1. अड़भार- बिलासपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर, सक्ती अनुविभाग में स्थित है। संभवतः इसी ग्राम को प्राचीन अभिलेखों में अष्टद्वार कहा गया है। स्थल पर 7-8 वीं सदी ईस्वी के स्थापत्य अवशेष विद्यमान है, जो मूलतः शिव मंदिर रहा होगा। पश्चिमाभिमुख यह शिव मंदिर अष्टकोणीय तारानुकृति तल-विन्यास वाला है, जिसमें प्रवेश हेतु दो द्वार अब भी विद्यमान है। प्रवेश द्वार-शाखाओं पर नाग तथा संभवतः गरुड़ और सिरदल पर कार्तिकेय व उमा-महेश का अंकन है। मंदिर परिसर में अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी महिषमर्दिनी तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं हैं साथ ही नंदी तथा अष्टभुजी नटराज शिव की भी प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला-प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। स्थल से ऐतिहासिक महत्व को विभिन्न शिलालेख, ताम्रपत्र व कलात्मक प्रतिमाएं प्रकाश में आई है। प्राचीन मृत्तिका-दुर्ग अथवा धूलि-दुर्ग (mud fort) की रुपरेखा भी अवशिष्ट है। समीप ही दमउदहरा नाम से प्रसिद्ध तीर्थस्थल ऋषभतीर्थ 'गुंजी' है, जो महत्वपूर्ण धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक दृश्यावली सम्पन्न स्थल है।
2. खरौद-शिवरीनारायण- खरौद, बिलासपुर से लगभग 63 किलोमीटर दूर, जांजगीर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थान विगत सदियों से 'परगना' के रुप में प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय रहा है। यहां 7-8 वीं सदी ईस्वी के ईंट-निर्मित मंदिर विद्यमान है, जिनमें इन्दल देउल और शबरी मंदिर मुख्य है। दोनों मंदिर तारकानुकृति तल-विन्यास पर निर्मित है। इन्दल देउल के पाषाण निर्मित प्रवेश द्वार पर पूरे शाख के आकार की नदी देवियाँ गंगा, यमुना उल्लेखनीय है। शबरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग तथा गरुड़ का क्षेत्रीय परम्परागत अंकन है। शबरी मंदिर के मंडप की प्रतिमाएं तथा स्तंभ भी महत्वपूर्ण हैं एक अन्य प्राचीन मंदिर लक्ष्मणेश्वर है, जिसे विशेष धार्मिक मान्यता प्राप्त है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना और शैव-द्वारपाल है। मंदिर के स्तंभों पर रामकथा का अंकन है तथा मंडप की भित्तियों पर दो प्राचीन महत्वपूर्ण शिलालेख जड़े हैं। मंदिर परिसर में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं के साथ अभिलिखित राजपुरुष की प्रतिमा भी विद्यमान है। ग्राम में अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य अवशेष भी प्राप्त हुए है तथा अवशिष्ट धूलि-दुर्ग के लक्षण परिखा (खाई) के रुप में विद्यमान है।
संलग्न स्थल शिवरीनारायण, महानदी-शिवनाथ-जोंक संगम त्रिवेणी के निकट स्थित, छत्तीसगढ़ का प्रमुख वैष्णव केंद्र है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के नर-नारायण मंदिर, केशवनारायण मंदिर, चंद्रचूड़ मंदिर सहित पिछली सदी का राम-जानकी मंदिर है। प्राचीन शिलालेख और ताम्रपत्र भी प्राप्त हुए हैं। सन 1891 तक यह तहसील मुख्यालय रहा साथ ही जगन्नाथ पुरी से संबद्धता और माघ पूर्णिमा पर मेला भी उल्लेखनीय है।
3. जांजगीर- बिलासपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर, अनुविभाग मुख्यालय है। यह स्थल रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम द्वारा बसाया गया माना जाता है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। शिखर-विहीन विष्णु मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से पूर्ण विकसित एवं तत्कालीन कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। मानवाकार प्रतिमाओं युक्त विशाल जगती (चबूतरे) पर मंदिर निर्मित है। जगती पर देव प्रतिमाओं के साथ कृष्ण-कथा एवं राम-कथा के कुछ अत्यंत रोचक दृश्यों का महत्वपूर्ण अंकन है। पूर्वाभिमुख मंदिर की बाहरी दीवार पर विष्णु के अवतार, ब्रह्मा, सूर्य, शिव, देवियाँ, अष्ट