता ‘औद्यक दुर्गों‘ से स्वीकार कर ली जाती है, तो प्रचलित ‘खर$दूषण‘ से व्युत्पत्ति का मत स्वतः अमान्य करना होगा। वैसे भी धर्म-पुराणों पर आधारित दन्तकथाओं की तुलना में प्रत्यक्ष पुरातात्विक प्रमाण की मान्यता ही अधिक श्रेयस्कर है, किन्तु पुरातात्विक विवेचना में भी गढ़ों का शास्त्र सम्मत पूर्ण परीक्षण आवश्यक है।

खरौद गढ़ का व्यवस्थित इतिहास प्रकाश में नहीं आया है अतः यहां के मंदिरों के निर्माता शासकों व गढ़ प्रशासन की सम्बद्धता पर निश्चित टिप्पणी संभव नहीं है, किन्तु बाद के काल (लगभग अठारहवीं सदी ई.) में खरौद गढ़ के महत्व की सूचना प्राप्त होती है, जो अंग्रेजी शासन के आरंभ तक रही, जब खरौद छत्तीसगढ़ (तब छत्तीसगढ़ का मुख्यालय क्रमशः रतनपुर व बिलासपुर तथा रायपुर रहा, बाद में दो भिन्न जिला मुख्यालय बिलासपुर व रायपुर बने) का प्रमुख परगना था। तत्कालीन खरौद व अन्य प्रशासनिक ईकाइयों पर डा. प्रभुलाल मिश्र ने सविस्तार विवेचना की है। अंग्रेजी शासन के दौरान ही खरौद की प्रशासनिक इकाई के स्थान पर शिवरीनारायण तहसील मुख्यालय बनाया गया, जो सन् 1885 की बाढ़ के पश्चात् जांजगीर स्थानान्तरित हो गया।

इस प्रकार दो निकटस्थ प्राचीन धार्मिक स्थलों खरौद व शिवरीनारायण की महत्ता में महानदी की भूमिका अनुमानतः निर्णायक रही। महानदी को बहाव, प्राचीन काल में वर्तमान की अपेक्षा संभवतः बायीं ओर हटकर था अथवा बाढ़ के बहुधा प्रकोप से नदी के निकटतम स्थल शिवरीनारायण के स्थान पर खरौद धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित हुआ और संभवतः भौगोलिक परिवर्तनों से अनुकूल स्थिति बनने पर नदी के निकटतम स्थल, शिवरीनारायण का विकास हुआ। यही कारण हो सकता है, जिसके फलस्वरूप खरौद में सातवीं-आठवीं सदी ई. के पुरावशेष बहुलता से प्राप्त होते हैं जबकि शिवरीनारायण की ज्ञात लगभग समस्त सामग्रियों की प्राचीनता दसवीं सदी ई. से अधिक नहीं। इसी संदर्भ में यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खरौद-शिवरीनारायण, जगन्नाथ पुरी, प्राचीन तीर्थयात्रा मार्ग का महत्वपूर्ण पड़ाव था।

संगम क्षेत्र और उसकी धार्मिक महत्ता के विकास में इस स्थल का इतिहास सोमवंशी काल (लगभग सातवीं सदी ई.) से आरंभ हुआ माना जा सकता है। सोमवंशी शासकों द्वारा इस स्थान पर अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया, जिनमें से मात्र लक्ष्मणेश्वर, इन्दल देउल व शबरी ही विद्यमान हैं। खरौद के शेष स्मारक जो स्थानीय पिछली पीढ़ी की स्मृतियों में है अथवा बेग्लर की रिपोर्ट (सन् 1873-74) में उल्लिखित हैं, वर्तमान में नष्टप्राय हैं। इनमें से एक, कथित सूर्य मंदिर का उल्लेख अवश्य किया जा सकता है। इन मंदिरों को दृष्टिगत करते हुए, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि खरौद तत्कालीन, अत्यंत विशिष्ट धार्मिक स्थल तो था ही, जो कोसली (तारकानुकृति) मंदिर स्थापत्य शैली के ईंटों के मंदिर-केन्द्र के रूप में आज भी देश का अद्वितीय केन्द्र है।

खरौद के तीन प्रमुख मंदिरों का काल अब तक सुनिश्चित नहीं हो सका है। इनमें से लक्ष्मणेश्वर मंदिर आठवीं सदी ई. का माना गया है। अन्य दो मंदिरों का काल सातवीं सदी ई. माना जाता है, किन्तु इनमें कौन सा अधिक प्राचीन है, यह निर्विवाद नहीं है। एक अमरीकी शोधकर्ता डोनाल्ड एम. स्टेडनर ने इन्दल देउल का काल ई. सन 650-660 तथा शबरी मंदिर का काल ई. सन् 700-710 निर्धारित किया है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के मंडप में जड़े एक सोमवंशी अभिलेख से यह सूचना प्राप्त होती है कि ईशानदेव ने लक्ष्मणदेव के मंदिर का निर्माण कराया और महामहोपाध्याय वासुदेव विष्णु मिराशी ने इस मंदिर को वर्तमान लक्ष्मणेश्वर मंदिर मानते हुए ईशानदेव की तिथि ई. सन् 540 निर्धारित की है। इस प्रकार इस मंदिर का निर्माण काल छठीं सदी ई. में पड़ता है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के उक्त शिलालेख में एक अन्य शासक इन्द्रबल का नाम प्राप्त हुआ है इस व्यक्ति नाम से इन्दल देडल की नाम-व्युत्पत्ति की समीक्षा भी रोचक आधार बन सकती है।

इन मंदिरों के काल निर्धारण संबंधी मतों की सूक्ष्म विवेचना भविष्य के शोध का विषय हो सकता है किन्तु यहां इतना कहना कि इन मंदिरों का निर्माण क्रम शबरी, इन्दल देऊल, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है।

क्रमानुसार विवरण में प्रथमतः शबरी मंदिर, जिसके संबंध में मान्यता स्वरूप शबरी और राम के जूठे बेर का प्रसंग, प्रचलित है अतः यह आदिवासी देवता से संबंधित माना जाता है किन्तु मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा की पहचान अत्यधिक, वस्त्र अलंकरण के कारण निश्चित नहीं हो पाती किंतु यह अनुमानतः महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा का खंड है और प्रतिमा का शीर्ष भाग ही संभवतः मंदिर के बाहर एक छोटे से छतयुक्त चबूतरे पर स्थापित है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत आकर्षण है। नाग- युग्म अलंकरण से रचे अभिकल्प का संतुलन देखते ही बनता है। प्रवेश द्वार के बीचों बीच ललाट-बिंब पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है। ललाट-बिंब पर गरुड़ की उपस्थिति से मंदिर वास्तु के शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार संभव है कि मंदिर मूलतः वैष्णव रहा हो। प्रवेश द्वार पर ही उपर दोनों पार्श्वों में दो नारी आकृतियां हैं, एवं द्वार पार्श्वों पर ही मूल में भी दो नारी आकृतियां है। इन आकृतियों की पहचान आसानी से नदी-देवियों, गंगा एवं यमुना के रूप में की जा सकती है। इसके पश्चात मंडप की संरचना की चर्चा में पहले पर स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मंदिर का यह भाग पुनर्संरचित है।

मंडप में अर्द्धस्तंभों पर विभिन्न प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं, जिनमें से दो प्रतिमाएं शिव गण अथवा शैव द्वारपाल के रूप में पहचानी जा सकती हैं। एक प्रतिमा सिंहवाहिनी दुर्गा की है। एक अन्य नारी प्रतिमा पादपीठ पर मकर अंकित होने के कारण गंगा के रूप में पहचानी जा सकती है। शेष तीन प्रतिमाएं, जिनमें दो पुरुष व एक नारी प्रतिमा है, की पहचान राम, लक्ष्मण व सीता के रूप में की गई है। कथित राम-लक्ष्मण की प्रतिमाओं को सूक्ष्मता से देखने पर प्रतिमाओं के वक्ष पर कवच व पैर उपानहयुक्त (जूतों से ढके) दिखाई पड़ते हैं, जिनसे संभावना प्रकट की जा सकती है कि ये प्रतिमाएं सूर्य के अनुचर या पार्श्व देवता हो सकते हैं। यदि इन प्रतिमाओं को सूर्य परिवार से संबंधित माना जाता है तो खरौद में सूर्य मंदिर की उपस्थिति तथा शबरी मंदिर का लोक प्रचलित नाम ‘सौंराई‘ जो ‘सौर‘ शब्द का अपभ्रंश हो सकता है, आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इससे खरौद सौर सम्प्रदाय के एक विशिष्ट स्थल के रूप में दर्ज किया जा सकता है।

