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Friday, June 17, 2022

समालोचक सप्रे

माधवराव सप्रे की एक सौ पचासवीं जयंती पर गत वर्ष सार्ध शती समारोह के आयोजन हुए। साल बीत जाने पर यहां उनकी जन्मशती 1971 का स्मरण है। 1968 के दौर में हिंदी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ के लेखक के नाते सप्रे जी की चर्चा होती थी। उनकी जन्मशती के अवसर पर आई.ए.एस. डॉ. सुशील त्रिवेदी, जो तब सुशीलकुमार त्रिवेदी नाम से जाने जाते थे, ने उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित धर्मवीर भारती संपादित साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग‘ में सप्रे जी के समालोचक पक्ष को भुला दिए जाने या उपेक्षा/नजरअंदाज? किए जाने पर गंभीर कटाक्ष करते हुए लेख लिखा था। 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के प्रथम अंक, जनवरी 1900 में स्पष्ट किया गया था कि- ‘आजकल भाषा में बहुत-सा कूड़ा-करकट जमा हो रहा है। वह न हो पाए इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करें।‘ सप्रे जी कहते थे कि ‘न्यायाधीश और समालोचक के कार्य कुछ साम्य भी है और कुछ भिन्नता भी है।‘ उनके एक कथन का उल्लेख मिलता है- ‘हिंदी समालोचना के विकास के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक समालोचक समिति की स्थापना हो और नागरी समालोचक नाम की पत्रिका भी निकले।‘ किंतु बाद में सभा के द्वारा प्रस्तावित समालोचना समिति से अपना नाम वापस ले लिया था। 

प्रसंगवश, यों तो ‘आलोचना, समीक्षा, समालोचना‘ के शाब्दिक और रूढ़ अर्थ में घालमेल होता रहा है। सप्रे जी ने ‘भारत गौरव’ पुस्तक की समीक्षा करते हुए लिखा है कि- ‘समालोचक शब्द का अर्थ यद्यपि बहुत अच्छा है, परंतु साधारणतः कई लोग उससे बुरा अर्थ ही लेते हैं। कहते हैं कि किसी के छिद्र ढूंढना और समालोचना करना एक बराबर है। ... ऐसा कोई न समझे कि समालोचक की कृति में कभी त्रुटि ही नहीं रहती। नहीं, समालोचक भी एक मनुष्य है और मनुष्य से प्रमाद हो जाना स्वाभाविक है। ‘लव कुश चरित्र‘ की समीक्षाओं पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘केवल प्रशंसा कर देना ही यदि समालोचना है तो अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।‘ उनकी समालोचना दृष्टि का असर ‘सरस्वती‘, जुलाई 2001 अंक के उद्धरण में मिलता है- ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में चल पड़ी है ... उसकी समालोचना प्रणाली प्रशंसनीय है। 

स्मरणीय कि गंगाप्रसाद अग्निहोत्री का नाम मिलता है, जो जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के संपर्क में आए और चिपलूणकर शास्त्री के ‘समालोचना‘ शीर्षक मराठी निबंध का हिंदी अनुवाद कर नागरी प्रचारिणी पत्रिका में 1896 में प्रकाशित कराया था। इसी प्रकार अगस्त 1902 से जयपुर से बाबू गोपालराम गहमरी ने ‘समालोचक‘ मासिक पत्र आरंभ किया, जिसमें कहा गया कि ‘समालोचना बिना हिन्दी की अतिहीन दशा है। अब साहित्य वाटिका में पड़ा कूड़ा कर्कट का ढेर अपने उदर से दूषित और अस्वास्थकर वाष्प फेंकने लगा है।‘ इस पत्र के प्रवेशांक में श्री वेंकटेश्वर समाचार द्वारा प्रस्तावित समालोचक समिति की स्थापना और उसके सभापति पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र निर्वाचित होने की सूचना प्रकाशित हुई है। समालोचक में गुलेरी जी की भूमिका भी विशेष उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में श्याम बिहारी-शुकदेव बिहारी मिश्र बंधुओं का ‘हिन्दी नवरत्न‘ उल्लेखनीय है, जिसे श्यामसुंदरदास ने इसे कवियों की समालोचना का सूत्रपात कहा था। 

