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Saturday, October 30, 2021

कोटगढ़

मध्य मैदानी छत्तीसगढ़, यानि मुख्यतः वर्तमान रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग संभाग के छत्तीस गढ़, राजस्व प्रशासन की वह इकाइयां है, जो कभी रतनपुर मुख्यालय से संचालित, खालसा कहलाती थीं। इन गढ़ों की संरचनाओं में से कुछ मूलतः मराठों के पूर्वकालिक कलचुरियों द्वारा स्थापित किये गये होंगे, जैसा कि पुरातात्विक प्रमाणों से अनुमान होता है। इनके संबंध में सिलसिलेवार इतिहास, इससे संबंधित प्रशासनिक व्यवस्था और गढ़-किलों में जीवन शैली, संरचना पर निश्चित ढंग से कुछ कह पाना आसान नहीं। इस स्थिति में ऐसे केंद्रों- किलों के संबंध में ग्रामवासियों की जिज्ञासा, विभिन्न दंतकथाएं गढ़ लिया करती हैं। कुछ तथ्य पीढ़ियों से चले आकर कथानक का रूप ले लेते हैं और इतिहास की सीमित सूचना एवं प्राप्तियां, इन स्थलों के संबंध में किस्सों की मदद से कुछ कह सकने का आधार बनती है।

कोटगढ़, जांजगीर-चांपा जिले के अकलतरा-बलौदा मार्ग पर स्थित है। कोटगढ़ वस्तुतः कोट और गढ़ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें कोट- आबादी वाला हिस्सा और गढ़- किले का भाग है। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में ‘गढ़’ प्रशासनिक सेना प्रमुख व सैनिक कर्मचारियों का स्थान था जबकि किले से संबंधित सामान्य जन किले के उत्तर पूर्व में वर्तमान कोट, बरगवां एवं महमदपुर गांव के हिस्से में निवास करते थे। संलग्न गांव खटोला है, जिसे गढ़ के चारों ओर की ‘खाई का टोला‘ माना जा सकता है।

माना जाता है कि कलचुरीकालीन शिवनाथ के उत्तर में स्थित अठ्ठारह प्रमुख प्रशासनिक केन्द्रों में कोटगढ़ भी एक था। गढ़ के अधिकारी दीवान कहलाते थे और कोटगढ़ के अंतर्गत चौरासी गांव, बारह-बारह गांव के सात बरहों में विभाजित थे। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मराठा काल में अकलतरा, प्रशासनिक इकाई बना, जिसके अंतर्गत तिरसठ गांव थे। संभवतः यह कालांतर में कोटगढ़ का मुख्यालय बन गया था। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में अंग्रेज शासकों ने खरौद, अकलतरा, खोखरा, नवांगढ़, जांजगीर, किकिरदा, परगनों के चार सौ उन्चास गांवों को मिलाकर एक परगना- खरौद बना दिया। कसडोल से नियंत्रित होने वाला खरौद परगना, शिवरीनारायण तहसील बना। बाद में यही जांजगीर अनुविभाग और अब जांजगीर-चांपा जिला है।

कोटगढ़ का किला इस क्षेत्र के अधिकतर किलों की भांति ही ‘धूलि दुर्ग’ की श्रेणी का है यानि मृत्तिका-दुर्ग, मिट्टी की चौड़े-ऊंचे प्राकार, रक्षा दीवार वाला। ऐसे अन्य गढ़ों की अपेक्षा यह अधिक सुरक्षित अवस्था में हैं जिससे इनकी संरचना समझने के लिये यह प्रतिनिधि संरचनाओं में से एक है। इसका लगभग पचास फीट ऊंचा मुख्य परकोटा, प्रायः सुरक्षित है। इस परकोटे के बाहर पचास फीट चौड़ी खाई- परिखा, चारों तरफ से रक्षा की एक महत्वपूर्ण पंक्ति के रूप में अब भी विद्यमान है यद्यपि कुछ स्थानों पर खाई पट गई है। इस खाई के बाहर दूसरा बाहरी परकोटे का अंश भी अभी विद्यमान है। इस प्रकार यदि क्रमशः बाहर से रक्षा पंक्तियों की गणना की जाय तो प्रथम परकोटा, खाई, मुख्य परकोटा और पुनः खाई तथा इसके बाद गढ़ के बीचों-बीच गढ़ीदार का स्थान। इन सुरक्षा पंक्तियों में तब सशस्त्र सैनिक, खाई में पानी के जन्तु और विभिन्न बाधक वनस्पति भी हुआ करती थी।

