Saturday, March 26, 2022

बिलासपुर अंचल की विशिष्ट शैव प्रतिमाएँ

गिरधारीलाल रायकवार जी प्रतिमाशास्त्र के अनूठे अध्येता हैं। पुराण-साहित्य जैसे मूल स्रोंतों पर उनकी गहरी पकड़ है, उसे प्राथमिक आधार बनाकर प्रतिमा शिल्प-शास्त्रीय लक्षणों की पहचान और व्याख्या करने वाले ऐसे मूर्तिविज्ञानी कम हैं। सन 1989 में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा विभागीय पत्रिका ‘पुरातन‘-6, का विशेष अंक प्रकाशित हुआ था। इस अंक में प्रकाशित रायकवार जी का महत्वपूर्ण लेख, यहां प्रस्तुत है- 



बिलासपुर जिले की शैव प्रतिमाएँ

बिलासपुर जिले में शैवधर्म से संबंधित कलाकृतियों में प्रमुख रूप से उमा-महेश्वर, नटराज, गजासुर संहारक शिव, गंगाधर शिव, वीणाधर शिव, अर्धनारीश्वर, एकमुखीलिंग, चतुर्मुखीलिंग, हरिहर, गणेश, कार्तिकेय, गौरी, भैरव आदि का अंकन प्रचुरता से प्राप्त होता है। इन कलाकृतियों में पौराणिक कथानकों को कलात्मकता के साथ रूपायित किये जाने की परंपरा रही है। शैव प्रतिमाओं के दुर्लभ प्रकारों में से कुछ प्रतिमाएँ बिलासपुर जिले में भी प्राप्त हुई हैं। इस जिले में ज्ञात पौराणिक प्रसंगों से संघारित कुछ दुर्लभ तथा विशिष्ट कलाकृतियों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है।

उमामहेश्वर:
शिल्प के ग्रंथों में इस प्रकार की प्रतिमा निर्माण के विधान का उल्लेख नहीं है तथापि शिल्पियों ने द्यूतक्रीड़ा प्रसंग को मौलिक कल्पना के साथ मनोरंजक रूप में रूपायित किया है। इस प्रकार की प्रतिमाएँ अत्यंत दुर्लभ हैं तथा अभी तक विभिन्न कला शैलियों की कुछ ही प्रतिमाएँ मध्यप्रदेश में ज्ञात हो सकी हैं। दक्षिण कोसल के अंतर्गत बिलासपुर जिले में ताला के देवरानी मंदिर के द्वारशाखा पार्श्व में अंकित द्यूतक्रीड़ारत उमा-महेश्वर का अंकन सर्वाधिक प्राचीन है। शिल्पखंड में द्यूतक्रीड़ारत उमा-महेश्वर का संपूर्ण दृश्य संयोजन तीन प्रखंडों में किया गया है। मध्यवर्ती प्रथम खंड में बैठे हुए चौसर खेल रहे हैं। बांयीं ओर के खंड स्थित शिव के गणसमूह कौतुहल तथा आतुरता से क्रीड़ा देख रहे हैं।

इसी प्रकार मल्हार के पातालेश्वर मंदिर के प्रवेश द्वार पार्श्व में द्यूतक्रीड़ा का अंकन प्राप्त होता है। यहाँ पर सम्पूर्ण दृश्य का चित्रण लम्बवत् तीन पृथक प्रखंडों में किया गया है। प्रथम खंड में शिव-पार्वती सम्मुख बैठे हुए चौसर खेल रहे हैं। द्वितीय खंड में देवी की परिचारिका नंदी को पकड़ कर ले जाने के लिए उद्यत है जिसमें एक गण व्यवधान कर रहा है। तृतीय खंड में नंदी के स्वामित्त्व के विवाद को लेकर उक्त गण तथा परिचारिका आपस में लड़ रहे हैं। शिल्पी के द्वारा इस मनोरंजक आख्यान को हास्यमय रोचकता के साथ चित्रण किया गया है। रतनपुर कलचुरि कला की यह विशिष्ट कृति बारहवीं शती ईसवी की निर्मित है।

नंदी-अभिषेक:
नंदी का अंकन शिल्पकला में प्रायः वृषभ के रूप में मिलता है। हरिहर प्रतिमाओं में यदाकदा नंदी वृषभ मुख सहित मानवरूप में अंकित प्राप्त होता है। नंदिकेश्वर की स्वतंत्र प्रतिमाएँ कम प्राप्त होती हैं। रतनपुर में गढ़ी की दीवार पर नंदी-अभिषेक प्रतिमा फलक जड़ा हुआ है। इसमें नंदी चौकी पर बैठे हुए प्रदर्शित है। उनके उभय पार्श्व में स्थित स्थानक उपासक माल्यार्पण करते हुए स्थित हैं तथा समीप में आसनस्थ परिचारिकाएँ भी दृष्टव्य हैं। बाह्य भाग में आसनस्थ अन्य परिचारिकाएँ अवशिष्ट हैं। जांजगीर के शिवमंदिर के तोरण पर सिरदल में नंदी-अभिषेक का दृश्य है (रमानाथ मिश्र, भारतीय मूर्तिकला, पृ. 245)। रतनपुर से प्राप्त नंदी-अभिषेक फलक बाणवंशी शासकों के काल में लगभग 9-10वीं शती ईसवी का निर्मित है।