मंदिर के बाहर रखी व्याघ्रचर्मधारी अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा संतुलित और आकर्षक है। मंदिर, भू-योजना में ताराकृति तथा ईंटों से निर्मित होने के कारण भारतीय स्थापत्य कला का विशिष्ट उदाहरण माना जाता है। संदर्भवश शिवरीनारायण की दो प्रतिमाओं की विवेचना भी आवश्यक है, जो वहां मुख्य मंदिर के अन्तराल में दोनों पार्श्वों में स्थापित हैं। ये दोनों आदमकद प्रतिमाएं, विष्णु के आयुध पुरुष अर्थात शंख एवं चक्र पुरुष हैं। शिरोभाग पर शंख व चक्र का अंकन अत्यंत रोचक है। ये प्रतिमाएं शबरी मंदिर के उक्त गण या द्वारपाल प्रतिमाओं के ही समरूप है।

इन्दल देउल मंदिर की योजना भी ताराकृति है और यह मंदिर भी ईंटों से निर्मित है, किन्तु मंदिर के चारों ओर आलों (चैत्य गवाक्ष अथवा कुडु) में विभिन्न प्रतिभाएं यथा- गणेश, नरसिंह आदि अब तक स्पष्ट पहचान में आती हैं। इन्दल देउल मंदिर का चबूतरा अथवा जगती, शबरी मंदिर की तुलना में भिन्न है। शबरी मंदिर को चबूतरे की ऊंचाई कम व विस्तार अधिक है जबकि इन्दल देउल का चबूतरा अधिक ऊंचा व कम विस्तृत है। इस मंदिर में विशेष महत्व की गंगा-यमुना की प्रतिमाओं का है, जो तत्कालीन भारतीय कला में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन प्रतिमाओं का प्रवेशद्वार की तुलना में आकार और अलंकरण सौंदर्य, दोनों ही विशिष्ट प्रकार का है। अतः भारतीय कला की प्रामाणिक पुस्तकों में इनकी चर्चा की गई है। भारतीय मंदिर वास्तु पर स्टेला क्रैमरिश ने स्तुत्य कार्य किया है, इनकी पुस्तक ‘द हिन्दू टेम्पल्स‘ में इन प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि खरौद के इन्दल देउल की गंगा यमुना प्रतिमाएं पूरे प्रवेश द्वार की ऊंचाई की हैं और उन्होंने इसे विशिष्ट माना है। भारतीय हिन्दू प्रतिमा शास्त्र पर प्रामाणिक कार्य टी.ए. गोपीनाथ राव का माना गया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में चित्र सहित इन प्रतिमाओं का विवरण दिया है। इस पुस्तक में अधिकांश दक्षिण भारत के ही प्रतिमा उदाहरणों का समावेश किया गया है। शेष भारत के ऐसे ही अद्वितीय उदाहरणों को सम्मिलित किया गया है। नदी देवियों की इन प्रतिमाओं के पार्श्व से भित्ति बाहर की ओर निकलती है जो वर्तमान में अंशतः शेष है किन्तु इससे अनुमान होता है कि मंदिर संरचना में मंडप आदि उपांग भी थे, जो अब नष्ट हो गये हैं।

लक्ष्मणेश्वर मंदिर का मंडप भी शबरी की भांति पुनर्संरचित है, जिसमें दो प्राचीन शिलालेख जड़े हैं। गर्भगृह का हिस्सा भी परवर्ती काल में अंशतः परिवर्तित है। इसी तरह अनुमान होता है कि यह मंदिर भी मूलतः ईंटों से निर्मित संरचना है जिसे बाद के काल में प्लास्टर से ढक दिया गया है। मंदिर के गर्भगृह में अष्टकोणीय शिवलिंग मूलतः विद्यमान है किन्तु ‘लैटराइट‘ पत्थर का होने के कारण जलवायुगत प्रभाव के कारण रन्ध्रयुक्त हो गया है और इसके संग लक्षरंध्रयुक्त होने की मान्यता जन-विश्वास में प्रबल हो गई है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर अन्य दोनों मंदिरों की भांति किन्तु भिन्न प्रकार से नदी देवियों का अंकन है। यहां प्रवेशद्वार की ऊंचाई दो भागों में विभक्त है, जिसके निचले भाग पर द्वारपाल व उपरी भाग पर गंगा व यमुना को उनके वाहनों क्रमशः मकर व कच्छप पर स्थित दिखाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार के समक्ष मंडप दो स्तम्भ है। इनमें से एक स्तंभ पर रामकथा के दृश्य व सर्प अलंकरण युक्त है। जबकि दूसरे स्तंभ पर शैव धर्म से संबंधित उकेरन है। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्व है।

Sunday, October 9, 2022

जगदीश चंद्र तिवारी

जांजगीर निवासी विभूतियों में पंडित जगदीश चंद्र तिवारी (17.09.1912-14.12.1992) का नाम अविस्मरणीय है। पंडितजी के महाप्रयाण के पश्चात ‘स्मारिका-1995‘ का प्रकाशन हुआ। 

स्मारिका में पंडितजी को याद करते हुए उनसे जुड़े अंचल के महानुभावों ने उनके प्रति अपने शब्द-श्रद्धा सुमन अर्पित किया, जिसकी सूची यहां देखी जा सकती है। 

मेरे पिता, पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे। उनकी विद्वता औैर उनसे जुड़े रोचक संस्मरण सुनाया करते थे। स्मारिका के लिए भरे मन से कुछ शब्द ही लिख सके, मगर यह संक्षिप्त लेख पंडितजी में मानवता के सूत्रों का स्पर्श करते उनके प्रति अपने भावों को प्रकट करने के लिए कम नहीं थे। स्मारिका में प्रकाशित वह लेख- 

पंडित जी: जैसा मैंने जाना 
सत्येन्द्र कुमार सिंह 

नित नवोन्मेष की प्रवृत्ति प्रतिभा कहलाती है। कहते हैं यह परमात्मा-प्रदत्त होती है। यही सच भी लगता है क्योंकि, प्रतिभा सभी में नहीं होती है। प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति लोक कल्याण की बात सोचता है और उसके क्रिया-कलाप भी उसी अनुरूप होते हैं। ऐसे लोग विरले होते हैं तथा वे समाज के विशेष अंग होते हैं। इनका संसार से हमेशा के लिये चले जाना ही समाज की हानि है। वैसे तो दुनिया में आना, जीवन को जीना और चले जाना किसी अजानी शक्ति से संचालित निरन्तर प्रक्रिया है। परन्तु, महत्वपूर्ण यही होता है कि किसी ने जीवन को कैसे जिया? इन सब बातों में पं. जगदीश चन्द्र तिवारी बार-बार याद आते हैं। दो ही तरह के लोग तो जाने के बाद याद आते हैं- एक तो स्वजन और दूसरे सुजन, जो कीर्तिवान हो जाये रहते हैं। स्व. पं. जगदीश चन्द्र तिवारी सुजन थे। उनकी कीर्ति प्रदेश और बाहर तक फैली हुई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पंडित जी हम सभी को छोड़कर किसी महायात्रा पर गये ही नहीं... । 

कहा जाता है कि मनुष्य पेट के लिये जीवन को जीता है, धर्म, ज्ञान और विवेक ये सब बाद की बातें हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन्हीं बाद की बातें यह बता सकती है कि जीवन को कैसे जिया जाना चाहिये। इसी में शांति और जीवन की सफलता है। पंडित जगदीश चन्द्र तिवारी ने सफल जीवन जिया, इसीलिये जाने के समय कुदरत ने उनके मन और शरीर के कोई उठा-पटक नहीं की। 

सन् 1937 में अंग्रेजी के मास्टर मिलना गूलर का फूल था। हमारे बाबा पूज्य (स्व.) मनमोहन सिंह जी उस समय डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर थे। उन्हें पता लगा कि, जॉंजगीर उदयभांठा के पं. जगदीश चन्द्र तिवारी कटक से स्नातक होकर आये हैं। यही वह कालखण्ड रहा जिसमें तिवारी जी की प्रतिभा अनेक भाषाओं में उनकी मधुरवाणी से प्रवचनों, व्याख्यानों और वक्तव्यों के रूप में चतुर्दिक सुवासित हो रही थी। बाबाजी ने कौंसिल के चेयरमेन देवीप्रसाद वर्मा और सचिव कृष्णानन्द वर्मा से कहकर पंडित जी को अकलतरा में अंग्रेजी शिक्षक नियुक्त करा लिया। बतौर शिक्षक उन्होंने अल्पावधि में जो ख्याति अर्जित की, उससे कहीं अधिक ख्याति उनकी ज्ञानयुक्त बोलने की शैली में वे अर्जित करते जा रहे थे। आश्चर्यजनक था कि वह क्रम कभी टूटा नहीं। उन्हें सम्मान अपने आप मिलता था। क्योंकि प्रतिभा के धनी तो थे ही, आचरण ऐसा था कि, जैसे वे व्यासांश हों, कि जैसे वे सन्त हों, कि जैसे वे कृष्ण भी हों और सुदामा भी। वे सादा-सरल थे, भीतर के भीतर तक तरल थे। किसी की पीड़ा उन्हें ही बेचौन कर देती थी। राम-रावण युद्ध सम्बन्धी प्रवचन में कभी वे इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि मंच से कूद कर श्रोताओं के बीच में आ जाते थे और समूह अवाक् रह जाता था। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन‘ की आकांक्षा रखने वाली पंडित जी की वह जीती जागती तसवीर अब चिरनिद्रा में सो रही है लेकिन तसवीर के खुदाई रंग कभी उतरेंगे नहीं। 

