शीर्षक तो अनुप्रास-आकर्षण से बना, लेकिन बात सिर्फ दैनिक भास्कर और समाचार पत्र के भाषा की नहीं, लिपि और तथ्यों की भी है। समाचार पत्र में 'City भास्कर' होता है, इसमें एन. रघुरामन का 'मैनेजमेंट फंडा' नागरी लिपि में होता है। 'फनी गेम्स में मैंनेजमेंट के लेसन' भी नागरी शीर्षक के साथ पढ़ाए जाते हैं।
लेकिन नागरी में 'हकीकत कहतीं अमृता प्रीतम की कहानियां' पर रोमन लिपि में 'SAHITYA GOSHTHI' होती है।
हिन्दी-अंगरेजी और नागरी-रोमन का यह प्रयोग भाषा-लिपि का ताल-मेल है या घाल-मेल या सिर्फ प्रयोग या भविष्य का पथ-प्रदर्शन। ('भास्कर' 'चलती दुकान' तो है ही, इसलिए मानना पड़ेगा कि उसे लोगों की पसंद, ग्राहक की मांग और बाजार की समझ बेहतर है।)
बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्तविक तथ्य और उनकी दो कहानियों में आए छत्तीसगढ़ के स्थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्तीसगढ़ के रिश्ते के लिए।
बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्तविक तथ्य और उनकी दो कहानियों में आए छत्तीसगढ़ के स्थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्तीसगढ़ के रिश्ते के लिए।
पहले समाचार पत्रों में यदा-कदा भूल-सुधार छपता था, अब खबरों को ऐसी भूल की ओर ध्यान दिलाया जाना भी कठिन होता है, फोन पर संबंधित का मिलना मुश्किल और मिले तो नाम-परिचय पूछा जाता है, धमकी के अंदाज में। एक संपादक जी कहते थे, ''अखबारों की बात को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हो, अखबार की जिंदगी 24 घंटे की और अब तो तुम तक पहुंचने के पहले ही आउटडेट भी'' क्या करें, बचपन से आदत है समाचार पत्रों को 'गजट' कहने की, और मानते जो हैं कि गजट हो गया, उसमें 'छापी हो गया' तो वही सही होगा, गलती कहीं हमारी ही न हो, लेकिन यह भी कैसे मान लें। पूर्व संपादक महोदय की बात में ही दम है शायद।
पुनश्चः 3 जुलाई 2013 के अखबार की कतरन
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शीर्षक की भाषा और 'PREE' हिज्जे (स्पेलिंग) ध्यान देने योग्य है. |