Showing posts with label पंडुक. Show all posts
Showing posts with label पंडुक. Show all posts

Tuesday, June 21, 2011

पंडुक-पंडुक

पंडुक, पंडुक से पंडुक-अंडा फिर पंडुक-बच्‍चा और फिर पंडुक-पंडुक। पिछली पोस्‍ट पंडुक का वाक्‍य है- ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट, का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है।'' उस पोस्‍ट पर उत्‍साहवर्धक टिप्‍पणियां भी मिलीं, जिनमें से एक, संजय जी की थी- ''गुडलक टु पेंडुकी परिवार।'' सुब्रह्मनि‍यन जी ने लिखा- ''अण्डों को सेने के बाद वाली स्थितियां अनुकूल रहें''। अभिषेक जी ने कहा- ''नये पंडुक आयें तो फिर तस्वीर पोस्ट कीजियेगा।'' आशा जोगलेकर जी ने भी इसी तरह की बात कही। अब अच्‍छी खबर है तो लगा, परिशिष्‍ट के बजाय पोस्‍ट क्‍यूं नहीं।

18 मई की अलस्‍सुबह जच्‍चा एकदम सजग-सक्रिय दिखी और अंडे के इस बाइसवें दिन सुबह साढ़े छः बजे पहला चूजा निकला। जच्‍चा, खोज-खबर ले कर, आश्‍वस्‍त दाना-चारा के लिए निकल गई। हमने एक कटोरी में उसके चारे का इंतजाम किया। वह बस हमारा मन रखने को ही मनुहार करती लेकिन चारा चुगने फिर निकल जाती और कटोरी के चारे का जश्‍न मनातीं गौरैया। गौरैया की इतनी चहल-पहल से पंडुक अनमनी होने लगती और कभी पंख भी फड़फड़ाती।
चूजे की हलचल बढ़ गई, वह गमले के किनार तक आ जाता, एक बार तो बाहर गिरते-गिरते बचा। जच्‍चे की अनियतता देख कर लगा कि दखल जरूरी है, सो सावधानी से चूजे को अंडों व पूरे घोंसले सहित उसी जगह पर एक ऊंचे किनार वाले चौड़े गमले में रख दिया।
लगभग तीन घंटे बाद जच्‍चा आई, आधे घंटे थोड़ी विचलित रही, लेकिन जल्‍दी ही एक-दो परिक्रमा कर इस नई व्‍यवस्‍था को अपना लिया। पहले से चार घंटे बाद दूसरा चूजा निकला। दोनों चूजे कभी अलग तो कभी लट-पट होते। जच्‍चा, कभी अंडों के साथ चूजों को भी ढक लेती तो कभी दोनों पर अपनी चोंच आजमाती दिखती।
गमले में चींटियां दिखीं और एक बार फिर व्‍यवस्‍था बदलनी पड़ी। चूजा, यूं दुबका बैठा रहता, लेकिन जच्‍चा, जो सुबह-दोपहर-शाम दिन में तीन बार आती, के आते ही जो दृश्‍य बनता, वह कुछ इस तरह होता।
मई की तारीख पूरी होते-होते चूजे के सिर पर रोएं घने होने लगे, बॉडी लैंग्‍वेज पंडुक की होने लगी और 1 जून को यानि 26 अप्रैल से छठां हफ्ता पूरा होने पर और यह चूजा, अपना तीसरा हफ्ता पूरा होते-होते गमले के बार-लांचिंग पैड पर आ बैठा।
लग‍भग आधे दिन यहीं डोलता-खुद को तोलता रहा और फिर उड़ान भर ली। हम सबको कुछ और समय लगेगा, पंडुक के साथ की आदत बदलने में, अभी तो वह मन में घर किया बैठा ही है।