किले के अन्दर प्रवेश के लिये दो द्वार- पूर्व व पश्चिम दिशा में हैं। इसमें पूर्वी प्रवेश द्वार, प्रमुख मार्ग है जबकि पश्चिमी द्वार आज भी चोरनी दरवाजा के नाम से जाना जाता है। मुख्य प्रवेश द्वार स्पष्टतः मराठा काल की देन है। मेहराब वाला यह प्रवेश द्वार पत्थर व गारे की जुड़ाई से निर्मित है। जिसमें नक्काशी वाले पत्थर की संरचना भी है। प्रवेश द्वार के ऊपर हिस्से में बन्दूक की नली बाहर निकालने के लिये बनाये गये लम्बवत तिरछे छेद हैं। प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश करने पर लगभग सौ मीटर लम्बा संकरा दर्रा दिखाई पड़ता है और इसके पश्चात् किले के अंदर का विशाल खुला प्रांगण है। प्रांगण के लगभग बीचों बीच टीला है जिसके चारों तरफ भीतरी खाई की रेखाओं का स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है। कहा जाता है कि तब बाहरी खाई जलमोंगरा, जलकुंभी, मगर, पानी वाले सांप, जैसे प्रतिरोधी जन्तु वनस्पतियांे से पूर्ण हुआ करती थी। मुख्य द्वार मजबूत लकड़ी एवं लोहे की पट्टियों से बना विशाल पटरा था, जिसमें बाहर की ओर बड़े-बड़े लोहे के भाले निकले रहते थे। किले से संबंधित सेना या व्यक्तियों के प्रवेश हेतु यह पटरा दोनों किनारे पर लगी मोटी-मोटी जंजीरों को छोड़कर खाई के ऊपर गिरा दिया जाता था और बाद में पुनः उन्हीं जंजीरों को खींचकर मुख्य प्रवेश द्वार बंद कर दिया जाता था।

बाह्य आक्रमण की रोकथाम के लिये बाहरी परकोटा था, जिस पर सशस्त्र पहरेदार हुआ करते थे फिर प्रतिरोधी मुख्य खाई तथा उसके बाद मुख्य परकोटा था। मुख्य परकोटे से आक्रमणकारी के प्रयास को विफल करने के लिये परकोटे पर सैनिकों के अलावा पत्थर के टुकड़ों का ढेर और खौलता हुआ तेल तैयार रखा जाता था। यदि आक्रमणकारी मुख्य द्वार से प्रवेश करना चाहे तो खाई के बाद भाले युक्त पटरा बाधक बनता था और ऊपर से भी उन पर वार किया जा सकता था। यदि आक्रमणकारी प्रवेशद्वार से अन्दर प्रवेश कर भी जाय तो लम्बे और संकरे दर्रे में भी उसके लिए व्यवधान होता था। किले के भीतरी प्रांगण में सैनिकों का विशाल समूह होता था इसके पश्चात पुनः भीतरी खाई पार कर ही आक्रमणकारी गढ़ीदार तक पहुंच सकता था। सुरक्षा के दो अन्य साधनों के रूप में चोरनी दरवाजा और कथित सुरंग का उपयोग किया जाता था। बताया जाता है कि उस सुरंग का दूसरा मुहाना अकलतरा के महल (हाथी बंधान) में खुलता था।

