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Wednesday, October 26, 2022

पुनः खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से दूसरा, ‘पुनः खरौद‘ प्रस्तुत-

घुमक्कड़राम की डायरी

मंदिरों के कस्बे - खरौद में

बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग पर शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर पहले बाईं ओर सड़क व्यपवर्तन है। यह पक्की सड़क ढाई किलोमीटर दूर तक चली जाती है। इस सड़क पर चलते हुए, खरौद कस्बे को पार करते हुए खरौद के एक छोर, मिसिर तालाब तक पहुंचा जा सकता है, यहीं तालाब के किनारे सड़क के बाईं ओर पत्थर की ऊंची चहारदीवारी दिखलाई पड़ती है इसके अंदर है प्रसिद्ध लक्ष्मणेश्वर मंदिर, जो इस क्षेत्र के पांच प्राचीन और प्रसिद्ध शिवलिंग मंदिरों में से एक है; अन्य है- फिंगेश्वर के फिंगेश्वर, राजिम के कुलेश्वर, सिरपुर के गंधेश्वर और रतनपुर के बूढ़ा महादेव (बेगलर रिपोर्ट 1873-74)।

यह स्थान और इसका निकटवर्ती क्षेत्र दंतकथाओं में रामकथा के पात्रों और स्थानों नामों से संबंधित किया जाता है खरौद के साथ एक रोचक दंतकथा भी प्रचलित है, जिसमें इस स्थान का नाम रावण के भाइयों, खर और दूषण से व्युत्पन्न माना जाता है। प्राचीन स्मारक उसके अवशेष और तत्संबंधी जिज्ञासा विभिन्न दन्तकथाओं को जन्म देते हैं, एक दत्तकथा लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निर्माण के साथ भी जुड़ी है, जिसमें बताया जाता है कि लक्ष्मण के क्षयरोग की मनौती के फलस्वरूप, उन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि जिस प्रकार राम ने रामेश्वरम स्थापित किया, उसी तरह लक्ष्मण ने यहां लक्ष्मणेश्वर स्थापित किया था।

यह मंदिर लगभग 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है चबूतरे से इसकी प्राचीन का अनुमान होता है किन्तु मंदिर अपनी बाहिरी संरचना से सर्वथा नवीन जान पड़ता है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पूर्व की ओर सीढ़ियां हैं। चबूतरे पर पहुंच कर स्पष्ट अनुमान होता है मंदिर और उसकी चतुर्दिक रचनाएं पुनर्संरचित हैं और इन्हीं पुनर्संरचनाओं के आधार पर मंदिर के पंचायतन होने का भी अनुमान होता है। पंचायतन अर्थात ऐसा मंदिर, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों किनारों पर चार उप-मंदिर हों। मंदिर की दशा अब ऐसी है, जिससे प्राचीन या वास्तविक मंदिर के रूप का क्षीण अनुमान ही हो पाता है। उप-मंदिरों, जो संख्या तीन हैं, में विभिन्न मूर्तियां बाद में लाकर जड़ी गई हैं। इनमें एक जैन मूर्ति पटल, कुछ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा उपासक की एक रोचक मूर्ति है। उपासक की मूर्ति के नीचे पादपीठ पर मूर्तिलेख है, जिसमें व्यक्ति नाम ‘दामोदर‘ स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। बताया जाता है कि ये प्रतिमाएं किसी व्यक्ति को गढ़ के अंदर खुदाई करते हुई प्राप्त हुई थीं।

मंदिर के अंदर जाने पर मंडप की बाईं दीवार पर सूचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण अभिलेख है जिस पर 933 चेदि संवत (सन 1182) अंकित है, जिसमें कलचुरि नरेश रत्नदेव तृतीय और उसके प्रधानमंत्री गंगाधर का उल्लेख है। मंडप की दाहिनी दीवार पर भी अभिलिखित प्रस्तर खण्ड जड़े हैं, जिसकी लिखावट अस्पष्ट है। कहा जाता है कि गोरा साहबों को मंदिर के खजाने का पता न मालूम हो जाए इस उद्देश्य से छेनी का प्रहार कर उसे अस्पष्ट कर दिया गया, किन्तु उसमें पाण्डुवंशी दो राजाओं इन्द्रबल और ईशानदेव का नाम पढ़ लिया गया है, जो लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी के नृपति माने जाते हैं।

मंदिर में गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर दोनों पार्श्वों में दो मूर्तियां हैं, जो अपने वाहनों मकर व कच्छप से गंगा और यमुना के रूप में पहचानी जा सकती है। मंदिर का गर्भगृह अष्टकोणीय है, जिसमें अष्टकोणीय लिंग स्थापित है, किन्तु इसका रूप छिद्रयुक्त है, जिससे पानी भरा रहता है। इसे लिंग के रूप में पहचाना जा सकना कठिन है। कहा जाता है कियह लिंग लक्षरंध्रयुक्त है, लगभग 75 सेंटीमीटर व्यास वाले इस लिंग व छिद्रों को अनन्त बताया जाता है। ये छिद्र प्राकृतिक परिवर्तन के फल जान पड़ते हैं।

मंदिर अब तक पूजित है, महाशिवरात्रि को आराधक ‘लाख चाऊर‘ अर्थात एक लाख चावल के अक्षत दाने चढ़ाते हैं। महाशिवरात्रि के दिन ही सुहागन स्त्रियां परिक्रमा करते हुए अपने सुहाग की परीक्षा भी करती हैं। इसके लिए वे, गर्भगृह की पश्चिमी दीवार के देवकोष्ट-आले में कंकड़ फेंकती है, जिसकी कंकड़ आले में रुक जाता है, वह स्त्री अखंड सुहागवती मानी जाती है। मंदिर में गणेश, उमामहेश्वर, गरुड़ तथा राजा रानी की मूर्तियां भी हैं, जो 11-12 शताब्दी की प्रतीत होती हैं। मंदिर का निर्माण काल पुरातत्व विभाग की सूचना के अनुसार 8 वीं शताब्दी है।

इस विस्तृत कस्बे के अन्य छोर पर भैरवाइन डबरी है, जिसके किनारे एक मंदिर है, यह मंदिर, एक मूर्ति को सुरक्षित करने हेतु ग्रामवासियों द्वारा कुछ वर्षों पूर्व ही बनवाया गया है। मूर्ति ग्रामवासियों द्वारा भैरव बाबा के रूप में पूजित है। खड़ी हुई- स्थानक यह प्रतिमा, दिगम्बर है, और अजानबाहु है, मूर्ति के ऊपर छत्र है, जिसमें दो हाथी अभिषेक करते दिखाए गए हैं। सिर के पीछे पद्मपत्र-सदृश प्रभामण्डल है, मानवाकार यह प्रतिमा संभवतः किसी जैन मुनि या तीर्थंकर की है।

इसके बाद मैं इन्दल देव मंदिर की ओर प्रस्थान करता हूं, संभव है यह नाम इन्द्रबलदेव से व्युत्पन्न हो। यह मंदिर भी कस्बेके एक छोर पर स्थित है और पश्चिमाभिमुख है, ईटों के इस मंदिर की रचना अत्यंत आकर्षक दिखाई देती है, यह मंदिर भी एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है। इसके प्रवेश द्वार का अलंकरण नयनाभिराम है। पार्श्वों पर लगभग पूरे द्वार के आकार की गंगा-यमुना को सुदर मूर्तियां हैं। प्रवेश द्वार के उपर नाग-कन्याएँ व नाग-पुरुष हैं। दो नागकन्याएं हाथ जोड़े, उपासना की मुद्रा में हैं, साथ ही ब्रह्मा, शिव-पार्वती और गरुड़ारूढ़ विष्णु हैं। गर्भगृह में कोई मूर्ति स्थापित नहीं है, किंतु संभवतः यह मंदिर शिव को समर्पित रहा होगा। गभगृह से शिखर की अंदरी बनावट, जो स्तूप कोणाकार है, स्पष्ट होती है। मंदिर की परिक्रमा करते हुए ईंटों पर बारीक उकेरन का काम दिखलाई पड़ता है। चैत्यगवाक्ष बनाए गए हैं, और कुछ आकृतियां ही स्पष्ट हो पाती हैं, जिसमें एक लम्बोदर गणेश की व कुछ अन्य गजारोही व अश्वारोही मानव आकृतियां हैं। 

कस्बे के लगभग प्रारंभ में ही सौंराई मंदिर है, मैं पुनः उसी ओर वापिस होता हूं। रास्ते में दाहिनी ओर एक गली में मेरी निगाह जाती है, और मैं ठिठक जाता हूं। पत्थर पर उकेरे सिंदूर लगे तीन सर्प-युग्म दिखाई पड़ते हैं। पास पहुंचने पर यह ज्ञात होता है कि यह महामाई मंदिर है। मंदिर का दरवाजा बंद है, फलस्वरूप में अंदर प्रविष्ट नहीं हो पाता, किन्तु बाहर ही मुझे कुछ रुचिकर पाषाण-खंड दिखाई दे जाते हैं। इनमें से एक, किसी स्तंभ का खंड है, जिस पर अत्यंत बारीक अलंकरण है, कुछ अन्य मूर्तियां हैं, जो मानव-वक्ष और आसन प्रतीत हो रही हैं। 

पुनः, सौंराई मंदिर की ओर अग्रसर होता हूं। यह भी ईंटों से निर्मित मंदिर है, और सौंराई देवी के रूप में पूजित है। मंदिर के सामने कुछ सुंदर किंतु खंडित मूर्तियाँ छोटे से खुले मंडप में रखी हुई हैं। मंदिर के अंदर प्रविष्ट होने पर स्तंभयुक्त मंडप दिखलाई पड़ता है। संभवतः इन स्तंभों की संख्या सोलह रही होगी। इनमें से मात्र तीन स्तंभ ही प्राचीन जान पड़ते हैं। स्तंभों पर नारी मूर्तियाँ तथा धनुर्धारी, जो द्वारपाल जान पड़ते हैं, लगी हैं। एक मूर्ति के पादपीठ के नीचे कुबेर व कौबेरी स्पष्ट पहचान में आ रहे हैं। प्रवेश द्वार के उपर आकर्षक अंकन है जिसमें गरूड़ को दोनों हाथों से सर्प पकड़े दिखाया गया है। गरुड़ के पंख स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, और अनुमान होता है कि मंदिर विष्णु या विष्णु परिवार के किसी देवता का रहा होगा। गर्भगृह की मूर्ति को आवरण पहना दिया गया है, जिससे अब उसकी पहचान कर पाना कठिन है। मंदिर के बाहर एक आकर्षक मूर्ति अर्धनारीश्वर की है। मंदिर की बाहिरी दीवार पर इन्दलदेव की भांति ही उकेरन रहा होगा पर वर्तमान में अलंकारण की बारीकियां स्पष्ट नहीं हैं। 

कई टीले हैं और कुछ घरों में मूर्तियां हैं, जो चबूतरे में स्थापित कर ली गई हैं, पुरातत्व की दृष्टि से यह कस्बा सम्पन्न तो है ही किन्तु यदि इन टीलों की खुदाई हो और कस्बे में बिखरी विभिन्न मूर्तियों का विधिवत अध्ययन हो तो संभव है। इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास पर और भी प्रकाश पड़ेगा। 

इस कस्बे के अपने सहयोगी शेखर जी से मैं विदा लेता हूं और अपने सहयात्री रवीन्द्र जी के साथ खरौद की स्मृति लिए वापस लौट आता हूं।

Tuesday, October 25, 2022

खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से पहला, ‘खरौद‘ प्रस्तुत-

सदियों से मानव के जीवन यापन का क्षेत्र, और वह भी यदि ऐतिहासिक कला-साधना की तपोभूमि भी रहा हो, अवश्य ही सहज आकर्षण का केन्द्र होगा। वर्तमान खरौद ऐसी ही पवित्र भूमि पर बसा है और इसका आकर्षण भौगोलिक स्थिति के कारण और भी प्रबल हो जाता है। अन्य लोगों सहित मेरी भी यह धारणा है कि नदी तट का क्षेत्र व निवासी, विशेषकर यदि वह संगम क्षेत्र का हो, मनो-भौगोलिक कारणों से स्वाभाविक ही उसका विकास उदारचेता व्यक्ति के रूप में होता है। विशालता, उदात्तता और विस्तृत सोच का समावेश उसके व्यक्तित्व में सरलता से दिखाई देता है और ऐसे व्यक्तियों का कृतित्व अपनी कला-संस्कृति को अभिव्यक्त व विकसित कर, सुदीर्घं अवधि तक युग चेतना को आह्लाद और दिशा-निर्देश प्रदान करता है। इस क्षेत्र का विशिष्ट पुरातात्विक स्थल खरौद भी ऐसा ही स्थान है। 