पंडित जी पर जितना लिखा जाये, कम है, 
कयास है कि उनकी याद में हर आँख नम है। 

अकलतरा (बिलासपुर) म.प्र. 
पंडितजी के परिवार जन और उनके सुयोग्य पुत्र
दिनेश शर्मा जी के प्रयासों से अब जांजगीर में
उनकी भव्य प्रतिमा का पुनर्स्थापत्य हुआ है।

Sunday, March 27, 2022

बिलासपुर की प्राचीन नवपुरी

सात जिलों वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के पुरातात्विक स्थलों पर सन 1985 से 1997 तक, विभिन्न प्रयोजन हेतु जानकारियां तैयार की जाती रहीं। इस दौरान बिलासपुर के पुरातत्व कार्यालय में पदस्थ रहते हुए मुझे यह अवसर बार-बार मिला। इन्हीं में से एक यह तत्कालीन बिलासपुर जिले के नौ प्रमुख पुरातात्विक स्थलों की संक्षिप्त जानकारी यहां प्रस्तुत है-

1. अड़भार- बिलासपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर, सक्ती अनुविभाग में स्थित है। संभवतः इसी ग्राम को प्राचीन अभिलेखों में अष्टद्वार कहा गया है। स्थल पर 7-8 वीं सदी ईस्वी के स्थापत्य अवशेष विद्यमान है, जो मूलतः शिव मंदिर रहा होगा। पश्चिमाभिमुख यह शिव मंदिर अष्टकोणीय तारानुकृति तल-विन्यास वाला है, जिसमें प्रवेश हेतु दो द्वार अब भी विद्यमान है। प्रवेश द्वार-शाखाओं पर नाग तथा संभवतः गरुड़ और सिरदल पर कार्तिकेय व उमा-महेश का अंकन है। मंदिर परिसर में अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी महिषमर्दिनी तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं हैं साथ ही नंदी तथा अष्टभुजी नटराज शिव की भी प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला-प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। स्थल से ऐतिहासिक महत्व को विभिन्न शिलालेख, ताम्रपत्र व कलात्मक प्रतिमाएं प्रकाश में आई है। प्राचीन मृत्तिका-दुर्ग अथवा धूलि-दुर्ग (mud fort) की रुपरेखा भी अवशिष्ट है। समीप ही दमउदहरा नाम से प्रसिद्ध तीर्थस्थल ऋषभतीर्थ 'गुंजी' है, जो महत्वपूर्ण धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक दृश्यावली सम्पन्न स्थल है।

2. खरौद-शिवरीनारायण- खरौद, बिलासपुर से लगभग 63 किलोमीटर दूर, जांजगीर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थान विगत सदियों से 'परगना' के रुप में प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय रहा है। यहां 7-8 वीं सदी ईस्वी के ईंट-निर्मित मंदिर विद्यमान है, जिनमें इन्दल देउल और शबरी मंदिर मुख्य है। दोनों मंदिर तारकानुकृति तल-विन्यास पर निर्मित है। इन्दल देउल के पाषाण निर्मित प्रवेश द्वार पर पूरे शाख के आकार की नदी देवियाँ गंगा, यमुना उल्लेखनीय है। शबरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग तथा गरुड़ का क्षेत्रीय परम्परागत अंकन है। शबरी मंदिर के मंडप की प्रतिमाएं तथा स्तंभ भी महत्वपूर्ण हैं एक अन्य प्राचीन मंदिर लक्ष्मणेश्वर है, जिसे विशेष धार्मिक मान्यता प्राप्त है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना और शैव-द्वारपाल है। मंदिर के स्तंभों पर रामकथा का अंकन है तथा मंडप की भित्तियों पर दो प्राचीन महत्वपूर्ण शिलालेख जड़े हैं। मंदिर परिसर में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं के साथ अभिलिखित राजपुरुष की प्रतिमा भी विद्यमान है। ग्राम में अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य अवशेष भी प्राप्त हुए है तथा अवशिष्ट धूलि-दुर्ग के लक्षण परिखा (खाई) के रुप में विद्यमान है।

संलग्न स्थल शिवरीनारायण, महानदी-शिवनाथ-जोंक संगम त्रिवेणी के निकट स्थित, छत्तीसगढ़ का प्रमुख वैष्णव केंद्र है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के नर-नारायण मंदिर, केशवनारायण मंदिर, चंद्रचूड़ मंदिर सहित पिछली सदी का राम-जानकी मंदिर है। प्राचीन शिलालेख और ताम्रपत्र भी प्राप्त हुए हैं। सन 1891 तक यह तहसील मुख्यालय रहा साथ ही जगन्नाथ पुरी से संबद्धता और माघ पूर्णिमा पर मेला भी उल्लेखनीय है।

3. जांजगीर- बिलासपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर, अनुविभाग मुख्यालय है। यह स्थल रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम द्वारा बसाया गया माना जाता है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। शिखर-विहीन विष्णु मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से पूर्ण विकसित एवं तत्कालीन कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। मानवाकार प्रतिमाओं युक्त विशाल जगती (चबूतरे) पर मंदिर निर्मित है। जगती पर देव प्रतिमाओं के साथ कृष्ण-कथा एवं राम-कथा के कुछ अत्यंत रोचक दृश्यों का महत्वपूर्ण अंकन है। पूर्वाभिमुख मंदिर की बाहरी दीवार पर विष्णु के अवतार, ब्रह्मा, सूर्य, शिव, देवियाँ, अष्ट दिक्पाल व विभिन्न मुद्राओं में योगियों के साथ अप्सरा तथा व्याल प्रतिमाएं है। प्रवेश द्वार पर त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, त्रैलोक्य भ्रमण विष्णु, नदी देवी, द्वारपाल तथा अर्द्ध स्तंभों पर कुबेर अंकित है। अन्य मंदिर, शिव मंदिर है, जिसका मूल स्वरूप नवीनीकरण से प्रभावित है, किन्तु प्रवेश द्वार यथावत है। यहां सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रुपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपाल प्रतिमाएं है। बाहरी दीवार पर अपेक्षाकृत कम संख्या में किन्तु शास्त्रीय व कलात्मक सूर्य, हरिहर-हिरण्यगर्भ, शिव-नटराज, गणेश, सरस्वती आदि प्रतिमाएं है।

4. ताला- बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर ग्राम अमेरीकांपा में स्थित स्थल है। शिवनाथ और मनियारी नदी के संगम के निकट 5-6 वीं सदी ईस्वी के दो प्राचीन मंदिर अवशेष है, जिन्हें देवरानी-जिठानी नाम से जाना जाता है। विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है किंतु विशाल आकार के शिलाखंडों से निर्मित गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। प्रवेश द्वार के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती द्यूत-क्रीड़ा, भगीरथ-अनुगामिनी गंगा आदि अंकन आकर्षक और सजीव है। द्वार-शाखा की जालिकावत् लता-वल्लरी और पत्र-पुष्पीय संयोजन का कीर्तिमुख अंकन विशेष उल्लेखनीय है। मंदिर परिसर में मयूररूढ़ कार्तिकेय, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुखगण, उपासक तथा विश्व प्रसिद्ध विशालकाय रुद्र-शिव प्रतिमा विशिष्ट है। दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। मंदिर का तल-विन्यास अत्यंत विशिष्ट प्रकार का है। यहां से कार्तिकेय, शिव-मस्तक, वरुण, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी और विष्णु फलक तथा मंदिर स्थापत्य-खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला प्रसंगों के साथ नंदी और शिवगण का अंकन भी उपलब्ध हुआ है। यहीं से शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का रजत सिक्का तथा कलचुरि शासकों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। स्थल पर स्थानीय-संग्रह में भी पुरावशेष एकत्र कर रखे गए हैं।

5. तुमान- बिलासपुर से लगभग 95 किलोमीटर दूर कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल इस क्षेत्र के कलचुरियों की आरंभिक राजधानी रही है। यहाँ पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर, लगभग 11 वीं सदी ईस्वी का स्थापत्य उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित मूल संरचना से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। प्रवेश द्वार में सिरदल पर शिव का अंकन है, किन्तु शाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेश द्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएं है। स्थानीय संग्रह में नंदी, नंदिकेश्वर, माता-शिशु, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएं है। मंदिर के चतुर्दिक प्राचीन टीले हैं तथा सतखण्डा क्षेत्र में भी पुरावशेषों के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। स्थल का प्राचीन नाम तुम्माण लगभग प्रत्येक कलचुरि अभिलेखों में प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के संग्रह और प्रदर्शन की व्यवस्था भी स्थल पर है।