दिक्पाल व विभिन्न मुद्राओं में योगियों के साथ अप्सरा तथा व्याल प्रतिमाएं है। प्रवेश द्वार पर त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, त्रैलोक्य भ्रमण विष्णु, नदी देवी, द्वारपाल तथा अर्द्ध स्तंभों पर कुबेर अंकित है। अन्य मंदिर, शिव मंदिर है, जिसका मूल स्वरूप नवीनीकरण से प्रभावित है, किन्तु प्रवेश द्वार यथावत है। यहां सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रुपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपाल प्रतिमाएं है। बाहरी दीवार पर अपेक्षाकृत कम संख्या में किन्तु शास्त्रीय व कलात्मक सूर्य, हरिहर-हिरण्यगर्भ, शिव-नटराज, गणेश, सरस्वती आदि प्रतिमाएं है।
4. ताला- बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर ग्राम अमेरीकांपा में स्थित स्थल है। शिवनाथ और मनियारी नदी के संगम के निकट 5-6 वीं सदी ईस्वी के दो प्राचीन मंदिर अवशेष है, जिन्हें देवरानी-जिठानी नाम से जाना जाता है। विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है किंतु विशाल आकार के शिलाखंडों से निर्मित गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। प्रवेश द्वार के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती द्यूत-क्रीड़ा, भगीरथ-अनुगामिनी गंगा आदि अंकन आकर्षक और सजीव है। द्वार-शाखा की जालिकावत् लता-वल्लरी और पत्र-पुष्पीय संयोजन का कीर्तिमुख अंकन विशेष उल्लेखनीय है। मंदिर परिसर में मयूररूढ़ कार्तिकेय, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुखगण, उपासक तथा विश्व प्रसिद्ध विशालकाय रुद्र-शिव प्रतिमा विशिष्ट है। दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। मंदिर का तल-विन्यास अत्यंत विशिष्ट प्रकार का है। यहां से कार्तिकेय, शिव-मस्तक, वरुण, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी और विष्णु फलक तथा मंदिर स्थापत्य-खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला प्रसंगों के साथ नंदी और शिवगण का अंकन भी उपलब्ध हुआ है। यहीं से शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का रजत सिक्का तथा कलचुरि शासकों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। स्थल पर स्थानीय-संग्रह में भी पुरावशेष एकत्र कर रखे गए हैं।
5. तुमान- बिलासपुर से लगभग 95 किलोमीटर दूर कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल इस क्षेत्र के कलचुरियों की आरंभिक राजधानी रही है। यहाँ पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर, लगभग 11 वीं सदी ईस्वी का स्थापत्य उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित मूल संरचना से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। प्रवेश द्वार में सिरदल पर शिव का अंकन है, किन्तु शाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेश द्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएं है। स्थानीय संग्रह में नंदी, नंदिकेश्वर, माता-शिशु, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएं है। मंदिर के चतुर्दिक प्राचीन टीले हैं तथा सतखण्डा क्षेत्र में भी पुरावशेषों के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। स्थल का प्राचीन नाम तुम्माण लगभग प्रत्येक कलचुरि अभिलेखों में प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के संग्रह और प्रदर्शन की व्यवस्था भी स्थल पर है।
6. पाली- बिलासपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर कलचुरि स्थापत्य शैली के महत्वपूर्ण स्मारक के रुप में विद्यमान है। मंदिर बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराये जाने की जानकारी प्रवेश द्वार में सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाहरी दीवार पर नटराज, अंधकासुर वध, गजासुरवध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय, सूर्य, नर्तकी, योगी, अष्ट दिक्पाल के साथ विविध प्रकार के व्याल तथा मिथुन प्रतिमाएं सज्जित है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना, शैव, द्वारपाल तथा द्वार-शाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला और उपासना के दृश्य हैं। मंदिर में बहुलिखित ‘मगरध्वज जोगी 700‘, भी अभिलिखित है।