यों तो खरौद में इतिहास की झांकी अत्यंत प्राचीन काल से मिलने लगती है। यहाँ के ध्वस्त-उजड़े गढ़ के धरातल की ही प्राप्तियों के आधार पर उस भूमि पर सभ्यता का इतिहास २६०० साल से भी अधिक पुराना माना जाता है, किन्तु व्यवस्थित उत्खनन अथवा विशिष्ट प्राप्तियों जैसे- सिक्के, ठीकरे आदि के लगभग अभाव के कारण, इसकी तिथि-सीमा निश्चित किया जाना संभव न हो सका है। परन्तु साथ ही यह भी संभावना है कि संबंधित संस्थाओं, व्यक्तियों एवं ग्रामवासियों की जागरुकता व प्रयास से निश्चय ही ऐसे प्रमाण प्रकाश में आ सकते हैं, जिससे खरौद तथा साथ ही साथ इस क्षेत्र के ऐतिहासिकता की स्पष्ट रूपरेखा निर्धारित की जा सके।

पुरातत्व की दृष्टि से खरौद के गढ़ का विशेष महत्व है। यह इस क्षेत्र के लगभग सौ गढ़ों में से एक है, जिनकी स्पष्ट विवेचना अब तक नहीं हो सकी है तथा छत्तीसगढ़ के पुरातल में जिनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण समझी जाती है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निकट का विशाल भू-भाग खाई से घिरा हुआ है यद्यपि वर्तमान में यह खाई स्थान-स्थान पर टूट गई है, किन्तु खाई (परिखा) की वृत्ताकार रेखा का अनुमान अब भी स्पष्टतः होता है। गढ़ क्षेत्र में पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण, उन्नत व विस्तृत टीले हैं तथा पूरे गढ़ क्षेत्र के धरातल पर टूटे-फूटे मिट्टी के बर्तन, धातु मल व कहीं-कहीं किसी संरचना के अस्पष्ट चिन्ह देखे जा सकते हैं। लगभग इसी क्षेत्र से सागर विश्वविद्यालय के सर्वेक्षण दल को मिट्टी के बर्तन का विशिष्ट टुकड़ा प्राप्त हुआ था, जिसके आधार पर डा. श्यामकुमार पान्डेय ने इस क्षेत्र की प्राचीनता chalcolithic होने की संभावना व्यक्त की है, किन्तु ऐसे अन्य प्रभावों की अभी भी प्रतीक्षा है, जिनसे यह संभावना, निश्चय में परिवर्तित हो सके।

‘खरौद‘ शब्द की व्युत्पत्ति एवं गढ़ के अस्तित्व में घनिष्ट संबद्धता मानी जा सकती है। इस शब्द का विग्रह ‘खर+उद्‘ किया जा सकता है, यहां ‘उद‘ शब्द का विशेष महत्व है। इस क्षेत्र के विभिन्न सर्वेक्षणों तथा बन्दोबस्त-जनगणना रपटों आदि में उदश् अन्त वाले ग्राम नामों को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है, जहाँ ‘उद‘ का तात्पर्य ‘जल‘ से है। खरौद निवासी पं. नन्हेंप्रसाद द्विवेदी ने भी लगभग यही व्युत्पत्ति सुझाई है। इस संदर्भ में इस विशेष संयोग की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है कि ‘उद्‘ अन्त नाम वाले ग्रामों से अधिकांशतः मिट्टी के गढ़ों (धूलि दुर्ग) की सूचना प्राप्त होती है। सागर विश्वविद्यालय ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर पूर्व में इन गढ़ों को ‘आटविक‘ प्रकार के दुर्ग ठहराया था, किन्तु अब डा. पान्डेय ने स्वयं अपने मत में परिवर्तन करते हुए उन गढ़ों का ‘औद्यक दुर्ग‘ होना स्वीकार किया है। डा. पान्डेय अपने हाल के सर्वेक्षणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन गढ़ों की प्राचीनता २६००-२७०० साल की है, अपने मत की प्रामाणिकता हेतु उन्होंने भी गढ़ क्षेत्रों का उत्खनन आवश्यक माना है।

‘खरौद‘ की उपर्युक्त व्युत्पत्ति यदि मान्य होती है और ‘उदान्त‘ नाम वाले ग्रामों की संबद्धता ‘औद्यक दुर्गों‘ से स्वीकार कर ली जाती है, तो प्रचलित ‘खर$दूषण‘ से व्युत्पत्ति का मत स्वतः अमान्य करना होगा। वैसे भी धर्म-पुराणों पर आधारित दन्तकथाओं की तुलना में प्रत्यक्ष पुरातात्विक प्रमाण की मान्यता ही अधिक श्रेयस्कर है, किन्तु पुरातात्विक विवेचना में भी गढ़ों का शास्त्र सम्मत पूर्ण परीक्षण आवश्यक है।

खरौद गढ़ का व्यवस्थित इतिहास प्रकाश में नहीं आया है अतः यहां के मंदिरों के निर्माता शासकों व गढ़ प्रशासन की सम्बद्धता पर निश्चित टिप्पणी संभव नहीं है, किन्तु बाद के काल (लगभग अठारहवीं सदी ई.) में खरौद गढ़ के महत्व की सूचना प्राप्त होती है, जो अंग्रेजी शासन के आरंभ तक रही, जब खरौद छत्तीसगढ़ (तब छत्तीसगढ़ का मुख्यालय क्रमशः रतनपुर व बिलासपुर तथा रायपुर रहा, बाद में दो भिन्न जिला मुख्यालय बिलासपुर व रायपुर बने) का प्रमुख परगना था। तत्कालीन खरौद व अन्य प्रशासनिक ईकाइयों पर डा. प्रभुलाल मिश्र ने सविस्तार विवेचना की है। अंग्रेजी शासन के दौरान ही खरौद की प्रशासनिक इकाई के स्थान पर शिवरीनारायण तहसील मुख्यालय बनाया गया, जो सन् 1885 की बाढ़ के पश्चात् जांजगीर स्थानान्तरित हो गया।

इस प्रकार दो निकटस्थ प्राचीन धार्मिक स्थलों खरौद व शिवरीनारायण की महत्ता में महानदी की भूमिका अनुमानतः निर्णायक रही। महानदी को बहाव, प्राचीन काल में वर्तमान की अपेक्षा संभवतः बायीं ओर हटकर था अथवा बाढ़ के बहुधा प्रकोप से नदी के निकटतम स्थल शिवरीनारायण के स्थान पर खरौद धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित हुआ और संभवतः भौगोलिक परिवर्तनों से अनुकूल स्थिति बनने पर नदी के निकटतम स्थल, शिवरीनारायण का विकास हुआ। यही कारण हो सकता है, जिसके फलस्वरूप खरौद में सातवीं-आठवीं सदी ई. के पुरावशेष बहुलता से प्राप्त होते हैं जबकि शिवरीनारायण की ज्ञात लगभग समस्त सामग्रियों की प्राचीनता दसवीं सदी ई. से अधिक नहीं। इसी संदर्भ में यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खरौद-शिवरीनारायण, जगन्नाथ पुरी, प्राचीन तीर्थयात्रा मार्ग का महत्वपूर्ण पड़ाव था।

संगम क्षेत्र और उसकी धार्मिक महत्ता के विकास में इस स्थल का इतिहास सोमवंशी काल (लगभग सातवीं सदी ई.) से आरंभ हुआ माना जा सकता है। सोमवंशी शासकों द्वारा इस स्थान पर अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया, जिनमें से मात्र लक्ष्मणेश्वर, इन्दल देउल व शबरी ही विद्यमान हैं। खरौद के शेष स्मारक जो स्थानीय पिछली पीढ़ी की स्मृतियों में है अथवा बेग्लर की रिपोर्ट (सन् 1873-74) में उल्लिखित हैं, वर्तमान में नष्टप्राय हैं। इनमें से एक, कथित सूर्य मंदिर का उल्लेख अवश्य किया जा सकता है। इन मंदिरों को दृष्टिगत करते हुए, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि खरौद तत्कालीन, अत्यंत विशिष्ट धार्मिक स्थल तो था ही, जो कोसली (तारकानुकृति) मंदिर स्थापत्य शैली के ईंटों के मंदिर-केन्द्र के रूप में आज भी देश का अद्वितीय केन्द्र है।

खरौद के तीन प्रमुख मंदिरों का काल अब तक सुनिश्चित नहीं हो सका है। इनमें से लक्ष्मणेश्वर मंदिर आठवीं सदी ई. का माना गया है। अन्य दो मंदिरों का काल सातवीं सदी ई. माना जाता है, किन्तु इनमें कौन सा अधिक प्राचीन है, यह निर्विवाद नहीं है। एक अमरीकी शोधकर्ता डोनाल्ड एम. स्टेडनर ने इन्दल देउल का काल ई. सन 650-660 तथा शबरी मंदिर का काल ई. सन् 700-710 निर्धारित किया है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के मंडप में जड़े एक सोमवंशी अभिलेख से यह सूचना प्राप्त होती है कि ईशानदेव ने लक्ष्मणदेव के मंदिर का निर्माण कराया और महामहोपाध्याय वासुदेव विष्णु मिराशी ने इस मंदिर को वर्तमान लक्ष्मणेश्वर मंदिर मानते हुए ईशानदेव की तिथि ई. सन् 540 निर्धारित की है। इस प्रकार इस मंदिर का निर्माण काल छठीं सदी ई. में पड़ता है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के उक्त शिलालेख में एक अन्य शासक इन्द्रबल का नाम प्राप्त हुआ है इस व्यक्ति नाम से इन्दल देडल की नाम-व्युत्पत्ति की समीक्षा भी रोचक आधार बन सकती है।

इन मंदिरों के काल निर्धारण संबंधी मतों की सूक्ष्म विवेचना भविष्य के शोध का विषय हो सकता है किन्तु यहां इतना कहना कि इन मंदिरों का निर्माण क्रम शबरी, इन्दल देऊल, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है।

क्रमानुसार विवरण में प्रथमतः शबरी मंदिर, जिसके संबंध में मान्यता स्वरूप शबरी और राम के जूठे बेर का प्रसंग, प्रचलित है अतः यह आदिवासी देवता से संबंधित माना जाता है किन्तु मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा की पहचान अत्यधिक, वस्त्र अलंकरण के कारण निश्चित नहीं हो पाती किंतु यह अनुमानतः महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा का खंड है और प्रतिमा का शीर्ष भाग ही संभवतः मंदिर के बाहर एक छोटे से छतयुक्त चबूतरे पर स्थापित है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत आकर्षण है। नाग- युग्म अलंकरण से रचे अभिकल्प का संतुलन देखते ही बनता है। प्रवेश द्वार के बीचों बीच ललाट-बिंब पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है। ललाट-बिंब पर गरुड़ की उपस्थिति से मंदिर वास्तु के शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार संभव है कि मंदिर मूलतः वैष्णव रहा हो। प्रवेश द्वार पर ही उपर दोनों पार्श्वों में दो नारी आकृतियां हैं, एवं द्वार पार्श्वों पर ही मूल में भी दो नारी आकृतियां है। इन आकृतियों की पहचान आसानी से नदी-देवियों, गंगा एवं यमुना के रूप में की जा सकती है। इसके पश्चात मंडप की संरचना की चर्चा में पहले पर स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मंदिर का यह भाग पुनर्संरचित है।

मंडप में अर्द्धस्तंभों पर विभिन्न प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं, जिनमें से दो प्रतिमाएं शिव गण अथवा शैव द्वारपाल के रूप में पहचानी जा सकती हैं। एक प्रतिमा सिंहवाहिनी दुर्गा की है। एक अन्य नारी प्रतिमा पादपीठ पर मकर अंकित होने के कारण गंगा के रूप में पहचानी जा सकती है। शेष तीन प्रतिमाएं, जिनमें दो पुरुष व एक नारी प्रतिमा है, की पहचान राम, लक्ष्मण व सीता के रूप में की गई है। कथित राम-लक्ष्मण की प्रतिमाओं को सूक्ष्मता से देखने पर प्रतिमाओं के वक्ष पर कवच व पैर उपानहयुक्त (जूतों से ढके) दिखाई पड़ते हैं, जिनसे संभावना प्रकट की जा सकती है कि ये प्रतिमाएं सूर्य के अनुचर या पार्श्व देवता हो सकते हैं। यदि इन प्रतिमाओं को सूर्य परिवार से संबंधित माना जाता है तो खरौद में सूर्य मंदिर की उपस्थिति तथा शबरी मंदिर का लोक प्रचलित नाम ‘सौंराई‘ जो ‘सौर‘ शब्द का अपभ्रंश हो सकता है, आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इससे खरौद सौर सम्प्रदाय के एक विशिष्ट स्थल के रूप में दर्ज किया जा सकता है।