पुराने विवरणों में बताया गया है कि परम्परा में यह किला जयसिंह का कहा जाता था। कलचुरि परिवार के सामंत-प्रशासक अकलदेव का नाम भी परंपरा में है, जिसके नाम पर अकलतरा, बसा माना जाता है। संभवतः जयसिंह-अकलदेव कलचुरिकालीन गढ़ीदार थे जबकि मराठाकालीन गढ़ीदारों में अंतिम भुवनेश्वर मिश्र बताए जाते हैं। कसडोल मिश्र परिवार के सदस्य पुनेश्वर जी से जानकारी मिली कि उनके पूर्वज निहाल मिश्र थे, उनकी पीढ़ी में क्रमशः पतिराम, गोविंद, देवनाथ (जिनकी हत्या का आरोप सोनाखान के नारायण सिंह पर था) के बाद भुवनेश्वर मिश्र तथा उनके पुत्र रूद्रदत्त थे। 1909-10 के रायपुर जिला गजेटियर में निहाल मिश्र का नाम आया है, जिनके वंशज शिवदत्त के पास 17 गांव व उनके चचेरे भाई हेमराम के पास 15 गांव, इस प्रकार कसडोल मिश्र परिवार के पास कुल 32 गांव होने की जानकारी दी गई है। भुवनेश्वर मिश्र की वीरता की कहानी और उनका नाम आज भी दंतकथाओं में जीवित है। इनके प्रशासन, सैन्य व्यवस्था और देवी शक्ति की कहानियां, लोग आज भी कहते है। कहा जाता है कि भुवनेश्वर मिश्र की पत्नी को देवी का वरदान प्राप्त था। दंतकथाओं प्रचलित है कि बिलईगढ़ और सोनाखान के जमींदारों से भुवनेश्वर मिश्र का द्वेष था। बरसात की एक रात को किले के ही किसी व्यक्ति का सहयोग लेकर बिलईगढ़ जमींदार किले में प्रविष्ट हो गये और किसी तरह नींद में डूबे मिश्र दंपति तक पहुंच गए। जमींदार ने ज्यों ही तलवार से मिश्र जी के गले पर प्रहार किया, तलवार स्पर्श के पूर्व ही रुक गई, कई प्रयासों के बावजूद भी जमींदार को सफलता नहीं मिली। इस आलौकिक घटना से हतप्रभ जमींदार उलटे पांव बिलईगढ़ लौट गए।

जीवन के अंतिम दिनों में भुवनेश्वर मिश्र की धर्मपत्नी, उनका साथ छोड़ चल बसीं। बताया जाता है कि इसके बाद मिश्र जी में मानसिक अस्वस्थता के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे। खेल प्रेमी भुवनेश्वर मिश्र डुडवा-बरौंछा (कबड्डी के रूप) का निमंत्रण भिजवाकर आये हुए लोगों को तलवार निकाल कर मार डालने की धमकी दिया करते थे और तुरंत ही भाईचारे का प्रदर्शन करने लगते। अंततः भुवनेश्वर मिश्र को फिरंगियों का सामना करना पड़ा। कहा जाता है कि मिश्र जी सुरंग या चोरनी दरवाजे के मार्ग से अपनी स्वामिभक्त घोड़ी ‘बिजली’ सहित अकलतरा महल यानि हाथीबंधान आ गए। फिरंगियों की इसकी खबर मिल गई और मिश्र जी यहां पुनः घेर लिए गए। गिरफ्तार हुए मिश्र जी ललकारते रहे कि उन्हें उनकी ‘बिजली’ मिल जाये फिर कोई हाथ लगाकर बताए, तुम बारहों फिरंगियों के सिर, धड़ से अलग दिखाई देगें। फिरंगियों ने मिश्र जी की एक न सुनी और फिर उनका क्या हश्र हुआ इसकी खबर किसी को नहीं लगी।

इस गढ़ व आसपास मराठाकालीन अवशेषों विद्यमान हैं और प्राचीनतम तिथि निर्धारण के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की कनिंघम रिपोर्ट के अनुसार इस किले की प्राचीनता यहां के एक शिलालेख की लिपि के आधार पर लगभग एक हजार साल निर्धारित की जा सकती है। विभिन्न आकार की सिलें, अन्न पीसने की पत्थर की चकरी, मनके, ईटें, बर्तनों के टुकड़े व मूर्तिशिल्प आदि को दृष्टिगत रखते हुए इस किले की प्राचीनता की संभावना दसवी सदी ईस्वी या इसके पूर्व की ही प्रतीत होती है। प्रारंभिक कलचुरी काल से अब तक लगातार इस परिसर के चतुर्दिक आबादी स्पष्ट प्रमाणित है।

