राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए बहस के कुछ मुद्दे
1. शिक्षा के उद्देश्य - शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकताओं की उपलब्धि के लिए शिक्षा पद्धति के ढांचे में मूलभूत परिवर्तन से ही उद्देश्यों की प्राप्ति संभव है। स्वाभाविक ही यह सुदीर्घ योजना होगी और शिक्षा के उपादानों यथा- समाज, राजनीति और आर्थिक व्यवस्था को भी प्रभावित करेगी, किन्तु वर्तमान स्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसका यथाशीघ्र अमल में लाया जाना अत्यंत आवश्यक हो गया है।
शिक्षा के उद्देश्यों की उपलब्धि में वर्तमान प्रणाली की अप्रासंगिकता स्वयं स्पष्ट है, इसलिए इसमें किसी छोटे-मोटे बदलाव से स्थितियों में कोई अंतर संभव नहीं जान पड़ता। इस दृष्टि से देश में आजादी के बाद से किए गए विचार-प्रयासों में, जिसमें प्रो. हुमायूं कबीर और उसके बाद 1964 में गठित कोठारी आयोग की अनुशंसाओं के प्रस्ताव को 1968 में शासन ने स्वीकृत किया था, इसके बाद भी प्रस्तावित 10+2+3 पद्धति पूर्णतः व्यवहार में न आ सकी, इसका अर्थ वैसा ही निष्प्रभावी साबित हुआ, जैसा बोर्ड की परीक्षा के लिए किसी एक के स्थान पर अन्य कक्षा कर नियत किया जाना या प्राथमिक-माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई में कक्षाओं का बढ़ा दिया जाना।
वस्तुतः ‘10‘ अर्थात हाई स्कूल की दस कक्षाएं, प्रजातांत्रिक राष्ट्र की आवश्यकतानुसार, साक्षरता और नागरिकों में प्रजातंत्र की सामान्य समझ विकसित किए जा सकने की कक्षाएं हैं। ‘2‘ अर्थात हायर सेकेन्डरी या इन्टरमीडिएट कक्षाओं का स्वरूप रोजगारपरक व तकनीकी होना चाहिए और जिसे उत्तीर्ण करने के बाद गांधी जी के सिद्धांतों के अनुसार हस्तकौशल या स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहन व सहायता दी जानी चाहिए और ‘3‘ अर्थात प्रारंभिक डिग्री कोर्स विभिन्न स्तर की प्रशासनिक सेवाओं के लिए या उच्च अध्ययन की पृष्ठभूमि की कक्षाएं होनी चाहिए। दरअसल छोटे-मोटे काम-धंधे, जो व्यक्ति या उससे संबंधित परिवार की आवश्यकता पूरी कर सके।
शासन की नीति, सुविधा एवं यथोचित शिक्षा निदर्शन का अभाव होने के कारण नौकरी प्रति ललक और तत्जनित बेरोजगारी में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। 10+2+3 व्यवस्था का लागू किया जाना, प्रत्येक स्तर पर चयन-प्रवेश परीक्षाएं, (शिक्षा नीति के मूल ढांचे के परिवर्तन से परीक्षा पद्धति भी परिवर्तित होगी) पाठ्यक्रम की एकरूपता, शिक्षण संस्थाओं को एक जैसी सुविधा आदि, जो केन्द्रीय शासन के नियंत्रण से राज्य शासन नियोजित करेगी, तभी शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
2. नियोजन, प्रशासन और संशोधन - शिक्षा आयोगों और समितियों द्वारा पूर्व में यह प्रस्ताव दिया जा चुका है कि शिक्षा पर केन्द्र शासन का नियंत्रण और राज्य शासनों द्वारा उनका क्रियान्वयन हो तथा संविधान की सातवीं अनुसूची में प्रशासन की दृष्टि से परिवर्तन की संभावना है, जो संविधान के वर्तमान ढांचे में संभव है, अतः इस प्रकार की व्यवस्था, जिसमें मूल्यांकन भी समय-समय पर केन्द्र शासन करता रहे, आवश्यक है। विभिन्न शिक्षाशास्त्री एकमतेन यह स्वीकार करते हैं कि शिक्षा का स्वरूप देश की स्थितियों के अनुरूप हो। इसी उक्ति के अनुकरण में विभिन्न क्षेत्रों में संस्थाओं की स्वायत्तता तथा समन्चय के प्रश्नों का हल निकाला जाना चाहिए।
