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Wednesday, May 20, 2020

अमृत नदी


‘तीरे तीरे नर्मदा‘ में सौन्दर्य है और अमृत भी। यानि अमृतलाल वेगड़ की शब्द-कृतियां, ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा‘, ‘अमृतस्य नर्मदा‘ और ‘तीरे-तीरे नर्मदा‘, और साथ में भूयसी भी। ऋतचक्र, सृष्टि और जीवन के वृहत्तर से सूक्ष्मतर में सतत है, शायद यही मानव में परिक्रमा-वृत्ति बन कर विद्यमान है। लेखक की नर्मदा परिक्रमा, जल-रेखा के समानांतर प्रवाहित निष्ठा और समर्पण की जीवन-धारा ही है। परिक्रमा का यह विवरण ऐसा स्वाभाविक, इतना सहज कि लगे, विषय नदी-परिक्रमा जैसा हो तो बस लिख लेना पर्याप्त है। आस्था भी संक्रामक होती है, इतनी आस्था से लिखा गया कि आप लाख ‘तटस्थ‘ रहना चाहें, डुबकी लग ही जाती है। नर्मदा, पास बुलाती है, अपनी ओर खींचने लगती है। यों भी छत्तीसगढ़ी में ‘तीर‘ शब्द निकट के अलावा, तीरना बन कर खींचना अर्थ भी देता है।

कैसी उलटबांसी कि नर्मदा उल्टी बहती है, उसकी तो वैसी चाल, जैसी ढाल। वह ‘उल्टी‘ बहती ही शायद इसलिए, कि नदियों के बहने का भी उल्टा-सीधा तय किया जाने लगा। परिक्रमा, रेखा को वृत्त-मंडल बना देती है, जितनी भी दूरी नाप लें, भौतिक विस्थापन शून्य रहेगा। नर्मदा परकम्मा, परिक्रमा है, उसमें खंड परिक्रमा है और जिलहरी परिक्रमा यानि समुद्र संगम को लांघे बिना दुहरी परिक्रमा भी। पुस्तक में ‘नर्मदा‘ नाम को रह जाती है, उद्दीपक, अन्यथा बस नदी और जीवन प्रवाह। यों तो धर्मशालाएं हैं और निरंतर सदावर्त भी, लेकिन एक ऐसे संन्यासी का उल्लेख है, जिसे कुछ न मिले ‘‘तो माँ का दूध।‘‘ यानि नर्मदा का पानी। नदी-तट की ऐसी यात्रा पराक्रम से कम नहीं, लेकिन परकम्मावासी की आस्था-दृष्टि सफर की अड़चनों को जिस तरह देखती है, उसका एक नमूना- ‘‘मैंने ढिबरी और मोमबत्ती के काकभगौड़े खड़े करके जाड़े को भगा दिया था!‘‘ लेकिन इनमें शायद सबसे सुंदर वह जिसमें किसी ने परकम्मा अमरकंटक से उठाई, बछिया साथ लेकर। गाय बनी और रेवा-सागर संगम पर बछिया को जन्म दिया। गाय का नाम नर्मदा, बछिया रेवा। बताता है- ‘‘सच तो यह है कि परकम्मावासी तो गाय है। मैं तो उसके साथ-साथ चल रहा हूँ। मालिक वो है, मैं उसका नौकर हूँ। हाँ उसकी ओर से संकल्प मैंने किया था।‘‘

लेखक, चित्रकार हैं और उनके कोलाज रेखाचित्रों के साथ इस मुखर चितेरे की यह शब्द-कृति पुस्तक बनी। परिचय में कहा भी गया है कि ‘‘अमृतलाल के शब्दचित्र और रेखाचित्र बहुत घनिष्ठ सजातीय हैं। स्वाभाविक ही इस चितेरे के मन में बार-बार उभरते बिंब, शब्दों में, कहीं कविता की तरह भी ढलते जाते हैं। वे कहते हैं- ‘‘सरसों के पीले खेत देखकर मुझे बार-बार बसोहली शैली के चित्र याद आ जाते।‘‘ या ‘‘अमूर्त शिल्पों की विशाल कला-वीथी है यहाँ।‘‘ और ‘‘सुन्दर घाट इस तट से और भी सुंदर लग रहे थे। मानो किसी बड़े तैलचित्र की तरह अंकित हों।‘‘ जोशीपुर से होशंगाबाद होते बान्दराभान पहुंच कर ‘‘बान्दराभान में सूर्योदय‘‘ का गंभीर काव्यात्मक चित्रण यह कहते हुए किया है कि पत्रकार होता तो रिपोर्टिंग कुछ इस तरह करता, फिर मजे-मजे में सम्पादक, अखबार की खबर लेते, खुद पर हंसने का मौका भी बना लेते हैं।