कलचुरियों के छत्तीस गढ़ फिर मराठों के किले-प्रशासनिक केन्द्र, उनकी प्रणाली पर शोध व व्यवस्थित अध्ययन की आवश्यकता अब भी है। किन्तु यह काल गौरव- कोटगढ़, आज भी इतिहास का मूक साक्षी और प्रतिनिधि है।

किस्से सुनना राजसी शौक है, तो मेरे पिता स्वर्गीय सत्येन्द्र कुमार सिंह जी में यह राजसी लक्षण भरपूर था। इस लेख का आधार उनके पास जमा किस्सों और उसके आधार पर मौखिक इतिहास का स्वरूप देने के प्रयास में यह मसौदा तीसेक साल पहले तैयार किया गया, अब आंशिक संशोधन कर प्रस्तुत।

Wednesday, January 12, 2011

गिरोद

यही है इस कथा का शीर्षक और गांव का नाम- गिरोद। किसी छोर से शुरू हो सकने वाली और जहां चाहे रोकी जा सकने वाली कथा। देखिए किस तरह। दस साल पुराने छत्तीसगढ़ विधान सभा से पांच किलोमीटर के दायरे में। लोहा कारखाने के पास, पंद्रह साल से जिसकी भारी मशीनों का तानपूरा यहां जीवन-लय को आधार दे रहा है। कोई बारह सौ साल पुराने अवशेष युक्त गांव का अब यही पता है। वैसे गांव का स्थानीय उच्चारण है- गिरौद या गिरउद। आपका हार्दिक स्वागत है।
गांव के एक छोर पर तालाब के किनारे कोई डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जिसका निर्माण गांव प्रमुख दाऊ परिवार ने कराया। पत्थर की नक्काशी वाले स्तंभों और प्रवेश द्वार वाला स्थापत्य मराठा शैली का नमूना है।
खजुराहो में मिथुन मूर्तियों की बहुलता है और प्रसिद्धि यहां तक कि ऐसी कलाकृतियों को खजुराहो शैली नाम दे दिया जाता है, लेकिन ऐसे अंकन कमोबेश मंदिरों में दिख जाते हैं। माना जाता है कि इससे संरचना पर नजर नहीं लगती, बिजली नहीं गिरती, सचाई राम जाने। यह मंदिर भी इससे अछूता नहीं और इन पर नजर बरबस पड़ती है।
इस शिव मंदिर के पास ठाकुरदेव की पूजा-प्रतिष्‍ठा की परम्परा निर्वाह के लिए कमल वर्मा ने बइगाई का कोर्स किया है, गुरु सूरदास तिखुर वर्मा से प्रशिक्षण लिया, जिसके आरंभ के लिए हरेली अमावस्या और गुरु द्वारा सफल मान लिये जाने पर दीक्षांत के लिए नागपंचमी अथवा ऋषिपंचमी तिथि निर्धारित होती है।
समष्टि लोक के व्यवहार में विद्यमान और प्रचलित टोना-टोटका, रूढ़ि माना जा कर कभी प्रताड़ित भी होता है। दुर्घटनावश बनी परिस्थितियों के चलते अंधविश्वास कह कर तिरस्कार योग्य मान लिये जाने से अक्‍सर इसके पीछे अनवरत गतिमान व्यवस्था ओझल रह जाती है। इसके साथ चर्चा 'सवनाही छेना' की यानि अभिमंत्रित गोइंठा-कंडा, जो गांव बइगा सावन में शनिवार की रात पूजा कर, रविवार को घरों के दरवाजे पर लटका जाता है, ताकि अवांछित-अनिष्ट प्रवेश न कर सके।
घर के दरवाजे पर पहटनिन हर साल हांथा लिखती है। पहटनिन यानि पहटिया-गोसाइन और पहटिया यानि रात बीतते और पहट (प्रखेट? 'खेटितान' अर्थात्- वैतालिक, स्तुतिपाठक जो गृहस्वामी को गा बजा कर जगाता है) होते रोजमर्रा की पहली दस्तक देने वाला ठेठवार। पहट-मुंदियरहा, सुकुवा, कुकराबास, फजर, झुलझुलहा, पंगपंगाए बेरा, भिनसरहा, मुंह-चिन्‍हारी तब होता है परभाती, बिहनिया, रामे-राम के बेरा। हांथा के साथ कहीं शुभ-लाभ लिखा है और इन दिनों जनगणना का क्रमांक भी। हांथा के लिए अवसर होता है देवारी यानि बूढ़ी दीवाली, मातर अर्थात्‌ भैया दूज, जेठउनी एकादशी से कार्तिक पुन्नी तक। फिर इसी से मिलती-जुलती आकृतियां अगहन के बिरस्पत पूजा में चंउक बन कर आंगन में उतर आती हैं।

