(औपचारिक संबोधन- आयोजन, अतिथियों का उल्लेख, अभिवादन और आभार)
यह अच्छा संयोग बना है कि आज हरेली के दिन हम आदरणीय रोहिणी कुमार वाजपेयी जी की स्मृति में यहां एकत्र हुए हैं। हरियाली का त्यौहार कृषि कर्म का, कृषक जीवन और कृषि संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और जैसा विवेक जी कह रहे थे रोहिणी कुमार जी मूलतः कृषक स्वभाव के थे। वे कृषि के माध्यम से ग्रामीण जन-जीवन, स्वावलंबन और खादी तक भी पहुंचते थे। ऐसे ही कुछ और संयोग याद आ रहे हैं।
उनके नाम के साथ यह विचार रोचक और प्रासंगिक हो सकता है कि रोहिणी को हम दो प्रकार से याद करते हैं- रोहिणी, जो 28 नक्षत्रों में से चौथा नक्षत्र है और रोहिणी, जो बलराम की माता हैं, वसुदेव की पत्नी। बलराम का एक नाम संकर्षण भी है। अब इन दोनों पर थोड़ा विचार करें। बलराम हलधर हैं और यह प्रतीक है कृषि कार्य का। वास्तव में बलराम को कृषि से जुड़ा, कृषक संस्कृति का देवता माना जा सकता है दूसरा, संकर्षण नाम उनका इसलिए आता है, क्योंकि कथा है कि वह जब भ्रूण रूप में थे, देवकी के गर्भ से उन्हें रोहिणी के गर्भ में प्रतिस्थापित किया गया था तो इसे यूं उन्नत विज्ञान का उदाहरण मान लेना मैं उचित नहीं समझता, लेकिन यह जरूर माना जा सकता है कि गर्भ प्रतिस्थापन की अवधारणा या सोच का बीज, बलराम के साथ जुड़ा हुआ है, मगर यह भी संभव है कि यह रोपाई का प्रतीक हो। इसी प्रकार उल्लेख आता है कि बलराम ने मथुरा के पास यमुना के प्रवाह को बलपूर्वक मोड़ दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि यह यमुना के पानी से सिंचाई, नहर-व्यवस्था बनाने की प्रतीक रूप में कथा है।
बलराम का चित्रण एक और रूप में किया जाता है, उन्हें मदिरा-पात्र लिए, चषकधारी दिखाया जाता है, उन्हें मदिरा-प्रेमी बताया गया है किंतु इसके साथ यह उल्लेख बहुत कम होता है, इसकी चर्चा कम होती है कि संभवतः वही पहले ऐसे शासक थे, महाभारत के मौसल पर्व में उल्लेख आता है, जिन्होंने अपने राज्य द्वारकापुरी में मद्य-निषेधाज्ञा जारी की थी यह बहुत महत्वपूर्ण और बलराम के चरित्र का एक उल्लेखनीय पक्ष है। वैदिक, पौराणिक, महाकाव्य ग्रंथ और उसमें जो प्रसंग आते हैं, जिन पात्रों की कथा आती है उन पात्रों की कथा बहुत सूक्ष्म और संकेत रूप में, प्रतीक रूप में बहुत सारी अवधारणाओं को साथ लिए होती है, इसलिए उन्हें समझने का प्रयास व्यापक संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में करना आवश्यक होता है, उनकी व्याख्या वांछित होती है। इस संदर्भ में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा कि बलराम की एक सौतेली माता का नाम भी मदिरा था, एक यह पक्ष भी चर्चा योग्य है।
रोहिणी नक्षत्र का काल सामान्यतः मई के अंतिम और जून के प्रथम सप्ताह का होता है और आप सभी जानते हैं कि मई का अंतिम सप्ताह भीषण ताप का, नौतपा का होता है। आप यह भी समझ सकते हैं जो रोहिणी कुमार जी के व्यक्तित्व से परिचित हैं कि यह उल्लेख क्यों कर रहा हूं। अगर कोई ऐसी स्थिति हो जो उन्हें अनुचित लगती हो, अप्रसन्न हों तो वे नौतपा की तरह तमतमा जाते थे, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे लेकिन उसके बाद उनके व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष, नौतपा बीतते ही स्नेह की बारिश जैसा भी उतनी ही जल्दी और उतनी ही उदारता से सामने आता था।
