Showing posts with label नदी के द्वीप. Show all posts
Showing posts with label नदी के द्वीप. Show all posts

Wednesday, November 6, 2024

नदी के द्वीप

अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप‘ चालीसेक साल पहले पढ़ चुका हूं, यह याद आया जहां तथ्य-सत्य या आंख मूंद कर दाढ़ी बनाने वाले जैसे प्रसंग आए। तब भी यह त्याग-बलिदान वाली भावुकता और आदर्श रूमानियत की प्रेमकथा ही समझ में आई थी। अब दुहराने पर जिन बातों की ओर ध्यान गया, उनमें कुछ शब्द थे, जैसे- ‘मुकुर‘, जिसका प्रयोग हिंदी साहित्य में कम ही होता है। ‘असूर्यम्पश्या‘ का प्रयोग मैंने शायद ही कहीं और देखा हो, अनुमान हो गया कि आशय ओट या परदा जैसा है- अ, सूर्य और पश्य, मिलकर बना है, यानि जिस पर सूर्य की नजर न पड़े। स्वैरिणी और पुंश्चली, शब्द के साथ याद आए मनोहर श्याम जोशी, भला हो कुरु कुरु स्वाहा की मुख्य पात्र- पहुची हुई चीज, यानी ‘पहुंचेली‘ यानी पुंश्चली। फिर ऐसे और कई शब्द आते गए, जिनके लिए अपने अनुमान पर संदेह हुआ और शब्दकोश खोलना पड़ा- विभ्राट, पलातक, कबरी, प्रत्याख्याता, ब्रीडा, धृष्णु, शबीह, जिघांसु, सीमन्त, म्रियमाण, रौंस, सरु, मालंच, तितीर्षु, प्राणोद्रेक, गोप्ता, उद्भ्रांत, कलौंस, अनाद्यन्त, बनौकस। 

आवश्यकीय जैसे कुछ अलग-से प्रयोग मिले। स्प्रिंग के लिए लचकीला तार मिला। तिरस्करणीय का प्रयोग हुआ है, जो नाटकों में यदा-कदा होता है, वहां भी यवनिका से काम चल जाता है। कुछ विशिष्ट वाक्यांश, जहां ठिठक जाना होता है- ‘सम्वेदना की झिलमिल छायित-द्योतित पन-चादर‘ या ‘चीड़ की कुकड़ियों की हल्की चटपट और विस्फूर्जित वाष्पों की फुरफुराहट जैसे स्वर-पृष्ठिका बन‘ और ‘मदालस भाव प्रतिकर्षित भाव और विस्फूर्जित भाव‘ आदि। युयुत्सा, शुभाशंसा, अनझिप जैसे शब्द, संभवतः यहां प्रयोग के बाद अधिक अपनाए जाने लगे। बताया जाता है कि कुछ शब्द अज्ञेय ने दुरुस्त कराया, जैसे- ‘पूर्वग्रह‘ न कि पूर्वाग्रह और ‘लोकार्पण‘ न कि विमोचन। 

कहानी भुवन, रेखा और गौरा के प्रेम त्रिकोण, बल्कि त्रिभुज या शंकु की है, अज्ञेय के ही एक शीर्षक को लेकर कह सकते हैं- त्रिशंकु। इसके पात्र दोराहे पर खड़े होते हैं- भुवन रेखा के रास्ते चलकर गौरा की ओर जाता है। चन्द्रमाधव, हमसफर पत्नी से छिटककर रेखा-गौरा के रास्ते चलने की कोशिश करता है और चन्द्रलेखा की राह पकड़ लेता है। रेखा के हेमेन्द्र से होते रमेशचन्द्र तक पहुंचने का पड़ाव भुवन है और यही पूरी कहानी का सूत्र है। 

भुवन को आदर्श और पूजनीय पात्र बनाया गया है, इस पर रचनाकार की छाया दिखती है। रेखा और गौरा, दोनों पात्रों का भुवन और चन्द्रमाधव के प्रति व्यवहार लगभग एक जैसा होना, रचनाकार की कमजोरी लगता है। दोनों में एक तरफ नारीसुलभ व्यावहार-कुशलता है और वहीं दोनों संस्कार, स्वेच्छा और कर्तव्य-भाव से पुरुष के प्रति ससम्मान समर्पण करती हुई हैं। 

यों यह आज की भी सचाई हो, मगर इस दौर में कितना अजीब लग सकता है, जब बार-बार ऐसी बातें आती हैं, जिनमें नारी पात्र पुरुष के पैरों की धूल लेती है, मेरे मालिक कहती है, चरण गोद में लेकर माथे से लगाती है। कहती है- सचमुच तुम्हारे पैर चूम सकती हूं ... चाहती हूं, झुक कर एक बार तुम्हारे चरणों की धूल ले लूं ... आपके पैरों से लिपट जाना चाहती हूं ... अपने को उत्सर्ग कर के आप के ये घाव भर सकती-तो अपना जीवन सफल मानती। स्त्री का पुरुष के प्रति सहयोग ‘रामजी की गिलहरी‘ वाला कहलाया गया है। पत्नी पति के जूते-मोजे खोलती है, आदि। 

वैश्विक परिस्थितियां, युद्ध, मानवीय भावनाएं व चिंतन, कहानी के दौरान वैचारिक निबंध का आकार ले लेते हैं। बड़ा अंश पत्राचार और उसका मजमून देते हुए है, पात्र-नामों के अलावा पचासेक पेज का ‘अन्तराल‘ शीर्षक अध्याय पूरा ही पत्रों का है। इसे पत्र-निबंध शैली का रूमानी उपन्यास कहा जा सकता है, जो अपने समय के मनस को बारीकी और गहराई से दर्ज करता है।