पुस्तक में सोन का उद्गम अमरकंटक कहा गया है, यह मान्यता है, लेकिन तथ्य नहीं। यहां लेखक न सिर्फ मान्यताओं के साथ है, बल्कि तथ्य का उल्लेख भी नहीं करता। इसी तरह बात आती है- ‘‘गरीबा ने कहा कि वह धामन साँप था जो बहुत जहरीला होता है।‘‘ धामन जहरीला कतई नहीं, बल्कि वह तो बेहद घरु किस्म का प्यारा, दुलारा मित्र-सर्प है। छत्तीसगढ़ी कहावत है- ‘कहां जाबे रे धमना, किन्दर बूल के एही अंगना‘। धामन, किसान के घरों में धान की कोठी में रहता है, कहीं जाता नहीं, घूम-फिर कर वहीं बना रहता है, मनुष्य को देखकर तेजी से भागता है और चूहों को आहार बना कर किसान की नुकसानी कम करता है। उजियारा और अंधियारा पाख की चर्चा करते लेखक ‘‘अँधियारा पाख व्यर्थ बदनाम है‘‘ कहता है, वहां लगता है कि उसने मानस की पंक्ति ‘सम प्रकास तम पाख दुहुँ ...‘ को आत्मसात किया है। इसके अलावा चांद के लिए कुछ और बेहतरीन बयान हैं, जैसे- ‘‘चाँद सर्जक नहीं, अनुवादक है। वह धूप का चाँदनी में अनुवाद करता है।‘‘ या ‘‘राहु एक चंचल बिलौटा है और पूनम का चाँद खीर का कटोरा।‘‘

यात्रा के बहुतेरे स्फुट प्रसंग हैं, यहां उनमें कुछ का उल्लेख। बैगा रोते हुए भूखे बच्चे को चुप नहीं कराता, खाना नहीं है, देने को तैयार भी नहीं, कहता है ‘‘उसे भूखा रहना सीखना होगा। उसे भूखा रहने की आदत डालनी होगी।‘‘ यहां बैगा का कथन दीन-हीन बेचारगी का नहीं है, बल्कि बच्चे को भूखा रखना वैसा ही है जैसा व्रत-उपवास। जनजातीय समुदाय में ऐसी कई परंपराएं हैं, जो प्रकृति और जीवन की विषम परिस्थितियों को बरदाश्त करने के अभ्यास की तरह होती हैं। वैसे आधुनिक शिशु-पोषण विज्ञानी भी अब सलाह देते हैं कि छोटे बच्चों को निश्चित समय पर आहार देने से उन्हें भूख का वैसा अहसास नहीं हो पाता, इसलिए थोड़ी अनियमितता, कुछ समय के लिए भूखा रखना जरुरी है। नवजात की सिंकाई की जाती है, उसे मालिश कर थकाया जाता है, यह किसी न किसी रूप में हर जगह प्रचलित है। कुसमी-सरगुजा अंचल के कुछ जनजातीय समुदाय में मानव-नवजात को अधपका माना जाता है और उसे ‘पकाने‘ के लिए धूप मिट्टी में खुले बदन छोड़ दिया जाता है। यह रूढ़ नासमझी नहीं, वस्तुतः सिंकाई, मालिश-एक्यूप्रेशर और मृदा-स्नान का आदिम-वैज्ञानिक तरीका है। एक अन्य जनजातीय परंपरा का उल्लेख आया है, जिसमें कहा गया है कि- ‘‘कन्यादान लड़की का पिता करता है, दाता वह है। दाता की शोभा इसी में है कि वह खुद जाकर दान करे, किसी को माँगने के लिए उसके घर न आना पड़े। इसीलिए वह बेटी की बारात लेकर लड़के वालों के घर जाता था। यह ब्रह्मर्षि विवाह है। जिसमें लड़का बारात लेकर लड़की के घर जाता है, यह राजर्षि विवाह है। लेकिन अब इसी का रिवाज है।‘‘