गांव का मुख्‍य हिस्सा है, दाऊ का निवास, गुड़ी और चंडी माता का चबूतरा। नवरात्रि पर जोत जलाने की परम्परा है और जिस तरह गिनती की शुरुआत एक के बजाय 'राम' बोल कर की जाती है, उसी तरह पहली ज्योति मां चंडी के नाम पर बिठाई जाती है।
चंडी दाई में ग्राम देवता की परम्परा और पुरातत्व घुल-मिल गए हैं यानि चंडी के रूप में पूजित सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी की महिषमर्दिनी के साथ इतनी ही पुरानी प्रतिमाएं और स्थापत्य खंड भी हैं। चबूतरे पर पूजा के लिए तो दिन-मुहूरत होता है, लेकिन यह गुलजार रहता है, चिड़ी के गुलामों, पान की मेमों, ईंट के बादशाहों, हुकुम के इक्कों के साथ पूरी वाबन परियों से मानों देवालय के महामंडप में देवदासियों का नर्तन हो रहा हो और चौपड़ की बाजियों में असार संसार के मोहरे, तल्लीन साधक और उनके साथ सत्संगी से दर्शक भी जमा हैं। गांव के प्रवेश द्वार पर लीला मंच है और एक कमरे में बाना-सवांगा, वस्त्राभूषण सहित भजन-कीर्तन का बाजा-पेटी सरंजाम भी।
बुजुर्ग याद करते हैं, रेल लाइन के किनारे का डीह, यानि जहां कभी गांव आबाद था और बाद में वहीं संतरा, आम, केला, नीबू, अमरूद का मेंहदी की बाड़ वाला फलता-फूलता बगीचा था। लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ सालों में धीरे-धीरे यहां, दो किलोमीटर दूर खिसक आया, आकर्षण बना वही शिव मंदिर और शायद कारण था सड़क और रेल से बदला कन्टूर, खेत और पानी। पुराना पचरी तालाब, जिसके बीच में चौकोर सीढ़ीदार कुंड बताया जाता है।
सन 1900 में पूरे छत्तीसगढ़ में महाअकाल का जिक्र होता है। इस साल मार्च माह में रायपुर जिले को 56 कार्य प्रभार क्षेत्र (चार्ज) में विभाजित कर राहत कार्य से लगभग 2 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराए जाने की बात पढ़ने को मिली थी, जिसमें एक हजार से भी अधिक पुराने तालाबों को दुरुस्त कराया गया था। यह अप्रत्याशित अभिलिखित मिल गया यहां, चार्ज नं.8 के काम का प्रमाण। लोग याद करते हैं- 'बड़े दुकाल पहर के, बिक्टोरिया रानी के सुधरवाए तलाव'

बात करते-करते पता लग रहा है गांव का पूरा इतिहास, व्यवस्थित और कालक्रमानुसार। काल निर्धारण के लिए शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं- छमासी रात, पण्डवन काल, सतजुगी, बिसकर्मा के, रतनपुर राज, भोंसला, अंगरेज ...। इसे ईसा की सदियों में बिठाने के लिए पुरातत्व-प्रशिक्षित, मेरे ज्यादा जोर दे कर सवाल पूछने पर, बाकी सब लाजवाब हैं शायद मैं उनकी यह भाषा नहीं समझ पा रहा हूं और वे मेरी। लेकिन अब तक मौन रहा सियनहा बूझ रहा है और सबको समझ में आ जाने वाली बात धीरे से कहता है 'तइहा के गोठ ल बइहा ले गे'।