6. पाली- बिलासपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर कलचुरि स्थापत्य शैली के महत्वपूर्ण स्मारक के रुप में विद्यमान है। मंदिर बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराये जाने की जानकारी प्रवेश द्वार में सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाहरी दीवार पर नटराज, अंधकासुर वध, गजासुरवध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय, सूर्य, नर्तकी, योगी, अष्ट दिक्पाल के साथ विविध प्रकार के व्याल तथा मिथुन प्रतिमाएं सज्जित है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना, शैव, द्वारपाल तथा द्वार-शाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला और उपासना के दृश्य हैं। मंदिर में बहुलिखित ‘मगरध्वज जोगी 700‘, भी अभिलिखित है।

7. मल्हार- बिलासपुर से लगभग 33 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल जिले और अंचल का प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ ईस्वी पूर्व 7-8 वीं सदी से मुगल काल तक निरंतर कालक्रम में स्थापत्य अवशेष, प्रतिमाएं, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मुहर, मृदभाण्ड, मनके, मृणमूर्तियाँ आदि विविध सामग्रियां बड़ी मात्रा में प्राप्त हुई है। देउर मंदिर विशाल संरचना है। पश्चिमाभिमुख मंदिर के द्वार पार्श्वों में शिवलीला, गजासुरवध, शिव-विवाह तथा उमा महेश्वर का अत्यंत मनोहारी और बारीकी से अंकन हुआ है। इस मंदिर का काल 7-8 वीं सदी ईस्वी माना गया है। 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर है। इनमें केदारेश्वर अथवा पातालेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग, अंशतः तथा मंडप व अर्द्ध मंडप मात्र तल विन्यास में ही दृष्टव्य है। डिडिनेश्वरी मंदिर में काले पत्थर की अत्यंत कलात्मक प्रसिद्ध प्रतिमा 'डिडिन दाई' के रुप में पूजित है। केदारेश्वर मंदिर के मंडप में भी तीन दिशाओं से प्रवेश की व्यवस्था है। शिखर विहीन गर्भगृह में काले पत्थर की लिंग-पीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वार शाखों के भीतरी पाश्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव-विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध आदि उत्कीर्ण है। अभिलिखित विष्णु प्रतिमा, मेकल पाण्डववंशी ताम्रपत्र, प्रसन्नमात्र का ताम्र सिक्का आदि पुरावशेष, विशेष उल्लेखनीय हैं। यहां भी धूलि दुर्ग का अस्तित्व है, जिसमें विभिन्न पुरावशेष विद्यमान होने की जानकारी मिलती है। पातालेश्वर मंदिर परिसर का स्थानीय संग्रह भी विशेष उल्लेखनीय है।

8. रतनपुर- जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल सुदीर्घ अवधि तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है। रतनपुर और निकटवर्ती ग्रामों, यथा जूना शहर में कलचुरि और मराठा शासकों से सम्बंधित अवशेष आज भी विद्यमान है। महामाया मंदिर की ख्याति सिद्ध क्षेत्र के रुप में है जिसके प्रवेश द्वार पर परवर्ती कलचुरि शासक वाहर साय का शिलालेख है। मंदिर परिसर में विविध देव प्रतिमाएं हैं। कण्ठी-देउल भी परवर्ती काल की संरचना है जिसमें शाल भंजिका, राजपुरुष, लिंगोद्भव कथानक आदि प्रतिमाएं लाकर जड़ी गई हैं। मराठाकालीन स्मारक रामटेकरी मंदिर, प्राचीन किला-अवशेष तथा जूना शहर में कथित सतखंडा महल, बावली आदि विद्यमान है। रतनपुर से अत्यंत महत्वपूर्ण कलचुरि शिलालेखों, प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है। यहां स्थानीय संग्रह भी दर्शनीय है।

9. चैतुरगढ़ (लाफा) - बिलासपुर से लगभग 82 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पहाड़ी पर बना किला क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में से एक माना जाता है। किले में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। मुख्य प्रवेश द्वार गणेश द्वार से है। अन्य प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा हेतु दोहरे दीवाल की व्यवस्था व देवकुलिकाओं में मातृका-देवियों की प्रतिमाएं है। पहाड़ी पर परवर्ती कलचुरि कालीन महामाया मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषमर्दिनी प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न स्तंभ आधारित मण्डप है। यही पहाड़ी श्रृंखला एक छोटी नदी जटाशंकरी का उद्गम भी है। स्थल का प्राकृतिक दृश्य सौन्दर्य चित्ताकर्षक है।

Friday, March 25, 2022

बिलासपुर अंचल के प्राचीन शिव मंदिर

सन 1989 में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा ‘भारतीय कला में शैव परंपरा’ विषयक आयोजन हुआ था, जिसमें विभागीय पत्रिका ‘पुरातन‘-6, का विशेष अंक प्रकाशित हुआ था। इस अंक में ‘बिलासपुर जिले के प्राचीन शिव मंदिर‘ शीर्षक से मेरा लेख शामिल था, जो यहां प्रस्तुत है- 



प्राकृतिक संपदा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण दक्षिण कोसल का क्षेत्र स्वाभाविक ही कला-संस्कृति पोषक विभिन्न राजवंशों के आकर्षण का केंद्र रहा है। फलस्वरूप स्थापत्य, मूर्तिकला, अभिलेख तथा मुद्राओं पर कलाप्रियता के साथ धार्मिक भावना के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जो विभिन्न राजवंशों की धार्मिक चेतना तथा कलानुराग के परिचायक हैं। वर्तमान बिलासपुर जिले के भूभाग से ऐसी स्रोत-सामग्री प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनके आधार पर तत्कालीन कला-प्रतिमान, दार्शनिक चिंतन, धार्मिक परंपरा तथा सहिष्णुता का परीक्षण किया जा सकता है। 

यह क्षेत्र मुख्यतः शैव धर्मावलंबी राजवंशों के अंतर्गत दीर्घकाल तक शासित रहा, अतः शैव कला और स्थापत्य के विविध अवशेष बिलासपुर जिले में उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख राजवंश क्रमशः शरभपुरीय, पाण्डव-सोम (चन्द्रवंशी) तथा कलचुरि, शासकों द्वारा शैव परंपरा का उत्तरोत्तर विकास होता रहा। यद्यपि शरभपुरियों का राजधर्म वैष्णव था, किंतु इस काल में भी शैवधर्म लोकप्रिय रहा। इन राजवंशों के शैवधर्म से संबंधित प्रमाण बिलासपुर जिले में विद्यमान हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन धार्मिक स्थिति के साथ-साथ कला-स्थापत्य का आंकलन भी किया जा सकता है। इन प्रमुख राजवंशों के स्थापत्य-मूर्तिकला के प्रकाश में शैव-धार्मिकता के विकास के चरण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इन राजवंशों के प्रमुख कृतित्त्व का विवरण इस प्रकार है: 

शरभपुरीय वंश: इतिहास में अब तक अप्रमाणित नगर शरभपुर तथा इसके पश्चात् प्रसन्नपुर मुख्यालय से राज्य संचालन करने वाले इस वंश का अमरार्य कुल से संलग्न होने के प्रमाण मिलते हैं। शरभपुरीय शासकों का काल ई. पाँचवीं-छठी सदी माना जाता है। शरभपुरियों के स्थापत्य उदाहरण मात्र बिलासपुर जिले से ही ज्ञात होते हैं। ताला के दो शिव मंदिर, शैव धर्मावलंबी मेकल के पाण्डववंशी शासकों द्वारा निर्मित होने की संभावना भी प्रकट की जा सकती है, किंतु यह निर्विवाद है कि इन शिव मंदिरों का निर्माण काल, मंदिर स्थापत्य के क्षेत्रीय इतिहास में प्राचीनतम है। 

जिठानी तथा देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अपेक्षाकृत सुरक्षित व पूर्वज्ञात है। टीले के रूप में परिवर्तित जिठानी मंदिर की संरचना पिछले वर्षों में कराये गये विभागीय कार्यों से स्पष्ट हुई। दोनों मंदिरों के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमाएँ अप्राप्य हैं किंतु प्राप्त प्रतिमाओं और स्थापत्य अवशेष से तत्कालीन कला व शैव परंपरा की समृद्ध झलक मिलती है। 

विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। द्वारशाखा के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती की द्यूतक्रीड़ा, भगीरथ अनुगामिनी गंगा आदि अंकनों में सुदीर्घ कलाभ्यास से प्राप्त उच्च प्रतिमान, दृश्यों को अत्यंत आकर्षक और सजीव बना देता है। इस मंदिर के परिसर में मयूरारूढ़ कार्तिकेय की दो प्रतिमाएँ, शिव प्रतिमा शीर्ष, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुख गण, प्रतिमाएँ भी धार्मिक विचारधारा के आयाम प्रस्तुत करती हैं। 

दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपान क्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। तल-विन्यास से ज्ञात इस मंदिर की स्थापत्य योजना अत्यंत विशिष्ट है। यहाँ से भी शैवधर्म संबंधी अंकन- स्वतंत्र प्रतिमाएँ तथा स्थापत्य खंड, उपलब्ध हुए हैं। स्वतंत्र प्रतिमाओं में मुख्यतः कार्तिकेय, शिव मस्तक, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी फलक तथा मंदिर स्थापत्य खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला और शैव प्रसंगों के अंकन के अतिरिक्त नंदी, शिवगण आदि प्रमुख हैं। 

पाण्डव-सोम वंश: वस्तुतः तीन भिन्न राजवंशों, जिनका निश्चित एकीकरण संभव नहीं हो सका है, का प्रभाव इस क्षेत्र में लगभग पाँच शताब्दियों तक रहा। इनमें मेकल के पाण्डव वंश का काल लगभग ई. पाँचवीं सदी, कोसल के पाण्डव वंश का काल ई. छठीं-सातवीं सदी तथा कोसल के सोमवंश का काल ई. सातवीं से दसवीं सदी निर्धारित किया गया है। पाण्डव-सोमवंशी शासकों के ताम्रपत्रों पर शिवस्तुति तथा मुद्रा (seal) पर नंदी की अनेक प्रकार की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं। पाण्डव वंश-काल में निर्मित चार प्रमुख शिव मंदिर इस जिले में विद्यमान हैं। इनमें से अड़भार के मंदिर का तल-विन्यास व प्रवेशद्वार सुरक्षित है। मल्हार का देउर मंदिर शिखर विहीन है। खरौद का इन्दल देउल अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है और इसी स्थल के लक्ष्मणेश्वर मंदिर का वर्तमान स्वरूप पुनर्संरचना के फलस्वरूप है। 

मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर मंदिर महत्त्वपूर्ण और विशाल है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल-मण्डप तथा अर्द्धमंडप की भित्तियाँ कुछ ऊँचाई तक सुरक्षित हैं। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। द्वारशाख के भीतरी पार्श्वों में उत्तरी पार्श्व पर शिवलीला के विभिन्न दृश्य हैं। दक्षिणी पार्श्व पर गजासुर-वध, शिव-विवाह तथा उमा-महेश्वर के अंकन में सूक्ष्म परिपूर्णता व मिथकीय सहजता के दर्शन होते हैं। मंदिर परिसर में स्थापत्य खंडों पर शैव-द्वारपालों की आकर्षक मानवाकार प्रतिमाएँ तथा उमा-महेश्वर भी हैं। इसी परिसर में पूर्ववर्ती काल की दो विशाल एवं विशिष्ट प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं को मुखलिंग तथा यज्ञोपवीतधारी आवक्ष शिव रूप में उत्कीर्ण किया गया है। 

खरौद का पश्चिमाभिमुख इन्दल देउल, तल-विन्यास में कोणीय योजना पर ईंटों से निर्मित है। मंदिर के पाषाण प्रवेशद्वार की शाख पर मानवाकार नदी-देवियों के साथ सिरदल पर त्रिमूर्ति की मध्य आकृति में नंदी सहित शिव-पार्वती प्रदर्शित हैं। मंदिर की बाह्य भित्ति पर गणेश उत्कीर्ण हैं। 

खरौद के पूर्वाभिमुख लक्ष्मणेश्वर मंदिर का स्थापत्य नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। गर्भगृह में अष्टकोणीय किंतु अत्यंत क्षत शिवलिंग है। उभय द्वारशाख के निचले अर्द्धभाग में शैव द्वारपाल हैं। मंडप के स्तंभ पर अर्द्धनारीश्वर तथा रावणानुग्रह प्रतिमाएँ अवनत तल में उत्कीर्ण हैं। खरौद के ही एक अन्य (शबरी) मंदिर में शैव द्वारपाल तथा अर्द्धनारीश्वर की चतुर्भुजी व्याघ्रचर्मधारी मानवाकार प्रतिमाएँ भी इसी काल की कृतियाँ हैं। 

अड़भार का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर ताराकृति अष्टकोणीय तल-विन्यास का है। प्रवेशद्वार में सिरदल पर कार्तिकेय तथा संभवतः उमा-महेश्वर का अंकन है। मंदिर परिसर में नंदी तथा अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी नटराज शिव की प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। 

कलचुरि वंश: त्रिपुरी के प्रसिद्ध कलचुरि वंश की शाखा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर तुम्मान में राजधानी स्थापित की। कलचुरियों की यह शाखा, रतनपुर शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई और सुदीर्घ अवधि तक इस क्षेत्र पर राज्य करती रही। शैव धर्मावलंबी कलचुरियों के धार्मिक तथा लोक कल्याणकारी विभिन्न कृत्यों की सूचना अभिलेखों में उत्कीर्ण है। अभिलेखों के आरंभ में निर्गुण, व्यापक, नित्य और परम कारण शिव की भावपूर्ण वंदना है। कलचुरियों के शिवमंदिर निर्माण की परंपरा राजधानी तुम्मान से आरंभ होकर दो शताब्दियों तक निरंतर निर्वहित हुई। 

तुम्मान का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर कलचुरियों की रतनपुर शाखा के आरंभिक स्थापत्य का उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित संरचना मूल से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। प्रवेशद्वार में सिरदल के मध्य कोष्ठ में शिव का अंकन है, किंतु द्वारशाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेशद्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर परिसर में नंदी, नंदिकेश्वर, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

पाली का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना मंदिर के सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में इस मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाह्य-भित्ति आकर्षक प्रतिमाओं से सज्जित है, जिसमें विभिन्न शैव प्रतिमाएँ यथा-नटराज, अंधकासुर वध, गजासुर वध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय अंकित हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर शैव-द्वारपाल तथा शिव परिवार के विभिन्न अंकन हैं। द्वारशाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला तथा उपासना के दृश्य हैं। 

जांजगीर का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर, प्रसिद्ध विष्णु मंदिर के निकट स्थित है। इस मंदिर का मूल स्वरूप नवीनीकरण के प्रभाव से लुप्तप्राय है किंतु मूल प्रवेशद्वार सुरक्षित है। सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रूपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपालों की प्रतिमाएँ हैं। शिव कथानक के कुछ अन्य दृश्यों के साथ गणेश व नटराज की प्रतिमाएँ भी हैं। 

मल्हार में कलचुरिकालीन दो शिव मंदिरों के अवशेष हैं। इनमें पातालेश्वर अथवा केदारेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग अंशतः तथा मंडप व अर्द्धमंडप मात्र तल-विन्यास में ही दृष्टव्य हैं। पश्चिमाभिमुख केदारेश्वर मंदिर निम्नतलीय गर्भगृह का है किंतु मंडप की योजना पूर्वाेल्लिखित तुम्मान मंदिर के सदृश है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वारशाखों के भीतरी पार्श्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध उत्कीर्ण है तथा सम्मुख में नंदी पर शिव-पार्वती, चतुर्भुजी शिव तथा अर्द्धनारीश्वर हैं। द्वारपालों के रूप में वीरभद्र तथा भैरव की प्रतिमाएँ हैं। 

पश्चिमाभिमुख डिडिनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर राजमहिषी की प्रतिमा है। यह मंदिर नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। मंदिर के मंडप की भित्तियों में जड़ी शैव द्वारपाल तथा नटराज की प्रतिमा से, इस मंदिर का शैव होना अनुमानित था। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य के दौरान लिंगपीठिका खंड व नंदी प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे यह मंदिर शिव मंदिर के रूप में सुनिश्चित हुआ। 

किरारी गोढ़ी का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर भी निम्नतलीय गर्भगृह योजना पर निर्मित है। मंदिर की पूर्व तथा उत्तर की भित्ति, जंघा तक अंशतः सुरक्षित है। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य में गर्भगृह से लिंगपीठिका खंड प्राप्त हुई। जंघा की शैव देव प्रतिमाओं में नटराज, हरिहर-हिरण्यगर्भ हैं। मंदिर परिसर में गणेश, नंदी आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

गनियारी का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर अत्यधिक भग्न है किंतु पुनर्संरचित प्रवेशद्वार लगभग सुरक्षित है। गर्भगृह में लिंग की स्थापना है। सिरदल पर शिव, पार्श्वों में द्वारपालों का तथा अन्य परंपरात्मक शैव अंकन भी हैं। बाह्य भित्ति में जंघा के भग्न होने से शिव के अन्य रूप वर्तमान संरचना में अनुपलब्ध हैं। 

सरगाँव का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर कलचुरि स्थापत्य के परवर्ती उदाहरणों में लगभग सुरक्षित मंदिर है। निम्नतलीय गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल व द्वार-पार्श्वों पर परंपरात्मक शैव प्रतिमाओं के अतिरिक्त जंघा पर नटराज, अंधकासुर, गणेश, हरिहर हिरण्यगर्भ की प्रतिमाएँ हैं। 