Monday, May 9, 2011

पंडुक

26 अप्रैल 2011, मेरे लिए अब खास तारीख है। अपने पंछी-प्रेम की घोषणा आसान हो सकती है, लेकिन पंछी भी बच्चों की तरह आप पर आसानी से भरोसा नहीं करते। बड़े होते बच्चों को बहला-फुसला सकते हैं, लेकिन चिड़ियों को नहीं। पालतू बन जाने वाले कुछ पक्षियों को छोड़ दें, लेकिन उनमें भी तोते के लिए कहावत है 'सुआ, सुई और ... एक जाति, जान-पहचान के चलते मुरव्वत नहीं करते, बस नजर चूकी और काम हुआ। ... सालिम अली और जिम कार्बेट के चित्र जरूर देखने को मिलते हैं, जिनमें कोई चिड़िया उनके कंधों पर, हाथ में या हैट पर बैठी हो।

आत्म-केन्द्रित इस पोस्ट की संक्षिप्त भूमिका के साथ पृष्ठभूमि कि हफ्ते भर कभी-कभार और दो-तीन दिन लगभग लगातार एक पंडुक (Dove या Streptopelia senegalensis) दिखाई पड़ने लगी। आती, एकदम सजग। अच्‍छी तरह निरखा-परखा। घर में कोई अबोध-उधमी तो नहीं। सांप, चूहे-बिल्‍ली की तो दखल नहीं। हवा-पानी, सरद-गरम, ओट सब मुआफिक, निरापद। पंडुक पर मेरी भी निगाह बनी रही। मैदानी छत्‍तीसगढ़ में यही चिडि़या पंड़की (बघेलखंड से लगे क्षेत्र में पोंड़की) कही जाती है और अपनी जाति की बुढ़ेल, बनइला, छितकुल, चोंहटी और ललपिठवा से अलग पहचानी जाती है।

दसेक दिन बीतते-बीतते, इस यादगार तारीख 26 अप्रैल को सुबह देखा कि पंडुक ने मेरी नियमित बैठकी से सिर्फ 10 फुट दूर रखे गमले में दो अंडे दिए हैं। 28 अप्रैल को शाम से मौसम खराब रहा, वह रात भर नहीं दिखी, 29 अप्रैल को कम दिखी, फिर अनुपस्थित रही, 3 मई को पुनः दिखाई पड़ी, लेकिन यह चिड़िया आकार में कुछ बड़ी जान पड़ती है, नर जोड़ा तो नहीं ? फिर उसने रात बासा किया और 4 मई को सुबह तीसरा अंडा दिखा। 5 मई को चौथा अंडा भी दिखा। 8 मई को उसने एक अंडा अलग हटा दिया, लेकिन मैंने मान लिया कि पंडुक ने मुझे पक्षी-प्रेमी होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। नेचर सोसाइटी और बर्ड वाचिंग क्‍लब की सदस्‍यता लेने का दीर्घ लंबित इरादा फिर मुल्‍तवी।

पंडुक आते-जाते अंडे ''से'' रही है, पूरे धैर्य के साथ, लेकिन मेरा काम सिर्फ निगरानी से तो नहीं चलेगा, मुझे पोस्ट भी तो लगाते रहना होता है, फिर आत्मश्लाघा का ऐसा अवसर। खुद को बहलाने की कोशिश की, थोड़ी खोजबीन कर पंडुक पर एक कायदे की पोस्ट बने तब लगाना ठीक होगा। याद कर रहा हूं- ''वो भी क्या दिन थे, जब फाख्‍ते उड़ाया करते थे'' ज्यों ''वे भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था।'' शायद पंडुक से आसान शिकार कोई नहीं- ''बाप न मारे पेंडुकी (कभी मेंढकी भी), बेटा तीरंदाज'' और ''होश फाख्‍ता हुए'' कह कर, इस पंछी का नाम उड़ने के पर्याय में तो इस्तेमाल होता ही है। ईसाईयों में पवित्र आत्‍मा का प्रतीक और चोंच में जैतून की डंठल लेकर उड़ती चिडि़या, पंडुक ही है। छत्‍तासगढ़ी गीत ''हाय रे मोर पंडकी मैना, तोर कजरेरी नैना, मिरगिन कस रेंगना'' में पंडकी, प्रेम-संबोधन है। पंडुक का मनियारी गोंटी चरना (छोटे, गोल और चिकने मणि-तुल्‍य कंकड़ चुगना), साहित्यिक मान्‍यता नहीं, देखी-जांची हकीकत है।

