शीर्षक का शब्द 'ज़िंदगीनामा' पिछले 26 बरस से दो शीर्ष महिला साहित्यकारों, दिवंगत अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के (तिरिया हठ की तरह) कानूनी विवाद का कारण बना रहा। फैसले आने पर कृष्णा जी ने शायद सब के मन की बात को अपना शब्द दे दिया है कि फैसले पर रोया तो नहीं जा सकता और कोर्ट का मामला है सो इस पर हंसना भी मुश्किल है।
अमृता प्रीतम की पुस्तक 'हरदत्त का ज़िंदगीनामा' है और कृष्णा सोबती के जिस ज़िंदगीनामा पुस्तक को मैं याद कर पा रहा हूं, उस पर शीर्षक के साथ 'ज़िन्दा रूख' शब्द भी था। विवाद था कि ज़िंदगीनामा किसका शब्द है। अच्छा लगा कि शब्दों के लिए इतनी संजीदगी है लेकिन दूसरी तरफ यह भी सोचनीय है कि हमारे न्यायालय के मामलों की अधिकता में पूरे 26 बरस एक संख्या बढ़ाए रखने में यह मुकदमा भी रहा।
खबर के साथ इस मामले पर ढेरों बातें हो रही हैं, लेकिन यहां जिक्र अमृता प्रीतम की जिंदगी के कुछ सफों की। रिश्तेदारी के कारण वे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और इस ब्लॉग सिंहावलोकन के यूआरएल वाले अकलतरा से घनिष्ठ थीं। उनकी कहानी 'गांजे की कली' में तब के बिलासपुर और वर्तमान जांजगीर-चांपा जिले के झलमला, चण्डीपारा (अब पामगढ़ गांव का मुहल्ला), नरिएरा (नरियरा) गांवों का जिक्र, छत्तीसगढ़ी संवाद व गीत सहित है।
इसी तरह कहानी 'लटिया की छोकरी' का एक वाक्य है- ''बिलासपुर से उन्नीस मील दूर अक्लतरे में साबुन का कारखाना खोल दिया।'' यह साबुन कारखाना, लोगों की स्मृति में अब भी 'भाटिया सोप फैक्ट्री' के रूप में सुरक्षित है। अक्लतरे यानि अकलतरा और कहानी का लटियापारे, पास का गांव लटिया है। दोनों कहानियों के पात्र और घटनाओं की सचाई लोगों को अब भी याद हैं, लेकिन इसे अफसाना ही रहने दें।
अमृता प्रीतम की जिंदगी, ज़िंदगीनामा में नहीं, उनकी रचनाओं में रची-बसी है। यह भी संयोग है कि 'ज़िंदगीनामा' विवाद में इस शब्द के पहली बार इस्तेमाल पर खुशवंत सिंह का बयान आया। यहां स्मरण करें अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' के लिए खुद क्या बयां किया है-
''एक दिन खुशवंत सिंह ने बातों-बातों में कहा, 'तेरी जीवनी का क्या है, बस एक-आध हादसा। लिखने लगो तो रसीदी टिकट की पीठ पर लिखी जाए।'
रसीदी टिकट शायद इसलिए कहा कि बाकी टिकटों का साइज बदलता रहता है, पर रसीदी टिकट का वही छोटा-सा रहता है।
ठीक ही कहा था-जो कुछ घटा, मन की तहों में घटा, और वह सब नज्मों और नॉवेलों के हवाले हो गया। फिर बाकी क्या रहा ?
फिर भी कुछ पंक्तियां लिख रही हूं-कुछ ऐसे, जैसे जिन्दगी के लेखे-जोखे के कागजों पर एक छोटा-सा रसीदी टिकट लगा रही हूं-नज्मों और नॉवेलों के लेखे-जोखे की कच्ची रसीद को पक्की रसीद करने के लिए।''
अमृता जी की अकलतरा से घनिष्ठता के खुलासे के लिए कई संवाद-संदेश मिले। सो संक्षेप में बात इतनी कि चार भाई सर्वश्री सरदार सिंग, मानक सिंग, लाभ सिंग और अमोलक सिंग विभाजन के समय अकलतरा आए। इनमें से निःसंतान मानक सिंग, जिनके जीवन की झलक 'गांजे की कली' में है तथा अनब्याहे रह गए लाभ सिंग, अकलतरा से अधिक जुड़े रहे। अमोलक सिंग के पुत्र प्रीतपाल सिंग भाटिया ने बताया कि उनकी मां श्रीमती सुखवंत कौर का लालन-पालन नाना ने किया था, वही अमृता जी के पिता (हितकारी तखल्लुस से लिखने वाले) हैं। सुखवंत और उनकी मौसी अमृता में उम्र का कम अंतर होने से बहनापा था। प्रीतपाल जी के साहित्यकार पिता यानि अपने भतीजी दामाद अमोलक सिंग से वृत्तांत और पृष्ठभूमि जानकर ही अमृता जी ने ये दोनों कहानियां लिखीं। प्रासंगिक होने के नाते इतना जोड़ देना पर्याप्त और बाकी की कहानी, कहानी ही बनी रहे।