मदनपुर में भी सरगाँव के समकालीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जिले के अन्य स्थलों पर भी विभिन्न काल के शिव मंदिरों के अस्तित्त्व के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, इनमें कुटेसर नगोई, रैनपुर खुर्द, पंडरिया, रतनपुर, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी, बेलपान, बसहा आदि प्रमुख हैं।

Tuesday, November 2, 2021

जांजगीर का विष्णु मंदिर

बीसेक साल पहले मेरे द्वारा तैयार किया गया लेख

जांजगीर के विष्णु मंदिर की पृष्ठभूमि में आस-पास से प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक सामग्री इस नगर के इतिहास को आदिम युग अथवा कम से कम मध्य पाषाणयुग से सम्बद्ध करती है। आदिम युगीन चित्रित शैलाश्रय, सिंघनपुर और कबरा पहाड़ जैसे स्थानों से ज्ञात हैं। चांपा के निकट हसदेव नदी के तट से मध्य पाषाणयुगीन औजार प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार ऐतिहासिक युग की आहत मुद्राएं ठठारी से प्राप्त हुई हैं। प्राचीन यात्रा पथ पर स्थित जांजगीर, वाराणसी को रामेश्वरम् से सम्बद्ध करता था। एक अन्य प्राचीन मार्ग सोनहत, मातिन, पाली, बलौदा, जांजगीर और शिवरीनारायण से गुजरने की जानकारी भी मिलती है। जांजगीर की प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण यहां के मंदिर हैं।

लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व, पुरातत्वीय सर्वेक्षणकर्ता अधिकारी जे.डी. बेगलर के अनुसार यह स्थान निश्चय ही प्राचीन है और पुराने समय में यहां अनेक मंदिर रहे होंगे। इस तरह बेगलर ने वर्तमान मंदिरों के अलावा अन्य मंदिरों के अस्तित्व और मंदिरों की संभावना भी व्यक्त की है। पुराने शासकीय प्रतिवेदनों में उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह भी रोचक है कि यहां मंदिर के रख-रखाव और अनुरक्षण के लिए सन् 1907 में रु. 4068/, 1909 में रु. 702/, 1910 में रु. 1120/, 1916 में रु. 29/, 1917 में रु. 9/, 1918 में रु. 7/, 1920 में रु. 420/, इस प्रकार राशि व्यय हुई।

अभिलिखित प्रमाणों में ‘जाजल्लपुर’ नगर, रतनपुर राज्य के हैेहयवंशी राजा जाजल्लदेव प्रथम (ईस्वी सन् 1090-1120) ने बसाया था। जांजगीर नाम इसी जाजल्लपुर का अपभ्रंश माना जाता है, इसके साथ ही जांजगीर, दन्तकथाओं की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध और रोचक है। एक दन्तकथा का उल्लेख बेगलर ने भी किया है, जिसके अनुसार- शिवरीनारायण और जांजगीर के मंदिर निर्माण में प्रतियोगिता थी, क्योंकि भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले पूर्ण होगा, वे उसी में प्रविष्ट होंगे। शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हुआ और नारायण ने उसमें प्रवेश किया, फलस्वरूप जांजगीर के मंदिर को उसी स्थिति में अधूरा छोड़ दिया गया।

जांजगीर क्षेत्र में प्रचलित दंतकथाओं में, इस प्रतियोगिता में पाली के मंदिर को भी सम्मिलित बताया जाता है। किंवदती में कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण छमासी रात में हो रहा था, यानि तब रात छः महीने की हुई थी। शिवरीनारायण और पाली के मंदिर भी इसी रात में बनाए जा रहे थे, किन्तु इस मंदिर पर शिखर की तैयारी हो रही थी, तभी पक्षियों ने चहचहाना आरंभ कर दिया और यह अधूरा रह गया। इस दंतकथा के कथाकार, पार्श्व में स्थित शिव मंदिर को इस मंदिर का शिखर बताते हैं। छमासी रात में मंदिर निर्माण की कथा छत्तीसगढ़ में बहुप्रचलित और अंचल के अन्य मंदिरों के साथ भी सम्बद्ध है।

दो अन्य रोचक दंतकथाएं भी जांजगीर में प्रचलित है। ये दोनों कथाएं महाबली भीम से संबंधित हैं। एक कथा के अनुसार मंदिर से लगे तालाब को भीम ने पांच बार फावड़ा चला कर खोदा था, इसीलिए तालाब का नाम भीमा तालाब हुआ। दूसरी कथा में महाभारत युद्ध में भीम ने कौरव सेना के जिन हाथियों को पूंछ पकड़ कर, घुमाकर फेंका था, उनमें से चार यहां आकर गिरे और भीम उस पर सवार हुए।

इस मंदिर के निर्माण से संबंधित एक अन्य किंवदंती में भीम को इस मंदिर का शिल्पी कहा जाता है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है- एक बार विश्वकर्मा और भीम के बीच एक रात में मंदिर बनाने की होड़ हुई। मंदिर बनने आरंभ हुए। भीम द्वारा इस मंदिर का निर्माण करते हुए छेनी-हथौड़ी नीचे गिर जाती थी तब भीम का हाथी गिरे उपकरण लाकर पुनः भीम को दे देता था। यही क्रम चलता रहा, किन्तु एक बार भीम की छेनी छिटक कर निकटस्थ तालाब में चली गई, जब तक हाथी तालाब से छेनी निकाल कर ला पाता, तब तक सबेरा हो गया। भीम ने गुस्से में आकर हाथी के दो टुकड़े कर दिए और मंदिर अधूरा रहा। लगभग पचास वर्ष पुरानी स्मृति वाले कुछ लोग, विश्वासपूर्वक यह अनहोनी भी बयान करते हैं कि मंदिर के पास पुराने पीपल वृक्ष पर, जो अब नहीं रहा, पुराने समय के औजार अटके रह गए थे।

वैसे परंपरा में भीमा को पानी का देवता माना जाता है और इस मंदिर को भीमा मंदिर कहा जाता है साथ ही शिखर रहित होने के कारण नकटा मंदिर भी कहा जाता है। इस प्रकार विष्णु मंदिर के निर्माण, भीमा या रानी तालाब और महाबली भीम से सम्बद्ध, चाव से सुनी-सुनाई जाने वाली विभिन्न किंवदंतियों को जन्म देने वाला यह मंदिर, जांजगीर के भीमा तालाब के पश्चिमोत्तर तट पर अपना कला-वैभव समेटे खड़ा है।

स्थापत्य की दृष्टि से मंदिर के चतुर्दिक विशाल जगती या चबूतरा 33.3 मीटर लंबा, 22.3 मीटर चौड़ा और 2.75 मीटर ऊंचा है, जिसके पूर्वी हिस्से का कुछ भाग पुनर्निर्मित किया गया है। इस भाग में विभिन्न स्फुट प्रतिमाओं के साथ राम कथा के दृश्य फलक भी जड़े गए हैं, जिनमें एक फलक पर धनुर्धारी राम, सीता और लक्ष्मण को रावण तथा मृग सहित अंकित किया गया है। दूसरे फलक पर रावण का भिक्षाटन तथा सीताहरण दिखाया गया है। तीसरा अंकन, राम द्वारा एक बाण से सात ताल वृक्षों को भेदने का है। एक अन्य फलक पर सेतुबंध हेतु पाषाण-खंड ढोते वानर अंकित हैं। एक फलक पर सहस्रबाहु कार्त्तवीर्यार्जुन और रावण के युद्ध का दृश्य है। जगती के मूल अवशिष्ट भाग में विष्णु व अन्य देव प्रतिमाओं के साथ पौराणिक कथानकों से संबंधित मानवाकार प्रतिमाएं हैं, जिनमें विशेष उल्लेखनीय प्रतिमा पश्चिम भाग पर कृष्ण-कथा से संबंधित है। कृष्ण-जन्म के पश्चात् वसुदेव द्वारा बालकृष्ण को यमुना पार करा कर नन्द के घर छोड़ने का प्रसंग दर्शाते हुए वसुदेव, कृष्ण को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाए, गतिमान दिखाए गए हैं। जगती की योजना और अलंकरण विधान, शास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप है। जगती का यह स्वरूप भारतीय स्थापत्य कला का अत्यंत उन्नत और विशिष्ट उदाहरण है।


क्षैतिज धरातल पर भू-योजना में पूर्वाभिमुख मंदिर का मूल विमान-गर्भगृह, कपिली-अन्तराल और सोपान क्रम सहित प्रवेश द्वार सुरक्षित है। गर्भगृह का भीतरी भाग वर्गाकार है, जिसकी प्रत्येक भुजा 3.9 मीटर तथा बाहरी माप 7.7 मीटर वर्ग है। गर्भगृह से संलग्न आयताकार अन्तराल का माप 2.15X1.76 मीटर है। 1.2 मीटर चौड़े प्रवेश द्वार के पार्श्व अर्द्धस्तंभों, सिरदल के ऊपर की अनगढ़ शिला और जगती के अनुपात के आधार पर यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि मंदिर की मूल योजना में मण्डप का भी स्थान था। जगती के ऊपर पहुंचने के लिए सीढ़ियां, अनुरक्षण कार्यों का परिणाम है। सीढ़ी के ऊपर दाहिनी ओर रखी प्रतिमाएं भीम और उसके हाथी की बतलाई जाती हैं।

