सत्यं कटु न हो मगर प्रियं होने से अच्छा है कि वह सुंदरं हो और ऐसा तब होता है, जब सत्यं, सहजं हो। इसी सत्यं सहजं के दर्शन होते हैं 75 वर्षीय डॉ. नलिनी श्रीवास्तव में। 2007 में प्रकाशित, 8 खंडों और लगभग 5000 पृष्ठों वाले, ‘पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ग्रन्थावली‘ का संपादन आपने किया है। बख्शी जी के बड़े सुपुत्र महेंद्र कुमार बख्शी जी की ज्येष्ठ पुत्री नलिनी जी ने 1986 में अपने दादाजी पर पी-एच डी की, विषय था, ‘हिन्दी निबंध की परम्परा में बख्शी जी के योगदान का अनुशीलन‘।
बताती हैं किस तरह बख्शी जी की रचनाओं को एकत्र किया, तब जीवनसाथी, श्रीवास्तव जी (वही जैसा गायक का नाम था, यानि किशोर कुमार श्रीवास्तव जी) का सहयोग होता था। ‘यात्री‘ जैसी उनकी कुछ पुस्तकें बस देखने को मिलीं तो दिन-रात लग कर स्वयं कापी पेन नकल बनाई। अब भी सृजन-सक्रिय, सजग-स्मृति संपन्न हैं। फिटनेस की तारीफ को सहजता से स्वीकार करते कहती हैं, लिखती-पढ़ती रहती हूं, स्वास्थ्य ठीक रहा है, न शुगर न बीपी, सिरदर्द भी नहीं हुआ।
बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष ललित कुमार जी के आमंत्रण पर अरविंद मिश्र जी, आशीष सिंह जी और राकेश तिवारी जी के साथ भिलाई गया। पूर्व अध्यक्षों में मध्यप्रदेश के दौरान गठित इस पीठ के पहले अध्यक्ष प्रमोद वर्मा जी, छत्तीसगढ़ गठन के बाद सतीश जायसवाल जी, बबन मिश्र जी, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र के कार्यकाल के साथ, पीठ के गठन के और इसके महत्वपूर्ण कारक कनक तिवारी जी की स्मृतियां ताजी होती रहीं। लंबे समय बाद सुअवसर बना नलिनी जी से प्रत्यक्ष मुलाकात का। फोन पर चर्चा जरूर होती रही। एक प्रसंग- बख्शी जी की एक रचना ‘कला का विन्यास‘ टटोल रहा था। ग्रन्थावली में न पा कर उन्हें फोन किया। पहले लगा कि उनका जवाब अनमना सा है- ‘देख लीजिए, निबंध वाले खंड में होगा‘ साथ ही पूरे भरोसे से यह भी कहा कि इस शीर्षक से तो उनका कोई निबंध नहीं है।
मैंने निबंध का पहला पेज उन्हें वाट्सएप किया, फिर पहला पैरा पढ़ कर सुनाया कि शैली तो उन्हीं की है, वे सहमत हुईं, फिर कहा कि देख कर बताउंगी। मुझे बिलकुल अनुमान न था कि इस बात ने उन्हें कितना बेचैन कर दिया है। देर शाम हुई बात के जवाब में अगली सुबह ही फोन आ गया कि खंड 1, पेज 223 देखिए। फिर बताया कि मुझसे बात होने के बाद रात भर उन्हें नींद नहीं आई। सोचती रहीं कि यह रचना क्योंकर छूट गई होगी। ग्रन्थावली के संस्करण में इसे जोड़ना होगा, आदि।
सहज सरल मास्टर जी यानि बख्शी जी के व्यक्तित्व की उदारता और सहजता, साहित्यिक जिम्मेदारी और आग्रह की परंपरा को नलिनी जी से मुलाकात कर जीवंत महसूस किया जा सकता है। प्रातः और नित्य स्मरणीय मास्टर जी को नलिनी जी के माध्यम से नमन।