मंदिर के बाहर रखी व्याघ्रचर्मधारी अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा संतुलित और आकर्षक है। मंदिर, भू-योजना में ताराकृति तथा ईंटों से निर्मित होने के कारण भारतीय स्थापत्य कला का विशिष्ट उदाहरण माना जाता है। संदर्भवश शिवरीनारायण की दो प्रतिमाओं की विवेचना भी आवश्यक है, जो वहां मुख्य मंदिर के अन्तराल में दोनों पार्श्वों में स्थापित हैं। ये दोनों आदमकद प्रतिमाएं, विष्णु के आयुध पुरुष अर्थात शंख एवं चक्र पुरुष हैं। शिरोभाग पर शंख व चक्र का अंकन अत्यंत रोचक है। ये प्रतिमाएं शबरी मंदिर के उक्त गण या द्वारपाल प्रतिमाओं के ही समरूप है।

इन्दल देउल मंदिर की योजना भी ताराकृति है और यह मंदिर भी ईंटों से निर्मित है, किन्तु मंदिर के चारों ओर आलों (चैत्य गवाक्ष अथवा कुडु) में विभिन्न प्रतिभाएं यथा- गणेश, नरसिंह आदि अब तक स्पष्ट पहचान में आती हैं। इन्दल देउल मंदिर का चबूतरा अथवा जगती, शबरी मंदिर की तुलना में भिन्न है। शबरी मंदिर को चबूतरे की ऊंचाई कम व विस्तार अधिक है जबकि इन्दल देउल का चबूतरा अधिक ऊंचा व कम विस्तृत है। इस मंदिर में विशेष महत्व की गंगा-यमुना की प्रतिमाओं का है, जो तत्कालीन भारतीय कला में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन प्रतिमाओं का प्रवेशद्वार की तुलना में आकार और अलंकरण सौंदर्य, दोनों ही विशिष्ट प्रकार का है। अतः भारतीय कला की प्रामाणिक पुस्तकों में इनकी चर्चा की गई है। भारतीय मंदिर वास्तु पर स्टेला क्रैमरिश ने स्तुत्य कार्य किया है, इनकी पुस्तक ‘द हिन्दू टेम्पल्स‘ में इन प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि खरौद के इन्दल देउल की गंगा यमुना प्रतिमाएं पूरे प्रवेश द्वार की ऊंचाई की हैं और उन्होंने इसे विशिष्ट माना है। भारतीय हिन्दू प्रतिमा शास्त्र पर प्रामाणिक कार्य टी.ए. गोपीनाथ राव का माना गया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में चित्र सहित इन प्रतिमाओं का विवरण दिया है। इस पुस्तक में अधिकांश दक्षिण भारत के ही प्रतिमा उदाहरणों का समावेश किया गया है। शेष भारत के ऐसे ही अद्वितीय उदाहरणों को सम्मिलित किया गया है। नदी देवियों की इन प्रतिमाओं के पार्श्व से भित्ति बाहर की ओर निकलती है जो वर्तमान में अंशतः शेष है किन्तु इससे अनुमान होता है कि मंदिर संरचना में मंडप आदि उपांग भी थे, जो अब नष्ट हो गये हैं।

लक्ष्मणेश्वर मंदिर का मंडप भी शबरी की भांति पुनर्संरचित है, जिसमें दो प्राचीन शिलालेख जड़े हैं। गर्भगृह का हिस्सा भी परवर्ती काल में अंशतः परिवर्तित है। इसी तरह अनुमान होता है कि यह मंदिर भी मूलतः ईंटों से निर्मित संरचना है जिसे बाद के काल में प्लास्टर से ढक दिया गया है। मंदिर के गर्भगृह में अष्टकोणीय शिवलिंग मूलतः विद्यमान है किन्तु ‘लैटराइट‘ पत्थर का होने के कारण जलवायुगत प्रभाव के कारण रन्ध्रयुक्त हो गया है और इसके संग लक्षरंध्रयुक्त होने की मान्यता जन-विश्वास में प्रबल हो गई है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर अन्य दोनों मंदिरों की भांति किन्तु भिन्न प्रकार से नदी देवियों का अंकन है। यहां प्रवेशद्वार की ऊंचाई दो भागों में विभक्त है, जिसके निचले भाग पर द्वारपाल व उपरी भाग पर गंगा व यमुना को उनके वाहनों क्रमशः मकर व कच्छप पर स्थित दिखाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार के समक्ष मंडप दो स्तम्भ है। इनमें से एक स्तंभ पर रामकथा के दृश्य व सर्प अलंकरण युक्त है। जबकि दूसरे स्तंभ पर शैव धर्म से संबंधित उकेरन है। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्व है।

Sunday, March 27, 2022

बिलासपुर की प्राचीन नवपुरी

सात जिलों वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के पुरातात्विक स्थलों पर सन 1985 से 1997 तक, विभिन्न प्रयोजन हेतु जानकारियां तैयार की जाती रहीं। इस दौरान बिलासपुर के पुरातत्व कार्यालय में पदस्थ रहते हुए मुझे यह अवसर बार-बार मिला। इन्हीं में से एक यह तत्कालीन बिलासपुर जिले के नौ प्रमुख पुरातात्विक स्थलों की संक्षिप्त जानकारी यहां प्रस्तुत है-

1. अड़भार- बिलासपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर, सक्ती अनुविभाग में स्थित है। संभवतः इसी ग्राम को प्राचीन अभिलेखों में अष्टद्वार कहा गया है। स्थल पर 7-8 वीं सदी ईस्वी के स्थापत्य अवशेष विद्यमान है, जो मूलतः शिव मंदिर रहा होगा। पश्चिमाभिमुख यह शिव मंदिर अष्टकोणीय तारानुकृति तल-विन्यास वाला है, जिसमें प्रवेश हेतु दो द्वार अब भी विद्यमान है। प्रवेश द्वार-शाखाओं पर नाग तथा संभवतः गरुड़ और सिरदल पर कार्तिकेय व उमा-महेश का अंकन है। मंदिर परिसर में अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी महिषमर्दिनी तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं हैं साथ ही नंदी तथा अष्टभुजी नटराज शिव की भी प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला-प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। स्थल से ऐतिहासिक महत्व को विभिन्न शिलालेख, ताम्रपत्र व कलात्मक प्रतिमाएं प्रकाश में आई है। प्राचीन मृत्तिका-दुर्ग अथवा धूलि-दुर्ग (mud fort) की रुपरेखा भी अवशिष्ट है। समीप ही दमउदहरा नाम से प्रसिद्ध तीर्थस्थल ऋषभतीर्थ 'गुंजी' है, जो महत्वपूर्ण धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक दृश्यावली सम्पन्न स्थल है।

2. खरौद-शिवरीनारायण- खरौद, बिलासपुर से लगभग 63 किलोमीटर दूर, जांजगीर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थान विगत सदियों से 'परगना' के रुप में प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय रहा है। यहां 7-8 वीं सदी ईस्वी के ईंट-निर्मित मंदिर विद्यमान है, जिनमें इन्दल देउल और शबरी मंदिर मुख्य है। दोनों मंदिर तारकानुकृति तल-विन्यास पर निर्मित है। इन्दल देउल के पाषाण निर्मित प्रवेश द्वार पर पूरे शाख के आकार की नदी देवियाँ गंगा, यमुना उल्लेखनीय है। शबरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग तथा गरुड़ का क्षेत्रीय परम्परागत अंकन है। शबरी मंदिर के मंडप की प्रतिमाएं तथा स्तंभ भी महत्वपूर्ण हैं एक अन्य प्राचीन मंदिर लक्ष्मणेश्वर है, जिसे विशेष धार्मिक मान्यता प्राप्त है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना और शैव-द्वारपाल है। मंदिर के स्तंभों पर रामकथा का अंकन है तथा मंडप की भित्तियों पर दो प्राचीन महत्वपूर्ण शिलालेख जड़े हैं। मंदिर परिसर में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं के साथ अभिलिखित राजपुरुष की प्रतिमा भी विद्यमान है। ग्राम में अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य अवशेष भी प्राप्त हुए है तथा अवशिष्ट धूलि-दुर्ग के लक्षण परिखा (खाई) के रुप में विद्यमान है।

संलग्न स्थल शिवरीनारायण, महानदी-शिवनाथ-जोंक संगम त्रिवेणी के निकट स्थित, छत्तीसगढ़ का प्रमुख वैष्णव केंद्र है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के नर-नारायण मंदिर, केशवनारायण मंदिर, चंद्रचूड़ मंदिर सहित पिछली सदी का राम-जानकी मंदिर है। प्राचीन शिलालेख और ताम्रपत्र भी प्राप्त हुए हैं। सन 1891 तक यह तहसील मुख्यालय रहा साथ ही जगन्नाथ पुरी से संबद्धता और माघ पूर्णिमा पर मेला भी उल्लेखनीय है।

3. जांजगीर- बिलासपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर, अनुविभाग मुख्यालय है। यह स्थल रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम द्वारा बसाया गया माना जाता है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। शिखर-विहीन विष्णु मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से पूर्ण विकसित एवं तत्कालीन कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। मानवाकार प्रतिमाओं युक्त विशाल जगती (चबूतरे) पर मंदिर निर्मित है। जगती पर देव प्रतिमाओं के साथ कृष्ण-कथा एवं राम-कथा के कुछ अत्यंत रोचक दृश्यों का महत्वपूर्ण अंकन है। पूर्वाभिमुख मंदिर की बाहरी दीवार पर विष्णु के अवतार, ब्रह्मा, सूर्य, शिव, देवियाँ, अष्ट दिक्पाल व विभिन्न मुद्राओं में योगियों के साथ अप्सरा तथा व्याल प्रतिमाएं है। प्रवेश द्वार पर त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, त्रैलोक्य भ्रमण विष्णु, नदी देवी, द्वारपाल तथा अर्द्ध स्तंभों पर कुबेर अंकित है। अन्य मंदिर, शिव मंदिर है, जिसका मूल स्वरूप नवीनीकरण से प्रभावित है, किन्तु प्रवेश द्वार यथावत है। यहां सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रुपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपाल प्रतिमाएं है। बाहरी दीवार पर अपेक्षाकृत कम संख्या में किन्तु शास्त्रीय व कलात्मक सूर्य, हरिहर-हिरण्यगर्भ, शिव-नटराज, गणेश, सरस्वती आदि प्रतिमाएं है।

4. ताला- बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर ग्राम अमेरीकांपा में स्थित स्थल है। शिवनाथ और मनियारी नदी के संगम के निकट 5-6 वीं सदी ईस्वी के दो प्राचीन मंदिर अवशेष है, जिन्हें देवरानी-जिठानी नाम से जाना जाता है। विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है किंतु विशाल आकार के शिलाखंडों से निर्मित गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। प्रवेश द्वार के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती द्यूत-क्रीड़ा, भगीरथ-अनुगामिनी गंगा आदि अंकन आकर्षक और सजीव है। द्वार-शाखा की जालिकावत् लता-वल्लरी और पत्र-पुष्पीय संयोजन का कीर्तिमुख अंकन विशेष उल्लेखनीय है। मंदिर परिसर में मयूररूढ़ कार्तिकेय, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुखगण, उपासक तथा विश्व प्रसिद्ध विशालकाय रुद्र-शिव प्रतिमा विशिष्ट है। दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। मंदिर का तल-विन्यास अत्यंत विशिष्ट प्रकार का है। यहां से कार्तिकेय, शिव-मस्तक, वरुण, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी और विष्णु फलक तथा मंदिर स्थापत्य-खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला प्रसंगों के साथ नंदी और शिवगण का अंकन भी उपलब्ध हुआ है। यहीं से शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का रजत सिक्का तथा कलचुरि शासकों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। स्थल पर स्थानीय-संग्रह में भी पुरावशेष एकत्र कर रखे गए हैं।

5. तुमान- बिलासपुर से लगभग 95 किलोमीटर दूर कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल इस क्षेत्र के कलचुरियों की आरंभिक राजधानी रही है। यहाँ पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर, लगभग 11 वीं सदी ईस्वी का स्थापत्य उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित मूल संरचना से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। प्रवेश द्वार में सिरदल पर शिव का अंकन है, किन्तु शाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेश द्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएं है। स्थानीय संग्रह में नंदी, नंदिकेश्वर, माता-शिशु, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएं है। मंदिर के चतुर्दिक प्राचीन टीले हैं तथा सतखण्डा क्षेत्र में भी पुरावशेषों के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। स्थल का प्राचीन नाम तुम्माण लगभग प्रत्येक कलचुरि अभिलेखों में प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के संग्रह और प्रदर्शन की व्यवस्था भी स्थल पर है।

