अर्द्धबृगल* : चार कविताएं
(एकाकी प्रजापति भी रमा नहीं, दूसरे की इच्छा की- बृहदारण्यकोपनिषद)
तुम
तुम
भूला सा पाठ
और खोई पुस्तक,
वह जिसे बार-बार दुहराने का मन करे।
तब परीक्षा पास कर,
जाने कहां रख गई किताब,
स्मृति में फड़फड़ा रहे पन्ने अब।
तुम-मैं
तुम मेरे लिए
अपवाद की तरह जरूरी।
अपवाद, नई संभावना।
आपका, आप से अब तुम हो जाना,
तुम का मैं हो लेना।
तुम की जगह मैं,
मेरे के बदले तुम्हारे,
अपवाद या सिद्धांत,
जरूरी या गैरजरूरी।
दो नायिका, एक नायक अथवा
एक नायिका दो नायक के त्रिकोण
और कोणों पर बारी-बारी खड़े हो
समग्र समेट लेने की आतुर व्यथा।
तेरा होना
तेरा होना
हो ना में
तेरे ‘न होने‘ में
न ही तेरे ‘होने‘ में
तेरा होना, तेरे हो जाने में।
तेरा होना तेरे आने में,
तेरे आने से पहले।
तेरा होना तेरे जाने में,
तेरे जाने के बाद भी।
भूत और भविष्य के रिक्त में
वर्तमान के आभास में।
तेरा होना, हर हाल में होना है।
हो जाने या न जाने
तू माने या न माने
तेरा आना, तेरा जाना
हमने माना,
तेरा होना।
तेरा साथ
साथ चलना है तो-
मैं तुम्हारी बात मान लूं,
या तुम्हें समझा कर सहमति बना सकूं,
यदि नहीं तो-
तुम मेरी बात मान लो,
या मुझे अपनी बात समझाओ।
हम यह भी तय कर सकते हैं कि
जो तुम में है, मुझ में नहीं
और मुझ में है, वो तुम में नहीं।
फिर चलो, एक दूसरे के पूरक बनते,
साथ चलना यूं ही सही।
*अर्द्धबृगल-द्विदल अन्न का एक दल।
एक साधे सब,
सधता है तब,
वह एक जब,
निराकार, शून्य।
भूख लगे, खा सकें।
नींद आए, सो सकें।
हंस सकें, रो सकें।
और चाहिए भी क्या!
सोमरसी चार‘वाक -
नींद आए, सो सकें,
हंस सकें, रो सकें।
खा सकें, पी सकें,
जीते भर, जी सकें।
No comments:
Post a Comment