मंदिर के उर्ध्वाधर रेखा अर्थात उत्सेध में सादी सपाट खरशिला के ऊपर अलंकृत व स्तरित पीठ है, जिसमें क्रमशः एकान्तर क्रम में त्रिभुजाकार आकृतियां, हीरक आकृतियां, वृत्त अलंकरण और तत्पश्चात् नुकीली सूचिका है। इसके ऊपर गतिमान हाथियों की पट्टी, गजथर और घुड़सवारों की पंक्ति, अश्व-नरथर है। इसके ऊपर वेदिबंध के हिस्से में कीर्तिमुख आकृतियों की ग्रासपट्टी और हंस पंक्ति है, इसी भाग पर प्रक्षेपों में विष्णु के चौबीस रूप- केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, ऋषिकेश, पद्मनाभ, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, पुरुषोत्तम, अधोक्षज, नरसिंह, अच्युत, जनार्दन, उपेन्द्र, हरि और कृष्ण आलों में निर्मित हैं। इसके ऊपर अलंकृत थरों के पश्चात् दो तल वाली जंघा का भाग है। जंघा के ऊपर शिखर-मूल अवशिष्ट है।

मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत अलंकृत व भव्य है। शास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप, विकसित और उन्नत प्रवेशद्वार, पांच शाखाओं में विभक्त है, जिसमें तीन भीतरी शाखाओं मेें दोनों पार्श्वों पर नदी देवी- गंगा, यमुना और वैष्णव द्वारपालों की मानवाकार प्रतिमाएं हैं। ऊपरी भाग में स्तंभ शाखा पर कोष्ठकों में देव प्रतिमाएं हैं। अन्य शाखाओं पर नागबंध और लता-वल्लरी अलंकरण है। सिरदल पर मध्य में विष्णु तथा पार्श्वों में ब्रह्मा तथा शिव हैं साथ ही नवग्रहों का अंकन भी किया गया है। देहरी पर उदुम्बर भाग में मानव व नाग-पुरूष उपासकों तथा गज और वृषभ का अंकन है। द्वार पार्श्व के दोहरे अर्द्धस्तंभ पट्टियों में विभक्त हैं, जिन पर साधक, उपासक, नर्तक और वादक-वृंद दिखाए गए हैं।

मंदिर का महत्व और आकर्षण, जंघा भाग पर उत्कीर्ण विष्णु के अवतार, शैव, सूर्य, देवियां, अष्ट दिक्पाल व विशिष्ट मुद्राओं में योगी, अप्सराएं तथा व्याल प्रतिमाएं हैं। विष्णु के अवतारों में नृसिंह का अंकन मंदिर की दक्षिणी भित्ति पर है, अष्टभुजी प्रतिमा के हाथों में चक्र, खड्ग, वज्र, पाश व शंख है। नृसिंह गोद में हिरण्यकश्यप को लिए, दोनों हाथों के नाखून से उसका वध कर रहे हैं। दक्षिणी भित्ति पर ही वराह अवतार की प्रतिमा है, चतुर्भुजी वराह के दाहिने ऊपरी हाथ में चक्र्र, निचले हाथ में गदा है। बायां ऊपरी हाथ विशिष्ट मुद्रा में तथा निचले हाथ में शंख है। प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में परिचारिकाओं का अंकन है तथा गदा के पास भूमि पर नाग पुरुष अंकित है, जिसके सिर पर सर्पफण-छत्र है। वामन अथवा त्रिविक्रम अवतार का अंकन पश्चिमी भित्ति पर है, चतुर्भुजी प्रतिमा की भाव-भंगिमा रौद्र है। दाहिनी ऊपरी भुजा उठी हुई है और निचला हाथ ज्ञानमुद्रा में है। बाएं ऊपरी हाथ में शंख है, निचला हाथ खंडित है। पैर, जो संभवतः ऊपर उठा रहा होगा, अब भग्न हो चुका है।

मंदिर की अन्य उल्लेखनीय प्रतिमाओं में चतुर्भुजी गणेश की नृत्य मुद्रा है। प्रतिमा का दायां पैर, बायीं ओर मुड़ा है और बायां पैर मुड़कर आसन पर स्थित है। बाएं पैर के पास, वाहन मूषक दिखाया गया है। मोदक पात्र सहित प्रतिमा में शुण्ड, बायीं ओर मुड़कर मोदक को स्पर्श कर रहा है। शूर्पकर्ण, गजवदन प्रतिमा लम्बोदर है और यज्ञोपवीत, कंकण व पैंजनी धारण किए है। महत्वपूर्ण माने जाने वाले स्थान, मंदिर के पृष्ठ भाग के प्रक्षेप अर्थात् मध्य रथ में सूर्य का अंकन हुआ है। उपानह और कवचधारी सूर्य, प्रतिमा शास्त्र के निर्देशों के अनुरूप समपाद स्थानक मुद्रा में है और प्रतिमा के पादपीठ पर सप्ताश्व अंकित हैं।

मंदिर स्थापत्य की पारम्परिक प्रतिमाओं में जंघा के दोनों तलों पर अष्ट दिक्पालों की प्रतिमाएं हैं। अष्ट दिक्पालों में प्रथम, इन्द्र पूर्व दिशा का अधिपति है, जिसे यहां पूर्वी भित्ति के दक्षिणी छोर पर अंकित किया गया है। दक्षिण-पूर्व अथवा आग्नेय कोण का अधिपति, अग्नि दक्षिणी भित्ति के पूर्वी छोर पर दिखाया गया है। इस क्रम में आगे मृत्यु के देवता और दक्षिण दिशा के स्वामी यम, दक्षिणी भित्ति के पश्चिमी छोर पर विराजमान हैं। राक्षसों जैसे क्रूर स्वरूप और राक्षसेन्द्र नाम से ज्ञात, नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण के स्वामी निऋति, पश्चिमी भित्ति के दक्षिणी छोर पर स्थापित हैं। विश्व को जलयुक्त रखने वाला, पश्चिमी दिशाधिपति वरुण, मंदिर के पश्चिमी भित्ति के उत्तरी छोर पर हैं। उत्तर-पश्चिम अर्थात् वायव्य दिशा के पालनहार, मन तुल्य देव वायु की प्रतिमा उत्तरी भित्ति के पश्चिमी छोर पर अंकित है। उत्तर दिशा के अधिपति धनद कुबेर का अंकन उत्तरी भित्ति के पूर्वी छोर पर है और उत्तर-पूर्व कोण, ईशान के ईश पूर्वी भित्ति के उत्तरी छोर पर अंकित हैं।

मंदिर की अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में वैष्णवी, माहेश्वरी, सरस्वती और अम्बिका देवियां हैं। जंघा के उत्तरी तलछंद में आभूषणों से अलंकृत वैष्णवी के दाहिने ऊपरी हाथ में शंख, निचले हाथ में श्रीफल अथवा पुष्प, बायें ऊपरी हाथ में चक्र, निचले हाथ में गदा है। दक्षिणी तलछंद के एक अन्य अंकन में वैष्णवी को अष्टभुजी प्रदर्शित किया गया है, मानवमुखी गरुड़ पर आसीन देवी शंख व चक्र आयुध युक्त हैं। उत्तरी जंघा में अंकित माहेश्वरी की प्रतिमा, पारम्परिक अलंकरण और आयुध सहित अंकित है, दाहिनी ओर नन्दी मुंह ऊपर उठाए प्रदर्शित है। पश्चिमी भाग में चतुर्भुजी वीणापाणी सरस्वती का अंकन है। इसी दिशा में अम्बिका दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी से आम्रगुच्छ पकड़े हैं तथा बायीं ओर बालक लिए हुए हैं। प्रतिमा के शीर्ष भाग पर भी आम्रकोरक का अलंकरण है।