एक संयोग यह कि आज का अवसर मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भी पितृ पुरुषों के स्मरण का है। मेरे पिता और रोहिणी कुमार जी सहपाठी रहे हैं। मेरे पिता और रोहिणी कुमार जी के अन्य सहपाठी सीएमडी कॉलेज के दुबे परिवार वाले राजाबाबू दुबे जी थे, जब भी मिलते सांसारिक आडंबर और हकीकत का रूप बेनकाब करते। टिकरापारा वाले व्यंकटेश तेलंग जी, जिन्होंने छत्तीसगढ़ में यूथ हॉस्टल एसोसिएशन आरंभ किया, बापट जी वाले सोंठी कुष्ठ आश्रम में सेवाएं देते रहे। इसके साथ डॉ शंकर तिवारी जो प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता रहे हैं, कुटुमसर गुफा की खोज उन्होंने की थी। पुरातत्व के क्षेत्र में भीमबेटका का ‘एस बेल्ट‘ खोजा और प्राचीन सिक्कों, लिपि के भी अच्छे जानकार थे। वे मध्यप्रदेश पर्यटन मंडल के पहले अध्यक्ष रहे और तब छत्तीसगढ़ समाहित मध्यप्रदेश का पर्यटन नक्शा पहली बार उन्हीं के कार्यकाल में बना था। आप सभी से मुझे पुत्रवत स्नेह मिलता रहा है। तो इन सभी गुरुतुल्य पितृ पुरुषों को याद करते हुए एक और संयोग का उल्लेख करना चाहता हूं कि रोहिणी कुमार जी के ज्येष्ठ पुत्र जो मेरे हमनाम भी हैं राहुल और व्यंकटेश तेलंग जी की पुत्री शुभदा, जो अब शुभदा जोगलेकर, माउंट लिटेरा जी स्कूल की कर्ता-धर्ता हैं, 1974-75 में एसबीआर कॉलेज में, हम तीनों भी सहपाठी रहे हैं।
प्राचीन इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में रोहिणी कुमार जी की गहरी पैठ थी। इस क्षेत्र में उनकी रुचि आत्म गौरव को उजागर करने वाली और प्रेरणा देने वाली थी। उनकी रुचि का विशेष कालखंड वही है जो भारत के इतिहास में अंधकार युग कहा जाता है यानी ईसा पूर्व और ईसा की दो-दो सदियां, इस तरह जो लगभग चार-पांच सौ वर्षों का काल है, वह काल भारत के इतिहास का अंधकार युग माना जाता है। उनकी रुचि इस कालखंड के इतिहास में विशेष रूप से थी। साथ ही पुरातत्व के अनछुए पहलुओं पर उनका ध्यान केंद्रित रहता था। मैं मानता हूं कि जिस तरह से किसी नई वस्तु का, भविष्य का, उस में प्रवेश करने का रोमांच और जिज्ञासा होती है उसी तरह उनमें भूत का, अनजान इतिहास के अंधकार में प्रवेश का साहसिक उत्साह होता था। अपने इतिहास में प्रवेश का उद्यम, दरअसल एक साहसी व्यक्ति का ही होता है जो एक अनजाने क्षेत्र में, अंधकार के क्षेत्र में, भूत के क्षेत्र में प्रवेश कर, उसे भेदना चाहता है और उसके रोमांच को महसूस करता है।
छत्तीसगढ़ के मिट्टी की दीवाल और खाई यानि प्राकार-परिखा वाले गढ़ों में भी उनकी खासी रूचि रही। कभी उन्होंने रहौद में गढ़ होने की बात बताई थी, मुझे इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं था इसलिए मैंने संदेह व्यक्त किया तो उनकी कही बात अब भी मेरे कानों में गूंजती है, ‘वहां जब कभी जाओ तो देखना वहां ठुठुआ देवांगन का मकान है उसके आंगन और उसकी बाड़ी को देखना वहां किस तरह का टीला, कैसा माउंड है और उसकी बाड़ी के अंदर आगे बढ़ोगे तो तुम्हें वहां ढेर सारे पुराने मिट्टी के बर्तन और अवशेष यों ही देखने को मिलेंगे।‘ वहां जाने का अवसर मिला और तब मैंने देखा कि पामगढ़ के तो नाम में ही गढ़ है, वहां के गढ़ को सभी जानते भी हैं, लेकिन रहौद और उसके अलावा पामगढ़ से शिवरीनारायण तक हर पांच-सात किलोमीटर इस तरह के गढ़ और खाई के अवशेष अभी भी हैं। यह उन्हीं की प्रेरणा थी जिसके कारण यह इस तरह से देखने का, इसे समझने का अवसर मिला। पुरातत्वीय अन्वेषण की ऐसी दृष्टि, कुछ संस्कार मुझे उनसे मिले।