कलम का जादू है या जलधारा का, लेखक के ललित गद्य और कविता में अंतर नहीं रह जाता, लेकिन वे स्वयं अपने लेखन और कविताई की मौज लेते हैं। अपने तईं कविता करते हुए लिखते हैं- ‘‘बादल उड़ती नदी है, नदी बहता बादल है।‘‘ और बताते हैं कि नोटबुक में लिखी पंक्तियाँ, उनके कवि मित्र द्वारा इसे कविता न मानते हुए रद्द कर दी गई। यहां मुझ जैसा पाठक तो उनके कवि मित्र को ही रद्द कर देना चाहेगा। ऐसी ही एक सुरमयी पंक्ति है- ‘‘अगर चट्टानें न हों, तो नदी से गाते ही न बने।‘‘ या नर्मदा के साथ उसकी सहायक नदियों से अपना नाता जोड़ते हुए कहना कि ‘‘मौसी का प्रेम माँ के प्रेम से कम नहीं होता‘‘, (प्रसंगवश राही मासूम रजा ने कहा था- ‘मैं तीन माओं का बेटा हूँ। नफीसा बेगम, अलीगढ़ युनिवर्सिटी और गंगा।‘ इसी तरह ‘दर दर गंगे‘ पुस्तक का पात्र अयाज़ इससे भी एक कदम आगे की बात कहता है- ‘‘गंगा मैया, तेरे आगे मां भी मौसी लगती है।‘‘) न ही नर्मदा-महिमा गाते उनका मन भरता, ढाई-एक सौ पेज के यात्रा-संस्मरण को कहते हैं ‘‘चिड़ी का चोंच भर पानी‘‘ और नर्मदा की सहायक बुढ़नेर, बंजर, शक्कर नदियों की परिक्रमा कर उसका भी लेखा यहां जोड़ लेते हैं।

लेखक, नदी के साथ उसकी संस्कृति का दर्शन, सहज कराता चलता है- ‘‘पर्वत की देवी हैं- पार्वती, हिमालय की बेटी। मैदान की देवी हैं सीता जो राजा जनक को हल चलाते समय खेत में मिली थीं। और समुद्र की देवी हैं लक्ष्मी जो समुद्र मन्थन में से निकली थीं। मजे की बात यह है कि तीनों के ही भाई नहीं हैं। इनमें से किसी के भी माता-पिता ने बेटे के लिए मनौती मानने की आवश्यकता नहीं समझी।‘‘ नर्मदा महिमा-मंडन में संस्कृति-संगम का भाव आता है, इस तरह- ‘‘कहते हैं गंगा सप्तमी के दिन गंगा नर्मदा में स्नान करने आती है।‘‘ और इसी तरह के कहन को याद करते हैं- ‘‘नर्मदा की नहायी छोरी है, संस्कार अच्छे कैसे नहीं होंगे!‘‘ पुस्तक में यह भी अच्छी तरह रेखांकित हुआ है कि नदियां, यहां नर्मदा, भाषा-संस्कृति की टूट को, भेद को जोड़ती है। ‘‘मेहंदी ते बाबू मालवे नेनो रंग गयो गुजरात रे!‘‘ यानि मेंहदी तो मालवे में लगायी, पर उसका रंग गुजरात जा पहुँचा। लेखक, स्वयं के उदाहरण सहित अन्य निवासियों के प्रदेश अदला-बदली का भी उल्लेख करते हैं। छत्तीसगढ़ का उल्लेख आता है और सहयात्री बने हैं- रायपुरवासी (अब बैकुण्ठवासी) आचार्य सरयूकान्त झा। आचार्य झा नर्मदा यात्रा और इस यात्रा संस्मरण में ऐसे रमे कि छत्तीसगढ़ी अनुवाद ‘सुन्दरता के नदी नरबदा‘ और ‘अमृत के नरबदा‘ उनके जीवन की अंतिम इच्छा बन गई थी (अंतिम मुलाकात में जैसा उन्होंने मुझसे कहा था), जो अब प्रकाशित भी हो गई है।

पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर श्रीमती कान्ता वेगड़ का ‘मेरे पति‘ है, जिसे पढ़ते हुए लगता है कि यह भी अमृतलाल जी ने ही लिखा है, यहां वाक्य है- ‘‘उनके साथ रहते-रहते मैं भी उनके रंग में कितना रंग गयी हूँ ...‘‘, इसलिए ऐसा लगना स्वाभाविक ही है, साथ ही पुस्तक के अंत में प्रकाशित चित्र, दम्पती कितने एकरूप हो गए हैं, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
गति-स्थिति का दर्शन है यह पूरा यात्रा-वृत्तांत। लेखक महसूस करता है कि ‘‘अमरकंटक से चलते समय उसमें प्रस्थान का जैसा उत्साह था, यहाँ मंजिल पर पहुँचने का वैसा ही संतोष है।‘‘ मगर नदी-यात्रा के प्रति लेखक का ‘अतृप्त‘ मन भी कुछ इस तरह है- ‘‘एक जीवने रे लाखो उपाधि, केम जीवे जीवनार रे! जीवन एक है और परेशानियाँ लाख-लाख, जीने वाला जीये तो कैसे जीये! और शायद इसीलिए वे कहते है- ‘‘अगर पचास या सौ साल बाद किसी को एक दम्पती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे ... तो समझ लीजिएगा कि वे हमीं हैं- कान्ता और मैं।‘‘ हर नर्मदे!