6. पाली- बिलासपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर कलचुरि स्थापत्य शैली के महत्वपूर्ण स्मारक के रुप में विद्यमान है। मंदिर बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराये जाने की जानकारी प्रवेश द्वार में सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाहरी दीवार पर नटराज, अंधकासुर वध, गजासुरवध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय, सूर्य, नर्तकी, योगी, अष्ट दिक्पाल के साथ विविध प्रकार के व्याल तथा मिथुन प्रतिमाएं सज्जित है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना, शैव, द्वारपाल तथा द्वार-शाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला और उपासना के दृश्य हैं। मंदिर में बहुलिखित ‘मगरध्वज जोगी 700‘, भी अभिलिखित है।

7. मल्हार- बिलासपुर से लगभग 33 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल जिले और अंचल का प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ ईस्वी पूर्व 7-8 वीं सदी से मुगल काल तक निरंतर कालक्रम में स्थापत्य अवशेष, प्रतिमाएं, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मुहर, मृदभाण्ड, मनके, मृणमूर्तियाँ आदि विविध सामग्रियां बड़ी मात्रा में प्राप्त हुई है। देउर मंदिर विशाल संरचना है। पश्चिमाभिमुख मंदिर के द्वार पार्श्वों में शिवलीला, गजासुरवध, शिव-विवाह तथा उमा महेश्वर का अत्यंत मनोहारी और बारीकी से अंकन हुआ है। इस मंदिर का काल 7-8 वीं सदी ईस्वी माना गया है। 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर है। इनमें केदारेश्वर अथवा पातालेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग, अंशतः तथा मंडप व अर्द्ध मंडप मात्र तल विन्यास में ही दृष्टव्य है। डिडिनेश्वरी मंदिर में काले पत्थर की अत्यंत कलात्मक प्रसिद्ध प्रतिमा 'डिडिन दाई' के रुप में पूजित है। केदारेश्वर मंदिर के मंडप में भी तीन दिशाओं से प्रवेश की व्यवस्था है। शिखर विहीन गर्भगृह में काले पत्थर की लिंग-पीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वार शाखों के भीतरी पाश्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव-विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध आदि उत्कीर्ण है। अभिलिखित विष्णु प्रतिमा, मेकल पाण्डववंशी ताम्रपत्र, प्रसन्नमात्र का ताम्र सिक्का आदि पुरावशेष, विशेष उल्लेखनीय हैं। यहां भी धूलि दुर्ग का अस्तित्व है, जिसमें विभिन्न पुरावशेष विद्यमान होने की जानकारी मिलती है। पातालेश्वर मंदिर परिसर का स्थानीय संग्रह भी विशेष उल्लेखनीय है।

8. रतनपुर- जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल सुदीर्घ अवधि तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है। रतनपुर और निकटवर्ती ग्रामों, यथा जूना शहर में कलचुरि और मराठा शासकों से सम्बंधित अवशेष आज भी विद्यमान है। महामाया मंदिर की ख्याति सिद्ध क्षेत्र के रुप में है जिसके प्रवेश द्वार पर परवर्ती कलचुरि शासक वाहर साय का शिलालेख है। मंदिर परिसर में विविध देव प्रतिमाएं हैं। कण्ठी-देउल भी परवर्ती काल की संरचना है जिसमें शाल भंजिका, राजपुरुष, लिंगोद्भव कथानक आदि प्रतिमाएं लाकर जड़ी गई हैं। मराठाकालीन स्मारक रामटेकरी मंदिर, प्राचीन किला-अवशेष तथा जूना शहर में कथित सतखंडा महल, बावली आदि विद्यमान है। रतनपुर से अत्यंत महत्वपूर्ण कलचुरि शिलालेखों, प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है। यहां स्थानीय संग्रह भी दर्शनीय है।

9. चैतुरगढ़ (लाफा) - बिलासपुर से लगभग 82 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पहाड़ी पर बना किला क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में से एक माना जाता है। किले में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। मुख्य प्रवेश द्वार गणेश द्वार से है। अन्य प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा हेतु दोहरे दीवाल की व्यवस्था व देवकुलिकाओं में मातृका-देवियों की प्रतिमाएं है। पहाड़ी पर परवर्ती कलचुरि कालीन महामाया मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषमर्दिनी प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न स्तंभ आधारित मण्डप है। यही पहाड़ी श्रृंखला एक छोटी नदी जटाशंकरी का उद्गम भी है। स्थल का प्राकृतिक दृश्य सौन्दर्य चित्ताकर्षक है।

Friday, March 25, 2022

बिलासपुर अंचल के प्राचीन शिव मंदिर

सन 1989 में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा ‘भारतीय कला में शैव परंपरा’ विषयक आयोजन हुआ था, जिसमें विभागीय पत्रिका ‘पुरातन‘-6, का विशेष अंक प्रकाशित हुआ था। इस अंक में ‘बिलासपुर जिले के प्राचीन शिव मंदिर‘ शीर्षक से मेरा लेख शामिल था, जो यहां प्रस्तुत है- 



प्राकृतिक संपदा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण दक्षिण कोसल का क्षेत्र स्वाभाविक ही कला-संस्कृति पोषक विभिन्न राजवंशों के आकर्षण का केंद्र रहा है। फलस्वरूप स्थापत्य, मूर्तिकला, अभिलेख तथा मुद्राओं पर कलाप्रियता के साथ धार्मिक भावना के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जो विभिन्न राजवंशों की धार्मिक चेतना तथा कलानुराग के परिचायक हैं। वर्तमान बिलासपुर जिले के भूभाग से ऐसी स्रोत-सामग्री प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनके आधार पर तत्कालीन कला-प्रतिमान, दार्शनिक चिंतन, धार्मिक परंपरा तथा सहिष्णुता का परीक्षण किया जा सकता है। 

यह क्षेत्र मुख्यतः शैव धर्मावलंबी राजवंशों के अंतर्गत दीर्घकाल तक शासित रहा, अतः शैव कला और स्थापत्य के विविध अवशेष बिलासपुर जिले में उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख राजवंश क्रमशः शरभपुरीय, पाण्डव-सोम (चन्द्रवंशी) तथा कलचुरि, शासकों द्वारा शैव परंपरा का उत्तरोत्तर विकास होता रहा। यद्यपि शरभपुरियों का राजधर्म वैष्णव था, किंतु इस काल में भी शैवधर्म लोकप्रिय रहा। इन राजवंशों के शैवधर्म से संबंधित प्रमाण बिलासपुर जिले में विद्यमान हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन धार्मिक स्थिति के साथ-साथ कला-स्थापत्य का आंकलन भी किया जा सकता है। इन प्रमुख राजवंशों के स्थापत्य-मूर्तिकला के प्रकाश में शैव-धार्मिकता के विकास के चरण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इन राजवंशों के प्रमुख कृतित्त्व का विवरण इस प्रकार है: 

शरभपुरीय वंश: इतिहास में अब तक अप्रमाणित नगर शरभपुर तथा इसके पश्चात् प्रसन्नपुर मुख्यालय से राज्य संचालन करने वाले इस वंश का अमरार्य कुल से संलग्न होने के प्रमाण मिलते हैं। शरभपुरीय शासकों का काल ई. पाँचवीं-छठी सदी माना जाता है। शरभपुरियों के स्थापत्य उदाहरण मात्र बिलासपुर जिले से ही ज्ञात होते हैं। ताला के दो शिव मंदिर, शैव धर्मावलंबी मेकल के पाण्डववंशी शासकों द्वारा निर्मित होने की संभावना भी प्रकट की जा सकती है, किंतु यह निर्विवाद है कि इन शिव मंदिरों का निर्माण काल, मंदिर स्थापत्य के क्षेत्रीय इतिहास में प्राचीनतम है। 

जिठानी तथा देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अपेक्षाकृत सुरक्षित व पूर्वज्ञात है। टीले के रूप में परिवर्तित जिठानी मंदिर की संरचना पिछले वर्षों में कराये गये विभागीय कार्यों से स्पष्ट हुई। दोनों मंदिरों के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमाएँ अप्राप्य हैं किंतु प्राप्त प्रतिमाओं और स्थापत्य अवशेष से तत्कालीन कला व शैव परंपरा की समृद्ध झलक मिलती है। 

विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। द्वारशाखा के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती की द्यूतक्रीड़ा, भगीरथ अनुगामिनी गंगा आदि अंकनों में सुदीर्घ कलाभ्यास से प्राप्त उच्च प्रतिमान, दृश्यों को अत्यंत आकर्षक और सजीव बना देता है। इस मंदिर के परिसर में मयूरारूढ़ कार्तिकेय की दो प्रतिमाएँ, शिव प्रतिमा शीर्ष, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुख गण, प्रतिमाएँ भी धार्मिक विचारधारा के आयाम प्रस्तुत करती हैं। 

दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपान क्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। तल-विन्यास से ज्ञात इस मंदिर की स्थापत्य योजना अत्यंत विशिष्ट है। यहाँ से भी शैवधर्म संबंधी अंकन- स्वतंत्र प्रतिमाएँ तथा स्थापत्य खंड, उपलब्ध हुए हैं। स्वतंत्र प्रतिमाओं में मुख्यतः कार्तिकेय, शिव मस्तक, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी फलक तथा मंदिर स्थापत्य खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला और शैव प्रसंगों के अंकन के अतिरिक्त नंदी, शिवगण आदि प्रमुख हैं। 

पाण्डव-सोम वंश: वस्तुतः तीन भिन्न राजवंशों, जिनका निश्चित एकीकरण संभव नहीं हो सका है, का प्रभाव इस क्षेत्र में लगभग पाँच शताब्दियों तक रहा। इनमें मेकल के पाण्डव वंश का काल लगभग ई. पाँचवीं सदी, कोसल के पाण्डव वंश का काल ई. छठीं-सातवीं सदी तथा कोसल के सोमवंश का काल ई. सातवीं से दसवीं सदी निर्धारित किया गया है। पाण्डव-सोमवंशी शासकों के ताम्रपत्रों पर शिवस्तुति तथा मुद्रा (seal) पर नंदी की अनेक प्रकार की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं। पाण्डव वंश-काल में निर्मित चार प्रमुख शिव मंदिर इस जिले में विद्यमान हैं। इनमें से अड़भार के मंदिर का तल-विन्यास व प्रवेशद्वार सुरक्षित है। मल्हार का देउर मंदिर शिखर विहीन है। खरौद का इन्दल देउल अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है और इसी स्थल के लक्ष्मणेश्वर मंदिर का वर्तमान स्वरूप पुनर्संरचना के फलस्वरूप है। 

मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर मंदिर महत्त्वपूर्ण और विशाल है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल-मण्डप तथा अर्द्धमंडप की भित्तियाँ कुछ ऊँचाई तक सुरक्षित हैं। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। द्वारशाख के भीतरी पार्श्वों में उत्तरी पार्श्व पर शिवलीला के विभिन्न दृश्य हैं। दक्षिणी पार्श्व पर गजासुर-वध, शिव-विवाह तथा उमा-महेश्वर के अंकन में सूक्ष्म परिपूर्णता व मिथकीय सहजता के दर्शन होते हैं। मंदिर परिसर में स्थापत्य खंडों पर शैव-द्वारपालों की आकर्षक मानवाकार प्रतिमाएँ तथा उमा-महेश्वर भी हैं। इसी परिसर में पूर्ववर्ती काल की दो विशाल एवं विशिष्ट प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं को मुखलिंग तथा यज्ञोपवीतधारी आवक्ष शिव रूप में उत्कीर्ण किया गया है। 

खरौद का पश्चिमाभिमुख इन्दल देउल, तल-विन्यास में कोणीय योजना पर ईंटों से निर्मित है। मंदिर के पाषाण प्रवेशद्वार की शाख पर मानवाकार नदी-देवियों के साथ सिरदल पर त्रिमूर्ति की मध्य आकृति में नंदी सहित शिव-पार्वती प्रदर्शित हैं। मंदिर की बाह्य भित्ति पर गणेश उत्कीर्ण हैं। 

खरौद के पूर्वाभिमुख लक्ष्मणेश्वर मंदिर का स्थापत्य नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। गर्भगृह में अष्टकोणीय किंतु अत्यंत क्षत शिवलिंग है। उभय द्वारशाख के निचले अर्द्धभाग में शैव द्वारपाल हैं। मंडप के स्तंभ पर अर्द्धनारीश्वर तथा रावणानुग्रह प्रतिमाएँ अवनत तल में उत्कीर्ण हैं। खरौद के ही एक अन्य (शबरी) मंदिर में शैव द्वारपाल तथा अर्द्धनारीश्वर की चतुर्भुजी व्याघ्रचर्मधारी मानवाकार प्रतिमाएँ भी इसी काल की कृतियाँ हैं। 

अड़भार का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर ताराकृति अष्टकोणीय तल-विन्यास का है। प्रवेशद्वार में सिरदल पर कार्तिकेय तथा संभवतः उमा-महेश्वर का अंकन है। मंदिर परिसर में नंदी तथा अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी नटराज शिव की प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। 