इस पंछी के कुछ और संदर्भ याद आ रहे हैं। डेनियल लेह्रमैन का कथन- ''हरेक अच्छे प्रयोग को उत्तरों से ज्यादा सवाल खड़े करना चाहिए।'' (Every good experiment has to raise more question than its answers.- Daniel S Lehrman) उद्धृत करता रहा हूं, लेकिन इसी दौरान जान पाया कि यह बात उन्होंने पंडुक के प्रजनन व्यवहार के संदर्भ में ही कही है।

रेणु की परती परिकथा के आरंभ में वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी पंडुकी व्यथा समझती है और वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है- तुर तुत्तू-उ-उ, तू-उ, तु-उ तूः। कुमाऊंनी लोककथा में घुघूती यानि पंडुक ''पुर पुतइ पुरै पुर'' बिसूरती फिरती है। इससे मिलती-जुलती बस्‍तर की भतरी लोककथा में पंडुक रो-रो कर अपने मृत बच्‍चे को जगाती है- 'उठ पुता, उरला-पुरला' और हल्‍बी छेरता गीत की पंक्ति है- 'झीर लिटी, झीर लिटी, पंडकी मारा लिटी।' शायद इन्‍हीं से प्रेरित हैं छत्तीसगढ़ के कवि एकांत श्रीवास्तव की 'पंडुक' कविता-

''जेठ-बैशाख की तपती दोपहरें
........................
पृथ्वी के इस सबसे दुर्गम समय में
वे भूलते नहीं हैं प्यार
और रचते हैं सपने
अंडों में सांस ले रहे पंडुकों के लिए''

परती परिकथा का समापन है- ''पंडुकी नाच-नाच कर पुकार रही है- तुतु-तुत्तु, तुरा तुत्त। ... ... ... आसन्नप्रसवा परती हंसकर करवट लेती है।'' मानों बिसूरती पंडुक अब लाफिंग डॉव है।

खुद को इससे अधिक बहला पाने में असफल, सोचते हुए कि ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट'' का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है। फिलहाल यही जारी कर रहा हूं, पंडुक के हवाले से, हस्ताक्षरित नहीं चित्राक्षरित, बिना पदमुद्रा के लेकिन प्राधिकारपूर्वक स्वयं से, स्वयं को, स्वयं के लिए टाइप।
  • यों, पंछी-प्रेम के इस प्रमाण-पत्र पर मुझसे अधिक घर के बाकी सदस्यों का अधिकार बनता है, क्योंकि वे ही पूरे समय घर में रहते हैं, लेकिन 'कलम' की ताकत है, सो यह खुद के नाम कर लिया है।
  • गलतफहमी न रहे, खासकर शाकाहारवादियों को स्पष्ट कर दूं कि मैं (घर के अन्‍य सदस्‍यों सहित) सर्वभक्षी नहीं तो 'हार्ड कोर' मांसाहारी अवश्‍य हूं।
  • यह भी कि रायपुर में घरों के इर्द-गिर्द गौरैया के बाद सबसे आम यही चिड़िया, पंडुक दिखाई देती है।
याद करता हूं, नृतत्‍व-मनोविज्ञान में आहार, निद्रा, भय, मैथुन के अलावे मूल प्रवृत्ति के रूप में 'मातृत्‍व' (वात्‍सल्‍य या mother instinct) हाल के वर्षों में मान्‍य-स्‍थापित हुआ है। कल 8 मई 2011 को इस पोस्‍ट (को सेते हुए) की उधेड़-बुन में लगा रह कर, मातृत्‍व-वंचित वर्ग के सदस्‍य के रूप में मातृत्‍व-संपन्‍न नृवंशियों को नमन करते हुए, मातृ-दिवस मनाया।