यह संयोग है कि हिंदी में समालोचक को पहले-पहल प्रतिष्ठित करने वाले माधवराव सप्रे तथा विशाल ग्रंथ ‘गांधी मीमांसा‘ तथा अंग्रेजी ‘GANDHI-ISM X-RAYED‘ के रचयिता, समर्थ समालोचक उपाधि-भूषित पं. रामदयाल तिवारी, की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है। पं. रामदयाल तिवारी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के लिए 1932 में कहा कि ‘उनका समालोचना विभाग, जिसमें स्वयं सप्रे जी प्रेषित ग्रंथों की आलोचना किया करते थे, आज भी पढ़ने योग्य है।‘ इसी प्रकार मावलीप्रसाद श्रीवास्तव ने 1933 में लिखा था कि वे ‘समालोचना-संसार में एक नये अवतार‘ थे। 

उल्लेखनीय कि मावली बाबू द्वारा एकत्र और सहेजी सामग्री के आधार पर पं. माधवराव सप्रे (जीवनी) पुस्तक, पं. गोविंदराव हर्डीेकर (समर्पण और निवेदन में नाम ‘गोविन्द नारायण हर्डीकर आया है तथा देवीप्रसाद वर्मा ‘हार्डीकर‘ लिखते हैं।) ने तैयार की, जिसका प्रकाशन सन 1950 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जबलपुर द्वारा किया गया तथा इसका पुनर्प्रकाशन पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केंद्र द्वारा, संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के अनुदान से 2008 में किया गया। 

प्रसंगानुकूल इस भूमिका के साथ त्रिवेदी जी का उक्त लेख यहां यथावत प्रस्तुत- 

हिंदी के समालोचकों द्वारा भुला दिये गये पहले समालोचक: माधवराव सप्रे 

सुशीलकुमार त्रिवेदी 

जन्म-शताब्दी (१९ जून) के अवसर पर 


दोष किसका है, कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन स्थिति यही है कि एक मराठी-भाषी जीवन भर निष्ठा तथा एकाग्रता से हिंदी की सेवा करता रहा, और हिंदी के इतिहासकारों ने उसे भुला दिया. जिस व्यक्ति ने हिंदी में समालोचना-लेखन की परंपरा की नींव डाली, सशक्त निबंधों की रचना की और कई महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, उसी व्यक्ति- पं. माधवराव सप्रे का नाम पंडित रामचंद्र शुक्ल और उनके ग्रंथ को आधार बना कर ‘नकल नवीस इतिहासकार‘ बननेवालों को याद नहीं रहा. यह एक भूल है या साहित्य इतिहासकारों की साधन-दरिद्रता है? 

पिछड़े इलाके का अगुआ
 
मध्यप्रदेश, जो आज भी पिछड़ा माना जाता है उसी का एक और पिछडा इलाका छत्तीसगढ़ सप्रे जी की कर्मभूमि रहा. इसी क्षेत्र में उन्होंने आज से लगभग ७५ वर्ष पूर्व हिंदी-आंदोलन शुरू किया था. उन्हें छत्तीसगढ़ की सोंधी मिट्टी से इतना ममत्व था, इतना अनुराग था कि उन्होंने अपने साहित्यिक मासिक पत्र का नाम ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ रखा. यह वही ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ है, जिसमें सबसे पहली बार हिंदी-ग्रंथों की समालोचना प्रकाशित हुई. बनती-संवरती रूप लेती हिंदी में प्रकाशित होनेवाले पहले ग्रंथों की पहली समालोचना को लिखने वाले सप्रे जी ही थे. 