मल्हार के गढ़ में भी उनकी विशेष रूचि थी और यह रुचि मुख्यतः मल्हार से प्राप्त होने वाले प्राचीन सिक्कों और शिलालेख के कारण थी। मल्हार से प्राप्त होने वाले पुरावशेषों के प्रति वे ग्रामवासियों को तो जागरूक करते ही रहते थे, स्वयं सजग रहते थे। इसी क्रम में 1980 में एक शिलालेख मल्हार से प्राप्त हुआ था, जिसे बिलासपुर में पदस्थ तत्कालीन पुरातत्व अधिकारी श्री रिसबुड ने उनके सहयोग से बिलासपुर संग्रहालय के लिए संग्रहित किया। अब वह शिलालेख बिलासपुर संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह महत्वपूर्ण शिलालेख, लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी का है। इस शिलालेख का अध्ययन और प्रकाशन पुरातत्वविदों द्वारा किया गया। यह स्मृति-लेख है, जिसमें राधिक, उपझाय, इसिनाग जैसे शब्द पढ़े गए। उसके पाठ और अनुवाद को लेकर आपने अपना मतभेद प्रकट किया। वे पुरातत्व के क्षेत्र में भाषा, यानी यह शिलालेख जो प्राकृत में था और जिसकी लिपि ब्राह्मी थी, तो वे प्राचीन लिपि और प्राचीन भाषा के भी जानकार थे और इसकी पुनर्व्याख्या करते हुए अपनी टिप्पणी की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि मूल पुरावशेष के स्वयं परीक्षण या उसका बारीक, स्पष्ट और विस्तृत विवरण अध्ययन के लिए आवश्यक होता है।
इसी तरह मल्हार से जो विभिन्न सिक्के प्राप्त होते थे बड़ी संख्या में उनका उन्होंने परीक्षण किया था। ऐसे तांबे के चौकोर सिक्के, देवी-लक्ष्मी और गज प्रकार के रूप में जाने जाते हैं। ऐसे और इससे मिलते-जुलते सिक्के बड़ी मात्रा में मिले जिनका उन्होंने परीक्षण किया। ऐसे सिक्कों पर सामान्यतः लिपि या किसी तरह का लेख नहीं होता लेकिन उन्हें परीक्षण के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि इनमें ऐसे भी सिक्के हैं, जिन पर लेख, कुछ ब्राह्मी के अक्षर अंकित हैं। इससे इतिहास का एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर होने का रास्ता बना। तब तक पुराणों के माध्यम से जानकारी थी कि मघ वंश के शासकों का इस क्षेत्र में, दक्षिण कोसल में राज्य था लेकिन इस पौराणिक साहित्यिक स्रोत के अलावा इसकी पुष्टि के लिए और कोई सामग्री नहीं मिली थी। इन सिक्कों की प्राप्ति से पुरातात्विक स्रोत के रूप में ऐसी सामग्री प्राप्त हुई जिन पर मघ वंश के विभिन्न शासकों के नाम पढ़े गए। इससे यह पुष्ट रूप से प्रमाणित हुआ कि ईसा की आरंभिक सदी में, दक्षिण कोसल क्षेत्र में मघों का आधिपत्य या प्रभाव रहा था यह एक महत्वपूर्ण पृष्ठ इतिहास में जुड़ा।
वे किसी बेहद सजग इतिहासकार की तरह, परंपरा से, प्राचीन वस्तुओं, पुरावशेषों से, साहित्य से, सभी स्रोतों से कण-कण जानकारियां एकत्र करने के लिए उत्सुक और प्रयत्नशील रहते थे और इन सभी कड़ियों को आपस में जोड़कर इस अंचल के माध्यम से पूरे भारतीय इतिहास के उन पक्षों को उद्घाटित और प्रकाशित करना चाहते थे जो हमारे आत्म गौरव का विषय हो सकता है हमारे लिए प्रेरक हो सकता है। और इस तरह के जागरण का सार्थक प्रयास उन्होंने किया था।
अपनी बात कहते हुए मुझे यह ध्यान में बराबर है कि आज डॉक्टर त्रिवेदी जी का वक्तव्य है, वे इस आयोजन के मुख्य वक्ता हैं, नवजागरण के दौर की चर्चा करने वाले हैं। डॉक्टर त्रिवेदी के उद्बोधन के प्रति सदैव उत्सुकता रहती है, उसी उत्सुकता सहित निवेदन कि व्यक्ति अपने अवदान से अमर होता है और प्रासंगिकता उसके विचार, उससे मिले संस्कार, उस परंपरा की होती है, जिस दृष्टि से रोहिणी कुमार जी की प्रासंगिकता सर्वकालिक है, उनके साथ तालमेल बिठाते देखना होगा कि हम उनके विचारों के परिप्रेक्ष्य में कितने प्रासंगिक हैं।
आप सभी को, अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय और माननीय कुलपति जी, आयोजकों को धन्यवाद देता हूं कि मुझे आप सबके बीच उपस्थित हो कर, आदरणीय रोहिणी कुमार जी के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर दिया, पुनः धन्यवाद।