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Friday, March 11, 2011

सबको सन्मति ...

राष्ट्रीय स्तर पर उपजी विसंगत स्थितियों का विचार करते हुए ईश्वर के बहाने गांधी ही याद आते हैं, यही कारण होगा कि मायाराम सुरजन जी के संकलन का शीर्षक है-'सबको सन्मति दे भगवान', मानों गांधीजी की प्रार्थना सभा । पुस्तक में अस्सी के दशक और नब्बे के शुरूआती वर्षों में हुई सामाजिक उथल-पुथल की पड़ताल करते लेख हैं। यह कालखण्ड है- अयोध्या विवाद, शहबानो, काश्मीर, सिख और तथाकथित ईशपुरूषों का, साथ ही रायपुर से जुड़े तत्कालीन कुछ प्रसंग, जो भारतीय सामाजिक दशाओं की निगरानी के लिए 'इण्डेक्स' माने जा सकते हैं, ऐसे ही मुद्‌दों पर वैचारिक विमर्श, इस पुस्तक में संग्रहित है। इस तरह पुस्तक की प्रकृति स्वयं 'विश्लेषण और टिप्पणी' की है, अतः अब टिप्पणी के बजाय इसकी अंतरधारा पर चर्चा अधिक समीचीन होगी।

फ्लैप का वाक्य है- ''सारी सांस्कृतिक परम्पराएं जैसे राजनीतिक एवं सामाजिक वहशीपन का शिकार होती जा रही है।'' तल्ख लगने वाली यह टिप्पणी गंभीर विचार के लिए उकसाती है। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र, भारत- धर्म प्रधान देश है, जिसका इतिहास धार्मिक-सामाजिक समरसता के प्रमाणों से सराबोर है, किन्तु इतिहास और परम्पराओं की चर्चा में तथ्यों का चयन और उनकी व्याख्‍या, बहुधा युगानुकूल और जरूरतों के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि 'सत्यार्थ प्रकाश', अपने प्रकाशन काल में धर्मों के तार्किक विश्लेषण का महत्वपूर्ण ग्रंथ, आज कथित उदारता और विकास के दौर में खतरनाक विस्फोटक सामग्री जैसा माना जा सकता है।

'धर्म' की पृष्ठभूमि पर रचित कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र', वस्तुतः 'राजनीति' का ग्रंथ है। यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि यदि समाज का ढांचा आपसी मानवीय संबंध के ताने-बाने पर खड़ा होता है तो वृहत्तर सामाजिक प्रसंग, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और राजसत्ता के माध्यम से आकार लेते हैं, इसलिए इन तीनों सत्ताओं का आपसी तालमेल स्वाभाविक है। पुस्तक में विश्लेषण के ऐसे संकेत लगातार विद्यमान हैं और जहां भी विशेषकर राजसत्ता और धर्मसत्ता का घालमेल हुआ है, उसे प्रखर टिप्‍पणी सहित रेखांकित किया गया है। 'अर्थ' की जमीन पर खड़े 'राज' के सिर पर 'धर्म' का वितान होता है, यह समाज की सम्यक दशा भी मानी जा सकती है, किन्तु इसका व्यतिक्रम कैसे बखेड़े पैदा करता है, उसका दस्तावेज यह पुस्तक है।

पुस्तक का एक महत्वपूर्ण और विचारणीय पक्ष विधायिका, कार्यपालिका से आगे न्यायपालिका और सबसे ऊपर जनता की आवाज पर बातें हैं। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, अखबार से यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है। न्यायपालिका के हस्तक्षेप की स्थिति निर्मित होना या अनावश्यक न्यायपालिका का मुंह ताकना, इस पर उच्चतम न्यायलय द्वारा एकाधिक बार टिप्पणी की जा चुकी है। इस दौर में यह भी गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि घटनाएं और मीडिया की खबरें यदि झुठलाई नहीं जा सकती, तो क्या वे इतनी भी सच होती हैं कि उसे जनता की आवाज मान लिया जाय ॽ हाल के अनुभव से तो घटनाएं, और विशेषकर मीडिया में स्थान प्राप्त घटनाएं, जनता की आवाज का सच नहीं मानी जा सकतीं। यदि एक हकीकत यह है कि घटनाओं का विस्तार अक्सर आयोजित-प्रायोजित होता है, स्वाभाविक नहीं, तो दूसरी तरफ मीडिया के लिए 'उन्माद' की तुलना में 'सद्‌भाव' के खबर बनने की संभावनाएं भी कम होती हैं, यह संकट भी दिनों-दिन गहरा रहा है। धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है और गैर के धर्म की निंदा के लिए भी यही नकाब काम आसान करता है। मीडिया की तटस्थता और निष्पक्षता का नकाब, रोमांचक और आकर्षक खबर परोसने की राह आसान बना देता है। (बड़े खर्च के साथ मौके पर पहुंच कर सनसनी वाली खबर न निकले, तो बात कैसे बनेगी ॽ)

धर्म की उत्पत्ति भय से हुई है, इस पर मतैक्य नहीं है, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं कि इतिहास में बारम्बार और इस दौर में विशेषकर धर्म के साथ संकट, आशंका और भयोन्माद का माहौल रचकर धर्म के फलने-फूलने की तैयारी दिखायी देती है। ऐसा लगता है मानों हमारे देश में दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं के लिए सभी संतुष्ट हैं, अन्यथा मानसिक रूप से स्वावलम्बी स्थिति है, क्योंकि ऐसे कारक सामाजिक स्तर पर संवेदना के कारण नहीं बन पाते, किन्तु धार्मिक मामलों में पूरा देश बहुत जल्दी आश्रित होकर किसी व्यक्ति, किसी मुद्‌दे, किसी अफवाह की गिरफ्त में आ जाता है। यदि सामाजिक गतिशीलता के मुद्‌दे रोजमर्रा की जरूरतें हों, तब शायद स्थिति बदल सकती है।

फिर भी जैसा कि पुस्तक के आरंभ में कहा गया है कि इसमें सांप्रदायिकता और धर्मांधता के खिलाफ लिखे गए लेख संकलित हैं। समाचार पत्र में समय-समय पर छपे इन लेखों की अंतरधारा स्पष्ट है और इसका पुस्तकाकार प्रकाशित होना स्वागतेय है, क्योंकि इन लेखों का महत्व दैनिक और स्फुट मात्र नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और स्थायी स्वरूप का है।

सन 2002 में पाठक मंच, बिलासपुर के लिए मेरे द्वारा तैयार की गई, अब तक अप्रकाशित पुस्‍तक चर्चा। लगा कि पुस्‍तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए स्‍वतंत्र लेख की तरह पठनीय है, सो अब यहां प्रस्‍तुत।