पेंड्रा (जिला-बिलासपुर) के राजकुमारों को पढ़ाने से मिलनेवाले वेतन में से पैसा बचा कर सप्रे जी ने जनवरी, १९०० में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन आरंभ किया. पं. श्रीघर पाठक, जिन्हें आचार्य शुक्ल ने ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद का प्रवर्त्तक‘ माना है, की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों- ऊजड़ ग्राम, एकांतवासी योगी, जगत सचाई सार, घन-विजय, गुणवंत हेमंत तथा अन्य, की विस्तृत विश्लेषणात्मक और विवेचनात्मक वैज्ञानिक समालोचना इसी पत्र में पहली बार प्रकाशित हुई. इसी प्रकार मिश्रबंधु तथा पं. कामताप्रसाद गुरु आदि तत्कालीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों की कृतियों की समालोचना सप्रे जी ने ही लिखी. इसके अतिरिक्त पं. महावीरप्रसाद मिश्र, पं. कामताप्रसाद गुरु, पं. गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पं. श्रीघर पाठक आदि की रचनाएं प्रायः ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में प्रकाशित होती रहीं. 

कुछ वर्ष पूर्व एक ख्याति प्राप्त कहानी-मासिक (सारिका) पत्रिका में एक परिचर्चा प्रकाशित हुई, जिसमें माधवराव सप्रे द्वारा लिखित ‘एक टोकरी मिट्टी‘ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी बताया गया था. यह कहानी ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ में सन् १९०१ में प्रकाशित हुई थी. 

अर्थाभाव के कारण ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन दिसंबर, १९०२ में बंद हो गया. पहले एक साल तक इसका मुद्रण रायपुर कैयूमी प्रेस में हुआ, किंतु बाद में यह नागपुर के देशसेवक प्रेस में मुद्रित होता था. 

सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में १९ जून, १८७१ को हुआ था. रायपुर से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उन्नीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने रेलवे की ठेकेदारी साझेदारी में की, किंतु अनुभवहीनता के कारण ठोकर खायी. फिर वे ग्वालियर चले गये, जहां से उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की. सन् १८९८ में सप्रे जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने एल एल. बी. का अध्ययन पूरा किया, किंतु जिस दिन परीक्षा शुरू हुई, उस दिन वे परीक्षा भवन तक जा कर वहां से वापस आ गये. उन्होंने सोचा कि यदि वे वकील बन गये, तो वे साहित्य-साधना नहीं कर पायेंगे. और इसके बाद ही उन्होंने हिंदी के उन्नयन के लिए जीवन समर्पित कर दिया. 

‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के अवसान से सप्रे जी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हो गये. वे नागपुर आ गये और उन्होंने देशसेवक प्रेस में नौकरी करनी शुरू कर दी. इस प्रेस से ‘देशसेवक‘ नामक एक साप्ताहिक प्रकाशित होता था. तीन वर्ष बाद सप्रे जी ने एक प्रकाशन संस्थान खोला, जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी ग्रंथमाला‘ का प्रकाशन किया. जान मिल स्टुअर्ट द्वारा लिखित ‘लिबर्टी‘ नामक ग्रंथ का आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया अनुवाद इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत हुआ था. इसके अलावा कई महत्वपूर्ण हिंदी लेखकों द्वारा किये गये अनुवाद तथा उनकी अन्य कृतियां भी सप्रे जी ने संपादित तथा प्रकाशित कीं. 

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने विज्ञान कोश के निर्माण का कार्य सन् १९०२ में प्रारंभ किया था. इस योजना में सप्रे जी को अर्थशास्त्र विभाग का कार्य सौंपा गया. 

उन दिनों भारत के राजनीतिक क्षितिज पर तिलक का सूर्य जगमगा रहा था. चौंतीस वर्षीय सप्रे जी लोकमान्य तिलक के संपर्क में आये, और उन्होंने नागपुर से ‘हिंदी केसरी‘ प्रकाशित करने का निश्चय किया. ‘हिंदी केसरी‘ का प्रकाशन एक साप्ताहिक के रूप में सन् १९०७ में प्रारंभ हुआ. महान स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल ने कहा था कि ‘सप्रे जी के ‘हिंदी केसरी‘ से मुझे देश-भक्ति की स्फूर्ति मिली. सप्रे जी की विद्वत्ता, आध्यात्म के अभ्यास, अकृत्रिम निष्ठा, स्पष्ट व्यवहार, सादगी तथा स्वार्थ त्याग के लिए मेरे मन में बहुत आदर है. खेद इतना ही है कि उन सरीखे योग्य पुरुष महात्मा गांधी के उदात्त राजनीतिक तत्वज्ञान का आकलन पूरी तरह से न कर सके.‘ 