कलचुरि वंश: त्रिपुरी के प्रसिद्ध कलचुरि वंश की शाखा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर तुम्मान में राजधानी स्थापित की। कलचुरियों की यह शाखा, रतनपुर शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई और सुदीर्घ अवधि तक इस क्षेत्र पर राज्य करती रही। शैव धर्मावलंबी कलचुरियों के धार्मिक तथा लोक कल्याणकारी विभिन्न कृत्यों की सूचना अभिलेखों में उत्कीर्ण है। अभिलेखों के आरंभ में निर्गुण, व्यापक, नित्य और परम कारण शिव की भावपूर्ण वंदना है। कलचुरियों के शिवमंदिर निर्माण की परंपरा राजधानी तुम्मान से आरंभ होकर दो शताब्दियों तक निरंतर निर्वहित हुई। 

तुम्मान का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर कलचुरियों की रतनपुर शाखा के आरंभिक स्थापत्य का उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित संरचना मूल से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। प्रवेशद्वार में सिरदल के मध्य कोष्ठ में शिव का अंकन है, किंतु द्वारशाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेशद्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर परिसर में नंदी, नंदिकेश्वर, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

पाली का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना मंदिर के सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में इस मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाह्य-भित्ति आकर्षक प्रतिमाओं से सज्जित है, जिसमें विभिन्न शैव प्रतिमाएँ यथा-नटराज, अंधकासुर वध, गजासुर वध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय अंकित हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर शैव-द्वारपाल तथा शिव परिवार के विभिन्न अंकन हैं। द्वारशाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला तथा उपासना के दृश्य हैं। 

जांजगीर का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर, प्रसिद्ध विष्णु मंदिर के निकट स्थित है। इस मंदिर का मूल स्वरूप नवीनीकरण के प्रभाव से लुप्तप्राय है किंतु मूल प्रवेशद्वार सुरक्षित है। सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रूपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपालों की प्रतिमाएँ हैं। शिव कथानक के कुछ अन्य दृश्यों के साथ गणेश व नटराज की प्रतिमाएँ भी हैं। 

मल्हार में कलचुरिकालीन दो शिव मंदिरों के अवशेष हैं। इनमें पातालेश्वर अथवा केदारेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग अंशतः तथा मंडप व अर्द्धमंडप मात्र तल-विन्यास में ही दृष्टव्य हैं। पश्चिमाभिमुख केदारेश्वर मंदिर निम्नतलीय गर्भगृह का है किंतु मंडप की योजना पूर्वाेल्लिखित तुम्मान मंदिर के सदृश है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वारशाखों के भीतरी पार्श्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध उत्कीर्ण है तथा सम्मुख में नंदी पर शिव-पार्वती, चतुर्भुजी शिव तथा अर्द्धनारीश्वर हैं। द्वारपालों के रूप में वीरभद्र तथा भैरव की प्रतिमाएँ हैं। 

पश्चिमाभिमुख डिडिनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर राजमहिषी की प्रतिमा है। यह मंदिर नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। मंदिर के मंडप की भित्तियों में जड़ी शैव द्वारपाल तथा नटराज की प्रतिमा से, इस मंदिर का शैव होना अनुमानित था। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य के दौरान लिंगपीठिका खंड व नंदी प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे यह मंदिर शिव मंदिर के रूप में सुनिश्चित हुआ। 

किरारी गोढ़ी का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर भी निम्नतलीय गर्भगृह योजना पर निर्मित है। मंदिर की पूर्व तथा उत्तर की भित्ति, जंघा तक अंशतः सुरक्षित है। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य में गर्भगृह से लिंगपीठिका खंड प्राप्त हुई। जंघा की शैव देव प्रतिमाओं में नटराज, हरिहर-हिरण्यगर्भ हैं। मंदिर परिसर में गणेश, नंदी आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

गनियारी का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर अत्यधिक भग्न है किंतु पुनर्संरचित प्रवेशद्वार लगभग सुरक्षित है। गर्भगृह में लिंग की स्थापना है। सिरदल पर शिव, पार्श्वों में द्वारपालों का तथा अन्य परंपरात्मक शैव अंकन भी हैं। बाह्य भित्ति में जंघा के भग्न होने से शिव के अन्य रूप वर्तमान संरचना में अनुपलब्ध हैं। 

सरगाँव का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर कलचुरि स्थापत्य के परवर्ती उदाहरणों में लगभग सुरक्षित मंदिर है। निम्नतलीय गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल व द्वार-पार्श्वों पर परंपरात्मक शैव प्रतिमाओं के अतिरिक्त जंघा पर नटराज, अंधकासुर, गणेश, हरिहर हिरण्यगर्भ की प्रतिमाएँ हैं। 

मदनपुर में भी सरगाँव के समकालीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जिले के अन्य स्थलों पर भी विभिन्न काल के शिव मंदिरों के अस्तित्त्व के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, इनमें कुटेसर नगोई, रैनपुर खुर्द, पंडरिया, रतनपुर, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी, बेलपान, बसहा आदि प्रमुख हैं।

Saturday, March 5, 2022

खुसरा चिरई के बिहाव

छत्तीसगढ़ी साहित्य की विशिष्ट कृति ‘खुसरा चिरई के बिहाव‘ की रचना, खरौद निवासी कपिलनाथ मिश्र जी ने लगभग सन 1950 में की थी। जानकारी मिलती है कि पुस्तक का प्रकाशन, वर्ष 1954 में हुआ। शिवनाथ-महानदी संगम के उत्तर में स्थित खरौद, शिवरीनारायण के साथ जुड़ा, ऐतिहासिक महत्व का स्थान है। कपिलनाथ मिश्र, खरौद के प्राचीन लक्ष्मणेश्वर मंदिर के पुजारी थे और बड़े पुजेरी मिसिर जी के नाम से जाने जाते थे, खुशखत अर्जीनवीस भी। कपिलनाथ जी के पिता, भदोही, बनारस निवासी श्री रामलाल मिश्रा, शिवरीनारायण थाने में पदस्थ हुए। मगर भोले बाबा की लौ लग गई, लक्ष्मणेश्वर की पूजा करने लगे, नौकरी छोड़ दी, पुजारी बन गए और खरौद में ही विवाह कर, पक्का रिश्ता जोड़ लिया।

मिश्र जी के कथन का उल्लेख मिलता है कि- ‘मैं हर एक दिन बैसाख के महिना मा मंझनिया ज्वार हमर गांव के जुन्ना मदरसा के परछी मा जूड़-जूड़ बैहर पा के बइठे रहें। वोहिच् मेर दू ठन पीपर के पेंड़ रहीस। अउ ठउका पाके रहिन, तो वोकर खाये बर खुबिच्च चिरई जुरे रहीन अउ सब्बोच चिरई के मंध म खुसरा मन बइठे रहिन। तो सब चिरई अउ खुसरा मन के चरित्तर ल देख के मोर मन मा आइस के ये मन के कारबार ला लिख डारों।‘ (छत्तीसगढ़ी साहित्य दशा और दिशा- नन्दकिशोर तिवारी)
 
‘खुसरा चिरई के बिहाव‘ के कई संस्करण प्रकाशित होने की जानकारी मिलती है। यहां जिस संस्करण को आधार बनाया गया है, उसमें कपिलनाथ जी के नाम के साथ ‘शांत‘ उल्लेख है। उनका निधन सन 1953-54 में हुआ। यह पुस्तिका शिवरीनारायण मेले का आकर्षण होती थी, लेकिन मुखपृष्ठ का चित्र और तोता-मैना के संदर्भ के कारण, इसकी प्रतिष्ठा ‘केवल वयस्कों के लिए‘ वाली थी। यह कृति, चर्चित किंतु सहज उपलब्ध नहीं रही है, इसलिए यहां प्रस्तुत की जा रही है। प्रस्तुति में ‘- 1 -, - 2 - ... से - 32 -‘ तक, इस प्रकार दर्शाई संख्या, पेज नंबर हैं। मौलिकता को ध्यान में रखते, छपाई में प्रूफ की अशुद्धियों को यथावत रखने का प्रयास है।