7. मल्हार- बिलासपुर से लगभग 33 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल जिले और अंचल का प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ ईस्वी पूर्व 7-8 वीं सदी से मुगल काल तक निरंतर कालक्रम में स्थापत्य अवशेष, प्रतिमाएं, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मुहर, मृदभाण्ड, मनके, मृणमूर्तियाँ आदि विविध सामग्रियां बड़ी मात्रा में प्राप्त हुई है। देउर मंदिर विशाल संरचना है। पश्चिमाभिमुख मंदिर के द्वार पार्श्वों में शिवलीला, गजासुरवध, शिव-विवाह तथा उमा महेश्वर का अत्यंत मनोहारी और बारीकी से अंकन हुआ है। इस मंदिर का काल 7-8 वीं सदी ईस्वी माना गया है। 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर है। इनमें केदारेश्वर अथवा पातालेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग, अंशतः तथा मंडप व अर्द्ध मंडप मात्र तल विन्यास में ही दृष्टव्य है। डिडिनेश्वरी मंदिर में काले पत्थर की अत्यंत कलात्मक प्रसिद्ध प्रतिमा 'डिडिन दाई' के रुप में पूजित है। केदारेश्वर मंदिर के मंडप में भी तीन दिशाओं से प्रवेश की व्यवस्था है। शिखर विहीन गर्भगृह में काले पत्थर की लिंग-पीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वार शाखों के भीतरी पाश्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव-विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध आदि उत्कीर्ण है। अभिलिखित विष्णु प्रतिमा, मेकल पाण्डववंशी ताम्रपत्र, प्रसन्नमात्र का ताम्र सिक्का आदि पुरावशेष, विशेष उल्लेखनीय हैं। यहां भी धूलि दुर्ग का अस्तित्व है, जिसमें विभिन्न पुरावशेष विद्यमान होने की जानकारी मिलती है। पातालेश्वर मंदिर परिसर का स्थानीय संग्रह भी विशेष उल्लेखनीय है।
8. रतनपुर- जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल सुदीर्घ अवधि तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है। रतनपुर और निकटवर्ती ग्रामों, यथा जूना शहर में कलचुरि और मराठा शासकों से सम्बंधित अवशेष आज भी विद्यमान है। महामाया मंदिर की ख्याति सिद्ध क्षेत्र के रुप में है जिसके प्रवेश द्वार पर परवर्ती कलचुरि शासक वाहर साय का शिलालेख है। मंदिर परिसर में विविध देव प्रतिमाएं हैं। कण्ठी-देउल भी परवर्ती काल की संरचना है जिसमें शाल भंजिका, राजपुरुष, लिंगोद्भव कथानक आदि प्रतिमाएं लाकर जड़ी गई हैं। मराठाकालीन स्मारक रामटेकरी मंदिर, प्राचीन किला-अवशेष तथा जूना शहर में कथित सतखंडा महल, बावली आदि विद्यमान है। रतनपुर से अत्यंत महत्वपूर्ण कलचुरि शिलालेखों, प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है। यहां स्थानीय संग्रह भी दर्शनीय है।
9. चैतुरगढ़ (लाफा) - बिलासपुर से लगभग 82 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पहाड़ी पर बना किला क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में से एक माना जाता है। किले में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। मुख्य प्रवेश द्वार गणेश द्वार से है। अन्य प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा हेतु दोहरे दीवाल की व्यवस्था व देवकुलिकाओं में मातृका-देवियों की प्रतिमाएं है। पहाड़ी पर परवर्ती कलचुरि कालीन महामाया मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषमर्दिनी प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न स्तंभ आधारित मण्डप है। यही पहाड़ी श्रृंखला एक छोटी नदी जटाशंकरी का उद्गम भी है। स्थल का प्राकृतिक दृश्य सौन्दर्य चित्ताकर्षक है।
अच्छी जानकारी सर जी
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