बलि के बकरे की तलाश 

‘हिंदी केसरी‘ ने सन् १९०८ में ‘राष्ट्रीय आंदोलन का हिंदी भाषा से क्या संबंध है?‘ विषय पर एक निबंध प्रतियोगिता आयोजित की. इस प्रतियोगिता में पं. माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध सर्वाेत्तम ठहराया गया और उन्हें १५ रुपये का पुरस्कार दिया गया. सन् १९१५ में इटारसी स्टेशन पर सप्रे जी की माखनलाल जी से अचानक भेंट हो गयी. सप्रे जी ने उनसे कहा, ‘मुझे मध्यप्रदेश के लिए एक बलि की जरूरत है. अनेक तरुण मुझे निराश कर चुके हैं, अब मैं तुम्हारी बर्बादी पर उतारू हूं. माखनलाल, तुम वचन दो कि अपना समस्त जीवन मध्यप्रदेश के उठाने में लगा दोगे.‘ इस पर माखनलाल जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि ‘यदि प्रांत के लिए मेरा उपयोग किया जा सकता है, तो मैं आप के दरवाजे पर ही हूं.‘ 

‘हिंदी केसरी‘ की उत्कट राष्ट्र भक्ति तथा चेतना से अंग्रेजी सरकार क्षुब्ध हुई और अगस्त सन् १९०८ में सप्रे जी ‘राज्य-विरोधी लेख‘ प्रकाशित करने के आरोप में गिरफ्तार किये गये. 

इसके बाद के कुछ वर्ष उन्होंने सार्वजनिक जीवन से अवकाश में बिताये. इसी दौरान उन्होंने आध्यात्मिक साधना की, और मराठी संत कवि श्री रामदास रचित ‘दास बोध‘ तथा तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य‘ का हिंदी अनुवाद किया. 

हिंदी के प्रसार-प्रचार के लिए हिंदी में व्याख्यान माला आयोजित करने की आवश्यकता पर विचार कर सप्रे जी ने सेठ गोविंददास के सहयोग से ‘शारदा भवन‘, योजना चलायी. इस योजना के अंतर्गत हिंदी-ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य भी किया गया. महाकोशल क्षेत्र में ‘शारदा भवन‘ योजना का स्मरण आज भी बड़े सम्मान के साथ किया जाता है. 

युगबोध से समन्वित वह महान व्यक्तित्व
 
सप्रे जी का व्यक्तित्व कभी भी साहित्य के स्वप्निल लोक तक ही सीमित नहीं रहा. वह सदैव युग-बोध से स्पंदित होता रहता. जीवन के यथार्थ को उन्होंने न केवल देखा, वरन् भोगा भी था. बार-बार राजनीति तथा पत्रकारिता में सक्रिय भाग लेने पर मजबूर होते थे. यही कारण है कि वे सदैव राष्ट्रीय चेतना संपन्न समाचारपत्र से संबद्ध हो जाते थे. 

सन् १९२० में पं. माखनलाल चतुर्वेदी के संपादकत्व में जबलपुर से ‘कर्मवीर‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इस पत्र के पीछे सारी प्रेरणा और मेहनत सप्रे जी की थी. सप्रे जी ने माखनलाल जी को आगे आने के लिए प्रेरित किया था. इसी वर्ष सप्रे जी ने जिला राजनीतिक परिषद का आयोजन किया और जबलपुर जिला कांग्रेस समिति का गठन किया. यह वर्ष एक और दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सागर में आयोजित मध्य प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष सप्रे जी चुने गये, किंतु उन्होंने सेठ गोविंददास के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया. 

सन् १९२४ में देहरादून में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का १५वां अधिवेशन आयोजित किया गया. सप्रे जी ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की. यहीं उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया. इस अस्वस्थता के बाद वे उठ नहीं सके और २३ अप्रैल, १९२६ को रायपुर उनका स्वर्गवास हो गया. 

हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास की दिशा में सप्रे जी का योगदान अत्यंत गौरवशाली और महत्वपूर्ण है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करने के अतिरिक्त उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं तथा अनूदित की हैं. उनके अस्सी से भी ज्यादा निबंध ‘सरस्वती‘, ‘मर्यादा‘, ‘अभ्युदय‘, ‘श्री शारदा‘ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. श्री सप्रे द्वारा लिखित ‘जीवन संग्राम में विजय पाने के उपाय‘ नामक पुस्तक आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित ‘आदर्श जीवन‘ की भांति ही श्रेष्ठ है. सप्रे जी ने गंभीर उपयोगी विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध लिखे जो आज भी तरोताजा लगते हैं. उस युग में उनकी भाषा इतनी प्रांजल तथा प्रवहमान थी, जो द्विवेदी जी के अतिरिक्त किसी की भी नहीं थी. 

आचार्य द्विवेदी ने सप्रे जी का स्मरण करते हुए लिखा है, ‘वे हिंदी के अच्छे लेखक ही नहीं, उसके अच्छे उन्नायक थे.‘ और मिश्रबंधु ने ‘सरस्वती‘ में (जुलाई, सन् १९०१) मत व्यक्त किया था कि ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘, की देखा-देखी समालोचना की चाल हिंदी भाषा में भी चल पड़ी. इन दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों के मत, जो बाईस वर्ष के अंतराल में व्यक्त किये गये हैं, सप्रे जी की प्रतिष्ठा के सूचक हैं और साथ ही साहित्य के इतिहासकारों की संकुचित दृष्टि के भी! 

धर्मयुग ★ १३ जून १९७१ ★ २१
 

डॉ. सुशील त्रिवेदी
1942 में जन्मे त्रिवेदी जी 1964 से शासकीय सेवा में रहे। 1971 में जनसंपर्क विभाग की सेवा से प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी में आए थे। पुरोधा पत्रकार पिता स्वराज प्रसाद त्रिवेदी और इतिहासकार शंभुदयाल गुरु का सानिध्य उन्हें सहज प्राप्त था, इसलिए उन्हें प्राथमिक स्रोत उपलब्ध थे, जिसके फलस्वरूप यह लेख आया। डॉ. त्रिवेदी, साहित्य के ऐसे पक्षों को उजागर करने के लिए संकल्पित रहे हैं, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ पर उनका शोध और उनकी पुस्तक इसका प्रमाण है। इसी तरह उनके द्वारा अब लगभग 5000 पृष्ठों वाला ‘माधवराव सप्रे समग्र‘ तैयार कर लिया गया है।

Sunday, September 30, 2012

अक्षय विरासत

साहित्य और पत्रकारिता विरासत में प्राप्त लेखक डॉ. सुशील त्रिवेदी द्वारा पिता पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी की स्मृति को सादर समर्पित 'अक्षय विरासत' शीर्षक के साथ साहित्य और संस्कृति भी है। नामानुरूप संग्रह इसी प्रकार नियोजित है। प्रकाशकीय से यह स्पष्ट नहीं होता, जैसाकि लेखकीय प्राक्कथन में कहा गया है- ''इस ग्रंथ में उन लेखों का संग्रह प्रस्तुत है, जो साहित्य और कला के अंतर्संबंध को उजागर करते हैं।'' लेकिन यहां भी संग्रह के लेखों का पूर्व प्रकाशित, प्रकाशन संदर्भ और तिथि उल्लेख की दृष्टि से सूचना अधूरी है।