मंदिर में व्यालों और विभिन्न रोचक मुद्राओं में योगियों की प्रतिमाओं के अतिरिक्त विभिन्न देवांगनाएं और नायिकाएं हैं, इनमें मृदंग बजाती ‘मृदंगवादिनी’, पुरुष से आलिंगनबद्ध ‘मोहिनी’, खड्गधारी नृत्यांगना ‘मंजुघोषा’, झांझर पहनती ‘हंसावली’, चामरधारिणी ‘चामरा’, आंखों में अंजन देती, अलसयुक्त ‘लीलावती’, बांसुरी बजाती ‘बंसीवादिनी’, दर्पण लेकर बिंदी लगाती ‘विधिचिता’, केश हाथ में लिए ‘केशगुम्फिणी’, कमलनाल लिए ‘माननी’ और वीणा लिए ‘वीणावादिनी’ की बारम्बार पुनरावृत्ति हुई है। इनमें से विशेष उल्लेखनीय एक देवांगना, दक्षिणी जंघा के निचले छंद में स्थित ‘हंसावली’ है। वह अपना दाहिना पैर ऊपर उठाकर, दोनों हाथों से नूपुर बांध रही है। उसके दाहिने पैर के पास लघुकाय मृदंग वादक है। यह त्रिशीर्ष मुकुट, कानों में चक्र कुण्डल, कन्धे पर स्कन्ध माल, गले में ग्रैवेयक, उपग्रीवा, हिक्कासूत्र, स्तनसूत्र धारण किए हैं। भुजा में भुजबंध व कटकवलय है। मुक्तादाम, पादवलय व पादजालक भी स्पष्ट है। इस मूर्ति के तालमान में समानुपातिकता, अंग भंगिमा तथा सौन्दर्य, किसी भी दृष्टि से खजुराहो की ऐसी प्रतिमाओं से कम नहीं है।

मंदिर अपने स्थापत्य, अलंकरण, प्रतिमाओं और समग्र प्रभाव में, भुलाने को बाध्य कर देता है कि यह अधूरा है। इस कला-समृद्ध संरचना और काल के मूक साक्षी को देखकर, दर्शक सम्मोहित हो जाता है, सदियों का इतिहास और सहस्राब्दियों की परम्परा का मूर्तमान रूप है यह मंदिर। यह न केवल जांजगीर नगर अथवा जिले का, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ और भारतीय कला-स्थापत्य इतिहास का गौरव-विषय है।

परिशिष्ट- जांजगीर के प्राचीन स्मारकों और उनके रख-रखाव की जानकारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रिपोर्ट्स में मिलती है, वह इस प्रकार है-
Archaeological Survey of India - Annual Report 1905-6 (Conservation (general) - temples in Central Provinces) page 7-8 Visnu temple, Janjgir (with Lakshman temple, Sirpur)

Archaeological Survey of India - Annual Report 1924-5 (Section-I Conservation - Central Provinces) page 33-34 Visnu temple, Janjgir (with Sirpur and Kharod)

Progress Report Archaeological Survey Western India
1905 - Janjgir, special repaires to old Hindu temple(Progress Report 1903-4,para -79) in progress amount Rs. 100/-
1906 - special repaires to old temple Rs. 3970/-

From 1903 report - with the extra charge, added in 1901, of Central India and Hydrabad, and the proposed further addition of Rajputana and the Central Provinces, the work of which I have already begen,

From Annual Report Archaeological Survey Eastern Circle for 1905-6 the central provinces, to which most of the tributary states of Orissa and Chota Nagpur now belong, had just been aided.

Annual Report of the Archaeological Survey Eastern Circle
1907 - Janjgir - repaires to the old Hindu temples - Rs. 4068
1908 - X
1909 - restoration of two Hindu temples at Janjgir - Rs. 702
1910 - Janjgir - restoring the two Hindu temples - Rs. 1120 works - Big temple cleaning of rank vegetation cement concrete on flat roof fixing teak door lifting and fixing large stone in position cleaning site and levelling compound providing outlet for roof rain water works - small temple wire fencing and fixing wooden gate marrum ramping and levelling compound fixing window to aperture concrete in founds uprooting roots and cutting branches of pipal tree.
1911, 1912, 1913, 1914, 1915 - X
1916 - Janjgir - the large Vaishnava temple Rs. 29
1917 - Janjgir - annual repairs - the large Vaishnava temple Rs. 9
1918 - Janjgir - annual repairs - the large Vaishnava temple Rs. 7
1919 - Janjgir - X
1920 - Janjgir - certain repairs to the Vaishnava temple Rs. 420
1921 - Janjgir - X

Thursday, May 10, 2012

टाइटेनिक

10 अप्रैल 1912, इंग्लैंड से अमरीका के लिए करीब 2200 यात्रियों के साथ अपनी पहली यात्रा पर रवाना जहाज टाइटेनिक पांचवें दिन, 15 अप्रैल को अटलांटिक महासागर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ। बचा लिए गए 700 यात्रियों का यह नया जन्मदिन था, तो बाकी के निधन की तारीख दर्ज हुआ। न जाने कितनी कहानियां बनी-बिगड़ीं। एक सदी से डूबती-तिरती स्मृतियां। टिकट नं. 237671 ले कर यात्रा कर रही जांजगीर, छत्तीसगढ़ की मिस एनी क्लेमर फंक ने 12 अप्रैल को इसी जहाज पर अपना अड़तीसवां, आखिरी जन्मदिन मनाया।
छत्तीसगढ़ में इसाई मिशनरियों का इतिहास सन 1868 से पता लगता है, जब रेवरेन्ड लोर (Oscar T. Lohr) ने बिश्रामपुर मिशन की स्थापना की। तब से बीसवीं सदी के आरंभ तक रायपुर, चन्दखुरी, मुंगेली, पेन्ड्रा रोड, चांपा, धमतरी और जशपुर अंचल में मेथोडिस्ट एपिस्कॉपल मिशन, इवेन्जेलिकल मिशन, लुथेरन चर्च के संस्थापकों रेवरेन्ड एम डी एडम्स, रेवरेन्ड जी डब्ल्यू जैक्सन, रेवरेन्ड एन मैड्‌सन आदि का नाम मिलता है।
सन 1926 में निर्मित मेनोनाइट चर्च, जांजगीर
इसी क्रम में 1900-01 में मेनोनाइट चर्च के जान एफ. क्रोएकर ने जांजगीर के इस केन्द्र की स्थापना की, सन 1906 में 32 वर्ष की आयु में मिस फंक यहां आईं और लड़कियों का स्कूल खोला।
स्‍कूल परिसर में संस्‍थापक रेवरेन्‍ड क्रोएकर की स्‍मारक शिला और प्रिंसिपल मिस सरोजनी सिंह, जिनमें मिस फंक के त्‍याग, समर्पण, करुणा और ममता का संस्‍कार महसूस होता है.
अपनी बीमार मां की खबर पा कर बंबई हो कर इंग्लैण्ड पहुंचीं। हड़ताल के कारण अपनी निर्धारित यात्रा-साधन बदल कर, अतिरिक्त रकम चुका कर, वे टाइटेनिक की मुसाफिर बनीं। दुर्घटना होने पर राहत-बचाव में, जीवन रक्षक नौका के लिए मिस फंक का नंबर आ गया, लेकिन एक महिला जिसके बच्चे को नौका में प्रवेश मिला था और वह खुद जहाज पर छूट कर बच्चों से बिछड़ रही थी। अंतिम सांसें गिन रही अपनी मां से मिलने जा रही मिस फंक ने यहां बच्चों से बिछड़ रही उस मां को जीवन रक्षक नौका में अपने नंबर की सीट दे दी। विधि के विधान के आगे कहानियों की नाटकीयता और रोमांच की क्या बिसात।

सन 1915 में उनकी स्मृति में मिशन परिसर, जांजगीर में दोमंजिला भवन बना, जिसके लिए प्रसिद्ध ''फ्राडिघम आयरन एंड स्टील कं.'' के गर्डर इंग्लैंड से मंगवाए गए। यहां ''फंक मेमोरियल स्कूल, जांजगीर'' की स्थापना हुई। परिसर में इस भवन के अवशेष के साथ टाइटेनिक हादसे एवं मिस एनी क्लेमर फंक के जिक्र वाला स्मारक पत्थर मौजूद है।
गत माह 15 तारीख को टाइटेनिक दुर्घटना की पूरी सदी बीत गई, इस दिन जांजगीर मिशन स्कूल परिसर में मिस फंक सहित हादसे के शिकार लोगों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की गई।
इस संबंध में मुझे विस्‍तृत जानकारी सुश्री सरोजनी सिंह, प्राचार्य, श्री राजेश पीटर, अध्यक्ष, अनुग्रह शिक्षण सेवा समिति, जांजगीर और पास्टर डी कुमार से मिली। टाइटेनिक और हादसे से संबंधित जानकारियां पर्याप्त विस्तार से इन्साक्लोपीडिया टाइटेनिका में है।

इसाई मिशनरी, चर्च के साथ जुड़े और वहां उपलब्‍ध लेखे तथा छत्‍तीसगढ़ में आ बसे मराठा परिवारों की जानकारियां, इन दोनों स्रोतों में तथ्‍यात्‍मक और तटस्‍थ लेखन का चलन रहा है, महत्‍व की हैं, अभी तक शोध-खोज में इन स्रोतों का उपयोग अच्‍छी तरह नहीं हुआ है। छत्‍तीसगढ़ के करीब ढाई सौ साल के सामाजिक-सांस्‍कृतिक इतिहास के लिए यह उपयोगी साबित होगा।