3. शिक्षण की गत्यात्मकता - परम्परावादी पाठ्यक्रम व पद्धति के विकल्प में NCERT जैसी संस्था द्वारा तैयार की गई पुस्तकें व पाठ्यक्रम समान रूप से लागू की जा सकती है और पद्धति के विकल्प में ‘10+2+3‘ को आवश्यकता के अनुरूप यथोचित और उसके परिवर्धित रूप को विकल्प बनाया जा सकता है, परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन के लिए कक्षाओं की परीक्षा में अवश्य ही वाह्य परीक्षा को महत्व दिया जाना चाहिए किन्तु चयन अथवा प्रवेश परीक्षाओं में आंतरिक परीक्षा की भूमिका तुलना में अधिक होनी चाहिए।
उच्चशिक्षा-शोधपरकता, अध्यापन और विशिष्टीकरण के लिए सभी क्षेत्रों में होनी चाहिए। पाठ्यक्रम की समानता व शिक्षा सुविधाएं मुहैया करा कर देहाती संस्थाओं का स्तर उन्नत किया जा सकता है। उच्च शिक्षा की वर्तमान में उपयोगिता न्यून है किन्तु पूर्व-उल्लेख के अनुसार इन्हें उपयोगी बनाया जा सकता है। शिक्षा के अतिरिक्त गतिविधियां, शिक्षा को प्रोत्साहन देंगी ही, आत्मविकास के लिए भी आवश्यक है।
4. शिक्षक - शिक्षकों की कुछ समस्याएं तो सामान्य जन की समस्याओं जैसी ही हैं। किन्तु उपयुक्त चयन प्रणाली (वर्तमान प्रणाली भी विशेष दोषपूर्ण नहीं) अपनाकर उचित पात्रों का चयन और यथासमय उन्हें प्रशिक्षण देना चाहिए।
5. प्रशिक्षण- कक्षा की पढ़ाई जितनी ही आवश्यक, विषय से संबंधित अन्य पक्षों पर चर्चा, कर्मशालाएं अत्यंत आवश्यक हैं अर्थात शिक्षा में छात्र व शिक्षकों की क्रियात्मक और वैचारिक भागीदारी आवश्यक है। इस आवश्यकता का स्वरुप उपलब्ध कराई जा सकने वाली सुविधाओं पर निर्भर है और अवधि कम से कम मूल अध्ययन विषयों को दिए जाने वाले समय का चौथाई भाग उपरोक्त के लिए नियत करना चाहिए।
6. उच्च शिक्षा प्रवेश नीति- विश्वविद्यालयों को बेरोजगारों की भीड़ पैदा करने से बचने के लिए उपयुक्त प्रत्याशियों को प्रवेश देना होगा। ताकि उच्च शिक्षा में एकाग्र व गुणात्मक विकास हो सके। 10+2+3 के अनुरूप प्रवेश परीक्षाएं आवश्यक हैं।
7. शैक्षिक विकेन्द्रीकरण- शिक्षा की जिम्मेदारी समाज से होते हुए व्यक्तिशः होनी चाहिए। किन्तुु यह परिवर्तन लंबी काल अवधि में संभव है। अतः जनसामान्य की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए क्रमशः परिवर्तन किया जाकर उसका उत्तरदायित्व इस विशाल लोकतंत्रात्मक की प्रत्येक इकाई व्यक्ति तक पहुंचेगी। इसी प्रकार उसमें समाज की सहभागिता भी आवश्यक है, जिससे हाई स्कूल तक अनिवार्य व निशुल्क शिक्षा पूर्णतः स्वीकार हो। इसे लादने की जरूरत न रह जाए।
8. छात्र- छात्र व छात्रसंघ जैसी इकाई वास्तव में आज शिक्षा की सर्वाधिक विसंगत स्थिति के द्योतक हैं। छात्रों की निराशा, हताशा, अंधकारमय भविष्य तथा प्रशासन में राजनीति का हस्तक्षेप की दृष्टतव्यता से छात्र संघ और छात्र जगत का संपूर्ण वातावरण समस्यात्मक स्थिति में है। युवकों का स्वावलंबन ही उनकी प्राथमिक समस्या है, जिसका हल निश्चय ही उस विसंगत स्थिति को काफी हद तक संवार सकता है।
9. शोध- शोध की आवश्यकता, स्वरुप के संबंध में पूर्वोल्लेख है, इस भांति शिक्षा के बाद बेरोजगारी को शोध का आवरण देने से संख्यात्मक वृद्धि ही संभव है, गुणात्मक विकास की दृष्टि से शिक्षा लगभग जहां की तहां ही है। भारतीय इतिहास, संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर (मौलिक) शोध निश्चय ही राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की दिशा में सहायक होगा।
10. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग- केन्द्र व राज्य शासन के प्रशासनिक और नियंत्रक शक्तियों का नियमन किए जाने से ही आयोग का व्यवस्थापन संतोषप्रद हो सकेगा।
11. मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा अनुदान आयोग की भूमिका- यथोक्त।
12. अन्य- स्थानीय सांस्कृतिक, धरोहर और लोककलाओं, जिसमें हस्तशिल्प व अन्य लघु ग्रामोद्योग भी सम्मिलित हैं, का शिक्षा में समावेश आवश्यक रूप से हो।