संग्रह के पहले हिस्से के 11 लेख साहित्य के हैं और बाद के 9 संस्कृति की विरासत पर हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से गहरे प्रभावित पहला लेख, साहित्य और संस्कृति के समन्वय पर है, उद्धरण है- ''रचनाकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे दिक्‌ और काल में होने वाले घटनाओं और द्वन्द्वात्मकता को जानें और इसे जानने के दौरान वे इतिहास, संस्कृति, कला, रचना और भाषा के आधार बिन्दुओं को जानने की कोशिश करें।'' लगता है कि यह किसी कार्यशाला में दिया गया सूचनात्मक निर्देश है या इन पंक्तियों का लेखक स्वयं के रचनाकार को चेता रहा है। बहरहाल यह अंश लेख के और इस संग्रह के भी आशय को रेखांकित करता है।

इसके बाद पुस्तक के 54 पेज यानि लगभग एक तिहाई में तीन लेख, डा. त्रिवेदी की शोध-उपाधि और विशेषज्ञता-क्षेत्र यानि जगन्नाथ प्रसाद भानु के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हैं। इनमें भानु जी के सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ छन्दः प्रभाकर का विस्तार से परिचय है। साहित्यशास्त्र पर हिन्दी में कम सामग्री मिलती है, बातें भी कम ही होती हैं, लेकिन इस पक्ष पर 'काव्य प्रभाकर' भानु जी की महत्वपूर्ण और विशिष्ट रचना है, संग्रह में पूरी गंभीरता और गरिमा के साथ यह प्रस्तुति स्तुत्य है। ऐसा लगता है कि भानु जी पर ये लेख अलग-अलग समय पर लिखे और प्रकाशित हुए, क्योंकि इनमें कहीं-कहीं दुहराव है। वैसे इन्हीं विषयों पर दो अन्य स्वतंत्र पुस्तकें, भानु जी की जीवनी और ''छन्दः प्रभाकर'' का नया संस्करण भी लेखक ने तैयार किया है।

हिन्दी के प्रथम साहित्यशास्त्री भानु जी पर लेखों के बाद हिन्दी साहित्य के कुछ अन्य 'पहले-पहल' हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह हिन्दी रचना में फैंटेसी विधि के आविष्कर्ता के रूप में दर्ज हैं। भानु जी की तरह ठाकुर साहब की भी रचना भूमि भी छत्तीसगढ़ रही है। इस लेख में पृष्ठ 77 और 79 पर अशोक बाजपेयी के 'फैंटेसी' कथन का उद्धरण दुहराव लगता है। हिन्दी समालोचना के प्रवर्तक और हिन्दी के पहले कहानीकार माधवराव सप्रे की कहानी के लिए पृष्ठ 82 पर ''एक टोकरी मिट्टी'' नाम बताया गया है, यही कहानी देवीप्रसाद वर्मा संपादित पुस्तक में ''टोकरी भर मिट्टी'' शीर्षक से प्रकाशित है, जबकि पं. माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र-समिति के प्रकाशनों में उल्लेख मिलता है कि 'छत्तीसगढ़ मित्र' के अप्रैल 1901 के अंक में छपी कहानी का शीर्षक ''एक टोकरी भर मिट्टी'' है। दो और 'पहले पहल' हिन्दी के पहले मौलिक नाटक 'आनंद रघुनंदन' के कुंवर विश्वनाथ सिंह पर तथा हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री पर लेख भी महत्वपूर्ण हैं।

संस्मरण के रूप में 'मास्टर जी' पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी पर लेख में छायावाद के उद्‌भावक माने जाने वाले पं. मुकुटधर पांडेय और छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रदूत कहे गए पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के उल्लेख से रेखांकित होता है कि इस संग्रह की योजना में ठोस उदाहरणों सहित, हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल में छत्तीसगढ़ का अद्वितीय अवदान, अघोषित लेकिन विद्यमान है। संग्रह के एक अन्य लेख में भारत में नवजागरण के साथ हिन्दी की स्थिति का विवेचन महावीर प्रसाद द्विवेदी को केन्द्र में रख कर किया गया है, यह संक्षिप्त सा लेख देश और हिन्दी के साथ साहित्य पर युग-दृष्टि का जैसा नमूना है, वह सहज उपलब्ध नहीं होता।