- 1 - 
जय लखनेसर बाबा के 
खुसरा चिरई के बिहाव 

भर भर भर भर भरदा करैं। पाखन फोर चितरा संग लरैं।। 
तब पंड़का मन धाइन गोहार। मार पीट चलिगे तलवार।। 
लावा मूॅंड मुड़ाती है। तितुर कान छिदाती है। 
किसनाथी रोव गोड़ा तान। भरदा रोवैं झगरा जान।। 
पटइल बाबू संग संघाती। चढ़ बैठिन भरदा के छाती।। 
पीपर मां रैमुनिया बोलै। देखा पूत पिपरा झन डोलै।। 
कवका गिधवा धुनै निसान। लड़वैं गिद्ध समान।। 
- 2 - 
खुसरी बर सब लड़थैं। हमिच हमिच कहा थैं।। 
तेला सुनके निकरिस खुसरा। ठउका मोटहा अउ धम धुसरा।। 
जो तो बटेरिस आँखा ला। फट फट करके पॉंखी ला।। 
कचपच कचपच करे लगिस जब। सबो चिराई सटक गइन तब।। 
तब खुसरा के भईस बिहाव। कोन कोन का करिन उपाव।। 
तेला तूॅं मन सूना अब। सब नेव तरहा जूरिन जब।। 
गुंडरिया धान कुटाती है। सुहेलिया तेल चढ़ाती है। 
हरपुलिया हरदी पिसती है। रै मुनियां गारी गाती है।। 
मैना भात परोसती है। सब्बो लिटिया जेंवती है।। 
- 3 - 
घाघर दार परोस थें। हंसा हांस भकोसा थें। 
बकुला ढोल बजावा थे। कोकड़ा बरात जावा थें। 
अन्धरी कोकड़ा अउ बगरैला। घर मां रहि गइन माई पिल्ला।। 
ये मन घर ला देखा थें। रात के डिड़वा झड़का थे।। 
कौवा पतरी खीला थें। नौवा नेवता देवा थें।। 
सब नेव तरहा आवा थें। ओसरी पारा खाबा थें।। 
अटई खात अंचोवा थें। बटबई बरा बनावा थें। 
पन कोइला पानी लाना थें। बटेर पीठी साना थें।। 
छचान छाता ताना थे। हरील सब ला माना थे।। 
- 4 - 
ठेहूं गेहूं सुखावा थे। लेंधरा लाई ढोवा थे। 
कन्हैया साज सजावा थे। दहिगला दही जमावा थे। 
लमगोड़ी गोड़ ला ताना थे। पतरंगिया पतरी लाना थे।। 
धोवनिन ओढ़ना धोवा थे। कोकिला आरती गांवा थे। 
पपिहा पान प्यू करा थे। स्वाती बून्द अगोरा थे। 
राम चिरइया पत्रा वाला। गर मां पहिरे तुलसी माला।। 
पी पिया अगोरा थे। फां फॉं मार बटोरा थे। 
चकोर चकरी दारा थे। दपकुल दार निमारा थे।। 
अधरतिया रात के आवा थे। देवार मांग मांग खावा थे।
- 5 - 
सुरसा खिरमा नावा थे। कोढ़िया सूत के गावा थे।। 
छितकुल छेना जोरा थे। बटरेंगवा लकरी फोरा थे।। 
गुँरू गुरला बांटा थे। चांबा चोली छांटा थे। 
सारस साग परोसा थे। रौना खूब भकोसा थे।। 
गरूड़ आलू रांधा थे। सोना सींका बांधा थे। 
कोंच जलदी धावा थे। चील चीला खावा थे।। 
चकही चकहा चन्व चक। बाज कर लक्ब लक्व।। 
फररौबा झांपी जोरा थे। जुर्ग नरियर फोरा थे। 
चेंपा चटक बताब थे। श्याम सोहाग जोरावा थे।। 
- 6 - 
घुटनूँ सरबत घोंटा थे। पी पी लोटत पोटा थे। 
तिल खाई तील भकोसा थे। घिवरी घीव परोसा थे।। 
लीलकंठ हर राधा थे। घोघिया घोड़ा बांधा थे। 
पपई पापा बांटा थे। कट खेलावा कउवा काटा थे।। 
तोंदुल चाउर धोवा थे। भरही ले ले ढोवा थे।। 
टिटिही टीका देवाथे। तेल हर्रा तेल लगावा थे। 
किल कीला मउर परोंसा थे। बंदुआ बरा झकोसा थे। 
घुघुवा ताल मिलावा थे। गिदरी गारी गावा थे। 
कराकूल जोरत धारा थे। परेवा पापर जीरा थे। 
- 7 - 
बन्दक सून के लदका थे। कोइली बोली झड़का थे।। 
सल्हई सारी लाना थे। धन्नेस पूड़ी छाना थे।। 
सुआ नगला पड़ा थे। दच्छोना वर आड़ा थे।। 
केप केपी कप कप कारा थे। फुल चुवकी फूल धारा थे।। 
सइहा सिहरी टारे है। पोझा मां मुँह ला फार हैं। 
रम ढेकवा गठरी बांधा थे। कोनरीला कोनरी रांधा थे। 
बुल बुल सब ला बलाबा थे। सबके घर मां जाबा थे।। 
बड़का गिधवा बाहे डोला। तैं का देवे खुसरा मोला।। 
मटुक लगाके सारस बईठे। खुसरा के तब डेना अहंथे।। 
- 8 - 
कुकरी कांवर बोहे। कुल छुल कुरता लोहे।। 
अकारा अटक केचाला थे। गिरे गिरिाये संकेला थे।। 
पनखौली। खपरेला खैर ला नवा थे।। 
सारदुल सुपारी काटा थे। चिंबरी चूना बांटा थे।। 
चकहा चोंगी देवा थे। सबो बरतिया लेवा थे। 
फैम करी गारा थे। अयरी पपची जारा थे।। 
नकटायर नीसान धरे हे। चंडुल चल चल करे हे।। 
काका तू आ कांपा थे। बुल बुल चिउरा नापा थे।। 
रेखा सबलो रेरा रेरा थे। रेंडुली गूरला पेरा थे।। 
- 9 - 
फुदुबकुल फरा जोरवा थे। पनबूड़ी पकुवा ढोवा थें। 
गराज स भैइदूहा थे। अकोला मुंगुवा गूहाये थे। 
खम कुकरा मंडवा छावा थे। भुदुकुल भजिया नावा थे। 
कारंड काजर पारा थे। राय गीध दार निमारा थे।। 
खंजन काजर आंजा थे। कोक भॅंड़वा मांजा थे। 
बट कोहरी ईंटा ढोवा थे। रम्हई गोरस खोवा थे।। 
मजूर मकुट बनावा थे। सूई जामा सीवा थे।। 
पनसू पानी ढोवा थे। डुम डुम सबो अंचोवा थे।। 
टिहला टिंग टिग कारा थे। रंगे बर ललकारा थे। 
- 10 - 
सबो बजनियां आवा थे। वाजा कइसे बजावा थे। 
डोला बइठे खुसरा हर। ठउका मोटहा धुसरा हर।। 
सूना भाई वाजा। सब्बो ये मैर आजा।। 
।। निसान हर कैसे बांजे।। 
गुदुम गुम गुदगुद गुदरम गों ओं ओं ओं ओं 
पद्दा बुड़ मड़ ते तद्दा बुड़ मर थे। 
कुड़ कत्थे कुड़ कत्थे बुड़गा डिम।। 
कुड़ कत्थे कुड़ कत्थे बुड़गी डिम। 
देव्वे तभ्म लीहां कायां।। 
देब्वे तभरे लीहां कथा।।१।। 
।। ढोला हर कैसे बाजे।। 
गिड़ियांग गिड़ियांग गिड़ियांग। 
ददा जाहां नीतो बाबा जाही।। 
ददा जाही नीनो बाबा जाती।।२।। 
- 11 - 
।। मांदर हर कैसे।। 
येद्दे येद्दे लसरे लसर। येद्दे येद्दे लतर लतर।। 
थिन्दा थिन्दा थीन्दा टोटा मेर ला खून्दा।। 
घिन्दा घिन्दा घिन्दा। टोटा मेर ला खून्दा।।३।। 
।। तमूड़ा हर कैसे बाजे।। 
ढन ढना झुमें ढनढनी झुमें ढनढना झुमें ढन ढनी झुमें।।४।। 
।। करताल हर कैसे बाजे।। 
उड़दे मटमटी उड़दे मटमटी उड़दे मटमटी।।५।। 
।। खंरी हर कैसे बाजे।। 
डुमलान बासीला डुमलान बासीला।।६।। 
।। मोहरी हर कैसे बाजे।। 
यूँकरी पूँकरी पूँकरी पूँकरी। 
तोर बापनी बाँचे डोकरी डोकरी।। 
लेले लेले झोंकरी झोंकरी। 
कुकुर अइसन भोंकरी भोंकरी।।७।। 
।। डफड़ा हर कइसे वाजे थे।। 
- 12 - 
फद्द फदा फदफद्दा के। एकौझन पद्दके। 
हटर हटर हद्दके। चला जलदी झद्दके।।८।। 
।। टिमटिमी हर कइसे बाजे।। 
टनन टनन पैसा खनन। सब्बे च पाईन मोरेच। 
मरन दिन रात ला काटे हां। बैठि मये तो चाटे हां। 
लिर बिट लिरबिट लटर लटर। मोर थोथना चटर चटर।।६।। 
।। नफेरी हर कइसे वाजे।। 
धरबे धरबे धरबे धरबे धार धार धार धार परपरहा ला मार मार मार मार। 
धत्ता धत्ता धत्ता धत्ता। चीकडू धरबे पनही छत्ता। 
धात्तेरे की दहात्तेरे की। हत्तात्तेरे की जहा त्तेरे कि चहा त्तेरे की 
लेइहौं लइहौं तीस वीस। टाँय टाँय फिस फीस।। १०।। 
‘‘शिखिरिणि छन्द‘‘ 
( १ ) 
अब होम होवाथे। 
आँड़ारू के हाँडी हम दुनों चाटेन एकमां। 
- 13 - 
पछाड़ी जो चाटै तब झपट भागे चटकमां। 
कहाँ आये बाई अब भयेन भैटा झट इहां।। 
बसातो मोला तै अस सपट बइठे चुप कहां। 
सरूपा बिलरी होमा थे मुँह ला फार के।। 
दांत ला निकार के सुआहा ! हा ! हा !! हा !! 
चोकडू बिलरा पढ़ा थे। 
( २ ) 
चला जल्दी जाई धर झपट गांड़ा घरगियां। 
बने कारी खैरी ठन दशक ठउका हय चियां। 
उहां ले जो आवो झट उत्तर दमले भितरमां। 
सबै लइका मारै तब टरका भौंड़ी उपर माँ। 
( ३ ) 
विदारे लै लूठी कहि जुटहि रांडी मरमुखी। 
चला भागा भाई अस कहत जाबो घर दुखी। 
कहां जावो कोती अउ कहत माऊँ सुन सबो। 
सवै मारैं ढेला पिउ उपर दमले हपटबो। 
- 14 - 
सबौ दौड़ैं छेकैं धरहु आसब घर घरन मां। 
कई बरजैं बोलैं यहि रहैं सब दिन सरनमां। 
कहै ननकी बच्चा हय ज्ञान दसवा धरनमॉं। 
नही आवें सुसुवा झट झपट लटकत गरनमां। 
( ५ ) 
(अब आहुती धर के पूरा कराथ, 
सरूपा बाई तैं अब घिव सुपारी धर लेवा। 
सुना ठउका मंत्रा बस पुरिस जल्ली धर देवा। 
कहैं ‘सांता नंदा‘ अब जबड़ फदा फद फदा। 
आहा हा ! हा ! हा ! कर दुइ झपट्टा कुदकुदा।
 
‘अब विदा होवा थे‘ 
आंवर परिगे भांवर परिगे आउ पर गे टक्का 
खुसरीके मुंहला खुसरा देखके मारत लेगे धक्का। 
दस प्रकारके बाजा बाजे पढ़वैया मन भाये हे। 
भाग भैगे खुसर के रट पटही खुसरी पाये हे। 
घाघर भांचा खुसर जाना तेकर भइसा विहाव। 
- 15 - 
कपिलनाथ हर जोरिस येला बठिके पापर छॉंव 
भूले चूके छीमा करिहा मैं तो निचट अनारी। 
तू हरे हांसे वर झपयायै झनि दइहा मोलागारी 
लइका मनवर वनगे भाई हांसा आउ हंसवा 
एक बात ला मनिहा भाई येला सबेच बिछावा 
।। जय लखनेसर बाबाके।। 
अब डोला उठा थे। 
बिदाई के गीत ला सूना। 
खुशरौवां राजकरैना। जेके ब्रह्माके रेख टरेना। 
आवा जाहीं में कागा निकलिगे कौर्रोवां कागद धरैनां।। हो।। 
आंजत माजत मजरूवा चेतसि, बनवां निरत करैना, 
आधा सरगले भरुतो बोलै, कुरीं के बजार भरैना। 
झूलवा ऊपर रेखा बोले, गडुली चूं चूं करैना। 
सारस के मूंड पां मटुक विराजे, रमढेकया थैली धरैना। 
चार बंद पानी मां बिन बिन, कोतरीला थैली धरैना। 
- 16 - 
ताला भीतर ले पन बूड़ी बोले, अयरी कसर करैना। 
सन तो गोरिया मन हर करिया, बकुला छगल धरैना। 
लील कंठ कारा भखत, राम राम बिसरैना।। 
करन मा कैसो वोकर, दरसन कौन तरैना। 
सुधर परेवा मुंड़ी डोलावै, जोड़ो छिन विछुरैना।। 
खुट खुट खुट दाना खाथे, कांदी घास चरैना। 
भूसी मजूरो के काम नइये, गल गल घान चरैना। 
घाम सीत बरसा सब सहथै, आन सङ्ग झगरैना।। 
रोज रोज माठा जल पीथै, मटकी मां पानी भरैना।। 
- 17 - 
मनमो कतको मौज उड़ावै बिन हर भजन तरैना। 
चकोर हर अङ्गारा ला खाथै, ओकर चोंच जरैना।। 
जैकर हरि रच्छा करवैया, कोनो के मारे मरैना।। 
दिन मां अँजोरी रात के अँजोरी, बो घर दिया बरैना।। 
बिन दाया सीना रघुबर के, कौनो काम सरैना। 
आधा सरग चील मडराये, छत्ता तान धरना।। 
चका चका की रैन बिछाहा, खुसरा मौज करैना। 
खुसरा खुसरी दोऊ नाच, मन मा मौज भरना।। 
मैना मीठी तान सुनावै, सुअना भजन करैना। 
- 18 - 
गये जवानी ढूँढ़े मिलैना, लाख जतन बहुरैना। 
सब पंछी मिलि हरिगुन गाइन, मगल चार करैना।। 
कपिलनाथ आसा चरनन के, बिन हरि कृपा तरैना। हो। 
बिदाई के बेरा समधी मन भेट करे लागिन, तौ एक झन सियान बरतिया कहीस महराज ये खुशी आनन्द के बेरा माँ मोरो भजन के एक दू पद ला र न ला तूॅं हर मरजी होय तौ कहौं तौ सब मन कहीन का हो हो गावाना हो येमा पूछे बर का काम है। तेकर पाछू वो ही सियान। बरतिहा हर झूल झूल के गाये लागीस।। 
।। जय लखनेसर बवा।। 
दुलहा डौकी ला सुनाय के गाथै, 
चम गेदरी भये वो रानी भाना।।वो।। 
वो तो गुरू के बचन नहि माना। वो। 
- 19 - 
मोती सिरा रानी ला छांड़ि के। भाना वर पंच रेंगना। 
चार कुटुम ला घर बइठांर के। घर के जमा लुटाना।।१।। 
मइके ले ससुरे मां आये, एँड़ा के दरस नइ पाये। 
दिन के तोला कैद करैहों, रात के पंथ चलाना।।२।। 
अस्ती ले तोर मस्ती आये, रंग में रंग मिलाना। 
भाव भजन के मरम म जाने, मनुख जनम नहिं पाना।।३।। 
बालापन मां खेल गंवाये, ज्वानी में रङ्ग नाना। 
बिरधापन अब आन तुलाना, हीरा अस जनम गंवाना।।४।। 
तैं भाना माया मोह मां भुलाये, काम क्रोध मन 
- 20 - 
बार बार तोला गुरु समझावै, हरि के भजन नहिं जाना।।५ 
घर के पुरुष पथाना बद मानैं, गुरु का काठ मसाना। 
गुरु के बचन पुरुख के कहना, एक्वोला नहिं माना।। ६।। 
कंचन के मोर देहिया बमे हैं, मन मां भरे गुमाना। 
कैसे के तोरे चरन पखारौं, जगिय मोला बताना।।७।। 
तोला देइहौं चम गेदरा के चोला, उलटा डार झुलाना। 
पिया के बचन ला माने नाहीं, परे नरक के खाना।।८।। 
दिन भर भान अंधरी रहिबे, दोउ नैना मां टोप लगाना 
रात रात भाना चारा चरबे, गिंजर भूल घर आना।६। 
- 21 - 
कहाँ के जोगी कहां के जिड़ा, कहां के हो बट पारा। 
पशु पंछी सब सोवन लागे, दुख मां रैन गवाना। १०। 
धन दौलत तोर माल खजाना, सबै छूट यह जाना।
कर सत सङ्ग गुरु चरनन के, तब ओही घर पाना।।११।। 
सत गुरु बचन सुनो भाई साधो, हरि के चरन चितलाना। 
हरि के चरन मां प्रान बसत हैं, छोड़ चरन कहं जाना।। १२।। 
(बरतिया ला सुनाय सुनाय के कथैं ) 
चिरई के नाव 
चीं चीं चीं चीं करती है, चार चिरिया आवत हैं। 
निवरा सुदिन बिचारता हैं, ठुमक ठुमुक मन 
- 22 - 
हरती हैं।। भर भर भरनी करे। पाथर फोर चितरा से लरे।। 
बप चितरा के औरे बात, ओकर कोई न पावैं घात।। 
तब मन सांकर टोर पराय। ढूँढ़े मिले न कोट उपाय।। 
बांझी के पीउ तरे तखार। ओला कांबर रचिस करतार।। 
दहिंगला दही जमाती है। पतरिलवा पानी डुहरती है।। 
कजरिलवा भात पसाती है। गौरेलिया पाठ पढ़ाता है। 
कठ खुलही कठवा खुलता है। मैना कैसे नचती है।। 
तीतुर तार मिलाया है। बकुला ढोल बजाया है। 
पहार ले बोल अखॅंडा, मोर पूँछा मां बांधा डंडा।। 
मै सब चिरइन का करिहौं बंडा, 
पहार ले बोले बावन वीर।। मोर पूँछी मां बांधा तीर। में लड़िहौं लिट्टी सों बीर।। 
बांस के पूत बसौंधा डोले। मोर बांह बल है अनमोले।। 
नौबाहाथे मूडमुंडाऊं। मोर असमंत्रीला कहँपाऊं।। 
मैं मारौ दहराके कोतरी। बिन बिन बोला डोरौं ओदरी।। 
सारस लमगोड़ी हर बैठे। जग थाला इक थाला ऐंठे।। बैठे बंदर बाह 
- 23 - 
डुलावे। खावे फल अउ गाल फुलावे।। 
ऊपर से उपरेल्हा रेंगे बांधे तीर कमान। जांवर खरदा लिटिया दाबे दल में बजे निशान।। 
सब चिरई जुर मिलि के नेवता करी विचार। अटैल नेवतै बटैल नेवते कुरौं के दल भारी।। 
हाथ गोड़ है सुरकुट मुरकुट, मूं ओकर बड़ भारी। लाख चिरैया माँ कुर्री के दलभारी।। 
सवा सवालाख चिरैया माँ कौन पियावै दूध। सवालाख चिरैया माँ चम गिदरी पियाइन दूध। 
बैंगा चिरई सगुन विचारै सबमिल होइन डेड़हा। माई पिल्ला नेवता जायें घर में दीहिन बेहड़ा।। 
कौने वर का लानी भाई, कुहरी बाज झनजानै। उनका सोरलगे ना पावे, नहिं तो झगरा ठानै। 
खुसरा चलिन बिहाये बर, तोरातीं भाजा खबाइन, भाग भैगे खूसर के छचान नइ पहुंचाइन।। 
खुसरा राते आवै राते जाय राते लगन सधावै। बैजनाथ चिरईला भेंटिस बनत बात बिगड़ावै।। 
मटुक बांध के सारस अम्बे, लम्बा गरदन खूब 
- 24 - 
हलावे, अड़वन्द दहिंगला साजे, सुहेलर के बड़ भाग। गौड़ चिरई रैमुनियां बोले तेरा सुनावै राग। 
हरहर मड़वा करे, खुसरा बर के दाइज परे अचहड़ पर गये पचहड़ परगे परगे दाइज टक्का। 
खुसरी के मुँहला खुसरा देखे मारन लये धक्का।। 