पुराना तालाब, फिर बना मंदिर, जिसके बाद दाऊ का घर बना, मराठा असर वाली बुलंद इमारत। लगता है इस मकान में न जाने क्या-क्या होगा। अजनबी से आप, गांव में अकारण तो आए नहीं हैं, यह तो गंवई-देहातियों का काम है, शहरी कामकाजियों का नहीं। लेकिन गांव में कुछ लेने-देने नहीं आए हैं, यह भरोसा बनते ही, आत्मीयता का सोता अनायास फूट पड़ता है।
घर का दरवाजा खुला है, बेरोक-टोक, स्वयं निर्धारित मर्यादा पालन की देहाती शिष्टता निभाते, बैठक में पहुंचने पर तस्वीरें टंगी दिखती हैं। पहली फोटो दाऊ गणेश प्रसाद वर्मा की, चेहरा बदल जाए तो सब कुछ, हम-आप सब की पिछली पीढ़ी जैसा। दूसरी तस्वीर है, उनके पिता दानवीर दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा की।
पचरी तालाब के शिलालेख के बाद दूसरा अप्रत्याशित हासिल यह तस्वीर है। रायपुर 'कुरमी बोर्डिंग' के साथ जुड़ा 'भोला' कौन है, जिज्ञासा रहती थी। पता लगा, दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा यानि वह दानवीर, जिसने कोई 80 साल पहले, छुईखदान बाड़ा कहलाने वाले क्षेत्र का 28 हजार वर्गफुट हिस्सा खरीद कर दान किया था, यह भवन छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जुड़े मुद्‌दों सहित राज्य आंदोलन-बैठकों के प्रमुख केन्द्रों में एक रहा है।
राज्य केन्द्र, राजधानी रायपुर से यहां आने पर लग रहा है कि यह गांव शाखा और पत्ते नहीं, बल्कि जड़ें ही यहां हैं। सो, जमीन पा लेना आश्वस्त कर रहा है और याद भी दिला रहा है, ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं ...

गुफ्तगूं :

अब कभी-कभी स्वयं से ही ईर्ष्‍या होती है कि ज्यादातर पिछला समय गांव-कस्बों में बीता। हजारों गांवों में गया, ज्यादातर में मात्र एक बार। अकारण ही आ गया था यहां, फिर भी 'वहां गए क्यों थे' के जवाब का दबाव हो तो कहूंगा 'किस्सा' के लिए। दादी-नानी तो रही नहीं, जो किस्से सुनाएं और हम रह गए बच्चे, अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता है। इस जन्मना-कर्मणा का हासिल कि हर गांव कथा होता है, जिसे कुछ हद तक पढ़ना सीखा है मैंने। जी हां, कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है और पाठक के साथ पात्र बनने को आमंत्रित करता है तो गांव-कथा में गाथा-बीज भी अंकुराने लगता है। ये भी कोई कथा है ..... आप न माने, मुझे तो कथा, गाथा बनते दिख रही है। ..... कुछ साथी भी है, वापसी की जल्दी है। इसलिए चल खुसरो घर ...

गिरोद से छत्तीसगढ़ के महान संत बाबा गुरु घासीदास जी याद आ रहे हैं, इसी नाम के एक अन्य ग्राम में उनकी पुण्‍य स्‍मृति है और जहां इन दिनों कुतुब मीनार से ऊंचा स्मारक 'जैतखाम' बन रहा है। पिछली सदी के एक और संत स्वामी आत्मानंद जी के नाम पर गांव में मनवा कुर्मी क्षत्रीय समाज रायपुर द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम विद्यापीठ है। और भी कुछ-कुछ, बहुत कुछ ... । इस गाथा को शब्द बनने के पहले यहीं रोक ले रहा हूं, मध्यमा-पश्यन्ती स्तुति बना कर, अकेले पुण्य लाभ के लिए मन में दुहराते, अपनी खुदाई जो है।