संग्रह के दूसरे हिस्से के 9 लेखों में संस्कृति के सभी पक्षों को गहरी समझ लेकिन सहज अभिव्यक्ति सहित स्पर्श किया गया है। इस क्रम में ऋग्‍वेद, गांधी, नेहरू, गोविंदचन्द्र पांडे, रमेशचंद्र शाह, अमर्त्य सेन, भगवत शरण उपाध्याय, महर्षि अरविन्द, हर्मन गूज आदि के कथनों से अपनी स्थापनाओं को स्पष्ट और पुष्ट करते हुए डा. त्रिवेदी लिखते हैं- ''संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान है। जो जाति केवल देना ही जानती है, लेना नहीं, तो उसकी संस्कृति समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत जो संस्कृति दूसरों से ग्रहण करती है, वह सदा फलती-फूलती रहती है। (पृष्ठ-118)''

संस्कृति संबंधी अन्य लेखों में लोक और शास्त्रीय संगीत पर विचार करते हुए स्पष्ट किया गया है कि- ''शास्त्रीय संगीत अपना जीवन रस सदैव लोक संगीत से ही लेता आया है। लोक में प्रचलित संगीत जब संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया के द्वारा प्रतिष्ठित होता है, जब उसका अनुसंधान सुसंस्कृत व्यक्ति करते हैं, जब उसका अपना व्याकरण बन जाता है, तब वह शास्त्रीय संगीत का पद प्राप्त करता है।'' इसके साथ एक स्थान पर लेखकीय व्यथा है कि- ''यह दुःख की बात है कि लोक का उपयोग कुछ कम सम्मानजनक ही होता है।'' लेखक, हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत के मिश्रण की जरूरत पर प्रश्न उठाता है लेकिन दोनों ही शैलियों को उनके मौलिक रूप के अनुसार विकसित होने में अपने किसी सुझाव या स्थापना के बजाय प्रबुद्ध और मननशील संगीतकार और संगीतज्ञों की भूमिका को आवश्यक मानता है। 'साहित्य और कलानुशासनों की अंतर्निर्भरता' लेख में चित्रकला, संगीत, नृत्य, उपसंहार उपशीर्षकों और भूमिका के साथ कला के स्वरूप पर समग्र दृष्टि से विचार किया गया है। लेख 'भारतीय शास्त्रीय नृत्यः प्राचीन से समकालीन तक' पढ़कर लगता है कि कलाप्रेमी सजग पाठक अपनी समझ और अनुभूतियों को वैचारिक क्रम देते हुए उसकी व्यवस्थित प्रस्तुति कर दे तो वह अन्य के लिए भी किस तरह पठनीय सामग्री और आम पाठक के लिए विषय की प्राथमिक समझ बनाने में भी मददगार हो जाता है।

आकाशवाणी भोपाल के लिए श्रीमती रूक्मिणी अरूंडेल तथा हबीब तनवीर जी के साक्षात्कार के अवसर को दो लेखों में संस्मरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए इन व्यक्तित्वों की कला साधना और विशिष्ट पहलुओं को उजागर किया गया है। संग्रह के अंतिम लेख में लोक कला को मानों परिभाषित करते हुए कहा गया है- ''लोक परंपरा में मानव की सौंदर्यमूलक, सृजनशीलता अलग-अलग रूपों में और अलग-अलग माध्यमों में होने वाली अभिव्यक्ति लोक कला है।'' इस पीठिका पर लोक कलाओं की मंचीय प्रस्तुति तथा श्री झाड़ूराम देवांगन से हुई विस्तृत चर्चा में लेखक पंडवानी के अनगढ़ व्याकरण के साथ कापालिक और वेदमती शाखाओं का अंतर बताते हुए असमंजस में जान पड़ता है, लेकिन पूरे प्रसंग को विचार मंथन की तरह प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष पर पहुंचता है- ''यह एक सच्चाई है कि न केवल पंडवानी वरन अन्य कला रूपों का भी स्वरूप अपना मूल ऐन्द्रिय आकर्षण खो रहा है। शायद यह हमारे आर्थिक विकास और सामाजिक बदलाव की एक कीमत है।''