अन्न के नांव 
तिल कहै मैं कारो जात, मैं बरिहौं अंधियारी रात। 
बेई कहै मैं कटहा जात, छेरिया खात न गरुआ खात। 
मोहिं बेई का ठाढ़ धंसाव, मोहिं बेई के तेल पेराव। 
मसुरा कहै मोर पेड़ झिथरी, दरे छरे में दिखों सुन्दरी। 
राहेर कहै रहरटिया खास, बिन कौले ना लागौं मिठास। 
बटुरा कहै मैं ढुल २ जांव, रोवत लइका ला भुरियांव। 
कूट काट कोठरी में धरिन, काम परेलडुआ बर हेरिन। 
तिवरा कहै मैं भाभर भोर गुज 
- 25 - 
गुल भजिया होत है मोर। 
जौन बतर लुए किसान, तब अरुअन के बांचिस प्रान। 
तब तिवरा मैं हाथे आंव, नहिं तो चटक खेत रहि जांव। 
अंकरी कहै मोर नइये चाह, मोहू का नइये पर वाह। 
एक साल में परिस दुकाल माई पिल्ला भइन बिंहाल। 
ठाढ़े पीसैं रोटी बनावैं, बैठे माई पिल्ला खावैं। 
उरिद कहै मोर मेघई नांव, महीं बसावो गंवाई गाँव। 
मोरे चकरी मोरे पहीत, मै बेठारों समधी सहीत। 
ए देह जरी सहैना जाय, बेड़हा अरसी चले रिसाय। 
उरिद के पीठी अरसी के तेल, इन दूनों ताई में होय वह पेल। 
चुर चुर बरा गये उपलाय, समधिन के मन मां आय। 
उरिद कहै मोर पेंड़ झिथरी, मैं वइतौं समधिन भितरी। चना 
कहे चक्वे कहायों, डारा पाना सबे खवायों। 
वारे पन में मूड़ मूड़यों, भर जवानी में फूल खोचायों। 
बुढ़त काल में ठुन ठुन बाज्यों तवहूं छोडिन नही किसान। 
अब कैसे मोर बांचे प्रान 
- 26 - 
एक साल में परिस दुकाल, 
गेहूं चना भइन विहाल गेहूं गोसैयाँ मर गये, चना गोसैयां जी गये। 
तब गेहू के छाती फाट, चटक चना के नाक उचाट। 
कुटकीं कहैं में तालम तूल, मोर भात कंबल कस फूल। 
गोंड़ गिराहीं नुनियां खांय, बड़े आदमी बहुत न खायं। 
काँग, मुडिला ज्वार बाजरा, हम चारों के भैयाचारा। 
कोंहडा कहैं मोर पेंड दुरिदा, मोलां देइन छानी कुरिया। 
जोंथरी कहै मैं सबल हीन, कोला पिछौता मोका दिहीन। 
माथे फूलों पांजर फरों बहुते जाय तो कुतरक धरौं। थोरे खाय तो मन ना माढो, 
अंडी कहै मोर तेल गढ़ार, मोर बिन गाड़ा पैर गोहार। 
कोदों कहैं मैं सब ले बसे, मोर बिना न रइ है देस। 
धान कहै मैं एकइ धना, सोन के डाड़ी रूप के फना। 
सरसों कहै सरसोंवाँ कहायो, रोग राग सब दूर बहायों। 
धनियाँ मिरचा लेहौं मिलाय मैं आमा का देहाँ खवाय।। 
- 27 - 
रूख के नांव, 
ओक धतूरा अन्डा भइन चन्दन औ वग रंडा भईन। 
कुम्ही अमेरा करन भइन, मेंहदी ग्वालिन दहिमन भईन। 
कैथ अमुरी गिंदोलन भईन, लाल साय बिजरा के भईन। 
चुहरा पेड़ तिवरैया भईन, कटहा झाड़ मकोइया भईन। 
धंवई और अरैला भईन, बिही लिमाऊ पतुवन भईन। 
सेम्हर सिरको कुरु भईन, डोकर बेला मेलन गईन। 
बिकट बिकट सूख घनेर, दुरिहा ले देखै वो धन बहेर। 
शोभित मौहा तेंदू चार लीम वकायन और वोहार हरी। 
औरा धौरंग बढ़ी, कसही कोलम साल्हो खड़ी। 
और रूख के करौं बखान, तेका सुनला धरके ध्यान। 
करी कोरिया बोइर के झाड़, येना छाड़े जंगल पहाड़। 
पेड़ घडोली फेर बमूर, फर फर बेल उन्हंू रहें मूल। 
घोट घांट खैर खरहार, ये हू बनमां करे बिहार। 
आमा अमली मुनमा मिलिन, पियरी फूल सिर हुट के फुलिन। 
ताल छींद में और सुपात, तब 
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नरियरकेबारी सुहात। 
कलमीमलिया माचिन, तिन पर बैठ चिरैया नाचिनि। 
कटंग मचोलन लागिन झूल, तब देखा तिलई के फूल। 
सरई, साजा, परस, परार राजकाज में लग्यों अपार। 
सीताफल, कदली अउ जाम, डुमर आवे सबके काम। 
दहिमन सुनसुन पांडर भईन, कदम झाड़ का मिलिन। 
गइन जरहा पो तेंदुके भईन, थूहा में डर और अकोल, बेदुल बांस रहे घने घोल। 
अमटी रोहिना लाले लाल, फरैं मैन फल और सुताल। 
नरंग बिजारी दरमी तूल दिखै बगीचा फूल।। 

अब समधी के फजीता ला छेवर मां सूना। 
दुलहा हर तो दुलहीं पाइस, बाम्हन, पाइस टक्बा। 
सवबैं बराती बरा सोहारी समधी धक्कम धक्वा। 
नाऊ बजनियां दोऊ झगरैं, नेग चुकादा पक्वा। 
पास मां एको कौड़ी नइये, समधी हक्वा बक्वा।। 
काढ़ मूसके ब्याह करायों, गांठी सुक्वम सुक्वा। 
सादी नई बरवादी भइगे, घर मां फुक्वम
- 29 - 
फुक्का। पूँजीहर तो सबे गाव, अब काकर मूतक्का। 
दुटहा गोड़ा एक बचेहें, वोकरो नइये चक्का। लागा दिन दिन बाढ़त जाथे, साव लगावे धक्का।। 
दिन दुकाल ऐसन लागे हे, खेत परे है सुक्का। लोटिया थारीं सबो बेचागे माई पिल्ला भुक्का।। 
छितकी कुरिया कैसन बचि है, अब तो छूटिस छक्का।। आगा नगाथैं पागा नगाथैं, और नगाथैं पटका। 
जो भगवान करें सो होहो लल्दा इहं ले सटका।।

ले भाई भइगे। राम राम जोहार जाथन दया मया धरे रइहा। कहें सुनेला छीमा करिहा भगवान के मरजी होही तब फेर मिल बो। अब थोरकन लखनेसर वावा के अस्तुती कर ला 
जेमा तूंहर दुख दरिद्र हर छुटही 
( १ ) 
जयति शंभु स्वरूप मुनिवरं, चन्द्रशीश जटा धरम्। 
रुंड माल विशाल लोचन, वाहनम् वृषभ ध्वजम्। 
नाग चम त्रिशूल डमरू भस्म 
- 30 - 
अंग विहंग मम्। 
श्री लक्ष लिंग समेत शोभिम विपति हर लखनेश्वरम्।। 
( २ ) 
गंग संग प्रसंग सरिता, कामदेव सेवितम्। 
नाद बिंदु संयोग साधन, पंच वक्र त्रिलोचनम्। 
इन्दु शशि धर शुभ्र मस्तक, सेवितं सुर वंदितम्। 
श्रीलक्ष लिंग समेत शोभित, विपति हर लखनेश्वरम्। 
( ३ ) 
लक्ष लिंग सुलिंग फणि मणि, दिव्य देव सु सेवितम्। 
सुमन बहु विधि हृदय माला, धूप दीप नैवेदितम्।। 
अनिल कुंभशुकुंभ झले कत कलश कंचन शोभितम्। 
श्री लक्ष लिंग समेत विपति हर लखनेश्वरम्। 
(४) 
मुकुट क्रीटक कर्ण कुण्डल, मंडितं मुनि वेषितम्। 
भंगहार भुजङ्ग, लंकृत कनक रेख विशेषितम्।। 
लक्षलिंग समेत शोभित विपति हरलखनेश्वरम्। 
- 31 - 
मेघ डमरू छत्र धारन चरन कमल रिशालितम्। 
पुष्परथ पर बदन मूरत गौरी संग सदाशिवम्।। 
क्षेत्रपाल सुपाल भैरव कुसुम नवग्रहमूषितम्। 
श्री लक्ष लिंग समेतशोभित विपतिहर लखनेश्वरम्, 
(६) 
त्रिपुर दैत्य सु दैत्य दानव प्रात्यते फलदायकम्। 
रावण दशकमल मस्तक अङ्ग जल शायकम्।। 
श्रीरामचन्द्रसुचन्द्र रघुपति सेतुबन्ध निवासितम्। 
श्रीलक्ष लिंग समेत शोभित बिपतिहरलखनेश्वरम्। 
(७) 
मथित दधि चल शेष विगलित भ्रमत मेरु सुमेरुकम्। 
स्नयत विख जल दीयत् प्रनवत पुमत नेत्र सुयोरकम्।। 
महादेव सुरपति सर्व देव सदा शिवम् श्रीलक्ष लिंग समेत शोभित विपति हर लखनेश्वरम्।। 
(८) 
 रुद्ररूपसुतेजमक्रित, भक्षमानहलाहलम्। 
गगन विघतन अखिल धारा, आदि अन्त समाहितम्।। 
- 32 - 
कामकंजर मानकेशव महाकाल सदाशिवम्। 
श्री लक्षलिंग समेत शोभित, विपतिहरलखनेश्वरम्।। 
(९) 
ऋतु वसन्त चक्र चहुं दिशि, प्राप्यते फल दायकम्। 
नग्र खर उद दिशा पश्चिम बास मंगल दायकम्।। 
सन्मुखे कर्बदे लिंग नन्दि भैरव शोभितम्। 
श्री लक्ष लिंग समेत शोभित विपति हर लखनेश्वरम्।। 
( १० ) 
दिशा पश्चिम कुण्ड लक्षमण, नैऋते रघुनन्दनम्। 
ईश दिशि गोपाल रंजित, साक्षि ईश्वर उत्तरम्। 
गर्भ ऋतु मुख श्री गजानन, गंग जमुन सुवाहनम्। 
नन्दी गण युत मध्य सुन्दर, जयति जय लखनेश्वरम्।। 
अब समापत होंये - 
लिखवइया -
कपिलनाथ मिसिर पुजेरी शांत, लखनेसर 
महादेव गाँव - खरऊद, डाकघर - सौरी नरायन
जिला - बिलासपुर (मध्य प्रदेश)
पुस्तिका का पहला और अंतिम पृष्ठ
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Monday, September 12, 2011