लिंगोद्भव महेश्वर मूर्ति:
यह शिल्पपट्ट किसी शिव मंदिर का भाग रहा होगा जिसे अब रतनपुर के कंठी देउरमंदिर में जड़ दिया गया है। शिल्पखंड में लिंगोद्भव महेश्वर मूर्ति विषयक पौराणिक आख्यान तीन विभक्त प्रखंडों में प्रदर्शित है। कथानक का चित्रण मध्यखंड से प्रारंभ होता है जिसमें ज्योतिर्मय स्तंभ के दाँईं तरफ चतुर्भुजी ब्रह्मा तथा बाँईं ओर विष्णु द्विभंग में खड़े हुए प्रदर्शित हैं। ऊर्ध्वखंड में ज्योतिर्मय स्तंभ शिखर पर लघु रूप में आसनस्थ लिंगाकार शिव दृष्टव्य हैं तथा मध्य में स्थित स्तंभ के दाँईं ओर ब्रह्मा तथा बाँईं ओर विष्णु अंजलिबद्ध आसनस्थ अंकित हैं। सबसे ऊपर आकाशचारी मालाधारी विद्याधरों का अंकन है। सबसे नीचे के खंड में विष्णु घुटने मोड़कर आराधना करते हुए प्रदर्शित है। इस शिल्पपट्ट में वायु पुराण, शिव पुराण तथा लिंग पुराण में वर्णित लिंगोद्भव महेश्वर मूर्ति का अंकन है। इस पौराणिक कथा का निर्वहन शिल्पी ने मौलिक सूझबूझ के साथ किंचित् परिवर्तन के साथ किया है। शिल्प खंड में ब्रह्मा तथा विष्णु को उड़ते हुए नहीं दिखाया गया है। शिव का प्राकट्य स्तंभ के मध्य में प्रदर्शित नहीं है अपितु ज्योतिर्मय स्तंभ के शिखर पर आसनस्थ अंकन है। पुनः ज्योतिर्मय स्तंभ के मूलभाग पर माया से मोहित तथा अचंभित ब्रह्मा एवं विष्णु को सांकेतिक हस्त मुद्रा द्वारा विवादग्रस्त प्रदर्शित किया गया है। ऊपर के भाग में ज्योतिर्मय स्तंभ के आदि तथा अंत ज्ञात करने में असफल होकर ब्रह्मा एवं विष्णु स्थिर होकर अंजलिबद्ध नमन तथा ध्यान करते हुए अंकित हैं। इस शिल्पखंड में शिव के सर्वाेच्च महत्त्व को प्रदर्शित किया गया है। दक्षिण कोसलीय कला परंपरा में लिंगोद्भव मूर्ति की यह एकमात्र ज्ञात कृति है। प्रतिमा का निर्माणकाल लगभग 9-10वीं शती ईसवी है।

रावण की शिवोपासना:
रतनपुर गढ़ी की दीवार में जड़ी हुई रावण की शिवोपासना से संबंधित फलक एक अद्वितीय कलाकृति है। इस शिल्पखंड में रावण के द्वारा शिवोपासना का अद्भुत एवं रोमांचक पौराणिक आख्यान प्रदर्शित है जिसमें रावण अपने शीश क्रमशः काट-काट कर शिव को अर्पित करते हुए दृष्टव्य है। रावण के मुख पर दंभ तथा बाहु संचालन में दर्प परिलक्षित है। बीस भुजी रावण की अधिकांश भुजाएँ भग्न हैं तथा शीर्ष अंशतः खंडित हैं। वह चक्रकुंडल, हार, केयूर, कंकण, उपवीत तथा कटिसूत्र पहने हुए हैं। आसुरी भाव के अनुरूप रावण के अंग-प्रत्यंग में क्रूरता तथा बलिष्ठता सन्निहित है। उसकी मुख मुद्रा में अहंकार तथा दुस्साहस परिलक्षित है। दाईं ओर स्थित शिवलिंग में रावण के द्वारा अर्पित क्रमशः नौ शीर्ष अंकित हैं। उभय पार्श्वों में स्थित मानव आकृतियाँ खंडित हैं। यह शिल्पखंड समग्र दक्षिण कोसलीय शिल्पवैभव की एकमात्र ज्ञात कृति है जो विलक्षण तथा अद्वितीय है। यह बाणवंशी शासकों के काल (लगभग 9-10वीं शती ई.) में निर्मित कृति है।

बिलासपुर जिले के शैवधर्म से संबंधित विविध प्रतिमाओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि यह क्षेत्र ईसवी तीसरी-चौथी से बारहवीं शती ईसवी तक निरंतर पारंपरिक प्रतिमाओं के साथ-साथ मौलिक पौराणिक प्रतिमाओं का भी निर्माण करता रहा है, जिसमें स्थानीय शिल्पियों की अद्भुत कल्पना शक्ति प्रस्फुटित हुई है। इस क्षेत्र की कलानुरागिता में शैवधर्म का आध्यात्मिक तथा लौकिक पक्ष सहज ढंग से मुखरित हुआ है। शैवधर्म के विभिन्न कला केन्द्र तत्कालीन जनजीवन के धार्मिक आस्था के अविराम उद्दाम प्रवाह के द्योतक है। शैवधर्म के मूलतत्त्व स्थानीय जनजीवन के व्रत एवं पर्वों में उल्लास के साथ नगर-ग्राम के अतिरिक्त गिरि-अरण्यों में भी निनादित है।

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