पत्रकारिता-मीडिया का शास्त्र रच रहे सूचना-समृद्ध सर्जक डा. त्रिवेदी की सजग-स्मृति, संदर्भ-सूत्रों का समग्र या समन्वित नहीं बल्कि आधुनिक प्रवृत्ति का 'समावेशी' (उन्हीं के शब्दों में) प्रयोग करने के लिए सदैव तत्पर रहती है और इसके चलते वे समयबद्ध-नियमित बहुविध लेखन कर पाते हैं। वे राय बनाने में समय लगाते हैं, लेकिन प्रकट करने में नहीं और अपनी राय भी फैसले की तरह सुनाते हैं, इस मामले में उनकी बेबाकी और तेवर उन्हें प्रखर समीक्षक की प्रतिष्ठा दिलाती है। कई बार उनकी तटस्थ टिप्पणियां तल्ख हो जाती है और कभी विनम्रता, व्यंग्यात्मक भी। उन्हें विरासत में मिली पत्रकार दृष्टि विषय को सहज और आम रुचि के पाठकों के लिए भी उपयोगी बनाने में सहायक हो जाती है वहीं विश्लेषण और मूल्यांकन करते हुए वे गणितीय पद्धति का इस्तेमाल करते दिखते हैं। कहीं यह भी लगता है कि किसी घटना या दौर के उल्लेख बिना लिखी गई 'संपादकीय' पढ़ रहे हों।

प्रसंगवश, कला समीक्षक डा. त्रिवेदी मूलतः जनसंपर्क विभाग के, फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं और सुदीर्घ प्रेस-प्रशासनिक अनुभव सहित अब भी महती कार्य-दायित्व के साथ व्यस्त हैं। मध्यप्रदेश में संभागीय उत्सवों के आरंभ 1973 से भारत भवन की स्थापना 1982 तक का दौर रहा, जब वे भोपाल के कलाधानी बनने के साक्षी ही नहीं, अभिलेखक भी रहे और यह क्रम इसके पूर्वापर निरंतर रहा है। कलारूपों पर उनका इतना और ऐसा लेखन चकित करने वाला है। उल्लेखनीय यह भी है कि वे ऐसे दुर्लभ प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो कला समीक्षक कहलाना न सिर्फ पसंद करते हैं, बल्कि इस पहचान से सम्मानित भी महसूस करते हैं, उनका यह स्वभाव कला, परम्परा और विरासत के सम्मान का अपना ढंग माना जा सकता है।

संपादन-मुद्रण में प्रभावी कवर वाली इस पुस्तक में पृष्ठ 32 के आरंभ में भगीरथ प्रसाद, नाम के साथ पहले 'डॉ.' फिर इसी पेज के अगले पैरा में 'डाक्टर' है, पुस्तक में 'हिन्दी' कहीं 'हिंदी' भी छपा है, प्रूफ की कुछ अन्य भूलें खटकने वाली हैं। लेख-6 की छपाई में पंक्तियों के बीच का अंतर सामान्य से कम है तो लेख-8 का फान्ट कुछ बड़ा है।

पुस्‍तक विमोचन, 29 सितम्‍बर 2012, रायपुर
कृति, प्रकाशन और विमोचन के बीच पढ़नी हो, जैसा इस पुस्तक के लिए हो रहा है, तो उसके साथ नाजुक बर्ताव करना होता है, फिर यदि पढ़ते हुए उस पर लिखने की बात ध्यान में रहे तो सहज पाठकीय रसास्वादन भी मुश्किल होता है, पढ़ने का सहज आनंद जाता रहता है सो, मेरे लिए यह पुस्तक कुछ समय बाद दुबारा और शायद बार-बार पढ़नी जरूरी होगी, संदेह नहीं कि ऐसा उनके साथ भी होगा, जिनके हाथ यह कृति विमोचन के बाद पहुंचेगी।

इस 'अक्षय विरासत' के लगभग आधे लेख 2011 में प्रकाशित
लेखक की पुस्‍तक 'छत्‍तीसगढ़ और उसकी अनन्‍यता'
में भी शामिल हैं.
यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 21 अक्‍टूबर 2012 के अंक में प्रकाशित।