हिन्‍दी

बुल्‍के जी की हस्‍तलिपि का नमूना
21-12-60 को रामवन, सतना के
 बाबू शारदाप्रसाद जी को लिखा पत्र,
 जिसमें 'भक्‍त शबरी' व रामकथा
संबंधी अन्‍य पुस्‍तकों का उल्‍लेख है।
हिन्‍दीसेवी बुल्‍के जी, फादर बुल्‍के के बजाय बाबा बुल्‍के कहलाने लगे थे। उन्‍होंने शायद हिन्‍दी सेवा का कोई घोषित किस्‍म का व्रत नहीं लिया, लेकिन सहज भाव से जहां इस भाषा को आवश्‍यकता थी, ऐसे क्षेत्र की पहचान की, जिससे भाषा को मजबूत किया जा सके और वहां उनके प्रयास से जो संभव था, किया। उनके द्वारा तैयार शब्‍दकोश और रामकथा शोध, इसी का परिणाम और उदाहरण है। बुल्‍के जी तक हिन्‍दी भाषा-साहित्‍य के शोध-प्रबंध भी अंगरेजी में लिखे जाने का कायदा था, लेकिन उन्‍होंने अपना शोध प्रबंध सन 1949 में हिन्‍दी में तैयार कर जमा करने के अपने निर्णय के साथ बुद्धिजीवियों-हिन्‍दीजीवियों पर कम भरोसा किया और अपने निदेशक डॉ. माताप्रसाद गुप्ता और गुरु डॉ. धीरेन्‍द्र वर्मा के माध्‍यम से इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के तत्‍कालीन कुलपति, डॉ. अमरनाथ झा और अकादमिक परिषद को भी प्रभाव में ले कर मजबूर किया, इस निर्णय को मान्‍य करने के लिए।

दूसरे, देवकीनंदन-दुर्गाप्रसाद खत्री याद आ रहे हैं, चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ, रोहतास मठ और विज्ञान फंतासियों वाले। यह वह दौर था जब भारतीय भाषाओं के नाम पर बांगला का ही प्रचार था और इसी भाषा में ढेरों मौलिक साहित्‍य और अनुवाद उपलब्‍ध होता था। कहा जाता है कि खत्री जी की इन किताबों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्‍दी सीखी। उन्‍होंने शायद कभी हिन्‍दी सेवा का दंभ नहीं भरा और उन्‍हें इस तरह से याद भी कम ही किया जाता है। बरेली वाले पंडित राधेश्याम कथावाचक का राधेश्यामी रामायण और उनके नाटक, मुंशी सदासुखलाल का सुखसागर, सबलसिंह चौहान का महाभारत और गीता प्रेस, गोरखपुर की पत्रिका 'कल्‍याण' के नामोल्‍लेख के बिना बात अधूरी होगी।

इसके बाद पचास के दशक से आरंभ होने वाला पूरा दौर रहा है इलाहाबाद से छपने वाली किताबों का, जब उर्दू जासूसी दुनिया का बांगला और हिन्‍दी उल्‍था होता। लेखक इब्‍ने सफ़ी (सफ़ी के बेटे- असली नाम असरार अहमद), बीए और हिन्‍दी अनुवादक प्रेमप्रकाश, बीए। जासूसी दुनिया प्रेमियों को खबर जरूर होगी कि ये किताबें आजकल मद्रास से रीप्रिंट हो कर एएचव्‍हीलर पर 60 रु. में मिल जा रही हैं। जासूसी साहित्य में ओमप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक की भी लंबी पारी रही है। दूसरा महत्‍वपूर्ण नाम याद आता है कुसुम प्रकाशन, जिसमें भयंकर जासूस सीरीज के लेखक नकाबपोश 'भेदी' और प्रमुख पात्र इंस्‍पेक्‍टर वर्मा-सार्जेन्‍ट रमेश होते। इसी तरह भयंकर भेदिया सीरीज के लेखक सुरागरसां होते और जासूस जोड़ी बैरिस्‍टर सुरेश-सहकारी कमल कहलाती।
इसके अलावा सामाजिक उपन्‍यास कुसुम सीरीज में छपते जिनके लेखकों में एक खरौद, छत्‍तीसगढ़ के श्री एमएल (मनराखनलाल) द्विवेदी भी होते। जासूस महल की किताबें होतीं और अंगरेजी से अनूदित मिस्‍टर ब्‍लैक, टिंकर की जासूसी होती तो दूसरी ओर बहराम चोट्टा। इस दौर में हिंदी किताब का लगभग अर्थ जासूसी पुस्‍तक ही होता। जासूसी उपन्यासों की महिमा के कुछ उल्लेख प्रासंगिक होंगे- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीे 'चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति को निःसंकोच सबसे प्रिय उपन्यास कहते और पाब्लो नेरूदा से पूछा गया कि अगर आग लग जाए तो आप अपनी कौन सी किताब बचाना चाहेंगे, जवाब था मेरी कृतियों के बजाय मैं उन जासूसी कहानी संग्रह को पहले बचाना चाहूंगा, जो मेरा अधिक मनोरंजन करती हैं। जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, अमृतलाल नागर के भी प्रिय रहे वहीं मुक्तिबोध, स्टेनली गार्डनर और अगाथा क्रिस्टी को भी पढ़ना पसंद करते थे।

तीसरे, हिन्‍दी फिल्‍में हैं, जिसने हिन्‍दी को न सिर्फ फैलाया, बल्कि प्रचलित रखने में इसकी भूमिका महत्‍वपूर्ण है और रहेगी, क्‍योंकि भाषा के लिए गंभीर साहित्‍य के साथ उसका प्रचलन में रहना जरूरी है। यदि आमतौर पर भारत की सम्‍पर्क भाषा अंगरेजी मानी जाती है तो इसके समानांतर आमजन की वास्‍तविक सम्‍पर्क भाषा, उत्‍तर से दक्षिण तक हिन्‍दी है और वह अधिकतर फिल्‍मों के कारण ही है। हिन्‍दी साहित्‍यकारों में ज्‍यादातर ने अपने नाम से या नाम छुपा कर हिन्‍दी फिल्‍मों के लिए काम किया है। राही मासूम रजा, कमलेश्‍वर और बाद में मनोहर श्‍याम जोशी, फिल्‍मों-सीरियल से जुड़े सबसे ज्‍यादा उजागर नाम रहे। इस संदर्भ में आनंद बक्षी जैसे गीतकार और फिल्‍मी गीत भी याद आ रहे हैं। ''सुनो, कहो, कहा, सुना, कुछ हुआ क्‍या, अभी तो नहीं, कुछ भी नहीं, चली हवा, उठी घटा...'' जैसे गीतों से ले कर मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्‍यासा, तक जैसे गीत। और फिर सलीम-जावेद जोड़ी के फिल्मी संवाद- ‘कितने आदमी थे‘, ‘मेरे पास मां है‘, या ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता‘। यह सब चाहे व्‍यावसायिक-बाजारू, हल्‍का-फुल्‍का और मनोरंजन के लिए गिना जाए, मगर हिन्‍दी की लोकप्रियता, लोगों की जबान पर चढ़ने के लिए कम महत्‍व का नहीं।

हिन्‍दी की पृष्‍ठभूमि मजबूत मानी जा सकती है, वैदिक-लौकिक संस्‍कृत से प्राकृत-पालि और अपभ्रंश हो कर खड़ी बोली तक, लेकिन उसका इतिहास पुराना नहीं है और यही कारण है कि हिन्‍दी के विद्वानों को याद करें तो वे और उनकी पृष्‍ठभूमि में या कहें अधिकार की मूल भाषा उर्दू(अरबी-फारसी), संस्‍कृत या अंगरेजी होती है। यहीं राजाजी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के साथ तमिलभाषी रांगेय राघव और कन्नड़भाषी नारायण दत्त की हिन्दी साधना भी स्मरणीय हैं। आशय यह कि हिन्‍दी सेवा के लिए लगातार सहज भाव से उद्यम आवश्‍यक है और इसमें वक्‍त भी लगना ही है। भाषाएं यों ही खड़ी नहीं हो जातीं। हां, हिन्‍दी की पृष्‍ठभूमि और इतिहास पर मेरी दृष्टि में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की दो पुस्‍तकें, हिन्‍दी साहित्‍य का आदिकाल और हिन्‍दी साहित्‍य की भूमिका के साथ उनके कुछ निबंध सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण हैं।

हम में से अधिकतर, बच्‍चों के सिर्फ अंगरेजी ज्ञान से संतुष्‍ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्‍कृत फिर गौरवान्वित होते हैं। चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के हिन्‍दी नाम और 1 से 100 तक की क्‍या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्‍चा कहता है, क्‍या पापा..., पत्‍नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं। आगे क्‍या कहूं आप सब खुद समझदार हैं।

मैं सोचने लगा कि क्‍या हम भाषा में सोचते हैं और हां तो मैं किस भाषा में सोचता हूं। लगता है, रोजमर्रा काम-काज को हिन्‍दी और छत्‍तीसगढ़ी में, गंभीर अकादमिक विषय-वस्‍तु, अंगरेजी और हिन्‍दी (उर्दू शामिल) में कभी संस्‍कृत में भी और किसी विद्वान का सहारा हो तो इंडो-आर्यन और इंडो-यूरोपियन तक। मन की ठाट, अपनी पहली जबान, सिर्फ छत्‍तीसगढ़ी में (सरगुजिया, हल्‍बी शामिल) और कभी इससे अलग तो भोजपुरी या बुंदेली में। बोलने में सबसे सहज छत्‍तीसगढ़ी, फिर हिन्‍दी को पाता हूं, कभी लंबी सोहबत रही तो जबान पर भोजपुरी और बुंदेली भी आ जाती है। कोई जर्मन, फ्रेंच या इटैलियन मिल जाए सिर्फ तभी अंगरेजी। पढ़ने में हिन्‍दी सहजता से, अंगरेजी सुस्‍ती से और छत्‍तीसगढ़ी (बचपन में बांगला) कठिनाई से। मैं हिन्‍दी का प्रबल पक्षधर, क्‍योंकि जिसे जो भी और जितनी भी आती है, हिन्‍दी ही आती है। जी हां, मेरे सहज लिख पाने की भाषा सिर्फ और सिर्फ हिन्‍दी है।

सवाल होता है, हिन्‍दी दिवस मनाने से क्‍या होगा? पता नहीं, लेकिन जवाब मैं इस सवाल से मिला कर ढूंढने का प्रयास करता हूं, क्‍या जन्‍म दिन मनाने से आयु बढ़ जाती है?

यहां आई अधिकांश बातें आशय मात्र हैं, तथ्‍य की दृष्टि से भिन्‍न हो सकती हैं। कभी टिप्‍पणी, कभी मेल पर या यहां-वहां लिख चुका हूं, वही तरतीबवार जोड़ने का प्रयास है। किसी का नाम लेने-छोड़ने या सूची बनाने का प्रयास यहां कतई नहीं है। सभी, खासकर अज्ञात, अल्‍पज्ञात हिन्‍दी सेवियों को नमन।